________________ बुद्ध-वाणी यदा तुम्हे कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ-इमे धम्मा अकुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा वि गरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ती ति अथ, तुम्हे कालामा पजहेय्याथ। - केसमुत्ति सुत्त जब तुम स्वानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञपुरुषों द्वारा निन्दित हैं, इन बातों पर चलने से अहित होता है, दुःख होता है-तब हे कालामो! तुम उन बातों को छोड़ दो। ___ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्यु, संघस्स वा अवण्णं भासेय्यु, तत्र तुम्हेहि न आघातो न अप्पचयो न चेतसो अनभिरद्धि करणीया। ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, संघस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो। __ - दीघनिकाय, सीलक्खन्धवग्ग, ब्रह्मजालसुत्त बुद्ध कहते हैं - हे भिक्षुओं! कोई मेरी या मेरे धर्म या संघ की निन्दा करे, इस कारण तुम्हें उसके प्रति न वैर करना चाहिए, न असंतोष और न क्रोध ही / हे भिक्षुओं! यदि कोई मेरी, धर्म तथा संघ की निन्दा करे, उस पर तुम वैर, असंतोष या क्रोध प्रकट करोगे तो इससे तुम्हारी धर्म साधना में विघ्न पड़ेगा। अतः तुम्हें निन्दा करने वाले की बात पर विचार करना चाहिए कि उसमें कितना सत्य है और कितना असत्य / सत्य को स्वीकार कर, असत्य को मिथ्या समझकर त्याग देना चाहिए। असुभा भावेतब्बा रागस्स पहानाय, मेत्ता भावेतब्बा व्यापादस्स पहानाय, अनिच्चसा भावेतब्बा अस्मिमानसमुग्घाताय। - विसुद्धिग्ग, कम्मट्ठ नग्गहणनिदेस व्यक्ति को राग के प्रहाण के लिए अशुभ की भावना करनी चाहिए, द्वेष के प्रहाण के लिए मैत्री की भावना करनी चाहिए और अभिमान अहंकार को दूर करने के लिए अनित्यसंज्ञा की भावना करनी चाहिए। परदुक्खे सति साधूनं हृदयकम्पनं करेतीति करुणा -विसुद्धिमग्ग, ब्रह्मविहारनिद्देसो पर दुःख को देखकर सत्पुरुषों के हृदय में जो कम्पन्न होता है, वही करुणा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org