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हिंसा एवं आतंकवाद के निवारण में बौद्ध धर्म की भूमिका * 43 आर्य अष्टांगिक मार्ग, शील-समाधि-प्रज्ञा, ब्रह्मविहार आदि के माध्यम से निराकरण या निवारण की सम्भावनाओं का अन्वेषण किया जा सकता है।
आर्य अष्टांगिक मार्ग - हमें यह सुविदित है कि भगवान् बुद्ध के समय जितनी भी दार्शनिक पद्धतियाँ या चिन्तन-परम्पराएं प्रचलित थीं, उन्हें स्थूल रूप से उन्होंने दो भागों में रखा- शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद। इनमें से एक जगतू एवं जीवन को मिथ्या मान कर आत्मशुद्धि हेतु अत्यधिक शारीरिक कष्ट को उचित मानता था तथा दूसरा इसी जगत् एवं जीवन को सर्वस्व मानकर किसी भी प्रकार से इसे सुखी बनाने हेतु प्रयास करने पर जोर देता था, भले ही इसमें किसी प्रकार की अनैतिकता का समावेश हो। बुद्ध की दृष्टि में ये दोनों ही जीवन की दो अतियां हैं। इसलिए उन्होंने इन दोनों के मध्य का मार्ग अपनाने की शिक्षा दी और नाम दिया - मज्झिमा पटिपदा (मध्यमा प्रतिपदा) इसके आठ अंग है - सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि।'
इन आठों मार्गों के अर्थ एवं महत्ता से हम भलीभांति परिचित हैं। इसलिए मैं इनके विस्तृत विवेचन को छोड़ रहा हूँ। मात्र इतना निवेदन करना चाहता हूँ कि यदि अष्टांगिक मार्ग का पालन किया जाए तो हमारी दृष्टि या सोच संतुलित, पवित्र, विस्तृत एवं संवेदनशील होंगे। तभी हमारा संकल्प सार्थक संकल्प होगा। यदि वाणी सत्य होगी, मृदुभाषण एवं सार्थक सम्भाषण पर आधारित होगी तो हम दूसरों की बात धैर्यपूर्वक सुनेंगे और उन्हें भी यथोचित मान देने का यत्न करेंगे।
- सम्यक् कर्म तथा आजीविका अपनाने पर घूसखोरी, लूट-खसोट, व्यभिचार आदि से हम बचे रह सकेंगे। सम्यक् व्यायाम हमें बुरे विचारों के दमन एवं सद्विचारों की अभिवृद्धि की शक्ति देगा। सम्यक् स्मृति कुविचारों को मन में पनपने नहीं देगी और कल्याणकारी लाभप्रद विचारों को अपनाने की प्रेरणा देगी। इसी प्रकार सम्यक् समाधि चित्त को विक्षेप एवं यत्र-तत्र भटकाव को रोकने में मदद करेगी।
अष्टांगिक मार्ग के अतिरिक्त चार ब्रह्मविहार हैं - मेत्ता (मैत्री), करुणा, मुदिता एवं उपेक्खा (उपेक्षा)। हमारे मन में स्थित वैमनस्य, घृणा, प्रतिहिंसा आदि दुर्भावनाओं को दूर कर सबके प्रति कल्याणभाव के विकास में मैत्री सहायक होती है। इसका लक्षण . ही है बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के सबके प्रति हितचिन्तन - 7. द्वे मे भिक्खवे, अन्ता पब्बजितेन सेवितब्बा। कतमे द्वे यो च कामेसु कामसुखल्लिकानुयोगो हीनो
गम्मो पोथुज्जनिको अनत्थसंहितो... । यो च अत्तकिलमथानुयोगो हीनो गम्मो पोथुज्जनिको अनत्थ संहितो... । उभो पेते अनुपगम्म मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा चक्खुकरणी जाणकरणी अभिज्ञाय,सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति.... सम्मादिट्ठि,सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माजीवो, सम्मावायामो, सम्मा सति, सम्मा समाधि। -महावग्ग विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी, 1998
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