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. 48 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला भगवान बुद्ध की मूल प्रेरणा रही है। बुद्ध की बोधिप्राप्ति (बुद्धत्व) के बाद एक अभिमानी ब्राह्मण (जन्म से) उनके पास आया और उसने भगवान बुद्ध से कहा था कि, 'ब्राह्मण कैसे होता है? ब्राह्मण बनाने वाले कौन से धर्म (गुण) हैं?' इसका उत्तर देते हुए भगवान बुद्ध ने 'ब्राह्मण' की जो वेद, वेदान्त मान्य व्याख्या है उसका खंडन किया था। उसी प्रकार उन्होंने जन्म के आधार पर ब्राह्मण, अब्राह्मण के मत का भी खंडन किया था। उन्होंने जन्म से नहीं बल्कि पापरहित, मलरहित, अहंकारशून्य, संयमित जीवन जीने वाले को ब्राह्मण कहा है। यह उनकी ब्राह्मण शब्द की नई व्याख्या थी जो उस समय के ब्राह्मणों को बिल्कुल मान्य नहीं थी और आज भी ब्राह्मण लोग भगवान बुद्ध की 'ब्राह्मण' शब्द की उस व्याख्या को स्वीकार नहीं करते हैं। यहां हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि, 'ब्राह्मण' शब्द की नई व्याख्या देकर भगवान बुद्ध ब्राह्मण शब्द के पास ही नहीं रुकते हैं, बल्कि उनका चिन्तन आगे ही बढ़ता जाता है। वे बुद्धत्व प्राप्ति के बाद धम्मचक्क प्रर्वतन के लिए सारनाथ जाते हैं और वहाँ धम्मचक्र का प्रवर्तन करने के बाद भिक्खुसंघ की स्थापना करते हैं। उनका भिक्खुसंघ इकसठ (61) अर्हतों का हो जाता है, तब वे इन इकसठ अर्हतों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, 'भिक्खुओं! जितने भी दिव्य और मानुष बन्धन हैं, मैं (उन सभी) से मुक्त हूँ, तुम भी दिव्य और मानुष बन्धनों से मुक्त हो। भिक्खुओं! बहुत जनों के हित के लिये, बहुत जनों के सुख के लिये, लोकपर दया करने के लिये, देवताओं, मनुष्यों के प्रयोजन के लिये, हित के लिये, सुख के लिये विचरण करो। हे भिक्खुओं! आदि में कल्याणकारक, मध्य में कल्याणकारक, अन्त में कल्याणकारक इस धम्म का उपदेश करो। अर्थ सहित व्यंजनसहित, केवल परिपूर्ण परिशुद्ध भिक्खु जीवन का प्रकाशन करो। भगवान बुद्ध के द्वारा सारनाथ में धम्मचक्र प्रवर्तन के बाद भिक्खुसंघ की स्थापना करके भिक्खुओं को यह जो उपदेश (आदेश) दिया गया, उसी में भगवान बुद्ध की सामाजिक समानता के प्रति प्रतिबद्धता का सिद्धांत छिपा हुआ है। बौद्धधर्म अपने जन्म से ही सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक बदलाव और सामाजिक समानता के सरोकारों से प्रतिबद्ध है। इसलिये आधुनिक भारत में डॉ.बाबासाहेब अम्बेडकर ने दलितों के उत्थान के लिये भगवान बुद्ध और दर्शन को एक क्रांतिकारी धम्म और दर्शन के रूप में जाना और स्वीकार किया है। भारतीय समाज का स्वरूप
प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज का स्वरूप जातीय है, वर्गीय नहीं है। जातीय समाज में व्यक्ति का स्थान और महत्त्व जन्मगत जाति पर आधारित होता है। जातीय समाज में व्यक्ति के व्यक्तित्व, उसके अच्छे-बुरे कर्म का कोई महत्त्व नहीं होता, लेकिन वर्गीय समाज में अच्छे व्यक्ति के अच्छे-बुरे कर्म का महत्त्व होता है, उसका सामाजिक महत्त्व उसकी आर्थिक सम्पन्नता-विपन्नता पर निर्भर करता है। वर्गीय समाज में भी
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