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दलितों का उत्थान और बौद्धधम्म-दर्शन * 49 विषमता, असमानता होती है और जातीय समाज में भी विषमता, असमानता होती है, लेकिन दोनों समाज व्यवस्थाओं में व्याप्त विषमता और असमानता का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। वर्गीय समाज में व्यक्ति की आर्थिक स्थिति बदलने से उसका वर्ग बदलता है और उसका सामाजिक स्तर, सामाजिक प्रतिष्ठा बदल जाती है, लेकिन जातीय समाज में आर्थिक स्थिति बदलने से व्यक्ति का सामाजिक स्तर, प्रतिष्ठा बदलती नहीं है, क्योंकि वह उसको जन्म से, जाति से प्राप्त होती है। भारतीय समाज जातीय समाज होने से और जाति-व्यवस्था को धार्मिक और दार्शनिक आधार प्राप्त होने से भारतीय समाज से जातिव्यवस्था को समाप्त करना एक तरह से असम्भव माना गया है। भारत में आज भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि, 'जो जाती नहीं वह जाति है' मतलब जो नष्ट होने वाली नहीं वह जाति है। भारत की जातिव्यवस्था को वंशवाद या नस्लवाद का कोई विशेष आधार प्राप्त नहीं है। भारत में जातिवाद, जातिभेद, अछूतपन का सबसे बड़ा आधार हिंदू धार्मिक और दार्शनिक है और भारत के वैदिक साहित्य में और बाद के वेदप्रेरित सम्पूर्ण हिंदू धार्मिक साहित्य में जातिवाद, जातिभेद का समर्थन है। संपूर्ण वैदिक धर्म और दर्शन अपने धार्मिक सिद्धान्तों के द्वारा, अपने आत्मवाद, ईश्वरवाद, कर्मवाद के द्वारा जातिवाद का समर्थन करता है। यहां ईश्वर का अवतार भी जातिवाद की रक्षा के लिए ही होता है। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हिंदू संस्कृत साहित्य में उपलब्ध हैं। इसलिये हिंदू धर्म में रहते हुए जातिवाद, जातिभेद, अछूतपन समाप्त नहीं हो सकता। यही डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर की मान्यता थी और जातिभेद, जातिवाद, अछूतपन के रहते हुए दलितों का उत्थान हो नहीं सकता, यह उनका निष्कर्ष था और अनुभव भी। डॉ. अम्बेडकर ने अपने साहित्य में जाति के उत्पत्ति के कारणों की विस्तार से चर्चा की है। यहां उन्होंने बौद्धधर्म के प्रसिद्ध सिद्धान्त कार्यकारणवाद के आधार पर भारत के जातिवाद के उत्पत्ति के कारणों का विश्लेषण किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत की जातिवाद और अछूतपन की समस्या का हल बौद्धधम्म को अपनाने में ही है, क्योंकि बौद्धधम्म और दर्शन ज़ातिवाद, अछूतपन को स्वीकार नहीं करता है और यह धम्म भारत की भूमि में ही प्रवर्तित हुआ है जिसके साहित्य में, दर्शन में जाति के हर पहलू का खण्डन है। डॉ. अम्बेडकर की यह भी मान्यता थी और अनुभव भी था कि भारत का और संसार का अन्य कोई भी धर्म जो आत्मवादी है, ईश्वरवादी है, अलौकिकतावादी है, पुरोहित प्रधान है, दैववादी है वह भारत की जातिव्यवस्था को नष्ट नहीं कर सकता। इसलिये डॉ. अम्बेडकर ने भारत से जातिभेद को समाप्त करने के लिए अछूतपन को समाप्त करने के लिये दलितों के उत्थान के लिये बौद्धधम्म और दर्शन को अपनाया था।
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