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________________ बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की महत्ता * 29 मनुष्य अपना स्वामी आप है, अपने ही अपनी गति है, इसलिये अपने को संयमी बनाये, जैसे कि सुन्दर घोड़े को बनिया संयत करता है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि आत्मा (अत्ता) का शाश्वत आत्मा से कोई संबंध नहीं है। अंगुत्तनिकाय के तिकनिपात में 'अत्ता' शब्द का प्रयोग हुआ है और हमारे विज्ञान के बहुत निकट है - नत्थि लोके रहो नाम, पापकम्मं पकुब्बतो। अत्ता पे पुरिस जानाति, सच्चं या यदि वा मुसा।। कल्याणं वत भो सक्खि, अत्तानं अतिमञ्जसि। यो सन्तं अत्तानि पापं, अत्तानं परिगृहसि।।30 अर्थात् पापकर्म करने वाले के लिये लोक में छिपकर काम करने की जगह नहीं है। हे पुरुष! जो कुछ तू अच्छा या बुरा करता है, यह सत्य या मृषा (मिथ्या) है, यह बात तेरी अपने आप तो जानता ही है। हे मित्र! तू सुन्दर है, पर अपने आप का ही अपमान करता है, तुम अपने पाप को अपने आप से ही छिपाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के लिये उत्तरदायी होता है। इस बात को पौराणिक ढंग से मज्झिमनिकाय के देवदत्तसुत्त में कहा गया है। यमराज दुष्कृत करने वाले व्यक्ति को उत्पीड़कों को सौंपने के पूर्व कहते हैं कि तुम्हारे कार्य तुम्हारे माता-पिता, भाइयों, बहनों, मित्रों, सगोत्रवर्ग, श्रमणों, ब्राह्मणों या देवताओं के द्वारा नहीं किये गये हैं. बल्कि तुम्हारे द्वारा ही किये गये हैं, अतः तुम्ही फल के भुगतने वाले होओगे। निकायों में अन्य अनेक स्थल है जहाँ अत्ता' शब्द का प्रयोग है, किन्तु उन सभी स्थलों पर सांवृतिक अर्थ है, न कि 'शाश्वत आत्मा'। हम इसे मोटे प्रकार से ऐसे समझ सकते हैं - 'अनत्त' अर्थात अपना नहीं। हमारा यह रूप अपना नहीं हैं, हमारे साथ स्थाई बना रहने वाला नहीं है, हमारी वेदनायें भी अपनी नहीं है, संस्कार और विज्ञान भी अपने नहीं है। संसार में कोई भी वस्तु नहीं है जो हमारी अपनी है। अपने न होने का कारण भी है, क्योंकि वे सभी अनित्य है। अनित्य होने के कारण वे सभी दुःख हैं। ___ आत्मवादियों का अनात्मवादियों से प्रश्न होता है कि यदि आत्मा नहीं है तो पुनर्जन्म किसका होता है? उत्तर है - दूसरे जन्म में प्रवेश चित्तसन्तति या विज्ञानसन्तति के कारण होता है। विज्ञान का उत्पाद और निरोध सतत चलता रहता है, एक क्षण का भी अन्तर नहीं होता। चित्तोत्पाद और चित्तलय की क्रियायें एक दूसरे के अपूर्व और 30. अ.नि.भा. 1,तिक निपात, पृ. 137 31. तं खो पन ते एतं पापकम्म नेव मातरा कतं न पितरा कतंन भातरा कतंन भगिनिया कतं न मित्तमच्चेहि कतं न जातिसालोहितेहि कतं न सामणब्राह्मणेहि कतं न देवताहि कतं, तयावेतं पापकम्मं कतं, त्वजेवेतस्स विपाकं पटिसंवेदिस्ससि। मज्झिमनिकाय (म.नि.) भा. 3 पृ. 254 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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