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________________ 44 बौद्ध धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला 'सब्बे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता । " करुणा का स्थान मैत्री से भी थोड़ा आगे है। दुःखी जनों के दुःख में सहभागी होकर उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्नरत होने का भाव ही करुणा है। यदि मैत्री एवं करुणा की भावना प्रबल हो जाती है तो 'स्व-पर' आदि के भेदभाव समाप्त हो जाते हैं और दूसरों की प्रसन्नता व सुख, साधक को अपना ही प्रतीत होने लगता है। उस समय जो प्रसन्नता होती है वह नि:स्वार्थ होती है और वही है मुदिता । चतुर्थ ब्रह्मविहार है - उपेक्खा (उपेक्षा), जिसके कारण साधक सुख-दुःख, साफल्य-वैफल्य, अनुकूलता - प्रतिकूलता, निन्दा - प्रशंसा आदि हर स्थिति में समभावी रहता है। बुद्ध कहते हैं “सेलो यथा एकघनो, वातेन न समीरति । एवं निन्दापसंसासु, न समीञ्जन्ति पण्डिता ।। अस्तु, ये बातें तो हुईं बौद्ध धर्म की। किन्तु, समस्या यह है कि क्या किया जाए जब कोई व्यक्ति या संगठन सब कुछ जानते-समझते हुए भी हिंसा या आतंक का मार्ग अपनाए। आज हम इस प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं । बौद्ध धर्म की अहिंसावादी विचारधारा इनके निवारण में किसी प्रकार प्रभावशाली हो सकती है। प्रशासनिक दृष्टि से शान्ति, निर्भयता एवं सुरक्षा को पुन:स्थापित करने हेतु अनेकधा दण्डात्मक विधियों का सहारा लेना पड़ सकता है । मेरी अल्पबुद्धि में बौद्ध दृष्टिकोण से देखने पर उपर्युक्त कार्यवाही आवश्यक एवं उचित कही जा सकती है, क्योंकि निर्दोष लोगों की सुरक्षा भी तो राज्य या स्थानीय प्रशासन का दायित्व है। फिर भी इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि विरोधी पक्ष से भी उसका पक्ष सुना जाए और यथासम्भव एवं यथोचित ढंग से उसकी समस्याओं के निराकरण हेतु यत्न किए जाएं। स्थायी शान्ति तभी सम्भव है। 8. धम्मपद, गाथा 81 Jain Education International बौद्ध अध्ययन विभाग जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004152
Book TitleBauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Shweta Jain
PublisherBauddh Adhyayan Kendra
Publication Year2013
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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