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162 * बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला
विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान् यही दुःख-सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान ,
इतना अवश्य है कि उनकी दृष्टि में संसार के अन्तर्गत सुख की अपेक्षा दुःख का आधिक्य है और ऐसे दुःखमय संसार में बुद्ध ही सतत व्याकुलता के विश्राम' हैं। प्रसाद के 'लहर' काव्य संग्रह की कविता 'वरूणा की शांत कछार' में बुद्ध को सांसारिक दुःख का निदान कर प्राणियों का उद्धार करने वाला कहा गया है
"दुःख का करने सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार।
सुनाने आवश्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार।14 2. क्षणिकवाद :
बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद का प्रबल प्रचारक है क्योंकि वहाँ संसार के साथ ही आत्मा को भी क्षणिक एवं परिवर्तनशील बताया गया है और इसकी तुलना दीपशिखा से की गई है। 'मिलिंद प्रश्न' में राजा मिलिंद नागसेन से प्रश्न करते हैं- 'जो उत्पन्न होता है, क्या यह वही व्यक्ति है या दूसरा? इस पर नागसेन उत्तर देते हैं, 'न वही है और न दूसरा।' इस बात को वे 'दीप-शिखा' के उदाहरण से समझाते हैं- 'जो दीपक रात के प्रथम प्रहर में जलता है, क्या रातभर वही दीपक जलता रहता है? साधारण दृष्टि से यही दिखाई देता है कि रातभर दीपक की एक ही लौ विद्यमान रहती है, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि दीपशिखा का आकार-प्रकार बदलता रहा, उसकी शिखा प्रतिक्षण अपना रूप बदलती रही, यही दशा आत्मा की भी है।"5 प्रसाद ने अशोक की चिन्ता' नामक कविता में संसार के संपूर्ण वैभव की क्षणभंगुरता की ओर संकेत किया है। यह क्षणिक चल रहा राग-रंग' कहकर सांसारिक सुखों की क्षणिकता और 'देखा क्षणभंगुर है तरंग' के माध्यम से सांसारिक उपादानों की नश्वरता प्रतिपादित की गई है। 'अजातशत्रु' नाटक में प्रसाद गौतम बुद्ध का प्रवेश कराते हुए उनके माध्यम से द्वंद्वपूर्ण जगत् का विश्लेषण इस प्रकार करते हैं
"अणु-परमाणु, दुःख-सुख, चंचल, क्षणिक सभी सुख-साधन हैं दृश्य सकल नश्वर परिणामी- किसको दुःख, किसको धन है
क्षणिक सुखों को स्थायी कहना दुःख-मूल यह भूल महा चंचल मानव! क्यों भूला तू, इस सीठी में सार कहाँ ?" 16
14. लहर, पृ.१ 15. बौद्ध दर्शन, पृ. 104-105 16. अजातशत्रु, प्रथम अंक, पृ. 42
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