Book Title: Aagam 01 ACHAR Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [०१] श्री आचाराङ्ग-चूर्णिः नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः। “आचार" चूर्णि: [बहुश्रुतकिंवदन्त्या: जिनदासगणिवर्य विहिता] [आदय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि 01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] “आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णिः [0] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [-], अध्ययन [-], उद्देशक [-], नियुक्ति: [-], [मूल-सूत्राः] श्रीआचारांगचूर्णिः प्रत वृत्यक बहुधुनकिंवदन्त्या श्रीजिनदासगणिवर्यविहिता मुद्रणप्रयोजिका-मालवदेशान्तर्गतरत्नपुरीय (रतलामगत) श्रीऋषभदेवजीकेशरीमलजी श्वेतांबरसंस्था. मुद्रणका-सूर्यपुरीयश्रीजैनानंदमुद्रणालयव्यापारयिता शा० मोहनलाल मगनलाल बदामी. विक्रमस्य संवत् १९९८ श्रीवीरस्य २४६८ क्राइष्टस्य १९४१ पन्य रूप्यकपंचर्क प्रतय: ५०० सवेंऽधिकाग मुद्रणस्य मुद्रणकारकाधीनाः दीप अनुक्रम *" आचारागसूत्रस्य चूर्णे: मूल "टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००६ ०१४ ०१९ ।। पृष्ठांक: २७० २७७ २८० २८३ २८८ २९१ ३०१ ३०१ १५८ ०३५ ०४९ ०५६ १८४ ३१५ ०४८ १९२ ३२१ ०४८ ३०४ ___३१८ ३२५ मूलाका: ५५२ आचाराङ्ग चूर्णेः विषयानुक्रम निर्यक्ति गाथा: ३५६ मुलांक विषयः पृष्ठांक मुलांक: विषय: पृष्ठांक | मलांक: विषय: श्रुतस्कंध-१ १४३ - --उद्देशक: २ धर्मप्रवादीपरीक्षणं | १४१ ___२२० --उद्देशक: ३ अंगचेष्टाभाषितः । ___ अध्ययनं १ शस्त्रपरिज्ञा १४७ । --उद्देशक: ३ निरवदयतपः । १४८ २२४ __ -उद्देशकः ४ वेहासनादिमरणं ००१ - --उद्देशक: १ जीवअस्तित्वं १५० --उद्देशकः ४ संयमप्रतिपादनं १५२ २२९ । | --उद्देशक: ५ उलानभक्तपरिज्ञा ____-उद्देशकः २ पृथ्विकाय -वचनं २३१ ___ --उद्देशक: ६ इंगितमरणं ___--उद्देशक: ३ अप्काय: ०२८ अध्ययनं ५ लोकसार: १५८ २३६ | --उद्देशक:७ पादपोपगमनमरणं | ०३२ --उद्देशकः ४ अग्निकाय: । १५४ । --उद्देशक: १ एकचर्या २४० --उद्देशक: ८ उत्तममरणविधिः | ०४० ---उद्देशक: ५ वनस्पतिकाय: १५९ --उद्देशक: २ विरतमनि ___ अध्ययनं ९ उपधानश्रुतं -उद्देशक:६त्रसकाय: १६४ --उद्देशक: ३ अपरिग्रह । १७५ २६५ --उद्देशकः १ चर्या: ___ --उद्देशक: ७ वायकाय: । ०४१ १६९ । __--उद्देशक: ४ अव्यक्तः २८८ --उद्देशकः २ शय्या: अध्ययनं २ लोकविजय: । १७३ । ___--उद्देशक: ५ हृदोपमः --उद्देशक: ३ परिषहः ०६३ --उद्देशक: १स्वजन: १७९ । --उद्देशक: ६ कुमार्गत्यागः । ___--उद्देशकः ४ रोगातंक: ०७३ --उद्देशक: २ अदृढत्वम् । ___ अध्ययनं ६ दयुतं २०४ __ श्रुतस्कंध-२ ०७८ --उद्देशक: ३ मदनिषेधः ०६७ १८६ । --उद्देशक: १ स्वजनविधननं । २०४ चडा-१ ०८४ --उद्देशकः ४ भोगासक्तिः । | ०७६ १९४ --उद्देशकः २ कर्मविधननं २१३ अध्ययनं १ पिण्डैषणा ०८८ --उद्देशक: ५ लोकनिश्रा ०८१ १९८ -उद्देशकः ३ उपकरण एवं २२० ३३५ _ -- (उद्देशका: १...११) ०९८ ___ --उद्देशक: ६ अममत्वं ०९३ शरीर-विधननं आहारग्रहण विधि: एवं निषेध: अध्ययनं ३ शीतोष्णीयं २०१ । --उद्देशकः ४ गौरवत्रिकविधननं | २३१ आहारार्थे गमनविधि:,सखडी१०९ --उद्देशक: १ भावस्प्त : १०५ --उद्देशक: ५ उपसर्ग-सन्मान . | २३८ दोष:,पानकग्रहण विधि: भोजन ११५ --उद्देशक: २ दुःखानभवः । विधननं नाटा तिधिः दन्याटि। १२५ ___ --उद्देशक: ३ अक्रिया १२२ "अध्ययनं ७ व्यच्छिनम्" अध्ययनं २ शय्यैषणा १३४ --उद्देशक: ४ कषायवमनं १२९ ___अध्ययनं ८ विमोक्ष २४८ ३९८ -- (उद्देशका: १...३) *-*- अध्ययनं १ सम्यक्त्वं १३३ । ___२१० --उद्देशकः १ कशीलपरित्यागः २४८ शय्या-वसति ग्रहणे निषेध: व १३९ --उद्देशक: १ सम्यकवादः १३४ । २१५ । -उद्देशक: २अकल्प्यपरित्याग: २६४ विधि:, संस्तारक प्रतिमा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ३२९ ३२९ ३२९ २०७ ३४९ [2] Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ ५०६ मूलाइका: ५५२ आचाराम चूर्णेः विषयानुक्रम निर्यक्ति गाथा: ३५६ मूलां विषय: पृष्ठांक मूलांक: विषय: पृष्ठांक मूलांक: विषय: पृष्ठांक: श्रुतस्कंध-२ चूडा-१ अध्ययनं ६ पात्रैषणा ३६९ ४९९ । सप्तैकक 3 उच्चार-प्रश्रवणं । ३७३ अध्ययनं ३ इ- ३५८ | ४८६ -- (उद्देशका: १, २) ३६९ ५०२ । सप्तैकक ४ शब्दः ३७४ ४४५ -- (उद्देशका: १...३) । ३५८ पात्रस्वरूपं, पात्रग्रहण विधि: सप्तैकक ५रूप: ३७४ विहार निषेध: व विधि: वर्षानिषेधश्च, पात्र पडिमा, पात्र सप्तैकक ६ परक्रिया ३७५ वास:, गमनागमन विधि: व प्रमार्जना, पात्र परिग्रहणम yolg सप्तैकक ७ अन्योन्यक्रिया निषेधः पथिना सह वार्ताविधि ** अध्ययनं ७ अवग्रह प्रतिमा । ३७० चूडा-३ ३७७ अध्ययनं ४ भाषाजातं ३६४ ४९५ ___ -- (उद्देशका: १, २) ३७० ५०९ भगवन् महावीरस्य च्यवन,जन्म, ४६६ --उद्देशकः १ वचनविभक्ति: । ३६४ अवग्रह आदि याचनाविधि: दीक्षादि वर्णनम्, पंच महाव्रतस्य ४७० --उद्देशक: २ क्रोधोत्पतिवर्जनं | एवं अवग्रह पडिमा(७) प्ररूपणा, तस्य पंच-पंच भावना *-* अध्ययनं ५ वस्वैषणा । ३६६ चूडा-२ चूडा-४ . ३८४ ४७५ --उद्देशकः १ वस्त्रग्रहणविधिः ३६६ | | ४९७ सप्तैकक १ स्थानं ३७१ । ५४१- अनित्यभावना, मुनेःहस्ति आदि ४८३ । --उद्देशक: २ वस्त्रधारणविधिः ३६८ । | ४९८ । सप्तैकक २ निषिधिकाः ३७३ | उपमा,अन्त्कृत मोक्षगामी मनि० आचाराङ्ग चूर्णेः संक्षिप्त विषयानुक्रम: परिसमाप्त: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [3] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आचार-चूर्णि] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “आचारागसूत्र के नामसे सन १९४१ (विक्रम संवत १९९८) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है, मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है | सिर्फ एक 'आचार-चूर्णि' का नया प्रकाशन तैयार होता हुआ देखा था | +- हमारा ये प्रयास क्यों? -* आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस -] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगम चूर्णि के प्रकाशनोमें भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था, परंतु जब मैंने 'आचार-चूर्णि' के ९० से ज्यादा पृष्ठों का काम किया तब पता चला की चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति सर्वथा भिन्न है, चूर्णिमें प्रत्येक सूत्र स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहीं देते, नाही चूर्णिमें सूत्रो या गाथा का कोई स्पष्ट अलग क्रम संकलित हआ है और बहोत स्थानोमें तो सूत्रों के अपूर्ण अंश लिखकर ही पूरी चूर्णि तैयार हुई है, इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है। हम यहाँ प्रत्येक पृष्ठ पर अलग सूत्रक्रम दे नहीं पाये अगर लिख भी देते तो भी आप चूर्णिमें से उसे ढुंढ नहीं पाते क्योंकि चूर्णिमें सभी स्थानोमे अलग क्रमांकन है प्राप्त नहीं है | हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रों का क्रम, वृत्ति के क्रमानुसार [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है ताकि वृत्ति के आधार पर चूर्णिमें से सूत्र ढुंढ शके और बायीं तरफ़ इस वृत्ति के सूत्रक्रम और नीचे दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे सभी आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता औ र आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ....मुनि दीपरत्नसागर. [4] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] प्रत अहम् ॥ श्रीआचारांगसूत्रचूर्णिः। वृत्यक [१-१२] दीप अनुक्रम [१-१२] ॐ नमो वीतरागाय, नमः सर्वज्ञाय ॥ मंगलादीणि सत्याणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणि मंगलपरिग्गहा य सिस्सा सत्थाणं अबग्गहेपायधारणासमत्था भवंति, एएण कारणेणं आदी मंगलं मज्झे मंगलं अवसाणे मंगलमिति, तत्थ अज्झयणकृतं IAll आदीये जीबगहणं तदस्थित्तप्पसाहणं च, मज्झे मंगलं सम्माचा लोगसारग्गहणा, अंते मंगलं भगवतो गुणुकित्तणा, एयं अज्झयण-147 कयं, इदाणिं सुत्तकयं भण्णति-आदीये सुयग्गहणा भगवतोग्गणा य, मज्झे 'से बेमि जे य अतीता अरहंता भगवंता' तहा | 'से बेमि से जहावि हरे,' अंतेवि 'अमिणिबुडे अमाई य' एयस्स गहणा, तं पुण मंगलं चउविहं-णाममंगलं ठवणामंगलं दवमंगलं भावमंगलं, णामठवणाओ गयाओ, दब्वे सुस्थियादि भावे णंदी, सा चउविहा-नाम०ठवणाव्दछ,भाव० णामठवणाओ गयाओ,दब्वे संखबारसगाणि तूराणि, भावणंदी पंचविहं णाणं, सम्बेसिपि परूवणं काऊणं सुयनाणेणं अहिग्गारो, कम्हा , जम्हा मुयनाणे मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: **"सूत्रस्य आदि-मध्य-अंत्य 'मंगल' कथनं [5] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] श्रीआचागंग सूत्रचूर्णिः ॥ २॥ अनुयोगअगादिदिगंतनिक्षेपाः द्वाराणि प्रत वृत्यंक [१-१२] उद्देसो समुदमो अणुण्णा अणुयोगो य पवनति, तस्थ उद्देससमुद्देसअणुण्याओ गयाओ, इह तु अणुओगेणं अहिगारो, सो चउविहो, नंजहा-चरणकरणानुयोगो धम्मामुयोगो गणियाणुयोगो दवियाणुयोगो, सो पुण दुविहो-पृहुत्ताणुयोगो अपुडुत्ताणुयोगो, अपुत्ते एकके अणुयोगद्वारे चत्तारिवि समोयारिअंति, अपुतं जाव अजवइरोत्ति, एत्थ अञ्जबहरजरक्खित पुस्समित्ततिगं च | घेनूर्ण जय पुहुना कया तह माणिया, इह चरणकरणाणुयोगेणं अहिगारो, सो य इमेहिं दारेहिं अणुगंतबो, तंजहा-णिक्खेवेगट्ठ णिरुत्त विही पवनी अ केण वा कस्म । तदारभेदलवणतदरिहपरिसा य सुनत्थो॥१॥ एयाए गाहाए अत्थी जहा कप्पपेढियाए, पवरं कस्सति द्वारं इमं भण्णइ-कप्पे वणियगुणेण आयरिएणं, कस्म कहेयद्यो?, सबस्सेव सुतनाणस्स, बिसेसेण पुण आयारस्स, जेण इह चरणकरणजातामाताव सीओ धम्मो आधविजद, आयारस्म अणुयोगो, 'आयारेण भंते ! किं अंग अंगाई सुतखंधो मुतखंधा अज्झयणं अक्षयणा उद्देसो उरेसा ?, आयारेणं अंगं नो अंगाई नो मुयखंधो सुपखंधा नो अज्ायणं अज्झयणा नो उद्दसो उद्देसा, तम्हा आयारं निक्विविम्मामि अंग निक्खिबिस्सामि सुयं निक्खिविस्मामि खंध निक्खिविस्साभि में निक्खिविस्सामि चरपां निश्विविस्मामि सत्थं निक्विाधिस्मामि परिण निक्विविस्सामि स निक्विविस्सामि दिसं णिक्सिविम्सामि, एरथ पुषण चरणदिसावजाणं दाराणं मम्बेमि चउको निकवेत्रो, चरणम्स दिसाणं तु छको, नन्य गाथा 'चरणदिमाव जाणं'(३-४)वितियगाहा 'जस्थ तु जं जाणेजा(४-४) एम निकादेवलक्षण गाहा,आयारो चउविहो जहा बुडियायारे नहा दबायारो भावायागे य भाणियबा, नत्थ पंचविहेण भावायारेण अहिगागे, नस्म य इमे सत्त दारा भवंति, जहा-तसगट्ट पवत्तण'माहा(५-६) एगट्टियाइओ जहा 'आयारो आचाले' गाहा (७५) नस्थ आयारो पुखमणि ओ, वाणिं श्राचाली, मो चउविहो, नन्थ दवे जहा बातो वृक्ष दीप अनुक्रम [१-१२] Hel॥२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: । ...चतुर अनुयोगद्वाराणाम् कथनं, निक्षेपा गाथा: Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] 'आयार' ऐकार्थाः तनिक्षेपाः प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा-10 कुंजरो स्तम्भं आरोहगं वा एवमादि, अहवा किरियाजोगो आचालो, आचलितो खंधावारो आचलितं आसणमिति, भावे सो चेव रांग सूत्र-IAL | पंचविहो, कोहादि सव्वं अप्पसत्थं भावं चालेति कम्मबंधं आचारो, इयाणिं आगालो, जंवा उदगस्स णिष्णया व तलागं वा आगालो चूर्णिः भवति, अहवा आगलिता मेहा, भावे तु अयमेव नाणादि भावागालो, इयाणि आगारोन्दवेसु दवागारादि, अहवा रतणागरो समुद्रो, भावे अयमेव नाणादियागागे, इदाणिं आसासो, तत्थ दवे गदिमादिएसु वट्टमाणस्स तरणं दीवोबा,अहवाऽऽसासो दरिसणतो फासओ य, दरिसणे संजत्तया वाणियगा समृद्दमझे कूलं दटुं आससंति, अहवा धातु(वाउ)पिसाया विलं पविट्ठा दिसामूढा बिलद्वारं, करिसगा| मेहं, पकणाणि वा ससाणि, माता गट्ठ पुत्तं, गम्भिणी पमूया पुत्तमुहं वा,स्यणत्थियां रयणागरं एवमादी, फासओऽवि मुच्छिओ तिसितो वा तोयं धम्मत्तो चंदणं मारुतं वा एवमादि, भावासासो आयारो संसाराओ उत्तरण, इदाणिं आदरिसो, तत्थ दो दप्पणादि, भावे U आयारो, एस्थ करणिशं अकरणिजं च दरिसिजति । अंग चउविहं, तं चाउगिज्जे वष्णितं इहंपितं चेव । इदाणिं आचिणं, तत्थ दवे || गोणादीणं तणा सीहादीण पोग्गलं खित्नाचिण्णं वाहिएसु सत्तुगा कोंकणासु पेजा, काले जहा "सरसो चंदणको अग्पति उल्ला य गंधकासाई । पाडलसिरीस मल्लियपियंगु काले निदाहमि" ॥१॥ भावाइणं सबसाहूहि अयमेव नाणादियायारो मोक्खनिमित्तं | आइण्णो। इयाणि आयातो, तत्थ दवे जहा आयातो देवदत्तो, अहवा जातिस्सरकहासु सुवति अमुगभवाओ इम भवं आयातो, भावे गुरुपरंपरएण । इयाणि आमक्खो, तत्थ दवे निग्गंथादीणि मोइति भावे पच्छा विवदिओ मुबह सकम्माओ। इयाणि पबत्तणं, 'सधेसि आयारों' गाहा (८-६) सबतित्थगरावि आयारस्स अत्थं पढम बाइक्खंति, ततो सेसगाणं एकारसण्डं अंगाणं, ताए | चेव परिचाडीए गणहरावि सुत्तं गुंथंति । इयाणिं पढमंगति, किंनिमित्तं आधारो पढम ठविओ?, एत्थ गाहा 'भायारोअंगाण' दीप अनुक्रम [१-१२] NEW मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: *"आचार शब्दस्य एकार्थका शब्दा: [7] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] प्रत वृत्यंक [१-१२] दीप अनुक्रम [१-१२] श्रीआचा AU(९-६) जैण कारणेण एस्थ आयारी बनिनइ चरण चेव मोक्खस्स मारी, तत्थ ठितो सेसाणि अंगाणि अहिजइ तेण सो पदम कतो, आदिस्थागंग सूत्र त्र- इयाणि गणित्ति 'आयारंमि अहीए' गाहा (१०-६) गणीति गणं बाबारेति तम्हा आयारो भबिस्सइ पढमं गणिठाणं । इयाणि चूणिः पद्मान, परिमाणं, तत्थ 'णवर्षभचेरमहओ अट्ठारसपदसहस्सिओ वेओ'गाहा (११-६) तत्थ णव भवेरा आयारो, तस्स पंच ॥४ ॥ ब्रह्मनिक्षेप चूलाओ, ताओ पुण आपारहितो अज्झयणसंखाए बहु पदग्गेण बहुत्तरियाओ दुगुणा तिगुणा बा, ताओ पुण इमाओ भवंति-एकारस पिंटेसणाओ जाव उग्गहाडमा पढमा चूला, मनमत्तिक्या वितिया, भावणा ततिया, विमोति चउत्था, णिसीह पंचमा चूला। इदाणि समोयारो, नत्थ दवे जहा आमंतणे बहुया, खलगादिसु कवीयादी, पहाणाणुयाणादिसु अरुईतयादिसुसाहुणो, भावे अयमेव | नाणादीण भावाणं समोयारो, तत्थ गाहाभो तिणिण पढियवाओ। (१२, १३, १४-७) इयाणि सारो, तत्थ दवे जहा कोडीसारो देवदतो अहबा समारो बंभो ससारो दधि एवमादि, भावे अयमेव नाणादी भाचो चेव, मुत्ते आयारो सारो, अहवा सबस्सेव सुपना- | णस्य एम आयारो सारो, तत्थ गाहायो 'अंगाणं किंमारो' गाहाओ (१६, १७) दोनि पढियवाओ। इयाणि अंगं, तं चउबिहनामंगं ठवर्णगं दवंग भावंगति, णामठवणाओ गयाओ. दवंगं जहा चउरंगिओ, भावंगं आगमओ जाणओ उबउत्तो, नोआगमओ इमं चैव आयारभाबगं. नेण अहीगागे. इदाणि सुदचे पत्तयपोन्थयलिहियं, भावे इमं चेव, खंधेचउबिहे दवे सचित्तादी || भावे एतसिं चेव नवहं अज्झयणाणं समुदाओ, को य पूण एम भावसुधक्रबंधो?, भष्णइ, बंभचेरा, तेण बंभ णिक्खिचियई 'बंभंमि(मी उ)चउक्क' गाहा ( ) तन्थ ठवगावभं अक्वणिक्वेवादिसु, अहवा भणुप्पत्ती भाणियबा, 'एगा मणुस्सजाई। HAL ||४॥ गाहा ( १९-८) एन्थ उमभमामिस्म पृत्वभवजम्मणअहिसेयचकवहिरायामिसंगाति, तत्थ जे रायअस्मिना ते य खतिया | मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: *"ब्रह्म' शब्दस्य निक्षेप: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] श्रीआचा- चूर्णिः प्रत वृत्यंक [१-१२] जाया अणस्सिता गिहवइणो जाया, जया अग्गी उप्पण्णो ततो य भगवऽस्मिता सिप्पिया वाणियगा जाया, तेहिं तेहि क्षत्रियासिप्पवाणिज्जेहिं विर्ति विसंतीति बइम्सा उप्पना, भगवए पवइए भरहे अमिसित्ते सावगधम्मे उप्पण्णे बंभणा जाया, अगस्सिता बंभणा जाया माहणत्ति, उज्जुगसभावा धम्मपिया जं च किंचि हणतं पिच्छति तं निवारंति मा हण भो मा हण, एवं ते || जणेणं सुकम्मनिवत्तितसम्मा भणा(माहणा)जाया, जे पुण अणस्सिया असिप्पिणो ते वयख(क)लासुइबहिका तेसु तेसु पोयणेसु सोयमाणा हिंसाचोरियादिसु सजमाणा मोगद्रोहणसीला सुद्दा संवुत्ता, एवं तावं चत्तारिवि वण्णा ठाविता, सेसाओ संजोएणं, तत्थ 'संजोए सोलसयं' गाहा (२०-८) एतेसिं चेव च उण्हं वण्णाणं पुवाणुपुवीए अणंतरसंजोएणं अण्णे तिण्णि वण्णा भवंति, तत्थ 'पपती चउकयाणंतरे' गाहा (२१-८) पगती णाम भवत्तियवाससुद्दा चउरो वण्णा । इदाणि अंतरेण-बंभोणं । खत्तियाणीए जाओ मो उत्तमवनियो वा मुद्धखतिओ वा अहया संकरखतिओ पंचमो वण्णो, जो पृण खत्तिएणं वहस्सीए जाओ, एसो उत्तमयस्सो वा सुदवहस्सो वा संकरवहस्सो वा छट्ठो वण्णो, जो वइस्सेण मुद्दीए जातो सो उत्तमसुदो वा (सुद्धसुद्दो) वा संकरसुद्दो वा सत्तमो वण्णो । इदाणि वण्णणं वण्णेहिं वा अंतरितो अणुलोमओ पडिलोमतो य अंतरा सत्त वण्णंतरया भवंति, जे अंतरिया ते एगंतरिया दुअंतरिया भवति । चत्वारि गाहाओ पढियवाओ (२२,२३, २४, २५-१) तत्थ ताव भणेणं वइस्सीए H जाओ अंबट्ठोत्ति बुचड़ एसो अट्ठमो वण्णो, खत्तिएणं सुद्दीए जातो उग्मोत्ति वुचइ एसो नवमो वण्णो, बंभणेण सुद्दीए निसातोत्ति वुचर, किनिपारासबोत्ति, तिण्णि गया, दसमो वण्णो । इदाणिं पडिलोमा भण्णंति-सुदेण वइस्सीए जाओ अउगवुत्ति भण्णइ, 0 एकारसमो वण्णो, वइस्सेण खत्तियाणीए जाओ मागहोनि भण्णइ, दुवालसमो, खत्तिएणं बंभणीए जाओ नोत्ति भण्णति, तेरसो | दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: ...मनुष्यजाती/वर्ण एवं वर्णान्तरम् [१] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] B ब्रह्माचरण। निक्षेपः प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा- वणो, सुदेण खनियाणीए जाओ खतिओति भण्णइ, चोदसमो, वइस्सेण बंभणीए जाओ चैदेहोति भणति, पन्नरसमो वष्णो, 0 मुद्देण बंभणीए जाओ चंडालोत्ति पवुच्चइ, सोलसमो वण्णो, एतयतिरित्ता जे ते विजाते ते बुचंति-उग्गेण खत्तियाणीए सोवागोति चूर्णिः बुच्चा, वैदेहेणं खत्तीए जाओ वेणवृत्ति चुच्चद, निसाएणं अंबट्ठीए जाओ बोकसोत्ति वुच्चइ, निसाएण सुद्दीए जातो सोवि वोक्सो, ॥ ६ ॥ HAसुदेण निसादीए कुकुडओ, एवं समंदमतिविगपितं ठवणाभं गतं । इदाणि दव्वयंभ भण्णाइ 'दवं सरीरभविओ' गाथा (२८-९) दुविहं आगमओ नोआगमओ य जहा अणुयोगदारे, णवरं जाणइ बाबारेहिति वा बभ, जाणवहरितं अनाणियवस्थिसंजमो, जाओ य रंडकरंडाओ बंभं धरेंति, भावे तु विदुवस्थिसंजमो, विदुति आगमओ भावभं गहितं, नोआगमतो तस्सेब जो बस्थिसंजमो मेहुणओवरति, अहवा संजमो बभं भाणति । दारं । चरणं छविहं, वहरिनं दखचरणं तिविहं, तंजहा-गहचरणं | भक्षणाचरणं आचरणाचरणं, तत्थ गइपरणं रहेण चरति घोडेहिं चरति पादेहिं चरति एवं गइचरण भण्णइ, भक्खणाचरणं मोदए | चरति देवदत्तो तणाणि गावो चरंति, आयारणाचरणं णाम चरगादीणं, अहवा तेसिपि जो आहारादिपूयानिमित्तं तवं चरति तं | दब्धाचरणं, लोगुत्तरेऽवि उदायिमारगप्रभृतीर्ण, जं वाऽणुवउत्नाणं, खेत्तचरणं जइयं सित्तं चरति-गच्छति, जहवा सालिखित्तं गोणादि चरति, कालेवि जो जावतिकालेण गच्छति भुंजति बा, भावे तिविहं-गतिचरणं भक्खणचरणं गुणचरणं, 'भावे गति आहारे'गाहा-(३०-८) तत्थ गतिभावचरणं जं ईरियासमितो चरति गच्छति, भक्खणा जो बायालीसादोसपरिमुद्धं वीतिगालं विगतधूमं कारणे आहारेइ, एतं आहारभावचरणं पसत्थमपसत्थं च, अप्पसत्थं मिच्छत्तऽण्णाणुवहतमतिया अनउत्थिया धम्म | उचचरंति मोक्खस्सत्थं, किं पुण णिदाणोवहया?, लोउत्तरेवि निदाणोवहतं अपसर्थ, पसत्थं तु णिजराहेउं जंबभचरणं, एस्थ | दीप अनुक्रम [१-१२] RAmale मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | -*चरण-निक्षेपा:, [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] अर्थाधि काराः प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा- पसत्थगुणचरणाणं अहीगारो, एयाणि णवविडचंभवेराणि निजरत्थं पढिअंति, जहत्य भणियं तह आयरिजंति, तस्स पुण णवबंभचेर- रांग सूत्र सुयखंधस्स इमे अज्झयणा भवंति, तंजहा-'सत्यपरिण्णा लोगविजओ'गाहा 'अट्ठमए य विमोक्खो'गाहा (३१,३२-९) चूर्णिः एतेसि णवण्डं अज्झयणाणं इमे अत्याहिगास भवंति, संजहा-'जियसंजमोय' माहा (३३) 'णिस्संगया य छट्टे' गाहा, (३४-१०) तत्थ परिणाए जीवसम्भावोवलंभो कीरति, जीवअमावे णवि भचरणं नदि तप्पयोजणं अतो अत्तोवलंभो । पदमं कायबो, एवं सो अप्पाणं उवलमित्ता उत्तरकाले सत्तरसंजमे अप्पाणं ठावेद संजमं का अप्पाणे, लोगविजए उदइओ भावो लोगो कसाया जाणियब्बा, जहा य खवेयच्या, एवं महत्वयावहियस्स बिसयकसायलोयं जिणंतस्स जइ अणुलोमपडिलोमा | | उबसग्गा उप्पोमा ते सहियब्बा ततितो अहिगारो, पंचमहब्बयअवहितमइस्स जियकसायलोयस्स मुहदुक्खं तितिक्खमाणस्स | पंचम्गितावगोमयमुक्कसेलामाइआहारजंतणतयोविसेसं दण विजातिरिद्वीओ य मा दिट्ठिमोहो भविस्सइ तेण चउत्थे | संमतं, पंचमे तहेच अहिगार उच्चारित्ता लोगं सारमसारं जाणित्ता विस्सारं छडित्ता सारगहणं कायब्वं, छड्डे उ तहेब अहिगारे । उच्चारित्ता संमत्तादिसारं गहेऊणं भावतो निस्संगो विहरेजा, सत्मे तु मोहसमुत्था परीसहोवसग्गा सहिता परिजाणियब्बा, अट्ठमे तु वियाणिचा णिजाणं कायन्वं, जं भणितं भक्तप्रत्याख्यानं, नवमे केण इमं दरिसितमाइण्णं वा ?, वीरसामिणा, एसो उ भरे पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं । एताहे एकेक अज्झयणं वष्णहस्सामि ॥१॥ तत्थ पदम अज्झयणं सत्थपरिणा, तस्स | चत्तारि अणुओगदारे वष्णेऊणं पुवाणुबीए पदम पच्छाणुपुबीए णवम अणाणुपुबीए गवगच्छगयाए०, णामे खयोवसमिए समोKA वतरति, भावप्पमाणे लोउत्तरे आगमे विभासा, णो णयप्पमाणे, कालियमुयपरिमाणसंखाए, उस्सण्णेणं सबसुयं ससमयवनव्ययाए, दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] शसपरि | जयो निक्षेपाः प्रत ॥८ ॥ वृत्यंक [१-१२] दीप अनुक्रम [१-१२] श्रीआचा- अत्याहिगारो सो इमाए गाहाए अणुगंतब्बो, 'जीवो छकायपरूवणा य'गाहा-(३५-१०) जत्थ जत्थ समोयरति तत्थ तत्थ प्रसूत समोतारितं, णामणिप्फण्णो सत्थपरिणा, सत्थं परिण्णा य दो पदाई, तत्थ सत्थं निक्खेवियव्वं 'दव्वं सत्थग्गिविसं' गाहा-110 चूर्णिः (३६-१०) तत्थ सत्थं असिमादि अम्गिसत्थं एवं विमसत्थं गेहं अविलं खारो नाम क्षारो रूक्षाणि च-पीलुकरीरादी करीसण-11 | गरणिद्धमणादी दव्वसत्थं, भावसत्य कायो वाया मणो य दुप्पणिहियाई । परिणा चउचिहा, 'दच्वं जाणण पञ्चवाण' गाहा (३७-१०) दव्यपरिण्णा दुविहा-जाणणापरिण्णा पचक्वाणपरिष्णा य, तत्थ जा सा दबजाणणापरिण्णा सा दुचिहाआगमओ नोआगमओ य, आगमओ जस्स णं परिणतिपदं०णोआगमतो दुविहा-जाणगसरीर भवियसरीरा०, इदाणि पश्चक्खाणदब्बपरिणा-जो जेण रजोहरणादिदग्वेणं पञ्चक्खाइ एसा पञ्चक्खाणदब्बपरिणा, भावपरिण्णा दुविहा-जाणणा पञ्चक्वाणे य, जाणणा आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणतो उवउनो, नोआगमतो इमं चेव सत्थपरिणाअज्झयणं, भावपच्चक्रवाणपरिणावि सच्चपावाणं अकरणं, जहा सर्व पाणाइवायं तिविहं तिविहेण पञ्चक्खाइ । गतो नामनिष्फण्णो निस्खेवो, | सुत्ताणुगमे सुत्तमुचारेयवं-अक्खलियं अमिलित०, तत्थ संधिता-सुत्-सुयं मे आउसं! तेण भगवया एवमक्वाय'(१-११) एयस्स अज्झयणस्स इमो उग्घातो-'अत्थं भासह अरहा सुतं गंथति गणहरा निउणा । सासणस्स हियट्ठाए ततो सुत्तं पवनइ ॥१॥ तं सुणित्तु गणहरा तमेव अत्थं सुतीकरित्ता पत्तेयं ससिस्सेहि पज्जुवासिञ्जमाणे एवं भणंति-सुयं मे आउसं ! तेणं | भगवया एवमक्खाय, मुहम्मो वा जंयुनाम-सुर्य मे आउसं ! तेण भगवया, सुणे सुतं, मे इति अहमेवासौ येन श्रुतं तदा, ण In खणविणासी, आउसो ! ति. सिस्मार्मतणं, सिस्सगुणा अधणेऽवि पमत्थदेसकुलादि परिग्गहिता भवंति, दिग्घाउयत्तं तेसुंगरूयतरं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा--0 तेण तग्महणं, चिरजीवी अण्णेसिपि दाहिति, तेषंति णेणं भगवया, अहवा आउसंतेण-जीक्ता कहितं, अहवा आवसंतेण गुरुरांग सूत्र | कुलवास, अहवा आउसंतेण सामिपादा, विणयपुब्बो सिस्सायरियकमो दरिसियो होइ आवसंतआउसंतग्गहणेण, भग इति जो| चूर्णिः सो भण्णइ सो से अस्थि तेण भगवं 'माहात्म्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, पण्णां भग इती-IYA ॥९॥ | गणा ||१|| भगवद्गहणं तु सत्थगोवत्थं धम्मायरियत्ति सिस्सायरियकमे मंगलत्थं च 'इह' इति प्रवचने आयारे वा सत्थपरिण| ज्झयणे वा 'एगेसिं'ति ण सम्बेसि, अमानोना पडिसेहे, एत्थ जगारमागारनगारा सनपडिसेहगया, णोगारो तु देशे सब्वे यDI TA अधिगारं असम, तंजहा-नोगाम इति भण्णंते सुण्णगामो घेप्पड़, णवनिवासो वा, ण ताव आंबासेति, अग्गामोतिण भण्णति, जो | | वा ग्रामस्य देशो एसो नोगामो, सब्बपडिसेहे अरण्णा मेव, इह तु देशपडिसेहे ददुव्बो, जेण न कोऽपि संसारत्थो जीवो सबारहितो, भणियं च "संसारस्थाणं दस सण्णाओ पण्णचाओ, तंजहा-आहारसण्णा भय० मेहुण० परिग्गहरू कोह० माण० माया लोभ लोग० ओघसण्णा, जेण पुढविकाइयाणवि अक्खरस्स अणतभागो णिच्चुग्घाडो तेण ण कोइ जीवो सण्णारहिओ, अतो नोकारेण पडिसेहो, 'एगेसिं'ति मणुस्साणं, जेण मणुस्सेसु चरिचपडिपत्ती, सण्णा चउबिहा 'दवे सञ्चित्तादी गाहा (३८-१२) संजागणं संज्ञा, जो हि जेण सचिनेण ३ दब्वेग दव्यं संजाणइ सा दबसण्णा जहा बलागादीहिं सलिलं, जहा वा भमुगाअंगुलिय नयणवयणमादिएहिं आगारेहि सणं करेइ जहा गच्छ चिट्ठ पद भुंज एवमादि चेयणा जहा अक्वेहि दाएति, लद्धीए व सि॥ स्सस्स, जहा उजोतणियाए पदीवेण दरिसेइ, भावसना अणुभवणा जाणणे व 'मह होति जाणणाए' मई सण्णा णाणं एगत्था, सा सण्णा पंचविहा, तंजहा-आमिणिबोहियनाणसना सुयनाणसन्ना ओहिनाण. मणपजमाणसमा केवलणाणसण्णा, सा पुण| दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] प्रत वृत्यक [१-१२] श्रीआचा-10 खइया वा होजा खोयसमिया या, अणुभवणसण्णा कम्मोदयनिष्फण्णा पार्य सोलसविहा भवति, तंजहा-'आहारभयपरि दिशः रांग यत्रचूर्णिः ID गाहा' गाहा (३९-१२) वितिगिच्छा तेहि तेहिं नाणंतरादीहि सम्मदिहिस्सवि भवति, किनु सेसस्स?, कोहसण्णा कोहज्शव॥१०॥ साओ, एवं माण० माया० लोभ० सोगोय, ओहसण्णा सेससाणाविरहिया केवलं उबओगो, लोगसण्णा सच्चंदवियप्पिया अणेगरूवा, अणवस्स लोगो णस्थि, सोयसुत्न(दोस्थो रणमूह एवमादि, धम्मसण्णा णाम धम्मपियया तस्सीलसेवणा य, जाणणासण्णाए अहिगारो, तं च पडुच भण्णइ-इहमेगेसिं नो सन्ना भवति, संजहा-पुरच्छिमाओ बा दिमाओ आगतो अहमंसि जाव अणुदिसातो आगओ अहमसि' (२-१३) दिस्सते जा सा दिसा ताओ पुण्यमादि, सा सत्तविहा 'णामं ठवणा' गाहा ।। (४०-१३)॥ णामदिसा जहा दिसाकुमारी, ठवणादिसा अक्खणिक्वेवादिसु दिसाविभागो ठाविओ, स पुण सुन| परूवणादिसुवि विञ्जति, दबदिसा 'तेरसपदेसियं खलु' गाहा ।। (४१-१३)। खेतदिसा 'अट्टपदेसो रुपओ गाहा VI (४२-१३)। ईदग्गेयी जमा य गाहा ।। (४३-१३) ।। अंतो सादीआओ'गाहा।। (४५-१४) 'सगढुद्धिसंठियाओं' | गाहाओ (४६-१४) कंठाओ । 'जस्स जओ आइयो उदेह'माहा 'दाहिणपासंमि य' गाहा ।। (४७,४८-१४) ।। भाणियचा, सब्बेमि मेरुगिरी उत्तरतो 'सवेसिं उत्तरेणं' 'जत्थ य जो पण्णवओ णव गाहा कंठ्या (५०,५८-१५)। इदाणि भावदिसा अट्ठारसविहा 'मणुया इंदियकाया' गाहा ।। (६०-१५)। तिरिया काया कम्मभूमगा अकम्मभूमगा य अन्तरदीवगा समुच्छिममणुस्सा बेइंदिय तेइंदिय चउरिदिय पंचेंदियतिरिक्खजोणिया, पुढविकाइया तेउकाइया वाउकाइया आउकाइया वणस्सइकाइयाअग्गषीया मूलवीया बंधषीया पोरखीया देवा नेरदया, एसा भावदिसा, दिस्सति तेण दिसा, तेण प्रकारेण दिस्सति जहा पुढषि-10 |॥१०॥ दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: अध्ययन-१ 'शस्त्रपरिज्ञा' आरब्धं प्रथम अध्ययने प्रथम-उद्देशक जीव अस्तित्व' आरब्ध: [14] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१-१२] दीप अनुक्रम [१-१२] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥ ११ ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) 20 श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-६७], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १-१२] काइयो आउआइओ जाव देवो, तत्थ खेचदिसं पडच चउसु महादिसासु जीवाणं गति आगति अस्थि, सेसासु णत्थि, जेण जीवो असंखेजेस पदेसेसु ओगाहति, पण्णवगदिसा उण पडच अट्ठारमुवि दिसासु अस्थि गहरागमणं वा जीवाणं, एत्थ पुण एकेकीए पण्णवगदिसाए अङ्कारसविहाएवि भावदिसाए गमणं आगमणं वा भवति, स पुण संजोगो 'अण्णतरीओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि' एतेण गहिओ भवति, तत्थ दिसाग्रहणात् पण्णवगदिसाओ चत्तारि य तिरियदिसा उडे अ अहे य अट्ठारस य भावदिसाओ गहियाओ भवति, अणुदिसाग्रहणात् पुण चचारि अणुदिसाओ गहियाओ, तत्थ असन्निदिसाओ आगयाणं णरिथ ॐ एतं विभाणं, अमतरीओ दिसाओ आगयाणं एवमेगेसिं णो णातं भवति, एवमवधारणे इति उपदेसे वा जातमुवधारितं, अहवा उपसंघारवयणमेतं संजहा- कोइ मत्तवालो पुरिसो अइमचो कलालाऽऽवणातो अन्नाओ वा वर्मतो मर्ज गंधेण साणेण वदणे संपिहिअमाणो सहीहि ओखेविओ सगिहमाणीओ मदावसाणे पडिबुद्धोऽवि सोंण याणति कओ वा केण वा आणिओ ?, कओ मदकाले ?, एस दितो, उपसंहारो इमो एवमेगेसिं, अहवा इदं च एगेसिं णो णातं भवति तंजहा- 'अस्थि मे आया ओववातिए, णत्थि मे आया ओववातिए, के वाऽहं आसी ?, के वा इओ चुए पेवा भविस्सा मि' (३-१६) अथिति बिजमाणए वित्ति, मे इति अत्तनिदेसे, अततीति अप्पा हेउपञ्चयसामरिगहिन्भावेसु, अहवाऽऽयपादओ पाणियं भूमी आगासं कालो एवमादि, एतेहिं हेऊहिं अस्थि अप्पा, एवं एगेसिं णो परिण्णातं भवति, तज्जीवतस्सरीरवातियाणं तु अस्थि अप्पा, किंतु उववातिओ एतण्णो परिणतं भवति, सरीरं चैव तेसिं अप्पा, संसारी न भवति, जह अण्णाओ सरीराओ निष्फिडतो दिसिज, ण पदिस्सति तेण न संसरति, आतग्रहणेण तिष्णि सट्टाणि पाचादियसताणि गहियाणि भवंति आसीतं किरियायादिसतं, तत्थ किरियावादीणं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [15] Pan Supra Su a दिक्संयो गाः आत्मप्रत्ययः ॥। ११ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] सम्यक्त्वग्रह प्रत वृत्यक [१-१२] श्रीआचा- PP. अस्थि केसिंचि सन्वगतो असध्वगतो बा, तथा कत्ता अकर्ता मुत्तो अमुत्तो वा, अत्थित्तेऽपि सामाकतंदुलमित्ते अन्नेसि अंगुट्ठ-1 रांग सूत्र | पब्वमित्तो अन्नेसि पईबसिहोबसोहियाहिडितो, एतेसिं सब्वेसि अस्थि उववादिओ य, अकिरियावादीणं णस्थि चेव, कओ उव-10 चूर्णिः वादिओ?, अण्णाणिया अप्पाणं पहुच ण विपडिवअंति, वेगइया य, अहवा इममि अत्तसम्भावोवलंसदेसए सम्मत्तगहणुदेसए वा | ॥ १२ ॥ PA अवस्सं सम्मईसणायारो वण्णेयब्बो तप्पडिवक्खं च मिच्छति, तं जइविय चउत्थे सम्मत्तझयणे वित्थरेण वणिजिहिति तहावि | | इह संखेवुद्देसेणं उल्लाविञ्जइ, सम्मईसणपरिच्छाएवि आदिपदत्थो जीवो, तहिं सिद्धे सेसपदत्थसिद्धी, तं व उपरि इच्छेच उद्देमए | भणिहिति, तंजहा 'से आतावादी लोगावादी', कहं सम्मत्तं न लब्भति ?, भण्णति, अट्ठण्डं पगडीणं पदमिल्लगाण उदए णो। सण्णा भवति, पगडीणं अम्भितरे, सणनि वा बुद्धिति वा नाणंति वा विणाणंति वा एगट्ठा, आदिरंतेण सहिता, सण्णाग्रहणेणं || N/ आभिणियोहियनाणं सूपितं भवति, एवं आभिणिचोहियनाणं अस्सनिदिसाए एगतेण णस्थि, सन्नीवि तिरीय अभिनिवेसेणं णस्थि, || 'केसिंचि अस्थि सन्ना'गाहा (६३-१६) जेसिपि अस्थि अप्पा उबवाइओ य तेसिपि एतं णो णातं भवति-के अहं आसी रहो वा तिरिओ वा इत्थी वो पूरिसो वा पुंसओ वा ? के व इओ-इमाओ माणुस्साओ चुओ पेचति परलोगे, तो एसो ताव | अयाणतो, तश्विपरीओ जाणो, सो कह जाणइ १, भण्णइ-'सहसंमृतियाए परवागरणेणं अन्नेसिवा सोचा'(४-१९) | सोभणा मति संमति सहसमुतियाएनि 'इस्य य सहसम्मइया जं एवं' गाहा (६५-२०) पढियन्ना, एसा चउनिहावि | सहसंमुइया आतपचक्खा भवति, परवागरणं णाम सन्चनाणीणं तित्थगरो परो-अणुत्तरो, वागरिज्जतीति वागरणं परस्स बागरणं परं वा यागरणं परवागरणं, परस्स वा वागरणं परोवदेसो जहा गोयमसामी तित्थगरवयणेणं इंदनागं संबोधति-भो अणेगपिंडिया! दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] चूर्णिः प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा- एगपिंडिओ ते पुछद, जहा वा सुलसं समणोवासियं अंबडो परिवायओ, अन्नेसि वा अंतिए सोचति तित्थगरवइरितो । संग सत्र-IMMजो अण्णो केवली वा ओहिणाणी वा मणपञ्जवनाणी या चोदसपुब्बी वा दसपुब्बी वा णवपुग्वी बा एवं जाघ आयारधरो वा सामा-lim | इयधरो वा सावओ वा अण्णतरो वा सम्मद्दिडी, तिण्हं उपलद्विकारणाणं अण्णतरेणं जाणइ, तंजहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पण्णावगदिसाओ य भावदिसाओ य सबाओ गहियाओ भवंति, अहवा अप्पवयणं नातं भवति, अहवा जम्ममच्चु जाग(ज)रादिया संसारिभावा णाआ भवंति, एवमेतं जहोद्दिट्टकमेणं एगेसिं गातं भवति, अहवा एवं मण्णे जहेब दिसाविदिसाओ एगेसिं गतिरागई णाआ भवति तहेव इमंपि णातं,'तंजहा-अस्थि मे आया उववातिए,' आया अडविहे तंजहा-दवियाता | कसायाता. 'दविए कसाय जोगे उबजोगे नाण दंसणे चरणे । विरिये आता(य) तथा अट्ठविहो होइ नायब्बो।।१।। एवमादी,उवबादी संसारी, अण्णो सरीरानो अमुत्तो णिचो य अब्भुवगतं भवति, जेण संसरंतोन विणस्सइ ण य अकम्मस्स संसारो तेण कस्सा(म्मा)वि हि सम्बगतस्स संसारो तेण ण सव्वगतो, णहि णिग्गुणस्स कयत्तणं तेण गुणीवि, जो इमाओ जहा परूवियाओ दिसाओ। अणुदिसाओ य अणुसंचरइ धापति गच्छति वा एगट्ठा, अणुगयो कम्मेहि कम्माई वा अणुगतो संसरति अणुसंसरति, पुचि तप्पाउम्गाई कम्माई करेइ पच्छा संसरति, अणुसंभरति वा बत्तन्वं, जहा भट्टारएणं असंखेजाई जम्माई संभरिता गोयमसामी भणितो-चिरसंसिट्ठोऽसि मे गोयमा! अहवा जो एग भवं सम्पपजवाहे अणुसंभरति सो सबभवग्गहणाणि सबपजवेहि अणुसंभरति, ओहिणाणी कोई संखेजाइ उबलभित्ता मन्नइ-जो एयाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अस्सिओ धावति सोऽहं, एवं चेव अण्णस्स अक्खाइ, जहा मल्टिसामी छाई रायाणं 'किंथ तयं पम्हुई ? जत्थ गयाओ विमाणपबरेसु । वुच्छा समयणिबद्धं NTREAMINAPAHARIDAPायाममाया दीप अनुक्रम [१-१२] ॥१३ ।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [17] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] श्रीआचा- राग सूत्र- लोकादिवादिता प्रत ॥१४॥ वृत्यंक [१-१२] देवा ! तं संभरह जाति ॥१॥ जह एवं कोई सहसंमइयाए जाणइ जहा सोऽहं तहेव अनो परतो अण्णाओ वा सोचा अणेगहा जाणाविओ अप्पाणं पचमिष्णाइ जाव सोऽहमिति, जात्रा कोई भणेजा भणितं मट्टारएणं-अप्पा अस्थि, न तस्स लक्षणं उवदिहुँ, भण्णा-भणितं सोऽहमिति, इह निरहंकारे सरीरे जस्स इमोऽहंकारी, तंजहा-अई करेमि मया कयं अहं करिस्सामि, एयं तस्स | लक्वर्ण जो अहंकारो, भणितं अप्पलक्खणं । इदाणी पगतं भाइ-से आआवादी लोगावादी कम्मावादी किरिया-1 वादी' (५-२२) जेण एवं अप्पा जहुद्दिट्टउवलद्विकारणाणं अनतरेणं उवलद्धो से आयावादी-आयाअस्थित्तवादी, णो गाहिवादी, DD लोगवादी गाम जहचेच अहं अस्थि एवं अनेवि देहिणो संति, लोगअन्भतरे एव जीवा, जीवाजीवा लोगसमुदओ इति, भणितो | लोगवादी, अकम्मस्स संसारो पत्थि तेण कम्मवादीनि, तस्स बंधो चउन्धिहो पगतिठितिअणुभागपदेसबंधो य, सो यण | विणा आसवेण तेण आसनो भाणियन्चो, आसवो किरिपाए भवति, मणियं च-"जाव वगं एसजीवे सपासमियं एपति वेयति || चलति ताव ण तस्स अंतकिरिया भवति, किरिया य जीवस्स अत्यंतरभूताण भवति तेण भण्णति 'अकरिसु' वऽहं करेमि वऽहं' अहवा णिचत्त अन्नत्तकचित्ते सिद्धे एतं सिद्धं भवति-'अकरेंसु वऽहं करिस्सामि वऽ' अहवा तिकालकजववएसा आया अप्पचक्खो, तत्थ काइयं वाइयं माणसिय तिविद करणं, एक्केक्कं कियं कारियं अणुमोदियमिति, तेण भणा-'अरिंसु बहं करेमि बई | करिस्सामि वऽहं' तत्थ करेसुं बह-सय कियं वा एवं कारावियं वा अणुमोदितं वा, एवं बमाणेऽवि करेमि कारवेमि अणुमोयामि, | अणागतेऽवि करिस्सामि कारबिस्सामि अणुमनिस्सामि, एएसि पुण नवण्हं पदाणं दो आदिपदा गहिया अंतिम च, अवसेसा पुण अणुतावि अस्थतो सहअंति, एवं जोगत्तियकरणत्तिएणं णवओ मेदो जोए नायबो, अतीतग्रहणा अतीताणि येव भवग्गह दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [९], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥१५॥ प्रत वृत्यंक [१-१२] णाणि सविताणि, अणागतग्गहणा एस्साणि, एतावंति सब्यावंति' एत्तिओ पंधविसओ, अद्दवा उडुमहतिरिय सम्वावंति, योनिस आहवा एतिय पंध, एतेति तिस्थगरवयणं, तंजहा अकरेंसु वऽहं करेमि वऽहं करिस्सामि वऽहं 'लोयंसि कम्मसमारंभा' पच्चक्षतरंमि लोए-जीवलोए दुबिहाए परिणाए परिजाणियव्या, अपरिणायकम्मस्स के दोसा, भकति 'परिषणायकम्मे खलु अयं पुरिसे' (८-२३) पुनो सुहदुक्खाणं पुरिसो पुरि सयणा वा पुरिसो, सर्व सपाणुस्स प्रत्यक्षमितिकाउं तेण भण्णति-अयं पुरिसो. अहवा जो विवक्षितो असंतपुरिसो तं पडुच्च भण्णति-अपरिणाय०, अयं पुरिसो दिसाओ भावदिसाओ य अट्ठारस, पावगं पहप छदिसानो सेसा सन्चाओ अणुदिमाओ, पूणरुचारणं ण हि काति दिसा अणुदिसा वा वियते जत्थ सो णो संसरति, 'साहेति' सह कम्मणा, स किं तेणेच अपरिण्णायदोसेणं 'अणेगरूवाओ जोणीओ संभवंति' अणे-IN गरूबा णाम चउरासीइजोणिप्पमुहमयसहस्सा, अहवा सुभासुभाओ अणेगळंबाओ, तत्थ सुभा देवगतिअसंखेजवासाउयमणुस्स-1 राईसरमाईभाओ गोनेवि जातीसंपण्णाति, सेसाओ अणिड्डाभो, अहवा देवेमुवि अभियोगकिचिसियाति, असुभा तिरिएसुधि । | गंधहस्थी अस्सरतणाणि सुभाओ, पगिदिएसुऽवि जत्थ वष्णगंधफामा इट्ठा कंता, स सम्मं सुभानुभकम्मेहिं धावति संधावति, सम्बओ एगो वा धावति संधापति, संधेति वा पटिअति, तत्थ संधणा दग्ये भावे य, दव्वे छिन्नसंधणा य अच्छिन्नसंधणा य, तत्थ छिन्न| संधणा दसियाहिं वागा वागेहि या रज्जू, अच्छिणा बलूतो मुतं वहिजति, भावेवि दुविहा, छिण्णा जो उवसामगसेढीपडिवडतो | पुणरवि उदइयं भाव संधति सा छिष्णसंधणा, अच्छिष्णा मो व उपरि दंतादिविसुज्झमाणपरिमाणो अपुब्बाई संजमट्ठाणाईD m संघेति, एवं खाएवि, नस्स पृण पडिवातो णस्थि, अहवा संदधाति अहवा संधारयति, एता जोणी संधावतस्स को दोसो ?, भण्णति- ॥१५॥ दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] कमा प्रत वृत्यंक [१-१२] श्रीआचा- D. 'अणेगरूवे फासे पडिवेदेति' अणेगाणि रूवाणि जेसि ते अणेगरूवा, आदिरंतेण सहिता, एगग्गहेण गहणं, तेण गंधरसरांग सूत्र रूवसद्देवि विविधे वेदेति, पच्छाणुपुब्बी एसा, जेण फरिसवेदगा सब्वेसि संसारीणं पजत्ताण अस्थि एगिदिएसुवि अतो गहणं IA पजत्तोऽवि पढम फरिसं वेदेति तेण तम्गहणं, किंनिमित्तं से संसारियं कम्मं वञ्चति ?, भण्णइ-तत्थ खलु भगवया जाव |दुक्रवपडिघातहेउं' (१०,११-२५) तत्थेति तत्थ बंधपगते, खलु विसेसणे, किं विसेसयति?, जाणणापरिण विसेसयति, ता एएणं बच्चद, किं निमित्तं सो तेसु कम्मासवेसु बट्टमाणो अणेगरूवाओ जोणीओ संसरति ?, भण्णइ,'इमस्स चेव जीवियस्स' इमस्स चेव माणुस्सगस्स, जीविजइ तेण णेहपाणवमणविरेयणअब्भंगणण्हाणसिरावेहादीणि करेइ, रसायणाणि य उव जिजइ, । परबलभयाओ बलं पोसेइ, तनिमितं च दंडकुडंडेहिं जाणवतं पीडेति, परिवंदणं नाम छत्ती अविलिओ होहामि, वण्णो वा मे भवि| स्सइ, तेण णेहमाईणि करोति, मल्लजुद्धे वा संगामे वा संसारादि चलकरं भोत्तूर्ण णित्थरिस्सामि तेण सत्ते-हणति, इदाणिं माणणा| निमित्त, जो णं अब्भुट्ठाणादी ण करोति तस्स बंधवहरोहसनस्सहरणादीणि करति, तेण दिट्ठपरकम्मरस अन्भुट्ठाणादीणि करेंति, " अहवा धणं अजिणति बलसंग्रहं करेति विजं वा सिक्वइ वरं परो सम्माणेतो वत्थादीहि, जो वा ण सम्माणेइ तस्स बंधणादीणि | करेइ, वर भयं विणीय होइ। इयाणिं जाइनिमित्तं घिजातियाण जीवंतदाणपाई देंति, जं वा सजातिउत्ति तन्निमित्त आरंभं | | करेइ, मरणेत्ति करदुयादीणि कारवेइ वा, जहा कत्तविरियावराहे, भोयणाएनि करिसणादिकम्मेहिं पवचमाणो तसथावरे विराहेति, मसनिमिनं छगलसगरतित्तिरादि, दुक्खपडियायहेउत्ति आतंकाभिभूता रसगादिहेउं बगतिचिरादीहि य एकुडियाउ पकरेंति | निण्हवणादीणि, सहस्सपागोसहसंभारहेउं मूलकंदावि विराहेति, जं वा दुक्खं अस्स जेण विणयइ जहा सीतवासपरित्ताणणिमित्रं दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-६७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-१२] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१७॥ CMS प्रत वृत्यंक [१-१२] - इट्टापागादिएसु तसथावरेसु बिराहिता गिहादीणि, परिस्संतो जाणं या अमिलसइ, 'एतावतो सब्वावंती एनिमिर्च पंचि- कर्मपरिणा दिया संता सत्तबहेसु पवर्तते, तं जहा केवलनाणेण जाणित्ता एव इहमेगेसि णो सण्णा भवतित्ति आदि जाब दुक्खपडिधातहे । २ उद्देशः पवेदितं, जं वा संसरति जहा यज्झति जं च उवरि भण्णिहिति तं च एतावंति सव्वावंतिगहणेणं दरसियं भवति, लोगस्स कम्मस्स | परि०, असंजतलोगस्स लोयंमि वा कम्माईति-कम्मता तेसु मणोवाचकाइया किपकारितअणुमोदिता दुबिहाए परिणाए परियाणिता भवंति जस्सेते जेसि वा एते ह्याणि दुविहाए परिणाए परिण्णाया 'से हु मुणी' मुणे जग तिकालावथं तेण भुणी, परिष्णायकम्मो णाम जाणिऊण विरतो, इति परिसमत्तीए, बेमित्ति गोयमसामिप्रभृतीर्ण सिस्साणं, एयं पढमुद्देस तत्थऽस्थत्तो अधित्ता भगवं आह-संयं जाणामि, णो परपचएण, अअसुहम्मो वा अञ्जजंबुणाम भणति, सयं अहं एयरस मुयस्स कचा अतो |बेमि इति, सत्थपरिणाअज्झयणचुणीए प्रथमेऽध्याये प्रथम उरेशः समाप्तः ॥ स एव वयणपगरणगताधिगारो अणुसञ्जति, दीसो तं वा, सत्थपरिणति अज्झयणति, तत्थ पढमउद्देसी देसणनाणाधिगारेणं गतो. |लोगसि कम्मा परिण्णाया भवति, चरित्नाधिगारादि अस्थि, सेसेसु सो चेव नाणदंसणाधिगारो, अहवा स मुणी परिण्णायकंमिति अंतिमसुतं, तस्स पडिवक्खत्तओ अपरिणायकम्मा इमेसु जीवनिकापसु उपवञ्जा, तंजहा-पुढविकाइएसु आउकाइएस तेउकाइ-IN एसु बाउकाइएसु वणस्सकाइएसु तसकाइएसु, तत्थ पढम पुदविकाइयं भवति, आदिसुचेणाभिसंबंधो-सुयं मे आउर्स ! तेण भग-2 वया एवमक्खाय ?, इमपि सुतं चेव-'अट्टे लोए परिज्जूणे', अहवा गो सण्णति, सा कई न भवति ?, आह-ण णाया भवंति, तंजा-पुढचीए निक्खयो परूयणा' गाहा (६८-२८) 'णामं ठवणादविए पुढवि' गाहा (६९-२८) दीप अनुक्रम [१-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने द्वितीय: उद्देशक: 'पृथ्विकाय' आरब्ध:, [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६८-१०५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३-१७] (०१) पृथ्वी चूर्णिः प्रत वृत्यंक [१३-१७] दव्वं सरीरभविओ गाहा (७०-२९) आगमओ नोआगमओ य, आगमओ जसणं पुढवि०, गोमागमओ तिविहारांग पत्र-IAN GET निशेषाद जाणगसरीर० भवियसरीर० बहरिना, तत्थ बहरिचा एगमविय बद्धाउया अमिमुहणामगोयाई, भाव. पुढवीणामगोयाई २ उदेशः NA ॥१८॥ कम्माण वेदेमाणो जीवो भावपुढवी, गवो णामनिफण्णो निक्खेबो। परूवणा 'दुविहा थापरपुढवि' (७२-२८) गाहा ।।। 'पुढवी य सकरा चालुगा य एवं चत्वारि गाहाओ (७१,७४,७५,७६-२९) जान जलकतो सूरकतो 'वण्णरसगंधफासे| PM गाहा (७७-२९) वण्णादेसेण गंधक रस० फासादेसेण सहसम्गसो संखेजाई जोणीप०, तंजहा-किण्हो किण्हतरो किण्हतमो एवं एफेके वणगंधरसफासे संजोगनिष्फण्णेसु वण्णादिसु संखेजाई जोणीप० 'जे चादरे विधाणा पजत्ता' गाहा ((७९-५९), 'रुक्खाणं' गाहा (८०-३०)'ओसहीतण' गाहा (८१-३०) 'एकस्स' गाहा (८२-३०) 'एएहिं सरीरेहिं' गाहा (८३-३०) इदाणि लक्खण 'उबजोगों' गाहा (८४.३०) एयाण्ण उवजोगादीण सुत्तस्स मुच्छ्यिस्स या जहा अवत्ताणि 'अहिँ जहा सरीरंमि अणुगतं' गाहा (८५-२१) इदाणि परिमाणं 'जे पादरपज्जत्ता' गाहा (८६-३१) 'पत्येण व कुलएण व' गाहा (८७-३२) लोगागासपए गाद्दा (८८-३२) 'निउणो य होइ' गाहा (८९-३२) 'अणुसमयं च' गाहा (८९-३२)। एगसमएण केवइया उववअंति?, असंखिजा लोगा, एवं उबवतावि, सम्बो चेव काओ असंखिजा लोगा, संचिडणावि असंखिजा लोगा। इदाणि उवओगो-'चंकमणा य' गाहा 'आलेवणा य' गाहा 'एएहिं गाहा (९२, ९३, ९४-३२) इयाणि'सत्थं हलकुलिय' गाहा (९५-३३) 'किंची सकायसत्यं गाहा (९६-३३) इयाणि वेयणचि 'पायच्छेयण' गाहा (९७-३३) 'णस्थिय सिपंगभंगा' गाहा (९८-३३) इदाणि चवणत्ति, जस्थ ण लझमाणो तत्थ 'पवदंति च अणगारा' DIL१८॥.. दीप अनुक्रम [१३-१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [22] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६८-१०५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३-१७] पृथ्वी निक्षेपाद २ उद्देश: प्रत वृत्यंक [१३-१७] श्रीवाना-100 गाहा (९९-३३) 'अणगारवाइणो' गाथा (१.५-३३) 'कई सयं वधे' गाहा (१०१-३४) अण्णे य णेगावे पाणेनि गंग सत्र-14 जो पुढवि समारभते गाहा (१९२-३४) "पुर्वि समारभना' गाहा (१०३-३४) इदाणि णियचित्ति-एवं विधा- चूर्णिः INTणिअणं' माह। (१-४-३४) से मुणी परिण्णायकम्मेनि मिनि 'गुत्ता गुत्तीहि गादा (१०५.-३४) अट्टे लोप परि।।१९ BHAI शुष्णे' (१०६-३४ सत्र) पदच्छेदे को पारित दवही सगडादिचका एकनी दूहतो वा परित्ताधी आचालिजंति सो दबट्टो भण्णाति, कं.पले पत्ताधमादिम वा सरहा (व्हाइ), भावदोमट्टी तेहि संपीडित जीवचा संसारचक्के अणुपरीति, प्रहबा पंचहिं इंदियविसदि, अवा कमाबदही, अहया दंसबमा चरिनमोहेगा य, मिच्छनमोहो अभिमहियअणमिम्महित हिं, चरितमोहो कसायकोकसायहि, हवा सम्वेग मोहथिजेण, अवा दिहण कम्मेण, लोगस्य अट्टविही शिक्खेवो, अप्पमत्येण जीवोदयमाचलोगेण अहिगारो, थिवि सनीपंचदियलोएणं, जो मम्मन चरिणे या चरिताचरिन वा पडिक्जेजा, अहवा सम्वेणं लोगणं अहिगारो, जाओ अट्टो निच्यं नियतं वा ऊणो परिणी, सवतो वा ऊगो, सो वउविहो दयपरिज्जणी दरिहो, जो वाऽइदच आमलसमाणोऽविन लमद, तिसिओ पाणिय घुमुक्षिनो असणं आउरो भेसवमादि, मावपरिज्जूणो नागादीहि अण्णी परिजुभोनि का पुथइ, जहा जिन्य सरीर बेरीहुओ काखी, अचिरो जुण्णी पडो जिण्यां गिह सगडं पा एवमादि, भावजुण्णो उदयभाव उकडो य, सस्थनाणादिभावपरिहीणो अणंतगुणपरिहाणी, जमाव पृढ विक्फा३एस अक्षरम अगंतभागी उम्घाटो, चोहणं वोही, दुक्षेण बुज्या दुसवोही, सो एवं अज्माणेण दुकवरोधी य लोगो भवति, अह मेअञ्जो, असंघोही वा जदा भदत्तो, को देऊ,191 अयाणचं, जति अश्यााणनणेण परिजुम्मी परिज्जुण्याने मंदविमाणों मंदविण्यामनणेण दुरसंवाही, एवं परोप्पकारा परेसि दीप अनुक्रम [१३-१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [23] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३-१७] दीप अनुक्रम [१३-१८] श्री अचा रोग सूत्रचूर्णिः ॥ २० ॥ “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ ६८- १०५ ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३-१७] पदाणं, एवं अड्डातिदोसजुवस्स किं भवति, भण्यति-अस्सि लोगे पहि' अस्मि जीवो वा सयमेव हि संबंधिते | पव्वहिते सम्मेहिं अत्तावि णं बंधेति, अहवा अड्डों परिजुष्णो अयाणतो अमिलोए पथ्यहिते 'तत्थ तत्थे ति तेसु तेसु कारणेसु पुढविसमारंभेणं विना ण सिज्यंति, तागि समारभति, अहवा पतेयं पलेयं तेहिं तेहि करणेहिं हलकुलियकुद्दालमा दिएहिं देवउलसभाघरतलागसेतु अगडधातुनिमित्तादी पिधपिई, 'पस्से 'ति सीसामंतण 'आतुरा परितावेति'ति अट्टत्तणेण आतुरा, जह वा एग रणो किंचि सचितं वा अवि महरिहं द्रव्यं अवधितं, ते जगरगुत्तिया भणिता-जह एवतिएण कालेनं ग उद्वावे चोर तो मे सीमं छिदामि तेदिं मच्चुभयातुरेहिं कहाँचे गवेसंतेहिं चोरा उबलद्वा, गहिया य, तेण पडिवअंति, ततो ते मरणमवाउरा नाणाविहाहिं जायगाहिं परितावंति, एस दितो. एवं अट्टकम्माउरा मणुस्सावि जीविगा मरणमया विसयाभिलावणां य पृढविकाए णिचिणा णिरणुकंपा य परिवाविन्ति हलकुलियकोदालादीहिं, 'संती'ति विनंति पाणा-आउपाणाति जं भणितं, ण जीवा अजीवा, आजीविगपडिसेहत्थं चकम्महणं, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखिजा, 'पुटोमिति' चि पुढविसिता, अहवा पिथप्पि अस्मिता, जं भणितं - पत्तेयसरी एवं सवपत्ये मीकूखो ?, भण्यति पुणो- 'पुढो सिय'ति अतत्थ परिणते दोस, सत्यपरिणतं अचित्ता भवति मन्थपरूवणा जहा पिंडनिज्जुतीप, सचिता य अन्नपरूवणा जहा पण्णवणाए, लकखणं तुजं वा विवरणमा, कुतित्थिगाणवि आगमसिद्धाणि जहा आरोप्यादि, किमंग पुण सव्वणं १, भाग च- "जिनेन्द्रवचनं हेतुभियद गृह्यते । आज्ञया तद्धहीतव्यं नान्यथावादिनी जिनाः ॥ १ ॥ जे पुण पचऋण या नाविककाइए जीव उस 'लजमाणा पुटो पास' लजा दुविहा- लीगिगी य लोउचरा य, लोइया मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [24] पृथ्वीकायः २ उद्देशः | ।। २० ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६८-१०५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३-१७] काभाना प्रत वृत्यंक GAR [१३-१७] दीप अनुक्रम [१३-१८] गंगभूत्र 182 ममुरादाण व्हमा अमार्ण हमति पापा भुजति सबमाशाह, यायिय ओ वा अलखलाभओ पर पविभनो लजति, लोउचरे !! लम्बा चणिः Hit संजम एक्ला , भाग चला दया संजमी बभन" असंजम कार्ड लज्जति, पूढीणाम पनेय २, पास पचकखाणा वाचवाधा पृढवि समारभंना लज्जनि. अहया ने लाजमार्ग पामादि, कृतित्थिा पुष लजणिज्जेवि विणिहयामा अहिए परिजुण्णे दुस्संचोधे । २ उद्देश: अवियाणा पनयं करिमामाहागीकारगार कलियकोदालादीहि सत्यहि समाग्भनि, 'अजगारनि अगा-रुकवा नेहि कयं | अगार, अगार में णन्थि नेण अणगारा, दग्वे चस्यादि, मावे अणगाय माह, ने सीलंगमहम्मरकरवणट्टा पृढविण समारमंति. इतरे। पुणनिधि निमट्टा पायापमया 'पचति य अणमाग माहा."-:)लोपण अणगारा भण्णमामा, भयंती पूया-m सक्कार हे पण पायति 'अणगारवादिगो पुद विहि गाहा । १०.३३ ) मलिणना अपाणं कति, पृढविममारंभावरण । दुगुंडमाया, जहा मालणं अन्य कामोदएण पृनमाण, पर्व न ज ने दोति तं व करति महबोहोवा, जहा एककमि गामे सुइ-1 चोही सम्म मामम्म एम गिह कणता दिापनि ती उमट्ठीप माझ्याहिम जहाति, अण्णादायम गिहे पलही मला, कम्मा२५ णिस्य, नेश मणियं-संधि मनीणेध, संच ठाणं पाणिणं यावद, निफडिए चंडाला उद्विना विगिचियं कुज्ज, हि । कम्मवराह मुहरबाही पुजिओ. चंडाला दिज १, नण वृतं मा, किंतु किस्खु किखु किम्युनि भणति, बिकिंचतु मयं, एवमेव मंसं दामयमा देश, चम्मेण वदयाउ वह निगाणि उच्छुबाडमध्ये कीरहित्ति डोपि वन भविस्मइ, अविदिवि भी कजिहिनि नउमाण, पहारमा मन्थकंडाणं भविस्स एवं तणवि जहा परिवत्त एवं अपतित्थियाचि तं व सेंति तं चेव करेंति, मामीता पक्ष्यात पेव करेंनि हिंसं. दरसोयरिया चउमट्टि महियादि को करति, विचावि गामादिपरिगहो, हलक- ॥२१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३-१७] दीप अनुक्रम [१३-१८] श्री अचा रांग सूत्रचूर्णि ॥ २२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ ६८-१०५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३-१७] लिएहि हिंसंति, कहं अणगारा ण भवंति ?, भण्णति- 'जमिणं विरूवरूवे हिं' जमिति अणुदिनं इदमिति पञ्चकखवणं, अविकितो पुढविकाओ, स एव चुतो भवति विष्णाणाभावे, स हिंसिजति जेणं तं सत्यं, विविधाणि रूवाणि जेसिं तेर्सि उवभोगेहिं हेउहिं विरूवरूवेहिं सत्येहिं वहेहिंति हलकुलियादीहिं, किंचि सकायसत्थं पुढविकम्मं समारभंति, जं करेइ तं कम्मं, पुढवीए कम्मं २, तं तु स्वणणं चिलेहणं वा पुढविसत्यंति पुढविमेव सत्यं अप्पणी परेसिं च, इलादीणि या पुढविसत्थाणि ताणि समारमति, अणेगरूचेण एगरूवे सण्हबादरपुढविभेदो, सुहुमाणं बादरं सत्यं ण होति, सुहुमाणं परोप्परतो होइ, किमत्थं पुढवी विभज्जति १, भण्णति- 'तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया इमस्स चैव जीवितस्स' 'तत्थे 'ति तर्हि पुढविकायीए खलु विसेसणे जाणणापरिण्णाए पचकखाण परिष्णाए, अडवा पञ्चकखाणेवि एवमादि उपभोगं न कुआ, इमस्स चैव जीवियस्स-जीवियकारणा धातुं धर्मति करिसपाणि य पगारादीए य, एवं अन्नाणवि जावि दुक्खपरिषायहेडंति, सप्पो खदो कदमं खाया, पिसायस्स कूर्व खर्णति, सयमेव | वित्थं करिसगादि अपोहिं विहिज्ज कारवेद्दिति अणुमोयंति उवजीवंति पसंसंति य एत्थ जोगत्तियकरणत्तिएण य तं पुण अट्ठाए या तं सहितायत्ति, अहियाए संसारे भवति, चिरेणावि बोहिं ण लभह, लद्धाएवि ण करेति, अपायोद्वेजणो पालइति, अडवावायो दंसितो 'से तं संबुज्झमाणे' स इति णिदेसे, तंति जो भणितो तदारंभो तं संबुज्झमाणो, सिक्खागो वा मण्णति-से तं संबुज्झमाणो आदाणिओ-संजमो तं सम्म उडाए समृडाए, अहया आदाणिओ-विणओ तं सम्म उडाए, णमिच्छाविणणं उदाविमारगो व पुच्वं समुट्ठाए जहा भट्टारगं गोयमो, सोचा भगवतो सगासे, अणगारेणं वा तप्पुरिसो अणगाराणं चरगादीणं पत्तेयद्वाणं वा एवं एगेसिं रागदोसर दियाणं कयसामाइयाणं सिस्साणं गणदरेहिं पवेइयं जहा पुढवि जीवे, तदारंभो य अहितो, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [26] पृथ्वीशखं | २ उद्देशः ॥ २२ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३-१७] दीप अनुक्रम [१३-१८] श्रीआचारंग सूत्रचूर्णिः ।। २३ ।। “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ ६८- १०५ ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३-१७] तं समारभमाणस्म एस खलु गंधे एवं (स) मोहे एस खलु मारे एस अवधारणे खलु विसेसणे गंधो पुढचिकाइयवहेणं, अवि कम्मगंधो भवति, कारणे कज्जस्स उपचारा भण्णति एस खलु गंथे, 'मोहि'ति अप्पाणं अवसो मोहणिज्जं, 'मारि'त्ति आयुगं सूथितं, दुकूखगहणेण वेदणिज्जं, एवं सेसियाओवि पगडीओ एकाओ पुढविवधातो बज्झति, एवं मोहेणवि के०, अहवा एसो पुढविवध गंधे मोदो संतो विग्धो मोस्स मोकखमग्गस्स वा 'इचत्थं गढिए लोए'ति इति एत्थं पृढविकाए आहारोबगरणविभूसाहेऊ मृच्छिओ गडिओ गिद्धोति वा एगई एत्थ गढिओ किं करेति ? 'जमिदं विरूवरूयेहि सत्थेहिं' पुर्व भणितानि, जं करेति तं कम्मं सत्यंपि सकायमत्थं परकायसत्यं च कुदालालिचादीहि अण्णे व गाणारूवेहि पुढविधाय छकाया, मणियं च - 'पुढवि जीवे विहिंसंतो हिंसति तु तदस्सिते', जेण पस्संति ण सुणंति तेर्सि कहूं वेदणा उप्पज्जर', 'से बेमि' सोऽहं अमि, अपेगे अन्धयज्झे अच्येऽघमच्छेण गच्छंतीति अगा अंधो अपि एगे अपि अंधे अभेदिति भिंदे अच्छेदिति छिंदे, तत्थ थावरसंघे अगा अंधो य जहा पुरिसो कोई अंधोकि पंगुलोवि केवलं रुंडमेव जातो मितापुत्तो जहा जाव ते उपवातो बेईदिय तेइंदिय अपंगुत्तेवि य च समासेणं भयणा, तत्थ दब्बंधे अंधलओ, भावांघो मिच्छादिट्ठी, जहा तं अगं अंध वा सिरकवाले अनत्थ वा खरपदेसे कोइ मिंदति छिंदर वा किं तस्स अपस्सतोचि वितणा ण भवति १, एवं पुढविकाइयाणवि अगच्छंताणं सुदुमयाए अप्पसंघयणाणं फरियमिचेणवि मारणे अतुला वेदणा भवति, जहा पंचिदियाणं पढ़े सूसी कंटएण वा विज्झमाणाणं अणुत्तरेण सत्येण मिज्जमाणाणं वेणा भवति तहा पृढविकाइयाणवि अस्थि ते पदेमा तित्थगरदिड्डा आणागिज्ज्ञा पादत्थाणीया, एवं खलुअग जाव सीम, अप्येगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए संपमारणा मुच्छा मुमुच्छा वेति, 'णत्थि यस अंगमंगा ' गाहा (९८-३३) पाणाणं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [27] प्रथादित्वं २ उद्देशः ॥ २३ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६८-१०५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३-१७] प्रत वृत्यंक [१३-१७] श्री आचा- यामण उरवण, महा पा मुच्छितो रिमी छिनी मिना या खारेण या खाग छिप्ती वेदेति एवं वीणगिदिकम्मदएणं णिसपृथ्वीवेदना गंग बना मुच्छिता स वेदणं बेटेनि, 'ro' पुषिककाए मत्वनि किंची मकायसन्थे, सब्वेवित्ति आरंभा, जे ने हलकुलियादि, अहवा || अप्कायः चूर्णिः Aपादभेदादि एतेण अवक्खिता जे अयं तदम्बिता नमादि, जहा दवग्गिदायगो तणम्म, तेण अहिकखद, कुई वा पाडेतो ३ उद्देशः ॥ २४ ॥ चिनकम्म, जो वा गभिर्माण मारनि यो तं गम न अविकरखइ, एम दिटुंतो, एवं पुढवि हलादीहि समारभमाणो नदस्सितजीवे ण अविकरवति, दृविहाए परिण्याप पाल्य भन्यं असमारभमाणम्स' कंट, ने परिणाया मेहावी, नमिति तं जहा उद्दिष्टुं पुढवि यसमारंभ गरिष्णाय विहार मेरावाहिण अहिमागे, गहणधार कमजुतीति इच्छिज्जा, व मयं पुढविसत्यं सत्वालादीहि जोग-101 तियकरणानियएण, जम्म ने बहुट्टिा पुक्किम्ममारमा खणणविलेहणा निर्मिनं च पुढवीं ममारंभंनि तंनिमित्नो य कम्म पंधी, अविहो गई परिणानि य, मन्ब रथ जदिटुं दुविहाए परिणाए परिणतं भवतीति, म मुणी परिष्णायकम्मा 1 मयंतीति, जैमिनि नदेच, पर्व मन्थपरिणाअायणपणी विनिओ उदमो समामः ॥ णिज्जुतिगादानी परितसिवानी (१६.१५५ ३५) उदयाभिसंबंधी-मुणी परिणायकम्मेनि, इदवि सो चेव मृणी से बेमि, उनिया कणगारे अणमानिया मिनि का एगहा, पाय मतपरिहारेण यम्मन भुणीलकखणं भवति, अन्बेहिवि काएदि परिण! कम्णा भावनम्बं. तन्य आउकायमधिकिश्च भवनि-से मि से इन णि मो, जेण प्रकारेण जहा, अणगागे मागतो, जहा पुर्व परिहारली अणगारो भवनि एवं उदकषि, अदि मावणे, 'अपि भवति अपि भवति, मी हा भवति जहा नि नाप मि-उन्मुकति रिज-गंजमो रिजु गतीनि उन्नुकडे, अहवा पगाण अपे-अवकसहाची ॥२४॥ दीप अनुक्रम [१३-१८] । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने तृतीय: उद्देशक: 'अप्काय' आरब्धः, [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१०६-११५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८-३०] श्रीआचा | रांग सूत्र चूर्णिः ॥२५॥ प्रत वृत्यक [१८-३०] भणित होति, अवामसीली, णिकाओ णाम देसम्पदेसबहु णिकार्य पडिवाति, जहा आऊ जीवा, अहवा णिकार्य-णिञ्च मो अप्कायः खं मग्गं पडिवण्यो अमायं कुब्बमाणो णे पडिचिण्णिस्सिचिवकादीणि अमायमेव सेवति, एवं अलोभमवि, वियाहितो अक्खाए,1) पच्छतो गरूयं सामन्नतिकाउं मा तहाइओ उदगं पिबिहिति वा, हाहिति वा, तेण भण्णति-'जाए सद्धाए णिक्वंतो' | (२०-४३) पायं पच्चयंतो बडूमाणपरिणामो भवति, तमेव बद्माणपरिणाम फासए, जं भणितं आसेवए, संजमसेढीपडिबष्णो बर्माणपरिणामो वा हीयमाण अवहितबुड़ी वा, हाणी वा जहण्योण समओ उक्कोसेणं अंतमुहुन, अबडितकालो दोसु जहण्णम-10 | ज्झासु अट्ठसमया, सेसेसु णत्थि, तं छउमत्थो णिच्छएण ण याणति-कि मम परिहीणं परिवति वा?, केसु वा वदामि ?, अहवा कोइ एक्कगाहाए 'जह सउणगणा बहवे समागया एगपादवे रचिं। बसिऊण जंति विविहा दिसा नहा सव्वणाइजणो ॥१॥ गाहा, एगवागरणेण वा जहा अइिंसालक्खणो धम्मो, सद्धासंवेगजुत्तो रबादिविभवं छड़ित्ता पचाओ, ण यावलियाए सद्धाए रजादीणि छडिज्जंति, चिरपव्ययस्स सुयामिगमेणं सवा बुद्धी भवति, भणियं च-"जह जह सुतमोगाहति अइसपरसपसर-19) | संजुयमपुवं । तह तह पहाइ मुणी नवनवसंवेगसद्धाए ॥१॥ तेण जाए सद्धाए णिक्वंती तमेव अणुपालिया, अहया जइण सक्केइ तच्चसद्धापरिणामो होउं तहावि जाए सद्धाए णिक्खंतो तमेव अणुपालिया, जति लामो गस्थि मूलंपि ता होउ, मा सव्वं णस्सतु, एवं जाए सदाए णिक्खंतो तंपि ताव अणुपालेहि जावज्जीवाएत्ति, सेहस्स तिहामिभूषस्स अनुसासणं 'तिण्णो हुऽसि । | विसोत्तियं' तरतीति तिष्णो, सवतीति सोसिया, विसोचिया दवे पदी निकादिसु वा अणुलोमवाहिणी सोतिया, इतरी विसोतिया, भावतो असोतं, नाणदंसणचरित्ततवविणयसमाहाणं अणुसोत्तं, तब्बिवरीयं कोहादि, अइ रोइज्झाणिया भावविसोचिया, दीप अनुक्रम [१९-३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१०६-११५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८-३०] श्रीभाचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२६॥ प्रत वृत्यक [१८-३०] अहवा संका विसोतिया, कि आउकाओ जीवो ण जीवोति,वं तिण्णो कई बद्धमाणपरिणामो भणियब्बो', भण्णइ 'पणता वीरा महाविहि' (२१-४३) मिस णता पणता अमिमुहीहुया मोक्खस्स बीथी-रत्था वा मग्गो वा एगढ़ा, दग्वे | तअंतरावणविद्दी गोविही सुंकविही, भावविही महती पत्रणा वा वीथी महावीथी, मोक्खमग्गस्स, अतिथि कईचि पमायखलितेण ण बडुमाणपरिणामो भवति तहावि लहु पडियुझिचा पुणरवि तिब्बतरपरिणामो भवति, किंच 'लोयं वा आणाए अ-1 मिसमिचा' (२२-४४) लोयंति जीवलोय आउलोपं वा, आणाए भगवतो उपदेसो, जेवि पञ्चखनाणिणो तेहिंबि पुग्वं | आणाए अधिगता, अभिमुहं पच्छा अभिसमेजा, अहवा दिळतेहिं कहिजमाणमवि आउक्कापलोगं एगिदियलोग वा कोई मंदबुद्धी Nण सदहति तं पहुच इर्म भण्णइ-'लोयं वा आणाए अमिसमेचा अकृतोमयं तिण कुतोऽवि जस्स भयं ते अकुत्रोभयं, अहवा ण 2 कयाइवि भयं करेइ आउकायस्स, तस्य भयं दुखं असातं मरणं असंति अणस्थाणमिति एगट्ठा, जो एवं तेण भण्णा 'से बेमि णेव सयं लोय' अम्माइक्खिज, न इति प्रतिवेघे सयं अम्भाइक्खा जहा एगिदिया अजीवा, अत्ताणं जो अन्नं वा संतं अबहा ॥ भणति जहा साहुं असाहुंति एवमादि, एवं जो पगिदिए जीवे उवगरणदु(प)पाय भणति तेण अम्भक्खातं भवति, अहयाऽऽउलोगो अविकितो 'त'ति पिजहाए ण अभाइक्सति, नेव सयं अचाणं अम्भाइक्वेजा, अलातचक्कदिढतादीहिं अपाणं अम्मा-1 इक्खइ जहा अहमवि नत्थि तेण छजीवकायलोगो अप्पा य ण अत्थीति बत्तव्य, इमं अमंगररागइलक्षणं 'जो एगिदियकायलोयं अम्भक्खाइ सो अप्पाणं अन्माइक्खइ, जस्स एदियलोगो गत्थि तस्स अपाधि णत्वि, जो वा अधि केयं आउलोगं अम्भाइक्खा सो अपाणं अभक्लाइ, कई १, तस्स अप्पा अणंतसो तत्य उववमपुष्पो, यदि सो णस्थि अप्पावि णस्थि, के पुण|DDIN२६॥ दीप अनुक्रम [१९-३१] A मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१०६-११५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८-३०] प्रत वृत्यक [१८-३०] श्रीआचा-Dलोगं अन्माइसंति ,जे अहपरिजुण्णो दुस्संधो वा आउरा परिताविता, सीसो भणइ-भगवं! आउकाओ अश्वत्थं दुग्गेझो अका रांग सूत्र-ICण सुणेति ण पासति णग्याति ण रसं वेदेति ण सुहृदुक्खं दीसंति वेदेता ण चलणं ण फंदणं णावि उस्सासो णिस्सासो वा दिस्सइ, | स कहं जीयो, एत्थ दिढुंतो 'जह हथिस्स सरीरं' गाहा (११०-४०) जंच णिज्जुत्तीए आउक्कायजीपलक्खणं जं चYAL ॥२७॥ अजगोबिंदेहि भणियं गाहा, आयरिएहिं सीसो परियच्छावेयनो, आणाए य सदहणा, आउक्काइए जीवे जो ण सदहन | सो मिच्छादिट्ठी अणगारत्तणं तस्स कतो?,'लज्जमाणा पुढो पास' एस आदत्तं पुढविक्काइयउद्देसयगमेणं धुपगंडिया सुचत्यतो माणियथ्या, अप्पेगे अंधमझे जाव संपमारे य पच्या 'से बेमि संति पाणा उदगणिस्सिता(२४-४५) से इति णिदेसे सोऽहं बेमि 'संति' विजंति पायसो उदए सबलोए पतीता पूतरगादि तसा विअंति तदस्सिता, ण उदगं जीवा जदा सक्काणं, अण्णेसि णवि उदगं जीवा णवि अस्सिता जीवा जे पूतरगादि, ते खिसंभवा ण आउक्कायसंभषा, 'इह च खलु भो अणगाराणं' 'इहे'ति इमंमि पवयणे च समुच्चये, खलु विसेसणे, किं विसेसयति ?-णायपुत्तसिस्साणं अणगाराणं,ण अण्णेसि, उदयजीवे वियाहिते, घसदो उदगणिस्सिता य पूतरगादि, ते ण खेत्तसंभवा, एत्थ भंगा-कत्थइ उदगं तसावि, कत्थर उदगंनो | | तसा, कत्था उदगं निज्जीचं तसा, कत्थइ उदगंपि निज्जीवं तसावि णस्थि, सो पुण आउक्काओ तिविहो, तंजहा-सचित्तो अपित्तो | मीसओ, कई अचिचो भवति ?-'सत्थं चेत्थ अणुवीइ पास' तंजहा 'उस्सिचणाय पाणे गाहा (११३-४१) किंची सकायसत्थं' (११४-४२) अहवा वण्णरसगंधफासा सस्थ, वण्ण भो उण्दोदगं अग्गिपुग्गलागतं इसित्ति कविलं भवति गंधतो धूम-10 |गंधि य, जत्थ गंधो तत्थ रसोवि विरस चा रसएणं, फरिसओ उण्इं, किंचि उण्डभूपिन अचेयणं जहा अणुनचो दंडो, सभावेण | 1॥२७11 दीप अनुक्रम [१९-३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [31] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [3], नियुक्ति: [१०६-११५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८-३०] श्रीआचा- धूणिः ॥२८॥ । प्रत वृत्यक [१८-३०] -- महानवोतीरोदगं सचेयणं, जया सीतलीभूतं तदा समावपरिच्चारण अचेयण, लवणमहुरअंबउदगाणं अण्णोष्णं सत्यं, दुम्भि अकाय: गं च पाएणं अपिनं भवति, सकायसत्ये परकायसत्ये भंगा चत्वारि, तंजहा-थो अश्वोवेणं, एतं सत्थं 'अणुवीय पास'ति सयमतीए चिंतेत्ता परतो या सोतब्ब, न महमा फासुयंतिकार्ड घेत्तव्यं, 'पुढो समथं पवेदितं'ति यहणि आउकायसत्थाणि भगवता पवेदिताणि उसिनणे य पाणे, जे कुतित्थिया उदगं पिबंति ते णियमा हिंसगा उदगम्म तदस्सिताणं च, अहिंसं घोसिना तन्कारी नहोसी पभिलंगगडणी वा, अदुवा अदिण्णादाणं' ते लोगअगडादिएम जइवि पुन्धाणुण्णायत्तणेणं ण अदनं नहावि णदीए वा वासोदकं वा उपजीनाणं अदत्तं भवति, जेमि वा ते सरीग तेहिं अगणुण्णार्य, अह सामिअणुणातं पिहोसं नो सामिणण्णाय महिसं छगलं या धानतो णिहोसो भविजा. ण य सो णिहे मो, कुतिधिया तेहिं तेहिं कारणेहि उदगममारंभ करेंनि नेवि अविरता, तजहा-कप्पड २' द्विमिहिता वीसा केसिंचि पातुं कप्पति, ण ण्डातुं, आजीविमसर वागं च, नाणियाण व्हातुं पातुं च, केमिचि हाणपियणहेतुं मंडोवगरणचरूवमसादीणं पक्वालणहेऊ, केसिवि परिपूर्त, केमिचि अपरिपूर्त, केसिनि परिमिय, कमिचि अपरिमियमिति, अदुवा विभूमापनि विभूमा नाम हाणहत्यपाद मुहबत्यादिघोवणं च 'पुढो नि पत्तेयं महागादिगु बहुसु कारणेमु, अथवा 'पुढो सत्येहिनि पिपिहेहिं मधेहिं उस्सिचणा य पाणे गाहा, 'विउति नि जीविया बबरोवेनि, अहबा डाणादिसु बिउध्वति, पत्धवि तेसि णो णितरणा' जइविण्हाणपियणधोवणादिमु परिमियारंभ करेंनि नहावि ने अविग्या, पाहणं उदगारंभविरयाणं जहाकरणं भवति सर्वप्रकारेण विरता भवंति । एत्य । सर्थ समारभमाणम्य जाच परिममत्तं" ति ।। इति सत्यपरिणाअज्झयणचुण्णी नाओ उसो परिसमत्तो॥ दीप अनुक्रम [१९-३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [32] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [११६-१२५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३१-३८] ॥२९॥ प्रत वृत्यक [३१ श्रीआचा तेउकायस्सविणव पदाई वन्नेऊणं स एव जीवणिकायाहिगारो नदीसोतव अणुवचते जहा पस्थिवाण पवाललवणंकुर- तेजस्कायः रांग पत्र-1 फालियपहाणगजितगसमिफोडगादि तप्पसिद्धीए हेतू भणिता जहा वा कणुया णिचेट्टावि जीवा तहा पत्विवावि जीवा, आउ. ४ उद्देश चूर्णिः | काएवि जल(कलल)दगदिटुंतो चुत्तो, इह तु जीवलक्खणत्तिदारे वणिजंते जरितस्य सरीरं उसिणं जहवा खजोतओ रति दिप्पति | या देवसरीरं च सदा दीप्यमाणं ण अजीवो भवति तदा ते उक्काइया दिपमाणा जीवा भवंति, इंधनसं जोगेण विद्धिविगारोवलभाओ, य जीवा तेउक्काइया, सुत्ताणुगमे सुर्च उच्चारेयध्वं, दुस्सद्धेयं वेउकायस्स जीवत् अतो आदिसु भण्णइ-से बेमिण पडिसेहे । 0 लोगो-अम्गिलोगो जहा आउक्काइउद्देसए किंच-'जो दीहलोए सस्थस्स खेत्तण्णों' जे इति अणुद्दिदुस्स दीहलोगो पण्डिइ । लोगो, संचिगुणाए वणस्सइकालो दवपरिमाणेण व वणस्सइकाइया अणंता, अहवा दिग्घसरीरचा दिग्घलोगो, जोयणसहस्सं| | साइरेग, अहवा सम्बत्थोत्रा यादरा तेउक्काइया पञ्जत्तया, ततो अण्णे जीवनिकाया अर्णतगुणा, ठितीवि अडाइजा राइंदिया, इतरसिं दिग्पतरिया, तेण दीइलोगो, तस्स दीदलोगस्स किं?सत्थं अग्गी, जो एवं जाणाति, एमो आयावगनामस्स उजओ-100 वगनामस्स य उदएणं सेसकाएहितो विसिस्सति, 'असत्यरस'ति ण सत्थं असत्थं सो संजमो न तं कस्सइ य सत्थं भवति, अगणिकायसंजमो बा, जे असत्थस्स० से दीहलोगसत्थस्स०,गतिपञ्चागतिलक्षणं एयं, केण भणितं एतं ?, भण्णति-'वीरेहिं एतं । अमिभूत दिढ' णिचं आत्मनि गुरुषु च बहुवचनं, तेण वीरेहिं एतं अभिभूत, सन्चतित्थगरग्रहणं वा बहुवययेनं, अहवा केव-10 लिग्रहणं गणहरग्रहणं च, 'एतंति छञ्जीवनिकायचक्कं अगणिजीव वा, अभिभूय चि तत्थ दवे जहा साहस्समल्लेण सतुसेणा | " सरबहतेण अमिभूता, जहा या आदिच्चेण तमो, भावाभिभवे तु चत्वारि घाइकम्माणि अभिभूत परीसद्दा उत्सग्गे य अभिभूय, अहवा|| ॥२९॥ दीप अनुक्रम [३२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने चतुर्थ: उद्देशक: 'अग्निकाय:' आरब्धः, [33] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक ३१ ३८] दीप अनुक्रम ३२ ३९] बीजाचारांग सूत्रचूर्णि ॥ ३० ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१] उद्देशक [४], निर्युक्तिः [११६- १२५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ३१-३८] जहा आइचो गणक्खतताराण प्रभं अभिभूय भाति तदा छउसत्थियनाणार्ण अभिभूय संदेवमणुयासुराए परिमाए मझवारे परितित्थिए अभिभूय 'दि' द अक्खातं, संजयत्ति पावउवरतेहिं, 'जतेहि'ति जयणा दुविधा - पमनजयणा य अध्पमत्तजयणाय, पमतस्स का जयणा, भण्णइ-पम सम्सवि कसायादिनिग्रहपरस्स इरियादिउपभोगो पमत्तजयणा, अपमत्तजयणा तु अकसायवयणसज्झति, तत्थ जयणग्रहणा दिग्धकालिया जयणा घेष्पति, अप्पम तग्रहणा इंदिया दिग्मादे बजे सप्पविक्खभृतोपमतो तं पच भणति 'जे पमते गुणडिए' जे इति अनुस्सिपो इंदियादिणा असंजतो पमत्तसंजतो वा 'गुणडिए'नि तंजारंथणपयणपगासणादि जम्स तेहि अड्डो सो गुणडिओ, अहवा नाणादितो जे गवि आतावणादीणि करेति, एवं सेसेविकाए आरभति से सडे पचतीत कार्य दंडओ अप्पायं दंडेइ संसारे, अभिवृचति पच्बु वइ, जतो एवं तेण तं परिण्णाय मेहावी' 'तं' ति छजीवनिकाया अरिंग वा अभिनत्रपन्च पव्वकामो वा अप्पाणं अणुमासे, गुरुमादी वा अणुपासंतिजो काए हणह सो तेसिं दंडो भवति, तस्स घायस्य पच्छा दंडो भविस्सह, अतो तं जागगापरिणार पञ्चकखाणपरिणाए य मेदावी भणितो । इदाणि तिसंजतो जातो 'णो' इति न कुआ ये समारंभं जं अहं पुर्व असंजतो, किं १, तहा पमाएणं अट्ट परिजुन्या दुसंबोध अयाणग आतुरपरिताविता जाब आतुरा परितार्थति संति पाणा तेउकाइए 'लखमाणा पुढो०' धुत्रगंडियं मणिऊणं जाव से बेमि, 'संति' विक्रेते, जमिणं विरूवरूवे सत्येहिं अये वगरूपा अगणिसत्ये बर्हति तं इमेण सुतेण विभावितं विवरितं च भवति, तंजहा- पुढ विनिस्सिता तस्थावरा य कुंथु पिपीलिया अहिमंदुआदि तसा रुक्ख गुम्मलता तथा नि थावरा, तणपतेहिं कुंकुमादि कट्ठे घुणादि गोमये कुंपणादिकयवरेविधुमादि 'संति संपातिमा' संति-विअंति संपानिमा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः wwwwww [34] तेजस्कायः ॥ ३० ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [११६-१२५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३१-३८] IMAR प्रत वृत्यक [३१ ३८ श्रीआचा-मा ID भमरकीडपतंगादि 'आहच' णाम कमाइ पतंति, तंजहा-णिसिं सलभाण दिवसतो मुहुमेदि लोगो कुलयो उपमिती, णिचं|D रांग पत्र वाती वातो ससु लोगागास जाव णिक्खुडेसु अहवा आदच आगत्य सच तो पतंति संपतंति, चसहेण काउजीवा तप्पेरिता चा|AL कायौ पूणिः | मसगादि 'अगणिं च खलु पुट्ठति अग्गिणा पुट्ठो अग्गि वा फुसित्ता चप्पदा जालं फसिनावि खलु पूरणे सबतो अण्णोण-IV४ उद्देशः ॥३१॥ गातसमागमतो संकुचंति तप्पमाणा, जहा मजारभएण मूमओ, तस्थ परियावअंतित्ति सञ्चओ आवर्जति, धूमेण जालादि वा | पनावेण वा मुच्छिता णिसण्णीभूया अग्गि परियावअंति, जं भणितं अग्गीभवंति, जे परियावनंति ते उदायंति, जतो एवं तेण | | ण एक अग्गी चेव भारभंति, तदारंभे अण्णेवि सचा विणस्संति, भणियं च-"दो भंते ! पुरिसा अण्णमण्णेण सद्धिं अगणिकाय" | तहा "जीवाणं एसमाघातो." तं परिणाय मेहाची जाव बेमि । प्रथमाध्ययनस्य अनिकायाख्यश्चतुर्थ उद्देशकः समाप्त ४|| ANI इदाणिं बाउस्स अबसरो,सो य अचक्खुसोति दुस्सद्वेयो, माय सिक्खगोतं असद्दहमाणो विप्पडिवज्जेजा तेण उकमो, जं वणस्सई | Dमण्णइ,एसेवकमो जेण सिक्खगो पडिबजइ, तेण चउहि एगिदियकाएहिं परूवितेहिं सब्बलोगप्पतीते यतसकाए सुठु सद्दहिहिति | वायुजीवन,(वणस्सई)पुण पाएण लोगो सदहति,तेण गुम्बं सो भण्णति, ण वाऊ, वणस्सती नवहिं दारेहिं भाणियब्बो,निज्जुत्ती पठितसिद्धा, तण्णो करिस्सामि' तं दंसितं वणसती, इति परिसमत्तीए, एवं परिसमचं समणलक्षणं भवति,जं पुवकत समारंभ तं पवजी अन्भुवगतो ण करेति,सम्म उत्थाय, भणितं छज्जीवकायसंजमे अद्वितो, अहिकयकायस्स वा,मंता-जाणित्ता, मति से अस्थि मतिमं-आमिणिधोहियनाणं घेपति, सुर्च तत्थेव, अहवा मइग्गहणा सधनाणाई गहियाई, कायाण अधिकयस्स वा अभयविदित्ता, | अभयं सत्तरसविहो संजमो, अहका सातंति वा सुई वा परिणिवाणंति वा अभयंति वा एगट्ठा, तन्धिवस्वो असातंति वा दुक्खंति | IMM॥३१॥ CAL दीप अनुक्रम [३२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने पंचम उद्देशक: 'वनस्पतिकाय: आरब्धः, [35] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१२६-१५१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३९-४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रत वृत्यंक चूर्णि [३९ ४७ दीप अनुक्रम ४०४८] श्रीआचा- वा अपरिणिव्वाणंति वा भयंति वा एगट्ठा, ते सातासाते अप्पोवमेणं जाणित्ता जं अप्पणो अणिहूँ ण तं परस्स कुजा 'जह मम |AN राग - पियं दुक्खं जाणिय एमेव सबजीवाण' गाहा, 'तदिति तं मयं जे जीवा 'णो' पडिसेहे 'करई कुजा, कि त ?, छज्जीव-100 निकायआरंभ अधिकयं वा 'एत्थोवरते'चि वणस्सइकायसमारंभो 'एसोवरए'त्ति गुरुसमी धम्म वा उवेच विरतो स एव | ॥३२॥ अणगारो भवति, सेसा दन्चअणगारा, 'जे गुणेति सद्दादिविसया ते पायं सब्वे वणस्पइसमारंभाओ गिफज्जंति, तत्थ सदा । वंसवेणुलयत्तिवीणविहंचिपडहादि वणस्सईओ, तसा तंतिचम्मादि, रूवाणि कट्ठपोत्थकम्मगिहावणलेणवेइयाखंभपुष्फफलवत्था| दीणि गंधा कोढवादी गंधजुत्तीओ परमा मूलकंदपुष्फफलादीणं तित्तादओ य विभासा, मासक्खमणादीणि काऊणं सेवालकंदमू लादि आहारिन्ति फासो तूलिमादीहिं, अबेसुवि काएसु सदादिगुणा विभासियच्या, पुढविए सद्दे सुरवासलिप्पादीणि गंधो सजओ | WAI चुट्ठीए महीए रसे लवणादी फासे दहिकुहिमादि, उदये सद्दा जलमहुवादि रूवे णदीतूरादि धाराणि वातानि वा गंधे गंधोद-17 | गादि रसे धारोदगादि फासे सीतं तावोदए वा उण्हगुणो, तेउकाए तवणवितावणपतावणादि, बातेवि गवक्खादीहि, तसेऽवि सद्दो संखादीणं गीयसद्दा य इस्थिमादीणं, एवं रूवावि गंधा कत्थूरियातीणं रसा मंसगोरसाईणं फासा हंसपक्खादीणं, सव्वोवि गुणो | पुणो चउचिहो नामठवणाओ गयाओ, दन्वगुणो सामित्त करणअहिकरणेहिं एगतपुरहि भाणियवं, दबस्स गुणा अग्गीए | उण्डा एवमादि, दब्वाणं बहूणं समेयाणं जो रसविवाए गुणो, दग्येण जहा अण्णेणं छुहा फिटति एवमादि, दब्वे जहा ओसहेहि रोगो नासइ, सनिहाणे, द्रव्ये गुणो तिचादि, अणेगेसु दव्वेसु पिडितेसु जे गुणा जोगीपाहुवादिसु, भावगुणो पमत्थो य अपसत्थो य, अपसत्थो जो जहिं रागंधो, जहा रागेणं ण याणति रागा लोभा जूयकरादि खुई पिवार्स वा, पसत्थो नाणोबओगेणं ॥२२॥ [36] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१२६-१५१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३९-४७] प्रत वृत्यंक [३९ ४७ | तिसादी ण तिवेदेति, दरिसणगुणो कुतिस्थिरसुण मुमति सुलसा वा जहा, चरितगुणो ण चिसएसु राग करेइ, दोसं वा, धूल- वनस्पतिः श्रीश्राचा- संग सूत्र मद्दो जहा, आवडो चउबिहो णामादी, दच्चे साभिनकरणअधिगरणएगतपुहूत्तेमु जहासंभवं भाजीयब्ध, दवस आवदृणादिसु चूर्णिः | कईचि उदगस्स आवट्टो भवति, दवाणं आगासे कोचपंतीमादीणं पुणो पुणो आवद्दो भवति, दवेण तेणेव उदगेण तणादि आवट्टिता, दग्वेहिं संदामगकचियादीहि लोहादि, सणिहाणेवि एगत्तपुहुने विभासा, भावाबट्टो गाम अण्णाणभावसंकंती उदइयभावोदयो वा, गरगादिमु भावेसु आवद्दति, आह-जे गुणे से आवडे, आम, जे आवहे से गुणे, आम, गतिपञ्चागति-) लक्खणं, कोऽभिप्पायो, कायपुग्गलुत्था (कोइलमुरचुत्थ) सद्दादिणा रागो तप्पडिपक्खे दोसो, ततो संसारियं कम्म भवतीति-11 | काउं कारणे कार्योपचारा भण्णति जो एवं गुणो सो आवट्टो, आवट्टो कहं गुणो भवति?, गुणतो अण्णऽण्णो आवट्ठो तेण आवट्टो | अ गुणो, जब नाणनाणीणं एगत्त, अहवा जो गुणेसु बट्टति सो आबट्टे वह ?, आम, गतिपच्चागतिलक्खणं, कोभिपायो ?, गुणेसु वट्टमाणो ण संसारा उबट्टति, एते गुणा कत्थ', भण्णाति-पण्णवगदिसं पडुच उई पासातातिइम्मियेस, अध अहे, उच्च-| स्थांगारित्थले वा आरुढो, तिरिय आवासगं, अहवा उडुलोए वेमाणियादि अहे भवणवासीणं तिरियं दीवसमुद्रव्यन्तरजोइसि-1 याण य मणुयस्स तिरिक्खाणं सभाप्रपादिसु, पाईणग्रहणेण तिरिय चत्तारि दिसाओ अणुदिसाओ य गहियाओ, पासिस्सामिति IAW दरिसणिजाई, ताणिमणुवत्तणेण सयमिव अप्पाणं दरिसेति, असोभणेहिं तु आमणेदिवि दिट्ठी णिवत्तेति, अहवा पासियाई ताहि | |चकखुफासियाई जहण्योण अंगुलस्स संखेअइभागे उक्कोसेणं सातिरेगाओ जोयणसयसहस्साओ, पदिइय-पस्समाणो रूबाइं। |पासह जं भणितं स चक्खुजोओ उपउत्तो पासइ, भणितं साहियं तं सुणाति, एवं 'महावि सुणिमाणि सुणेति' सुणिमाइंति- ॥३३॥ दीप अनुक्रम ४०४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [37] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१२६-१५१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३९-४७] वनस्पतिः प्रत वृत्यंक [३९ ४७ श्रीआचा- सोइंदियग्रहणपाउगाई, जहणणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उकोसेणं बारसहि जोयणेहि, अहवा सुणिमाईति मल्लगदिट्ठतेणं जहा रांग सत्र तं वंजणं पूरियं भवति ततो मुणेइ, पढिजह य-'सुणमाणो सहाई सुणेति', निरुवहयइदियो तदुवउचो, एवं गंधरसफासे-0 चूर्णिः | हिवि भाणियचं, अग्याइमाई गंधे अस्सातणिजाई रसे फासिमाई फासे, तिसुवि हिने पोग्गले उक्कोसेणं णयदि जोयणेहि ॥३४॥ तिब्वेवि विसए उबलभमाणो उट्टे अहं तिरिय पाईणं मुच्छमाणो रूवेसु सद्देसु याचि, दूगलोग हारिं च तेण रूवं आदीए, तत्थ रूवे मुच्छमाणे मुछिए दुस्समाणे दुट्ठो, जं मणितं सरागोण वीतरागो, एवं सद्देसुवि रागीरागं जाति दोसी दोसं, रूवग्रहणे सेसविसएहिथि, अपिग्रहणा अपि जाति अवि ण जाति राग दोसं वा, अपि जाइनावि ण जाति अआइत्तावि जाति, कहिचिरजति कहिंचि । ण रजति, एवं दुस्सतीवि, एस असंजतलोए नियाहिते, 'एस्थ अगुत्ते अणाणाए'चि एत्थ घणस्सतिकायपरे लोए छक्कायपरिमोयगुणे वा कामगुणेसु वा अगुत्तो नाम रागदोसबसओ पंचसु विसएसु कहिपि विसए अगुतो जो वणस्सइसमारंभे अगुत्तो V सो सेसकाएहिषि अगुतो भवति, अहवा हिंसाए अगुत्तो सेसवएसुपि अगुत्तो, एवं सो अगुप्तो तित्थंगराण अणाणागारी भावाDबढे चउग्निहे नरगमादिसु छविहे वा पुढविमादिसु इंदियपमायभागावडे वहमाणो आवइ 'पुणो २ गुणासाए वंकसमा पारे' पुणो पुणो अमिक्खणं अणिवारिततप्पयारो ते सदाइविसए गुणे आसादेन्तो क्रसमायारो को-असंजमो तं समायरति In बंकसमायारो, अहवा नाणागइकुढिलो वंको-संसारो तं समायरति, गुणापत्तो हिंसादिसु कम्मेसु वहमाणो समायरति-णिवत्तेति अडति वा, सो एवं बंकसमायारो पमत्तो अट्टो आकंपितो आतुरो परितावितो ततो अगारवासं वमा निग्गंधो वा काए पडिसेवा पच्छा आतुरीभूतो छज्जीवनिकायसमारंभं करेमाणो सदादिगुणबुद्धिए वनप्पडकाए 'लज्जमाणो 'धुवं गंडिया, लक्खणाव सिद्धत्थं दीप अनुक्रम ४० ४८ ॥३४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [38] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१२६-१५१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३९-४७] श्रीश्राचा सकायः उद्देश प्रत वृत्यंक [३९ ४७ ID मण्णति-'इमपि जाधम्म' इमति भणुस्ससरीरं 'जाइधम्मति जाइस्सभावं, अहया अप्पाणगं सरीर सिस्सं वा, एस दिईतो, रोग सूत्र-1 एवं वणस्सइसरीरंपि, तंजहा-जातो रुक्लो जातो साखी एवमादि, कोई भणेज दहिं जाति सोऽपि जीयो १, भष्णति-ण तं मरनिय चूर्णिः | 'मंपि पुद्धिधम्म'ति जहा परिवदितो दारओ, अडचा थेरीभूतो, एवं वणम्सतीचि, अहवा आहारेण उवचिजति तदभाये अब-W ॥ ५॥ चिमति एवं यणस्सईवि, जहा वा हत्यो छिचो मिलाति तहा वणस्सईवि, साहा पुर्फ पत्तं वा छिमं मिलायति, अधुवं हार्ण.ए |बुट्टीए एवं वणस्सईवि, अणितिय अणि जं भणित, जत्तिकालायस्थिते असामतं चोपचहत्ताओ, चओवचार्य-चिअति अब-16 पिजतीपि, 'परिणामधम्मति भावंतरसंकमणं सो णिसेगादिवालमजिामवीरियाणि एवं वणस्सई वि वायकरादि कमेण भवति, YA तहा मूलकंदसंधतया, एवं अण्णेवि सुपणदोहलरोगादिलक्खणा पज्जाया भाणियना 'एत्य सत्थं समारभमाणस्स VA तेसिं तहेब इति सस्थपरिणाझयणे वणफइ उहेसो पंचमः। दाणिं तसकायनिज्जतीए नव दाराई वष्णेऊणं पठितसिद्धाई णवा 'तिविहा तिविहा' गाहा (१५५-६७) समूछिमा गम्भवतिया उववादिया एसा तिविहा पुणो तिविधा इति, एकेका तिविहा-सचिचा अनिता मीसा, अइवा सीता उसिणा Mसीतोसिणा, अहवा संघृता विवृता संवृतविघृता, अहना वितिओ तिविदो सदो गम्भवकंतियाण ण व भण्णद, तंजहा गाहाये चे भण्णति अंडयादि, लक्खणत्ति दारं, बेइंदियादीण तसाणं वइसेसियाई लक्खणाई भवति । 'दसण' गाहा (१५७, १५८-६८) | पढियचा, णोसण्णावियारे अणुयत्तमाणे अपरिष्णायकम्मा छसु काएसु उववजंति, इह तु तसाहिगारो 'से बेमि संति-विज्अंति सबलोगप्पईया बालादिपचवस्खा, बालावि भणती एस पिपीलिया जहण मारेदि, अहया संति, ण तेहि संसारो विरद्वितो भवती, दीप अनुक्रम ४०४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | प्रथम अध्ययने षष्ठम् उद्देशक: 'त्रसकाय: आरब्ध: [39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१५२-१६३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४८-५४] प्रत वृत्यंक ४८ ५१ श्रीआचा-0 मेदेण अंडया पोयया जराउया रसया, अंडया जाता अंडया मयूरकुकुड एवमादी, पोतया सणकता पक्खीवग्गुलियादि, जरायुजा जहा VA गोमहिसादि, रसया रसगादि, संसेदया युगादि, समुच्छिमा सलभमक्खिगादि, उम्भिया मुत्तिमा(खजरीडा)दि, उववाइया देवनारगा, चूर्णिः IN एस संसारेति पयुचइ, एस अट्ठविदो जोणिसंगहो संसारेति पवुच्चइ, मंदो दब्बे भावे य, द्रव्ये मंदो उवचए अकए य, भावेवि ॥३६॥ Pउवचये जो बुद्धिमतो अवचए बुद्धिहीणो, भावे मंदेण अहिगारो, एस पुण अपडपण्णबुद्धि बालओ गहिओ,तस्स मंदस्स अवि याणओ एसो अवविहो जोणिसंगहो जायइति निश्चितं, किमु वियाणगस्स, एवं तसकार्य णिज्माएत्ता पडिलिहिता निच्छित || | नियतं वा जनाइत्ता, पडिलिहिता णाम दटुं, अहवा अदिट्ठोऽवि कंधुसुहुमादिकखणट्ठा रयोहरणेणं पडिलेहिता य ठाणाति चेतेजा, अहवा णिज्झाइत्ता गाउं पडिलेहिचात्ति संपेरुसिता, प्रडिलेहिता एकेकं पहुच पत्तेयं परिणिन्बुइ परिणिब्याण जं भणितं सुई, एर्ग | परिणिन्वाणं पत्नेयं 'सवेसिं पाणाणं सधेसि भूयाणं सजेसि जीवाणं सबेसिं सत्ताणं"सवेसिं' ति अविसेसेणं इटुं गिब्वाणं सातति वा सुहंति वा अभयन्ति वा परिणिधाणंति वा एगट्ठा, एतविपरीतं अभिडं सब्वेसिं पाणाणं सम्वेसि एवं जाव | सत्ताणं दुरुखं सारीरमाणसं असतंति वा अपरिणिबाणति वा महन्मयंति वा एगट्ठा, इच्चेतेण अपरिणिब्बार्ण अभिभूता 'तसंति पाणा पदिसादिसासु' तसंतित्ति वा उब्बियंतिवा संकुयंति वा वीभिति वा एगट्ठा, एवं वा तसियाणं मल्चुभएण दुक्खं भवति,N IIIकिं पुण तालियाण वा संमदियाण वा पीसियाण बा, तसंति पाणा पदिसो दिसासुत्ति, पगारेहिं भिसं वा दिसाहि य अणुदिसा-IA हि य तसंति तं कार्य मा दिसा जत्थ तसा ण तसंति जहा कोसिपारा य सम्बाहि दिसाहि वीभेन्ति तेण कोप्सर्ग करेंति, एवं ता पण्णवगदिसं पहुच, भावदिसाएबि, ण सा भावदिसा अस्थि जहिं वदनाये जातो वाण लमिज्जा जो जाई, जाईए जीवो आजाति दीप अनुक्रम ४९ ॥३६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१५२-१६३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४८-५४] SSS प्रसकायः प्रत श्रीआचारांग सूत्र चर्णिः ॥३७॥ वृत्यंक ४८ SEL ५१ स तेहि मरति, इच्छइ य जीवहिं जो ते अण्णेहि संपसंसंति, किणिमित्त ?, तेहि तसंति समारभंता तं चेव नोसण्णाति, अहा ते | |जाय परिताविन्ति' धुवगंडिया, जहि अण्णे गरूवे ण णिविहिंसंति, तदस्सिते किमियउदयादि सत्ते मारेंति, तस्थ छकाये || विराहइ तसपाणेवि हिंसंतोत्ति, अप्पेगे अचाए वहति 'अच'त्ति सरीरं तनिमि आहारअलंकारनिमितं वा वधति, अहबा विस| खतितो हत्थि मारेऊण छुम्मइ, अहवा बेथालनिमित्तं सलक्खणं सरीरं खतं करतेहि मारिति, अहया अचाए अज्झिय(जिणा)ए। वा, लोहियाय बलिणिमित्रं छगलाति, अजिर्ण-चम्म तनिमित्तं सीहवग्यमिगमादी, बसाए सूगरादि, सोणीताए कमिरागादीणं | हितयाए हितयउडियाणं, अट्ठीए आहिणिया, पिनाए मयूरादी, वसाए वग्धमगरवराहादि, पिंछाए मयूरगेद्धादि, पुलाए मिग पुच्छगा, वालाए चमरी, संगाए रुरुखग्गिमादि, विसाणाए हथिगादि, दंताए सियालदंतेहिं तिमिरं नासयति, दाढाए वराहमादी, | पखाए बग्धमादि, हारुए जीवाए फंडाण वग्पादयो, अट्ठीए संखमादि, अट्ठिमिंजाए ओसहहेउं मंसासिणो वा अप्पेगे, अट्ठाए एते। | चेव अच्चादि, अवा अप्पणो परस्स वा उभयस्म वा अढाए, अणट्ठाए चेडरूत्राणं खेलंताणं घरकोइलादि मारेंति, राया रायपुत्तो| | वा गर्दभादि, अहवा अट्ठाए वर्षेति जं किंचि लएत्ता सेसयं छड्डेति, जीवंतस्स वा अच्छिदंता घिष्पंति एसो अट्ठी, सेसं अणट्ठो, 'हिंसिस्सु मेति एतेण मम पिता भाया वा मारियओ अन्नभवे, हिंसंतित्ति अभिमुहं एतं सीहादि मारेति, हिंसिरसंतित्ति सप्पमादि मारेइ मा खहिहिचि, अरिं या णो मारेहित्ति, गम्भे वा मारेति मम एस अरी भविस्सति जहा कणगाओ राया, एस्थ | सत्थं समारभमाणस्स'सेसं तहेव । एवं सस्थपरिणाअज्झयणचुण्णीए छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो॥१-६॥ संबंधो स एव, दस्मद्धेयचा दुष्परिहारिता अपरिभोगता य उक्कमकरणं, जो एते चत्तारि तसबजे ते काए तसे य चालादिप्पमिति ते सहति, तस्स | दीप अनुक्रम ४० AND ३ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम अध्ययने सप्तम उद्देशक: 'वायुकाय:' आरब्धः, [41] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [५५ ६१] दीप अनुक्रम [५६६२] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णि ॥ ३८ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], निर्युक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ५५-६१] वा उद्देसो भण्णति, णव द्वारा उहेब, सुचाणुगमे सुत्तमुच्चारयन्नं 'पभू य एगस्स दुगुंणाए पति समत्यो जो एयेति जो एते जहुधिडे काए सरहद्द सो एस भवति, कस्स १-एयतीति एओ, भणियं च "एयती वैयति चलति फंइति" अहवा एगस्स वाउकायस्स कहं एगो १, सेसा चक्खुसा अयमचक्रम्बुसो तेण एगो अहवा एगो देसपञ्चकखोवरगहणे पभू, सद्दहणाए य भवति दुगुंछगाए, दुगुणा णाम संजमणा अकरणा बजणा विउणा निपचित्ति वा एगट्ठा, कई एवं दुपरिहरं परिहरति १, केण वा आलंबणेण १, भण्णति- 'आतंकदंसी अहियंति णच्चा' तेहिं सारीरमाणसेहिं दुकखेहिं अप्पाणं अंकेति आतंको, बाही वा आतंको, वक्खमाणं वा अधणं फुर्सति आतंका, छज्जीवकायसमारंभेण अधिकयसमारंभेग वा जं दुकूखं आतंकसण्णिवं उपज्जा तं परसह आतंकदंसी, तत्थ दबायँके इदमुदाहरणं - जिवसतुराया सावओ, धम्मधोसथेरे पज्जुवासमाणो वेट्ठीभूतं सेहं पासति, अभिकखणं अभिकलणं पडिओतिज्जमाणं पुणरवि तदेवावराधं करेमाणं, तस्म हियडाए से उच्छाहणत्थं च आयरियं अणुष्णवित्ता स्वारविज्जलोहीए खारो सज्जावितो जहिं पखितमिते पुरिसो अडिसेसो भवती, आयरियस्स पुथ्वं कहिया, रायपुरिसेहिं आयरिया वाहिता मणंति को मम सहाओ गच्छिना १, सज्झायवाउला सेससि सेहो णीतो, तत्थ आयरिया रण्यो धम्मं कहेंति, पुष्पसलागएहि य रायपुरिसेहिं दो मतया पुरिसा आणीता, एगो गित्थनेत्रत्थो एगो पासंडिणेवत्थो, गुरूहिं पुच्छियं एतेहिं को अवराहो कतो ?, राया मणइ एस गिद्दी मम आणालोवं करेइ, एस लिंगी तु मिलचितो जह भणिए जाए अध्याणं ण बेति मारिचा मम उषणीता, ते दोऽवि खारावंके पक्खिता गोदोहमितेणं कालेणं अडिसंकलिया सेसा, सो य राया सरोपित सेहं निज्झायंतो आयरियं मणइ अस्थि तुज्झवि कोइ छतो चरणालसो जा णं तं जीवंतगमेव आतंके छुभामिति, आपरिया मांति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [42] वायुकायः ७ उद्देशः ॥ ३८ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], नियुक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ५५-६१] प्रत वृत्यंक श्रीआचा-10वा उद्देसो भण्णति, णव दारा तहेव, सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयन्नं 'पभू य एगस्स दुगुंछणाएपमुत्ति समत्यो जोएयेत्ति जो एते| वायुया ७उदेश: राम ज हुरितु काए सरहह सो एस भवति, कस्स ?-एयतीति एओ, भणियं च-“एयती वेयति चलति फंदति" अहबा एगस्स बाउकायस्स, | कहं एगो ?, सेसा चकखुसा अयमचक्खुसो तेण एगो, अहना एगो देसपञ्चक्खोवग्गहणे पभू, सदहणाए य भवति दुगुंछगाए, ॥ ३८॥ दुगुंछणा णाम संजमणा अकरणा बजणा विउहणा णियचित्ति चा एगट्ठा, कई एतं दुपरिहरं परिहरति १, केण वा आलंबणेण, IN मण्णति-'आतंकदंसी अहियंति णचा' तेहिं सारीरमाजसेहिं दुखेहि अप्पार्ण अंकेति आतंको, चाही वा आतंको, वक्खमाणं वा अधणं फुर्सति आतंका, छज्जीवकायसमारंभेण अधिकयसमारंभेग वा जं दुखं आतंकसणितं उपज्जा तं पस्सइ | | आर्तकदंसी, तस्थ दवायके इदमुदाहरणं-जितसत्तुराया सावओ, धम्मघोसथेरे पज्जुबासमाणो वेट्ठीभूतं सेहं पासति, अभिकखणं अभिकरणं पडिओतिज्जमाणं पुणरवि तदेवावराधं करेमाणं, तस्स हियट्ठाए सेसउच्छाहणत्थं च आयरियं अणुण्णविना वारविजलोहीए खारो सज्जावितो जहि पखिचमिने पुरिसो अडिसेसो भवती, आयरियस्स पुष्वं कहिया, रायपुरिसेईि आयरिया | वाहिता मणति-को मम सहाओ गछिया , सज्झायवाउला सेसत्ति सेहो णीतो, तत्थ आयरिया रण्णो धर्म कहेंति, पुष्पसबागएहि य रायपुरिसेहि दो मतया पुरिसा आणीता, तत्थ एगो निहत्थनेवस्थो एगो पासंडिणेवत्थो, गुरूहि पुच्छियं-एतेहिं को अबराहो कतो, राया मणह-एस गिही मम आणालो करेइ, एस लिंगी तु मिनचिनो जह भणिए णाए अपाणं ण वेत्ति | मारिचा मम उवणीता, ते दोऽवि खारातके पक्खिचा गोदोहमित्तेणं कालेणं अद्विसंकलिया सेसा, सो य राया सरोसंपिक सेहD निज्झायंतो आयरियं मणइ-अस्थि तुज्झवि कोइ छचो चरणालसो जाणं तं जीवंतगमेव आतंके छुभामिनि, आयरिया ममंति दीप अनुक्रम [५६ ६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [43] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [५५ ६१] दीप अनुक्रम [५६ ६२] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णि ॥ ३८ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], निर्युक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ५५-६१] वा उद्देसो भण्णति, णव द्वारा उहेब, सुचाणुगमे सुत्तमुच्चारयन्नं 'पभू य एगस्स दुगुंणाए पति समत्यो जो एयेति जो एते जहुधिडे काए सरहद्द सो एस भवति, कस्स १-एयतीति एओ, भणियं च "एयती वैयति चलति फंइति" अहवा एगस्स वाउकायस्स कहं एगो १, सेसा चक्खुसा अयमचक्रम्बुसो तेण एगो अहवा एगो देसपञ्चकखोवरगहणे पभू, सद्दहणाए य भवति दुगुंछगाए, दुगुणा णाम संजमणा अकरणा बजणा विउणा निपचित्ति वा एगट्ठा, कई एवं दुपरिहरं परिहरति १, केण वा आलंबणेण १, भण्णति- 'आतंकदंसी अहियंति णच्चा' तेहिं सारीरमाणसेहिं दुकखेहिं अप्पाणं अंकेति आतंको, बाही वा आतंको, वक्खमाणं वा अधणं फुर्सति आतंका, छज्जीवकायसमारंभेण अधिकयसमारंभेग वा जं दुकूखं आतंकसण्णिवं उपज्जा तं परसह आतंकदंसी, तत्थ दबायँके इदमुदाहरणं - जिवसतुराया सावओ, धम्मधोसथेरे पज्जुवासमाणो वेट्ठीभूतं सेहं पासति, अभिकखणं अभिकलणं पडिओतिज्जमाणं पुणरवि तदेवावराधं करेमाणं, तस्म हियडाए से उच्छाहणत्थं च आयरियं अणुष्णवित्ता स्वारविज्जलोहीए खारो सज्जावितो जहिं पखितमिते पुरिसो अडिसेसो भवती, आयरियस्स पुथ्वं कहिया, रायपुरिसेहिं आयरिया वाहिता मणंति को मम सहाओ गच्छिना १, सज्झायवाउला सेससि सेहो णीतो, तत्थ आयरिया रण्यो धम्मं कहेंति, पुष्पसलागएहि य रायपुरिसेहिं दो मतया पुरिसा आणीता, एगो गित्थनेत्रत्थो एगो पासंडिणेवत्थो, गुरूहिं पुच्छियं एतेहिं को अवराहो कतो ?, राया मणइ एस गिद्दी मम आणालोवं करेइ, एस लिंगी तु मिलचितो जह भणिए जाए अध्याणं ण बेति मारिचा मम उषणीता, ते दोऽवि खारावंके पक्खिता गोदोहमितेणं कालेणं अडिसंकलिया सेसा, सो य राया सरोपित सेहं निज्झायंतो आयरियं मणइ अस्थि तुज्झवि कोइ छतो चरणालसो जा णं तं जीवंतगमेव आतंके छुभामिति, आपरिया मांति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [44] वायुकायः ७ उद्देशः ॥ ३८ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [५५ ६१] दीप अनुक्रम [५६ ६२] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णि ॥ ३८ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], निर्युक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ५५-६१] वा उद्देसो भण्णति, णव द्वारा उहेब, सुचाणुगमे सुत्तमुच्चारयन्नं 'पभू य एगस्स दुगुंणाए पति समत्यो जो एयेति जो एते जहुधिडे काए सरहद्द सो एस भवति, कस्स १-एयतीति एओ, भणियं च "एयती वैयति चलति फंइति" अहवा एगस्स वाउकायस्स कहं एगो १, सेसा चक्खुसा अयमचक्रम्बुसो तेण एगो अहवा एगो देसपञ्चकखोवरगहणे पभू, सद्दहणाए य भवति दुगुंछगाए, दुगुणा णाम संजमणा अकरणा बजणा विउणा निपचित्ति वा एगट्ठा, कई एवं दुपरिहरं परिहरति १, केण वा आलंबणेण १, भण्णति- 'आतंकदंसी अहियंति णच्चा' तेहिं सारीरमाणसेहिं दुकखेहिं अप्पाणं अंकेति आतंको, बाही वा आतंको, वक्खमाणं वा अधणं फुर्सति आतंका, छज्जीवकायसमारंभेण अधिकयसमारंभेग वा जं दुकूखं आतंकसण्णिवं उपज्जा तं परसह आतंकदंसी, तत्थ दबायँके इदमुदाहरणं - जिवसतुराया सावओ, धम्मधोसथेरे पज्जुवासमाणो वेट्ठीभूतं सेहं पासति, अभिकखणं अभिकलणं पडिओतिज्जमाणं पुणरवि तदेवावराधं करेमाणं, तस्म हियडाए से उच्छाहणत्थं च आयरियं अणुष्णवित्ता स्वारविज्जलोहीए खारो सज्जावितो जहिं पखितमिते पुरिसो अडिसेसो भवती, आयरियस्स पुथ्वं कहिया, रायपुरिसेहिं आयरिया वाहिता मणंति को मम सहाओ गच्छिना १, सज्झायवाउला सेससि सेहो णीतो, तत्थ आयरिया रण्यो धम्मं कहेंति, पुष्पसलागएहि य रायपुरिसेहिं दो मतया पुरिसा आणीता, एगो गित्थनेत्रत्थो एगो पासंडिणेवत्थो, गुरूहिं पुच्छियं एतेहिं को अवराहो कतो ?, राया मणइ एस गिद्दी मम आणालोवं करेइ, एस लिंगी तु मिलचितो जह भणिए जाए अध्याणं ण बेति मारिचा मम उषणीता, ते दोऽवि खारावंके पक्खिता गोदोहमितेणं कालेणं अडिसंकलिया सेसा, सो य राया सरोपित सेहं निज्झायंतो आयरियं मणइ अस्थि तुज्झवि कोइ छतो चरणालसो जा णं तं जीवंतगमेव आतंके छुभामिति, आपरिया मांति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [45] वायुकायः ७ उद्देशः ॥ ३८ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], नियुक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ५५-६१] प्रत वृत्यंक श्रीआचा-10वा उद्देसो भण्णति, णव दारा तहेव, सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयन्नं 'पभू य एगस्स दुगुंछणाएपमुत्ति समत्यो जोएयेत्ति जो एते| वायुया ७उदेश: राम ज हुरितु काए सरहह सो एस भवति, कस्स ?-एयतीति एओ, भणियं च-“एयती वेयति चलति फंदति" अहबा एगस्स बाउकायस्स, | कहं एगो ?, सेसा चकखुसा अयमचक्खुसो तेण एगो, अहना एगो देसपञ्चक्खोवग्गहणे पभू, सदहणाए य भवति दुगुंछगाए, ॥ ३८॥ दुगुंछणा णाम संजमणा अकरणा बजणा विउहणा णियचित्ति चा एगट्ठा, कई एतं दुपरिहरं परिहरति १, केण वा आलंबणेण, IN मण्णति-'आतंकदंसी अहियंति णचा' तेहिं सारीरमाजसेहिं दुखेहि अप्पार्ण अंकेति आतंको, चाही वा आतंको, वक्खमाणं वा अधणं फुर्सति आतंका, छज्जीवकायसमारंभेण अधिकयसमारंभेग वा जं दुखं आतंकसणितं उपज्जा तं पस्सइ | | आर्तकदंसी, तस्थ दवायके इदमुदाहरणं-जितसत्तुराया सावओ, धम्मघोसथेरे पज्जुबासमाणो वेट्ठीभूतं सेहं पासति, अभिकखणं अभिकरणं पडिओतिज्जमाणं पुणरवि तदेवावराधं करेमाणं, तस्स हियट्ठाए सेसउच्छाहणत्थं च आयरियं अणुण्णविना वारविजलोहीए खारो सज्जावितो जहि पखिचमिने पुरिसो अडिसेसो भवती, आयरियस्स पुष्वं कहिया, रायपुरिसेईि आयरिया | वाहिता मणति-को मम सहाओ गछिया , सज्झायवाउला सेसत्ति सेहो णीतो, तत्थ आयरिया रण्णो धर्म कहेंति, पुष्पसबागएहि य रायपुरिसेहि दो मतया पुरिसा आणीता, तत्थ एगो निहत्थनेवस्थो एगो पासंडिणेवत्थो, गुरूहि पुच्छियं-एतेहिं को अबराहो कतो, राया मणह-एस गिही मम आणालो करेइ, एस लिंगी तु मिनचिनो जह भणिए णाए अपाणं ण वेत्ति | मारिचा मम उवणीता, ते दोऽवि खारातके पक्खिचा गोदोहमित्तेणं कालेणं अद्विसंकलिया सेसा, सो य राया सरोसंपिक सेहD निज्झायंतो आयरियं मणइ-अस्थि तुज्झवि कोइ छचो चरणालसो जाणं तं जीवंतगमेव आतंके छुभामिनि, आयरिया ममंति दीप अनुक्रम [५६ ६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [46] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [५५ ६१] दीप अनुक्रम [५६ ६२] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णि ॥ ३८ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], निर्युक्ति: [१६४-१७१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ५५-६१] वा उद्देसो भण्णति, णव द्वारा उहेब, सुचाणुगमे सुत्तमुच्चारयन्नं 'पभू य एगस्स दुगुंणाए पति समत्यो जो एयेति जो एते जहुधिडे काए सरहद्द सो एस भवति, कस्स १-एयतीति एओ, भणियं च "एयती वैयति चलति फंइति" अहवा एगस्स वाउकायस्स कहं एगो १, सेसा चक्खुसा अयमचक्रम्बुसो तेण एगो अहवा एगो देसपञ्चकखोवरगहणे पभू, सद्दहणाए य भवति दुगुंछगाए, दुगुणा णाम संजमणा अकरणा बजणा विउणा निपचित्ति वा एगट्ठा, कई एवं दुपरिहरं परिहरति १, केण वा आलंबणेण १, भण्णति- 'आतंकदंसी अहियंति णच्चा' तेहिं सारीरमाणसेहिं दुकखेहिं अप्पाणं अंकेति आतंको, बाही वा आतंको, वक्खमाणं वा अधणं फुर्सति आतंका, छज्जीवकायसमारंभेण अधिकयसमारंभेग वा जं दुकूखं आतंकसण्णिवं उपज्जा तं परसह आतंकदंसी, तत्थ दबायँके इदमुदाहरणं - जिवसतुराया सावओ, धम्मधोसथेरे पज्जुवासमाणो वेट्ठीभूतं सेहं पासति, अभिकखणं अभिकलणं पडिओतिज्जमाणं पुणरवि तदेवावराधं करेमाणं, तस्म हियडाए से उच्छाहणत्थं च आयरियं अणुष्णवित्ता स्वारविज्जलोहीए खारो सज्जावितो जहिं पखितमिते पुरिसो अडिसेसो भवती, आयरियस्स पुथ्वं कहिया, रायपुरिसेहिं आयरिया वाहिता मणंति को मम सहाओ गच्छिना १, सज्झायवाउला सेससि सेहो णीतो, तत्थ आयरिया रण्यो धम्मं कहेंति, पुष्पसलागएहि य रायपुरिसेहिं दो मतया पुरिसा आणीता, एगो गित्थनेत्रत्थो एगो पासंडिणेवत्थो, गुरूहिं पुच्छियं एतेहिं को अवराहो कतो ?, राया मणइ एस गिद्दी मम आणालोवं करेइ, एस लिंगी तु मिलचितो जह भणिए जाए अध्याणं ण बेति मारिचा मम उषणीता, ते दोऽवि खारावंके पक्खिता गोदोहमितेणं कालेणं अडिसंकलिया सेसा, सो य राया सरोपित सेहं निज्झायंतो आयरियं मणइ अस्थि तुज्झवि कोइ छतो चरणालसो जा णं तं जीवंतगमेव आतंके छुभामिति, आपरिया मांति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [47] वायुकायः ७ उद्देशः ॥ ३८ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] श्रीआचा घृणिः ॥४४॥ प्रत वृत्यक [६२७१] दीप अनुक्रम [६३७२] PaBASSENGE हातिविजओ, काले जहिं काले, जत्तिएण वा कालेणं, जहा भरहेण सडीए वरिससइस्सेहि जितं, मतएण वा मासो जितो, भाषे गुणस्थाने पसत्थो अप्पसत्थो य विजयो परूवेयचो, अप्पसत्थभावविजएण अहिगारो, तत्र भावविजये 'सेतं कारक' गाहा, 'लोगो भणिओ (१७६-८३) । विजिओ कसायलोगो सेयं (१७७-८४) सुत्ताणुगमे सुन उचारेय जाव चालणा य पसिद्धी यस पंचहा(छविह)विद्धि लक्षणं-'सुयं मे आयुसं तेणं भगवया एवमक्खाय' एस उबग्घातो, किं सुत्तं ?, भण्णइ-'जे गुणा से AV मूलढाणा' जो इति अणुदिहस्स ग्रहणं, गुणणं गुणो जं भणियं पभावो 'से' इति उद्दिटुस्स निदेसे, मूलं प्रतिष्ठा आधारो य एगट्ठा तिद्वंति तहिं तेण ठाणं, अहवा सुचकरण विहाणेणं गतिपञ्चागति 'जे गुणे से मूलट्ठाणे अत्थतो भंगविकल्पा भवति, जे गुणे । से मूले, जे मूले से गुणे, आम, एवं 'जे गुणे से ठाणे, जे ठाणे से गुणे', आम, अहवा जे मूले से ठाणे, जे ठाणे से मुले, आमं, अहवा 'जे गुणेसु बगृह से मूले चट्टति, ते चेव विकल्पा, एवं एतेसिं गुणादीणं बंजणओ नाण अत्थो अनाणतं, तम्हा। गुण णिविखविस्सामि, तत्थ गुणो तेरसविहो-'दब्वे खेत्ते काले' गाहा (१७८-८४) णामठवणाओ गयाओ, दयगुणा गाम | | दवमेव स गुणो घेप्पति, ण हि गुणा गुणवतो अत्यंतरभूया इतिकाउं 'दव्वगुणो दब्वं चेव गुणा' गाहा (१७९-८५) सो तिविहो 'संकुचितविगसितत्तं' गाहा (१८०-८५) सीरियसजोगीसदबयाए पदेससंदरणविसरणेगं पदीवोत्र जाव लोयतो, अहवा जीवदब्बगुणो अग्गिस्स उण्हवं बाउस्स चंचलतं, वायामो विकमो वीरत पुरिसगुणा, चलचं मीरुतं विक्वित्तं इत्यिगुणा, अहवा नाणादिगुणा, अचेयणा दव्यगुणा ओसहाणं रसबीरियविधागगुणा, मीसदभगुगोवि खीरोदगं ति पात्रहरणं, 1 अहवा सावरणस्स आमस्स हस्थिणो वा गुणेण परवल पविसइ जोहेति नित्थरइ य, खेचगुणो देवकुरुसुसमसुसुम' गाहा ॥४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीयं अध्ययनं “लोकविजय"आरब्ध:, [48] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [६२ ७१] दीप अनुक्रम [६३ ७२] श्री अचा संग सूत्र चूणिः २ अध्य० ।। ४५ ।। “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१७२-१८६], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ६२-७१] (१८०-८६) देवकुरादी अम्मभूमी सता जोखणे वट्टेति निरुपकमाउया विहरियं, सुभाणुभावा पगतिभद्दा तिगुणेण देवलोएस उबवज्जति खेचगुणेण कालगुणो एगंतसुसमादिसु तिसु समासु एसच्चैव अणुभागो, फलगुणो णाम तवसंजमादिसु सव्वकिरिया | सव्वकिरियाओ इहलोइयाओ फलनिमित्तं आरभंति, ताओ सम्मत्तादिविरहियाओं अणेगंतियाओ अगुण एव द्रष्टव्यो, सम्मततवसंजम किरियाओ एगतियाओ अञ्च्चतियाओ य सिद्धिसुहअब्याबाहफला इति, पज्जवगुणो कालगादीऽणंता भेदा, गणणा गुणो णाम महंताएवि रासीए गणणागुणेण परिमाणं घेप्पति, करणगुगो णाम कलाकोसलं, बवगादि, करणजएण य वर्त्तिति, गाया कारगादी य करणजएण करेंति, अब्भासगुणो अंधग्गरिवि भुंजमाणो अव्यासंगेण कवलं मुखे प्रक्षिप्पति, गुणोवि अगुणो | भवतित्ति जो समभावमद्दवादिगुणजुतो सो दुट्ठेहि परिभविज्जति तस्स गुणो अगुणो इहलोगं प्रति भवति, सो चेव परलोगं प्रति गुणो भवति, कूरो साहसिओ अमरिसणो दुआधरिसो भवति तस्स अगुणो गुणो भवति इहलोगं प्रति परलोगे अगुण एव, अहवा संसारो, वृक्षो छिद्यति सो तस्स गुणो अगुणो भवति, अगुणो वंको णिस्सारो पत्तादि अणुवभोगो जो य णच्छिज्जति, भवगुणो नेग्इयादीणं भवाणं जो गुणो नेरइया अंगुल०, वेयणं सहंति, छिष्णा पुणो साहण्णंति, ओहिष्णाणं, तिरियाणं आगासग| मणलद्वी, गोणादीणं च आहारियं सुभचेण परिणमति, मणुस्सभवे कम्मकूखयादि, देवेसु सच्चे सुहाणुभावा, सीलगुणो णाम | अक्क्स्समाणोऽवि ण खुन्मति, अहवा सहादिएस भद्दयपावएस ण रज्जति दुस्सति वा, भावगुणो उदइयादीगं भावाणं जो जस्स गुणो, उदयगुणो तित्थगरसरीरं आहारगसरीरादि, उवसमियगुणो सतिवि णिमिचेण विसयकसाया उदिज्जंति, खइयस्स खीणता ण उदिज्जंति, णाणसामग्गंति णाणसमिद्धी य. एवं सेसाणवि भाणियवं, अहया भावगुणो दुविदो - जीवभावगुणो य मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय अध्ययने प्रथमं उद्देशक: 'स्वजन' आरब्ध:, [49] गुण निक्षेपाः ।। ४५ ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [६२ ७१] दीप अनुक्रम [६३ ७२] श्रीठाचा रोग सूत्रचूर्णिः २ अध्य० ।। ४६ ।। “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१७२-१८६], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ६२-७१] अजीवभावगुणो य, जीवभावगुणो पसत्थो अपसत्थो य, अपसंस्था सदादिविसयगणो, पसत्थो नाणादिगुणो, अजीवभावगुणो मूलनिशेषाः उदइयो पारिणामिओ य, तत्थ उदइओ ओरालियं वा सरीरं ओरालियपरिणामियं वा दव्वं, पारिणामिओ दुविहो- अणादि सादि, अणादिपारिणामिओ धम्मत्थिकायादीण तिद्धं दव्त्राणं गतिठिइअवगाहणा, सातियपारिणामिओ अम्मइन्दधणुमादीणं परमामादीण य वण्णादिगुणा । भणिओ गुणो, इदाणिं मूलं 'मूले छ' गाहा (१८२-८७) द्रव्यमूलं त्रिविधं उदय उबदेसो आदिमूलं 'ओवश्यं उवदिट्ठा' गाहा (१८३-८८) तत्थ ओदइयं द्रव्यमूलं जाणि द्रव्याणि रुकवादीण मूलत्तेण उदिण्णाणि, उवएसमूलं णाम जं विज्जा मूलं उबदिसंति जहा पिप्पलिमूलं पंचमूलादी वा आदिमूलं कम्मगसरीरं, जओ रुक्खा ओ मूलाओ उप्पज्जंति, खेतमूलं जहिं खिचे मूलं जातं कहिज्ज वा, एवं कालेवि, जावइयं वा कालं भावमूलं तिविहं उदयं उपदेस आदिमूलं तत्थ उदयभावमूलं जीवो मूलणामगोयवेदओ घेप्पड़, उपदेसभा मूलं आयरिओ, विविहेहिं कम्मेहिं रुक्खमूलत्ताए उबबअड़, अतो सदुपयुसो आगमतो भावमूलं भवति, आदिमूलं पसत्थं अपसत्थं च तत्थ अप्पसत्थं विसयकसायादि संसारमूलं भवति, पसत्यं विणओ मूलं मूलित्ति गतं । इदाणिं ठाणं 'णामं ठवणा' गाहा (१८४-८८) वहरितं दव्वठाणं सचित्तादी ३, सचित्तं दुपयादी ३, दुपदट्टाणं दिणे २ जत्थ मणूसो उवविसह तत्थ ठाणं जायति, चतुष्पयठाणंपि एवं चेव, अपदाणं गरुपं फलं जत्थ णिक्खिप्पति तत्थ ठाणं संजायति, अचित्तं जत्थ फलग णिसदजंतादीणि णिक्खिप्पंति तत्थ ठाणं जायति, मिस्सड्डाणं उब्वसिताणवि ठाणं दीसति, 'अद्धा' काल इत्यर्थः दुविहं भवद्विती कायठीती, भवठिती नेरहयदेवाण संचिट्टणा कायठिई, तिरिक्खजोणिय मणुस्साणं संचिङ्कणा, उटं तञ्जातीयग्रहणात् णीसियणतु परणठाणा, एतेसिं उद्धठाणं आदी पुण तं कायोत्सर्ग इत्यर्थः, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [50] ।। ४६ ।। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] स्थाननिक्षेपाः प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा-Dणिसियणा-उबविसणणा संपिहणा, उपरवठाणं देसे सब्चे य, देसे अणुव्रताणि पंच, सब्वे महन्वयाणि पंच, वसधिठाणं उपस्सओ,0 रोग सूप-ता संजमहाणं असंसिज्जा संजमठाणा, पग्गहठाणं दुबिह-लोइयं लोउत्तरियं च, ता लोइयं पचबिह-राजा जुबराया सेणाबई महत्तर अमञ्चकुमारा, लोउत्तरिय पंचविह-आयरिया उवज्झाया पवत्ति धेरे गणावच्छेदका, जोधट्ठाणं आलीदादि पंचविहं, आलीढं दाहिणं | २ अध्य० पादं अग्गतोहु काउं वामपादं पच्छतोहुतं ओसारेइ, अंतरं दोण्ई पादाणं पंच पादा, तयं चेव विवरीतं पच्चालीदं, बेसाई | ॥४७॥ पण्डियो अभंतराहुचा अग्गिमतला बाहिराहुत्ता, मंडलं दोबि पादे समे दाहिणवामहुत्ता ओसारित्ता उरूणोवि आउंटावेति जह | मंडलं भवती, अंतरं चत्तारि पादा, समपादं दोवि पाए समं निरंतरं ठवेद, अचलं ठाणं 'परमाणुपोग्गले णं भंते ! णिरेके कालतो केवच्चिर होति ?, जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेज कालं' गणणड्डाणं एवं दस सत सहस्समित्यादि, इदाणि संधणा, 'भावेति भावद्वारस्य संधनायाः व्याख्या करणीया, संधना दुविधा-दब्वे भावे य, दवसंघणा दुविहा-छिन्त्रसंधणा अच्छिन्नसं-1 धणा य, रज्जु चालतो अच्छिन्नं वालेइ कंनुयादीणं छिन्नसंधणा, अच्छिमसंधणा य सेडिदुयं, उवसामगसेढिपविट्ठो जाव सब्योवि लोभो उबसामितो, एसा अच्छिन्नसंधणा, खबगसेढीएवि अच्छिन्नसंधणा, 'अप्पुब्बगहणं तु भावंमिचि पसत्थेसु भावेसु वड़माणो| जं अपुव्वं भावं संधेड़ एसावि अच्छिम्मसंधणा, भावे इमा छिअसंघणा-खओवसमियाओ उदइयं संकमंतस्स छिन्नसंधणा, एवं | अप्पसत्थाओ पसत्यं संकर्मतस्स छिन्ना, पसत्थाओवि अप्पसत्यं संकमंतस्स छिण्णा, एवं भावसंधणा, अप्पसत्थाए अहिगारो, 0ठाणति गतं । इयाणि संसारो, सो य कसायमूलं, कसाया य कम्ममूला, तत्थ गाहा-'पंचसु कामगुणेसुत' (१८५-८७) | कामगुणा इट्टा अणिहा य, इलेसु रागो अणिढेसु दोसो, माया लोभो य रागो, कोहो माणो य दोसो, एवं विसएसु कसाया वड्दति दीप अनुक्रम [६३७२] ॥४७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [51] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [६२ ७१] दीप अनुक्रम [६३ ७२] श्रीआचा रंग सूत्रचूर्णि: २ अध्य० ॥ ४८ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१७२-१८६], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ६२-७१] कमाएहि थ मूलङ्काणं संसारो भवति, तत्थ अप्पसत्थमूलङ्काणेणं अहिगारो, उवसमियादी पसत्यभावा मोक्खाणं, अह्वा तबसंजमा गिव्वाणमूलड्डाणं भवति, तत्थ संसारमूलद्वाणे इमा गाहा 'जह सवपायवाणं' (१८६-९०) अट्ठविहकम्मरुक्खा गाहा (१८७ - १० ) केवलणाणुप्पत्तीएर पढमं मोहणिजं खविअर, सो य पुण मोहो दुविहो 'दुविहो य होइ मोहो' गाहा (१८८-९०) अट्ठावीसविहंपि मोहं परूविता चरितमोहणिजोभस्स रईमु इत्थिरिसनपुंसगवेदेसु य कामा समोयरंति तैण 'संसारम्स य मूलं गाहा (१८९-९१) कम्मस्स कसाया मूलं, जेण कसाया संपराइयं कम्मं बंधेति 'ते सयणपेसणअट्ट' गाहा, माता में पिता मे एवमादि, 'अण्णत्थओ य ठियत्ति पिंटोलगस्स सपष्णचंदस् य एवेंगिंदियाणं च अप्पेहिंतो सो समारो, सो य पंचविहो- 'दने खेत्ते' गाहा (१९१-९२) दव्यसंसारो चउन्विहो, तंजहा -नेरइयदव्यसंसारो एवं तिरियदवसंसारो एवं मणुय देव, एवं खिते ४, काले बभंगो, भवे चत्तारि, भावे चउसुवि गई अणुभावो वण्णेयब्बो जहा जंबुणामे अहवा दब्वाइ चउन्निही संसारो, तत्थ दबे अस्वा हरिथणं संक्रम, खेत्ते गामा नगरं, काले वसंता गिम्हं भावे उदया उपसमितं कोपात वा माणंति, संभारणिक्खेवो गतो । तस्य मूलं कम्म तेण 'नामं दवणा दविए' गाहाइयं, (१९२, १९३-९२) दव्वकम्मं दुविहं दन्ककम्मे नोदकम्मं च तत्थ दव्वकम्मं जे अहिकम्मपायोग्गा पोग्गला बढा ण नात्र उदिअंति, शोकम्मदव्यकम्मं करिणातिक्रम्मं । इदाणिं पयोगकम्मे, जमि पओए बङ्गमाणो कम्मयोग्गले गिण्हड तं पयोगकम्मं समुदाणकम्मति तं जहा अणतरजोगगहिया पोग्गला बद्धणिधनणिकाइया तं समुदायकम्मं भवति अट्टविहं ईरियावहियं दुममयद्वितियं बीयरागरूप भवति, आहाकम्मं जं आहाय कीरड, तवोकम्मं बारसविहं, किकम्मं बंद, भावकम्मं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [52] संसारः ॥ ४८ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] परिता प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा- ID | तदेव अढविहं उदयपर्स, सविसए भावगुणो मूलट्ठाणे वट्टर, सो सद्दादिसु गुणेसु वट्टइ, सो नेसिं गुणाणं अप्पत्ताणं पत्ताण व रांग सूत्र | विणासे सारीरमाणसेण दुक्खेण अभिभूतो, 'इति सो महता परितावेण' इति-उबप्रदरिसणे अप्पसत्थेसु गुणेसु चिट्ठित्ता 10 चूर्णिः संसारमूलट्ठाणं अबोलतो अट्टविहं कम्मबंधणहेउं वा रागादि तेहिं उवेसिअप्पा इति से 'महता' महता इति अपरिमितेण भोगा२ अध्य ॥४९॥ मिलासेण सव्वतो तावेणं परितावेणं काइयवाइयमाणसिएण परितप्पमाणो पुणो २ तं करेति जेण तहिं मूलट्ठाणे वग्गति, | 'पमत्ते' पंचविहेण पमादेण, इमे से हेऊ 'माता मे पिता में माता मम दुक्खिया दिगिंछणादिणा, अहवा केणइ से अप्पितं कतं तनिमितं कसावा, ततो वेरप्पमई, जहा रेणुया अर्णतविरिएणं परिभुत्ता तनिमित्तं रामेण मारिता, कत्तविरिएण रामपिया पितिनिमित्त, रामेण निक्खनिया पुहवी सन बारा कया, सुभोमेण तं सुणित्ता निबंभणा पुहवी एकवीसं वारा कया, IN तथा प्रातिणिमि भइणी भजा व मे ण जीवह चोरियादी करेइ, अणलंकिया इसियति चाणक्केण णंदवंसो उच्छादितो, एवं सेसाणवि 'सहिसयणसंगंथिसंधुतो' चि सहि-सहजातगा मिना सयणा पुब्ब पच्छा संथुता संगंथो-छिन्नयुद्धो संथुताPA सहवासा दिवाभट्ठा य 'विवित्तं' प्रभृतं अणेगपगारं विचितं च उवकरेति, उबकरणं-सयणआसणहरुप्फाडिसरावत्यालिपिहुडा| कसभायणादि परियणं-दुगुणं तिगुणं एवमादी, भुजतीति भोयणं-गोहमतदुलसंभारगोरसादि अच्छादणयं वत्थविहाणाणि, इति एत्थं इश्वत्थं, मम स मातापितानि अतोऽन्थं संतेसु मुच्छिते गिद्धे णढिते अज्झोपवण्यो, अस्संजतमणुस्सलोगो कुपासंडलोगो वा तंमि चेव असंजते वसति संसारे वा, ण ततो उत्तरह, कसायइदियपमादाविपमत्तो मातापितिमाइणिमि अत्थोवजणपरो । | तस्स स्कूखणे य अहो य रातो य परितप्पमाणो-हियएण ससरीरेण य परितपमामो "कहया वच्चा सत्थो०" कालो णाम जो दीप अनुक्रम [६३७२] ग४९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [53] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] प्रत रांग सूत्र-सा वृत्यक [६२७१] श्रीआचा- जस्स कालो अहो राती बा, मज्झदेसे जाव मज्झण्हो ताव इलाइ वहति, सो तेसि कालो, अवरण्हो अकालो, एवं अनेसुवि चित्त- कालाकाली | तकम्पादिसु दिवसो कालो, राई अकालो, जाव जस्स कम्मस्स कालो, स तु जहा काले वहा अकाले वि पवत्तइ, सम्म उत्थाय |D स्थानादिः चूर्णिः समुत्थाय अस्थसंग्रहं प्रति, जहा चारुदत्तो सोलसहिरण्णकोडिविणासणं तस्स अजिणणहेडं मातुलएण समग्गो परिहिंडितो अत्थ२अध्यक लोभेण, मम्मणवणिओ वा एत्थ दिढतो, सो अकालेवि कम्मं करेइ, वासे पड़ते णदीए पुण्णाए, 'संजोगट्ठी ति भजत्थी । रजातिविभवसंयोगट्टी वा, सहादिविसयसंयोगा, तंजहा-गंधव्यवीणाविहंचिसद्दे इस्थिवत्थाभरणादिरूवे मणुण्णा गंधा घाणे इट्ठा रसा रसे इथिसिजाइ फासे 'अत्थालोभी' उकखणइ, अश्वत्थं वा अस्थालोभी 'आलुपति' अग्गे संजमादि सयं करेचा | पच्छा भीआणं बत्थादि आलुपति पडच्छोडणं वा करेति, जत्तियाई चोरविहाणाई ताई करेइ, उस्सोवणाइ चोरविआदि य 'सहसकारे ति साहसं करेइ, पुवाबरं अगणेतो तंजहा-दब्यग्गाहितं रायभंडागारे, अह डज्झति रायादिवंधं वा करेइ अत्थलोमेणं, I विण्णाणत्थे णातादिसु वा सदादिसु वा विसणसु विणिबिटुं चित्तं विणिविट्ठचिने, पदिइ य 'विणिविदृचिट्ठ' मातादिआयणिID मित्तं च विसएसु तदज्जणे य विणिविट्ठा जस्स कातियातिचिट्ठा स भवति विणिविदृचिट्टो एत्थ सत्ये पुणो, उवञ्जणे इंदियादिस वा सत्तो रतो मुच्छितो गिद्धो गदितो अज्झोपवण्णो, तहिं कालाकालसमुट्ठाणादिएसु पयत्तमाणो 'पुणो पुणोति अणेगसो | तेसु कम्मेसु पबत्तमाणो छकाइयवहं करेइ, पढिइ य एत्थ सत्थे पुणो पुणो', इह रायचोरादि सासिजति परलोए नरगादिसु, अहरा सो एवं चिट्ठमाणो कायाणं सत्थं भवति, जं भणितं घातारो, जंपि सो चिरं जीविस्सामि अत्थोवजणं करेइ तंपि अणेगंतो, 'अप्पं च बलु आउं' अप्पमिति सोवकमाण, ण दिग्ध, चसदो अविगियजीविणो दिग्पंति, केसिंचि उकोसेणं तिण्णिा दीप अनुक्रम [६३७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [54] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ॥५१॥ पलिओबमाई, धम्मचरणं पटुच जहणणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं पुषकोडी देखणा, धम्मचरणेणं अहिगारो, असंजयाणं अधम्म श्रीतादिचरमाणाणं मोहा जति राईओ, ण य विसयसुहामिलासिणोऽवि सम्बे इच्छिते अत्थे साधेति, अकतत्था थेय उवरमति, ण य|| हातिः अकुसलसमजियस्स पावस्स विवागं वुअंति, जेवि दिग्घाउया भवति तेऽपि जराभिभूया मतकतुल्ला भवंति तंजह 'सोनप्प-11 एणाणेहि' अहवा सो भोगविणिविट्ठचित्तो लोगो इंदियपरिहाणि न बुज्झइ, तंजहा 'सोनप्पण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं सुब्बति | जेण पन्नाणेण सोयपण्णाणं तं, सोतम्गहणा दबिदियं पण्णाणग्रहणा भाबिंदियं, तत्थ अभिघातेण रोगेण वा दबिंदियं हीयति वा ण वा चक्खुसोवि तिमिरे अक्खिरोगअभिवातेहि धाणस्स पूयाणासद्धेयणउवधातादिहि जिम्भाण पंतपुद्गलादिणा उवग्यावेण, एवं फासेवि, परिहाणी देसे सव्वे य, देसे उच्चेण सुणेइ, सब्बपरिहाणीए ण किंचि मुणेति, एवं सेसेहिवि, एत्थ संयोगा कायब्वा | तंजहा-कायसो ते ण सुणेइ णेत्तेहि य, केइ सोतेण घाणेहि य, एत्थ दस. दुगसंजोगा दस तियसंजोगा पंच चउक्कसंजोगा एगो पंचगसंजोगो, असंखिजवासाउया अपरिहीणेहि कालं करेंति, संपति तित्थं पुण वासमयाउगेसु पवेदितं, वाससयाउआवि जहा तारुण्णए सोएहि पयोयणं करेंति ण तहा बेरतणे, एवं परिहायमाणे 'अभिकंतं च वयं सहाए' जरं मृत्यु वा पटुच्च अभिमुहं कंत-कम्मं पेहाए, बयो तिविधो, तंजहा-पढमो मज्झिमो पच्छिमो, परिससयायुगस्स पुरिसस्स आयुगं तिधा करेति, ताओ पुण दस दसाओ, एकेको वओ साहिया तिथि दसा, खणे खणे बट्टमाणस्स छायावलपमाणातिविसेसा भवंति जाब चउत्थी दसा, तेण परं परिहाणी, भणियं च-"पंचामगस्स चक्खं, हायती मज्झिम वयं । अमिकतं सपेहाए, ततो से एति मूढतं ॥१॥" तओ | पढमस्याओ अतीतो मज्झिमस्स एगदेसे पंचमीदसाए बहमाणस्स ईदियाणि परिहायति, एगया, न सम्बया, मोहो-अण्णाणं मूढ-ID५१॥ दीप अनुक्रम [६३७२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [55] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] पद्धत्वा वगात प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा- सभावे से ईदियाणि अणुवलद्धि जणंति, तंजहा-यो सुणेति, उच्चेहि सुणेति वा, एवं सेसेहिवि इंदिएहि, अहवा मूढभावो जह जह रांग सूत्र इंदिएहिं परिहीयति तह तह तदत्थेहिं सजद, सो एवं वुड्ने मूढसभावो पार्य लोगस्स अवगीओ भवति, किंच-'जेहिं वा सदि चूर्णिः । २ अध्य० | संवसई' (६५-१०५) ते हि मिचादिविभासा, जेहिवि सद्धि संवसइ भआदिएहिं तेहिंपि अवगीतो भवति, किं पुण परेसिंति ?, In ॥५२॥ अप्पावि अप्पणो अवगीतो भवति, 'बलिसंततमस्थिशेषितं, शिथिलनायुतं कडेवरम् । खयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ता | | कमनीयविग्रहा? ॥१॥"एगता, ण सब्बया, णियगा भादि 'पुव्य'मिति ते पदमं पच्छा अण्णो जणवओ जेसिं पुर्व अट्ठाए सयतं | अजिणणपरो आसी ते पढ़मं परिवडति, अहवा जे पुव्वं देवमिव मण्णिताइया ते संपदं तं णिरुबगारिति सन्तुमिव मन्नति, भणियं च-"होइ जणसण्णिो बाहिरो य०" परिवादो णाम परिभवो, दिलुतो-एगंमि गामे एक्को को९विओ धणमंतो बहुपुत्तो य, सो Pबुड्ढीभूतो पुत्तेसु भर संणसति, तेहि य पजायपुत्तभंडेहि पुत्तेहिं भजाश्रो भणियाओ एवं उचलणण्हाणोदगभत्तसेजमादीहि पडि यारिज्जइ, ताओ य कंचि कालं पडियरिऊण पच्छा पुत्तमंडेहिं बड्हमाणेहिं पच्छा सणियं सणियं उपयारं परिहावेउमारद्धाओ, कदायि देति कदायिण देति, सो झूरदि, पुना व णं पुच्छंति, सो भणइ-पुष्पपुवुत्तं अंगसुस्वसं परिहायंति, ताहे ते ताओ। बहुगाओ खिज्जति, पुणो पुणो निम्मत्थमाणीओ, पुणो अम्हे णिक्कज्जोवगस्स रस्स एयस्स तणएणं खलियारिज्जामो ताहे। IN/ताओ रुट्टाओ सुट्ट्यरं न करेंति, पच्छा ताहिं संपहारेऊणं अपरोप्परं भणति पतिणो-अम्हे एयस्स करेमो विणयपवत्ति, एसो | निण्हवति, कतिवि दिवसे पडियरिओ पुछि ओ किंचि, ते इदाणि करति ?, ताहे तेण पुबिल्लगरोसेणं भण्णइ-हा ण मे किंचिवि । करेंति, कइतवेण वा, ताहे तेहिं बुचद-विवरीतीभूतो एस थेरो, जइवि कुब्बति तहवि परिवदति, एस कयग्यो, कीरमाणेवि दीप अनुक्रम [६३ ७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [56] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [६२ ७१] दीप अनुक्रम [६३ ७२] श्रीआचा रांग सूत्र वृणिः २ अध्य० ॥ ५३ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१७२-१८६], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ६२-७१] णिण्डवति, अनेसिपि णीयहगाणं साहेति, एवं ता पायं जराजिष्णं परिवदंति समता वदंति परिवदंति जत्तियं तदा चिति भासंति वा, जेबि या य परिवदंति देवतमित्र मण्णंति तेवि 'णालं ते तव लागाए वा सरणाए वा' पर्याप्तमादिषु, पजसीए | अलं वीतरागो मोक्खस्म, भ्रमणे अलंकृता कृष्णा अलंकृतं कुलं वद्धमाणेणं एवमादी, वारणे अलं भुत्तेणं गतेण वा एवमादि, | इह पजनीए, सो सिक्खंगो पुथ्वबंधुणेहेण विसीयमाणं सयमेव अप्पार्ण अणुसासति, जेसिं करण विसीतई णालं ते मम ताणाए या सरणाए वा परेण वा भणति णालं ते तब ताणाएं वा सरणाए वा, जरारोगात केहिं अभिभूतस्स ताणं जहा गदिमादिएस वृज्झमाणस्स जाणवतं, जेण आवति तरति जं अस्मिता गिब्भयं वसंति तं सरणं, तं पुण दुग्गं पुरं पव्वतो वा पुरिसे वा, तुमं| पितासिं जालं ताणाए वा सरणाए वा कोइ वृद्धादि वुडसरीरेण वा जराए अभिभूतो सो पुत्तादीणं दारिद्दति अभिभूताणं वा ताणाए बा, जो पुण जराए अभिभूयति सो ण इस्साए तेण मज्झत्थं भविदन्यं, जति हसति हस्सो भवति, किं किर एयस्स हसिते तित्थाणपलितस्स ?, असमत्यो य ण सकेति हसितुं, तेण ण हस्साए, 'ण किट्टाए'चि लंघणपहावण अरफोडणघावणातिअयोग्गो भवति, जुन्नरस वा 'ण रतीए'चि विसयरती गहिता, हसितललित उनगूहण चुंबणादीणि तेसिं अयोग्गो 'ण विभूसाए| ति जति विभूसेति आभरणादीहिं तो हसिजति, भणियं च "ण तु भूषणमस्य युज्यते, न च हास्यं कुत एव विभ्रमः । अथ तेषु प्रवर्त्तते जतो, ध्रुवमायाति परां प्रपञ्चनाम् || १ || अत्थो धम्मो कामो तिष्णि य एयाई तरुणजोगाई। गतजुब्बणस्स पुरिसस्स होंति कंतारभृताई || २ || गतं अप्पसत्यगुणमूलङ्काणं । इदाणिं पसत्यगुणमूलङ्काणं गाते 'इवेवं समुझिते अहो बिहाराण इति एवं इच्चवं, जाणित्ता वकसेस, किमिति ?, पत्तेयं सुभासुभा कम्मा, फलविवागं, अहवा जतो एवं ते सुहि० ण अलं जरमरण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [57] त्राणाय भावः . ॥ ५३ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] श्रीआचा प्रत वृत्यक [६२७१] रोगपरित्ताणाए तेण एतेण पसत्यमूलगुणड्डाणे ठाइत्ता से ण हस्साए ण रईए ण विभूसाए य अभुद्धिज, ववगयहासकोऊडल्लो चित्तसरीरो इच्चेवं समुट्टितो मूलगुणेहिं पुत्वभणितेहिं संचिजइ, ण केवलं मूलगुणेहिं परिणायकम्मो जो ण इसति, उत्तरगुण-16 चूर्णिः २ अध्या TA उवघातविरहितोस मुणी परिण्णायकम्मोति अमिसमिच्चा सोचावा तिविहकरणसारबजोगविरहितो इचेवं समुट्टिते अहो विहाराए, Wअहो दहण्णे विम्हए य, बिम्हये द्रष्टव्यः अहोसद्दो, विहारो दवे भावे य, दन्बविहरणं लोहमयं जेण उडिमाईणि दवाई ॥ ५४॥ फालिअंति, भावविहरणं पसस्थगुणमूलडाणं जेण अडचिहकम्मखंधा विप्पदालि अंति, 'अंतरं था खलु'ति अंतर विरहो छिई, जहा कोइ सधणो पुरिसो पंथं वच्चंतो चोरेहिं चारियं अप्पाणं जाणित्ता तेसि सुत्तमत्तपमत्ताणं अंतर लधुं हिस्सरति, इहरहा तेसि मुहे पडइ, एवं माणुसस्स खेत्तकालाईणि लधु अहवा नाणावरणीअंतरं लधु जइ ण पचमति तो पुणरबि संसारे पडइ, V खलु विसेमणे, किं विसेसेइ १, मणुस्सेसु तं अंतरं भवति, ण अण्णस्थ, 'इमति तवसंजमवर्स सपेहाए धी-बुद्धी पेहा मतीति, मुहते-मुहुत्तमवि णो पमायए, किमु चिरं कालं?, अंतोमुहुतिओ उवओगो, तेण समतो, इहरहा समयमवि ण पमातए, सो Dतहा अतीव अतीति अञ्चेति, जं भणित-वोलेति, सम्बयाणं जोवणं पियं तपि वोलेति, भणिय च-"नइवेगसमं चंचलं च जीवितं । च" ग्रहणं जहा जोव्वणं तहा बालातियावि, एवं णाऊणं अहो विहारेणं उडिओ पुणरवि अप्पसत्थं गुणडाणं जं उबयंति अतिNIकमंति, ण बुझं 'इह पमत्ता' इपिनि अप्पसस्थगुणमूलट्ठाणे बिसयकसाएसु अहो य राओ य परितप्पमाणा कालाकाल. 'से हंता' से इति सो अप्पसस्थगुणमूलट्ठाणी हंता थावरे जंगमे, छेना हत्थपायाइ, अवराहे अणवराहे वा, रुक्खाति वा, भेत्ता | | सिरउदराति फलाणि वा, लुपिना कसादिहि मारणे पहारे य, लुंपणासदो पहारे बद्दति, विलोपो गामातिपातो उदवणं तासो या, ID५४॥ दीप अनुक्रम [६३७२] ONGSINDIAN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [58] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा-1 एयाणि जोगतियकरणतिएणं करेंतो अकडं करिस्सामिति मण्णमाणो अण्ण केणति अक्तपुव्वं जहा सुमोमेव घिजाइयाण अपूर्वकरगंग सूत्र | उच्छायण कतं, अकयपृथ्वं अण्णोण वत्तिएणं , अहवा जं कयं ते कयमेव, अकयं करिस्सामि, सो एवं आयपरोभयपोसणथं |NI पादिः चूर्णिः | |हणछिदभिंदआलुपाविलुपउद्दवणाइएहि अकयं करिस्सामीति मण्णमाणे अत्थं समञ्जिगइ, सो एवं अत्थपरो 'जेहिं बा सद्धिं २ अध्या संवसति' जेहिंति मातातिहिं सरहिं एगतो सम्म बसति, ते च णं नियगा ते एव मातापिताति, मातापितरो जातमित्नं पृवं ।।५ ।। पोसंति, पीवगमिनपोत्तादीहि, वा वियप्पे, कदायी ण पोसिञ्ज जहा जारगम्भी उज्झितो अण्णेहि पोसिजति, अट्ठगम्भो विप्पजुत्तो वा, स एव पुचो संवड़ितो मातापितरो पोसंति, केयि अणारिया देसेहि थोवितरोवितेहिं पुत्तेहिं अकम्मसहोत्ति पिता गद्दभपालो कीरति, अण्णेसि मारित्ता खित्ते खयं खणित्ता णिक्वमंति, पमत्थर्वतरो भवित्ता तं खेल रक्खइ, ण कस्मवि अन्नस्म | तत्थ उत्तार देति, ते एवं अदुस्समाणावि जरादिदुक्खपत्तीए णालं तय ताणाए या सरणाए वा, तुमपि तेसिंणालं ताणाए वा सरणाए। वा, एवं ता सयणो ण ताणाए, सयणाउवि धणं प्रियतरं, उक्तं च-"प्राणैः प्रियतराः पुत्राः, पुत्रैः प्रियतरं धनम् । स तस्य हरते | YA प्राणान् , यो यस्स हरते धनम् ॥१|| तंपि ण ताणाए,तं कहं उप्पजह ?,भण्णइ-'उववातीतसेसेण वासे जंतेण अहण्णहण्णि | कम्मत्तेण धणं उववजितं ततो उबातीतसेसं, जं भणितं-उवभुत्तिसेस, णिधाणं सण्णिही, ओदणदोश्चंगादीणि विणासिदवाणि,संनिहि| संणिचयो घृतगुडपडवणकप्पासादीएहि, इह असंजते मणुस्से एगेसिं, न सव्वेसि, असंजता वा केयि खाइकचकला तेसि कयो A संचयो ?, तं च दुक्खं परिभुत्तुं भवति, कहं ?, ततो से एगता रोगसमुप्पातासमुप्पजति' तंमि उवज्जिते धणे एगस्स, ण सबस्स, रोगा कासाति, रोगाणं समुप्पाता रोगसमुप्पाया, सन्नरोगाणं च कुट्ठरोगी अवगीतोत्तिकाउं तेण भण्णति 'जेहिं वा| ॥५५॥ दीप अनुक्रम [६३ ७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [59] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] प्रत वृत्यक [६२७१] श्रीआचा-Uजाव परिहरंति' ब्रामणं सेडगमिव पुत्ता, 'सो वा ते पच्छा परिहरिना' मो चेव सेवयओ ते पच्या णियए परिहरति, सम्पच्याजेवि अनिनेहेण न रोगामिभूतपि परिहरंति, तेवि नालं ते तब ताणाए वा सरणाए बा, तुर्मपि तेर्सि, इच्चेवं जाणिय परिवारे दिक्षण: चूर्णिः २अध्य पोसणो, परिहारे य अपडिपक्रवदुक्खं 'पत्तेयसात' एक प्रति पत्तेयं दुक्खं सात बा, नेण जाव ण परियतती जाव य V सचिट्ठा ण य रोगित्ता जिष्णता वा परिहरंति ताव 'अणभिक्कतं वयं सपेहाए' न अभिक्कतो अणभिक्कतो वितिए पढमे वा | वए संजमो, अमिक्कते वए जाव तिणि दोसा परिवात पोसणा परिहीणसद्धा, अणमिकतेवि संबुज्झ, तेसिं परिवातादीणं दोसाणं एगतरेणावि अपुट्ठो अभिकंतवयोवि कोयि दढसरीरो प्रबजारिहोजह भगवया पुवं मातापितरोपवाविता, किंच-अणमि- कंतवओ 'वणं जाणाहि पंडिते' खीयत इति खणो, स तु सम्मनपामायियमादि, एक्केकस्स सामायियस्स चउब्विहो खणो भवति, तजहा-खेत्तखणो कालखणो कम्मखणो रिकखणो, खितं उडमहतिरियं च, उद्दलोए ततियचउत्थाण सामाइयाण खणो गस्थिति भणित, लंभो, सम्मत्तसुत्ताणं पुण होज खणो, अहेलोएवि अहेलोइगामवज एवं चेव, अहेलोइएमु तु गामेसु चउ- | | हवि खणो अस्थि, जं मणित-लंभो, तिरिक्खलोए माणुस्सखेसस्स बहिं अचरित्ताणं तिर्ह खणो दोजा, अंतो पण्यारससु कम्मभूमिसु चउण्हवि लंभो, भरई पडुच्च अदछब्बीसाए विसएम होजा, तंजहानायगिहरू, विजाहरसेढीसुवि होजा, अकम्मभूमीसु पडि-IN बजमाणयं पडुच्च सम्मत्तसुया होजा, साहारणे पुवपडिवण्णगं पड़च चनारिवि होआ, एवं अंतरदीवेसु, कालक्खणेवि ओसप्पिणीए उस्सप्पिणीए णोउस्सपिणीओसप्पिणीए, तिगचउत्थसामाइय जम्मणेण दोहिं संतिभावेण तीहि, ओसप्पिणि जम्मणेण तीहि संतिभावेण दोहि, गोउस्सप्पिणि० चउत्थे पलियभागे होजा, साहारणं पञ्च अन्नतरे समाकाले होज्जा, सम्मत्तसुयाणं सव्वासु समासु D॥५६॥ दीप अनुक्रम [६३७२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [60] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१७२-१८६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६२-७१] गंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य १ उद्देशः प्रत वृत्यक [६२७१] ॥७॥ | खणो पलिभागेसु य, कम्मक्वणो नदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेण चउण्डंपि सामाइयणिज्जुत्तीए, रिक्कखणे इमाणविचारः गाहा 'आलस्स मोहवणा-' अहवा इमो खणो भण्णति 'जाव सोतपण्णाणा अपरिहीणा' सोतस्स पण्णाणं | सोयपण्णाणं, परिहाणी देसे सम्बे य, सा पुण जराए वाहिणा उपक्कमेण वा परिहाणी भवति इंदियाण, 'इचेतेहिं' विरूवविविध रूचं, विरूवं रूवं जेसिं ताणि विरूवरूवाणि, जं भणितं-नानासंठाणाणि, तंजदा-कलंबुवापुष्फसंठिए एवमादी, भावेवि | सग्रहणसमत्थं सोनं रूपोवलद्धिसमं चश्व एवं सेमाणिवि. विसिई वारूप विरूचं, जंभणितं णिरुवहतं, अहवा नोइंदिपच्छट्ठाणि ।। || विरूवरूवाई पण्णाणाई भवंति, जं भणितं पत्तढविसयाहिं, तेहिं अपरिहीणेहिं आयटमेव-अपणो अट्ठी आयट्ठो, को य सो, | संजमो पंचविहो वा आयारो विसयकसायनिग्गहो वा, अहवा आयतपण्णाणं घेत्तुं, अहबा दिग्घदरिसिया आयतट्ठी, अहबा साति| अपञ्जवसितो मोक्खो आयतो, आयतस्स अट्ठो आयतडो-पंचविहो आयारो तमायतद्वं सम्म, ण मिच्छा, ज भणितं अवहितं, कई सम्म १, भण्णाइ-णो इहलोगट्ठयाए तवमहिवेति णो परलोगट्टयाए तबमहिडेति नो अपाणं मणुस्सकामभोगाण हेडं, मंसबडिस-10 | गिद्धा इव मच्छा, जहा या कागिणीए हेतुं, रायिस्सरादयो अप्पकालिए मोहे मजा नरएसु उवषअंति कसायविसयलोयअपरिण्णाय| दोसेणं, तम्हा एवं अपरिहीणविण्णाणो आयत९ सम्म अणुवसिञ्जा-अणुसिय अणुकूलं वा बसिज्जाहि बंभचेरे अणुवासेज्जासितिमि । इति लोगविजयसारस्य द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः ॥ संबंधो दुविहो- अर्णतरसूत्रेण तदणंतरेण य, अनंतरेण आयय₹ सम्म अणुवासेज्जासिचि, सम्म संजमे रति कुज्जा उबदेसो, |तं उबदेसे अविरत्तभावा अधायुगं वालंति, केयि पृण विसयकसायबसं मता अष्पं वा बहुं वा कालं अहाविहारेण विइरिचा ॥५७।। दीप अनुक्रम [६३ ७२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'अदृढता' आरब्धः, [61] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] अरतिवजेन घृणि: HI प्रत वृत्यंक [७२ श्रीआचा- पुणो पडंति, परंपरसुत्तसंबंधो जाव ते पण्णाणेहि अपरिहाणी ताच तं संजमे ठिचा रति कुज्जा इति, अददत्तं विसयकसाएहिं रांग पत्र-I| कुरु तस्विवक्खे य ददत्तंति, एस संबंधो 'अरति आउट्टे' संजमे अरति रतिं विसयकसारहि कलत्तादिसुतं आउठे, जं भणितं होइ | २ अध्यक | णिण्णेहि, आरंभे वा आउट्टणासहो, संजमे रति कुज्जा, मणिभावे वेरग्गे पसत्यमूलगुणहाणेसु य आउट्टाहि, सा पुण पंचविहे २ उद्देशः आयारे रती विसयकसायनिग्गहे रतिं धम्मे रति अधम्मे अरई, तस्स एवं संजमरयस्य इह चेव अब्बावाहसुई माति, भणियं । पाच तणसंथारणिविट्ठोवि मुणिवरो गाहा, अप्पसत्थरईए कंडरीओ उदाहरणं णरएमु उववण्णो, पसत्थरईए पोहरीओ, एवं अप्पसन्धरईयो पसत्थरति आउमाणो मेरामेहावी, मेहा ता 'वणंसि मुके' खीयतीति खणो खणमिचेण मुचति, भरहो जहा | तसव्वकामेहिं बंधणेहि य, जे पुण अणुवदेसचारिणो कंडरियादि ते 'अणाणाए पुट्ठा णियति' अणाणा जहा अमिलसिता अहितपवित्नी, पुट्ठा परीसहेहि, तत्थ इत्थीपरीसहो गरुयतरो तेण पुट्ठा मंदा बुद्धिश्रवचए मंदा, मोहो-कम्मं तेण पाउडा-छादिता इहपरलोइए अपाए ण बुझंति, विसयतिसिया इहलोगगवेसया कंडरियादी भणिया लिंगपच्छागडा, अण्णे पुण 'अपरिग्गहा भविम्सामों' अंतग्रहणा अहिंसगादि जाव अपरिग्गहा, संमं उत्थाय लद्धा पट्टपण्णा कंडरीओ जहा, 'अभिमुदं गाइति, जहा तण्हाइतो हत्थी सरंतो अप्पत्तो चेव कोई पंके खुप्पति, एवं सोऽवि भंजिहामि भोगे अंतरा चेव मरति, कोइ पुण लज्जाए वा गारवेण वा पराणुयत्तीए वा णो लिंग मुपति संकिलिट्ठपरिणामो जहा खुडओ, अणाणाए पडिलेहेति, आणा भणिता, पडिलेडणा कामभोगणिविडचित्तत्तं, नाणाविहेहि उवाएहिं सवियप्पेहि य विसए पुणो २ पढिलेहिइ 'एस्थ मोहे पुणो पुणों' दबमोहे मज्जाति भावमोहो अण्णाणं संसारोबा, एत्थ भावमोहे संसारे पुणो पुणो भवंति, अहवा एत्थंति-पत्थं असले संसितो पुणो पूणो दीप अनुक्रम [७३७७ ॥५८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [62] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] प्रत २ उद्देश वृत्यंक [७२ श्रीभाचा-1 कामभोगेसु सज्जमायो पुणो मोहो भवति, जंभणितं कम्मबंधो होति, एवं विसयामिलासिणो सण्णामूडा, दवे गीतरणादिसु मज्जंति, संज्ञामंदादि गंग सत्र-0सो तिविहो संनो-इसिनि मज्झिमो णिसंनो, तत्थ इसित्तिसंनो णातिदूरं बुज्झति, मझिमो दूरतर, निसंनो मुदूर बुज्नति, अहवा चूर्णिः तत्थ व विणस्सति, एवं भावसण्णोवि तिविहो-जहण्णो उत्तरे गुणोपमादि, मज्झिमो लिंगधारणो, उकोसो पुणो चउत्थं सेवति. IN २ अध्या IVते एवं 'नो हवाए णो पाराप' हवं-गारहत्थं पगामकामभोगिनं तं तेर्सि अरदचित्ताणं ण भवति, पार-संजमो, तत्थवि DAI ते ण भयंति, ते उ ततो मुका व गिहत्था ण पब्बइया भवति, जे पुण अपसत्थरतिविणियट्टा पसत्थरतिप्राउट्टा विमुत्ता ते जणा पारगामिणो, दव्यविमुत्ती सयणघणाति भावे विसयकसायाति, सम्यतो वा पमाता ते विमुक्का, तहा कजमाणे कडे, एवं समए D २ विमुचमाणो, अहवा सिझमाणसमए विमुचमाणा विमुका, जायंतीति जणा, अहवा सम्बत्व जणभूया जणा, जं भणितं णिण्णेहा, | के तेवि विमुत्ता , भण्णति-पारगामिणो, पंचविहयारगुन पसस्थगुणं मूल पारं वा गच्छति, पारगामिणो वा एते, जगारेण उद्दिद्रुम्स तगारेण निदेसो भवति, भण्णति-अणेगंतो एसो, जेण भणितम्-"तमै धर्ममृते देयं, यस्य नास्ति परिग्रहः । परिआहे तु ये मक्ता, न ते तारयितुं धमाः ॥१॥" ते कई पारगामिणो ?, भण्णति-'लोभं अलोभेण दुगुंछमाणा' "यथाऽऽहारपरित्यागो, ज्वरितखौषधं नथा। लोम(स्यैवं)परित्यागः, असंतोषस्य भेषजम् ।।१।। असंतेसऽप्पसंतोसो, दुगुंछा नाम पडिगारो, अहवा असंतोसं दुगुंछति, असंतुद्वाणं इह परस्थ य भयं भवति, इह लोए अजिणणे रक्खणे य, परलोगे परगादिसु भयं, एवं | कोवं खंतीए जिणत्ति, माणं मदवेणं, मार्य अजवेणं, बहुदोसा दुलंघता य तेण पाणुपुबीए, ते पुण संजलणा, इतरे संतस्स गस्थि, सो लोभो अलोभेण दुगुंछितो सच्चतित्थगरेहि रायीसरतलवरपब्वइएहि य, अहवा सच्चसाहहिं दुगुडिओ, कहं १, पव्वयं-10 दीप अनुक्रम [७३ ७७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [63] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] श्रीआचा- गंग सूत्र चूर्णिः प्रत २ अध्य २ उद्देशः वृत्यंक [७२ तेण जतो तिणि कोडीओ पक्खित्ताओ भवति, तंजहा-अम्गी उदगं इथिओ, कह ?, जब कोई वुच्चेजा--तिणि कोडीओ गिहलोभजूगुउदगादीणि मुय, सो इबिजा, एवं लोभं दुगुंछमाणो लद्धे कामे नाभिगाहति, अमिमुह गाइति अभिग्गाहति जहा चित्तोखुङ-110) प्सादि ओवा, 'सुट्ठ गाहतं मुट्ठ वाइयं सुठु नच्चियं सामसुंदरी। दिजंपिरजंन इच्छति एस, एवं दढचाहिगारे अणुतरे, एवं ता सलोभो णिक्खंतो कोयि तं लोमं अलोमेण दगुंछइ जाव सव्वथा खीगो, कोयि पुण विणावि लोभेण निक्खमइ जहा भरहोराया|N चाउरतचकवट्टी, एवं कोहो माणो माया, अहवा अणताणुबंधी अप्पचक्खाण पचकखाणावरणा तित्रिवि लोभा गहिता, तेहि विणा | णिक्वतो, एवं कोहमाणमायाचि तिणि तिष्णि, कोयि महावि लोभेणं णिक्खंतो सरागसंजमो घेप्पड़, णवि सो तेसिं खवणाए| उद्वितो अणिक्खतो भवति, अहवा सह जहा गोविंदो णिक्खतो, तपि सेयं भवति, अहवा ओदणमुंडो जावि सावि पन्चा होति अहगं पुण णरस्स सुहबइणिज्जो, अहगं पुण ओदणमुंडो अच्छरामज्झगतो विलसामि, एअंसकम्मे जाणइ पासइ भरहो जहेह राया,, अण्यो देसक्खएणं पडिलेहाए णावखंति विसयादि, सम्म उडिते आयतट्ठीए, एस अणगारेति पञ्चति-मिसं वुश्चति, भणिता दहधितिणो, तन्धिवक्खा अप्पसत्थगुणट्ठाणवत्तिणी विसयकसायवसगा, अलोभं लोभेण दुगुंछमाणा लद्धे कामे निगूहमाणा, अविणयितुं लोभ निकखंता मिच्छुगमादी, अणिक्खंता वा सकम्मणो णो अणगारा पन्नुचंति, 'इच्चत्थं गदिए लोए वसति' पमत्तो गिहिलोगो पासंडिलोगो वसति भोगेसु विसयकसायातिपमत्तो अददधितित्वा अप्पसत्यरतिश्राउो आयपरउभयोउं अत्थोवज्जणपरो कालाकालसमुट्ठायी जाव एत्थ सत्थे पुणो २ पावाइवायमादिएमु जोगतियकरणतिएणं से यातयले' अप्पा मे बलितो भविस्सति अपरिभूतो वा, चलितो भोगे अंजीदामी जुझिहामि वा सालंकारो वा में भविस्पति, तेण मंसमअपाणण्हाणादीदि सरीरपुट्ठी दीप अनुक्रम [७३ ७७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [64] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] प्रत वृत्यंक [७२ श्रीआचा खमेहि अप्पाणं पोसति, तित्तिरवडगलावगमादी सत्ते उच्छादयति, 'गातिबले' सपणसंबंधी ते मम वर बलिया भवंतु, तेहिं बलि-10) गंग सत्र-1 एहिं अहं बलिओ अपरिभृतो य मविस्सामि, एवं मित्तं सहबासाति, सो पेचतलोगणिमित्तं धिज्जाइये पोग्गलेणं मुंजावेंति, जण्णा चूर्णिः Wय जयंति, एवमादि, देवपले पसत्यदेवबले य अपसत्थदेवयले य, पसत्यदेवबले दुबलियममित्तप्पमुहेण संघेण देवयाए IN २ अध्या २ उद्देशः D. बलनिमित्तं काउस्सग्गो कओ, अप्पसत्थदेवबले छगलगमहिसपुरिसमादीहिं चंडियाईदेवयाणं जागा कीरंति, 'राजबले'त्ति वृत्यर्थ ॥६ ॥ | सेवते 'राजा त्राणमनर्थे मे, ततस्थिवर्गमेव च' त्रिवर्ग साधयिष्ये वा विजयिष्यामि वा परं 'चोरयले'त्ति चोरा मम भार्ग देहिति |दरिसिस्संति वा छिद्दे सत्तूणं मम रुयिता, अतिधीनो धूलीजंघा 'किविणा' विगलसरीरा 'समणा' चरगाति, एतेसिं अत्थत्थी जसन्थी धर्मार्थाय दयेंति 'इचेतेहि' इति एतेहि विरूवरूवाणि णाम अणेगरूवाणि अण्णाणिवि जीवंतगदाणाणि मतकिञ्चपुत्रदाणभरजाणादाणि, एवमादिविरूवरूवेहि कोहिं दंड समारभति, पढिज्जइ य-'इतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमादाणं सपेहाए । दिंडयति जेण सो दंडो. दंडो घातो मारति एगट्ठा, समत्तं आताणं समादाणं, सर्व पहाए सपेहाए, भया कजति, पावमोक्खा, II म केवलं आतवलातिणिमिन, कायदंडा कीरति रायचोरादीणं, अवा सव्वाई एयाई भया कअंति, मा मे सरीरं दुबलं भविस्सइ, नाततो वा रुस्सिहिंति, देवयावि पुवाचारखंडणेगं रुस्सेज्जा, अतिहिमादीगवि देती, बलं लोगस्स गणमतो भविस्सति, संमोक्खो पमोक्खो तं मोक्खं मन्नमाणो चरगादीणं देति, आसंसणा णाम पत्थणा, सा इह परत्थ य, तत्थ इहलोगासंसाराया| दी विनिणिमित्वं सेविजंति, परलोइयाणि रचातीण करेंति, णिदाणोवहता वा, एगपुप्फुपादाणेणं एवमादी आसानैति,'तं परिपणाय मेहावी तदिनि नं आयबलादि, अहवा सव्वं एतं जहुद्दिढ़ जं सत्थपरिण्णाए जं च इह अज्झयणे पदमुद्देसए वुत्वं दुविहं दीप HTRIANDA अनुक्रम [७३७७]] ॥१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [65] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१८७-१९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-७६] PM प्रत वृत्यंक [७२ श्रीआचा- गुणवाणं विसयकसायामाणादि तहा कालाकालसमठ्ठाणि जराए य अभिभूतस्स परिवारपोसणपरिहारा णो हस्साते य० खणं च उचनीचरांग खत्र इंदियपरिहाणी मूढभावं च जंजस्थ जुञ्जति तं दुविहाए परिणाए परिणाय रति अरतिं आउंटणं च जाव आसंसति, एवमादि ) गात्र चूर्णि: २ अध्य० दुविहाए परिणाए मेरामेहावी णो पडिसेवे 'एतेहिं कज्जेहिं ति जाई एताई आतबलादीणि उदिहाई 'णेब' ण इति पडिसेहे एक३ उद्देश सदो अभिधारणे, सयं-अप्पणा दंडं समारमिज्जा छसु जीवनिकाएसु, णोवि अण्णेणं, अन्नपि न समणुजाणेज्जा जोगतिगकरण तिगेणं, एवं मुसावाये जाव परिग्गह, किं कारणं १, जे सत्थे तेहिं हिंसादिएहिं पगारेहिं दंडेति, वक्खमाणं च, तुमंसि णाम, केण एतं पवेदितं ?, भण्णति-'एस मग्गे आयरिएहिं पवेदिते' एस इति नाणादिजुत्तो भावमग्गो नाणादि आयरिएहिं पगरिसेण साधु वा वेदीतो प्रवेदिती, तंमि भगवंपवेदिते मग्गे भगवतो गौरवा सव्वतित्थगरमती संसारभीरुता 'जहित्य कुसले णोवलिंपेजासिनि दवे कुसले कुसे लुणाति दबकुसलो एवं भावकुसलोवि गोवलिंपेज्जासित्ति, लेवो अप्पसत्थगुणमूलट्ठाण विसयकसाया मातापितादि अण्यातरजोगलेको दकणिवातलेवोजो य उवरिगो ताणाति, तेण पोचलिंपेजासित्ति अप्पाहणिया॥ एवं लोगविजयस्स द्वितीयोदेशकः।। ____ कसायविसया भणिओ भावलेवो, एथवि कसाया वणिज्जंति इति अणंतरसूत्रसंबंधो, आतबलादीण माणणत्वं कजंति कायदंडाइ य अतो परंपरसूत्रसंबंधो, सो माणो अणेगसो संसारे पत्तपुब्योतिकाउं भण्णति से असई उचागोते से इति संसारी असइ-अणेगसो अणन्तसो वा उच्च दाणमाणसकारारिहं गोच, नीयं विवरीतं, तपि असई आसी भदंत !, नागार्जुणीयास्तु KO पदंति 'एगमेगे खलु जीवे अतीतद्वाए असई उच्चागोए, असई णीयागोए, कंडगट्टयाए णो हीणो णो अतिरित्तो' तत्थ कंडगं दीप अनुक्रम [७३ ७७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'मदनिषेध' आरब्धः, [66] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཝིཛཱཡྻོཝཱ ཡིཏྟཙྪེཡྻ श्रीआचागंगसूत्रचूर्णिः २ अध्य० उद्देशः ।। ६३ ।। "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ७७-८१] परिमाणं छेदोत्ति वा जतियं कालं जाइमादीहिं विसिद्धो भवति तं उच्चागोयकंडगं विवरीतं इतरं, जातिविसिडयाकंडगस्स जातिविहीणताकंडग पडिपक्खो, एवं कुलवलादीहिवि भाणियध्वं अध्याबहुयं कंडगट्टयाए जो हीणे णो अतिरिने, उच्चागोयकंडएहिं एगभविएहि वा अणेगभविएहि वा नियागोयकंडगा यो हीणा णो अतिरित्ता, तत्थ उच्चगोयकंडगं जह मेणं अंतोमुहुसं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, णीयगोयं जहणणेणं अंतोनं उकोसेणं अनंतं कालं, अंतोनुहुतेणावि एगतरं अंतरं कंडगंण भवति, जतो य अनंतसो सव्वजीवेहिं उच्चतं गीयतं च पत्तपुव्वं अतो णो हीणो को अतिरिचो, पीहणं णाम मदनभिलासकयं पेर्म, जो जातिहीणो सो जातिमंताणं पीहेति रायमातिणिक्वंताणं, परेण वा बुत्तो जहा तुमं कडहारगादि निक्खतो, पण तेसिं कुप्पेज्जा, इति बुत्ते गवि अरतिं कुज्जा इति, एवं संखाए' चि एवं जाणित्ता, किमिति परिगणिता ? 'से असई उच्चागोए परिन्ति' जेण एवं परिगणितं जहा मया अन्नेदि य जीवेहि अविसेसेण सव्वाणाई अणेंगसो पचपुव्वाई, अतो तस्स विदितप्पणी के गोतावा ते ? के माणावानो ?, जातिमादीणं अनतरेणं उपवेतस्स गोतावातो भवति, सगुणपरिकप्पणाणिमितो माणो भवति, एवं के जातिवाते जाव इस्सरियवाते, कंसि वा एगे गिज्झेति १, पण हि केणइ किंचि उबड्डाणं ण पतपु, अतो को रागी ? कतरेडिं वा सदाहहि सुहगेहिं करिस्सति ? जं तुमए णाणुभृतंति, भणितं च-"सर्वसुखाण्यपि बहुशः प्राप्तान्यटता मया तु संसारे । उच्चस्थानानि तथा तेन न मे विस्मयस्तेषु ||१|| कतरं वा णीयत्थाणं सदादीदुक्खं ण अणुहूति मया जो उब्वेषिजामि, किंच-अहिंतो ही होऊण ण होति पुणो उत्तमो, उत्तमो वा हीणो 'होऊण चकवडी पुहविपती विमलमंडलच्छन्नो। सो चैव णाम तुच्छो अणाहसालोचगो होति ॥ १ ॥' तम्हा पंडिते णो हरिसे जातिमादीसंपण्णेण हरिमोण कायच्यो, तदणुववेतेण हीलिज्जमाणेण ण कुप्पेयच्छं, कई ?, अथवाडगदिट्ठे मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [67] उच्चनीचगीत्रादि ॥ ६३ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] उचनिचगोत्रादि प्रत वृत्यक [७७८१] भीआचा- तेण, किंच-इममि चेव भवे कोयि राया भविना दासो भवति, कहिं ?, जो हि कंडणिज्जितो गहितो य स दास इव भवती, स रांग सूत्र 10 एच पुणो मुको तक्खणादेव राया, जहा उद्दायणेण पजोतो, णंदो वा खणेण राया जातो, रूवसंपण्णोवि खणेण विरुवी भवति ।" ITAL काणितो कुंठितो बा, छायातो वा भ्रस्थति, जहा सणकुमारदेवोदाहरणं, कालंतरेण वा जराए वा विणा वा रूबविवज्जिओ भवति, ३ उदेशःINजहा सणकुमारस्स, एवं सेसावि मदढाणा सपज्जाया भाणियब्वा, सो एवं उच्चादि निपेहि य गोतेहि निवियप्पमाणो भूतेहि | ॥६॥ जाण पडिलेह सात, अहवा णामं च गोयं च पाएण सहमयाणि चेव भवंति, कह', अंगपच्चंगभेदे सरीरिंदियविणासे | | वट्टमाणो मरणा असुभणाम बंधति, जातिकुलादिट्ठाणववरोरणे बढमाणो नीयं गोपमिति, ताणि य तम्भया चेष परेसिंण कायबाणि, अतो भूतेहिं जाण पडिलेह सात', जम्हा भूतेहिं जाणतिचि जाणतो, किं जाणति ?-कर्म जीवाजीवादि बंधहेउं तबि वागं च जाणति, पडिलेहेहि-गवेसाहि सात-मुई, तधिवक्खो असातं, तं पडिलेहेहि, कस्स कं पियं? किं अणिहूँ; जं जस्स | AU अप्पितं तं ण कायब, नागज्जुणिया पदंति-पुरिसेण खलु दुक्खविवागगवेसएणं पुचि ताब जीवामिगमे कायम्बे, जाई च | इच्छिताणिच्छे, ते सातासात वियाणिया हिंसोबरती कायन्ना, एवं अहिंसतो, सो भूनसातगवेसओ अलियादि सबदारविरतो | जाव परिगहाओ, क्याणुपालणस्थं च उत्तरगुणा इच्छिज्जंति, तप्पसिद्धीए इमं भण्णति-समिते एता अणुपस्सी' ईरियास| मिती पढमवयअणुपालणत्थं, एवं सेसब्बतेहिवि जा जत्थ समीती जुञ्जति सा वत्तव्यया, एयाए एतं उच्चनीयगोयगतिगहणं | संसार अणुपस्समाणो, अहवा एतं इच्छिताणिच्छितं सातासातं अणुपस्संतो भुतेहि जाण पडिलेहि सातमिति वर्त्तते, उचानीयगोतप्पसिद्धिए अणेगरूवासु जोणीसु जहा पहिओ गच्छंतो (कहिंचि) सुई वसति कहिंचि दुक्खं वसति कहिचि गामे कहिंचि रण्ये दीप अनुक्रम ७८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [68] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] प्रत वृत्यक [७७८१] श्रीआचा-0 कहिंचि वणसंडे सीतलं सलिलं कहिंचि तविपरीय एवं संसारेवि कहिंचि उच्चागोयं कहिंचि णीयति, अहवा 'एयाणुपस्सित्ति अंधत्वादिः राग सूत्र-14 अणेगरूवाओ जोणीए विरूवरूवे फासत्ति इटाणिहा फासिजंतिन्ति फासा, जहा अंधत्तं, अंधो दुविहो-दवे भावे य, दबंधो चूर्णिः २ अध्य | उबहतणेतो अंधतणतो य, भाधो मिच्छादिट्ठी, दयभावे चउभंगो, पुढविमादि जाव तेइंदिया दोदिवि अंधा, सेसाण विभासा, | 2. बहिरंत ण मुणेति, मतो तिविहो-जलमृतो एलमृतओ मम्मणोति, खुजो बामणो 'वड नि जस्स पडर्भ पिट्ठीए णिग्गत, IN सामो-कुट्ठी सबल-सिति, सह पमादेणंति कारणे कज्जुक्यारा भणितं सकम्मेहि, एस उद्देसओ पायं पमाएणं गतो, से असई) | उच्चागोयत्ति माणो गहितो, सह कोहेण सह मायाए अणेगरूवाओ जोपीओ पुषभणियाओ विरूवरूवे फासे संघाति, अहवा रोगातका फासा तेसिं मागादिकसायाणं भूयाणं असायपवत्तीए य दोसे अबुज्झमाणो, तेण भण्णति 'बुज्झमाणे हतोवहते'N अहवा जती सो नत्थ अवाए बुझिजण मातातिकसाए करंज, अतो भवुज्झमाणे-णाणातितिविहयोहि अबुझमाणे हिंसादि-10 | पबत्ने गरगादि उवधानं उध्वस्स अंधनादि ण बुज्झति, जहवा अप्पसत्वगुणमूलट्ठाणाणि य अरतिदोसे आतबलादिदोसे य एवमादि अचुज्झते, हतोवइतो हतो डंडकमादिपहारहि उवहतो असुहबाहारण, जहा बागियगस्स साहस्सो णउलओ पुरोहि-1 तेण अवहिओ, मग्गिजंतोत्रि ण दति, रणोणिवेदितं, ववहारे पराजितो, किं कससतं महसि उदाहु गृहं भक्षयसि ?, भणतिकससतं सहामित्ति, कतिहि पहारहिं दिग्णेहि भणति-अलं मे पहारेहि, परिहारं खायामि, पच्छा थोर खाइतं, णेच्छति, एवं पुणो पहारो, पुणो थोवं खादयति, एवं ते पहारा तं च गृहं खाती, एवं सो सबस्सहरणो कतो, हत्तो य, परिहारमलक्खणेण य अपंतेओ कतो, अहवा वकिमिगादिसु उबवण्णो हतो य उवहतो य, अहवा मण्णा समुदिसंता सेस अंतत्था ण विरहिता, किंनु सेसाण ?, दीप अनुक्रम Tec मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [69] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] णादि चूर्णिः प्रत वृत्यक [७७८१] श्रीआचा-|| अहवा दारिद्रं च रोगा य एवमादि, कह , हतोवहतो भवति !, भण्णति-विणि विद्वचित्ते एस्थ सत्थे पुणो पुणो' जो य आतिमरगंग सूत्र D| अहिए अप्पसत्वगुणमूलट्ठाणेसु विसयकसाएसु पसत्तो पुणो २ पवत्ता 'जाइमरणं'ति जणणं जातिमेवं मरणं, जे भणितं || २ अध्य माणो मरणमाणो य, आवीचिमरणेण खणे खणे जायमाणे मरणमाणे श, 'अणुपरियमाणों' संसारे परिभमंतो अयवाडग॥६६॥ IN दिढतेण वा 'वालग्गकोडिमिनोवि पदेसो पत्थि कोयि लोगंमि । संसार संसरंतो जत्थ ण जातं मतं वावि ॥१॥ एगे अण्णे वा देसा 'जीवियं पुढो पियं' जीविआइ जेणं तं जीवितं, पुढो-पत्तेयं, अहवा विहु-वित्थारे विच्छिन्नं जीवितं विमवेण, अहवा | पिहप्पिहं जणस्म अण्णारिस जीवितं पियं २ जवादीपाणाणं बीयार प्रियं अण्णेसि पा, एत्य मञ्जति पिञ्जति तेण अप्पियं, एगे| सिणंति, न सव्वेसि, केयि दुक्खेहिं पीलिता तं दुक्खं जीवितं णेच्छंति उबंधणाईणि करेंति, अहवा एगेसिं असंजयाणं, संजता जीविते मरणे य अपडिबद्धा, वस्थिसु भोगणिमित्तं अबुज्झमाणा 'खेत्तवत्थु ममायति' खित्त्वत्थूणि पूर्वमणिताणि ममाइत| मिति ममाययमाणा, ममीकारातो य परिग्गहो भवति तेण 'आरत्तं'इसित्ति रतं आरतं, अहवा अञ्चत्य र ते कुसुंभातिणा |'विरतं' जं विरंगीहतं विचित्तरंग वा जाव पंचवर्ण अजिणाति सम्धा वत्थविही कोयि ण सुंअति काणिपियाणि पडितेतरो, ID मणीकुंडलग्रहणा सव्वाभरणजाति गहिना, सह हिरण्योण घडितापडितरूवं घेप्पति, हिरणं सुवणं था, अहवा सव्वं कृवियं घेप्पति, |इन्थीण य परिग्गहं सब्बओ गिज्य परिगिझ 'तत्थेवारत्ता' तमि खित्तातिपरिग्गहे, अहवा खितादिपरिग्गहे वट्टमाणो| | परिग्गह एव भवति ण एत्थ तबो वा दमो बत्ति, 'एत्थं'ति एयमि परिग्गहे सपरिग्गहे वा माणुस्से णिरुबआसवस्स अणुबंध | सरीरं मणसंतावो, ण तबो, कोहादि ईदियआरंभपरिग्गहा अणियचिचेसु, ण एत्थ तवे वा दमे चा दीसति, अहवा मिच्छादिट्टी Lam६६॥ दीप अनुक्रम ७८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [70] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] चूर्णिः न प्रत वृत्यक [७७८१] श्रीराचा- य चोदिता, साहुं पूइमाणं दटुं भण्णंति-'ण एत्थ तवे वा दमे वा निरन्थयं एते किलिस्सति, स किल 'संपुण्णो वाले जीवितका MO| जीवितुकामो' संपुण्णं-निवाघात सयणमिच्चविसअविगलो सुयभोगे व, अहवा संपुण्णं चकवट्टिजीवियं तं महालं इच्छतो दोहिता मिकादि २ अध्या य गलिनो बालो रमणो वा वाकारहि, अच्चत्थं पुणो पुणो लप्पमाणो लालप्पमाणो, अबुज्यमाणो इति, किमिति ?-धम्म अधम्मINI ॥६७॥ बा अट्टितदोसेणं छकायवहेणं अपसत्वगुणड्डाणेणं दुल्लभं च पसत्वगुणडाणं अधुज्झमाणा हियाहितकत्तबविवरीतनिवेसाण मृदा दुर-1 प्पणा विसयगेहीए कागिणिअंबदिद्रुतेण सुहत्यी तन्विवजयं करेइ, अत्यउवजणपरो वट्टति, परलोगे नरगादिसु दुक्खं सुहस्स दुक्खं | विपरिआसो त उवेति 'इदमेव णाइ कंग्वति' इदमिति जति तं संपुष्णकामभोगी जीवितं पुब्बभुत्ताति य बालजीवितं गाइकरवंति, |जणभूना जणाज मणितं-पयणे व जणे यसमा०,जेण कम्मा वचंति यतं भुवं, कारणे कज्जुक्यारा, किंवतं, तबो नाणादि बात। जा चरति धुवचारिणो 'जाईमरणपरिणाए' जायतीति जाती मरतीति मरणंति, मरणं संसारो, एतेहि कम्मेहिं नरगादिगति | जाति, एचिरं च जीविता मरति, एतं जाणणापरिष्णाए पच्चक्रवाणपरिणाए प 'चरे' इति अणुमतत्थे, असंकितो मणो जस्स भवति असंकितमणो, तत्थ भण्णति-कुदिद्विसु जो एवं असंकमणो स एव ददो स एव अविसंकमणो, दढचरितो वा दढो, अहबा | जेण संकमिअंतिनं संकमण-नाणादितिएण मोक्खं संकमिति तस्थ चर, संकमणे दढेण य, एतं चिंतेय-काहामो परूपराधम्म, | बहुविग्घाई सेयाई, अतो भणति-'णत्यि कालस्स णागमो' कलासम्हो कालो, को य सो, मृत्युकालो, सो खणो लवो मुहुचो वा जाव संवच्छरो विजइ जत्थ कालस्म णागमो, अतो अहिंसादिसु अप्पमतेणं खणलवमुहुचादिसु अप्पडिबज्ममाणेण भवितब, कह !, जेण अप्पोवमेण 'सव्ये पाणा पियाउगा' पिओ अप्पा जेसि ते पियगा, जो जाए जाईए जीवो आयाति सो तहिं ॥६७ ॥ दीप अनुक्रम ७८. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [71] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] श्रीआचा | गंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ॥६८॥ प्रत वृत्यक [७७८१] रमति, इच्छद य जीविउ जो तेण अहिंसं पसंसंति, सुह अस्सातेतिन्ति सुहसाता, कुलं पति जमष्णं कूलं गोतधातजातिपातेहिवि | | प्रियजीविअणिद्वेहि, सावयाणं सा सुई पडिकूला भवति, किमु सारीरेहिं दुक्खेहि ?, अतो दुक्खपडिकूला, वहो दुविहो-तालणं मारणं वा, ताद सो दुविहोवि अप्पियो, 'पियजीविणोति तं कामभोगजीवितं जसोकित्तिजीवियं च निरुवकर्म पियजीवितुकामत्ति, दुक्खि-II | यावि जीवितं काति, किमु सुहिता ?, अतो जीवितुकामा 'सव्वेसिं'ति थिरयतसेऽवि य जीवा कामभोगजीविताति, पसिद्धं, एतं | 'परिगिस दुपयं चउप्पयंसमता गहो परिग्गहो, दुपदं जहा दासीदासकम्मकरादि, चउप्पदंति जहा वत्थु हथिअस्सगो| महिसादि अमिमुई जंजिय, जं भणितं अमिभूय, तंजहा-पंधरुंधतो सणाक्रसप्पहारादिएहि वाहिता तेहि तेहि कम्मेहिं गिर्जुजइ 'संसिंचियाण'त्ति परिग्गह इति बद्दति तं दुपदादिपरिग्महं हिरण्णसुचण्णधणधनाणि वा संसिंचिय, जं भणितं संवड्डिय, 1 'तिविहेणं'ति जोगतियकरणतिएणं अप्पणा परेहि उभएणं, अहवा चेयणं अवेयणं मीसं, मीयत इति मत्ता, अप्पा णाम MIN दीहकालभोगखमा, विपरीया बहुया, अहना पमाणतो सारमतो वा अप्पा वा बहुया बा, 'से तस्य गढिते चिट्ठति स इति । असंजतो 'तत्थेति तत्थ अप्पाए वा बहुबाए वा मुच्छिते गिद्धे गहिए अज्झोववण्णो, अहवा कपअकयलद्धअलद्धादिएहिं आसापासेहिं गडितो, तत्थेव चिट्ठति, ण ततो मणसावि उवरमति, "भोयणागति भोयणथं ते पणिजित्तु पालेति 'ततो से एगता। विपरिसिटुं' ततो इति ततो धणाओ नतो वा उजाणकाला, एगया, ण सधता, कदाइ दिवा रातो वा, विविधेहि प्रकारेहिं परि| सिर्ल्ड विपरिसिहूँ, जं भणित-वेइय, उत्तसेसं, सम्म भवति संभूतं, संमितं वा संभूतं 'महदिति पहाणं बहुयं वा उवगरणं महंत । उवगरणं महोवगरणं तंपि आगतणिति तं विपरिसिहूं एगया कयाइ, ण सनया, दाइयां विभयंति, णेव सबस्स अवहिजति,0॥६८ ।। दीप अनुक्रम ७८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [72] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] श्रीआचासंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ३ उद्देशः प्रत वृत्यक [७७८१] | पितिपिंडादि देति तेण दातारो, जहा केणइ रायपुत्रेण भट्ठरजेणं सविकमेणं आणामितं, तनो तस्स रण्णो अण्णे दायियादि तं | अपहारादि | छिद्देण विकमेण वा मारित्ता अवहरंति, अहवा णिद्धणवणियपुत्तेण दब्वे उवजिते दाइया खुम्भंति अविभत्तसंपयुत्ता वयं, अदत्त-14 हारी छिपेण अकमित्ता वा, रायाणो वा अवहरंतित्ति, स राया परचकेण वा, पस्सति चप्पयादि सयमेव, अपयं देवताजोगेण, जहा तस्स पंडमहरदारगस्स विणस्सति, जं विणा परिभोगेण कालेण विणस्सइ जहा वत्थं सोचिथावण्णं एवमादि, अहवा णावाए मिण्णाए सन्ध विणस्सइ, अगारं-गिहं तं डाहेण इज्झति, तत्थ कंसदससुवण्णयमादीणं छण्हं पदाणं दुगसंजोगमादिया जाव | छ संजोगति भंगा कायच्या इति । से परस्स अट्ठाए' इति सो परस्सत्थो णाम दाइयादीणं अत्था, एवं च बहवातादि कारेमाणी कारो, अहवा तत्थ बंधे सोगरियचारगपालादीणि कूरकम्माई करेंति बालो-मूढो, जं भणितं अण्णाणीति, स कुञ्जमाणो 'तेण दुक्खेण संमूढों जं तेणत्ति तेण कूरजनणितेण दुक्खमिति-कम्मं मूढी-पालो रागदोपअभिभूततया कजाकले अयाणलो एस मदो विवरीयभावो, विपरिआसो सुहस्थी दक्खे बद्दति परगादिसु, केणेयं पवेदितंति', भण्णति 'मुणिणा हुएतं पवेदित' | कतरेण मुणिणा !, बद्धमाणसामिणा, गोतमप्रभृतीणं मुणीणं पवेदितं-आदितो वेदितं, ततो मुणीपरंपरण जाव अम्हं धम्मा| यरिया, सो एवं करेसु कम्मे वट्टमाणो मुढो विपरियासभूतो मुणिणा पवेदिओ गिहत्थलोगो पासंडिलोगो वा 'अणोहंत राई'ति, अहवा सो विपज्जासभूतो अणोहंतरी, अहवा जस्स णो सण्णा अहितो वा सो अणोहतरो, दबोधो पदी समुदो वा, । | संसारसमुद्दो कर्म च भावोघो, तं कुतित्थियाण ण तरेति तेण अणोहंतरो 'एते' इति जे उद्दिट्ठा कूरकम्मणो 'णो य ओहं ।। तरित्ता'चि न य सयमपि कम्मगुरुगत्ता अणुयायउ ओई तरित्तए, तिएति तरति वा तमिति तीरं, तस्सवि तहेव, पारं णाम परकूलं ॥१९॥ दीप अनुक्रम ७ि८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [73] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७७-८१] आदानादि श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि : २अध्य० ३ उद्देश ॥ ७० ॥ CHANNEL प्रत वृत्यक [७७८१] अहवा सन्ति सण्णिगिढविप्पगिढकतो तीरपाराणं विसेसो, कई अणोईतरा ते भवंति !, भण्णति ?-संसारभीतेहिं गिहियवं आदा- णियं, किंचतं !, पंचविहो आयारो, तंमि आदिणिये उ, अहया सविवादसंठाणेण ण चिट्ठति ण करेति तं उवदेसं, एवं सो णो| अप्पाणं तारयति, ण परं, तं तेसि दरिसणं उपदेसो चिहितं वा 'वितहं पप्प खेयपणे तेण प्रकारेण तहा वितथा कुतित्थिया करेंति, | खेतप्णो पंडितो, तंमि इति तहिं अदोसी उबदेसड्डाणे चिढतीति आयरति, जं भणितं-ण अतियरति, तस्स एवंविहस्स नाणिस्स उद्देसो पासगस्स णस्थि, अहवा आदाणियस्स आणाए 'तंमि ठाणे,कतरे ठाणे', भण्णति-उहाणे, जं भणित-संसारहाणे ण चिट्ठा, जो पुण तं आणं वितहं पप्प अखेतण्णे वितहं करिता अखेतण्णो अपंडितो सो तहि चेव संसारहाणे चिट्ठति, जो पुण एतं जहाउद्दिटुं लोगं एवं पस्सति, अहवा नो सण्यां आदि काऊणं जहा विइस्सति तस्स, 'उद्देसो पासगस्स णत्यि' उहिस्सति अणेण उद्देसो, सो य नेरइयादितेण उद्दिस्सइ, अहवा समरीरत्तेण, एवमादि णामकम्मविभागा सब्वे भाणियब्बा, अहबा चकम्बुद| रिसणत्तेण साताई मुहदुक्खत्तेण कोहिनेण चउभंगो उच्चागोयत्तेण एवं जावतिया उत्तरपगडीओ ताहिं उदिस्सति, पासगो-तित्थD| गरो गणहरादि वा, तप्पडिपक्खभूतो अपासगो, जं भणितं-बालो, सो एवंविहो 'बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे' पुण विसेसणे, किं विसेसेति ?, ण केवलं वयबालो, पुट्ठोऽवि सो कर्ज अयाणओ बालो घेव, परीसहेहि णिहतो णिहो, अहवा चतुरंग लद्धा जो अपाणं संजमतवेसु णिहेति सो णिहो, आयाणियस्स आणाए अबहमाणो संपुण्णं बालजीवितं जीवितुकामो कामे समणुमण्णमाणो| पत्थेमाणो भाविजमाणो असमियदुक्खी, जं भणितं तं अणिजरितं, गरगादि उद्देसमाणेहि उहिस्समाणो दुक्खी दुक्खाणमेव आवहं| । अणुपरियति, श्रावट्टो भणितो, अणुगतो कम्मेहिं परियति । लोकविजयाख्यद्वितीयाध्ययनस्य तृतीय उद्देशकः ।। दीप अनुक्रम ७ि८ ॥ ७ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [74] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] रोगोत्या दादि प्रत वृत्यक [८२ श्रीआचा- भोगेहि संगो ण कायग्यो पुष्वमणितो उद्देसगसंबंधो, सुनेण सह संबंधो अर्णतरे परंपरे य, तत्थ अणंतरो दुक्खी दक्खे | गंग पत्र- अणुपरियति, रोगावि दुक्खमेव भवति, 'ततो से एगता रोगसमुप्पाता' परंपरं तु 'बाले पुण णिहे कामसमणुण्णो' ते य कामा || चूर्णिः दुक्खमेव, अहवा अतिकामासत्तस्स इहेच भगंदरो अंतविहिमाति रोगा उप्पजंतिनिकाउं तेण 'ततो से एगया रोगा समुप्पअंति, २ अध्य ४ उद्देशःYA 'ततो' इति कामसमणुष्णायाओ, कामा चेव कम्मा उ, कम्मा चेव य मरणं, मरणा नरओ, नरगा गम्भो जम्मं च, जातस्स ॥७१॥ रोगा, ततो से एगता, ततो परंपरएणं णिसेगकललअम्बुयपेसिघणगब्भपसवातिकमो दंरिसितो, अहवा अस्थमारोअधिकतो, अस्थवती कामे सेवति, कामेंतस्स 'ततो से एगया रोगसमुप्पाया' ततो इति जहभणितहेऊतो, एगता, ण समता, कदायि ण उप्प|ज्जेज्ज काएवि यावत्थाए, 'सम्' इति एकीभावे असमत्तं वा वाताति उप्पज्जति 'जेहिं वा सद्धिं संवसई'नि इति-अणू| मते सद्धि-सह एगतो वसति, तंजहा-बंधूहि भिश्चेहि सहबासेहिं वा, गियया गाम अप्पणो बंधवाति, एगता, ण सव्वता, 'पुव' मिति पढमं जया सो अरोगतो आसी सब्बकम्मसहो त तता तं सब्वे बंधवाति रायकुलं सभं उजाणं वा गळतं अणुवयित्था, तं रोगावहतं पुण ण अणुब्बयंति, तत्य उदाहरणं-गंदिणी गणिया, सा चउसट्ठिमहिलागुणोवयेया सहस्सलक्खा सिंगारागारचारुवेसा संगतहसित. विदिबछत्तचामरवालवीणिया, तं च रायकुलमतियच्छंती निझायतिं वा केइ हडफहत्थगया एवं वीणाति जाव परिव्ययंति, तीसे य अण्णता मञ्जमंसासिणीए भोगप्पसंगेण इति जागरिता, ताहे देहे रोगातका समुप्पण्णा, |णिकजाविया जाता, तीसे से णीयल्लगा अन्नं जोवगत्थं गणिय ठावेऊणं तं परिचयंति, सावि रायकुलमयिति पच्छा परिबयति अग्गो गच्छइ, एवं गोज्झातिणोवि जोवणं गुणरूवसंपण्णं एवण्णं परिवयंति, सोवि पच्छा रोगियो समाणो अन्न A ८५] दीप अनुक्रम [८४ ||७१॥ ८७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'भोगासक्ति' आरब्धः, [75] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] प्रत्येक चूणिः प्रत वृत्यक [८२ ८५] श्रीआचा- जोवणगुणरूनसंपण्णं परिन्वयति, अहवा णञ्चाणो णडो वा कुवितो उदरितो वा जुंगितो वा लट्ठीवालो कीरति, सुखासणादि | रांग सूत्रवा वहाविजंति, तं च अण्णं णवण्णं परिव्ययंति,'णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा ताणसरणा पुब्बभणिता, अहवा सातादि २ अध्य० | इह रोगा अधिकता तत्थ सम्म रोगिस्स किरियं ताणं, वाहिउबसमो सरणं, जहा ते तव णालं ताणाए वा सरणाए वा 'जाणितु। ४ उद्देशः दुक्खं पत्तेय सात ति, एवं जाव एगेगं प्रति पचेयं, दुक्खं णाम कम्म, तंच कामभोगामिणिविट्ठचितेण रागदोसगुणजुतेण हिंसा॥७२॥ AU इयासबदारेहिं वढमाणेणं पुषदारादीणं अपणो वा अत्थे पावं दुक्खं फलं अज्जिणितं तं कत्तुरेव पनेगसो भवति, ण जेसि कए कर्य | तेमु संकमति, सात ति एवं सातपि पत्तेयं भवति, एवं जागरमाणावि केयि भोगे एव अणुवयंति, अहवा एवं जाणिय दुक्रवं पत्तेयसातं च तम्हा भुत्तपुब्वे कामे गाणुस्सरेआ, पडुप्पणोषि न सेवेजा, अणागतेविण पत्थिज, अहबा एवं णचावि पत्तेयं साता-10 साते कम्मविवाए तहावि 'भोगामेव अणुसोयंति' अप्पइट्टाणे नरए उववण्णो तत्थवि नरगवेयणामिमृतो कुरुमती कुरु-IV | मति कुरुमतित्ति विलवमाणो, पिंडोलगतंदुलमच्छाण य उवलद्धो, तत्थ वेयणा उबलभति 'इह' माणुस्से एगेण सव्वे, माणतित्ति माणया, धणं च तेसि मूलकारणंतिकार्ड तेण 'तिबिहेण करणेणं उपजिणंति-अप वा बहुयं वा, मीयतीति मचा, से तत्व गढिते जाव विष्परियासुवेति' एतं पुब्वभणितं, एवं कामभोगे खेलासवे वंतासवे पित्तासवे जाब विप्पजहणिजे जाणित्ता तेसु 'आसं च उंदंच' आससति समिति आसा-भोगामिलासो आमा, छंदोणाम पराणुवत्ती, अणासंसंतोवि कोपि पराणुवत्तीए अकुसलं आर-IN । भति, तपि अ साह 'विकिंचित्ति उज्झाहि 'धीरो' बुद्धिमां, भोगासाए पराणुवत्तीए य किं भवति ?, अतो भण्णाति-'तुमं चेव |तं सल्लमाहर्ट्स' अहवा अप्पमायं, अणंतरपमाओ तदशायदरिमणथं भष्णति-'तुमं चेव तं सल्लं, अहवा परीसहोदये अप्पाण HEL॥७२॥ दीप अनुक्रम [८४ ८७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [76] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] चूर्णिः | N . प्रत वृत्यक [८२ ८५] श्रीआचा- मेव माहू उबालभति-'तुम चेव न सलं तुम व सो जो एयफलाई कम्माई कितयां, णविणखणिो आहटु आणिो , तदंते । आशादिगंग सूत्र- दुक्ख अणुभवसि, अहवा जो एतं कामभोगेहिं आसं छंदं च न छिदिहिति पच्छा सो घेव दक्ख अणुभविदिते, तत्थ दवसल्ले उदाहरणं, विञ्जस्म पुत्तो ण संधितं पढितो, णिविट्ठो य, से मृहगम्भा, ससुरेण अच्छीणि बंधित्ता गम्भं तो परामुसिचा मतोचि काउं| २ अध्य० ४ उद्देश PA ताहे अंगुलिमन्थएणं छिदिय छिदिय चंगोउए ताव अंगमंगाई संघातिताई जाव णीहरितो, एवं तीणि वारा, अचत्थं लज्जतेण ॥७३॥ | सत्थगं मुकं, पच्छा सो मतो, केइ पुणाई भगति-जहा नेण तं सस्थगनीयगम्भे तत्थेव मुकं, नेम घटुं, तेण मा मारिता, भावसल्लो अट्ठविहं कम्मं तस्स नरगादि विवागो, जो पुण सो कामभोगासच्छंदं छेता धीरो कामभोगे अबउज्या तस्स भण्णति-'जेण सिया) तेन सिया' 'जेणं'ति जेणप्पगारेण कर्म बंधति जेहिं हेऊहि ते ण करणीया तुमे हेतू, भोगपमत्ता पुण इणमेव णावबुझंति-जं| Wएवं सल्लमाहटु दुक्खं भवति, जेण य ण भवति के', 'जे जणा मोहपाउडा' जर्णतीति जणा मोहोरागो विग्धो-वस्खोडो III अहवा दसणमोह चरितमोहेण पाउडा, जंभणित छादिता, इह परत्व य मलभाएग वुमति, समत्थवि पुरिसपण्ण प्रणनि| काउं मोहणिअम्म य इत्थीओ गरुयाओनिकाउं भण्णति-जो से आपच्छंदामिभूतो कूगणि कम्माणि करतो गरगफलविवागसल्लं आहटु नष्फलं अचुज्झमाणे मोहपाउडो लोगो सो थीनि मिस बहुपगारेहि वा घहिनो पनहितो, जं भणितं-वसीकनो,'ने भो वदंति' ते धीहि बहिना तप्परायणा लोइया भी इति सिस्सामंतणं वदंतिनि विसत्था भणंती भो 'एताइ जाई आयतणाई' आइअंति अस्मसंति वा आयतणं तं अप्पसत्वं पसत्थं च, पसत्थं नागाई अप्पसत्थं बिसया इत्थीश्री अण्णाणादि, स तु पसत्थभावायनणवाहिरो अणायतणाई आयतणाई करेति, ताणि य अस्मियंतो से दुकावाए' स इति मो थीवमगो बालो दुक्रवाएनि- ॥७३॥ दीप अनुक्रम [८४ ८७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [17] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] चूर्णिः ॥ प्रत वृत्यक [८२ श्रीआचा- संसारदुक्खस्स आयतणं भवति दुक्खाए 'मोहाए'ति मोहणि अकम्मं बड़ेइ, अहवा मोहोऽत्र विसयासतो कजं अकजं वाण याणति. रांग सूत्र-10 जहा सो पिंडारो जोण्हत्तिका मजमपणे पासुत्तउडिओ कुरत्थाए छापामु लिकमाणो गच्छंतो, कहिओ पुच्छिओ य हम्ममाणो दुःखादि २ अध्या | भण्ाति--परदारणिमित्तं वचामि, रमा मारिओ,'माराए ति मारिजा, अहवा अतिप्पसंगा अलहमाणो मरति, मुणिजंति य बहवे ४ उद्देश IN | इच्चियइत्थीओ अलभमाणा अग्गिमाइपविट्ठा, अहबा 'पदमे सोयति वेगे वितिए जाव दसमे मरति' अतो माराए, 'गरपाए'चिमतो IN ।। ७४॥ नरएम उववज्जइ, ततो उच्चट्टित्ता तिरिणमु, नरगतिरिक्ख जोणिएहि अणेगाई भवग्गहणाई अशुपरियदति, सो एवं वाम गतीसु अड माणो 'सततं मूढो' सततं-निरंतरं दंसणचरित्तमोहणेणं कम्मेणं मूढो, इमं जिणदेसियं धम्म नामिजाणतिचि, जओ एवं ते 'उदाहु वीरे' उच्चं उन्नतं वा आहु उदाहु, धीरोजाणतो, ण पमाओ अप्पमादो, कहिं अपमाओ ? 'महामोहें' महामोहो णाम स्त्रीनपुंसगवेदा, इत्थी इस्थिवेदेण उदिण्ोण पुरिसं पत्थयति, एवं इतरेवि, बंभवत्तपुरोहियआहरणं, अहवा जा सा सा सा दिढतो, जहा सा पंचण्ड चोरसयाणं मरुयदारिया भजा जाता, जतो एवं तेण विसयकसायमोहपरिक्खणहा मुहुत्तमविणप्पमाओ 'अलं कुसलस्स पमारणं' अलंसदो निवारणे अढविहभावकसे लुणातीति भावकुसलो, पमादो पंचविहो, किं आलंबणं करेंचा पमाओ ण कायग्बो ?, भण्णति--'संतिमरणं सपेहाए' समणं संति, जमणित-निब्याण, मरणं संसार एव, संती य भरणं च संतिमरणं तं, पेहाए णाम पेक्खणा तं संतिमरणं च पेक्खिता, अलं कुसलस्स पमाएकति वदति, अहवा संती-अव्वाचाहं भवति, मरणो उ संसारो, | अतो संतिमरणं पेहाए, किं च 'भेउरधम्म सपेहाए' मिजाणधम्म सरीरं अणि पेहाए, अलं कुसलस्स पमादेणंति परति,DI अहया वाहीए विवागणं वा मिजतीति भेउरं 'णालं पस्स' तब एते काममोगा भुञ्जमाणावि पजत्ता न भवंति, एवं पस्स त, 0७४ ।। A ८५] दीप अनुक्रम [८४ ८७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [78] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཛིཧཱིལླཱཡྻ अनुक्रम श्रीजाचासंग सूत्र चूर्णि २ अध्य० ४ उद्देशः ।। ७५ ।। “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], निर्युक्ति: [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८२-८५] भणितं च- "नाविस्तृप्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः । नान्तकृत्सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना ॥१॥" अयं ताव अपजता | विसयहनि पास, विसयसमुत्थं दुक्खं ण कोयि वारेति ततो तेण अलं तत्र कामभोगेहिंति वकसेस, अहवा अब्याबाहमुहं अलं तव सुहाएन, अचिन्तय्वमरणम्स कतो सुहं ?, तेणं अब्याबाहमेव तवालं सुहाए, दुक्खं च इत्तरमिति, 'एयं परस भुणी' एतमिति पञ्चकखीकरणं कामभोगीणं दुक्खं महम्भयकरं भणियं च "एत्तो व उण्हतरीया अण्णा का वेयणा गणिती । जं कामवाहिगहिती उज्झति किर चंदकिरणेहिं ॥ १ ॥" हिंसादिसु य आसवदारेहिं कामभोगसनो पचन्ति तेसिं च इहेब महम्भयं पास, तंजड़ा -- पुरिमवहगअलिय चोरियपरदारियाण मारडंडणजिन्भ छेदबंधवहघातातिणि इद्द लोगे परलोगे णरगादिसु उववादं पास, अतो विसहि उवरमा, तेण य दिहूं जो उवरमति, साय अहिंसादी उपरति तासि पसिद्धीए भण्णति - 'णातिवातिज य कंपणं' ण इति प्रतिषेधे अतिवातणं अतिवातो 'कंचणं'ति किंचिदपि तसं थावरं वा एवं मुसावायाताति आसवा भाणियच्या, जो य हिंसाति आसवहारविरतो 'एस बीरे पसंसिते' एस एवेगो वीरो विरायति विदालयति संजमवीरिएणं वीरो पसंसणिओ पसंमितो पढिज य- 'णर्मसिने' गर्ममणिजो णमंसितो-वंदणिओ, कतरो वीरो १, जो मणितो- आसंच छंदं च विगिंच जे पसत्था आलावगा ते सध्ये माणियच्या, अध्पसत्यविवजियो य जाव णातिपातिल कंचणं, एस वीरे पसंसिते, इमो य वीगे पसंसितो- 'जेण णिविज्जति अदाणा' णिग्वेदो णाम अध्यनिंदा, अलब्भमाणा गिविंदति अप्पानं किं मम एताए दुखभलाभाए पाए गहियाए ?, अहवा अण्णे लभंति अहंण लभामि बराओ, अणिव्वेदे ढंढो अणगारो उदाहरणं, ण से देति ण कुप्येजा, तत्थ आलंयणं “बहु परपरे अस्थि, विविहं खाइमसाइमं । ण तत्थ पंडितो कुप्पे, इच्छा दिन परोत्र णो ॥ १॥ अहवा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [79] अतिपातवर्जन ।। ७५ ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८२-८५] प्रत वृत्यक [८२ ८५] श्रीआचा-V में अंतराइयं कम्मं उदिण्णं, एवं लाभालामसमचित्तो थोकं लधु ण खिसए थोत्र-अपज्जत्तं अहवा कती सित्थाई णीणिताई अल्पेऽपि गंग पत्र-10 परिमसिऊणं भणति-सिद्धो ओदणो आणेहि भिकर्ख, अथवा ते घेत्तं हस्थेणं अचणियं काउं भणइ-कया अश्वणिया, आणेहि || नृणिः । २ अध्य AI भिकर्ता, अहवा भणह-लद्धं लोणं, मिक्खं आणेहि, अहवा भणति-घिरत्यु एरिसाए मिक्खाए, एरिस एगया थेरखासेणं एव-10 ५ उद्देश | मादी खिंसा, लद्धे अलद्धे वा पडिसेहिओ परिणमिञ्जा, पडिसेहिओ-अतित्थावितो, तत्थ ण द्वाणं कातुं इच्छा, ण वा दीणविमाणो ॥ ७६॥ भवति, वा रुडतो परिणमति, न वा 'दिट्ठा हि कसेरुमती अणुभूयासि कसेरुमती। पीतं च ते पाणियतं वरि तब णाम न | देसणयं ।।१।। परिजह य-'पडिलामितो परीणमे, णवोवास घेव कुजा' तंजहा-दिणं अहो कयत्वं सुलद्धं चेव माणुस्सगं जम्मजीवितफलं एवमादी ण कुजा 'एतं मोणं समणुवासे' एतंति जं चुदि मुणिमात्रो मोणं, सम्मंति, ण पूषासकारगारवट्ठाए, ण वा णिदाणीवहतं, गणधरादीहि उसितं वसति अणुवसति अणुवासिआसित्तिवेमि ।। एवमापारे, द्वितीयस्य चतुर्थः ।। ____ संबंधो म एव, लोगणिस्सितेणं संजमो कायन्बो, अणंतरसुत्तं तु एतं मोणं समणुवासेन्जा संमति, ण पूयाहेडं, इहवि सम्म | आहारउम्गमो चितिजद, परंपरसुने भिकरवायरियाधिगारो बति-पडिलाभितो परिणमेह, हपि सो चेव मिक्खायरियाहिगारो, IMA पूण जेस रेघणाहिगारो वट्टति तेस पडिलामिजति, ताणि य अस्सिनो विहरति, अणस्सियरूप कतो धम्मसाहगाई ?, माहणअभावे || कतो धम्मो, भणियं च "धम्म चरमाणस्स पंच णिस्सट्ठाणा पण्णता०" (स्थानांग) ताणि तु साहणाणि वत्थपनाहारासणमयणाणाति, नत्थवि सम्वेसि आहारो गरुयतरोत्तिकाउं 'जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहि'जं इति अणुदिहुस्स उद्देसे, विरूपरूवाणि, जं भणिनं-अणेगरूवाणि, तं तु छण्हवि कायाणं किंचि मकायमत्थं, एते काया परोपरसत्याणि पायं भवनि, ण य अग्गि ॥ ७६॥ दीप अनुक्रम [८४ ८७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'लोकनिश्रा' आरब्धः, [80] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [८६ ९५] दीप अनुक्रम [८८ ७] श्रीजाचागंग सूत्र चूर्णि २ अध्य० ५ उद्देशः ।। ७७ ।। “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२] उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६-९५] अंतरेण जागो कीरति, अग्गिसमारंभ य नियमा छक्कायघातो, लोकतीति लोगो, असंजय लोगस्स पागकम्मसमारंभा, ते किमत्थं कीरति ?, अप्पणी से पुत्ताणं, पढिअह य- 'जमिगं विरूत्ररूवेहिं सत्येहिं विरूवरूवाणं अडाए तंजहा- अपणो से अध्यनिमित्तं अप्पणी चैत्र कोइ यागं करेंति, जहा अभणिजिओ अणाहा वरंडा एवमादि, अहवा अप्पणी प्रत्ताणं च साहारणं, एवं धूयाणवि 'णातीणं' ति पुष्वावरसंबंधाणं णीयलगाणं, धीयंति धीयते वा धाइ, रायणंति सामी चारभटाण वा दामाणं दासीणं कम्मगराणं कम्मगरीणंति एतेसिं कंटथं, आदिसति आएसं वा करेति, जं भणितं पाहुणओ 'पुडो पहेणाए 'ति पिडु बित्यारे, अगप्पगारप स्थयणत्थे तंजहा- जामातुगाणं मित्ताणं, ते य एते जहुदिट्ठा पुत्तादि अण्णेसिं च सहजगवासादी पहेणयाई दिअंति, पहेणंति वा उक्तिभति वा एगडा, सामा-रती सामाए असणं सामासणं सामामणत्थं सामासार पाढे असणं पतरासणं पाती असणत्थं पातरासाय, एतेमिं सव्वेसिं पुत्तादीणं, सायं पादो य भ दिखाइ से, किंच एककालिये ?, अतो सामासाए पातरासाए, एतेसिं चेव अप्पातीणं अड्डा सष्णिधिसंचयी कीरति, सनिहाणं सन्निही, तत्थ खीरदधियोदणगंजणादीणि विणासिदव्वाई समिहि, तेलगुणाईणि अविणासियदव्वाणि संचयो, घणघण्णवत्थाईणि य, संजयणं संजमो, 'इहं'ति मणुस्लोगे 'एगेसिव' तिण सव्वेसिं, केपि तदिवसनिषद्धमित्तसंतुट्टा भवंति 'समुट्टिते अणगारे 'ति संमं संगतं वा संजम उत्थाषेण उडतो समुट्ठितो, अणगारो भणितो, आयरंति आयरिजते वा आयरिए खिनायरियादि, इह तु विरतेण चरितारिएण अहीगारो, आयरिया पण्णा जस्म स भवति आपरियपण्णो, आयरिया दिट्ठी जस्स स भवति आयरियदिड्डी, 'अयं संधि'ति अयमिति प्रत्यक्षीकरणे संघाणं संधि, जं भणितं - मिकखाकालो, अकालचारिस्स दोसा भाणियच्या, उस्मम्गेण ततियपोरुसीए, अववातेण जाव सूरो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः [81] यागादि ॥ ७७ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] श्रीआचा- गंग सूत्र चूमिः २ अध्या ५ उद्देश ॥७८ ॥ प्रत वृत्यक [८६ धरति, अहवा नाणदंसणचरित्चाई भावसंधी ताई लमित्ता से ण आतिए ण आतियावए' अणेसणिजं णातिए णातियावए णण्यं-ण अण्णमणुमोदए, अहवा णातिए णातियावइत्ति परकडपरणिद्वितंसि सईगालं सधूमं च विलमिव पण्णगभूतेणं सई (सयं) | न आतिए आझ्यावए, सो एवं पिंडसंधिवियाणओ अणेसणिजविवजओ'सब्वामगंधं परिणाय' अहवा कयरो सो संधी जो अणेसणिों णाइयति णातियावयतेत्ति, तं पुण अणेसणिझं 'सयामगंध परिण्णाय' सभात्रा ण अधिवरीतं आम, दम्वे भावे य चउमंगो, दग्वामं आमं दचं, भावामं उग्गमदोसो, अहवा आमग्गहणा उग्गाकोडी गंधग्रहणा विसोधिकोडी गहिता, एवं दुविहपरिणाए परिणाय 'निरामगंधो परिव्वए' ण तस्स आमं गंधो वा विजती निरागमगंधो, सनतो वए परिवए, सो एवं निरामगंधो परिव्ययंतो 'अदिस्समाणो न दिस्समाणो अदिस्समाणो 'कयविक्कयहिं किणणं को विकीणणं विक्कयो नकिणाति विकिणाति वा सो, कयविकये न दिस्सति, कीतकडग्गहणा सेसावि उग्गमदोसा गहिता, उग्गमदोसग्गहणा उप्पायणादोसा एसणादोसा य मुयिया, अहवा ण किणे ण किणावए किणतं गाणुमोदए, तिमि विसोहीकोडीओ गहियाओ,ण हणेइ ण |हणावए हणंतं गाणुमोदए तिष्णिा आमकोडीओ गहियाओ, ण पये ण पयावए पयंत नाणुमोदए तिणि गंधकोडीओ गहियाओ, अविसोधिकोडीओबि बुचंति, एवं गवकोडीपरिसुद्धं विगईगालं विगतधूम, एवमादि पिंडदोसे परिहरतो पिंडणिमिचं वा अडतो 'से कालण्णे बलण्णे' कालं जाणइ सुभिक्खदुभिक्ख दिवसपमाणं रत्तिपमाणं, कालं वा जं वा जत्थ काले कापथ्यं, जो वा जत्थ | मिक्खाकालो, काले चरंतस्स उअमो सफलो भवति, अकाले विफल, 'बलण्णोति अपपरकतं चलं जाणति, ताव अडति जाव सक्केति पडिनियत्तो भोत्तुं, अतिपरिस्संतो तं न तरति भो, जो पूण सति बले काले लामे य णियचति सो कि अण्णेसिं दाहिति?, Lal॥ ७८॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [82] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] रांग पत्र चूर्णिः २ अध्य० उद्देशः प्रत वृत्यक ।। ७९॥ || मत्तं जाणाति मातण्णो अपणो जस्स वा दायब उभयस्स वा 'अद्धमपणस्स.' एतं साधारणे काले जाव जहि काल मत्ता, अहवा. पत्थु वर\ आसज्ज मत्ता भवति, विसं जाणति सित्तष्णो, मिक्खायरियाकुसलो, जेसु वा खेनेसु पडिमाए कप्पेण वा हिंडिजति दूरं वा पविसज्जति ण दूर, एवमादी खितं जाणति खिनष्णो, खणण्णो णाम नियावारत्ता ण रुचति वीमति कहेति वाजेण अणेसणा भवति, अण्णेण वा कोउएण आगमणेण वा वाउला, विणयण्णो णाम देवतगुरुसमीवे वा जहा तहा परगिहंण पविसइ, भणियं च-'दवदवस ण चरेज्जा, ण य अतिभूमि गच्छेज्जा, ण दीणो णा गवितो; ण इंदियाणि आलोएज्जा, ण गुज्झथाणाई आभर-|| णादीणि य चिरं निरिक्खए, ण मिहुकहासु उवधारणं देज्जा', एवमादि विणवणे, आतपरउभयसमए जो मुणइ स समयष्णो, असणादोसा, पुच्छिओ, को एत्थ दोसो, सुई उत्तरं देहिति, किं च 'समणुण्णा परिसंकी' अविय परिसगं गिहीण वारेता || गिण्हंति असढभावा सुविसुदं एसियं समणा, भावण्णे ति देतस्स पियमप्पिय भावं जागइ भावष्णो, अहवा अभोज्जे गमणातिया 'परिग्गहं अमामीणे ति परिग्गहो णाम अतिरित संजमोधकरणातो जे भंडयं, भणितं च-जं जुज्जति उगारे उबगरणं | तंसि होति उबगरण' इह तु आहाराधिकारे वट्टमाणे जत्तिय अणेसणिज्जं किंचि दब्वं तं संजमस्स उपघातोत्तिकाउं जिणेहिं पडिकुटुं भवतित्ति, एसणिज्जपि अतिमचाए ण पित्तव्यं, मत्ताजुत्तपि ण एतं मम गुरुमाईणं ण एतं, 'कालेऽणुहाए' सति य| उहाणकम्मबलवीरियपुरिसगारपरकमे, आह-जति उहाणवलाण एगट्ठा तं तेण बलग्रहणा उढाणग्रहणा य पुणरु एसणिज्जंति, भण्णति-अचिवरीयकारणा ण पुणरुतं, तत्थ नाणं इई करणं, कालो बलं खि अग्विवरीयं आयरियन्वं तेण ण पुणरु, 'अपडिपणो' णाम अहं एगो उवभुजेहामि अण्णेवि एतं गुरुमादी भोकरवंति पाइंति वा, एयाए परिष्णाए मिण्डइ, ण आयवडियाए, ९५] दीप अनुक्रम ॥७९ ।। [83] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७..., [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] रांग सूत्र प्रत वृत्यक श्रीआचा- तेण अपडिण्णो, अहया अपडिण्णायेसु कुलेसु गिण्इ, ग य एतं परिणं करिता गच्छति जहा अमुगकुलाणि गन्छीहामि सो एपणाध्ययअपडिण्णो, जो विकरणो एगागी सोऽवि नाणादीणं अट्ठाए गेहति, 'अयं पिंडसंघी'ति आढवित्ता जाव 'कालेऽणुहाए अपडिष्यो। नोद्धारादि चूर्णिः एतेसि एगाहियारिएहिं सुत्तेहिं एकारस पिंडेसणाओ णिज्जूदाओ। 'दुहओ चित्ता' रागं दोसं च अणेसणिजं रागद्दोसेहिं पिप्पड़ २ अध्य० ५ उमेश अँजति या नेण ते दोऽवि छिच्चा-बोडिता छित्तुं, णियतं जाति णियाति, अहवा दुहतो छेत्ता भोयणे सइंगालं सधूमं उग्गमकोडि-IN ॥८॥ |विसोधिकोडिदोसे० य, वत्थरगहणेणं खोमिया गहिया, पडिग्गहग्गहणेण सवाई पाताई सूयिताई, कंबलग्गहणेणं उणियाणि मूयिताई, पाउरणअत्थुरणपत्नणिजोगो पादेसु, पायपोंछणग्गहणेणं रयहरणं, एवमोहिओ अवगहिओ य सब्बो मूयितो भवति, एत्तो । वत्थेमणपाणेसणाओ निज्जूदाओ, अवगिज्झतीति उम्गहो पंचविहो, तंजहा-देविंदोग्गहो राउग्गहो गाहावइ० सागारिय० साहम्मिय एत्य सम्बाओ उग्गहपडिमाओ गहियाओ, एतो चेव निज्जूढाओ, उग्गहकप्पओ एत्थ चेव सुत्ते कीरति, कडासणं सहायि आसणाणि, जं भणितं भत्तट्ठाए, अहवा कडग्गहणा संथारगा गहिता, ते ततिए सिजाउद्देसए वणिजंति, आसणगाइणा सेजा सूयिता, एत्तो सुत्ता सेक्षा णिज्जदा, एतेसि सम्बेसि बत्थपादाणं सवामगंधं परिणाय अदिस्समाणो कयविक्कएहिं से ण किणे ण किणावए किर्णतं नाणुजाणए तिविहेण जोगतिय से कालण्णे एवं सम्बोगरणाणवि जं जत्थ संभवति तं तहा भाणियब्वं, एयाणि पुण आहारादीणि केसु जाएजा?, भण्णति-'एतेसु चेव जाएजा' 'एते' इति जे ते पुचं भणिता जमिणं विरूवरूवेहि तंजहा अप्पणो से पुत्ताण एवमादि, एतेसु सिजाआहाराति आयट्ठाए णिट्ठियाणि जाएजा-मग्गिा , जाएना लद्धा णिरामगं-| |धाणि उवजीविजा, सो एवं जायमाणो जता लभे तदा लद्धे अणगारो पुषभणितो मात्रा-परिमाणं जहाण पच्छाकम्मं करेति दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [84] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [9], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] एषणाध्यय प्रत वृत्यक [८६ श्रीभाचा || जहा वाण परिहावाणिया भवति तं च मायं जणिज्जा 'से जहेतं भगवया' 'सेनि निद्देसे जहेब एयं-आहारे मत्तापमाणं गंग सूत्र | मणियं भगवया बद्धमाणेणं नहब इमपि जाणित्ता आयरियव्वं, अहवा से जहेतं आहारमत्तापरिमाणं एवं वत्थे पत्ते उग्गहे चूर्णिः | सेज्जासंथारगेसु य सम्बन्थ आणियवं, पोव अतिरित्तउबहिणा भवियन, ण वा अतिरित्तसिज्जासणिएणं, अहवा जं भणितं २ अध्या ५ उद्देशः जं च भणिदिति तं तहेब आयरियन्वं, एवं भगवया पवेदितं, लाभोत्तिण मज्जेज्जेति लाभे सति मदो न कायम्बो, जहा अहं | लभामि, सेसा ण लभंति, 'अलाभे व ण सोपजा' अहं मंद मग्गो न लभामि, मणियं च-"लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एवं न लभ्यते । अलन्धे तपसो वृद्धिलब्धे देहस्य धारणा ॥१॥ 'बहुं लधु ण णिहे' अपिपदत्य रहुंपि णिद्धं पणीतं वा भुतसेसं या मिहे, किं पुण अप्पं ?, णिहेत्ति रति परिवसावेतीति, पगास अप्पगासं बा, एयाणि आहारादीणि उपायंतो परिग्गहा। | ओसकेज, अवसणं अपवत्तणं, अहं एतं आहारं वत्थं सयं परिभुजीहामि, ण अण्णस्स दाहामि, एताओ सयंगाहपरिग्गडामो अप्पाणं ओसके, आयरियसंतियं एतं, अणेसणिजंच बजेति, मुलं वाण करेति, एवं ओसक्कियं भवति, अतिपस लस्वर्ण बहुर्यपि लधु ण णिहे, परिग्गहतो अप्पाणं ओमकेज्जा, जं वस्थपत्तादीणिवि तहेव भणिहिति, तेण भण्णा-'अण्णहा' अण्णापगारणं अण्णहा, वत्थपत्तादीणि अप्पाणि दब्वाणि ण णिहेयव्वाई, किंतु बहणि मणिहेयव्याई ?, अहवा 'अण्णहा पासे ति | एयं धम्मोवगरण, ण तेण विणा सकेति धम्मो णिफाइयित्तं, तेण ण ताई परिहारयति, अहवा जहा परत्था परिग्गहबुद्धिए ण तहा | मएवि, किंतु !, मम एतं आयरियसंतगं धम्मोवगरणं, जहा अस्सस्स अण्णां भंड, अहया समुदे ण विणा तरणेण तरिजति, पढिजइ MOय-'अण्णतरेण पासापण परिहरिजा' इमं अण्णं इमं च अनं अन्नतरं, पासागं णाम णीसरणोवातो, तंजहा-ण मम एतं, दीप अनुक्रम [८८ ९७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [85] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] प्रत वृत्यक ९५] श्रीचा || आयरियसंचगं, गिहामि परिझंजामि वा, कोयि परित्ता अद्धाणणिगता वा एहिति तेसि दाहामि, नाणादिअड्डाए बा परिसुति, | मग्यादि रांग सूत्र |ण दप्पट्ठा, जिणकप्पियादीवि नाणादिनिमित्तं परिभुजंति, परिहारो दुबिहो-धारणापरिहारो य उवभोगपरिहारो य, दुविहेणवि चूर्णिः २ अध्या | जहाकालं जहादेसं च परिहरिजा 'एस मग्गे' एस पञ्चक्खीकरणे, नाणादिमग्गो तस्संधणहेउं पिंडउवगरणसेजआउवाहिसंघाया ५ उद्देशः | नाणादी य 'आयरिएहिं पवेदितं' णिचं अप्पणिज्जे गुरुसु य बहुवयणं, बद्धमाणसामिणा सब्यतित्थगरेहिं या पवेदितो, साधु ॥८२॥ आदितो या वेदितो प्रवेदितो, जसेच्छया आसत्तिमता वा, जहा बोडिएण धम्मकुचगकडसागरादि सेच्छया गहिता तहाणवि, जह | वा सातिमोग्गल्लेहि बुद्धवयीकरिचा पगासितं तहा णचि, अतो सत्थगोरखकारणा आयरियम्गहणं, अतो तंमि आयरियपवेदिते | मग्गे 'जहित्य कुसलो' जेणप्पगारेण जह, कुसलो भणितो, तं कुरु तं वा चिट्ठ जहित्य कुसले, आमलेवेण वा गंधलेवेण वा | | आहारउवगरणसिआसंथारगादि उप्पार्यतो अतिरिचोवहिलेवेण वा परिकम्मणअविहिपरिहरणमुच्छालेवेण वा 'ण लिंपिञ्जासि'ति, एवं अहं बेमि, ण वा सयं उलूगादिव, जह परोपदेसातो, परिग्गहातो अप्पाणं (पि) कजति पुतं, परिग्गहस्स य मूलं पंच कामगुणा, तेण 'पुतं कामा दुरतिमा' दुविहा कामा-इच्छाकामा मयणकामा य, इच्छा अपसत्था हिरण्णाति, मदणकामा सद्दादि, दुक्खं अतिकमिअंति दुरतिकमा, अहवा कामगुणमुच्छितो लोए, लोयं चेव णिस्साए धर्म चरमाणेणं कामा दुरतिकमा, Pा भणियं च-"अणुसोतपट्टिते" बहुजणमि बहुपावए इंदियाई अणुसोतवाहीणि, तेसि पडिसोतं दुक्खं गंतु, अतो कामा दुरतिकमा, ण पडिसककरणा, दुक्खं पडिवूहितं जीवितं अतो अप्पडिवूहगं, तं तु भवग्गहणजीनितं, तं छिण्णं छिण्णं ण सकई वत्वं al॥८२॥ |व लिप्पगं व जह संधेतुं, भणितं च-"असंखयं जीविय मा पमायए०" किं च-"जहीहि विषयान सौम्य , त्वरितं यान्ति | दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [86] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [८६ ९५] दीप अनुक्रम [८८ ९७] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णि २ अध्य० ५ उद्देशः ॥ ८३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२] उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६-९५] रात्रयः । गवाश्वो (अ)न निवर्त्तते वह्निज्वाला इवाम्बरम् ॥१॥" अथवा संजम जीवितं दुष्पडिवूहगं कामगुणमज्झमणस्सितेण, कामगुणमुच्छितो लोए बंभवतमणुचरितुं कामगुणरसण्णुणा दुक्खं, बालुवाकालो वा णिरस्याओं हु संजमो एवमादि, अतो दुष्पडि बृहगं, जं भणितं दुकरं, सो उ कामेहिं अमिणिविदुचित्ती पुरिसो तस्स अवाया- 'कामकामी खलु अयं पुरिसे' कामा पुत्रभणिता, कामे कामयति कामकामी, सव्यं सव्वष्णुस्स पचति, अतो अयं पुरिसो 'से सोयती'ति ओहतमणसं कप्पत्ति 'जूरति 'ति इच्छित अत्थ अलामेण तवियोगेण वा, सरीरेण जूरति 'तप्पति'ति कायवायमणोहिं तिहिवि तप्पति, बहिं अंतो य तप्पति परितप्पति, जता य तेसिं कामाणं इहमेव दोसा तेण कामे चइता उभयलोग अवायदंसी आयतं दिग्धं पश्यती, दिग्वेण नाणचक्खुणा जं भणितं बहुयावाए कामे ण आसेवति, दिडूंतो खुट्टओ 'सुट्ट्ट गाइतं०' सो आययचक्खू निव्वाणसुहं देवलोगं वा पाविहिति 'लोगस्स विप्पस्सि 'त्ति लोगं विसयासचं विविधेहि आगारेहिं आयतचक्खू किस्प्रमाणं पायति, अत्थोचवणे कामाणं च अलं भे किस्समाणं, अडवा लोयविपस्सी लोयस्स जाणति अहेभावं, जेहिं कम्मेहिं अहे गम्मद, जाणि य अहे दुकबाई एवमादि, लोयस्म अहंभावं तिरियं उच 'गठित अणुपरियहमाणे ति गढिते कामलोगेसु मुच्छिते गिद्धे अज्झोचवण्णे कामसमुत्थेहि वा कम्मे हिं गढिते, जं भणितं तेहिं अणुगतो सबओ परियमाणे अणुपरिमाणे जीवे परसादि 'संविं विदित्ता इद मच्चिएहिं 'ति संघाणं संधी, दव्वे वतिकुडादीणं, भावे कम्मछिद्रं, नागादीण वा, विमाणे 'इहे' ति इह मणुस्से नागादि संधि भवति, ण अण्णत्थ, मरंतीति मचिया, एतेसिं संधि णचा यो विसयकपाये तो पंचविहे आवारे परकमति 'एस धीरे पसंसिते' संजमवीरिएण वीरो, पसंसणिजो भवति, मूरेति वा वीरेति वा सविएत्ति वा एगट्टा, किं करेति जेण वीरो १, भण्णती जे 'बद्धे पलिमोयए' मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [87] दुष्प्रतिब्यूहता ॥ ८३ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [८६ ९५] दीप अनुक्रम [cc ९७] श्रीआचा रोग सूत्र चूणिः २ अध्य० ५ उद्देशः ॥ ८४ ॥ "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२] उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६- ९५] दव्वबंधी पुत्रकलत्रमित्र हिरण्णादीणि भावे विसयकसायादी, जो एएणं बंधेण अप्पाणं मोएना परा मोएति, एस वीरे पसंसिते जे बद्धे पडीमोयए, गवि जे असंजमवीरियमंते, कई अप्पाणं परं कामेहिं मोयति १, भण्णति — सरीरे बेरग्गदरिसणेणं, तत्थ इमं निव्वेदसुतं 'जहा अंतो तहा वाहिं, जहा बातिहा अंतो' अंतो मुकसोणितमयं चार्डिपि तद्देव, अहवा अभितरं से कुप्पमं जो उब्वसितुं बाहिरं कुआ, जावि य से बाहिरा च्छाया सुयी दीपति सावि असुयीभवति, सोवणघडो वा अमिज्झपुण्णो, अबि सो णिपरिसचचा सुयी घडो, ण तु सव्वस्सोयपरिस्सर्वतं सरीरमिति, महियघडेण अमिज्झभरिएण अवि णो तुल्यं शरीरगं, अहवा जहा कुट्टिम्स अंतो मुत्तपुरिसखेलसिंघाण गपित्त सोणिय किमि अंतउदरवासित्ता असुयिं भवति, बाहिंपि पगलंतकुडावेदितसरीरगस्म पुरिसस्स वपु रसियगमोणितादिएहिं असुतरं तं गंधेण अणुमरिन्तेहि मक्खिया सहस्सेहिं अणुगत मग्गस्स अप्पावि उव्जियति किमु परो जणो ?, मतगसरीरं वा कुधितं, जहा अंतो तहा चाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, जीवंतस्स पूतिसभावं सरीरं गृहाणगंधआदीहिं वण्णभावणेहिं अच्चत्थं सुयी भवति, अंतो अंतो पूतिदेहंतराई, अंतो अंतोचि वीप्सा, जहा जहा अंतो तहा तहा, बाहिं पूतितरं, जहां तयसोणितमेद अड्डि मिंजसुकमिति, तं जहा अंतो तहा असुरतरं सव्वमन्तरं सुकं असुइतरं, तं च सरीरस्स उप्पत्ति, अतो को सुविवादो कामिणं ? का व कामासा ? अहवा तयमंसमोणितजठर अंतमुतपुरिसाणि अंतो अंतो, पुत्तिदेहंतराणि पासिय त्रिरतो, कई ?, अदिमवि द्रष्टव्यं जहा अंतो तहा चाहिँ, भण्णति 'पुढो बीसवंताह' पिहू बित्थारे, दो सोता दो ना दोघाणा जीहा आमए पाउए, सम्परोमकृबेहि य, सच्चाई एयाई मिस विविहेदि वा पगारेहिं, पत्तेयं पत्तेयं कण्णमलसिंघाणमलखेलवंत पिचक उच्चार किमिसोयादि अनंतु, आगंतुतेहि वा वातस्वतपमुहिं पूयरसियमोणित० किमिए य पुणो २ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [88] परिमोचनादि ॥ ८४ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] भीत्राचागंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य ५ उद्देशः ।। ८५॥ प्रत वृत्यक [८६ श्रवन्ति, पुढो बीसवंताई, एत्थ मल्लहत्थविजदिद्वैतो-एस्थ किर अगाहमयगं दम्मेहिं वेढिना पाणिए सत्तदिवसे कृथिएण सणियं || पंडितप्रमणिय सणियं कुथितमंसं फोडेऊण दरिसिञ्जइ, मो य तं पेक्खए, जहा अंतो तहा बाहि, एवं गाउं सरीरे जोवणस्वसंपण्यो ण लिखेनादि राग कुजा, ण वा इत्थिसरीराई असुइयाई कामए, सो एवं 'पंडित पडिलेहाए' पावा पंका का डीणो पंडितो, 'पडिलेहाए नि । | सरीरं असारं असुहं कामभोगे विवागं च से मतिमं परिपणाए'चि मती से अत्थी जेण तेण मइम, दुविहाए परिणाए परिण्णाय, किं काय ?, भण्णति-'मा य हु लालं पञ्चासी अमाणो पडिसेहेच पूरणे, ललतीति लाला, दयलाला णिलृहंतस्स भवति, भावलाला भोगभिलासो, पुणो आसती पञ्चासी-ण कामभोगे वमित्ता पुणो आतिए, 'दबलालावि ताव गरहिता पुणो पिञ्जमाणा, किं पुण भावलाला?, किंच-'मा तिरिच्छमप्पाणमावातए' णिवाणसोत्ताणि नाणादीणि सिंण तिरिचमप्पाणं आवायर, पञ्चत्थं पातये आवायए, जं भणितं नाणादीणं अणुसोतं अप्पाशं आवायए, संसारसोयाणि अण्णाणं मिच्छन अविरई य, । ताई पडिकूलेणं तिरिच्छेण वा उत्तरियमाई, एवमप्पमनेण जइबध्वं, पमतो इंहेब संतिं लभति, तंजहा-'कामं कामे म्बल | अयं पुरिसे' इम अज करेमि इमं हिओ काहामि, अहवा इमं पुच्वं इमं पच्छा, भणियं च-"इमं तावत्करोम्यय, यः करिष्यामि | HAIवा परम । चितयन कार्यकार्याणि, प्रेत्यार्थ नावबुद्ध्यते ॥१॥" एत्थ दधिधडियावोइदिद्रुतो भाणियच्यो, को सो?-यह-IN मादी' तत्थ कसायादिपमतो, तत्थ माया गहिता, मावि लोभनिमित्त क्रियते अतो लोभोवि गहितो भवति, बहुगी माया जस्स स भवति बहुमायी, कजमाणं कर्ड तेण कडेग मदो-आउलीभूतो, भपि ण भुजति, भणियं च-"सोउं सोवणकाले काया बञ्चति मत्थो" गाहा, लोभामिभूतो ण जाणाती-"किं मे कियं किं च मे किच्चसेस, किं मे विणहूँ व हरे व दव्यं । दातब्बलद्धं च ८५ ॥ ९५] दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [89] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि २ अध्य० ५ उद्देशः ॥८६॥ प्रत वृत्यक [८६ ९५] | विचितणेण, तेसि ण संदेहमवेति मंदे ॥१॥" अहवा पुवकरण कम्मेण मूढोकतंकित-किचकिचं ण याणती बहुकतनपा, ता ||हताकवादि मम्मवणिओ दिढतो, एवं बहुमाणी बहुकोही, से एवं कामकामीभूते बहुमायी कथाकयमूढो 'पुणो तं करेति' पुणो विसेसणे, 1001 किं विसेसेति !, एवं ताव स पुच्चकयेण कम्मेण मृढो कम्मफलं वेदेतो पुणो आसंसयाए मायावी 'लोभं करेति नगरादिभवा | लोमं करेंति-णिवत्तेइ, 'वेरं बड़तीति' अमिमाणपुब्बगो अमरिसो धेरै तधिसयकसायषसगो हिंसादिपवचो अगंतसंसारियम बढेति, भणियं च-“दुःखातः सेवते कामान् , सेवितास्ते च दुःखदाः । यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः ॥१॥" 'जमिणं गरिहि जति' जदीति अशुद्दिट्ठस्स गहणं, भण्णति-कतरस्म अणुद्दिदुस्स', कामकमस्स बहुमायिणो मूहस्स 'इमस्स चेव पडिवूहणाए ति इमस्स अस्सेव सरीरगस्म पडिहणताए हिंसादिसु पबचति किस्सते य, भणियं च लोगेऽषि-"शिश्नोदरकते पार्थ!, पृथिवीं जेतुमिच्छसि । जय शिश्नोरं पार्थ , ततस्ते पृथिवी जिना ॥१॥" अइवा इमस्स चेव परिवहणताए, कामकमे बहुमायी पुणो तं करेति एतपि एपस्स चेच पडिवूहणयाए, अहवाजे इमे मायाइ या पमाया पुणो पुगो अहिजते एतेवि एयस्स चेव जीवियस्स, इमस्सत्ति-इमस पंचविहायारस्स बंभचेरस वा समंता दूधणा परिवूधणा, कह णाम एयरस पुणो पुणो कहिज्जमाणेमु पमायदोसेसु अप्पमाया गुणेसु य पवासियपुतअप्पाइणियादिद्रुतेण संजमे परिविंधणा भविजा, इमं अन्नं संजमपरिविंधणामेव पमायदोसकहणं-'अमराइ महासड़ी' ण मरति अमरो अणमरो भवित्ता अमर इब अप्पाणं मण्णत भोगा-1 सया अत्यउवज्जणपरो, तत्थ उदाहरणं केई भगंति-ायगिहे गगरे मगरसेगा, कस्सइ सस्थवाहस्स अभिगवागतस्स अमिसारिया णिग्गया, सा य तेणऽलेबगहत्वगएणं आयचा, सोतेण तेण सर्व रति अगाढाइता समाणी पभाते निग्गया, अद्धीतीए दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [90] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [५], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८६-९५] माणः प्रत वृत्यक ९५] HEL अतिजागरितण य दुम्मणा, अंजलिकारिगा गता समाणी जरासंधेण पुच्छिया-काए अद्धिती दुक्खं वा ? केणय वसि अज व सद्धि । | अमरायरांग सूत्र- IN पामुत्तत्ति ?, तीए भण्णति-अमरेण सद्धि, कहि सो ?, सत्थनिवेसे, पुरिसेहिं गवेसाविओ, तहेव आयब्वयं करेइ, पच्छा ताएं चूर्णिः | PA सम्भावो कहितो, अहवा पज्जोयकालसंदीव उत्तरकुरुगमणं महिलापेच्छणं महिलाय पायपडिवजगं अंगारवती देवी पुब्बपडि२ अध्य ५ उद्देशः यरिख आगंतुं पसस्थाहगमणं, आयच्चयसोहणं, वितियदिवसे तुमंतुमी, पजोतपुच्छणं, कोहेण वणियवादणं पुच्छगं च स्यणचो॥ ८७॥ रियउनि सुकभंजणावायचिंतणं ऊरणियागलगांधणं पवेसगं विसजगं सोउं इत्वी वा कामगोतं विविता विसं भसुहोवगतं रोय एति, चिरं तओषि ण इच्छितो, महती सद्धा जस्स अथका मेसु स भवति महासड़ी 'अहमेतं उपेहाए अट्टो णाम अझन्झाणोवगतो रागदोसट्टितो वा तमेवं उहाए, पेच्छाहि ताव इहेब दुक्खी, किंनु परलोगे?, अहया एवं णचा महासड़ी इहेब दुक्खं तं | | अट्ठज्झाणं, पुवावरे उवेहा, सो एवं अट्टो 'अपरिपणाए कंपति' दुषिहाएवि परिणाए अपरिग्यायपरिग्गहे अप्पचे कंखार णढे सोएणाकंदति सोयति तिप्पति से एकमायाणह से इति णिदेसे में इम कहितं अञ्चत्यं जागद आयाणह णचा सद्दहित्ता Nय पमाय जहुद्दिढ बजेतुं अप्पमाय आयरतो, अहवा इमं आयाणह 'ज बेमि तेइ पंडितो पवत्तमाणो' चिगिच्छापंडितो विओ, मिसं वतमाणो पवयमाणो, ते वा जाइए तिगिच्छिए पंडिए पवत्तमाणे बहुजीचे 'हंना' हता, भूतसंहितं गाहते वा, गहित्ता Wणंति, मिचा पुढविकार्य चालाणि वा छित्ता वगस्सतिं मियपुछमाइ वा लुपिता अणेगविई, उद्दवइत्ता मारेत्ता तिचिराति रस गणिमित्त हि ते जहुद्दिडा वा गेण्डित्ता हुणंति, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे' अकतं आरोग्गं अस्सणिहिअस्स तिगिछपहि |वा, अहवा अकत पुब्बो एम जोगो अण्योति य पयोगो वा जेण लडीकरेमिहि, अहया कयम्स कागं गत्यि अण्णेग, सो संयोगो, | IAll८७॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [91] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [८६ ९५] दीप अनुक्रम [cc ९७ ] श्रीजाचारोग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ६ उद्देशः ॥ ८८ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२] उद्देशक [५], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ८६-९५] जं भणितं कम्मबंधो, किं पुण जो सो हंता छिता पिता उदवयित्ता तिगिच्छं करेति सो जहा तिमिच्छो, आतुरो वा हंता छिता परमंसेण अप्पार्ण पोसेति 'ण हु एवं अणगारस्स जायति' ण पडिसेहे, हु पादपूरणे, पंचविहआयारजुत्तस्स तत्थ| द्वितस्स निप्पडिकम्मशरीरस्स जायति मे कप्पति, साविक्खस्स तु विसुअलचणस्स फायरडोयारेण जयणाए जाए तिमिच्छा या सीसा करेउ वा कारवेड वा कीरंतं वा समणुमणितुं गच्छणिस्थितस्य जायति, अहवा सद्धम्ममायाणह जमहं च बेमि ते, तिगि च्छे पंडिते तिमिच्छापंडितो, तिमिच्छापंडिओ णाम कम्मवाहितिमिच्छाकुसलो, ण अरिसादिवाहिकुमलो घेप्पति, सो फासूयएण | पडोयारं करेति गच्छवासी, इतरो ण करेति चैव साहू, आदितो वा वट्टमाणो पत्रतमाणो. अण्णे पुण कृतिस्थिया सकाति वयमवि कम्मवाहितिगिच्छापंडिता इति पवयमाणा, तंजहा अणगारवादिणी पुढविमादीहिंसगा ते गिलाणकुट्टिमाईओ उद्दिसिता बहुजीवे हंता छेत्ता भित्ता, सेसं तहेब आचारे प्रथमाने लोगविजयणामायणे उद्देसओ पंचमो समत्तो ॥ णमो सुयदेबयाए, उद्देसत्थाधिगारो लोए असजनादी पंचमे भणितं परिग्गहाओ अप्पाणं ओसकर, इह वा अममीकारए विसयकसायएसु असंजमे वा पमाए वा सुत्तस्म सुतेण सह भणितं पंचमस्स अवसाणसुतेण 'ण हु एवं अणगारस्स जायति जहा अण्णेऽत्थ पंडिता तिमिच्छआतुरा बहुजीवे हंता छित्ता तिमिच्छं करेंति कारयति तां ण एवं अणगारे' इवेतं जहा भणितं 'सेतं संयुज् माणो' 'से'ति णिसे सम्मं बुज्झमाणो, किमिति १, जं भणितं तिमिच्छापगतं लोगविजयअज्झयणे वा चेयणाचेणयओसहेण, दबे वा सम्मं जहा मच्छस्स उदए फलिते अंबे कोतिलाए आसणे सयणे वा भावसम्म पत्थं उदहयादीणं भावाणं अविरोधो, जहा सुभगसुरूवासुजुति अहवा सुभगणामस्स य उच्चगोयस्म य, पत्थनाणादीणं जतिया खाइया भात्रा तेसिं सव्वेसिं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीय अध्ययने षष्ठ उद्देशक: 'अममत्व' आरब्धः, [92] अमराय माणः ॥ ८८ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] चूर्णिः प्रत वृत्यक [९६१०४ श्रीशाचा-1|| सम्मं, एवं उपसमियाणं जाव सम्मं मोहणिअं उत्सम, एवं खओवसमियाणपि, जहा नाणचउकस्म य, खओवसमियस्स चरि-IDI बोधादि रांग सूत्र- तस्स, एवमादि सम्म चुज्झमाणो, बोहो चउबिहो, णामबोहो ठवणबोहो दब्धयोहो भावबोहो, णामठवणाओ गयाओ, दब-11 | बोहो जं चेयणातिदव्वे बोहो सो दव्वबोहो, जहाविसयं धारिओ, अगतेण नासाए पक्खितेण, भावे अप्पसस्थे तिमि तिसट्ठाई | २ अध्य. ६ उद्देशः पवातिसयाई अप्पसत्थभावबुज्झमाणाई, अपरिग्गाहिता ण किंचिदवि, बुझंति तहावि मिच्छादिट्ठी, पसत्थे नाणादि बुज्झमाणे 11८९॥ 'आताणीतं समुट्ठाता' दवायाणीयं जो जं दवं सचिचादि गिम्हति सो दब्याताणीउ, जंभणितं-दब्धपयोयणा, अप्पसत्थA भावाताणट्ठीया गिहत्था विसयकसायपयोयणा, अन्नउत्थियाण विस्सुता ते अट्ठिया, पमत्थभावादाणडीओ अट्ठविहकम्मनिअरट्ठीओ, संमं उस्थाणं समुत्थाणं, दवो जं दव्वं उचिट्ठति तं दब्बसमुट्ठाणं, तंजहा-विसमविजलासु पडिओ पडणभएण वा वल्लिं लता 2. वा अवलंब उत्तिट्ठति तं दध्वसमुत्थाणं, भावे अप्पमत्थो तिण्डं तिसट्ठाणं पाबाउपसयाणं अप्पणप्पएण उट्ठाणं, अहवा विसयकमा योट्ठाणं, पसत्यभावोहाणं णाणादी, पसन्थेण अद्दीगारो, तेण उत्थाय 'तम्हा पावं कम्म' तम्हा इति तम्हा कारणा संबुझमाणो आताणीयं समुट्ठाए पार्व-हिंसादि जाव मिच्छादसणसल्लं तं सतंण कुआ णो अण्णेहिं कारवे करतऽपण्णं णाणुमोदए, अणुमोदणा अकरणाकारणेण गहिता, णत्रए णक भेदेण, तंच पार्व-हिंसादि छसु काएसु, सुत्ने संबंधो भाणियब्यो, नाणादितिय च उतारेयवं, ते य अवाया नाणादिसहितस्स ण भवंति, रागादिसहितस्स हिंसादिषवत्तस्स भवंति, अवाया किं, एगकार्य आरममाणस्स तदारंभे सेसारंभोऽवि, एगतरं आसवपचस्स किं एगो भवति सम्वेऽवि !, भण्णति-'सिया से एगतरं विप्परामुसति' सिया-कयाई से इति असंजतस्म निदेसो पमत्तसंजमोवा, एगमवि ढविकायं किमु मध्यकाए?, विविध परामुमति हत्थ- 1८९॥ दीप अनुक्रम [९८ १०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [93] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ६ उद्देशः ॥९ ॥ प्रत वृत्यक पादकट्ठकलिंचभंगुलिसलागादीहिं समस्तं वणं, जं भणितं-चालणं, किच्छपापकरणं परितावणं, पाणचवरोवणं उदवणे, एवं सो| सरिभादि एगमवि समारभमाणो 'छसु अपणतरं' छदिति संखा, छण्हवि कायाणं समारंभे कप्पति, जंभणितं-पट्टति, दबओ कुम्भगार-10 सालाउदगघडपलोडणदिद्वैतेणं, भावतो अविरतत्ता, पाणातिवातासबदारविधाता एगजीवप्रतिवाती एगकायघाती वा, सम्ध-IA जीवातिपाती भवति, पेरितो लोएणं अलियं, ण य तस्स समारंभो तित्थगरेहिं अणुण्णाओ जेसि वा जीवाणं ते सरीरा तेहिं तं | अदत्त, सावजग्गहणेण य परिग्गहो भवति, अहवा तं सद्दातीर्ण विसयाणं अत्थे समारभति, तप्परिग्गहो य ण रागदोसेहिं विणा | भवति, मेहुणरातिभत्ताणिधि विसय एव, अतो छसु अण्णतरंसि, अहवा चउहि आसवदारहिं अबगतेहिं कह च उत्थछदुवयाण | अवट्ठाण , अतो छसु अण्णतरंसि, किंच-सब्बसावजजोगविरतस्स एगतरवतभंगे कह ण सबभंगो, भणियं वा-"खंडे चके | - सगले चके" एवं छसु अण्णतरंति, अहवा सिया एगतरं जो एवं पुढविकार्य समारभति अनतरं वा सस्स छसु अण्णवरेसु अबवातं प्रति ण पडिसिज्झति, तस्स समारंभणे वा तप्पाउम्गाई कम्माई बंधित्ता तेसु चेव काएसु सई असई च उप्पञ्जइ, तत्थ सरीरादिहिं दुक्खेहिं कप्पति, जं मणितं-पट्टति, किमत्थं एरिसविवागं कम्मं आरभति ?, भण्णति-'से महत्थी' सुहेण जस्स अट्ठो, जं भणितं-मुहप्पओयणी, तत्थ करिसणादिकम्मेहिं सुहस्थी पुढवीं समारभति हाणाहिनिमित्वं उदगं, एवं सेसकायाणवि माणि| यब, तं पुण अप्पणो परस्स का सुहत्थी आरभति, रागादिसहितो असंजतो, पमत्तसंजओवि कोई सुहत्थी काये आरमति, तंजहा रससुहत्थी सचित्तं लवणं गिण्हति, मट्टियातिकातेण वाऽच्छेण एवमादि, आउंमि अविद्वत्थं आउकार्य, उदउल्लेण वा हत्थेण, एवं | | सेसएमुवि भाणियवं, अच्चत्थं-पुणो पुणो लप्पमाणो लालप्पमाणो, जं भणितं सुहं पत्थेमाणो, स एवं लालप्पमाणो 'सएण १०४] दीप अनुक्रम [९८ १०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [94] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] | सुखाथि स्वादि श्रीश्राचा- रांग पत्र चूर्णिः २ अध्य ६ उद्देशः ॥९१॥ प्रत वृत्यक [९६ १०४१ दुक्खेणं' सएणति अप्पणएण दुस्वं-कम्मोदओ तेण वाहिजमाणो परितप्पमाणो तप्पडिसेवाए सुट्ठी निवदृति, मोहो णाम हिताहिते निविसेसता, अहवा एरिसे पुरिसे हिते अहितबुद्धी, अहिते हितमारभति, एव कजाकजे वजाबजे, सो मूढत्ता णाभि-A याणति जहा अप्पस्स सुहस्स कारणा पुढविकायातिसमारंभेण अणंतकालं संसारे अणुभवति दुक्खं, जहा अत्तट्ठा तहा परट्ठावि, मातापितिमादीणं कारणा पुढविमादी समारभति ततो विपरियासं एति, सो एवं हितपरिण्णाणमूहो 'सएण विप्पमाएणं' अप्पणएणं विविधो विरुद्धो वा पमादो विप्पमादो, कारणे कज्जुबयारा, सएण विष्पमादेण अंजसं-अत्यर्थ, अंजसा विप्पमायकरणे कम्मुणा 'पुढो वर्य'ति विच्छिण्णो बयो असुभदीहाउयं अणेगविहं वा वयं पत्तेयं पचेयं छसु जीवनिकाएसु आउयं, पुणो पुणो वा वयं पुढोवयं-मिसं कुबति, कह तत्थ य सारीरातीएहिं दुक्खेहिं पञ्चति १, भण्णति-'अस्सिमे पाणा पव्वहिता' जंमि एतेएगिदियादिपाणा पयहिता, तेहि तेहि पयोयणे य बाधिता, केण ?, असंजतेहिं कुप्पाखंडीहि य, परोप्परओ य पुढोवयं कुब्बति, इति-एवं पडिलेहमाणो, पडिलेहाए पडिलेहिता, अं भणियं-जाणिवा, णो पडिसेहे, अकरणा, केसि अकरणं, पाणाहवायमादीणं कम्माणं, जा एतेसि अकरणा सा किं भण्णति ?-'एस पडण्णा पयुवति' एसा णाम जा एसा बुत्ता पाणाइवायाईणं अकरणा सा जया दुबिहाए परिणाए परिणाया भत्रति एसा परिण्णा कम्मोवसतिति वा एगट्ठा, केसिंचि अकंमाणं चोरादिगहियाण कुलिगीणं च अणुवाएणं उवसंती भवति, ण परिणा, कम्मोवसंती पचति, जं भणितं णवस्स कम्मरस अकरणं पोराणस्स खवणं उबसंती बुञ्चति, एस एव अचंतनिरावरणो महव्वयअणुपालगअहिगारो अणुयत्तति, एव य उपसंती भवति, तत्थ उबसंतलक्खणंमन्त्रं पाणाइयायं तिषिहं तिविहेण ण करेइ, एवं जाव परिग्गई, तस्थ अहिंसादीणं परवेऊणं चचारि जहा वेरमणा परिग्गहे न भवति दीप IA अनुक्रम [९८ १०८ ॥९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [95] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] श्रीआचागंग सूत्र चूर्णिः २ अध्य० ६ उद्देशः ॥९ ॥ प्रत वृत्यक [९६१०४ |तहा भण्णति, जहा भण्णति-'जे ममाइतमती पन्छाणुपुब्बी वा एसा, जे इति अणुद्दिदुस्स, कस्स !, ममीकितं ममाइतं, तंजहा- ममस्वादि मम माता मम पिता मम भयिणी मम भाता मम धण्णाति, ममायिते मती ममाइयमती, कहं मम एवं विहा विसया भविञ्जा', पत्तेहिवि तस्स रक्षणमती, अस्थि सुहं च, विणढे सोगो, परिग्गहे इच्छा ममीकारमिति, भरहसामिणा आसघरे पवितुणं ममीकारमती जहा, जो य एतं ममायिए मर्ति जहाति सो जहाति ममाइयं, जहा-तत्थ हिरण्णसुवण्णधणधण्णाइ ममाइ तं रजं अण्णतरं वा इस्सरियं सरीरं च, अहवा सचित्तचित्तमीसाई दबाई ममाइ, तं संखेवत्थो जो तहं वोच्छिदति सो परिग्गई जहति, जो वा ममत्तं छिदति सो ममाजितव्वं जहति, अण्णउस्थिएहिं जइवि किंचिवि जद सचित्ताति तहवि सरीरादिसकारआहार-10 | मुच्छामत्ता उद्देसियभोइला रागदोसाणुगत चा य सममता लन्मंति, दथ्योवसंती य सा, ण परिण्णा कम्मोबसंती य, एवं अण्णेसवि IN वयेसु आयोजं, जो य एवं वतेमु अवट्टितो भवति 'से हु दिढप्पहे मुणी' दिस्सति दिटुं, गम्मति जेण सो पंथो, जेण णाणा| दीणि मोक्षपहो, विधरीतो अपहो, स जेण दिहो सो दिवषयो, पटिजइ य-'दिट्ठभए मुणी' भयं सत्तविई, कतगेसो नणु मुणी?, | तं-'जस्स णत्थि ममाइत' उवदेसियसुत्न, तं परिण्णाय, ऋमिति !, पुष्वपगतावेक्खी ममाइयं दुविहाए परिण्णाए णचा पञ्चक्खाय मेधावी. सो एवं परिजाणए 'विदित्ता लोयं' विदिचा णाम णचा, लोयं-छकायलोयं विदित्ता, जो जीवे ण याणति, कसा| यलोयं वा विदित्ता, तंजहा-'अहे वयति कोवेणं' विमयलोगं च, तंजहा-किपाकफलसमाना विषया हि निसेव्यमाणरमणीयाः । पश्चाद् भवन्ति कटुका अपुषिफलनिवन्धनेस्तुल्याः ॥ १॥ पाणवधासबलोयरस य इव परत्थ प अवाए विदित्ता बंता लोगसपण' वमित्ता-बिद्दाय अत्रकिरिता, असंजयलोयस्स मण्णा-हिंसादिक्रियापचिची मिन्छादमणअभिग्गहा चा, सा य दुवं दीप अनुक्रम [९८ १०८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [96] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] . श्रीआचा संगम चांतिः प्रत वृत्यक २ अध्य ६ उद्देशः ॥ ९३ ।। | मिअति एवं णचा 'से मतिमं परकमिज्जा' सेत्ति णिसे, मती से अस्थि तेण मतिमं, बंता लोअसणं लोउत्तरे धम्मे ठितो | लोकसंज्ञाअहिंसादिवतलोगे च परकमिआसि, एवं तित्थगरआणाए बेमि, णो स्वेच्छया, अहिगारसमचीए एवं बेमि, ण अज्झयणसमत्तीए IAL एवं परकममाणो घडमाणो 'णारति' ममाइतमति 'सहती वीरेंण इति पडिसेधे, सधणं मरिसणं, जति गाम कदापि तस्स AV परकमतो तवणियमसंजमेसु अरती भवेजा ततो तं खणमित्तमवि ण सहति, खिप्पमेव ज्झाणेण मणतो निच्छुभति-णिविसयं | करेति, वीर इति 'विदारयति तत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तव, वीरो वीरेण दर्शितः ॥१॥जहेब संजमे अरति । पण सद्दति तहेब विसयकसायादिलक्खणे असं जमे जति कहंचि तस्स रती उप्पजति तंपि खणमित्तमविण सहति-ण खमति, धम्मज्झाणसहगतो उप्पण्णमित्तं णिकासति, 'जम्हा अविमणे' जम्हा सो इटाणिद्वेसु पत्तेसु विसएसु घितिबलअस्सितो अविमणो भवति, अहवा जम्हा सो संजमे अरति ण सहति असंजमे अ रतिं तेण मज्झत्थो णिश्चमेव अविमणो धीरो 'तम्हादेव विरञ्जते' विसएसु, ते य सद्दादि फासपजंता, जतो इमं सुत्-'सहे फासे य०' आदिअन्तरगहणा मझग्गहणं, अहियासणं णाम इट्ठाणिडेसु रागदोसअकरणं, भणियं च-"सद्देसु य भयपाबएमु०"अहियासणोबायो 'णिविंद गंदी गंदी पमोदे रमणे समिदीए य इस्सरियविभवकया मणसो तुट्ठी, ततो णिबिंद, जति अतिकतकाले कस्सबि आसि तत्थ होऊण ण होति पुणो, अहवा |जा कुमारजीवणादिसु नंदी तं निविदेजा, सर्णकुमारचववाहिदिट्टतो, 'इह' मणुस्सजीविते असंजतजीविते वा विसय-1001 कसायजीविते वा पंचदवि अवयाणं अतीतं जिंदति पहप्पणं संबरेति अणागतं पचक्खाति, केण आलंबणेण णिचिदति तत्य', 'मुणी मोणं समायाए' समणेसि वा माहणेत्ति वा मुणिचि या एगट्ठा, मणिभावो मोणं, सम्मं मंगतं वा ममत्थं वा आदाय, IN९३ ॥ १०४ दीप अनुक्रम [९८ १०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [97] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] प्रत वृत्यक [९६१०४ श्रीआचा- एतं मो आदाय किं कायव्वं ताव ? 'धुण कम्मसरी' धूण, जं भणितं परिसाडेहि, एगे अणेगादेसो, 'पंतंलूह सेवंति वीरा' कर्मधूतता रांग सूत्र- तं णाम जं समावियरसपरिहीणं जहा दोसीणं, लूह दब्बे णेहविरहितं भावे वीर्तिगाल सेवंति-भुजंति वीरा पुब्बभणिता, सम्मचं चूर्णिः | पसंति सम्मईसिणो, जत्थ सम्म तत्थ नाणंपि, कारगसम्मने चरित्तपि, तस्स सुतेणेव फलं भष्णति-'एस ओहंतरे' एसेति | २ अध्य TV जे भणिता पंतलूहसेवी, दबोचो समुदो भावोघो संसारो, स भावोघं तरति तारेति वा, अण्णे तरमाणे तिण्यो 'मुके, अहवा चारस॥९४॥ विहे कसाए खोवसमिए खविए वा तेण ताव मुको विरतेति एगट्ठा, विविहं अक्खाते वियस्खाते विवाहितेत्ति बेमि। तहेब जो तिमि जहोबहिढे मग्गे ण वद्दति सो किं वत्तम्बो', भण्णति-'दम्ववसू मुणी' चसतीति वस्ता, कत्य, संजमे नाणादितियेचा, दुढे वसु दुब्बसु, जं भणितं कुस्समणो, ण आणाकरो, दुव्वसु जो भगवतो अणाणाए बढतीति वक्सेस, एत्य किं दुकरं !, भष्णति-IN से तं संघुज्झमाणो मिच्छत्तमोहिए लोए. दुक्कर संबोधु, अपडितेण समुत्थाणेण व तेसु अप्पा थावेउं दुकरं एवं मम छेउं अरतिपरतीओ निग्गहेउं सहादिविसएम ममत्थं मावेतुं इटाणिद्वेसु पतलूहाणि फासेउं, एवं जद्दोवदिट्ठस्स आणाए दुकर वसिउं फासेउ। |संखेबदुकरं परीसहा सोढुं, तत्थ मूलहेऊ कम्मोदओ अतीतकालभावितो दुक्खभीरू अणिरोहसुहण्णिओ पच्चुप्पण्णमारिया । दुक्खं मुणिस्स आणाए वसति, सो एवं अणाणाकारी 'तुच्छए दचतुच्छो विभवहीणो तुच्छघडो वा पुलागं धष्णं वा हस्थिखVइयं वा सगलं बिल्लं इदिचयं एवमादि दब्बतुच्छगं, भावतुच्छगं भावतुच्छो नाणादितियहीणो बहुसुतो वा चरित्तहीणो, सो एवं Dचरितहीणो 'गिलायति वत्तए' पूयासकारपरियारहेउं सुद्धं मग्गं परूवे गिलाति, जति मूलगुणतुच्छो तेण मूलगुणे परूपे] ग्लायति, को दोसो सण्णिधिमादिसु !, जह आहारो धम्मसरीरधारणथं कीरति तहा सश्रीधीवित्ति, कारणे सन्निहि करेंतो केणवि0॥ ९४ ।। दीप अनुक्रम [९८ १०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [98] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [९६ १०४५ दीप अनुक्रम [९८१०८] भीजाचा गंगसूत्र चूर्णिः २ अध्य० ६ उद्देशः ॥ ९५ ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२] उद्देशक [६], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] चोतितो तुज्यं समिही वडति ?, ताहे ग्लायति कहेतुं जहां, ण वकृति, एवं कोडलादिसुवि, आउकार्य या गेण्डंतो केणयि चोदितो, तस्थ ग्लायति, एवं सेसकाएसुवि, एवं सव्वमूलगुणेर्हि, उत्तरगुणेहिं वा उदउल्लाति गिण्हमाणो केणयि गीतत्थेण चोइओ ग्लायति, को वा एसिलए दोसो ?, जति वा एतिलयं ण सकेति खवेडं तो बहुयं कयं कहं खवेहिति जं अमभवे बद्धं १, तत्थ कोयि सा विक्खो कोपि णिधसो, जहा दणय अणगारं विघसो भगति किं चरगादयो समणा न भवंति आउकायादि गिव्हंता १, साविक्खो पुण 'ओसण्णोवि विहारे० ' गाहा, तब्धिवरीओ तु सव्वेसु आणाए बट्टमाणो अतुच्छ नागादीहिं, ण ग्लायति वत्तब्बर पुट्ठो अपुट्ठो वा सुद्धं मग्गं परुवेमाणो, सो एवं परुवेंतो 'अचेति लोपसंजोयं' अथेतिति अतिकामयति, लोयसंजोगं बज्मो हिरण्णसुवण मातापिताति भावे रागदोसाति तं अतिकमति, 'एस पाए' एस इति जो भणितो अप्पाणं परं च मोक्खं गाति पाया, जं भणितं उभपत्रातो, एवं सहस्म कधी णायद्वितो किं कहेति ?, भण्णति- 'जं दुक्खं पवेदितं' जं इति अणुदि दुक्खं कम्मं तं जह बज्झति जो य बंधति जत्थ य तस्स विवागो भवति जह य विवागो भवति जह य न भवति विद्यागो, पवेतितं तित्थगरगणइरेहिं 'इहे'ति इह मणुस्से पत्रयणे वा मणुया माणवा 'तस्स दुक्खस्स' तस्स इति तस्स पाणाइवराया दिउवचितस्म कम्मबंधस्स 'कुसला' जाणगा जुगे जुगे धम्मकालाद्धिसंपण्णा ससमयपरसमयचिऊ उज्जुतविहारा जहाबादी सहाकारोजिननिदा जितईदिया जितपरिस्सहा देसकालकमशाणमा गणहरादि जाव संपत्तं सुतेण वा धम्मक्रदाहि वा सुताणुसडिमादीहि कार्हति दव्यकुसला भावकुसला पुन्त्रभणिता, परिण्णा दुविधा 'उदाहरंति' उवदिसंति, तंजहा बंधो बंधहेतु सुक्को मोक्खो मोक्खहेतुथ 'इति कम्मं परिवणाय' इति उपपद रिसणे, एवं परिण्णाय जहेतं भणितं तं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं तस्स मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [99] देशनायां ग्लानिः ।। ९५ ।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [९६ १०४५ दीप अनुक्रम [९८१०८] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः २ अध्य० ६ उद्देशः ॥ ९६ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], निर्युक्तिः [१९७..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] कम्मस्स कुसला परिण्णाउं, एवं अडविहकम्म जाणणापरिण्णा बसव्वा, तस्स अस्सवे य, तंजहा- नाणपडिणीययाए दंसणपडि| णीययाए० एवमादि णच्चा पञ्चक्खाणपरिष्णाए पडिसेहेति, जं भणितं आसवदारेहिं ण वति, 'सव्वसो'ति सव्वप्यगारेहिं, जो | जहा बज्झति जचिरकालठितियं वा बंधति अहवा केवली सब्वं परिष्णाय कहयति चोहसपुच्ची सब्वे पण्णवणिजे मावे जाणति, गणहरपरंपरएणं जाव संपण्णं, कहा चउच्चिहा, तंजहा-अक्खेवणी विकखेत्रणी संवेयणी शिब्वेयणी, ताहे कहेइ सो केरिसओ १, | भण्णति- 'जो अणण्णदंसी' अण्ण इति परिवञ्जणे तिणि तिसडा पावातियसया अण्णदिड्डी, अणण्णदरिसी बताई तत्वद्वीए पेक्खति, इमं एवं जइणं तत्तबुद्धीए पासति, जो अगण्णदिट्ठी सो नियमा 'अणण्णारामो' ण अण्णत्थारमतीति अणण्णा| रामो, गतिपञ्चागतिलक्खोणं भण्णति - 'जे अणण्णा राम्रो' से णियमा अण्णदिट्ठी, जं भणितं सम्मदिट्ठी, ण य अण्णदिट्ठीए रमति, तहा विसयकसायादिलक्खणे अचरिचे अतवे ण य रमति, सो एवंविहो अन्नंपि ठावयति केवलीपण्णचे धम्मे चउब्विहाए | कहाए अरसो अदुडो आघवेमाणो पण्णवेमाणो, बीयरागे सुणिउणं संपञ्च्चयो भविस्मति, तं कई ?, भण्णति- 'जहा पुष्णस्स कत्थति तहा तुच्छस्स' पुण्णो णाम सव्यमणुस्सेसु रिद्धिमां चकबड्डी तदणंतरं वासुदेववलदेवमहामंडलियईसर जाव सत्यवाहादि, तुच्छा तणहारगादि, अहवा पुण्णो जाइसंपण्णाति तत्रिवरीओ तुच्छो, अहवा बुद्धिमंतो पुष्णो मंदबुद्धी तुच्छो, जेण आय| रेग जेण आलंबणेण पुण्णस्स कहिअति तहा तुच्छस्स, गतिपञ्चागतिलक्खणेण जहा तुच्छस्स कहिजति तहा पुण्णस्स, जं भणितं - जहा तुच्छरस ण अण्णहेउं च कधेति तहा पुण्णस्सवि, सोयारं वा प्रति विष्णाणकहाए वायसंपन्ने विवजओ, विष्णागमंतस्स निउणं कहिजति धूलबुद्धिस्स जहां परियच्छति तहा कहिजति, भणियं च "निउणं अत्थं०" "तत्थ आलंबणं तुलं०” उस्सग्गेणं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [100] सर्वकथनं ।। ९६ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] धि धूर्णिः प्रत वृत्यक श्रीआचा-16 अहवा कोपि आयारकहणेण तुस्सति, कोई ण, अतीवादरेण तस्स तहेव कहेयब, अहवा रायादि उपसंते बहवो उनसमंति. मुह-DDI रांग सूत्र || विहारं भवति, तेण तस्स जाव इच्छति ताव कहिजति सरीर उवरोहं मोतुं, सेसेमु आवस्सगस्स परिहाणीए ण कहेयब्ध, अतिसे-गायनदापार | सिओ वा कहेति जो जहा उबसमीहिति, भावं नाउं कडेति, किं एयरस पियं अपियं वा, वेग्गं सिंगारं वा, तहा के अयं पुरिसे ॥९७॥ E | कं वा दरिसणं अभिष्पसते , जहा य इहलोइयपरलोइयअवायो ण होति कहतस्स तहा कहेयव्यं, परलोइओ अण्णहेउं पाणहेउं वा | उम्मम्गं वा उवदिसति एवमादि, इहलोइओ जम्मं मम्मं कर्म परिहरियचं, ण य तप्पढमयाए जं सो दरिसणं अभिष्पसण्णो | तस्सेवेगस्म भूयो भूयो दोसे देइ, सामण्योग वा दोसे देइ, पुच्छतस्प वा दोर्स दंसेति, जई राया भगति, लोयसिद्धेण वातेण । |शया णरगगामी, दशमूना सम चक्र, दशचकसमो ध्वजः । दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥ १॥ नन्थ इमे दोसा | 'अविय हणे' अपि पदार्थसंभावने, अणिट्ठकहाओ एवं मण्णेज-एते सन्चधर्मबाहिरा, जहा रायधम्मंण याणंति तहा मोक्खधम्मपि | | पत्र, गेण्हेजा अतिकोहेण, अविय हणे अद्विणा मुट्टिणा एवमादि, अवियऽकोसेज वा हसिज वाणिस्साहिज वा कैमेज वा छवि | छेयं वा करिज, उदविजा अपि, वत्थादिच्छेदं वा, जहाति, छेदिज वा भिंदिन वा अवहरिज वा, भगिर्य च-"तत्थेव य निवर्ण YAबंधण णिच्छुभण कडगमहो य । णिविसर्य व नरिंदो करिज संघपि सो रुट्ठो ॥१॥ भहमरुओ का कोइ वचु(दु)इणीए कड़ियाए उ-| दुरुहो तं चेक करेति, तचणि श्री उवामओ वा गंदवलाए बुद्धप्पत्तीए चा, भागातो भल्लीधरक्खायेणं, छकिरियभत्तो वा पेढालउमाधरणेण, तुच्छाणवि दासमयगादीणं कहेमाणो जति भणति, अहम्मेण एरिसा भवंति, कट्ठासणा कुसिना कुभोयणावा, बण्ण| तो आयामंडितिया, दरिहवण्णगं बा, तं च उबहसति, ताहे सोण गिव्हेइ, ण वा पूणो एति, साहसिओ वा कोई अकोसेज वा जा | |९७॥ १०४ दीप अनुक्रम [९८ १०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [101] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] AY प्रत वृत्यक [९६ श्रीपाचा पावत्थातितं छिदिअ बा, एवं अविहिकहणाए दोसा भवंति, के दोसा, भण्णति-लस्थवि जाण सेयंति णस्थि' जो सहहेउ || अविधिसंग सत्र- वधा कोति धम्मकहालद्धिसंपण्णो तेण कहेयन्वं चउबिहाए कहाए, जो पुण ण सदहेतु तेण संवेयणिणिवेयणीए कहेपब्वा, किं यूणिः V A निमित्तं विक्खेवणी ण कहिजति !, भण्णति-मा सो अमिणवसड़ो परेहिं बुग्गाहिजेजा तच्चणियगेरुपससरक्खमादीहि, अम्हवि ॥९८॥ | अहिंसा इंदियदमो य वेरग्गं मोक्खो य, पच्छा सो पुचि अविकोवितोषि परिणमति, अण्णदरिसीवि होऊण एवं 'एस्थवि जाण| Dसेयंति णस्थिति, किंच-जति सदहेतु अविकोवितो भणइ परिसामज्झे-दणमेव निग्गं पवयणं सर्थ, सेसाणि कुदरिसणाणि मुमा, एत्थवि जाण सेयंति णस्थि, कई , पच्छा तत्थ तच्चभिओवासगो चोदितो, सो य तं न नित्थरइ, पच्छा ओभावणा पवय| णस्स, भांगवता गरुपसड़ो वा अवियदृणे अणातियमाणे पत्थवि जाण णस्थि सेयंति, केणइ पुग्छिओ भणइ अस्थि अप्पा, ततो परेण | चोइओ-अस्थि अप्पा, एगते अन्नत्ते उभयदोसा, एत्थ जाण णत्थि सेयंति, भणिया अविहिकहणा, इदाणि खित्तं विचार्यते-तत्थ खेतं | जाणियचं, केण भावितं धीयारभावितं तच्चणियभावितं वा, भाविते तेसिं अविरुद्धं कहेयय, सामण्णाग्गहणेण वा कालं मिक्खावेलादि अपरिहवंनेणं तहा सुमिक्खदुमिक्खं गाउं कहेयब्वं, तहा भावं गाउं कहेयच्चं, तत्थ इमं सुतं-के अयं पुरिसों' के इति पुण्णो तुच्छो वा ?, अहा कि दारुणमभावो इतरो वा जति रायी ततो तस्स.दोसे असूयतेणं कहेयचं, एवं जाव चंडालो, 'कंच णत'नि कयरं पत्रयणं णतो णाम पडिवण्णो, संखं बुद्ध एवमादि, जं पणो ण तस्स आतीए दोसे कहेइ, मा ते दोसा भविस्सति, अवियद्वणे अणातियमाणे जदा दरिसणे उम्पाडो भवति तदा तदोसा कहिअंति, एवं जहोचदिहा सुसंबुज्झमाणा गुणा| दीहि उबवेता कहणा, दोसविमुद्धम्मकहागुणोववेओ 'गस वीरे पसंसिते' 'एम' इति जो भणितो वीरो पुब्वभणितो पसंस-10 ॥ ९८॥ १०४१ दीप अनुक्रम [९८ १०८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [102] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [९६ १०४५ दीप अनुक्रम [९८ १०८] श्री आचा रांग सूत्रचूणिः ॥ ९९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२] उद्देशक [६], निर्युक्तिः [१९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] पिओ पसंसिते, अण्णेऽचि अपसत्थसंगामवीरा ण ते पसंसिता, भावचीरो पसंसितो, जो किं करेति ?, भण्णति-"जे बने पडिमोयए' जे इति अणुदिट्ठस्स गहणं, अट्ठप्रकारेण कम्मेण बद्धे संते पडिमोएड आयप्पओगेण बद्धे सम्मं उपदेसंतो, कारणे कज्जुबयारे संपयं पडिमोएति, जं भणितं पडिमोयावेति, तित्थगरी जो य कयत्थो उत्तमो, गगहराति वा थेरा उभयतारा इति, एवं से जहामणितकहणाविधिजुत्ता 'उ अहे तिरियं' पण्णवगदिसा पहुच उद्धं वा आहे वा तिरियं वा चउसुचि दिसामु 'से सनो' स इति पुत्रभणितो कहगो, सब्बओ उई अहे तिरियं दिसासु, ण तस्स कम्मासची कठोयिवि भवति, 'सवपरिण्णाचारि'ति सव्वकालं सभासद आतपदेसेहिं परिण्णा दुविधा जागगापरिष्णा पञ्चकखाण परिण्णा य, जाणणापरिण्णा दुविधा-केवलिया छाउमस्थिया य, छाउमत्थिगी चउब्विा, केवलिंगी एगविद्या, पथक्खाणपरिण्णा दुविधा - मूलगुणपञ्चकखाणपरिण्णा उत्तरगुणपञ्चक्वाणपरिष्णाय इति, एवं सध्यपरिष्णं सध्यओ परिजाणित्ता चरति सवतो सच्चपरिण्णचारी, जं भणितं जाणित्ता असंजमजोगे ण करेति, अथवा अविहिकहणादोसे विहिकडणागुणे य सन्चओ सन्त्रपरिण्णचारी, णचा अविधिकडणं पञ्चकखाइत्ता चरतीति सथ्यपरिष्णचारी, सो एवं 'ण लिप्यति' ण पडिसेहे, लिप्पतित्ति जुञ्जति, छणणं हिंसा छणणस्स पदं छणणपदं, जं भणितं - हिंसापदं, बिहीए कहतो ण छणेण लिप्यति, तं णो अकुस्सेज वा उसेजेस वा उपहसेज वा नो वत्थादि अवहरि वा सो एवं विहीए कहतो नागदंसणचरितवविणयेहिं ण छलिजति, तथा तारिसं धम्मं न कहेति जेण पाणभूयाणं छगणा होजा, जहा अनउत्थिया एगंतेण उद्देसियामिहाणं पसंसंति विहाराति कारेंति एवमादी, वीरो पुत्रभणितो, किं एत्तियं वीरलक्खणं जो ण लिप्पति छणणपण, उदाइ अपि ?, भष्णति 'से मेहावी' मेहया धावतीति मेधावी, सो बुद्धिमां, जो 'अणुग्धामणस्स' अगति जेणं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [103] बद्धमोचनादि ।। ९९ ।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [९६ १०४५ दीप अनुक्रम [९८१०८] श्री आचारांग सूत्रचूर्णिः ॥१००॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], निर्युक्तिः [१९७..], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] तं अणं, जं भणितं कम्मं, उग्धायणंति वा उपायणंति वा एगट्ठा, 'खेतष्णे' जाणओ, जं भणितं कम्मखत्रणओ, सो मेहावी किचं 'जे य बंधपमोक्खमण्णेसी' जे इति अणुदिट्ठस्स, बंधो अड्डविहं कम्मं, मिसं मोक्खो पमोक्खो, अप्पा आसवबंधस्स मोक्खं अण्णेसति बंधपमोक्ख अण्णेसी, जं भणितं मग्गति, तस्सेसी तहिं जं एवं भणितं कुसलेग बंधमोक्खविहाणं, सो किं बंधो मोक्खो ?, | भष्णति 'कुसले पुण णो यद्वे णो मुक्के' दव्यकुसला भावकुसला तहेव भाणियन्ना, पुण विसेसणे, किं विसेसेड ?, अनेवि कुसला साहू, अयं तु तित्थगरकेवली अधिगतो, सो चउहिं वाइकम्मेहिं मुकता पोव बद्धो मनोवग्गहेहि यबद्धताण मुको, अहवा | बज्झतर सावजगंधस्स मुकत्ता मुको, भवोवग्गहकम्मेहि अमुकता ण मुको, अहवा अण्णेवि साहू अप्पसत्येहिं भावेहिं अण्णा| णविरतमिच्छतेहि मुका, पसत्येहिं तु चरित्चतवविणयादीहिं अमुका, से जंच आरंभे जं तेण वा चद्वेण वा उवदिनं तं किं अप्पणावि आयिष्णं, जइ वा साहू सिस्सोवदेसो चैत्र भष्यति, 'से जं च आरंभ' 'से' इति तित्थगरो आरभति आयरति घडति जतति परकमति सव्त्रकम्मक्खयत्थं संजमतवविणये, विधीकरणं च आरभति, तव्विवचासं न आरभति, अहवा पाणा इवायमादि अट्ठारसडाणा णारभति, तब्बिवथासं आरमति, जण्ण कदाइवि आरब्धं तं गारमति हिंसाति, जं वा सो भगवं न आरभति तं णारव्यं तं भण्णति 'छणं छणं परिण्णाए छणि हिंसाए जस्स जेणपगारेण छणणं भवति जहा सत्थपरिण्णाए एकेकस्स कायस्स सत्यप्पगारा भणिता तं छणं दुविहाए परिणाए, अहवा छगं छणं परियाणादि पाणवहाति अट्ठारसविहंपि एवं छणपदं चितियं | जह ण छलिजसि अधिहिकहणाए, एवं परिणाय 'लोगसण्णं च' लोयस्स सष्णा लोयसण्णा, जं भणितं लोयसुहं, चसो आयसण्णं च तं छणणं ण कुज्जा, अप्पोत्रमेण - 'जह मम ण षियं दुक्खं जाणिय एमेव सब्बजीवाणं 'ण हणति, तस्स एवं संबृज्झ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [104] बंधमोक्ष पितादि ॥१००॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [६], नियुक्ति: [१९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ९६-१०४] वृणिः । प्रत वृत्यंक १०४१ सोमाणाति जहाभणितगुणोवडियस्स सव्वायणगुणावट्ठियस्स वा विजियकसायलोयस्स 'उद्देसो पासगस्स णस्थि' उदिस्सति | उद्देशा रांग सूत्र जेण सो उद्देसो, तंजहा-नेरइओ तिरिक्खजोणिओ मणुस्सो देवो, तहा सुदी दुक्खी एवमादि, पस्सतीति पस्सगो, किमिति । धम्म, ग अस्थीति ण विअति, तविवरिओ अयाणओ अपस्सगो य बालो, स चालो पुण दोहि आगलितो कालो, पुण विसेसणे, IN २ लोक. | विसयकसायमिभूतो अण्णाणी बुढ़ो जुवा कुमारो वा बालो, णिहतो रागादीहिं णिहो, 'कामसमणुपणे कामा सदादि ते इंदि॥१०॥ यगोयरपचे समणुष्णति, जं भणितं रागहोसेहिं गच्छति अपचे मुच्छेति अतिकते अणुस्सरति 'असमियदुक्खें समिति वा सेवि तंति वा एगट्ठा, ण समितं असमितं दुक्खं-कर्म तन्निवागो वा, असमितदुक्खत्ता से 'दुक्खी दुक्खावटमेव अणुपरि-11 यतित्तिबेमि' दुक्खाणं आवट्टो दुक्खावट्ठो दब्बावट्टो, णदीए समुद्दे वा भावावट्टो संसारकंतारतो, अणेगसो अणुपरियट्टति, अणु पच्छाभावे परि समंता सब्बओ परियति अणुपरियति इति । एवं तित्थगरोवएसा बेमिति । इति आचारस्म परमसुपखंधस्स वितियं अजायणं लोगविजयओ नाम परिसमाप्तं ।। उदेसा॥ ___णमो सुयदेवयाए । अझयणामिसंबंधो छज्जीवकायाधिगततत्तस्स विसयकमायलोयं चहत्ता सीयाणि उल्हाणि य सम्म | | अहियारि अति पसस्थाणि, अपसत्याणि य सीयउण्डाणि परिहरेजा, एवमादि अज्झयणसंबंधो, दारकतो अस्थहिगारो दुविहो| अज्झयणत्याधिगारो उद्देसत्याधिगारो य, अज्झयणत्याधिगारो सुहृदुक्रवतितिकखा, उद्देसत्थाहिगारो चउम्विहो-'पढमे सुत्ता | असंजति'त्ति गाहा(१९७-१४९)पढमे सुत्नदोसा तंजहा-जरामचुवसोवणीते नरे सततं मूढे, तह य 'माती पमाता पुणरेति गम्भ' जागरगुणा य 'जस्सिमे सदा य स्वा य एवमादि, बितिउद्देसे भावसुया जहा दुक्खं अणुभवंति, जहा कामेसु गिद्धा १०१॥ दीप अनुक्रम [९८ १०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययनं “शीतोष्णिय" आरब्ध:, [105] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] बाआचा- गंग सूत्र चूर्णिः शीतोष्णीय १ उद्देशः ॥१२॥ प्रत वृत्यक [१०५११०] णिचयं करेती' एवमादि, सेहेण सहादुक्खसहेण होय दुकरं तवचरणं करेयव्वं । इदाणिं मा सासिस्सं एगंतेण दुक्खेण धम्मो, AI शांतितेण तम्मतपडिसेहणत्थं भण्णति ततिए-ण य दुक्खेण, अकरणयाए व समणोचि, कह ?, भष्णति-'संतिं विदित्ता भतत्तोवहिता ज्ञानादि पमत्थे, सो भावओ संजतो भवति ण एगतेण दुक्खेण, अकरणयाए यत्ति 'सहिते दुक्खमाताए तेणेव य पुट्ठोणो झंझाए | उद्देसंमि चउत्थे (१९९-१५९)वक्खति'से वंता कोहं च'तच माणणिमित्त पावचिरती,वक्रवति य'उबरतसहस्स पलियंतकडस्स' एवमादि विदुणो संजमो भवइ, एवं तस्स खबगस्खेणि अशुपविदुस्स मोक्खो भवतीति । दाणि अजायणस्थापिगारो पुषभगितो स एव पुणो कहिलति, सुहे असंगता अणुलोमे उबसग्गे तितिक्खिन, ण य दुक्खाओ उब्विइतब्बमिति, अज्झयणाहिगारो णामनिष्फण्णे सीतं च उण्डं च दो पदा 'णामं ठवणा'.गाहा (१९९-१४९) णामठवणाओ गयात्रो, बतिरिच दबसीतं 'दब्वे सीतल' गाहा (२००-१४९) जं उप्पत्तीए सीतलं दव्वं तं दबसीतल, तत्थ सचेयर्ण हिमतुसारकरगादि अवेयणं हारादि मिस्स | | सचित्तोदगकता जलदा, भणियं च-"दबसीतं भावसीत. पोग्गलाणं सीतगुणो बुद्धीए विधीकतो, ण सो य दव्यो, एवं ताव 6. अजीवेसु, जीवभावगुणो णाम अणेगविहो छब्बिहं परूविचा उपसमियखायखयोवसमिया भावा सीया, उण्डं चउब्बिई, पतिरित्तो अग्गी दव्व उण्हो सचिचो, अचित्तो आदिश्चरस्सी उ, मीसे उण्होदक अणुबत्ततिदंड, भावउण्हं जो उण्हदव्वगुणो, अहबा | पसत्थभाव खाइयो भावो जैण अट्ठविहं कम्मं उज्झति, अहवा तवो, अप्पसत्थभावुण्हो उदइयभावो, तंजदा-कोहो उण्डो माणो य, अहवा भावसीते इमा विभाAr'-'सीतं परीसह पमात' उवसमो विरई सुई च उण्हं, एतेसिं पच्छिमद्धविभासा परी सहतवृनमकसायसोगवेदारती दुक्खं (२०१-१४९) तस्म परीसहे पहुच सीनं च उण्डं च भवति, तंजडा-'इत्थी सकार दीप अनुक्रम [१०७११४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'भावसुप्त' आरब्धः, [106] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] श्रीबाचा प्रत वृत्यक [१०५११०] परिसहो य दो भावसीत' गाहा(२०२-१५०)ज भणितं सुइचा सीता भवति, संसा वीसं उल्हा. अहवा 'तिब्बपरिणाम'D शीतोष्णसंग सूत्र गाहा (२०३-१५०) अहवा अपसत्थसीतो सीतलचरणो पसत्थसीतो उवसंतमोहो खीणमोहो वा, अपसत्यभावुण्दो कोहोदयादि, विभाग चूर्णिः || पसत्थभावुण्हो न धावति, उदिण्णे वा परिसहे अणहियासेमाणो उण्हो, अहियासेमाणो सीतो, पमत्तो उण्हो, अप्पमचो सीतो, ॥१०३॥ | धम्मे अणुजुचो सीयलो, उज्जुत्तो उपहो, तस्सेगड्ढे इमे भवंति, तंजहा-'सीतीभूतों' गाहा (२०५-१५० ) विरतित्ति दारं, VA विरतो सीतो अविरतो उण्हो, तत्थ माहा 'अभयकरो जीवाणं' (२०७-१५०) सुखं प्रति पसत्यं भावसीतं भवति, तंजहा-| HAL'निब्याणसुहं' गाहा (२०७-१५१) तं पुण निव्वाणं सबदुक्खखयो मुतिसुई च, भवत्यकेवलीणं कामा णियत्चमाणाणं च ) छउमस्थसंजयाणं 'तणसंथारणिवण्णोऽवि मुणिवरो' इह सचित्तविसयविरत्तस्स संसारियं सहातिसुई सीतं, अणुरत्तस्स उण्हंति, दार सम्मत् । एगतेण विसयकसाया उन्हा, मोहणिज वा सन्चकम्म, जेण भणितं-'जाति तिब्वकसाओ'(२०८-१५१)। कोदग्गिणा उजाति. चत्वारि सीयग्गिगा वा वेदग्गिणा बा, ततोवि उण्डतरोय तयो जो तं उन्हं वेपणिजं मोहणि डहति, सो) पुण अहिगयछजीवनिकायो सद्धो विसयकसायलोगवाहिरो 'सीउण्हफाससुह' गाहा (२०९-१५१) सीतस्स य उसिणस्स | | फासो, अहवा फासो दंसमसगफासो गहितो, सरीरपीडागरं दुक्खं, विचरीतं सुह, परीसहे सहति, कसायसहो कोहस्स उदयनिरोदो उदयपत्तस्स वा विफलं करणं, सेसं कंठयं, 'सीयाणि य उपहाणि य' गाहा (२१०-१५१) कंठ्या, सुत्ताणुगमे सुत्तं | | उच्चारेय, सुत्तं अर्णतरेण परंपरेण य०, अणंतरेण 'दुक्खी दुक्खाणमेच' इहवि सुत्ता अमुणी भावसुलो अभाणी अवार्ण च | महादुर्ख, भणियं च-"न ते कष्टतरं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाज्ञानं महारोग, दुरन्तमतिदुर्जयम् ॥ १॥ परंपरसुत्ने ) १०३॥ दीप अनुक्रम [१०७११४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [107] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] सुप्तजागरौ रांग सूत्र प्रत वृत्यक [१०५११०] श्रीआचा- 'असमियसुक्खे सम्मत्तदंसी' सव्वे य देसे य, दसे नरगतिरियगतियो बोच्छिमायो, अहवा चरिमभवमणुस्सस्स गरगतिस्यिदेव गईओ वोच्छिनायो, एवमादि देससमिता जाव भवत्थकेवली, जहा जालाधूमहीणो अग्गी उपसंतो भण्णइ एवं देसोवसंता, सब- चूर्णिः | उवसंता सिद्धा, सुत्ताणुगमे सुतं उबारेयवं अखलिय अमिलितं जहा अणुओगवारे जाव सुर्य मे आउसं! तेणं भगवया एव॥१०४॥ VI मक्वायं, स एव अहिगारो, 'सुत्ता अमुणी अ' जहा सुत्तो चउबिहो, पतिरित्तो दरमुत्तो निदासुनो, भावसुनो जो सावज | आसवपवित्तो विसयकसाएहि वा सो धमं प्रति सुत्तो, अहव, अण्णाणी मिच्छट्ठिी अविरतो य भावमुत्तो, विवरीतो जागरो, ( दवमुक्त जाव 'जह सुत्तमुच्छिय' गाहा (२१२-१५२) असहीणो- अप्पवसो खित्तचिचादि सुतो, पडितो चेव पावति, | मुछितो पडतो पडिनो वा, मतो पडतो पडीओ वा, कंटकादि कूवादिसु तिवं अपडिगारं, सुत्तस्स गस्थि पडियारो, तहा II हत्थे छिने पादे वा भग्गे चा, मेहावी से ण वा खइओ 'मुणिणो सया जागरंति'त्ति मुणेति जगं तिकालावत्थं मुणी, सया । णिचं 'जागरंतीति जागरतीति जागरो, सो चउविहो-दब्वे जो णिहाजागरो भावे सम्मदिवी संविग्मो जयमाणो, भावनिमित्तं | 'दबजागर' ताओ गाहाओ भाणियवाओ। 'जागरह गरा णिच्च दरिसणावरणकम्मोदए जो संविग्गो जयणाजुत्तो सो भावYAजागरो एव, दखओ णाम एगे जागरे ण भावतो चउभंगो, भावजागरो 'एसेव य उवदेसे' गाहा (२१३-१५३) ते चेव IMI दिईता विवरीता जहा त एव असुत्नश्रमत्तअमच्छियादि सत्थावस्था सहीणचित्ता, पलिते वा विगादिभए वा पयलाते, जणे णस्सति |चा सारभंडाणि वा नीति 'पंथा दिसुनि पंथं वा जाणाति, उज्जुश्री अणुज्जुओ सावाओ निखाओ वा, अणुभवति णाम पलित्तमादिएस दुक्खाणि अपावमाणो सुई अणुभवति, पंचविहे विसए, एस दिट्टतो, एवं णिचं भावजागरो विसयकसाएहि अप्प दीप अनुक्रम [१०७११४] ( मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [108] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] श्रीआचागंग मत्र- चूर्णिः ॥१०५|| प्रत वृत्यक [१०५११०] | मनो नाणादिघि जागरिता णरगादिसु दुक्खगम्भसिजासु सोण अणंतसो वसति, इहेब आमोसहिमादी लद्धीओ पाविहिति, ओहि-0 मणकेवलाणि य, परे य मोक्खो, 'इहमेगेसिं णो नातं' आदिसुतं, तत्थ नाणं सम्मं च भण्णति, इह भावजागरग्गहणा| तिष्णिवि धिप्पंति 'जाणति सहसंमुइयाए'त्ति, इहवि मुणीतेत्ति मुणी नाणदंसणा धिप्पंति, जागरगहणा संमत्तचरितं एव, जग्गंता NI भगवतो अणेगे, एगाएसा भण्णइ 'लोगंसि जाण अहियाए दुवं' लोगो छकायलोगो, जाण, ण हिता य अहिताय, दुक्ख- [मिति कम्मं सारीराति वा, दव्वसुत्ताणं इहेब दुक्खं भवति पलित्तवलायादिसु, भावसुत्ताणमवि पाणइवायाइपवित्ताणं इहेव बंधवहयाताति, परलोगे णरमादिदुक्रवाणि, सो एवं भावजागरो 'समत्तं लोगस्स जाणित्ता' दन्चसमे माणारोहिता तुला, भावसमे आतोचमेण सब्वजीवेसु अहिंसओ, अहवा जं इच्छसि अत्तणए तं इच्छ परेवि जणे, एतिल्लयं जिणमासणए, तहा अण्णास्थविYA | भणित-"श्रूयतां धम्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवोपधार्यताम् ।" भण्णति -अवत्थुवादित्वाभिमतगुणो वा पुवावरवाहतचा वा उवालभंतमन्तवयणं वा अप्पमाणं, इहं पुण जहत्ववादित्वात् अविरुद्ध, अहवा समभावो समता-मित्तादिणिधिसेसया 'तो समणो जदि सुमणो भावेण य ज न होइ पावमणो' एवं समयं णचा 'एस्थ सत्थोवरए' एत्थंति एत्थं छजीवनिकायलोए द्रव्य| सत्थं वुत्तं-किंची सकायसत्य०, भावसत्थंपि भणितं, सत्थाओ उवरओ सत्थोवरओ, जं भणितं-निवित्तो, धम्मजागरियाए जागराहित्ति वक्सेसं, जस्स जओ जेसि वा एतं जह भणितं पाणाइवायवेरमणं अस्थि से मुणी भवति, धम्मजागरियाए जागरति, एवं सेसाणिवि वयाणि, अहवा 'एत्थ सत्थोवरए'चि जं जं संजमसत्थं ततो ततो उवरतो, तत्थ पाणाइवायादीणि अस्सव-|| | दाराणि, तत्थ पाणाइवाए भणितं, एवं सेसाणिवि वत्तव्वाणि समावणगाणि, एत्थं पंचमस्स इमाओ पंच भावणाओ 'सहो जाव दीप अनुक्रम [१०७११४] ॥१०५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [109] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१०५ ११०] दीप अनुक्रम [१०७ ११४] श्रीआचा रंग सूत्रचूर्णिः ॥१०६॥ “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१९८-२१४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १०५-११०] फासो'ति ततो भण्णति- 'जस्सिमे सहाय वा य' जस्स जतो जेसिं वा 'इमे' चि सव्वलोगप्पतीता सहा निजा (सज्जा) ति रूत्रा कालादि, एवं सेसावि भाणियव्वा अहवा सन्चावि एते इट्ठा य अणिट्ठा य, अभिमुहं सम्म अणु आगता अभिसमण्णागया, जं भणितं सम्मं उबलद्वा, इहलोगेऽवि अहिता सदाइविसया, किमु परलोए १, “सदेण मओ रुवेण पतंगो महुयरो य गंधेण । " अहवा पुप्फसालिओ सदे अज्जुणयचोरो रूये गंध गंधपिओ रसे सोदासो फासे सबई, परलोए नरगादिभयं, जो एते इहलोइए परलोइए य विसयाण विवागे सम्म उवलमत्ता तेहिंतो नियति 'से आतवि' वेतति, लोगेचि बत्तारो-अहो अण चिरस्स अप्पा जातो, परिपक्खेण ण एसो अध्ययं वेयति, पढिजति य- 'सो आतचं' अप्पा से अस्थि आतवं, बचारोऽवि भवंति - अहो अप्परक्खओ, विवरीयं अणातवं वेतिअह जेण स वेदो तं वेदयतीति वेदवि 'धम्मवि' धम्मं वेययइ धम्मवी, गंभं वेदयति बंभवी 'पण्णाणेण परियाणति' पण्णायति जेण तं पण्णाणं, परि समंता जाण अवबोहणे, लोगो छकायलोगो, सो एवं पष्णामेहिं छकायलोगं च दुबिहाए परिष्णाए परियाणमाणो 'मुणीति बचे' स वयणिजो मुणित्ति वा समणोति वा माहणोति वा, 'धम्मविदु'ति उज्जू धम्मो सभावो सध्वदव्यभावे विदति धम्मविद्, जहवा सुयधम्मं अस्थिकायधम्मं च विदतीति, अंजुति उज्जु, जं भणितं निरुवद्दयं तं च करेति, केण आलंबणेण वएस अप्पमतो जागरति १, भण्णइ- 'आवहसोते संगमिणंति जाणाति' दवावट्टो णदिमादिसु भावाबट्टो संसार एव, 'रागद्वेषवशाविद्धं, मिध्यादर्शनदुस्तरम् । जन्मावर्त्ते जगत् सर्व, प्रमादात् भ्राम्यते भृशम् ॥ १ ॥' सञ्जति जेण स संगो-रागदोसा आवट्टस्संगभूता, तेहिं कम्मसंगो भवति, तेण कम्मसंगेण पुणो २ सजति, वं आवडसोते संग अभिमुहं जाणाति अभिजाणति, जं भणितं ण करेति, अहवा· संगोति वा बिग्योति वा वक्खोडित्ति वा एगट्ठा, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [110] विषयाः ॥ १०६ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१०५ ११०] दीप अनुक्रम [१०७ ११४] श्रीआचा रोग सूत्र चूर्णिः 112001 "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१९८-२१४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १०५-११०] तं मावसोतं संगो, तं अभिजाणति, जाणित्ता न करेति, अहवा अमुणितं अरिजुनं आवट्टसोतसंगति बट्टति, तं अभिमुदं जाणति, जाणिता वायरति, सो एवं सुतजागराणं गुणदोसे जाणओ 'सीओ सिणचापी' सीतउण्हा पुण्यमणिता, चाएति साहति सकेह वासेहि तुट्टाएति वा धाडेति वा एगट्ठा, 'णिग्गंधी' बजान्तरेण गंथेण निम्गंथो, 'अरतिरतिसहे' रति असंजमे अरति संजमे ते दोवि सहेति 'फरूसयं न वेदेति' फरुसं नाम हविरहितं जं तस्स बंधवहघातादि परिस्सहा उप्पति तेहिं न सुम्भइ इति पुढविव्व सध्वसहो अहवा फरुसिय-संजमो, ण हि फरुसत्ता संजमे तबसि वा कम्पाणि लग्गंति अतो संजमं तवं वा फारुसर्य पण वेदेति, जहा भारवाहो अभिक्खणं भारवहणेण जितकरण तेण य गुरुयमवि भारं ण वेदयति, ण वा तस्स भारस्स उब्विययति, सो एवं फारुसयं अवेदंतो 'जागर वेरोवरते' जागराहि धम्मजागरियाए निद्दा जागरेण य, अभिमाणसमुत्थो अमरिसो वेरं, सब्जीवेहिं वेराओ उवरओ वेरोबरओ, अहवा वेरं कम्मं तं हिंसातितो भवति, कारणे कज्जुधाराओ, हिंसातीतो उबरतो, 'वीरे' भणितो, वैरश्वरमा किं भवति ?, भण्णति- 'एवं दुक्खा पमोक्खसि एवमत्रधारणे वेराओ इह परत्थ य दुक्खं भवति, उबरतो तु स कम्माओ संसाराओ य भिसं विविधप्रकारेहिं वा मुच्चति सुखदोसाओ, 'जरामच्वसोवणीए' णरो जिज्जति जेण सा जरा, मरणं मच्चू जराए मच्चुणा य सब्बओ गतो परिगतो, ण तं किंचिद्वाणं जत्थ ण जिजति ण मरति वा, अतो जरामच्चुवसोवणीए, देवलोगे ण होजा ?, तत्थचि अंतकाले ण तहा घितिमादीणि भवंति चयणकाले सव्यस्स जायति 'माल्यग्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पो०' जतो एवं ततो एवं, तेण सव्वं जरामरणपरिगतं जगं, 'सततं' निचं नाणावरणदरिसणावरणोदयेण भावसुतो मूढो, कम्मक्खयकारणं धम्मं नाभिजाणति, एतेण भावसुतदोसेणं 'पासिय आतुरे मो पाणे' सो भावजागरो तेहिं मात्रसुत मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [111] शीतोष्णसहनाद 1120011 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१०५ ११०] दीप अनुक्रम [१०७ ११४] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥१०८॥ “आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१९८-२१४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १०५-११०] जणितेहिं सारीरमाणसेहिं दुक्खेदिं आतुरीभूतो अवत्थं तुरति आतुरो, मो इति पदं वकरणे, पायोति वा, ते तम्भया अप्पमत्तो णिञ्चजागरो परिव्रजति, सव्वतो संसाराओ वयति परिव्रजति 'मंता एवं मतिमं' मतिमं पासयंतो गच्चा एवं जं दुक्खं पासिय आतुरमो, अहवा सुत्तदोसा जागरगुणा एतं मंता, मती अस्त अत्थीति मतिमं 'पासहि'ति पेक्खाहि, पासित्ता मा सुयाहि, अहवा | जो एवं मंता भवति तं मंतिमंति पेच्छाहि-जाणाहि य, 'मंता एवं सहितंति पास' सहितो नागादीहिं आयहितो व सहितो, मतिमां किं पश्यति १, भण्णति- 'आरंभयं दुक्खमिति' आरंभो णाम असंजमो आरंभयं 'दुक्ख' मिति कम्मं 'इद' मिति जं एवं पचक्खमिव दीसति हीणमज्झिमउत्तमविसेसेहिं 'णचा' जाणिता, तेण निग़रंभो धम्मजागरियं जागराहि, जो पुण विसयकसायावादितचेता भावकसायी सो 'मायीपमादी पुनरेति' मायी पमायी य मातीप्पमाति, अहवा मायी नियमा पमादी, एवं कोही वि माणीवि मायीवि लोभीवि, जेण एगंतेण 'उवेहमाणो सररूवेसु' उबेहणा अणाउरो, ण इट्टाणिड्डेहिं विसएहिं रागदोसे करेति, अव्वाचारउवेहाए उबेहति सब्बविसए 'अज्जू' उज्जू जिइंदिओ संजतो भवति, अण्णहा असंजतो, कसायाविद्धस्स किं संजततं १, किं णिमित्तं अजवं भाविजति १, भण्णति-जन्ममरणभया, अत एव भण्यति 'माराभिसंकी' मरणं मच्चू, खणे खणि मारयतीति मारो आवीचियमारणेण ततो मारणा भिसं मुञ्चति, जं भणितं ण पुणो जायति मरति वा, पढिजति य-मारावसकी' सो मुणी धम्मजागरियाए जागरमाणो मारावसकी मरणं मच्चू वा मारो, जं भणितं पाणाइवातो, ततो अवसकृति, कम्मसमारंभाओ वा अवसकति, कहं मारावसकी भवति १, भण्णति- 'अप्पमत्तो कामेहिं' पण प्रमत्तो अपमत्तो, जं भणितं अवहितो, इच्छाकामा मयकामा वा मा मे छलेहित्ति 'उचरतो पावेहिं कम्मेहिं ति दिअवास्स अकुलाओ उवरमणं उपरमो, तहा पाचकम्माणि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [112] मतिम वादि ॥१०८॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] श्रीआचा प्रत वृत्यक [१०५११०] 10 | हिंसादीणि तेहि उवरतो 'वीरो आयगुत्ते' संजमवीरिएग वीरो भवति, मणोत्रायकारहि आतोश्यार काउं भण्णति अप्पए0 पर्यवजातरांग पत्र- अपणा वा गुत्ते आतगुत्ते, के आतगुने ?, भण्णति-'जे पजवजातस्स खेयपणे' अहवा विसयाधिगारो अनुयत्तति, तंजहा-A चूर्णिः । | उवेहमाणो मद्दरूवेसु अप्पमचे कामेसु, ने य विसया पाएहिं जायते, तेण भण्णति-'जो पजबजातमत्थस्स,' तत्थ पञ्जवा दवाणि NI चेव, भणितं च 'फतिविहाण मंते ! पजवा पण्णता ?,' तत्थ सहबिसयपाउग्गेहिं सदा उप्पाजंति, तंजहा-वेणुवायअंगुलिसंयोगपअवयाओ बेणुसद्दो तहा भेरिदंडसंयोगाओ भेरिसहो तालुउट्ठपुडसंयोगाओ भासासदो एवं सेसेहिवि आयोज्यन्ते, तेसिं च विसयाणं अरागदोसा सत्थं, जो तस्स विसयपञ्जवसत्थस्स खेयण्णो, असत्थं पाम संजमो, कस्सइ संजमो सत्थं भवति. अणपातिता, अहबा रागदोममोहातिपजवेहिं जातं अट्टविहं कम्म, तस्स य सत्यं तवो, जेण तवसा णिजरिअति 'से असस्थस्स खेतण्णे'नि असन्थ-संजमो, जो असत्थस्स खेअण्णे स पनवजातसस्थस्स खेतपणे, जं भणितं-जो तबस्स खेतण्णो सो संजमस्स | खेतण्णो, जो संजमस्स खेतण्यो सो तवस्स खेतष्णो, तस्म एवं संजमखेतण्णम्म कम्मबंधी नो भवति पुराणं च तवसा खवेइ, खीणे MAIL य अकम्मो भवति, तस्स 'अकम्मरस धवहारो ण विजति' बवहरणं वबहागे, जं भणितं होति चबदसो, तंजहा-नेरइओत्ति | वा तिरिक्खजोणिोति वा मणुओत्ति चा देवोत्ति वा, अहवा चालो कुमारो जुवाणु एवमादि, जइया वा गामगोत्तमेदा अकम्मस्स NA एवमादि पवदसा ण विजति तेण अकम्मस्स ववहारोण विमति, सकम्मस्स तु विअति, कह ?,'कम्मुणो उबहिं उबही तिविहो आतोवही सरीरोवहि कम्मोवहि, तत्थ अप्पा दुप्पउत्तो आयउवधी, ततो कम्मुवही भवति, सरीरोवहीओ बवहरिजति, तंजहा0 नेरइयसरीरो बबहारेण उ नेरइओ एवमादि, तहा बालकुमाराति. भणियं च-'कर्मणो जायते कर्म, ततः संजायते भवः। भवा- १०९।। दीप अनुक्रम [१०७११४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [113] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१९८-२१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०५-११०] गंग सूत्र लेखादि चूर्णिः ॥११॥ प्रत वृत्यक [१०५११०] च्छरीरदुःखं च, ततवान्यतरो भवः ॥ १॥ जतो एवं कम्मोषाही जायति तेण 'कम्मं च पडिलेहाए कम्ममूलं च जंगणं कम्मं अट्ठविई च पूरणे, पडिलेहा णाम कम्मसंभवो बंधो य मूलुत्तरपगडि, अहवा पगडिबंधो ठिइबंधो पदेशबंधो अणुभागबंधो, एतं पडिलेहाए, कम्ममूलं च जं छणं, मूलंति वा प्रतिष्ठानंति वा हेतुत्ति वा एगट्ठा, छणणं हिंसा, एवं मुसापायायीवि, रागदोसमोहो चा कम्ममूलं भवति, तप्पदोसणिण्हवादी य कम्मे हेऊ, परिजइ य 'कम्ममाहूय जं छणं' कम्म आवहतीति कम्मावह, कम्म चाणुकरिसणेहिं अणुकरिसयति, कम्मं च पडिलेहे इह य बज्झति, सो एवं पडिलेहिय सब्वं 'समायाए' नाणयुद्धीए पडिलेहिता सम्म आताय, जं भणितं-सम्म उवदेस गिण्डित्ता, 'दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे' दो इति संख्या रागदोसेहिं अदिस्समाणो रागी रागेण दिस्सति एवं दोसीवि, वीतगगो दोहिंवि अंतेहिं न दिस्सति, परिष्णा मेहावी य पुब्बभणिया, विदित्ता लोगं वंता लोगसपणं' विदिचा सम्म उवलमित्ता जीवलोयं कसायलोयं वा तस्विवागे य, भणिया विसयकसायसण्णा, जावइया चा लोयसन्ना एताउ वंता एगाए धम्मसण्णाए मइमं परकमिजासित्ति बेमि 'स' इति स सीतोसिणच्चाई सेहो परकमिजा, परिकमिजासि घडिआसि जोजासि, सीहो वा, ण पळताब अवलंविञ्जा, सो ण सीहत्ताए निक्खंतो सियाललाए विहरति, सिपालताए निलंतो सीहत्तार विहरति, भङ्गा चत्वारि, बेमि, एवं सीओसणीयतृतीयाध्ययनस्य प्रथमः।। उसस्थामिसंबंधो स एव, वितिए भावसुत्तफलं दुई अणुभवति, अणंतरसुचे 'मतिमं परकमिजासि'ति, इहवि 'जातिं च | बुडिं च इहज पासे (४-१५८) पासंति बुद्धीए, परंपरसुने 'विदिता लोयं वंता लोयसणं' विदित्ताण पच्छा उदाय, इहवि | जाति च बुद्धिं च इहऽय्य जाया संजाणाहि य, तत्थ जणणं जायते वा जाति, जं भणित-पयि, वणं बड़ते वा चुडी, जं भणितं दीप अनुक्रम [१०७११४] ॥११॥ HTTARN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | तृतीय-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'दुःखानुभव' आरब्धः, [114] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] श्रीश्राचा गंग सूत्र- चूर्णिः प्रत वृत्यक [१११११४ जरा, तन्थ य जं वुत्तं वितिए दुक्खं अणुभवंति, तंजहा- जातिं च बुडि च, भणितं च-"जातमाणस्स जं दुक्ख, मरमाणस्स -IDजातिदर्शतुणो। तेण दुक्खेण संमूढो, जाति ण सरति अप्पणो ।।१।। एवमादि, 'इति इह माणुस्से 'अजे ति गाणुप्पत्तीए आदितो नादि भगवं गोतमं आह, जातिं च बुद्धिं च अओब पस्सामो, थेरा दतॄण य संबुझे बहुविग्याणि सेयाणि, अहवा 'अज' इति आमंत्रण हे आयरिय! खेतओ जाइओ कुलाओ, पासाहि णाम पेक्वाहि, जातित्ति गम्भसंपीलणा, एस चेव दुर्व, बुडित्ते चंकमणातिपयोगेहि सन्चया तातिं दुक्खं पास, भणितं च-"दसमं च दसं पत्तो"एवं पस्सित्ता तब्भया भूतेहिं जाण पडिलेह मातं, साता भणिता, जेण णाम जाणमाणो अयोवमेण सबभूयाणि सुहप्पियाणि, एवं नचा तेसिं पडिलेह सात-सुई, सातविवरीतमसातं, जह तुज्य | | सातं पितं अस्सातं अप्पितं एवं अण्णस्सवि, एवं पचा अण्णस्स अस्सातं न कुञ्जा, अतो जम्मातिदुःखं ण पाविहिसि, मणिय | च-"यथेष्टविषयात्सातमनिष्टादितरत् तव । अन्यतरो(अपर)ऽपि विदित्वैवं, न कुर्यादप्रियं परे॥१॥"जम्हा एवं 'तम्हा तिविजे परमंति णचा' विञ्जत्ति हे विद्वन् ! अहवा अतिविज्जू, पर माणं जस्स तं परम, तं च सम्मदंसणादि, सम्मईसणनामाओवि चरिन, मणियं च-"सुयनाणम्मिवि जीवो वस॒तो सो ण पाउणइ मुक्खं । जह छेतलद्धणिजामओवि०॥१॥" चरितस्स परं निव्वाणं, अहवा सम्मईमणं परं, भणितं च-"भद्वेण चरिचाओ सुठुयरं दमणं गहेयध्वं । सिझंति चरणरहिया ईसणरहिया ण सिझंति ॥१॥" | सो एवं 'सम्मईसी ण करेति पावं' पंसेति पातति वा पावं, तं च हिंसादि, तस्स तु मूलहेऊ रागदोसमोहा, तेहिवि गरुयतरा णेहपासा इतिकार भाति-'उम्मुंच पासं इह तुज तं उभयं वा मुंच उम्मुंच, दबपासा रज्जुमादि विसयकसाया भावपासा, 'इहेति' इह माणुम्से, तत्थ नरदेवेसु अर्णताणुबंधिणो कमाया कोह मुंचति, तिरिक्खजोणियसु जाव वितियकसाया, १११॥ eName दीप अनुक्रम [११५१२४] म मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [115] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१११ ११४] दीप अनुक्रम [११५ १२४] “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [२१४... ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा २] श्रीचा गंग सूत्रचूर्णिः ॥ ११२ ॥ मणुस्सेहिं सच्चे मुंचतित्तिकाउं भणति - उम्मुंच पास इह मच्चिएहिं अहवा पुत्रकलत्रमित्रादिपासे विसयकसाए य उम्म्रुच इह मच्चियेसु, किमत्थं कामातिपासा मुंचति १, भण्णति-सो कामभोगलालसो तेसिं आदाणहेऊ हिंसादीणि पावाणि आरंभति, अतो | सो 'आरंभजीवामुभयाणुपस्सी' आरंभेण जीवतीति, तंजहा इमं छिंदह इमं मिंदह इमं मारेघ सो एवं आरंभजीवी, महारंभपरिग्गहो रहे बंधवहरोधमरणावाणाई भयाई अणुपस्सति, अणुगतो कम्मेहिं परसति अणुपस्पति, जं भणितं - अणुभवति, | जहा चोरादि, परलोगे परगादिभयाणि, किं एवं आरंभपरिग्गहेण परे अणेगदोसा ?, भण्णति- 'कामेसु गिद्धा णिचयं | करेंति' इच्छाकामा मयणकामा य, गिद्धा मुच्छिया अहिओ चओ णिचयो, दब्बे हिरण्णादि तन्निमित्तं एवं भावकम्मणिचयं | दिग्घसंसारियं तचिंता तम्मणो करेति पाउसे उष्णया महामेहा सस्माणि णिष्फाईति सम्मं समत्थं वा सिंचमाणो, समणपंडिया हिंसादीहिं आसवदारेहिं अणिवारितप्पाणी तं कम्मणिचयं पुणो २ पासंति तेण गुरुसंभारकडेण आग रिसिजमाणा पुणो २ एंति गन्भगतदुक्खाणि, वकसेसेणं, सो एवं अविरतो 'अवि से हासमासेना' अवि सो इमिणावि हंता इंता, मंदि पमोदो हरिसो | एगडा, किं पुण सातिउवभोगत्थं जो मारिता गंदी मध्णति है, तत्थ कालासवेसिकपुत्तो जंबुषं हंता मंदि मण्णयंतो, एवं मुसावायं भासिता, तहा अदत्तादाणं, मेहुणपरिग्गहेवि मंदि मण्णति, किं पुण उपभोगत्थं १, तच्च तस्स सहासेणावि कतं पार्श्व अलं बालस्स संगाय, जं भणितं पचं, संगोत्ति नरगातिगमणं संगाय, जं मणियं कम्मबंधाय, एत्थ लोइयं उदाहरणं-दसता किल संवेन, दुर्वासाः कोपितो ऋषिः । तेन विष्णुकुलं दग्धं, इसतं पितृघातकम् ||१||” किमु अलं संगेण १, भण्णति-'वेरं वड्डेइ अपण भावकम्मपि वद्धासओविव वेरी सुचिरभावितं पात्रफलं निज्झाएति अतो वेरं जओ य एवं 'तमहाऽतिविज्यं परमंति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [116] पाशोन्मोचनादि ॥ ११२ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१११ ११४] दीप अनुक्रम [११५१२४] श्री आचा गंग सूत्र चूर्णिः ।। ११३ ।। “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ २१४ ...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १११-११४/ गाथा- २ ] 'या' तम्हा वरवरमा विद्वन् परमत्थोवकरणं वेरउवरमो गच्चा-जाणिता, आतंको दव्य आतंका भावार्तका य पुण्वभणिता, तं आतंक पासति आतंकदंसि ण करेति पावं- हिंसाति, कहं पुण पण करेति १, 'अग्गं च मूलं च' अग्गे भवं अगं रुक्खपञ्चतादीणं, दव्यमूलमवि रुक्खातिमूलं अस्थि पुण कोयि रुक्खो मूलच्छिष्णो ण विणस्सति जहा खंधबीया सल्लहमादि, कोषि अच्छिण्णेऽवि णस्स जहा तालो, भावगं भावमूलं च उदयभावनिष्कण्णं, तंजहा- चनारि घाइफम्माई मूलं केवलिकम्माई अग्गं, एयं अग्गं च मूलं च विगिंच वीरे, अहवा अट्ठ मूलपगडीओ अम्गं मिच्छत्तपंचगं वा मूलं सेसा अंसा अग्गं, अहवा मिच्छतं बारसकसायायमूलं सेसा अंमा अग्गं, मोहणिअं वा मूलं सेसप्पगडीओ अम्गं, विगिंचना नाम उज्झित्ता पिहीकरिता, पढिजइ य-मूलं ब अग्गंच वय वीरो' तत्थ मूलो असंजमो कम्मं वा, अग्गं संजमो तबो वा अहवा बंघो मूलं मोक्खो अग्गो, भदंतणा गज्जुणिया तु पति मूलं च वियेतु वीरे, कम्मासवा वेति विमोक्खणं च' अविरता अस्सवे जीवा विरता णिजरंतिथि, इश्वेवं तवसा विगिच कम्माणि 'पलिछिंदिया णाणि कम्मदंसी' संजमेण नरगादीणि कम्मबंधपाणि समंता छिंदिय पलिछिंदिय, सो एवं पलित सो बसा वीगिचति कम्माणि णिकमदंसी, ण तस्स कम्मं विजतीति णिकम्मा, को सो ?, मोक्खो, णिकम्माणं पस्तीति णिकम्मदंसी, तदर्थं घडति उअमहवा, णिकम्माणं वा दरिति निकम्मदरिसी-सिद्धदरिसि मोक्खदरिसी वा 'एस मरणा पमुञ्चति' एसोति भणितो किम्मदरिसी भवित्ता पच्छाssविजिगमरणा सच्वो वा संसारी मरणं ततो मिसं मुचति पमुचति, जो एवं मरणातो पमुच्चति मोएति वा अण्णेसि ते 'से हु दिङ्कपड़े मुणी' सो इति से मूरुजाणओ छिया वा मरणा मोयमाणो मुन्यमाणो वा सम्मति जेण सो पंथो नाणादि स एवेगो मोक्खदिडुपहो भवति, अहवा दिवडे दिट्ठो वही जेणेव अहवा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [117] अग्रमूलादि ।। ११३ ।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१११ ११४] दीप अनुक्रम [११५ १२४] श्री आचा गंग सूत्र चूर्णिः ॥११४॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [२१४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा - २] विवागो य सो दिनुबहो तं दण ण करेति, अहवा से हु दिनुभए मुणी, दिई जेण संसारियं जरामच्चुवावि भयं सारीरं माणसं च अप्पियसंवासाति पर आतउभयसमुत्थं स एवेगो लोगंसि परमदंसी, लोगो तिविहो- उड़ादि, छञ्जीवकायलोगो वा, परोसंजमो मोक्खो या परं परसतीति परमदंसी, सीतोसिणगार साधुचि वचति, जम्मा तिदुक्खमीरू 'विवित्तजीवी उवसंते' अणेसणाति दोसेहिं विविनं आहारति, दव्वविवित्तजीवी इस्थिपसुपंडगसंसत्तिविरहियासु बसहीसु वसमाणो, भावविवित्तजीवी रागदोसा भाविता जीवी असंकलितब संजमजीवी वा उवसंतो इंदियनोईदिएहिं 'समिते' इरियातिसमिते 'सहिते' नाणादि सहितो, अहवा विवित्तजीवितेण उवसमेण समितीहि य समयागतत्था सहितो 'सता' णियं स तेहिं चैव समितिमाइयेसु 'जते' चि जाति, केचिरकालं जते १, भण्णति- जाव मच्चूकालो ताय 'कालकंखी पडिब्बए' य पंडियमरणकालं खमाणो समंता गामनमरादीणि वये परिव्यये, जं भणितं जावजीवाए सीतंउंसिणचाई अहियासतो परिव्यय, किमत्थं एसो पयतो जावजीवाए अणुपालिअ १, न तु अप्पेण कालेन तबसा कम्माणि खविनंति ?, भण्णति'यहुं च वलु पावं कम्मं' बहुमिति मृदुत्तरपगतिवि हाणं दिग्पकालद्वितीयं तं च भगवं जाणइ, जहा ण एवं अप्पेण कालेन अवेति तेण तक्खवण्णत्थं भष्णति कालरुंखी परिव्ययति 'सरांसि घितिं कुम्ह'ति सम्भो हितं सबं संजमो वा सयं तत्थ करेह, अणलियं वा सबं, जावजीवाए संजमं अणुपालिस्वामि परिष्णा य जहापरिष्णं अणुपालतेण सचं, अष्णहा अलियं, तेण सबंसि घिति कुव्वमेव अहवा 'वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिध्यान नुवते क्वचित् । आगमो ह्याप्तवचनं, आप्तं दोपक्षयाद्विदुः ॥ १ ॥ वीतरागोऽनृतं वाक्यं न ब्रुयाद् हेत्वसंभवात् ।" अतो सचं तित्थगरवचनं, सचं तंमि घिति कुous मिस्सामंतणं, किंच 'एत्थोवस्ते'ति सथपरिपक्वे अलिए सच्चाधिट्टितवाण या मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [118] पचादि ॥११४॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१११ ११४५ दीप अनुक्रम [११५ १२४] श्रीआचा गंग सूत्रचूर्णिः ॥११५॥ “आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन] [३] उद्देशक [२] नियुक्ति: [२१४..] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १११-११४ / गाया-२] - परिपक्खे, उबरतो णिन्वितो मेहावी भणितो, सयं-अपरिसेसं पार्व-अविहं कम्मं भवं वा झोसेर, जं भणितं सोसंति, भणितो अप्पमादो, तेण कसायादिपमादण पमत्तो 'अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे' अणेगाणि चित्ताणि जस्स स भवति अणेगचिचे अत्थोवअणे ताव 'कश्या वञ्चति सत्थो०' दघिपडियादरिद्देण कविलेण य दितो, 'अगं'ति जो पमत्तो, पुरिसजणो पुरिसो, दव्वक्रियणं चालणि परिपूणओ वा एवमादि दव्यकेयणं, अरिहतित्ति इच्छति, भावकेयणं इच्छा, साण सका बहुएण विहाणेण पूरेडं, भणितं च- "जहा लाभो तहा लोभो०" गाहा, न शयानो जयेनिद्रां न भुंजानो जयेत् क्षुधाम्। न काममानः कामानां, लामेनेह प्रशाम्यति || १ ||" एवं से अणेगचिते इमेहिं उवाएहि अत्थं उदक्षिणति, तंजहा- 'अण्णवहाए' अण्णो णाम परो अबंधु अणुस्सितो वा, जहा चोरा धणियं मारता तं घणं गिण्हंति, रायाणो संगामाइएस पूरे मारेंति, परितावणं च कंप्पणपकप्पणक सप्पहाराई हिं दासीदासमिच्चञ्चलादीणं परिग्गहो, जं भणितं सच्छंद निरोद्दो, कोयि जणवयवढाए, जह मिच्छादी करेंति, पररकुमडणे वा रायाणो य जणवयं परितापयंति, बंधातादीहिं परितावैति जणवयं अवराहेवा, 'जणवगपरिग्गहाए' ति ममेतं रअं रहुं वा, एवं पररपि परिगिति विकमेण, एरिसाणिवि कोइ कम्माई करिता पञ्चाति ?, आमं, तंजदा 'आसेवित्ता एयमई'ति जो एसो जणवयवहाति भणितो इश्च्चेयं आसेवित्ता एगे समुट्ठिता भरहाति संजमसमुडाणेणं सम्मं उडिता तेण भवग्गणेणं सिद्धिं पत्ता, एवं चेत्र अज्जूणप भवगादीणं च पृथ्वखरकम्माणं सिक्खगाणं समानासो आलंबणं च 'तम्हा तं वितियं' संजमममुडाणेण उत्थाय कामभोगहिंसादीणि वा आसवदाराणि अहवा बितियं णाम पुणो २ 'त' मिति विमयसुहं असंजमं वा आसेवणं करणं, सहस्ससोवि आसेविजमाणाणं विसयाणं तिसिजभावे 'णिस्सारं पासिय नाणी गाणी णाम जो विसए जदावट्टिते पायति, 'किंपाकफल-' मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः wwwwww [119] उपरतादि ॥ ११५।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] वादि वीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥११६|| प्रत वृत्यक [१११११४ || समाना विषया हि निषेव्यमानरमणीयाः। पश्चाद्भवन्ति कटुकासपुषिफलनिबन्धनस्तुल्याः॥१॥ चुडलिविव मुंचमाणगल्या, | अहवा 'णिस्सारं माणुस्सं जलयुबुदममाणं तं पासिय, ननु संसाराणि विसयसुहाणि मणुयाणं देवाणं च, मणुस्सेसु चक्कवाद्विवल-11 देववासुदेवादीणं, सुराणं इंदसामाणियादीणं, भष्णति अणिञ्चत्ता जिस्सारा, अतो य 'उववातं चयणं च णचा' उपपतनं उव-11 वातो, जं भणितं-जम्मं, चयणं णाम मरणं, ण य तेल्लोकेवि तं ठाणं अस्थि जत्थ उवधातो चयणं वा ण भवति, तेणं चयणोव-IN | चातजुत्तत्ता संसारो निस्सारो, अचंतसुद्दो ण भवति, जतो एवं तेण जम्ममरणभीरू णिचं अप्पमत्तो 'अणणं चरति परममा. |हणे' अण इति परिवञ्जणे ण अण्णं अणण्णं अतुल्लं वा नागाइ मोक्खमग्गं चरति समणोत्ति वा माहणोति वा एगट्ठा, एवं अणण्णं । | चरमाणो माहणो ण हणे ण हणावए हणतं नाणुजाणए, अहवा अत एव सो अणण्णं संजमं चरति जेण न हणे ण हणावए, समं | अतुल्ल अणण्णचरित्तपालणत्थमेव पंच महात्रताणि, तत्थ आदि अहिंसा, तप्पसिद्धीए भण्णति-'से ण छणे' ण किंचिवि सत्थं जोगतियकरणत्तिएणं ण हणे ण हणावए हणतं पाणुमोदए, चउत्थव्रतपसिद्धीए भष्णति-"णिविंदधा गंदी' अविमणे णंदि | पमोदो, पिच्छितं विंद णिविद, सयहि असंजमे जो गंदी विसएसु आतसरीरे वा पुत्रकलत्रादिसु वा णिबिंद-गरहह, एवं | णिच्छितं चिंद जह एते सद्दादि किंपाकफलसमाना, तेसिं च विसयाणं फरिसो गरुउत्ति अतो तप्पडिवजणत्थं आरभ्यते, 'अरते | | पयासु' पयांति पजणेति वा पया, जं भणितं इत्थाओ, तासु तिविहेण अरञ्जमाणो णिविञ्ज गंदी, अदचादाणपरिग्गहावि इत्थिराणिमित्तमेव सेविजंति, एगग्गहणे गहणं, उत्तमधम्माणुपालणत्थं च 'अणोमदसी' ओमं णाम ऊणं ण ओमं अणोमं दरिसणं, जं भणितं-उत्तमसम्मदिट्ठी, अणोमाणि वा नाणादीणि पासति अणोमदंसी, ताणि य उत्तमाणि आरभति, अहवा तहा तहा अप्पाणं दीप अनुक्रम [११५१२४] ॥११६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [120] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] प्रत वृत्यक दंसेति जहा अण्णेहि ऊणो ण भवति, सप्णो' अणुओ, अहियं सष्णो णिमणो, पात्र हिंसादिसु पावकम्मेसु कायब्वेसु य णियत श्रीआचासंग सूत्र |णिच्छित वा मण्णो णिमण्यो, जं भणित-तेसु अणायरो, निसण्णाणि या जस्स पाबाई कम्माई स भवति णिसण्णो, अहबा अपुचूर्णिः | व्याणं अणुवचये पुब्बकम्मेहि णिमण्णेहि, जं भणितं खवणाविक्वेहिं, पढिाइ य 'तेसु कम्मे पावं कोहादि कसाया, अत एव | ॥११७॥ | भण्णनि-'कोहादि माणं हणियाद वीरे' कोहादिग्गहणा कम्मदरिमणं, एवं कोहादिकमाया, कोहपुधगो य माणो तेण कोहादि, कहं ?, जातिमंतो हीणजाती भणितो पुवं ता कुज्झति, पच्छा मजति, मम एसो जातिं कुलं वा णिंदति अतो कोहादि, अणं| ताणुवं धादि एकेको चउबिहो, सम्बे हणाहि, अणिमण्णकम्मस्म कोहातिपावकम्मपवत्तस्स किं भवति ?, भण्णति-'लोभस्स' पावलोभे वट्टमाणस्त महंतो गरगो भवति, ठितिपरिणामेहि महतो, इह तु ठिती विवक्खिया, वेयणा वा, अप्पइट्ठाणो खित्ततो सब्बखुट्टो, टितिवेयणाहिं महतो, जहा लोभो तहा सेसेहिवि, पायसो लोभेण महतो परगो णिव्यत्तिजति, जेण उरगा पंचमि । जंति लोभुकडत्ता य मच्छा मणुगा य समि, अहवा एगग्गहणं, अणेगविचाति एगबहाती य महंतगरगभीतो णिस्सारं माणुसं rel पस्समाणो अणण्णधम्मं चरमाणो छणणउबरतो णिबिदमाणेण अणोमदंसिणा णिसण्णपात्रेण गरगादिभयभीतो 'तम्हा ही वीरे' । ही पादपूरणे, तम्हा इति जं एतं भणितं, धीरो पुख्यमणितो, विरतो नाविरत्ता, जं भणितं विरतिं कुरु, वधो हिंसादिग्रहणा सेसेहिवि, IN सो एवं पिहितस्स योच्छिा , सो तं दम्वेण दिसादि भावे रागादि हिंसाति वा, लभूत अप्पाणं कामइत्ति इच्छाकामा गहिता, लहु संजमो अनुद्धतो वा, अहवा उडगतिसाभब्वेवि जीवो कम्मगुरुत्ता मट्टियालित्तअलाउदिट्ठनसामत्थेग उई जाति अमुके, । लहुभूतो जाति खीणकम्मा अतो तं लहुभृतं, पटिअइ य 'छिदिना मोतं न हु भूतगाम' भूतग्गामो चोदसबिहोतं ईरियाइजुत्तो । ११७।। ROMAGARANJANARDAN ११४१ दीप अनुक्रम INDIA १२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [121] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११४/गाथा-२] प्रत वृत्यक [१११११४ श्रीआचा- छिदिक्षा सोपयोगो वक्खमाणो, तंजहा-अमिक्खमे व पडिक मे. सोएवं पावजागरो लभृतगामी जतो भावसुत्ता दुवं अणुभवति । अन्धादि गंग सूत्र-0 अतो 'गंध' गंधणं गंथो, सो य दब्वे भावे य, तं जाणणापरिणाए ममततो णचा, जं भणितं सबप्पगारेसु, 'इह' पत्रयणे, चूर्णिः ॥११॥ IA अजेब ण चिरा, वीरो मणितो, सोतं' तस्सेव अट्टप्पगारस्स कम्मस्स हिंसादि पगड़िता, ते पञ्चक्खाणपरिणाए परिण्णाय, चरे IN इति धर्म, दंतो इंदियनोइंदिरहि, उम्मग्गणं उम्मग्गो, जं भणितं उत्तरणं, चम्मच्छादितदहकलभदिलुतो दब्बुम्मग्गे, भावुम्मग्गे | 'माणुसत्तं सुती सद्धा, संजमंमि य विरिय' । णाणाइतियं वा, अहया नाणं दरिसणं च अण्णत्यवि भवती, चरित्नं अमाणुस्सेसु ण | भवति, अतो चरितं भावुम्मग्गो, 'इहे'ति इह मणुस्सेसु 'णो पाणिणं पाणे' छविहो पाणो अस्स संतीति पाणी, तेहि वा विअंति, तेसिं पाणिणं पाणसमारंभो घातणा, सो य जोगत्तियकरणत्तिएणं ण कायच्चो इति, एवं बेमि । एवं सीतोसVAणिजस्स द्वितीय उद्देशकः ।। उद्देशसम्बन्धो जातिबुद्धिीओ दुक्खं, तम्भया सीतउण्डसहेण भवितब्ब, इह तु अतिपसत्थलक्खणमितिकाउं भण्णसि 'संधि लोयस्स जाणिना सुनस्स सुत्तेण 'जो पाणिणं परणे' चरित्तं गहितं, हह हि तदेव चरितं संधित्ति, दन्नसंधी कुडभेदो बतिमेदो वा, भावसंधी कर्मविधरो, जं भणितं संजमावरणोवसमो, जहा बडो णियलसंधि चारगसंधि वा कडगवतीसंधी वा लद्धृग णस्संतस्म सेयं भवति, एवं कम्मनियलबद्धस्स भवचारगाओ खयोवसम सेविचा अप्षमाओ सेओ, अहबा साहणं संधी, जं भणितं कारणं, IN नाणादीणि निवाणयाहणाणि, लोकतीति लोगो, नचा उबलद्धाय नाणादितिय, 'आततो यहिता' जह अप्पणो अप्पियं दुक्खं एवं बहिद्धावि अप्पयतिरिचाणं 'जद मम ण पियं दुक्ख.' जतो एवं 'तम्हां ण हंता णो घाता' ण मयं हंता गो अण्णेहि ॥११८॥ दीप अनुक्रम [११५१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अक्रिया' आरब्धः, [122] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] श्रीआचागंग सूत्रचूर्णिः प्रत वृत्यंक [११५१२०] घातावए, उदिस्सभोगणो कतिस्थिया जतिवि केपि.धूले सने सयंपागातीहि ण हणंति तहावि अहिं घाताविति. एवं जाव राहणो । भोयणं, एवं सम्म आमयनिरोहणं समणो भवति, णिचाणं च का, जतो भण्णति-'जमिणं अण्णमपणं' 'ज' इति अणुद्दिट्ठस्स इदमिती पञ्चक्रवं, अण्णो य अण्णो अध्यामण्णो, वितिगिच्छा णाम संका भय लजाबा, एता पेहाए पार्व-हिंसाति पयणपयावणापरिम्गहातिलक्खणं, किमिति परिपण्हे खेद य, एत्य खेद, तंमि तत्थ, मुणिस्स कारणं-अट्ठो हणातीति मुणिकारणाणि ताणि, तत्थ ण संति सुण्या वा, तिष्णो परमत्थसच्चओ णिस्मभावं जग चावि काणिवि अदुतराणि कम्माणि ण सयं करेंति सर्यपागरुक्खछैयादि, संखाणं तु पत्ताणं उवभोगो, एवं इच्छंतोऽचि लोगसंकयाण सहमापदारमसलक्खणाई (१) करेंति, ण तत्थ मुणिकारणं सिया, सिस्सो वा पुच्छति-जमिणं अण्णमण्णपि तंजहा लजाए वा भएण वा गारवेण चा आहाकम्मातिणि परिहरति पडिलेहणा-| तिणि ण करेति मामखवणाति वा करेति आतावेति वा अण्णतरं वा किंचिं तबोकम्मं जातं करति तत्थवि ताव मुणिकारणं ण || अस्थि, किमंग पृण जो नाणदंसणमहितो हिंसादि जाब मिच्छादसणसल्लं एगतो परिमागतो वा परिहरति, जतो एवं अप्णमण्णं | अकुव्वतोऽवि पात्रं भवति, मम्मदिट्ठीणं ण भवति, तेण 'समयं तत्थ उबेहाए' समभावं जहेब दिस्समाणो परेहि हिंसादीणि आसवादीणि परिहरति नहा अदिस्यमाणोऽबि अतो समता, अहवा समता 'णस्थिय सि कोयि वेसो' अहवा तवेण नाणाधिवो या पुष्यं वा जातिसंपण्णो आसी सेसमाहिं ममतं तस्येति तहि धम्मे उबेच इक्खा उविक्खा एताए सम्मत्तउविक्खाए 'अप्पाणं | विप्पसानए' पगतं साह वा मातए विविहं पमायए विप्पमातए, समभावे इंदियपणिहागे अधम्माते य पपायये, अवा अप्पणा | परमं एत्य विप्पमातए, णत्थि एतस्स अणण्णपरमं, किं तं, चरितं, नाणे भणिते सम्मबिट्टी भणिता, एवं नेण अणण्णपरम दीप अनुक्रम aunee [१२५ १३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [123] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] अप्रमाद श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१२॥ प्रत वृत्यंक [११५१२०] चारितं अणण्णपरमं नाणं 'णो पमायए कयायिवित्ति दियावि राओऽवि, अहवा अणण्यपरमे णाणी ण पमायए सव्वावस्स- | एसु, अप्पमायविही 'आतगुत्ते सता' इंदिरहि आयोवयारं काउं भण्णइ-आतगुत्ते सया-णिचं, वीरो भणितो 'जातामाताएहि जेण संजमजत्ता भवति तम्मचेण सरीरं जावए, अतिणि द्वेण अतिप्पमाणेण वा आहारेणं नो इंदियगुती भवति, भणियंच"अतिणि ण चलिअंति" 'जावए' इति ण एगंतेण दुक्खेण धम्मो भवति, ण वा तस्स अकरणेणंति, तं तु णियतमणियतं वा, | सरीरधारणथं तं कुञा आहारं जेण जप्पं भवति, "आहाराद्यर्थ कर्म कुर्यादनिन्य, कुर्यादाहारं तु प्राणसंधारणार्थम् । प्राणाः संधास्तिचजिज्ञासनाथ, तवं जिज्ञासां येन दुःखाद्विमुच्चे ॥१॥" कहं आतगुत्ते? 'विरागं स्वेहिं गच्छेज्जा' विरम(ज)णं विरागो, रूवं अतीव अक्खिवति तो नग्गहां, अहवा विरुवस्स सदातिविसएसु रूपं विणिंदति, जहा पुप्फसालसुयस्स, महा पाधण्णे, इह |पाधण्णे घेप्पड़, जागि रूवाणि तागि महंताणि दिव्याणि मज्झिमाणि मणुलाणं खुड्डाणि तिरिक्खजोणियाणं, अहवा आदिअंतग्गहणेण मज्झम्गहणं, एकेकं तिविहं, तत्थ मणुस्माणि जाणि उक्कोसाणि ताणि मतागि, काणखुजाकोढियादि खुट्टाणि, सेमाणि मज्झाणि, एवं दिनाणि तिरियाणिवि, ति विहाणिवि बुद्धि अविक्खाई, एवं से सविसरहिआयोअं, भदंतनागज्जुण्णिया बिसयपंचगंमिवि नियंतिय भावतोमुच जाणित्तासे ण लिप्पति दोसुवि'किं आलंबणं?'आगसिंगति' तेसिं चउहिवि गईहिं| पंचविड़ा गई गई, एमु एकेकीए गईए चनारि त दुक्खाणि य भाणियवाणि चउगइसमासेण, पंचमगइमुहं च, सो एवं संसारगतिदुक्खभीतो मोक्खगतिसुहगवे सी रूवातिमु विमयसु 'दोहि वि अंतेहिं अदिस्समागे दुण्णि रागो दोसो य, तासु यो वट्टति || | सो दिस्पति, तंजद्दा-रनो दुट्ठो बा, सो एवं रागदोसेहि अवट्टमाणो चउग्गइए संपारे 'से ण छिति' तत्थ हन्थपादकन्ननामा दीप अनुक्रम [१२५ १३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [124] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [११५ १२०] दीप अनुक्रम [१२५ १३३] श्रीजाचा रोग सूत्र चूर्णिः ॥ १२१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [२१४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] सिरातिच्छेदो भेदो कंटगसूची सलग्गातिएहिं गिहाविएहिं ण उज्झति कडगअग्गिणा वा एवमादि, ण हम्मेति कसादिएहिं भणियं च - " यस्य हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्रं च सुसंयतम् । इंद्रियाणि च गुप्तानि, राजा तस्य करोति किम् ||१||" 'कंचणं' ति केणइ कयावि, 'सब्बलोगो'त्ति खेचं भणितं भणियं च "स णो बहूणि इत्थछेयणाणि जात्र पियविपयोगे पारिस्सड, निव्वाणे य असरीरतं लभित्ता से ण छिअति" इति एवं पडुप्पण्णेसु सद्दातिसु विसएस दोडिंब अंतेहिं अदिस्समाणे, पडुप्पण्णेसु बिसएसु गुणो भणितो, अतिकंतेसु स्वादिसु बिसएस निरोहो कायव्योति भण्णइ 'अवरेण पुढं ण सरंनि एगें' गत्थि एयस्म परंति | अपरो, को सो ?, संजमो तबो वा, तेण अपरेण संजमेण तवसा वा गच्छित्ता ण पुत्रविसयसरणं करेति, मणियं च "णो पुन्त्ररतपृथ्वकीलियाई सरेजा" जहा सुहसंजोगो तवासी, तं अणि विसयसंपयोगंपि ण सरति, जं भणितं उब्धिजति णो णाम, रागदोसविरहिए, एवं अभागएसुचि दिव्यमाणुस्स विसयसंपओगे नाभिलसक्ति, जहा पुत्रभवे वासुदेववं भदत्ता, दुक्खाणि विसमचत्रगगन्भवासादि तेसिं हेतुं न सरति, जं भणितं तेसु न विरजति, अहवावि सो पुच्छति 'अवरेण पुढं' अबराओ जम्माओ पृथ्वजम्मणं ण सरति, परे कुतित्थिया किमतीतं । केवतिओ से कालो अतीतो ? केवइओ अगागतो? केवइयाणि मरीराणि वा अतीताणि? केवइयाई वा अणागताई ?, भष्णति-किं एत्थ चिसं अति असन्वष्णू ण याणति, लोगुत्तरा भासंति- 'एगे इह माणवा तु' एगे णाम ण सव्वे, केवलियो, जे एगे केवलनाणे ठिता रागदोसमुक्का वा एगे, किं भासंति ?, 'जमस्तीतं' अणातिनिहणत्ता जीवस्स जावइओ कालो अतीतो तावतियो आगमेस्सोवि, तहा सरीराणि जम्माणि दुक्खं संपयोगो अभव्याणं भव्वाण केसिंचि, केह पति- 'किह से अतीनं किह आगमिस्संण सरंति-ण याणंति अपणोऽवि, किन्नु अण्णेसिं १, एगे कुतिरिथया किमिति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [125] छिदायभावः ॥१२१॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] प्रत वृत्यक [११५१२०] परिपण्डे, केणप्पगारेण जं अतिकंत-अतीतं कह या आगमिस्स !, भण्णति-'भासंति एगे जह से अतीतंतहा आगमिस्स' गंग सूत्र | 'जहे'ति जेणप्पगारेण जहेब तस्स रागमोहसमुत्थेसु कम्मेसु बाहिस्सतस्स जं अतिकंत-संसारस्य अतीतं तहा अणागतमवि अब-1 चूर्णिः ॥१२२॥ सस्सपमादेण कम्माणि उवचिणित्ता इट्टाणिदुबिसये अणुभवंतस्स संसारो अतीतो तहा अणागतोवि, तत्थ अणेगसोऽवि इलेहिं विस-| PAएहि आसेविएहि ण तित्तो, एतेण अणुमाणेणं अणागतेवि तित्र्तिण जाहिति, अतो भण्णति-ततो तत्थ अतीतो अट्ठो-सदातिविस यसंपयोगो तं अतीतं अट्ठ ण अणुसरति, अवि दिव्वे चकबट्टिभोगेवा, तहेव अणागतेवि, तं एवं विसयसंपयोगेणं अधिगं गच्छति | अधिगच्छति-णियच्छति, जं भणितं-ण पत्थेति, तत्थ आगमिस्सो अथो दिव्यो माणुस्सो बा, तहागता णाम वीणरागदोसमोहा केवलजीवसभावत्था, जेण प्रकारेण तेसिं चउकम्मचिणिमुकं केवलं जीवदव्वं भवति तेण प्रकारेण ते गता तधागता, तेसिं ताव Vवीतरागता णातीतमट्ठा ण य आगमिस्सं, जे अण्णे रागादि णिग्गहेति तेवि तधागता एवं लम्भंतीति, णातीतमहूँ, तु विसेसणे, किं विसेसेइ ? जहेब उसभादितिस्थगरा गता तहा चिट्ठमाणोवि गतो तधागतो, तस्सिस्सावि तहा गच्छति तु, तहा अणेगे एगादेसा भण्णाति 'विधूतकप्पे विविहं धून विधूतं, कप्पइत्ति कप्पो, जं भागतं आयारो, विधुणिजिजति जेण अदुषिहो कम्मरयो स विधूतकप्पो, जं भणितं विधुतायारो, सो विधूतकप्पो एतं अशुपविसति, अहवा विधूतं जेसिं तवसा कर्म ते विधूतकप्पा, P विधूतपदो बा, कप्पोत्ति अणुमाने विधृततुल्लो विधूतकप्पो बट्टए उवमाए, एयाणुपस्सि' एतं पस्सतीति, भणितं--अवरेण | पुव्वं सत्र वा जं भणितं वक्खमाणं च सो एयं अणुपरसमाणो णियमा 'णिझोसइत्ता'णिझोसेति, जं भणितं खवेद खवेहित्ति |वा, सो एवं अणुपस्समाणो झोसिना जं भणितं खवेति, 'कारतो? के आणंदे इह इमेण जीवेण अतिकंतकाले सब्वे अणिट्ठा दीप अनुक्रम [१२५ १२२।। १३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [126] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] प्रत वृत्यंक [११५१२०] भीत्राचा- | चिसया अणंतसो पत्ता, एवं अणुपस्सतो संजमे अवडियम्स अणिदुबिसएहि पृट्टो परिम्सहे सहति, का अरती?, जं जीवेणं सब-0 अरत्याधरांग सूत्र | दुक्खाई अणंतसो पत्ताई, तहा इट्ठविसएहिं पत्तेहिं के आणंदे, भणितं च-"न तृप्तोऽसि यदा कामैः, सेवितैरप्यनेकशः। स नाम भावः चूर्णिः | तेषु वृत्तेऽन्तो, यतो वैगग्यमाप्नुहि ।। १॥" 'णंदि' रमणं गंदि, पमोदणं वा णंदि, पुखरते सरित्ता पमोदो माणस एव, अहवा| ॥१२३।। अतिकतेसु बहुमो अणुसरिजंतेसु किं पम्मति !, अतो तेसु का रती के आणंद, एवं अणागएसुवि, पटुप्पने पडुच्च भण्णति, 'एत्यपि अगरहे चर' रागदोसेहिं अगरहो सनिमित्तं जहण गरहिजति दुस्मिति वा, चर गतिइ भक्खणे य, गति इरियाइसमिओ भरवणे उग्गमाइसुद्धं आहाराति, तवं वा चरति, रागद्दोसगहितलक्षणं हासो, अतो 'सब्वहासं परिचज' हसणं हासो सब्बो तिसुवि कालेसु विसयप्पमादो तं परिचा 'अल्लीणों' तिबिहाए गुत्तीए 'परिव्वए' धम्म आयरियं वा, अल्लीणो तिविहाए गुत्तीए गुत्तो सम्ममंचये, अहवा मोक्स्व अणियतचरत्थं वा समंता मोहंच, ये सुहदुक्खति तिक्खाए चिरागे य चट्टति, एवं तस्य | नायोचट्ठितस्स जइ अणुलोमपडिलोमा उबसग्गा उप्पओजा ततो ग तेण मित्तनातगादीणं सरितव्ब, ते मम पूयेत्ता, ते च मे परित्ताणं | करेजा, अमित्तेहि वा हिजमाणस्स तत्थेवं भावयन्ध-ण मे धम्मवजं मित्तं, अमित्तं वा अस्थि, जतो भण्णति-'पुरिसा! तुममेव तुम' पुण्णो मुहदुक्खाणं पुरिसो पुरि सयणा वा पुरिसो 'तुम मिति साधुरेव अप्पाणं आमंति, अण्णतरे च परिस्सहोवसम्मोदये बंधवे कंदमाणो परेण चोइजति---'पुरिसा! तुममेव बहिता अप्पाणं मोत्तुं जे अध्यो मित्ता पुबसंथुता पच्छासंधुता वा अप्पेण | अपमत्तो अप्पा मित्तो, अमिनो वा पमत्ते, मित्त अमित्तेहि य अहियत्ता मिचा, जं पुब्बउबचियं सुहं उप्पाइ जीवस्स तत्थ अप्पा चेच मित्तभूतो आसी, दुक्खे अमित्तभृतो, जो इमो बाहिरो मित्तामित्तविसेमो एसो ववहारणयस्स, णिच्छयणयस्म अप्पेण अप्पा मित्तो ॥१२३॥ दीप अनुक्रम [१२५ १३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [127] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] रांग सूत्र उचालयि वादि प्रत बा वृत्यक [११५१२०] श्रीआचा- अमित्तो वा, अण्णतरो एगभवग्गहणाओ मारेति अप्पा दुप्पस्थिो अणेगाई भवाई मारेति, जेवि माहिरा मित्ता तेऽवि धम्ममावसं-| चूर्णिः तस्स विग्धकरा इतिकाउँ अमित्ता एच णायव्वा, जो णिचाणनिमित्तं अप्पमचे सो अप्पेण अप्पाणं मित्तं, तहावि ण याणसि, तो भण्णाति-'जं जाणेजा उच्चालइत' गतिपञ्चागतिलक्खणेणं, 'ज'मिति अणुहिवस्स, जाणिजासि-ज्ञासि विसए उच्चालिते, ॥१२॥ | जं भणितं-णासेवति, कम्माणि या अप्पपदेसेहिं सह अणातिसंतानसंबद्धाणि उच्चालेति, एवं जं जाणिज उच्चालइयं तं जाणेज दूरा- | | लइतं, दरे आलयो जस्स लोगग्गे, जं जाणिज दूरालइयं तं जाणिज उच्चालइयं, पढम उच्चालइया पच्छा दूगलइता भवति, जं | भणितं-अविणासी जीवो, कहं उच्चालेइ ?-पुरिसो आत्मानमेव अभिणिगिज्झ अप्पाणं मोक्ख अभिमुहं अधियगिजा अधिणिगिज्या, | एवमवधारणे, दुवखं-कर्म साधु मिसं च मोक्खेसि पमोक्खेसि, एवं कम्माणि उच्चालिअंति, कहं अपणिग्गहं करेति ?, ततो | भण्णति-'पुरिसा संचमेव' सनो णाम संजमो सत्तरेस बिहो तं समभियाणहि, जं भणितं तं समायर, अहवा सण सेसाणिवि. | क्याणि पालिज्जंति, कहं !, जो आयरिससगासे पंच महव्वयाई आरुमित्ता नाणुपालेइ सो परिण्णालीवेण असञ्चो भवति, दुवाल| संगं वा प्रवचनं सच्चं, तस्स सच्चस्स आणाए उबडितो धम्म, मेहाए धावती त मेघावी, मारणं मारयति मारो, जं भणितं संसारो तं तरति, सो एवं सहिते धम्मसमायाए, तेण तित्थगरभासितेण अ सच्चेण सहितो तप्पुब्वगं चरितं धम्म आदाय 'सेयं समणुVAI पस्सति' सेयं इति पससे अत्थे, सयंति त मेति सेओ, जं भणितं मोक्खं, तं अणुपस्सति, अणु पच्छा तित्थयरेहिं दि8 पस्सइ तदुवदेसेण तं पुण, सेसं पुब्युत्तं, तंजहा-सब्बहासं परिचज्ज अल्लीणगुतो आतमित्तेण उपट्टितो एवं अणुपस्पति, अप्पमत्तो भणिओ तग्गुणा य, इदाणि पमादो, जो पुण सीउण्हाई ण अहियासेति भावसुतो 'दुहओ जीवित.' दुहतोति रागेण दोसेण, अहवा दीप अनुक्रम [१२५ १३३] ॥१२४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [128] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ११५-१२०] प्रत वृत्यंक [११५१२०] श्रीआचा-10 अप्पणो परस्स य, जीवितपरिबंदणमाणणा पुन्चभणिता, जसि एगे पमाति' एवं रागद्दोसाभिभूता अत्तट्ठा परट्ठा वा परिवंद-D प्रमादादिः गंग सूत्र- णातिणिमित्तं, जंमि एगे असंजता पमातं करेंति अप्पणो परेसिं च, जो लोगुत्तरा वा पासत्याति जे दुहतो परिवंदण धम्मे पमादेति । चूर्णिः ण ते दुक्खक्खयं करेंति, पडिपक्वभूता अप्पमायिणो, ते तु 'सहित धम्ममादायि' पाणदरिसणसहितो चरित्तधम्म आदाय, | ॥१२५॥ | जं भणितं घेत्तुं 'पुट्ठो णो झंझाए' सीतोसिणेहिं परिसहेहिं, झंझा णाम वाउलो, सीतेहिं रागझंझा उण्हेहिं पत्तेहिं दोसझंझा, एवं अण्णेसुवि इवाणिद्वेसु झंझणा कायचा, पहिज्जइ य-'सहिते दुक्खमत्ताए' मीयत इति मचा, जं भणितं परिमाण, ताए दुक्ख| मायाए अप्पाए वा महतीए वा अवि जीवितभेदकारिणीए पुट्ठो को झंझाए-कोर्ष माणं वा ण कुजा, ण व सुहझंझं पत्थेति, पासिमं| | दविए' परसतीति पासिमं, कि एतं , जं भणित--संधि लोगस्स जाव णो झंझाएत्ति एतं पस्सति, दवियो रागदोसषिमको.TV लोकतांति लोगो, आलोकतीति आलोको, लोगालोगो, जो जेहिं गाए बद्दति सो तेणप्पगारेण आलोकति, जं भणित-दिस्मति |तंजहा-नारइयत्तेण, एवं सेसेसुवि पिहिप्पिहेहि सरीरवियप्पेहिं आलोकति सरीरे, पगतो वंचो पर्वचो सुहुमपजत्तासुरूवसुहाति | सेतरा एवमादि० पवंचो तओ लोगालोगपर्वचाउ साधु आदितो मिसं मुञ्चति, सदेवमणुयासुराए परिसाए मझगारे वीतरागत्ता सन्चगणुत्ता य णिविसंकं । सीतोसणिजस्स तृतीयोदेशकः ३-३।। णिज्जुनीए भणितो संबंधो, परंपरेण जागर वेरोवरते जातिं च बुड़ि वा विदित्ता णिकम्मदंसी जो लोगालोगा पमुच्चति, स Lul प्रण एवं मचति-से बंना कोहंच' से इति णिसे सीतोसिणचाई निग्गंथे चंता कोई माणं माय लोभ च, कोहमाणमायालोमा | | इति वत्तब्वे पिहसुत्तकरणं दरिसति अणंताणुबंधाइ एकेको चउचिहो, जया तेसिं उबसमं करेति तदा एककं चेव उवसामेति, ण || ॥१२५।। दीप अनुक्रम [१२५ १३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: तृतीय-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'कषायवमन' आरब्धः, [129] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२१-१२५] श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥१२६॥ नादि प्रत वृत्यक [१२११२५] जुगर्व, बमणंति वा विरेयणंति वा विगिंचगंति वा विसोहणंति वा एगट्ठा, दब्बे मदणफलादि जंवा वमिजति, भावे कसायवमणं, एतं पासगस्स दंसणं' एतमिति जं भणितं तंजहा-से बंता०, पस्सतीति पामगो, जं भणितं तित्थगरो, ण. तु अण्णे पस्सगे, दिस्सति जेण पस्सति वा तं दरिसणं, जं भणितं उवदेसो, सो पासंतो जाणइवि, कई जाणइ ?, किं एग अत्थं जाणति अहऽणेगे?, | भण्पति-'जे एगं जाणइ से सर्व जाणइ' जो एगं जीवद्रव्यं अजीबदबं वा अतीतानागतवट्टमाणे हैं सबपञ्जएहिं जाणा, सिस्सो वा पुच्छति-भगवं! जो एगं जाणइ सो सवं जाणइ, आम, एत्थ जीवजया अजीवपञ्जवाय भाणियच्या, एवं जाणमाणो सवण्णू सिस्साणं पमाददोसे अप्पमादगुणे य परिकहेइ, तं जहा-'सघतो पमत्तस्स भयं' दव्यादिसबप्पगारेहि, दबओ सपओ आतप्पदेसेहिं गिण्हति, खिलतो छद्दिसिं, कालतो अणुममय, भावतो अट्ठारसहिं ठाणेहि पंचविहेण वा पमादेण, भयं-कम्म, तदेव | सब्बओ बज्झति, चोरदृष्टान्तेण वा इह परत्थ य सबओ एमत्तस्स भयं, सचतो अपमत्तस्स णस्थिति चउकाओ-अप्पमत्तत्तादेव दब्वाइच उक्काओ अप्पमत्तस्स णस्थि भयं, गच्छतो चिट्ठतो भुंजमाणस्स वा, जे तंगळे जे तं चिद्वे जे तं भुजेण तस्स किंचि भयं भवति, भणितं च-"यस्य हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्रे च सुसंयतम् ।" कसायाधिमारो बकृति, तं दुविहं वमणं, तंजहा-उवसामणावमणं | खवणावमणं च, तत्थ उवमामिण पढमं भष्णति, उपसमणंति ना णामण वा एगट्ठा, जओ भण्णा-'जे एगं नामे से पहुं नाम दबनामणा रुक्खादीणं, नामेति, ण उ भजती, जहा नदीपूरेण गुम्मलताओ नामियाओऽपि पुणो उनमंति, भावगामगासु जो एग अर्णताणुवंधि कोहं णामेति सो पहुं णामिति, बहुति सेसा सत्तावीस कम्मंसा मोहणिजस्स, अहवा पदेसओ ठितिओवा पहुं णामेति, तंजहा-अणदंसनपुंसग० उवसामगसेढी रतेयवा । इदाणि खवणा, सा य गाणपुग्गिय किरियं आयरंतस्स भवति, अतो दीप अनुक्रम HINDI [१३४ । ॥१२६।। १३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [130] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२१-१२५] श्रीआचागंग मूत्रचूर्णिः प्रत ॥१२७॥ वृत्यंक [१२११२५] |'दुवं लोगस्स जाणित्ता दुक्ख-कम्म छकायलोगस्स जाणित्ता जह वा उचलमिना एवं गचा तं दुक्खहेउं बंता लोग|स्स संजोग' बंता नाम खविचा कम्मलोगस्स संयोग जेण कम्मलोगेण भवलोगेण वा संजुञ्जति तं वता लोगसंजोगं 'जति वीरा गवमनादि | महाजाणं' जंति गच्छंति वीग भणिता पुर्व महाजाणं-पहाणं चरितं, महतो वा कम्मरस जायस्स खत्रणेण जाणं महाजाणं,IN जं भणितं-अपुणरावचगं, परेण परं'ति खवगसेढिगमो दरिसितो, अहवा 'परेण परं'ति 'जे इमे अञ्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति, एते णं कस्स तेयलेस्सं बीतीवतंति ?, मासपरियाए जाव तेण परं सुक्के मुकामिजाते' एवं परेण परं जंति, कतरे ते?, जे | विसयकमायासंजयजीविते'णावकंग्वति' जीवद जीविनइ वा जेण तं, तण्ण अवखंति, मरणं वा, अणेगे एगादेवा भण्णति, एवं(ग) विगिंचमाणे पुढो बिगिचति' एगं अर्णताणुपंधि कोई सवायप्पदेसेहिं विगिचितो, विगिचिणंति वा पिवेगोत्ति वा स्वब-IM |णत्ति वा एगट्ठा, पिधु-बित्थारे, पुढोति मिच्छत्तसत्तगं णियमा विगिचक्ति, जो चराउयो सोविण अतिक्कमिति तिमि भवे, अबद्धाउओ पुण सचावीसं मोहणिजम्स कम्मंसे नियमा खवेति, चत्तारि वा घातिकम्माणि, सिज्झमाणसमए वा चत्तारि केवलिकम्माणि विगिचति, खवगसेढी परूवेयब्या, एन्थ 'अण मिच्छ मीस सम्म०,' सो य सद्धासंवेगजुत्तो खवेति तेण भण्णाइ-'सडी आणाए। तम्स वा खीणावरणस्स सगासे धर्म सोचा संजम पडिवाइ सट्टी आणाए, सद्धा णाम मोक्खामिलासो, तदद्वं च तवनियमसंजमा, IN आणा णाम सुयनाणं, आणापूव्वगं से मेड्या धावतीति मेधावी,'लोयं बाऽऽणाए'त्ति छजीवकायलोपं वा आणाए 'अभिसमिच्चा' जं भणितं णचा, छकायलोगस्स जागणा सहहणा देसणा 'अकुतोभय'ति छकायलोयस्स ण कुतोऽवि भयं करेति, तस्सवि य | कम्मलोग खतस्स कुतोऽवि पत्थि भयं, खवित कम्मंसे मोक्खं गयस्स अकुतो भयं भवति, अभिसमिच्चावि वहति कुतो मयं । ॥१२७॥ दीप अनुक्रम [१३४१३८] DANCE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [131] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२१४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२१-१२५] प्रत वृत्यंक [१२११२५] श्रीआचा- भवति , सत्थाओ, तेण तं सत्यं गचा परिहरियम्ब, सत्थं अधिकृत्य भण्णति, 'अस्थि सत्थं परेण परं' परेणवि परं परंपर | परशस्वादि गंग सत्र-10 विण्हा तिण्हतरं, लोयविसेसा करेंति, विरिय विसेसा य तबिसेसो, विसंपि किंचि संजोतिमं छहि मासेहिं मारेति, परं पुण ताल-|| चूर्णिः पुडमिचेण मारेति, लवर्णपि किंचि चिरेण किंचि आसु, गेहोऽवि घृततेल्लबसा परा, एवं खारअंबिलादिदचसत्यविभासा, भाव॥१२८॥ सत्यपि परिणामविसेसा तिव्वं तिब्वतरं च भवति, सव्वं च एतं जहा जहा परं तहा तहा दुक्खमाबद्दति, परोप्परं वा दुक्खमाव- | | हति, किंची सकायसत्थं किंची तद्विधं मणा, असत्यं परेण परं सत्तरसविहो संजमो, सो परेण परंण भवति, पुढविकायसंजमेण ण कोयि पुढविकायिओ सनो जस्म मंदा दया कीरति जस्स वा उक्कोसा जहा भणिता, जहा तालपुढादीणं दवसत्थाणं वीरिय-14 | विसेसो दिवो ण एवं पुढविकाइयाइयाणं अण्णस्स अप्पा दया कीरति अण्णास्स महती, सब्बाविसेसेण तेसु संजए, से सुहुमं वा बायरं वा, एवं सेसेसुवि जाण, मणसंजमे वयसंजमे कायसंजमे निविट्ठस्सवि योगस्स विसेसेण णिग्गहो कायन्यो, भावसत्थं कहं परं परं | | दुहावहं भवति !, बुबह-'जे कोहदंसी कोई पस्पति कोहदंसी, जंभणितं कुज्झति, कोहा दरिसयतीति, जहा 'रुदस्स खरा दिट्ठी | उप्पलधवला पसन्तचित्तस्स' एवं सम्वत्थ 'जाक दुक्ख' अहवा जे कोह जाणति स माणं जाणति जाव दुक्खें, अहवा खमणाधिगारे | अणुअत्तमाणे भष्णति-'जे कोहदंसी से माणदंसी' जं भणितं परिमाडेति, जो कोई खवेति सो सेसेवि, जतो एवं परेण परं सत्थं NI दक्खेणावहति असत्थं परेण पर सुहं आवहति तेण 'अभिनिवडूज त कोहं च माण च' निम्नहनंति वा छिण्णणनि चा एगट्ठा, | लोगेवि जहा एगेणप्पहारेण हत्थो निव्वट्टितो पादो वा, जं भणित-छिण्णा, एवं जाब दुक्खं च, 'एतं पासगस्स दंसर्ण' जं HE] भणितं उबदेसो 'उबरयसत्थस्स' कसायसत्थाउ, जं वा जस्स सत्थं ततो उवरतस्स 'पलियंतकडस्स' परियंतकरस्सत्ति || ॥२८॥ दीप अनुक्रम [१३४ १३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [132] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१२१ १२५] दीप अनुक्रम [१३४ १३८] श्री आनागंग सूत्र चूर्णि ४ अध्य० १ उद्देशः ।। १२९ ।। "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], निर्युक्ति: [ २१४ ...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२१-१२५] | बत्तब्वे रलयो एगत्ता पलियंत कडिति वुञ्चति सव्वओ कम्माणं परियंत करंति, पलियते वा जेण तासु गईसु सुहदुःखेसु वा तं पलियं-कम्मं तस्स अंतकरी, आदाणं सयं आदते, आदीयते वा कम्मं, सयं कर्त सकते, जेण पुरे संसारो १, भण्णति - णत्थिति बेमि, कहं १, ण चिय अणिघणो अभ्गी दिप्पति, ण वा दट्टे बीये अंकुरुप्पत्ती भवति, दम्बे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः। कर्म्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥ १ ॥ इति श्रीआचारांगे सीतोसणिज्जं णाम नइयमज्झयणं सम्मत्तं ३ । अत्याधिगारी स एव, जीवाजीवाभिगमा सम्मदंसणं, नवि सोतं च अणुयत्तइ, बितिए अज्झयो परिष्णाए थिरीकर्त | ततिए भावमुदोसा भावजागरणा सीतोसिणजस्स गुणा ण य एगंतेण दुक्खेण धम्मो सुदेश वा कसायचमणं च एवं च सहमाणस्स सम्मतं भवतीति सम्मत अवसरो, किं १, जं एवं मणितं एतं सम्मं बुच्चति, एतंपि सम्मं, इह तु तिणि तिसङ्काणि पात्रा| तियसयाणि परूवित्ता ससमय ठाविजति जहा वा चातुस्सालमज्झगतो दीवो तं सभ्वं उज्जोवेति एवं एवं अज्झयणाणं मज्झगतं | सच्च आयारं अवभासति, अह पुण पव्त्रइयमेत्तस्स परउत्थिया जिंदिजति तो कदायि अपुढधम्मो सेहो इमे अतुकोसपर परिवापरतित्तिकाउं विष्परिणामिज, एसो अज्झयणसंबंधो, सुत्तम्स सुतेणं - किमन्थि कम्मो हि १ णत्थि चि तं च दुक्खं सद्दहिजति, तं च सद्दहमाणस्स सम्मत्तं भवति, एस सुत्तेण संबंधो, एतेण संबंधेण आगतस्स अज्झयणस्म चचारि अणुओगद्दारा परूवित्ता अस्थाहिगारो दुविहो - उद्देसत्थाहिगारो अज्झयणत्थाहिगारी य, तत्थ उद्देसत्थाहिगारो 'पढ' त्यादि (२१२, २१३-१७५ ) पढमे मम्मावातो, वितिए अण्णउत्थिया परिन्धिजंति, ततिए अणवजतवो वण्णिञ्जइ, चउत्थे सुत्त्रेण तवेण य आवीलेयव्वं सरीरं अवि च कम्मं, अज्मयणत्थाहिगारी सम्मत्तो, णिक्खेवो तिविहो- णामणिष्कण्योः 'णामं टवणा सम्मं ' (२१६-१७५ ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ अध्ययनं 'सम्यक्त्व' आरब्धः, [133] 6 परशखादि ॥१२९॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] सम्यक श्रीआचारांग पत्र चूर्णिः ॥१३०॥ प्रत वृत्यक [१२६१२९] दीप अनुक्रम [१३९ नामसम्मत्तं ठवणसम्मत्तं दब्बसम्मत्तं भावसम्म, णामठवणाओ गयाओ, दब्यसंमे इमा गाहा 'अह दबसम्म (२१७-१७५) | आणुलोमियं जं जस्स द्रव्यं इच्छाणुलोमं वकृति तं दन्वसम्म, जह इच्छति तहेव भवति, कतसंग्वतसंजुत्तं' अद्धगाहा ।। कतं जहा || रघो सलक्षणनिवत्तणाविसेसा सम्म भवति, जस्स वा सो कतो तस्स अहीणकालकतत्ता सुकतत्ता य सम्मं भवति, 'संग्वतंति कारियं पडाति पुणण्णवं भवतित्ति दव्यं सम्मं, 'जुत्तति खीरसकराणं संगम जहा तहा अणं अविरोधितं दब्बसम्म, विवरीतं | असम्म जहा तिल्लइहीणं, पत्तंति जस्स जेण दब्वेण पयुनेण संमं भवति जहा रोगियरस ओसहेण तिसितस्स पाणेण भुक्खियस्स | ओदणेण अण्णहा असम्म, जं वा दवं लाभएण पयुक्तं लाभकरं भवति तं सम्म, सेसमसम्म, विजदपि किंचि सम्म भवति, चिय- रीतमसम्म, मिन्नं कागादीणं सम्मं भवति, बहुइतस्स. असम्म, गंडिणो वा गडे भिन्ने सम्म इहरहा असम्मं, भावसम्म तिविह 'तिविहं तु भावसम्म गाहा (२१८-१७६) नाणसम्म बिह-खइयं च खओवसमियं च, सणसम्म तिविहं-वेइयं च खइयं | च खओवसमियं च, एवं चारिपि, जति तिष्हवि एतेसि भावसम्म तो अविसेसो, कम्हा दरिसणस्सेव सम्मत्तसद्दो, रूदो, तं | च इह अज्झयणे वनिअति, णेतराणि ', भण्णति, तप्पुब्वाणि इतराणि, णवि मिच्छदिहिस्स सम्मं नाणचरित्ताणि, एल्थ दिट्ठतो दोहिं रायकुमारएहि अंधेण अणधेण य, 'कुणमाणोऽविय किरिय' गाहा (२१९-१७६) दोबि लेहकलं गाहिता, जाओ अंधपाउम्गाउ गंधब्बाइभी कलाओ, अणधो ईमत्थं सिकरवति, मो य अधो सए पुरिसे पुच्छह-सो किं करेति १, ईसत्थं सिक्खतीति, पितरं ननिमित्तं विष्णवेइ-अहंपि सिक्खामि, तेण धुच्चति-तब जातिअंधस्स किं ईसत्येणं, पडिसिज्झमाणोऽवि ण द्वाइति, तेण ईसस्थायरिया उवणीता, संघामुट्ठिए सिविति, सो य-सचाओ जाहे विज्झगाति विंधति लाहे आयरिएहिं अमेहि य पास १४२] ॥१३०॥ PATI मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'सम्यग्वाद' आरब्धः, [134] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] THANNEL प्रत वृत्यंक [१२६१२९] श्रीआचा-TV | द्विहिं पसंसिञ्जइ, किं पसंसिज्जइत्ति अंधो सए पुरिसे पुच्छ, सो किं एसो साहुकारिजइत्ति, कहिते भण्णइ-तुझेऽवि मम लक्ख-0 अनंजयः गंग पत्र- देसे सई करेह, पच्छा सहवेधी जातो, जोवणत्यो य जातो, तं रायाणं परवलेण अमिभूतं जुद्धाय णिफिडतं भणइ-मम बलं || चूर्णिः देह, अह णं परातिणामित्ति, दियो चले गम्मियकबहतो लग्यो, तं च से बलं भग्गं, ताहे सो परवलेण वेटितो, तहावि जस्थ सद ॥१३१॥ सुणेड तं तं विधति, रना पुसितं-को एस जुज्झति?, जातिअंधो सद्देण विधइत्ति, मा सिडिसह करेह, तुण्डिका अलिपह, तेहिंवि |तहेब कयं, गहिओ य, सो एवं बराओ 'कुणमाणोऽवि य किरिय'गाहा, ताहे सो सञ्चक्खू वत्तं सोतुं पितरं आपुच्छित्ता तं परवलं पराजिणति, पच्छा रणो से तुडेण पट्टो बद्धों, एस दिढतो, इमो अत्थोवणओ-'कुणमाणोऽवि णियत्ति' गाहा (२२०-१७८)) जो जेसि भणितो तंजहा पंच णियमा धुवगुणा वा, केसिंचि पंचग्गिताबायावणादि, दुक्खस्स दिन्तावि उर मिच्छादिट्ठी ण| | सिझति, 'तम्हा कम्माणीयं जेतु' गाहा (२२१-१७८) सिद्ध, कई संमने नाणचरित्नाई सफलाई ?, भष्णंति-'सम्मत्तु-IV Dपत्ती' गाहा (२२३-२२३) जहा दोनि मिच्छादिट्ठी पुरिसा आरामगते विहारगते वा साह पासंति, के एतेत्ति एगो पुच्छइD तेण वा अप्रेण या धम्म कहेंति, साहुणोति मिट्ठा, पुच्छिमामि गं धम्म, ण ताव पुच्छति, सो इतरो असंखेजगुणनिजरतो, ततिओ|| | इदाणि चेव पुच्छामि तस्स ममीवं उवगच्छति, सो वितियाओ असंखेजगुणणिजस्तो, चउत्थो पुच्छति, सो ततियातो असं| खिजगुणनिञ्जरओ, पंचमओ कहिए धम्मे संमत्तं पडिवाइ, चउत्थाओ असंखिज,छट्ठो सम्म पडिवजमाणो पंचमाओ असंखिजगुण, सम्मतुप्पत्ती गता । इदाणिं मम्मदिट्ठीणो-तत्थ एगस्स चिंता विस्ताविरति पडिवआमि सो इतराओ असंखिगुण-10 णिज्जरओ, एवं दोनिवि संजता संता तस्थेगो संजमाभिमुद्दो अण्णो पडिवाइ, अनो पुथ्वपडिवमओ, दोनि पुवपडिवबा १३१।। दीप अनुक्रम [१३९ १४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [135] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१२६ १२९] दीप अनुक्रम [१३९ १४२] श्रीजाचा गंग सूत्रचूर्णिः ॥१३२॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [ २२७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] संजता, तत्थ एगो मिच्छत्तपंचगस्स खवणमुहो, एगो खवेति, एसो अनंतकम्मंसो बुञ्चति, अन्नो दंसणमोहणिअखचणामिमुहो, अनो स्ववेति, अण्णस्स खीणो, अनो उवसामगसेढीए अनिम्नुहो, अण्णो उवसामेति, अण्णस्स अट्ठावीसतिविहंपि उबसंतं, एवं खवणाएव तिन्नि गमा, अवसे सजोगिकेवली, ततोऽवि सेलेसिं पडिवण्णो असंखिञ्जगुणनिजराए वट्टति, तच्चिवरीतो कालो संखिजगुणाए सेढीए जावतियं कम्मं जचिरेण वा कालेज सेलेर्सि पडिवण्णो खवेति ततियं कम्मं सजोगिकेवली संखिजगुणेण कालेण खवेति, एवं जब पुच्छिउंकामो अपुच्छिउंकामो य, एवं दंसणवतो तवनाणचरणाणि सफलाणि भवंति, जो पुण आहारोवधिवसहिणिमित्तं तवनाणचरणाणि करेति बाहिर मंतरी तवोऽवि भासियो सच्चो, सम्मदिट्ठिस्सवि आहारादिनिमित्तं कीरमाणो निष्फलो भवति, किमंग पुण अष्णउत्थिया गिहित्था य विसयकसायातिसत्ता हिंसातिसत्ता य संसारमोक्खं ण कार्हिति ?, तत्थ उदाहरणं - सुत्तफासियगाहाओ पढमुद्देसए इमाओ दोनि 'जे जिणवरा अतीता' गाहा (२२५-१७९) 'छजीवनिकाय' गाहा (२२६ - १७९) 'खुट्टगपायसमासा' गाहा (२२७ - १८७) वितियस्स चरिमसुते 'जह खलु सिरं कई तहा णिज्जुतीए चैव सव्वं भासिजति, पाडलिपुत्तं नयरं, तत्थ जियसत्तू राया, रोहगुतो अमच्चो सावओ, राया अत्थाणितवरगतो कयाइ धम्मवीमंसं करेइ-कस्स धम्मो सोभणो १, जो जस्स कत्थि (कुला ) गतो सो तं पसंसद, रोहगुतो तुण्डिको अच्छमाणो रण्णा भणिओ-तुमं पुण तुण्डिको अच्छसे, पुणो पुच्छियं तो भगड़-जो जस्स रोयति सो तं धम्मं पसंसद्, वीमंसिज, तुमं चैव परिक्खाहित्ति, तेण पातओ कतो 'सकुंडलं वा वयणं णव'त्ति, पासंडिणो सब्बे सावेउं बुचा, जो एवं भिदति तस्स राया जहिच्छियं दाणं देति भतिगतोय भवति, ते पातयं घेतुं सत्तमे दिवसे अत्थाणीयवरगयस्स रष्णो उबट्ठिता, पदमं परिव्वायो उबडितो, पच्छा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [136] निर्जराश्रेणिः ॥१३२॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१२६ १२९] दीप अनुक्रम [१३९ १४२] श्रीआचा रांग सूत्र वर्णिः ॥१३३॥ "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [२२७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] तावसो, पच्छा रक्तपडिओ, मालाविहारो जत्थ णिवं मल्लं कीरति, आरहतो पुण गागतोचि, रण्या पुच्छितो अमञ्चो भइ-गविसिस्सामि, मेण पुरिसा संदिट्ठा, तेहि य चेल्लओ भिक्खायरिये दोसीणस्स हिंडमाणो दद गहितो, पायओ य से अक्खाओ, सो मणड़'स्वतस्स दंतस्स जिइंदियस्म' गाहा ( २३१-१०८ ) भिण्णो पातउत्ति, धूललक्खेणं वालेण एतं रण्णाऽभिसद हितो, पच्छा रण्णा बुच्चति देहिहितं मम खुट्टया धम्मं कहेह, तेण य चेडरूवत्तणेण दोनि चिक्खडगोलया पुब्बगहिता, सो ते कुडे आवडेऊग पुणो संठितो, रण्णा पुच्छितो भणातु, एसेव धम्मो कहिओ। 'उल्लो सुको य' गाहा (२३२ - १८८) 'एवं लग्गंति' गाहा (२३३-१८८) गया सावओ जाओ, अहवा खुट्टओ गतो चेव, रोहगुतो भगड़-सब्बे एते भगन्ति-ण अम्हं न चट्टति पुलोएउं, किंतु वक्लेषदोसा ण णिदिनि, एगो मणइ भिक्खालोमेण, एगो भणति चेडरूवत्रक्खेवेणं, अण्णो भण्णति-बिहारपूयावक्खेवेणं, तेण ते सच्चे अवीयरागा, जो पुण भणति खंतस्स दंतस्स जिइदियस्स एसो वीयरागमभ्गे ठितो, एयस्स मोक्लो अस्थि, दिहंतो दोहिं गोल एहिं सुक्खेण उल्लेण 'सुक्खो उले य' गाहा ।। सुत्तागमे सुतमुचारयन्, 'से बेमि जे अईया' से विदेसे सगारस्स आएमा तं बेमि, तमिति सम्मतं, अहवा एकेको गणहरो सीसेहिं उवासिजमाणो तं वेमि सम्मत्तं, जं णिक्खेवणिज्जुचीए वृत्तं तं बेमि, 'जे य अतीता' 'जे' इति अणुदिट्ठस्स महणं, अतीतद्वाए अनंता अतीता, जे इति पप्पा पंचसु भरहेसु पंचसु एवएस पंच महाविदेहेसु, जहिं काले भवा वा तहिं काले पनरससु कम्मभूमीसु, अस्थि तित्थगरा अणागता, अणागतद्वार अनंता, सच्चे अपरिसेसा एवमाइक्खति, बट्टमाणग्गहणेण अतीतानागतावि सूचिता काला, अतीते एवमाइक्सु अणागए एवमाइक्खिस्संति जात्र पण्णवेस्संति, मध्ये य जाव सच्चे अपरिसेसिता जम्हा आणवंति वा, जात्र जम्हा सुभासुभेसु कम्मेसुण ईत मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [137] आद्र शुष्कगोलकादि ॥१३३॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥१३॥ प्रत वृत्यक [१२६१२९] बा, कप्पदप्पादीहि सज्झ अभियोगो, आणापरिग्गहो ममीकारो, तंजहा-मम दासो मम मियो एवमादि, आणापरिग्गहाणं विसेसो, | हननामिअपरिग्गहितोवि आणप्पति, परिग्गहो सामिकरणमेव, ण परितावेयव्योति अहणतोऽवि अंगुलिमयिमादीहिं परितावेति, मणपरिता योगादि वणा वा, उद्दवणा मारणं, एतं सतं न करेति अण्णेहि ण कारवेति कीरतं न समणुजाणति जाब रायिभोयणंति, एस धम्मे सुद्धे सुद्धो । णाम णिम्मलो भवति, जे अण्यो तु केसिंचि सत्ताणं दयं करेंति वहा धीयारच(ब)धुए गोणीपोयं परिहरंति छगलादि मारेंति, एवं असुद्धे, अतं तु रागादिरहितत्ता सब्बं अविसेसं अहिंसाओ य सुद्धो, णितिया पंचसु महाविदेहेसु णिचावत्थितत्ता णितियो सम्मत्तो भवति सासतो, णितिउत्ति वा सासतोति वा एगट्ठा, अहवा णिचं सासतो, णिचं भवित्ता अणुभवति, भवियचा बा अभवियत्तावि णिचं भवति जहा घडअभावो, अतं तु निश्चकालवत्थायित्ता णिचो सासयो य 'समिच छलीवनिकायलोग' समिच्चत्ति वा जाणित्तु वा एगट्ठा, खितं-आगासं खितं जाणतीति खेचप्णो, तं तु आहारभूतं दबकालभावाणं, अमुर्त च पञ्चति, अमुत्ताणि खित्तं च जाणतो पाएण दवादीणि जाणइ, जो वा संसारियाणि दुक्खाणि जाणति सो खेत्तण्यो, पंडितोवा, मिसं साधु आदितो वेदितो पवेदितो, उडितो उडिया संजता, उद्वियाणं कहं पवेदिजति?, नणु मज्झिमयाणं पाससामितित्थगरसंतगाणं, अहवा उढिएसु अणिसणेसु, अणुट्ठिएमु णिसण्णेसु, एकारसण्हं गणहराणं अणुत्थियाणं चेव पवेदितं, उबढिता णाम जे धम्मसुस्सा, केति धम्मुट्ठाणेण उद्दुिताबिण उबटुंति जहा पत्तेयबुद्धा, अणुवट्ठिए कहिजति जहा ईदणागस्स, उवरयदंडेसुवा, न रतो उवरतो सन्वदंडेहिं अणुवरता असंजता, तेसिपि पवेदिजति, किह दंडेहिं उपरति करिज ?, पंचधा दंडगा, दव्यभवसंयोगरएसु वा, असंजोगरपसु वा, संजोगरतो गिद्दत्थो, असंजोगो संजमो तहिं रता'तवं चेत' तद् द्रब्धं सद्भूतं एतं, जं भणितं सव्वे पाणा ण इंतव्वा, एतं वा) ॥१३४॥ दीप अनुक्रम [१३९१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [138] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] प्रत वृत्यंक [१२६१२९] श्रीआचा | सम्मईसणं, कयरं ?, कारगं, 'अस्सि चेतं पवुचति' अस्मिन् आरुहते पश्यणे साधु आदितो वा युवती पवुश्चति, ते इयं तसे । रोचक रांग सूत्र अस्थेसु सद्धाणलक्खणं रोयगसम्मईसणं, तरपुवगं च कारगमम्मईसणं 'तं आतिइतु ण णिहे' ण छातए, जहारोपितपडण्णा. I सम्पत्यादि चूर्णिः | न णिक्खिवे, णिक्खेवणं छट्टणं जहा तच्चनियाणं आयरियसमीवे सिक्खावयाणि खिवित्ता उप्पबजेति पुणो आगतो गिण्हह, तहा| ११३५॥ यण णिक्खीवे, जावजीचं अणुपालए, 'जाणिनु धम्म' जहाबत्थितं तहेव सुतधम्म चरित्तधम्मं च ण णिक्खिवेइति वकृति, 'दिद्वेहि णिबेदं गच्छि जा' इट्ठाणिहरूवविसया, सद्देहिं सुचेहि गंधेहिं अग्घातेहिं रसेहिं अस्सातितेहिं फासेहिं पुढेहिं णिव्वेदो सो घेव, सुम्भिसदा पोग्गला दुम्भिसदाए परिणमंति, अतो तेसु को रागो दोसो वा १, एवं सेसविसएहिवि, जं लोगो एसति सालोगेसणा, PA भणितं च लोगेवि-'शिश्नोदरकृते पार्थ!, पृथिवि जेतुमिच्छति' 'जस्स पत्थि इमा णाति' जस्स साहुस्स गाणं णाती, IA जं भणितं तं अन्नतरइंदियरागदोसोवयोगो जस्सिमा णत्थि अन्ना केणप्पगारेण रागदोसणाती भविस्सति ?, अहवा सब्वे पाणा | ण हतब्वा जाव ण उद्दवेयव्या, जस्म वा जाती पत्थि तस्सण्या आरंभपरिग्गहपविचेसु पार्सडेसु णाती कतो सिता ?, जीवाजीवाति | पदत्थे ण याणति सो कि अण्णं जाणिस्सतीति, कतरा सा पाती ?-'ज दिह सुतं' केवलदरिसणेण दिट्ठ, सुतं दुवालसंगं गणि- 1 पिडगं तं, आयरियाओ सुतमेतं णाम जह मम दुक्खमसातं तहा अण्णेसि मतं, विविहं विसिट्ठ या गाणं विण्णाणं, परतो सुणित्ता | सयं वा चिन्तिता एवं विष्णाणं 'जह मम ण पियं दुकवं जाणिय एमेव' अहवा जसणस्थि इमा णाती अण्णा तस्स कुतो सिया, लोए परिकहिजइ सदिति पथक्वं सदेवमणुयासुराए परिसाए मझयारे तं चेव गणहरातिएहिं परिकहिजइ, तंजहा-सब्वे पाणा ण हतब्बा, जे पुण हणंति जाव उद्दवति ते 'समेमाणा पलेमाणा' समेमाणा माणुस्सेण, पलेमाणा तेणेव, अहवा सद्दाइएहि ॥१३५।। दीप अनुक्रम [१३९ १४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [139] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] जात्यादि श्रीआचा- गंग सूत्र चूर्णिः ॥१३६॥ प्रत वृत्यक [१२६१२९] समेमाणा पलेमाणा, जं भणितं नस्समाणा, पुणो जाई' तंजहा-एगिदियजाई वेइदियजाई तेइंदियजाई चरिंदियजाई पंचिंदिय- जाति, अहवा जणणं जाती तधा कितं कर्म तं पुणो पुणो पगप्पंति-पगरिति, अयमपरो विकल्प:-सम्मत्चे वणिजमाणे तस्थिरी-10 करणथं भण्णति-'दिडेहि णिवेगं गच्छिज्जा' दिट्ठा णाम पुर्व कुसत्थाणं मताई दिट्ठाई, तेसु कह गिब्वेदंगचिज, एते असवण्णुपणीतत्ता पुन्यावरविरुद्धभासी मायिणो णिचाणं न गच्छंति, एवं तेसु णिब्वेदं गच्चिजा, न य अमिणवपन्नइयं विपरिणा| मेज, तत्थ णो य लोएसणं चरे, मिच्छत्तलोएसणा ण तेसिं सद्दहे, तत्थ आलंवणं 'जस्स गस्थि इमा णाती' इमा केवलणाणसुयणाण| णाती तस्स पुवाररबाहत्ता कुणाणाण गाती कुतो सिया?, दिढ सुतं सुतं दिटुं, वचसा संमें आयारकिरियाकरणं सुतं परोवदेसेणं सुतं सामिप्पारणं जहा ममेत मतं, एतेसिमेव तिण्डं प्रकाराणं अण्णतरेग विसिटुं विविहं वा णाणं, लोगो छजीवनिकायलोगो, किं , कहिजइ, समेमाणा पलेमाणा, नेणेव कुदरिमणेणं अण्णोण्योग वा पलेमाणा, ततो अभिग्गहितकुदरिसणाओ पुणो पुणो जाति, जाई संसारो, कम्मं वा पगप्पेंति-पकुवंति, मोक्खत्थमुत्थिता वा ण मुचंति, अहवा 'दिद्वेहिं पिन्वेगं गच्छिा ' दिट्ठा णाम पुवावरसंधुता बंधवा जहेते इहपि णो जणवयातिदुक्खपरिचाणाए किं पुण परलोए, एवं तेमु णिब्वेगं गच्छे, णो य लोगेसणं लोगो णाम सयणो, अहवा लोग हब लोगो ण णिच्छयतो कोयि सयणो, भगियं च-'पुचोऽपि अमिपाय पिउणोएस मग्गए वातु Wसो सयणलोगो जइ इच्छति उप्पञ्चावेतुं तं तस्स एसणं ण चरे, तत्थ आलंबणं जस्स णस्थि इमाणाति' जस्स इहलोगे बंधवा ण भवंति दुक्खपरित्ताणाए अस्स अण्णेसु जातिसु कई दुक्खं अवणेस्सति ?, तत्थ उदाहरण-कालसोयरियपुत्तो, जं दिलु तु । तं तहेब 'समेमाणा पलेमाणा' समेमाणा-समागच्छना, तंजहा-पुत्तनेण भातिचेण भइणि तेण, एवं ते समागमं काउं किंचिकालं | दीप अनुक्रम [१३९ १४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [140] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२२७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२६-१२९] प्रत वृत्यक [१२६१२९] श्रीआचा-10 || वसित्ता ‘पलेमाणा' विमुच्चमाणा पुढो पुढो जाई पगप्पंति-पिहप्पिहं अयंगाओ गतिओ गच्छंति, सकम्मेण पिहप्पिहा जातीयो| | पलायनादि रांग सूत्र कप्पति-पकुब्बंति, जह सउणगणा बहवे समागता पादये नि वसिऊण किंचि कालं पगि जात्र पुणो पत्रअंति, पुणो पुणो पुणो वा चूर्णिः जाति जहा-एगिदियजाई जाव पंचिंदियजाई, अणंतसंसारं, पम चदोसा भणिता, तन्भया 'अहो य रातोय अविस्सा जताहि अवता ॥१३७॥ घडाहि, एवं अवधारणे, जम्हा एते पमत्तदोसा तम्हा जत, वीरो भणितो आयपरउवदेसओ'सता आगतं' णिचं आगतं पण्णाणं जस्स खगलबपडिबुन्झयणा णिचं अप्पमाएण उवउत्तो 'पमत्ते यहिता पास' जे बिसयकमायपमत्ता असंजया गिहत्था अन्नउत्थिया चहिया धर्ममते ! एवं पस्स, 'अप्पमचे सता परकमेआसित्ति बेमि। कहं णाम रागादिदोसेसु लछणा ण होआ ?, पराण परक्कमे, एत्थ तेल्लथालपुरिसेण दिढतो, जहा सो अप्पमायगुणा मरणं ण पत्तो एवं साहूवि सिझिस्सइ, चउत्थायणस्त | पढ़मो उद्देसओ सम्मत्तो ४-१॥ उद्देसत्याधिगारो निज्जुनीए चुत्तो, मुत्तस्स सुसेण सम्मत्वे अहिंसाइलक्खणे वतिरिचे सचरिते अपमादो कायब्बो, अहवा. 'अप्पमत्ते परकमिआसित्ति बेमि' पमत्तो य आसवति, अण्णहा णिस्सयतीति, अतो पुच्छा जे आसवगा ते परिसवगा?" अहवा सम्मत् अधिकितं, तं तु भृतत्थेण अमिगतो जीवपदस्थो पढमे अज्झयणे वण्णिओ, इह आसयो बभिजइ निजरा य, आसवरगहणा | य पुण्णं पावं बंधो य सइओ भवति, निजरगहणा य मोक्खो य, जओ मण्णति-'जे आसवा ते परिसवा' गतिपञ्चागतिलस्खणं, दव्यासवो नदीसरादी भासबो कम्म, दवपरिसवो चालणी शरणाणि, भावपरिसबो कम्मखवणा, एत्थ दुविहा पुच्छा-अणुयोगIN| पुच्छा अणणुओगपुच्छा य, अणणुयोगपुच्छा ताव जे चेव आसवा ते चेय परिस्सवा, का भावणा, जे व आसवा हिंसाति दीप अनुक्रम [१३९१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'धर्मप्रवादी-परीक्षा' आरब्धः, [141] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] श्रीआचा- TEIT IST चूर्णिः । ॥१३॥ प्रत वृत्यंक [१३०१३३] त एव परिस्सवा अहिंसाति, भण्णति-यो, अणुयोगपुच्छाओ, जे आसवगा ते परिस्सवगा, जे आमवगा ते अस्सवा, अणासवा पलायनादि परिस्सवा, अणासवा अपरिस्सवा, अहवा सासवा परिस्सवा १ सभासबा अपरिस्सवा २, अणासवा परिस्सवा ३ अणासवा अप-10 आअवपार | रिस्सवा ४, अहवा सआसवा अपरिम्सवा वितिया चउभंगी उच्चारेयच्या, तमेव एक वञ्जिता सेसगा भवंति । तत्थ 'जे अस्स श्रवता वा ते परिस्सवा' परिमाणतो क्रियाविसेसती उवचयओ अवचयाओ भवंति, तत्थ परिमाणतो जावइया असंबुद्धस्स आसबहेऊ | ताबइया तबिवरीता संवुद्धस्स णिराहेऊ भवंति, जं भणितं-जत्तियाई असं जमढाणाई वत्तियाई संजमट्ठाणाई, भणियं चन्यथा | | प्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः। तापंतस्तद्विपर्यासा, निर्वाणमुखहेतवः।।१।। क्रियाबिसेसतोवि, जच्चेच असंजयस्स चिट्ठातिकिरिया 0 अस्सवाय भवति सा चेव संजयस्स णिजराये, भणितं च-"तह य णिकुंटितपादो मजारा मूसगं" साहू पुण इरियाममितो णिज-1 रतो, उवचय अवचयओवि संपराइयं अहिकिच जे चेच अस्सबंति ते चेव परिस्सर्वति पढमो भंगो, वितिओ प अपरिस्सवो इति अबत्थु, ततिओ अणासतो सेलेसि पडिवण्यो, चउत्थो अणासवा अपरिस्सवा सिद्धा, एते य पदे य संयुमकरे य घुत्ता, अस्सर्व निजरं च अधिकृत्य तिष्णि भंगा, चेवसदा अण्णे य, जीवजीवबंधमोक्खा, अहवा अण्यो अत्थ जे बंधमोकलस्प य गति ण यागंति. सम्म संगत पसत्थं वा बुझमाणा लोयं वा लोगोछजीवनिकायलोगो मणुस्सलोगो वातं आणाए अभिममिच, जं मणितं | णचा, पुढो वित्थरेणं पवेदितं, तंजहा अस्सवे तार णाणपडिणियत्ताए देसणपडिणिययत्ताए, एवं जधा अंतराइयस्स हेतू , निज-| रावि नबो चारसविहो, अहवा 'पुढोति सामिण को किचियं बंधति णिजरिति वा?, एवं जीव वियप्पो जाव मोक्खति, अर्ण0 तरसिद्धपरंपरसिद्धतित्थसिद्धअतित्थसिद्ध एवमादि, अहवा 'पुढोति अतीताणागयवट्टमाणेहिं मनतित्थगरेहिं जीवाजीवादिपपत्था दीप अनुक्रम [१४३ १४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [142] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] प्रत वृत्यंक [१३०१३३] श्रीआचा परूविता, परुवितं पण वितंति एगट्ठा, एवं एयाणि पदाणि संबुज्झमाणो अण्णेसिपि अक्खाति, अबुज्झमाणो कि आघाहिति?,D प्रतिपन्नसंग सूत्र-णाणं से अस्थीति नाणी 'इहे'ति इई प्रवचने मणुस्सलोए था, केसिंचि माणवाण, जं भणितं-मणुस्साणं, अहवा माणवा जीवत्ति | |संसारादि चूर्णिः | जीवाणं अक्वाति, किं अक्खाति १,'जे आसवगा ते परिस्सवगा','संसारपडिवण्णाणं' उमस्थाणं केवलीणं, तत्थ नेरदयाण | ॥१३९॥ ण केवल चरित्ताचरितं चरितं च, देवेहिवि णस्थि, चरिचं तिरिएसु णत्थि अतो मणुस्साणं अक्खातं, तेसुवि उद्वितेसु वा जाव सोवधिएसु वा, इह तु विसेसणे 'संबुज्नमाणाणं' सम्मं वोधिः संबोधिः, साय तिविदा-नाणाति, उबडितादी जति संबुझंति ततो तेसि कहेति, मुणिसुनतसामितित्थगरदिट्ठतो, विसिट्ठनाणपत्ताणं जंभणितं मेहावीणं, अहवा विनायति जेण तं विण्णार्ण, | किंत, मणी, जं भणित-समणाणं पत्ताणं, बोहिनाणियोः को विसेसो, बोही तिविहा, विनाणं नाणपिसेसो, भदन्तणागज्जुण्णिया पढ़ति-'आधाति धम्म खलु से जीवाणं संसारपडिवण्णाणं मणुस्मभवत्थाणं आरंभठियार्ण दुक्खुब्वेषसुहेसगाणं धम्मसवणगवेसगाणं निक्वित्तसस्थाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विष्णाणपत्ताणं' तं एवं धम्म कहिजमाणं सप्पभावजुतं,अविय 'अष्टावि संता अदुवा पमत्ता' पडिवअंतित्ति बकसेसं, दवभावअट्टो पुब्बभणितो, भावअट्टोऽवि पडिवाइ जहा चिलातपुत्तो, पमत्ता विसयमजातिपमातेण पमनावि पढिवअंति,जहा सालभदसिवभूतिमादि, किं पुण जे अणहा?, जं भणित-विस्यनिरासा, जह इंदणागसिवातिया, अहवा अट्टाक्खिता तेऽवि पडियञ्जति वेयणामिभूतादि पमत्ता सुहिता, पचिया मणुस्सा सुहिता वा | दुहिता वा, अहवा तं एवं अक्खातं धम्मं अपडियजमाणा अट्ठा रागदोसेहिं पमना विसएहि अण्णा उत्थियनिहत्था पासत्थादओ वा| संसारमेय विसंति 'अहासबमिणति बेमि' अहामञ्चं इदमिति-सुयधम्म चरित्तधम्मं च, से बेमिनि कि ? भणितं वक्खमाणं | ॥१३९॥ दीप अनुक्रम [१४३ १४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [143] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] प्रत वृत्यक [१३०१३३] श्रीआचा- च, एवं दुल्लभ सम्मत्तं लद्धा चरिचंचण पमाो कायव्यो, 'नाणागमो मच्चुमुहस्स उवत्थि' अहवा ते अदृ पमचे य एवं उपक्रमादि FD परिगणिचा सहसेच संयुमति 'नाणागमो मरुचुमुहस्स' अहवा अट्टावि संता अदुवा पमत्ता अहासचमिणं धम्म आयरतीति वकचूर्णिः सेसं, किं कारणं ? 'नाणागमो मच्चुमुहस्स' उवक्कमेणं णिरुवक्रमेण वा, तत्थ उवकमो इंडकससत्थरज्जू०, जाव पालणं णिरु॥१४॥ Nवकमो, उभयहावि नाणागमो मच्चुमुहस्स, जे तु अट्टा पमचा अहा सर्च धम्म ण बुझंति ते 'इच्छापणीता' विषयकसायादि अप्पसस्थिच्छा जेसिं सावजकम्मेसु इच्छा फुरति ते इच्छापणीता, अहवा इच्छाए पेरिता 'वंका णिएता' बंको असंमो णिकेतोगेई माता गिहभूता, भंडआरंमर्थभकुंभेहिं वकमा णिकेतभूना, वको वा तेसिं णि केतो, अहासर्च धम्म ण पडिबजतीति वकृति, | काले गहिता कालगहिता, कतरेण ?, मच्चुकालेणं, अहवा अमुगे काले धम्मं चरिस्मामि मज्झिमे अन्तिमे वा वये, दवणिचयो | हिरण्णाति भावणिचयो कम्मं तहिं णिविट्ठा, जं भणितं तत्थ द्विता, ततो कम्मणिचयायो 'पुढो पुढो जाई कप्पंति' पिहु वित्थारे बहुविहं जाई एगिदियजाति वेदियजाइ जाव पंचिंदियजाई, अहवा पुढो-पुणो २ जाति पगरेंति, पहिअति य-'एत्थ मोहे पुणो २' एथंति कम्ममोहे संमारमोहे वा पुणो पुणो मिच्छत्तविरतिपमादयोगेहि मोहं समजिगति, पढिजह य 'पुढो पुढो |जाई कप्पेति' जे अण्णउस्थिया वंकाणिकेता मिच्छत्तनिकेता ते पुढो पुढो ससिद्धृतजातियो पगप्पति-पंति, 'इहमेगेसिं तस्थ तत्थ संथयो भवति' 'इहेति इह मानुष्ये मिच्छत्तलोगे वा एगेसि 'तत्थ तत्थेति तहिं तहि मिच्छत्तकसायविसयाभिभूते दरिDसणे संथुति संथयो, किं पुण विसेसाणं पत्ताणं उवभोगो ?, सस्थागमातिपरिग्गहि उद्देसिए ण दोसं इच्छंति, उद्देमयं प्रति पायसो तिस्थियाणं संथयो, एवं पहाणादिदेहिं सकारेम, लोगायतिया णं भणंति-'पिच मो(खा) च साधु सोभणे' एवमादि, सावजजोगेसु || ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१४३ १४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [144] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] प्रति वेदनादि श्रीपाचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥१४॥ प्रत वृत्यक [१३०१३३] | संथर्वति, जं भणित-संजुअंति, ते एवं मिच्छादिही जहा जहा भाविणी तहा तहा गतिसु उववर्जति, अहोववाइए कास पडिसंवे-100 दयंति' अहवा पुढो पुढो जाई पम्गप्पेंति, जं बु जारिसं जाई पगप्रेति तारिसं तारिसं जाई पप्प इहमेगेसि संथवो भवति, | इह संसारे संथुति संथवो, अप्पसत्थो नेरइओ नेरइयत्तेण, संथुवति णाम निद्दिसिजति एवमादि, पसत्थं तु देवो देवण, अहवा | समागमो संथवो, पुणरवि ते संसार संसरंति, अण्णमण्णस्स माइचाए पतिचाए संथुविहिंति, ते एवं संसारिणो जत्थ जत्थ उव|वअंति तत्थ तत्थ 'अधोववाइए' अध इति अणंतरे, अह ते सकम्मनिद्दिटुं अण्णतरं गतिं गया, उवयाते जाता उबवाइया फुसंति, | जं भणित-वेदेति, अहबा फरिसो नियमेण सम्वेसि अस्थि, रसातिविसया केसिंचि अस्थि केसिंचि नत्थि, तत्थ नेरइएहिं फासा | सीता उसिणा य, असिपत्तकरकयकुंभीपागादि, एवं तिरियमाणुएहिंवि जहा सकम्माविहिते इटाणिद्वे, अहवा बहुणि हत्थछेयणाणि जाव तालणाईणि पाविहिति, सीसो पुच्छति-ते भगवं ! ता कनिकेयणिचयणिविट्ठा पुढो पुढो जाययो पगप्पंता तत्थ तत्थ संथवे । | करेमाणा अधोववातिए फासे वेदेमाणा सब्वे समवेयणा भवंति !, णो तिगडे समवे, कह?, 'चिटुं कुरेहिं कम्मेह' चिद॒ति वा गादति वा एगट्ठा, जेत्तिया अज्झवसाया चिट्ठ हिंसातिकूरकम्मेसु पवअंति, विविहं परिचिट्ठति, णग्गेसु जहनेगं दसवाससहस्साई तेण परं समयाहिया जाव तेचीसं सागरोवमाई चिट्ठति, 'चिट्ठ चिट्ठतरंति एत्थ इमाओ दो कारगगाहाओ 'अस्सण्णी | खलु पदम०' जहा ठिती तहा वेपणा, विणा चिटुं कूरेहिं जहा जहा तस्स हिंसादीणि ण अतिकूराई कम्माई भवन्ति, तंजहा-असण्णी | खलु पदम, एवं समिणोवि जहा जहा मंदझवमागा भवंति तहा तहा नेरइयाउहेऊसु वट्टमाणाविण चिट्ठति, न दिग्घकालट्ठिईएसु । | नरएसु उजवअंति, ण वा अतिचिट्ठ वेदणावेदणं, एवं तिरियमणुय०, एवं सुभकम्मे सुवि चिट्ठ अकरहिं चिट्ठ परिचिट्ठति, 'एगे । दीप अनुक्रम [१४३ १४६] ॥१४१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [145] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] ज्ञान्यादि श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१४२॥ प्रत वृत्यंक [१३०१३३] D वदंति अदुवाधि नाणी' के एवं वकृति चिट्ठ कूरेहि कम्मेहि !, जं भणितं-सेवेति, जे अतीता ते भण्णं ति, एगे वदंति अदु वावि' एगे सम्मट्ठिी अदुवा-अहवा गाणी-सो चेव सम्मदिड्डी नाणी वदंति अदुवावि एगे, गतिप्रत्यागति०, सम्मदिट्ठी एवं वदंति | त एव नाणी, अहवा एगेत्ति एगनाणी अदुवा विनाणी-अणेगनाणिणो तस्सिस्सा, को अभिप्पाओ, जहा केवली पण्णवेह नहा चोद्दसपुचीवि, आवा एगे रायविषमुको सो चेव नाणी, अहवा एगे एकिया मिच्छादिट्ठी, किंबटुंति ?-'आवंति केआवंति' आवंति यावतेत्ति वुत्तं भवति, केयाति-जावंतिया केई, लोए मणुस्पलोए पासंडलोए वा समणा परतिस्थिया अभत्ता वा माहणा धीयारा पुढो वा तं पिहप्पिह परोप्परविरुद्धं विकापसो वा 'से विद्वं च णे'जे तेसिं तित्थगरा ते भणंति-दिहूं, अम्ह सुतं, तस्सि स्सेहि मतं अमिप्पेतं, किंचि दिई सुतंपि नामिप्रेतं भवति, एतेहिं तिहिषि पगारेहिं णाते विष्णातं, अहवा दिट्ठति वा सुतंति वा Vविण्णायति वा एगट्ठा, उई अहं तिरियदिसासु पाणवगदिसाए 'से सबओं' दिसिविदिसासु सुपडिलेहिनं-सुदिष्टुं 'सच्चे पाणा' सन्चे इति अपरिसेसा, परेसिं प्रायसो किमिगमादी जीचा, तेऽवि किर पंचिंदिया, केसिंचि वणसतिमादि, तेवि पंचिंदिया एप, ते सम्वे सन्यहा सम्बकाल हतब्बा जाच उदवेपन्या, कई ते धम्मट्टिता पाणा इतना इति भणति ?, भण्णति-जे उदेसिय ण पडिसिद्धति, तफलं च पण्णेति, अतो जे पाणा हगंति ते अणुणायंति, जति उदेसियं पडिसिद्ध होतं तो तम्बही पडिसिद्धो होतो, माहणा पुण धम्म उदिम्स जणनिमित्तं एवमाइक्खंति एवं भासंति इतव्या जाब उपवेषना, एतं पुनभणितं, चोदिता वा परेहिं एवं | भण्यांति-'एन्थवि जाण णस्थित्थ दोसो' अपि पदत्थे जहा अणुद्देसिए नहा उद्देसिएपि तिकरणसुद्धचा गस्थि अणुण्णादोसो, अणारियवयणमेनं, एवं मुणित्ता तत्थ जे ते आयरिया समणा य माहणा य ते एवमाइक्रवंति एवं भासंति, कतरेति ?, नाणदसणच दीप अनुक्रम [१४३ ॥१४२॥ १४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [146] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२२७-२३३], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] श्रीआचा रांग मूत्र चूणिः 11१४३॥ प्रत वृत्यंक [१३०१३३] रितआयरिया 'सिनि णिदेशे तं एवंविहं दरिमणदुदिलु च भे दुम्सुतं च मे दुष्णाय च मे दुनिष्णायं च मे जो तुज्झे एवं || आइक्सह एवं पण्णवेह एवं परूवेह जाव उद्दवेयना, एथघि जाणेह अस्थित्थ दोसो, अहवा एत्थंपित्ति जह एत्थं पाणातिवाए तहा जाव परिग्गहे, वयं पुण एवमाइक्खामो एवं पण्णवेमो एवं परूवेमो मब्बे पाणा सब्वे भूता ण इतम्या ण उद्दवेयम्बा ण अजावेयचा ण परितावेयब्वा ण परिवेत्तव्बा, एस्थवि जाणं नस्थित्थ दोसो, आयरियवयणमेयं, एते वुच्चमाणा ण पडिवजेजा तत्थ उविकता कायब्वा, ण असंखडेयध्वं, ते य उद्दसट्टा जीवितातो ववरोविजा, जया तु विदुपरिस.ए तता 'पुर्व णिकाय समयं' पुर्व णिकायेऊण समयपुच्चगमेव सबई कारवित्ता जहा तुज्झेहि सम्भावो अक्खातब्बो, पासणिये वा पुग्वं णिकायेतन्या, अहवा पुर्व छंति णियागं जंतेसिं अप्पणगंजो तेसिं समयो एकेकं प्रतिपन्ने पत्तेय 'हमो समणो माहणो' हे हरे हंभो आमन्तणे समणा | पासंडी माहणा-धियारा, कि सात दुक्खं उदाधु अस्सातं ? सातं पियं अस्सात अपियं ?, जति ते भणेजा-अम्ह दुक्खं सातं, तो बत्तव्वा | जो णाम तुझं आहास्वसहिसयणासणादीणि सुहकारणाणि देति सो णाम तुझं सुक्खं उप्पातेति, भत्तो ण दातम्ब, दुक्खं च उप्पायंतो सुई उप्पाएति, अध एवं चूया ण णो सातं दुक्खं, सुहं अम्हं सातं, जे भणितं-पियं, ते एवं चाइणो 'समित्ता पडिचपणे बूया' सम्म पडिवण्णो समियापडिवण्णो, को सो ?, साह, ते एवं बूया-जहा तुझं दुक्खं अस्सातं एवमेव सब्बेसि पागाणं | भूयाणं जीवाणं सत्ताणं, अहवा ते चेव सम्म पडिवण्णा भवंति. किमिती ?, जहा अम्हं सुहं सातं दुक्खं अस्सातं, ते कुतो तुझं अट्ठाए पचंति तेसिं पाणाणं, अहवा मन्चलोए सव्वेसि पाणाणं भूयाणं तं मरणदुक्खं अस्सातं, तेण णिबुई ण भवति, तं अपरिणिचाणं महन्भवति, मरणतुल्ण भयं णस्थीति अतो महस्मयं दुक्खंति, तदेव मरणं परितावणाति वा, एवं एते संदिट्टीएण हेउणा निग्गहिता दीप अनुक्रम Admi [१४३ | ॥१४॥ १४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [147] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३० १३३] दीप अनुक्रम [१४३ १४६ ] श्री श्राचारांग सूत्र चूर्णि ४ अध्य० ३ उद्देशः ॥१४४॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४] उद्देशक [२], निर्युक्तिः [२२७ - २३३], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३०-१३३] परिसाए परिगता ण किंचि उत्तरं, ण सकेति वा हेउ, मिच्छत्तपडिधाते य सम्मत्तं थिरं भवति, अतो परं उबालंभो, एवं बेमि ॥ चतुर्थ्याध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः ॥ उद्देशाभिसंबंधो - एवं सम्मत्ते थिरीभूते अणवञ्जतवे पराकमितव्यं, तेण य सम्मत्त सहगतेणं तत्र सक्खियं सुच्चति, तेण ततिए अणवञ्जतवो, एस उद्देस मिसंबंधो, सुत्तस्स सुत्तेण सन्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं च महन्भयं दुक्खति, एत पस्स व अनउत्थियाणं उपदेसो दिण्णो, इहबि सो चेव उवएसो बिसिस्स दिजति, 'उवेय वेतं बहिता य लोगं' पाणा भूता वा जीवलोगो तं इहावि उवेह, उब सामिप्पे इक्ख दरिसणे, इहेव इक्खाहि, अहवा उवेहादि एतंति जं उबकमो, बहिता सम्म नाणचरिचाणं लोगो मिच्छत्तलोगो तिनि तिसट्टाणि पादातियसयाई तदुवासिणो य, अहवा उवेहा अव्वाचारउवेहा, एतेसिं अभिगमणपज्जुवासणादिसु, जं भणितं अणादरणं, तम्मतेसु बुद्धि ण कुञ्जा ण वा तप्पूयं अभिलसे, जो एते उवेद्दति 'से सबलोपसि' | से इति णिसे, लोगो मणुस्सा वा पासंडा वा 'विष्णु'त्ति जाणगो, सव्यलोए जे केवि भूया तेसि अग्गाणीए 'अणुवीथि पास' अणुविचित्य २ अणुवीयि, एवं अणुचिंतिऊणं पेक्खमाणो, णिक्खितो दंडो जेहिं ते णिक्खित्तदंडो, दंडो घातो भणितं, तत्थ दव्यदंडो सत्यग्गिविसमादि, भावे दुप्पउत्ते मणो, 'ये केथि सत्ता पलियं जहंति' णिक्खितदंडो होऊण पलियं जहिता मोक्खं गच्छति, कतरे ते सत्ता?, परा ण अण्णे, तेवि 'मुयचे' जे परा मुतच्चा ते परा पलियं वयंति, अच्चीयते तमिति अच्चा तं च शरीरं, व्हायंति सकारं प्रति मुता इव जस्स अच्छा स भवति मुतचा अहवा अच्ची लेस्सा सामता, जं भणितं अप्पसस्था मुता, अणवखे तवे कीरमा वा पमुदितलेस्सा ते ण संकिस्संति, अतो नरे तच्चे 'धम्मविउत्ति' अह सुयधम्मं अस्थिकायधम्मं च बंधमोक्खधम्मं वा धम्मं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ अध्ययने तृतीय- उद्देशकः 'अनवद्यतप' आरब्ध [148] लोकविज्ञस्वादि ॥१४४॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३४ १३६] दीप अनुक्रम [१४७ १४९] श्री आचा रोग सूत्र चूर्णि ॥१४५॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [२३४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३४-१३६] विदतीति धम्मविदः, इति उप्पद रिसणा 'अंजु'चि उज्जू, किं १, आरंभणिक्खिनदंडा सुतच्चा धम्ममारचयति, नणु आरंभजं दुक्खं, आरंभाजात आरंभजं, असंजमातो जं भणितं परिग्गहा, तच्चैव दुक्खं-कम्मं, एगग्गहणे गद्दणं तजातियाणंति आरंभग्गहणा अवि आसवा, एवं गच्चा णिक्खितदंडो भवति 'एवमाहु' जं आदीये भणितं आहु एवं भणितु सम्मतं परमतीति सम्मदेसी, ते सब्बे पावातिया धम्मकुसला परिणमुदाहरति सबै अतीतानागतवट्टमाणा तित्थगरा, पवदंतीति पावातिया, जं भणितं वंभकम्मं, कुसला जायगा, कुमा दब्बे य भावे य, दब्बकुसे लुणाति दव्बकुसलो, भावकुसला कम्मं तं दुक्खक्खयट्ठाए लुणाति, जाणगपरिणाय जाणिय कुसला पश्चकवाणपरिष्णमुदादरंति, अहवा सब्बे ते पावाइया तिमि तिसट्टा जे मोक्खवायिणो ते अप्यणप्पए दरिमणे बंधकसला, कुसलसि जाणणापरिण्या महिता, जहा संसारो भवति, इत्थी पुरिसा नपुंसगगरगादि, परिष्णागरणा पञ्चकखाण परिणा गहिता, गहि बंधे अपरिण्णाए मोक्खो परिण्णाओं भवंति, जेग सव्वकम्मक्खया मोक्खो, 'इह आणाकंम्बो पंडिते' इह पासंडेसु आणा उवदेसो तं सएसए दरिसणे कवंति, अश्वा कुदिट्ठीउ अवत्थमेव, कहं ?, इह अप्पाणं अण्णानं चैत्र, तेण कुदिडिओ आणं प्रति अवत्थमेव, जे कुसला परिणमुदाहरति ते इह आणाखी पंडिते प्रतिवचने मोक्खकंखी, तदहं च अणवञ्जतवं उट्टिता, आणाकंखी आयरियडवदेसे, पावा डीणा पंडिता, ण कुदरिमणाण आणं कखंति, णिस्संकिताति, अणिहो रागदोसमोहे, अणिता विसयकसायमल्लेहिं वा अहवा पडिलोमअणुलोमेहिं परीसह उवसग्गेहिं रंगमलच्छसंगासा, मल्लावि केयि अपंडिया भवंति, केवि पडिहयावि पुणो पच्चुद्वारं करेंति, निरुञ्जमाओ अवत्थमेव भावमल्लायि केयि णिचं अप्पमचा, अणहितावि पुणो उञ्जमंति, सेसा अवत्थमेव, कई रामादीहि ण णिति, एगमध्याणं एको अञ्चितयो अप्पाणं समं पेहाए उवेहाए, किं सम्मं पेक्स्वंति एकः प्रकुरुते कर्म, संके एक ।।१४५ ।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [149] कुशलादि Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२३४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३४-१३६] श्रीआचारांगसूत्र चूर्णिः ॥१४६॥ प्रत वृत्यक [१३४१३६] तत्फलम् । जायत्येको म्रियत्येको, एको याति भवान्तरम् ॥१।। अहबा सरीरातोऽपि अण्णो अहं, एवं पचा सरीरसंगो न कायम्बो, । | कुत्रलादि जतो भण्णाति 'धुणे सरीरं दवेणं वण्णाति, भावे कम्मावकरिसणं, सीर्यत इति शरीरं, कतरं ?, कर्म शरीरं, तणणनिमित्तमेव सरीरे उबयार काउं भण्णति 'किसेहि अप्पाण' किसं कुरु सरीरं अप्पाणं बाहिरब्भंतरेण तवसा पतलूहअमिग्गहितेण अणवण तवसा, जहा जहा सम्म उदनेण नवसा सरीरंगपि किसीभवति, तं च ण सहसादेव किसी काय जेण अकाले प्राणेहि विमुञ्चति, अतो भण्णति 'जरेहि अप्पाणं' अणुपुब्वेणं शरीरं किसीकरेंतो जरं पोहि अप्पाणं, अहवा ओरालियसरीरधुणणा कम्मशरीरे किस कुरु, जं भणितं-तणुप करेहि 'अप्पाणं' सम्बकम्मसरीरअप्पाणं जरेहि, जं भणित-खायाहि, अहवा धुणणंति का करीसणंति | वा एगट्ठा, दग्यकिसो सरीरेण वण्णेण वा, अप्पसत्यभाव किसो जस्स नाणादीणि किसाणि, पसत्यभावकिसो जस्स अण्णाणातिणि । किमाणि, भणियं च-"किसे णाम एगे किसे, किसे णाम एगे पलिए, बलिए णाम एगे किसे चउभंगो, दबकिसेणं भावकिसेण | य अहिगारो, जरहि सरीरमपाणं जरहि तवसा, निझरणा कम्मनिजरा भवति, तत्थ द्रव्यजरा जिष्ण कई जिष्णा सुरा जिण्णं | शरीरं सम्म आहारो जिष्णो अजिष्णो खुलातिरुपाकरोति-भवति, भावजरा कम्मक्खओ, ततो निवाण, कम्मअजिष्णोदया तु| | परगादिरोगो उप्पञ्जइ, एत्थ धृणणकसीकरणजरणेहिं दिईतो, 'जहा जुण्णाई कट्ठाई०' जेणप्पगारेण जहा जिण्णाणं वार्दिक्येणं, || तु तरुणमुकाणि, ताणि समारना ण लहुं डझंति, अतो जिष्णो रुक्खो जरासुको दबग्गिना शीघ्रं दाते, हन्वं बहतीति | इन्चबाहो, मिस मंथेति, एस दिद्रुती-सुत्तेणेव, एयस्स उत्रणयो एवं अत्तसमाहितो, एवं अवधारणे, एवं कम्मं दि8 अण्णाणाति| सारातो णिस्सारीभूतं तपरिगणा अमुं उमति, सो केरिसो जेण उज्झति ?-एवं अत्तसमाहिते' अपा समाहिती जस नाणा- १४६॥ दीप अनुक्रम [१४७ १४९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [150] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२३४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३४-१३६] कुशलादि प्रत वृत्यक [१३४१३६] श्रीआचा-या दिसु अपए वा जस्य समाहिताणि णाणातीणि सो भवति २ सुविसुद्धासु वा लिस्मासु आता जस्स आहितो, जे भणितं आरो-। संग खत्र- वितो, एवं वा अत्तममाहितो, अणिहो पुन्बभणितो, सो एवं अत्तसमाहितो अणिहो कम्मवरणथमुत्थितो संपरितासको 'विकिंच चूर्णिः कोह'ति छोहि, एवं एगग्गहे ग्रहणं माणमायालोभाण, जा सव्वं चरित्तमोहणिज दसगमोहणिजं च, मोहणिजे विसुद्धे अत्थतो ॥१४७ सेसा कम्मप्पगडीओ विसोहियाओ भवंति, अविकंपमाण' मंदर इव बातवेगेण तहा, मिच्छादरिसणवातयेगेण सम्मदरिसणाओ अविकंपमाणो, बिसयकसायपातेहि चरिनाओ, दक्वं चिरं अप्पमाओ काउं, तं च ण चिरं, कहं , इमं निरुद्धाइयं' ''ति | माणुस्सगं, णिरुद्धं णाम परिसमयाओ उद्धं न जीविजति, 'सम्म पेहाप' सपेहाए, किं सम्म पेक्वति ?, जइ ताव नेरइयस्स जंतुणो, अहवा चरिमसरीरस्स ण पृणो आउगं भवतीति, तंपि समए समए णिअरमाणेहिं निरुद्धमितिकाउं केचिरं एतं तवचरणदुवं भविस्सति ?, अहवा सबभासवनिरोहो निरुद्धं काउं २, अहबा संजयाणं इमेण निरुद्रेण आउएण, जं भणियं परिमितेण, उपचित एतं 'छक्वं च जाण' दुक्समिति कम्म एतं जाणीहि, अथवा 'आगमिस्सं'ति इमाश्री भवाओ गरगादिसु उववभस्म आगमिस्सं. अहवा इह परत्थ य आगमिस्स, तं पंचविहं दुक्खं सोइंदियस्स० ते, तस्स फासो सम्वत्थतिकाउं भण्णति 'पुढो फासाई च फासे' पृथु बित्थारे अणेगप्पगाराई फासाई फुसंति तंजहा इत्थच्छिआदि, अहवा सीया उसिणा य फासा रोगफासा वा, अहवा पिहप्पिह इट्ठा अणिट्ठा य च सद्दा, इंदियाणुबातेण सदातिविसए अणिरुद्धअस्सया फासेंति, जं भणितं वेदेति, अहवा दुक्खं जाणिना, अहवाऽऽगमेस्सं पुढो फासाई फासेंति पिहप्पिहं बावीसं परीसहे फासेहि-अधियासेहि, एवं ते दुक्खं आगमिस्सं ण भविस्मति, काओ लंबणाओ पुढो कासाई फासे ?-'लोयं च पास विफंदमाणं' लोगो सम्बो जीवलोगो मणु PEDIA दीप अनुक्रम [१४७१४९] ॥१४७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [151] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२३४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३४-१३६] चूर्णिः प्रत वृत्यक [१३४१३६] श्रीआचा- स्साई विविहं अणेगप्पगारं फंदमाणं विफंदमाणं विसयणिमित्र किसिपसुवाणिजसेवाभारवहणादिएम, एवं कामभोगतिसितगिदम- निवृतादि |यित्न उम्मत्ती वा फासे फंदमाणो, 'जे णिव्युडा पावेहि जे इति अणुहिदुस्स णिचुडा णाम विसयकसाए विरागादि मिग४ उद्देश: दसणपाचावगमातो य सीतीभूना, तत्थ पा रागादी य तिनि, मिच्छत्तातियावि तिष्णि, पण गंधा, विसयकसायहिंसातिषा य" ॥१४८॥ | आसवा पावं, तेसु णिचुडा, जं भणितं-ण बट्टति, 'अणियाणा' नियाणं बंधणो, दब्बणियाणं कलत्तसपणासणधनादीणि णिग-IVA मडाणि वा, भावणिदाणं रागादि बंधहेऊ, दुविहेणावि णिदाणेण अणिदाणा, ते विविहं आहिता वियाहिता, जेण एवं सम्म पउ रोण तवसा अणिदाणनं भवति तेण भण्णति 'तम्हा' इति कारणा इति आमंतणे एवं जाणंतो सहहतो य विजं भवति हे विद्वन् 1,0 ण पडिसेहे, जहा 'असंजलंतत्ति संजलिंततो, जं भणितं रुस्सियतो, एवं माणमायलोभेसुवि, ण पडिसंजले, जहा गंतूण कोति पुणो एति सो चुचति पडियागतो, एवं संजलिऊण पुचि पडिसंजलिअ, बहिता लोगविसयाणं बट्टमाणो संजमतवणियमसंवरेसु | ठितिमां भविजासितिमि ।। चतुर्थाध्ययनस्य तृतीय उदेशकः ।। | उद्देसत्याधिगारो णिज्जुनीए वृत्तो, जहा ततिए अणवजतयो, चउत्थे तेण च तवसा आवीलेयध्वं कर्म 'उसंमि चउत्थे कम्मं आवीलए सुयतवेणं', सुतग्गहणा सुयमेव गहितं, तवग्गहणा सेसतवभेदोदर्शितो, तत्पुरुषसमासोवा, सुत्तसंबंधो परंपरसुत्तसंबंधो य अणंतरसुतसंबंधो य, 'ण पडिसंजलणे केहि ण पडिसनले जहा असंजतने सरीरसंबंधघडामिन रसायणव्यायामादीहिं संजलितं वा ण एवं तहा पडिसंजले, इहेवि सरीरं आत्रीलए, जिइंदियस्स तु मणो त जाव झीणं, विसेसेणं अन्भुञ्जयमरणे, | अहवा पुच्वं मुएण सुतअणुपरोधाइतवेण, अम्भुञ्जयमरणकाले तु संलेहणापुब्बएण तवसा, तदणुपरोधाच सुतेण झाणेण, परंपर-10॥१८॥ दीप अनुक्रम [१४७ १४९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्थ-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'संक्षेप वचन' आरब्ध:, [152] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२३४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] आपीलनादि श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ११४९॥ प्रत वृत्यंक [१३७१३९] सुत्तसंबंधो 'जे णिबुडा' णिचुडो भविता संबरितासबो आपीलए पपीलए, दयावीलगा जहा अल्लकासायि आवीलित्ता मुञ्चति, भावे सुततवेणं आवीलए सरीरं कम्मं च, मिसं पीलणे पीलणे पोलणा, जहा वगो ताव णिपीलिञ्जति जाब णिस्सेसो पुग्यो णिचुडो भवति, अण्णहा ण रज्झति, भावे सुततवेहिं गिपीलए, जहा अहिगं दाहो निदाहो तध अधिगं पीलणा णिप्पीलणा, दब्बे वत्वइक्षुमादि भावे असेसं कम्मं जीवाओ गिप्पीलए, अहवा ईसी पीलणं आवीलणा जाव सेहे, तेण परंपरवीलणं, संलेहणाकाले णिप्पीलणं दुविहस्सवि सरीरस्प, अहवा आवीलणं जाव वीतरागो, उवसामेंतो य पीलेति 'जहित्ता पुब्वसंयोग एवं चेव पुवं भणियब्वं जहिता पुब्बसंजोगं पच्छा आलिए, भण्णति लोगे दिढतो, जहा आहारपत्तं आहारेति, स एव अत्थो, एवं जहिता पुन्चमायतणं आवीलेयचं, आपीलेपन वा जहिला पुबमायतणं, अतो दोसो, तत्थ पुबमायतणं सयणगिहाति अतंजमोवा, तम्सवि | 'अप्पा रागादीया गाहा, तदेव पुबमायणं छड्डित्ता आवीलए ण केवलं लिंगमनधारी 'हेचा उवसमा 'इहे'ति इहं प्रब-U चने हेचा-आगंतुं उनसमो इदियदमो णोइंदियदमो वा, आवीले इति चट्टति, उपसंतस्स य अचिरा कम्मक्खओ भवति, 'तम्हा अविमणे वीरे' तम्हा कारणा विगतो मणो जस्स स भवति विगतमणो, जं भणितं-अरतितोगभयं समावणो, ण विमणो अविमणो, वीरो पुब्बभणितो, अचिमणत्तातो य सारते सहिते समिते, अच्चत्वं रतो मुआरतो, सारतो तये धम्मे वेरग्गे अप्पमाए य नाणा तितिए समितिगुत्तीसु य, अत्थि पुण कोयि दवाययणं अजहित्ता आवीलेति जहा भरहो, तबणियमसीलभावणा वीसं जिणणाम ॥ हेतू य, एतेसु रतो, णीलवणगतो व मातंगोल पमुदितो तवे सदा आवोलए, ण अवसट्टो भबिज परामियोगेण वा, सहितो नाणा| तितिएणं, समितो समीतीहि 'सदा' इति जावजीवं, जते इति आतोवदेसो, एवं पुणो २ आवीलए हेच्चा उत्सम अविमणे सारते, दीप अनुक्रम [१५० १५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [153] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३७ १३९] दीप अनुक्रम [१५० १५२] बीजाचारांग सूत्र चूर्णिः ॥ १५०॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], निर्युक्ति: [ २३४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३७ - १३९] स एव अत्थो अगसो अधिनमाणो पिट्टपेसणो निरत्यगो ?, मण्णति, 'दुरणुचरो मग्गो वीराणं पच्छा चरति अणुचरतीति दुक्खं अणुचरतीति दुरणुचरो, मग्गो पंथो, णिचं, अप्पणिज्जे य गुरुसु य बहुवयणं तेण वीराणं, सामिस्स मग्गो, सम्यतित्थगरागं वा, केण दुरणुचरो ?- जेण अणियट्टगामी, ते जहा रोचिते विसए छड्डित्ता पुणो न आकंसंति, वीरा तवणियमसंजमेसु न विसीतंति अणियट्टकामी, तमिस्सावि वीरा एव, जतो य एसो दुरणुचरो वीरपुरिम अतो मग्गो तेण पुणो न सिस्सोच्छाहणं कीरति'आवीलए', एवमादि, 'विगिंग मंससोणितं' विगिंच-उज्झ, किं आयुधेणं छिंदिय विगिंचियवं १, मंसं सोणितं उदाहु सिरादीणि, ण सोणितमेव केवलं, ण तु मंसं तं च ण, एवं सरीराधिडागा धम्मस्य, सुततवेण पुण्योवश्चिनं विगिंच, शिब्बलं आहारए जेण सोणित उपचयमेव न भवति, सोणिते य अवचिते तप्पुवगत्ता प्रायेण मंसं अवचितमेव भवति, तस्स अवचरण मेतो अव चिजति जाव सुकं, अंतो य आहारो भवति, जो एवं आवीलेति नागातिजुत्ताणं वीराणं मग्गं पडिवो 'एस पुरिसो दविए बीरो' एमो जो भणितो पुरि सयणा पुरिसो दत्रियो - रागदोसविमुको वीरो पुष्वभणितो, एस चेव आदाणिओ, आदेयो आदाणिओ, जं भणितं गेलो, अढ़वा जो हितो, आयहितो आताणियो, अहवा आदाणाणि नाणादीणि, आदाणप्पयोजणी आदाणडिओ बा, विविधं अक्खाओ वियाहितो, सो पुरियो सो दवितो सो बीरो सो आदाणिओ, कतरो १, 'जे धुणाति समुस्स' दव्वसस्सओ सरीरं, भावे कोहमाणमायालोभा, सध्यो वा मोहो, भणिता अप्पमत्ता, विवरीता पमत्ता, केयि आताणियावि भविता वसिता बंभचेरेणं आधार एव तत्थ केयि आचारमंतो भविता 'णेत्तेहिं पलिडिण्णेहिं' जयंतीति णेताणि चक्खूमादीणि, कई चक्खुजाणि ताणि १, णणु मदेणाविंधति गंधेण पित्रीलिया गुलमभिसंसप्पति रसो तत्थेव फरिसी अंघो रज्जु गच्छति, पातकरि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [154] दुरदुर त्यादि ॥ १५०॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२३४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] श्रीआचा गंग सूत्र- I चूर्णिः ॥१५१॥ प्रत वृत्यंक [१३७ सेण चा पहे गच्छति, भावे नाणादीणि मोक्खं गयंतीति, जेसि संजतने दब्बे ताणि ताणि छिण्णाति आसी, मणितं जिताणि, आदान त एव केपि परीसहोदया भाषणि तेहि छिण्णेहिं किन सो तेहिं मुग्छिता जाव अझोपण्णा आताणसोयगदिता' आताण LAश्रोतआदि कम्मं संसारचीयभृयं तम्स सोताणि गगातीणि तिण्णि, दोहि आगलितो बालो, 'अघोच्छिन्नबंधणों' दवबंधणं सयणधणादि, भाये 'रागातीया तिमि गाहा, अणभिकंतसंजोए' अमिमुई कतो अमिकतोण अमिकतो अणमिकतो जंजोगो दन्ये, पणधअमित्तपंधरा खितं दुपयानि कवियदुस्साति अह दब्बे संजोगो, रागदोसादीयो भावे, सो य मन्झिमे पच्छिमेवा वये अमिकमिजत्ति, णाभिकतो अणमिकतो 'अंधतमस्सऽवियाणतो' अंधस्स तमस्स, तदिति जंति वसित्ता भनेरसि आताणसोपगढिते अणमिकतसंजोए पुणरवि गिहे आवसति, एतं तस्स अवियाणणा, तत्थ अवाया भवति, पढिाइ यतसि अवियाणतो' तमंसि नमपडलमोहपलिन्छ नस्स असंजमाए अयाणगस्स, एवं तस्स उत्पथप्रतिषभस्स तित्थगरआगाए अबकमाणस्स बहुम्मुषस्सावि | संतस्स 'आणाए लंभो णस्थित्ति बेमि' आणा सुतं तस्स लंभो णिजस ततो मोक्खो, से तस्स आणालभो नस्थि, अदवा 0 'सवणे नाणे विभायो'उत्तरुत्तरलमो, सो तस्स बंभचरणे अपमिकंतसंजोगस्स पत्थि, भणिता प्रमादिनी, तब्धिवरीआ अप्रमादिनो, | तिसुवि कालेसु विसयणिगसा, जतो सुन्ने जस्स णस्थि पुरे पच्छा मझे वा' जस्स जओ जेसि वा पुरा णाम पुज्छ सुत्नेसु विमएसु | पुब्बतरपुण्यकीलिताणुस्मरणं, पच्छा णाम एस्सकाले सुए परुं परारिं वा भोक्खामि, परलोइए दिव्यमाणुस्सेहिं णिदाएं करेति, | जम्म अतिकते अणागते वा काले विमयासंमा गस्थि तस्स परमणिरुदत्ता बट्टमाणकाले मजझे कृतो सिपा, न सिया विसयासेति। बकसेसो 'से हु पगणाणमंते बुद्धे' म इति विसयनिरासो हु पादपूरणे पणा अस्स अन्थीति णिल्छयणयस लोगो पण्णाण- ॥१५॥ दीप अनुक्रम [१५० १५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [155] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३७ १३९] दीप अनुक्रम [१५० १५२] श्री आचारांग सूत्र चूर्गि: ॥१५२॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], नियुक्ति: [ २३४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] मंतो सो सम्मद्दिड्डी, पुढो य जो 'आरंभोवरतो' आरंभो णाम असंजभो ततो उवरतो, अहया विसयकसायनिमित्तं आरंभ पवतति, तं जस्म णत्थि पुरे पुच्छा वा सो पाय आरंभाओ उवरमति, एतदेव य तस्स सम्मतं 'एतं च सम्मं पासह' उभेवि पेक्खधउबलभधा, जं वृतं वृत्तमाणं वा, तंजहा 'जेण बंधं वधं घोरं परितावं च दारुणं' बंधा णिगलादीहिं, बधो कसातिएहिं घोरंदारुणं, जं भणितं निरविक्खं सभंता तावो परितायो, बंधवहाणं एगदेसेऽवि तावो भवति, परितायो तु सव्वसरीरदाहातिसु, जतो मरणंपि भविज्ञा, अहवा वधो तालणे मालणे य, तालणे ताब दंडेहि तालियो, बहितो वा, परिताको तु माणस एव, वयंति य'किं एवं परितप्यसि' तं आरंभ असंबुडो सो ताई करेंति जेण बंधं वहं घोरं तं च सोतं बज् अभ्यंतरं च, बाहिरं मातापिताति अमितरं 'रागादियाण' गाहा, बज्झसोयणिमितमेव अंतो सोताणि अयं कुणति, तं 'पलिछिंदियाणं' जं भणितं तोडित्ता, 'णिकम्मदसि'त्ति णत्थि अस्स कम्मं तहिं वा कम्म णिकम्मा, को सो ?, मोक्खो, तं णिकम्माणं पश्यतीति, ण मोक्खं अंतरेण अन्नं किंचि पस्सर, तचित्ते तम्मणे तसे तम्मेतं तस्स हेऊ य परमति, जं भणितं साधिति, लोगे विस्तारो भवति, ण एसो किंचि अण्णं पस्सति, कोऽभिष्यायो ?- दिट्ठेऽवि अणातरो, एवं सो निकम्मं चैव एवं पेक्खति तस्साहणाणि य, सेसं पेक्खतोऽविण पेक्खति, णिकम्मंसो वा जया भवति तता पेक्खति, जं भणितं खीणावरणो, तं कत्थ पासति ? कत्थ वा निकम्मादरिसी भवति ?'इह मविएस' मरतीति मच्चुया, मणुस्सेसु चेव एगे सुणिकम्मदरिती भवति, इह वा प्रवचने, सो एवं णिकम्मदरिसी कम्मुणा सफलं दर्द्ध, जं भणितं अवझं, 'पायाणं च खलु कम्माणं पुत्रि दुचित्राणं०' अहवा सुहाणि सुहमेव फलंति, असुभाणि असुभमेव 'ततो' इति कम्मअस्स वा 'णिज्ञाति' विरमति, वेदे जेण सो वेदो-मुत्तं वेदं विदंति वेदवी, भणितं सम्मतं इदाणि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [156] सम्यक पश्यता ||| १५२|| Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१३७ १३९] दीप अनुक्रम [१५० १५२] श्रीआचारंग सूत्र चूर्णिः ॥ १५३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [४], निर्युक्ति: [ २३४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३७-१३९] तष्फलं - 'जे खलु भो ! धीरा' 'ज'ति विदेसे खलु विसेसणे, किं विसेसयति १, जुद्धवीरा तवोत्रीरा 'भो !' इति आमंतेण, समिता ईरियातिहिं सहिता नाणादीहिं 'सव्वता' सव्वकालं जया समितिगुत्तीसु, संवदं नाम संथडे, जं भणितं - निरंतरं, नित्यकालोव उत्ता, पुष्वावर वित्थरदंसणा वा संथडदंसिणो, अप्पणा उवरता पात्रकम्मेहिं आतोवरता, जं भणितं न पराभियोगेणं ण वा | इस्सरपुरिसवसा 'अहा तहा लोगं उबेहमाणो' जहावद्दितं कम्मलोगं भवलोगं उविक्खमाणा, जं भणितं अहातचं पेक्खन्ताणं | सम्मत्तपभावणत्थमेव 'पाईणं जाव उडीणं' रीयंतामिति वाक्यशेषः, अहत्रा सध्यासु इति सव्वंमि विपरिचिडंसु, इति पदरिसणत्थं, एवं अणिवणं सच्चं अहवा सच्चोति संजमो वृत्तो, तित्थगरभासिय वा सम्मतं वा भवे सच्चं, विसेसेणं अतिसएण वा चिट्ठि विपरिचिद्वंसु, अतीतकालग्गद्दणा तिकाला सूचिता, अतीतकाले अनंता विपरिचिट्टिसु बट्टमाणे संखिजा पंचसु भरहेसु पंचसु | एवरएस पंचसु महाविदेहेस, अणागतेऽवि काले परिचिट्ठिस्संति, मा तुम चिंतेहि अहं एको दुकरं तत्रसंजमं करेमित्ति, एवं तेसिं भगवंताणं गुणजाइयाणं साहिस्सामो, जं भणितं अक्खाइस्सामो, अहवा साहिस्सामि पसंसिस्यामि परुविस्तामि, किंच-न सम्मइंसणं मुसा अन्नं लोगेऽवि कजं निचं अस्थि, सम्मं नाणं च तवसंजमे विरायति पावकम्माई, संजमवीरियजुत्तो वा वीरो विरतो वा पावातो, तेण वीरा समिता सहिता जता पुण्यभणिता संथढं णाम निरंतरं, दव्यादि दब्वओ णं केचली सव्वदव्वाई जाब सव्यभावे सेसं तहेव, जाव अधा तहा, तेसिं एवंगुणजातीयाणं, अणेगे एगांदेसेणं पुच्छा 'किमन्थि उवाही पासगस्स !" किमिति परिपण्डे, जहमणितेसु समत्तातिगुणेस वट्टमाणस्स उबही द्रव्यभावे पायगो-जाणगो, 'अह णत्थि' पुच्छावागरणं ण विजति जेण पुणो संसरेज इति, गतो अणुगमो, इदाणि गया, 'णायम्मि गिहियच्चे अगिव्हियन्त्रम्मि चैत्र अत्थम्मि' गाहा 'सव्वेसिपि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [157] युद्धवीरादि ॥१५३॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४० १४५] दीप अनुक्रम [१५३ १५८] श्रीजाचारोग सूत्र चूर्णि: ॥ १५४॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२३४- २४९], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] गाणं गाहा । एयाओ गाहाओ पढितसिद्धाओ चैव ।। समाप्तं चतुर्थमध्ययनं सम्यक्त्वाख्यं समाप्तम् ॥ अज्झयण संबंधी- सम्मतं चण्णितं तं चैव सव्वलोगसारं तप्पुच्वयाणि य नाणचरित्चाई, तत्थ णाणं तदंतरगतमेव इदाणि चरितं वणिजति, अहया जेण सम्मतचरिता वण्णिअंति तदेव नाणं, सुखसंबंधो 'अग्पाति नाणं वीराणं सहिताणं' चरितं गहितं, चरित पालणत्थमेव अचरित्तीणं इद दोसा वणिअंति, तंजहा- 'आवंती के आवंती', भणितो संबंधो, दारकमं दरिसित्ता अत्थाघिगारो दुविहो - उद्देसत्था हिगारो अश्यणत्थाहिगारो य, तत्थ अज्झयणत्थाहिगारो लोयसारता विचितियव्या, उद्देसत्थाहिगारो अगविहो, पढमे हिंसारंभं वण्णति, यमत्थं च हिंसादीणि कम्माणि करेति ते विसए वण्णेति, इट्ठाणि रागदो से हेऊ, विसयणि| मित्तमेव एगेसिं एगचरियं वण्णेति तिनि अहिगारा, बितिए 'विरओ सुणी भवति'त्ति, कुतो विरतो १, हिंसाविसयादिएहिं अप्पसत्थेगचरिताओ य, तंजहा- एत्थोवरए तज्झोममाणे अविरतवादी परिग्गहितो य, एतदेव एतेसिं महकभयं ततिए एसो अपरिग्गहोति, तंजहा - आवंती एतेसु चैव अपरिग्गहात्रंती विच्छिन्नकामभोगत्ति मुणी से भवे अकामे अझंझे, चउत्थे अव्वत्तस्सेगचरस्स पच्चवाया दरिसिया, तंजहा दुजातं दुष्परवतं, पंचमे हरतोवमा 'से नेमि निसअताचि हरतो तवसंजमगुचे' ति ते पास सव्वतो गुत्ते, 'णिस्संगत 'त्ति 'सहिस्स णं समणुष्णस्स संपव्ययमाणस्स' एवमादि, छड्डे उम्मग्गो वजेयथ्यो, तंजहा आणाए अणुत्रडिता, 'रागदोसे'त्ति उसोता अघसोता तिरियंसोता विवाहिता, णामनिष्फण्णे दुविहो णिक्खेबो- आदाणपदणामणिक्खेवो य गुणणिष्फण्णणामणिक्खेवो य, आदाणपदेणं आवंती युद्धति, तेण ण अत्थाधिगारो, गुणणिष्फण्णे लोगमारविजयत्ति णामं तेण लोगसारविजएहिं अहिगारो, लोगस्स चउत्रिहो णिक्खेवो पृथ्यं भणितो, सारो चउन्त्रिहो णामादि, तन्थ दब्बसारो सामितकरण अधियरणेसु मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम अध्ययनं 'लोक्सार' आरब्ध:, [158] उद्देशा र्थाधि ॥ १५४॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] सारादि प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीबाचा- एगत्तपुहुनेण, सामिचे एगले घतस्म मंडो सारो, पहुने रुक्खाणं सारो, करणे मणिसारेणाभरणेण सोभती राया, बहुते मणि-D रांग सूत्र-10 सारेहिं सोभति, अहिगरणे एगते संथडदहिमि कुसुमं उद्वितं, बहुत्वे संसारेसु कुलेसु दिव्यं पडति, अहवा दवसारे इमा गाहा | चूर्णिः सत्तहिं पदेहि अणुगतना 'सबस्मथूलभारिय' (२३९-१९७) पुनद्धस्स पच्छिमद्धेणं विभासा, तंजहा-सब्बस्सं जहा कोडि-| ।।१५५॥ सारं कुलं, धुल्लसारं भेंडें एरंडकट्ठ वा, जस्म वा जे सरीरं धुल्लंण किंचि विष्णाणं अस्थि सो थुल्लसार एच, केवल भारसारो पत्थरो बहराति, मज्झसारो खइरो, देससारो वंझो(अंयो) जं भणितं-तयासारो, पहाणसारो जत्थ पहाणो सचिनाचिचमीसाणं दव्याणं, | सचित्ते पहाणो दुपयाणं भगवं तित्थगरो तदणंतरं चकी तस्याप्यनन्तरं वासुदेवबलदेवा, चतुष्पदाणं सीहो, अपदाणं चंदणरुक्खो, M| अचिचाणं वेरुलिओ, मीसयाण स एव आभरणभूसितो गिहवासे तित्थगरो, सरीराणं ओरालियं सारभूतं, जेण सिज्झति, कसिणं वा सुहं अहिंगच्छिजइ, भावे 'फलसाहणता'गाहा (२४०-१९७) भावे फलसाहणता सारभूता, तत्थ फले कम्मक्खयो, कम्मक्खयस्म फलं सिद्धी अब्बाबाहसुहं, तस्स 'साहणता नाणदसण' अद्धगाहा, चउमुवि एगतं, कम्हा भावसारेण अहियारो ?, भण्णति'लोयम्मि कुसमएसु य' गाहा (२४१-१९७) लोगो ताव अवीति-तिण्हं आश्रमाणां गिहाश्रम एवं प्रधानो, सो सेसअस्समेहि उवजीविजइ, ततो य तेसि उप्पत्ती, कुसमया तिणि तिसट्ठा कागपरिग्गहकलंकलग्गा, संखा ताव पचाण उपभोगो, ताव सावि कामे सेवंति, भिक्खुगा विहाराहारसरीरसकारकलंकलम्गा. तहावि कालदोसेण ते पुजंति, दोहिं ठापेहिं दुस्सम ओगाई जाप्राणिजा, तंजहा-अधम्मे धम्मसण्णा० असाह पुजंति' अतो ते निस्मारत्ता ण आश्रयितव्याः, सारो तु आश्रयितव्य, सो इह परत्य य हितो, सो य नाणदसणतवचरणगुणा हितहाए, जतो. एवं तेण 'जहिऊण संक' गाहा (२४२-१९७) संकंति वा खंति वा, दीप अनुक्रम [१५३ JAMPARAN १५८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'एकचर' आरब्ध:, [159] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीआचा- अहवा संगपदं तं जहिऊण इमं सारपदं गहेयव्यं, किंत, सम्मत्तं चरितंच, तत्ताणं अत्थाणं सद्दहणं, तसं जीवादि, जेण भण्णति- तचाजीवत्थिय परमपदं, अजीवावि अत्थ परमपयं, एवं नव पयत्था, चरिपि संवरपदत्ये पविसति, तत्थ जयणाए संबरो भवति, श्रद्धादि रागदोसवजणे जतंति, जहा 'सद्देसु य भद्दयपावएमु जाव फासेसु' आह-भणितं भगवया भावसारो चउब्धिहो, तं किं एयाणि १५६॥ PA तुल्याणि अह एतेसिपि किंपि सारभूतं अस्थि , अतो पुच्छा-'लोगस्स य को सारों' गाहा (२४३-१९८) बागरणगाहा | । (२४४-१९८) सुत्तेणेव-लोगस्स धम्मो सारो, कतरो ?, जहणो, तस्स विण्णाणं सारो, जेण णअति सेसं कंठथं तत्थ उत्तरुत्तर सारतो 'कम्मविवेगो असरीरया य' गाहा, भणितो सारो, इदाणि विजतो वयेते, जं भणितं-मम्गणा, सो जहा लोगविजये, गतो IFALणामनिष्फण्णो । इदाणिं सुत्तफासियनिज्जुनीए, सावि जत्थ 'इहमेगेसि एगचरिया भवति"चारो चरिया वयण' गाहा, चारोचि IN ANI वा चरियत्ति वा एगढ्ढा, बंजणणाणतं, तेण चारे णिक्खित्ते चरिया णिक्खिता एव भवति, चारो छब्बिहो-णामाति, दग्वे पति-IV. | रिनो चारो अणेगविही, तस्थ जले थले वा दारुसंकमो कीरति, थले णगरदुवारविसमेसु सगडरथमादिया दबचारा, जले संकमो | कीरति, फलरण वा रज्जए वा णावाए या चरति, खेते जावइयं खेनं चरंति, काले जावतिएण वा कालेणं, भावचारो पसत्थो||| अप्पसत्थो य, भावम्मि नाणदसण'अद्भगाहा (२१६-२०२) अप्पसत्थो अन्नउत्थियनिहत्थाणं, पसत्थो साहूणं 'लोगे चउ| बिहम्मि गाहा (२४७-२०३) चउबिहो कसायलोगो, तत्थ कह चरियवं साहुणा ?, होतितित्ति(घिई)अहिगारों' अकुस्समाणेण वा आहणिजमाशेण वा ण रुस्सियन, ण माणो कर्तव्यो, अलाभपरीसहेण या वाहिजमाणेण ण माइवाणेण ओभासियवं, अनउस्थियपूयाओ वा दटुंण तासु मुच्छियवं, एवं सच्चस्थ धिती भावितव्या, नाणचरणेसु उअमियब्वं, तबोकिलंतेण धिती | ॥१५६॥ दीप अनुक्रम [१५३१५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [160] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] प्रत वृत्यक [१४०१४५] धीबाचा कायब्वा, हिंसातिसु पाचकम्मेसु उवरती कायच्या, अणियतवासिणा भवितव्यं, हरतभूषण परतिस्थिएहिं चोइजमाणेण अक्खो- लोगविपरांग सूत्र भेण नाणंतरादिसु णिकंखितातिणा भवितव्यं, सारपद जुत्तेण भवित्ता उम्मग्गा बञ्जयव्या, पिंडत्थो रागदोसविमुक्केण भवितव्वं, रामर्शादि चूर्णिः 'आवंती केयावती' अमिझत्ताए जावति, असंजता इति बुत्तं भवति, केावंते'त्ति जावतिया तीतानागतवट्टमाणा केयि असं१५७ | जता मणुस्सा सब्बजीचा बा 'लोगंसि विप्परामुसंति' लोए सव्वलोए वा परामुसिजंति, लोगे वा छकायलोए परामुसंति, लोए | वा गिहस्थअनउस्थियलोए विविहं परामुसंति, जं भणित-घातंति, अहवा परामुमणं आरंभो, जं भणियं-एतेसु चेव आरभति,एत्थ सक्खी भदंतनागार्जुनाः, पढंति-'जावंति केयि लोए छक्कायं समारभंति' अतो परामुमणं आरंभो, तत्थ आरंभमाणा | केयि केयि संघातं जुजंति, केयि परिताविति, केइ उद्दविजंति, जोगतिगकरणतिगेण, ते पृण समासओ 'अट्ठाए वा' अर्थधर्मकामनिमिर्च पुढवि समारभति, करिसगादि, धम्मणिमित्तं सोयि मट्टियाति कामनिमिनं मुरवादि, एवं छसु काएमु जोएयच्वं, सरणिपाणियं दगतोगरियादि 'पहाणं मददप्पगर०२, इट्टियागार लोहागार अग्गिहोओ वा नेऊ ३, एवं वाउवणफतितसेसु, एवं | मुसाबातादि ४, आतपरउभयहेतुं अट्ठा, सेसं अणट्ठाए, केवलं वेराभागी भवति, ते एवं अट्ठाए अणट्ठाए य आरंभप्रवृत्या जोग-10 त्रिककरणत्रिकेण 'एतेसु चेच विपरामुसंति' एतेसुत्ति एतेसु छसु जीवनिकाएमु विपरामुसंति, जं भणितं आरभंति, अहवा एतेसु चेव उववञ्जित्तु अप्पाणं विविधेहिं विपरामुसाति, जं या छक्कायवहोचितं कम्म, तेसु चेव काएसु उववजिता तेहिं पगारेहिं । LI उद्दविजमाणा परामसंति य, दक्खं भवति, सो किं एवंविहाणि कम्माणि करेंति जाई काएहिं विपति ?. ततो बुञ्चति-'गुरू से |कामा गुरु इब दुचया दुक्खं अप्पसत्धेहिं लंघिअंति, जो जस्स अणतिकमणिजोसो तस्स गुरू, भारियाउत्ति वा सुज्वति, कामा- ||१५७॥ दीप अनुक्रम [१५३ १५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [161] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] श्रीआचा- saco ॥ चूर्णिः ॥१५८ प्रत वृत्यक [१४०१४५] सहादि ते तस्स दुचया भवंति जेण तदत्थं कायसु पपत्तति, जतो य सो गुरुकामो भवति तम्हा सो तनिमित्तं पावं उवचिणाति, पाचोदया 'ततो से माइस्स अंतो' तत इति तम्हा 'मां मारयते यस्मान्ममारिभूतथ मारयति थाऽन्तो अनुसमयं मरणादपि कर्म भवो वा भवेन्मारः ॥१॥ अंतो इति अभ्यन्तरे, जतो य सो मारस्स अंतो वति, ततो इति तम्हा 'से'त्ति निदेसे, कस्स, तस्स कामगुरुस्स, दूरे णिबाणस्स, अहवा जो छक्कायसमारंभे वट्टति तप्पडिपक्खो जस्स अगुरू कामा, सो किं संसारस्स अंतो?, पेहिता पुच्छा, 'णेव से अंतो' अभिसरतो, दूरे, णिच्याणे जेण परि लद्धं होति ण सो कम्मसंसारस्स अंतो परति, जम्हा बार-II सविहे कसाए दूरेति, दूरेवि ण भवति, जेण उकोसेण सत्तद् भवग्गहणाइ नाइ कमति, जंबुस्वामी वा पुच्छति-जेण एतं अज्झ-100 यणं आयारो वा पणीतं सो तहिं काले संसारस्स किं अंतो चाहिं वा आसी ?, ततो भण्णति-'णेव सो अंतो, णेव सोयाहिं। अंतो ण भवति जेण लद्विघातीणि चत्वारि खीणाणि, जेण केवलिकम्माई चचारि चरिमसमयावेक्खीणि भवंति तेण दूरेण भवति । एवं संसारस्स व अंतो व रेण वठ्ठमाणो 'सो पासति फुसियमिव' स इति भगवं फुसितंति उदयविन्दु कुसग्गे लंबति अण्णस्त अणागमे किंचि तस्थेव सुक्खति, किंचि पदुप्पट णिवतति वातेरितं, मिसं नुणं पनुष्णं, पततीति पनुष्णं, णिवतं अधिगं वा पतति णिपतति, तवणियमतवा णिवतति, वायतीति वातो, ईरितं-कंपितं, वातेण ईरितं वातेरितं, तथा गोणाति पुरिसेण वा | एवमादि, णपि तस्स ताए अवस्थाए चिरं अवत्थाणं भवति, तस्स सुगुरुयत्ताए उवक्कमेण वा अवस्सं निवतितवं 'एवं बालस्स' | "एवमवधारणे, दोहि आगलितो बालो, जीविजइ जेण तं जीवितं, सोधकर्म इतरं च, तत्थ निरुवकम भगवतो तित्थगराईणं, सोचकर्म | सेसाणं, तस्थ वा सततं परमायु, वाघातिमं तु गम्भम्मि मरति कोयी, कोयी पुण जातमित्तओ मरति, मरन्तो मारेति मातरं कोयि, दीप अनुक्रम [१५३१५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [162] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] मंदत्वादि प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीआचा-14 |कोति मरतीए समं तीए 'मंदस्स अवियाणतो मंदो सरीरे बुद्धीए य, एकको उयचये अवचये य, इह तु भावमंदोऽवचये द्रष्ट- रांग सूत्र | व्यः, जतो बुञ्चति-'अवियाणतो' किंति !, कूरकम्मफलविवाग, पंडियाणवि एवं सोवकमाणि आउगाणि, तेऽवि कुसग्गजलचूर्णिः बिंदुउवमाए बहुयातो रातीओ गाउं सता जतंति, भणियं च-'धम्म आयरमाणस्स, सफला जंति राइओ लोगोवि एवं जाणति॥१५॥ 'जह जीवितं अणिचं०' तं च ण सम्मं जातं भवति, कई ?, जतो-'कूराणि कम्माणि बालो' णियाणि णिरणुकोसाणि कूराणि हिंसाति अट्ठारसठाणाई मिर्स कुव्वमाणे, अहवा कायमाणमाणि, वालो पुच्चभणितो, तत्थं कूरकम्मनिवत्तितेण 'तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमेति' दुक्खं-कम्म, मृदो तमि हु(तम्मि हुओ)सो तासु तासु गतीसु उववञ्ज विष्परियासमेति, तंजहा-जम्मातो मरणं, मणुस्सा णरगं, परगावि तिरियतं, सुहा दुक्खं एवमादिविवञ्जासं, मुहत्थीवि कूराणि कम्माणि काउं दुक्खं अणुभवति, अहवा मूढोति वा बालोत्ति वा एगट्ठा, तेण दुक्खेण बाले बिप्परियासो सो 'मोहेण गम्भ मरणाति एति' आदिरंतेण सहेतो मोह-| म्गहणा रागहोसग्गहणं, तेहितो कम्म, ततो गर्भ मरणाति एति. पदंति य 'मरणादुबेति' पुवं मरणं पच्छा गम्भो ततो पाव| वृद्धी ततो भूयो हिंसादिकूरकम्मपत्ति ततो कम्मस्स भरो भरणा परगदुक्खागि, जतो वुचति एत्य मोहे पुणो २ एत्थ मोहे'ति एन्थ कम्मसंभारे मोहे पुणो जाती पुणो मच्चू पुणो दुक्खं जाव अणादियं अणवयग्गं, अहवा 'एत्य मोहे ति एत्थ संसारे | हिंडमाणस तासु तासु गईसु पुणो पुणो कम्मबंधो भवति, एयं संसारियं दुक्ख पेच्छि ऊण एत्थ मोहे पुणो पुणो ण भविआमो इति 'संसयं परियाणतो' संसेतीति संसयो, सो य अण्णाणे मरणे य, तत्थ अण्णाणे दो अस्थि अस्तित्ता बुद्धि संसयति, मरणसंसये मरणमेव, लोगेवि वत्तारो भवंति-मरणसंसये बट्टति, संदेहे वा, परिण्णा दुविहा-जाणणापरिण्णा पञ्चक्खाणपरिण्णा य, तं। दीप अनुक्रम [१५३ ||१५९॥ १५८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [163] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] श्रीआचाशंग सूत्रः प्रत वृत्यक [१४०१४५] एयं अण्णाणसंसर्य जाणगापरिष्णया परिणाय, कह परियाणति है, जहताणि मिच्छाणाणाणि पुवावरविरुद्धत्ता संदेहजणयाणि 2. संसारकाउं संसयभूयाणि चेव भवंति, जस्स य एगमवि पदं प सम्म उबलद्धं तस्स जहत्थमवि घुणक्खरं वा अणुवलद्धमेव भवति, परिवादि ॥१६॥ तं एवं सम्म नाणेण अण्णाणसंसयं अतत्तमिति परिणाय पचक्खाणपरिणाय परियाणिजा-तत्तयुद्धिं ततो पडिसेवए, मरणसंसINI यपि अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स चा दुविहाए परिणाए परियाणिआ, जं भणितं-जाणित्ता ण करिआ, तं एवं दुविहमवि संसयं दुविहाए परिणाए परियाणिचा संसारे परिणाते भवति, 'दव्वे खित्ते काले भावे य भवे य होति संसारो। तस्स पुण। हेतुभूतं संसारे कम्ममढविहं ॥१॥' तं जाणणापरिणाए असंदिद्धं णचा पञ्चक्वाणपरिणाए सव्यं पाणावार्य परियाणासिचि, | भणियं च-'ममत् परियाणामि' परिणाओ णाम गमपचक्खायओ, संसयं परियाणतो जाणणापरिणाए अवियाणतो पञ्चक्खा णपरिणाए अपडिसिद्धस्स संसारे अपरिणाए, जाणणापरिणागण संसारो दुक्खाणि य परिष्णाताणि भवंति, पचक्खाणअपरिण्णाएवि 'ण सा गती अस्थि जत्थ असौ ण उबवअति०' अप्पचक्खाय अस्सबदारो, एवं मुसाबात अपरिजाणतो, अदिन्न, परिम्गहंति, मेहुणंति जेण दुरणुचरं तेणं पिहं सुतं आरद्धं-'जे छेए से सागारियं ण सेवे' या य एवं दुकर जंचउवयाणि अणुपालिअंति, बक्खति य-तदेवेगेसि महम्भयं एवं दुकरं तं बंभचरियं जं अणुपालि जति, अतो भणति-'जे ए सागारियं ण से सेवे'जे| इति अणुद्दिदुस्स निदेसे छेओ अणुबहओ, पत्थि से किंचि चयणिजं, भमं हणित्ताविपमातिएवि, अगारेहिं सह भवतीति सागारियं-12 | मेहुण, ससमयवण्णो वा जो उत्तमो साहवादी वा सागारियण सेवति जोगत्तियकरणतिएणं, पाएणं तनिमित्त सेसअस्सवेहि वि पव-TE चिति, भणियं च-'मूलमेनमहम्मस्स, महादोसमुस्सयंक' ते च मिहीणं कृच्छितं अतिप्पियं च, पासंडीण कुच्छितं अतिपियं च, एगेसिं-ID॥१६॥ दीप अनुक्रम [१५३ १५८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [164] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] प्रत वृत्यक [१४०१४५] श्रीआचा|| हिट्ठादीणं जेण बुञ्चति 'कट्टुमेव' करित्ता, एवमवधारणे, किमत्रधारयितव्यं ?, एवं करिता रहिते मेहुणसंसग्गा, अब परिवजने, संग सूत्र- IN अवयाणति, जं भणितं-हवति, तं कहं तुमं एवं करेसिति चोदितो परेणं ण अहं एवं करोमि अवयाणति अबयाणंति वा बुच्चति, बालता चूर्णिः | लोयसिद्धत्ता चोदितो रुस्सति, तं वा अप्पाणगं दोसं तस्स उपरि हुन्मति, पढिजह य-'तमेवावियाणतो' ण अहं एतं कहंपि ॥१६॥ जाणामि, णागार्जुनीयास्तु पति-'जे खलु विसएम बतिसेवित्ता नालोएति, परेणं वा पुढे णिहवति, अहवा तं परं सएणेच दोसेण पाविद्वतरएण वा उवलिंपिञ्जा, एवं हिमादीणिवि कटु मंटुकलियाखमओ व तस्स अविजाणतो 'बितिया मंदस्स यालया', अप्पमिति अवचयमि थुल्लमिति उपचयमि, मंदो तु दोसुवि, पगत, भणितो तु देहमंदो, उभये वा विबलता चालया, | एगा ताव तस्स बालना किचं सागारियंति, वितिया जगालोएति, ण वा अकरणाए अन्भुद्वित्ता पायच्छित पडिबज्जति, पिण्डबतो वा अलियवेरमणभंगा वितिया, जो पुण सम्म आलोएति जाव अकस्णाए अद्वेति तस्स एमा बालया भवति, अहवेतं । विसयणिमितं आसेविज्जति, तेवि ण ते विसए 'लद्धो हरत्यार' लद्धो णाम पडुप्पन्नो हुरत्था णाम देसीभासातो बहिदा, लद्धेवि | ताव किं पुण अलद्धेवि ? जहा चित्तो खुड्डए वा, कस्स बहिदा ?, धम्मस्स, णवि तं आसेवंतस्स धम्मो भवति, तेण एते धम्मोMIवरोधगत्तिकाउं साहु चरित्तातो चित्तातो वा बाहिं कुज्जा, 'पडिलेहा' एते एवंविधा पपइत्ति विक्खाए आगमित्ता 'आण | विज' तित्थगरणाए आणविज्जा 'अणासेवयाएत्ति बेमि' अणासेवणं, जे भणियं-तं अकरणं, को दोसो विसयासेवणा-IM | एत्ति !, अतो दुञ्चति-पासह एगे रूवेसु गिद्धे' ओहाणुप्पेहिणो इतरे वा बुचंति पासध, एगेत्तिण सम्वे, स्वग्गहणा सेसिदि| यगाण गहण, रूव तत्थ पहाणं हारितं च नेण नग्गहणं, अहवा रूब इति सव्वविसयाणं मुत्तिमनं अक्खातं भवति, गिद्धा-मुच्छिता, दीप अनुक्रम [१५३१५८] ॥१६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [165] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४० १४५] दीप अनुक्रम [१५३ १५८] श्रीआचारोग सूत्रचूर्णिः ॥ १६२॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२३४- २४९], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] समता णिज्जमाणा परिणिज्जमाणा, छह लोगेवि महामोहा पारदारिया अकोसवहबंधपहणणाईहि य दुक्खेहिं बाहिज्जेते, पासाहि बज्झरतियेसु बज्झे परिणिज्जमाणे, अहवा विसयसोतेहिं बुज्झमाणे रामदोसबद्धे तत्थेव तत्थैव परिणिज्जमाणे, कोयि रज्जिता दुस्पति, पुणो रजति, एवं जहेणं बाहेति मोहे, जेण वा कम्मेण संसारसमुद्दे परिणिअंति, तंजहा- पुणो मच्चू पुणो मोहो 'एत्थ मोहे पुणो पुणो एत्थ संसारमोहे पुणो २, जायंति, एत्थ वा संसारे भमंताणं मोहो पुणो पुणो भवति, जं भणितं कम्मबंधो, अहवा दंसणनाणमोहे भवति, जेण तस्स तप्पचणीयत्तणतो लोयसारलंभो ण भवति, पडिज य- 'तस्थ फासे पुणो पुणो दुक्खा फासे एवं जाव सद्दे तं एवंविहाणि विसयनिमित्तं दुक्खं पार्वति आरंभे य पवशंति, जतो पढिअति- 'आवंती के आवंती' अहवा कतरे तेसु तेसु गिद्धा आवंति जावंति केयि वृत्तं भवति, आरंभेण जीवतीति आरंभजीवी असंजया-'आदाणं जिक्खेबो-भासुरसग्गो' 'अद्धाणगमणाति, सब्वे पमत जोगा समणस्स होति आरंभो' 'एतेसु'त्ति एतेसु सु जीवनिकायेसु आरंभेण जीवंति तदुवरोहेण, जं भणितं असंजमेणं, जेसु अण्णे मुसावाताति अस्सवा, तेचि एस चैव प्रायसो काएम णिपतंति 'पत्थवि बाल'ति एत्थति एत्थं संजमे आरं वा परि समता विसए लभित्ता तच्चिप्पयोमे वा परितम्यति, पढिअह य-' परिपञ्चमाणे गरगउववाते परियायं एति परिपञ्चति, जं भणितं अवरज्झति, रमति हिंसातिएस पात्रकम्मेसु सञ्जति रजति, तंजहा मियख्वाए कोपि रमति, अघातावि केयि रमंति, तंजहा सुद्ध हतो सुटु मारिउत्ति, एवमादि परवयणणंदिगो एवं अलिएवि बुच्चार्वेति, चोरियंपि सति चित्ते करेंति, एवं अनत्थ विभासा, 'असरणं सरणं'ति मन्नति, जहा सो कोंकणगदार ओ, विसयणिमितं च केपि पव्वर्ज अम्भुर्वेतादि ताओ ताओ मायाओ करेंति, जन्थ सुतं 'इहमेगेसि एगचरिया' इहेति इह पासंडिएसु, चरणं चरिया सा य भणिता, एगस्स बहूणं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [166] मोहावृचिः ॥ १६२॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२३४-२४९], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] प्रत वृत्यक [१४०१४५] वा एगणियाणं चरिया, जहा चोराणं, सा दविता-पसस्था अप्पसत्था य, तत्थ पसस्था दग्बो एगस अणेगेसि वा राग-10 अप्रशस्त रांग मूत्र- | दोसरहियत्ता एगचरिया भवति, थेरकप्पिओ कारणिओ एगो होजा अहव्वाणो, इहरा अणेगा, भावतो पुण तेर्सि रागदोसरहि-II चूर्णिः । याणं, णियमा पडिमापडियनो दयओवि भावओवि एको, गच्छणिग्गता भणिता, अप्पसत्थदम्वेगवरियाए आहरणं, एकम्मि ॥१६॥ |गामे एको कुट्ठी उड़सरीरो छवछडेण अनिक्खिनेण तपोकम्मेणं तस्स गामस्स णिग्गमपहे आतवेति, वितियोवि तस्स एगचरो। तस्स गामस्स अदूरसामंते गिरिगहणे आयावेति अदुमदुमेण, तस्स गामदुवारातावगस्स गामो आउट्टो वंदति आहारातीहिं णिमं4| तेति दुःकारकारओनि, भणितं तेण-ण अहं दुकरकारओ, गिरिणिज्झरवासी दुकरकारओ, ततो ते गामिल्लमा तं गंतु पूएंति आहा रादीहिं, दुकरं च परगुणा भणितुंति तंपि पूइंति, एवं तेसि एगचरिता, अण्णे भण्णंति-एको दगसोयरियो अण्णेण सह समं मंतेचा | पुब्बदेसाओ पासंडिगभं महुरं आगम्म तीसे दाहिणपासे नारायणकोट्टे म्तिो, छट्ठातिपारणए गोमयं मायिट्ठाणेणं भक्खयति, | इस्थिसई च णावलति, जति णाम कंचि वेदपारगं आलवति तपि चिर उचासितो रहस्से, सेसं तु णममाणं हत्थभमुहाकपातिपदि एवं कुकुडेण आगंपितो लोगो वत्थअण्णपाणातिएहिं पूएति, अण्णो य से वितिजओ आगम्म उत्तरिल्ले पारायाणकोट्टे ठितो, ते हिंडता अण्णोष्णं पणमंति, अण्णोष्णस्स य एगओ एगमेगं पसंसंति, एवं ने एगचरिया, ते लोगं भक्खेत्ता, 'से बहुकोहे'N अवंदिता पमादेण परेसिं दा दिजमाणे पसंसिजमाणेसु वा परेसु बहुकोई गन्धंति, यदुक्तं भवति-पुणो पुणो कुझंति, एवं अब |दितो अपूर्यतो वा माणं करति, कुरुक्यादीहिं कहिं बहुमायितं, सब्बं एतं आहारातिलोभेण करेंति, कोहादिएहि व 'बहरतो' उवचिणन्ति कम्ममयं, वोडियमादीवी रजेण दिइसरीरा लोयरंजणढे पंसुच्छारेसु य सुयंति, यहुणहे' णडेव बहुवेसे करेति, ॥१६॥ दीप अनुक्रम [१५३ १५८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [167] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४० १४५] दीप अनुक्रम [१५३ १५८] श्रीआचा रंग सूत्रचूर्णिः ।।१६४ ।। “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२३४-२४९], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] कुची जडी शिखी मुंडी 'बहुसंकष्प'त्ति पूया आहार सग्गे य मोक्खे ये पत्थेति, अहवा गिहीणं एगेसिं एगचरिया, जहा गंठिभेदाणं, तेसिंपि भाणियध्वं 'बहुकोहे जाव बहुसंकप्पे'ति, बहुं वा कुज्झति कतगकोहेणं इतरेण वा, कक्कं च करिता माणमाया जुत्ती सुवणगादीणं पंथे पार्डेति सव्वं एवं लोभा, बहुरओ-बहुकम्मबंधो, बहुणडे वत्थाभरणमादिएहिं बहुसंकप्पे पुत्तदारादिभएण बहु तावेस पाणातिसंकप्पा, एवं अन्नेसिंपि चोरचारियसत्थिलगादीणं एगचरिया विभासियन्त्रा, ते पुण सरिसत्ति परूविता, इह तु कुलिंगेगचरियाए अहिगारो, सो एवं एगचारी 'आसवक्की वसत्ति' आसवेसु बीसत्थो आसवक्की (बसत्ती) अहवा आसवे अणुसंचरति आसव ० 'पलिच्छपणे' 'प्रलीयते भयं येन यच भूत्वा प्रलीयते । प्रलीनमुच्यते कर्म्म, भृशं लीनं यदात्मनि ॥१॥ 'उद्वितवादं पदमाणे' कत्थ उट्ठिता ?, धम्मे, वयमवि पञ्चयिता, एवं भितं वयंति पदमाणा, उद्वित्तावि मोक्खगमणाए परिष्णाओ पति-पवर्तति, लिंगत्थावि केयि नाणादीहिंतो पहुंति, उडितवादं वदंति, एवं ते हिंसगविसयारंभा एते संधि अबुज्झमाणा, जहा मणुस्सेसु चैव कम्मक्खयो' भवति ण अण्णत्थ, केवलं लोगपडिवायसंकाय सए सासणे पडिसिद्धाणिवि आयरंति, जत्थ इमं सुतं 'मा मे केइह दक्ख' मा मे कोयि पेक्खिहिति, अतो छष्णं आसेवति, छण्णेवी उच्चग्ग एव भवति, मा मे कोवि पेक्खिहिति णिच्चुम्बिग्गो 'अण्णाणपमायदोसेणं' अण्णाणाणि-कुसासणाणि सकमन्नादीणि, तेहिं गाढरूढततभावितमतं, अहवा 'णत्थि ण णिच्चो ण कुणति०' अन्नाणमिति दंसणमोहणिजं गहितं, पमातरगहणा चरितमोहणिअं, पंचविहो वा पमादो, | सो एवं अण्णाणदोसा पमायदोसातो वा 'सततं मूढे' सततमिति णिश्वं, मोहो अण्णाणं दंसणमोहो वा 'धम्मं' सुयधम्मं चरितधम्मं च जेण कसिणं कम्मं स्वविअति, एवं ते हिंसगविऩयारंभगा एगचरियावि होतगा धम्मं णामियाणंति, 'अहापया' विमय मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि [168] बहुकोधादि ॥१६४॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४० १४५] दीप अनुक्रम [१५३ १५८] श्रीआचा गंग सूत्रचूर्णि ॥१६५॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२३४- २४९], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४०-१४५] कसाएहिं अड्डा, पजायतेति पया, कतरे ते ?, मणुस्सा, अडवा मणुअवच्चा माणवा तेसिं आमंत्रणं, सेसा चरिचलंभं प्रति अवस्थमेव, 'कम्मअकोविता' कहे कम्मं बज्झति मुञ्चति वा?, 'अणुवरत' ति अपडिविरता अस्सवातो 'विज्जा पलिमोक्खमाहु' | परि समता लयो एकत्ता पलिमोक्खो भवति, आहु-भणंति, भंतेहिं विसणिग्धातदिता विजाये पलिमोक्खं इच्छंति, जहा संखाति, तं किं सचं ?, ण सर्थ, बुच्चति 'आवई अणुपरियईतिषेमि' भावाबट्टो संसारो तं अणुपरियईति जाव अनंताई, इति पंच मज्झ|यणस्स प्रथमोद्देशकः || संबंधी संसाराधिगारो अणुवदृति, स एव संसाराधिगारी अणुअहति, तत्थ पायसी पढने उद्देसए गिहिणी आतीए बुत्ता, जतो एगचरियाओ आरंभकुलिंगिणो भणिता, ते सव्वेवि एते अविरतत्ता बाला, तप्पडिपक्खभूता विरता, भणितं विरतो मुणिति, चितिए सुतं- 'आयंती के आवंती' जावंति केवि वृच्चति एवं ब्रुवंति लोगंमि मणुस्मलोए अणारंभजीवि 'आआणा णिक्खेवे 'मासुरसग्गे य' गाहा, अणारंभी नाम संजमो, अणारंभजीवणसीला, एतेसु चैव छकाएस आरंभेण ण जीवंति, अडवा इंदियवि सयकसामु आरंभजीवी, तव्विवरीयजीवणसीला अणारंभजीबी, जं भणितं संजता, 'एत्थोवरए' एत्थंति एत्थं हिंसादि आरंभा, एत्थ आरुहते धम्मे तं 'जोसमाणे' जं भणितं पीतीए आसेवमाणे 'अयं संधी'ति संघर्ण संधी, भावसंधी कम्मविवरं णाणाईणि य 'अदक्खुत्ति, एतं संधिं द झोयसतीति वहति जं भणितं - सारपद मासेवमाणस्स 'जे' इति अणुदिट्ठस्स, नाणादीणि व दक्खुति, एवं संधि दठ्ठे झोमयतीति जं भणितं, सारपदमासेवमाणस्स जे इति, 'इमस्स' ओरालियम्स विग्गहो सरीरं, ता तेयाकम्माणि तदंतरगताणि, ण वेडब्बिय आहारस्स कलदाति, वृग्गहस्स वा अयं खगेति, तत्थ खे नकालरिजुकम्मरखरणा चचारि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम अध्ययने द्वितीय उद्देशकः 'विरत मुनि' आरब्ध:, [169] विद्यामोक्षादि ।। १६५ ।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] गादि नाणादि- प्रत वृत्यक [१४६ खणा इति णिब्वेसकालो, अम्बिसणसीलो अण्णसी, ज भणित-गवेसति, एतं खणं अण्णिसित्ता किं कायध्वं १, अतो युवतिरांग -IYA |'एस मग्गे आयरिए' एस इति एस णाणादितिगसारमग्गो गाणदंसणारिएहि साहु आदितो वा वेदितो पवेदितो, एत्थ नाणादिपूर्णिः आरियपवेड्यमग्गे उद्वितो गिहादीणि परिचइत्ता सारपदं आदाय मोक्खणिमि उडितो ण पमायए, पमातो पंचविहो, तत्व ॥१६६॥ चरित्तसक्खियाणि अहिंसाईणि, तत्थ अप्पोवमेण अण्णेसिपि अहिंसा कायव्या, तत्थ इमं मुत्तं-'जाणितु दुक्खं पत्तेयसायं| णचा दुस्खं सारीरादि, एगेगं प्रति पचेयं, सच्चपि एतं सारीरातिदुक्खं पत्तेयं भवति, जं भणितं-असाधारणं, सातं णाम सुई, | अत्थोवणअओ उ दहन्बो सातमवि पत्तेगमेव भवति, कई पत्तेगे सुहदुक्खे', जहा तब पियअप्पिये सुहृदुक्खे एवं अण्णस्सावि, अतो दुक्खं अण्णस्स ण कायम्ब, तं च सातासाताणं णेगलक्खणं सत्ताणं भवति, अतो सुतं-पुढोछंदा' छंदो णाम इच्छा, जहा | कस्सयि मजं सुहं तदेव चऽण्णस्स असुह, तहा खीरभोयणं कंजियपियर्ण वा, एवमादि, एगस्स पिया च्यासी मासी अण्णस्स बेसरी' णाणाति भावसंधी भवति, छेदपि सुई मण्णति जहा गण्डगंडभेदं, अम्गिपवेसादीणि य, तत्थ अण्णे सुई दुक्खं मण्णंति, जहा बद्धा सुस्वममाणा, वहा अणिट्ठदारओ राया बज्झमाणाईणि, एवमादि दुक्खे सुहामिसंधी, सुहे य दुक्खामिपाओ पुढोछंदाणं माणवाणं, अहवा पुढोछंदाणं-पुढोसंकप्पाणं, अणिबारितछंदाणं, जं भणित-बहुइच्छाणं, पुढो चेव दुक्खं भवति, किंत, सम्म | अपंतसंसारियं, विरतो पुण पत्तेयं पचेयं सातासातं णचा अणारंभजीवी 'से अविहिंसमाणे' से विरते ण हिंसमाणो जहा अविहिंसमागो तहा अबदमाणो मुसाबादं जाव अपरिग्गहेमाणे इच्छेवं विरतण आणरंभजीविणा तबो अधिट्टायन्यो, तत्थ उपदेसो 'पुढो फासे' अहवा जति तं विरतं परीसहा फुसिजा तत्थ सुत्तं 'पुढो फासे विप्प० पुट्ठो पत्तो, केण?-सीतउण्हदसमसगव DANA १५०] - दीप अनुक्रम [१५९१६३]] ॥१६६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [170] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४६ १५० ] दीप अनुक्रम [१५९ १६३] श्रीजाचा गंग सूत्रचूर्णिः ।।१६७ः। “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [२४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] हातिणा परीसहातियेहि, फासग्गहणा सेसग्गहो कतो, सेसावि परीसहा उवसग्गा परीग्गहिता भवंति, विविधपगारेहिं णोल्लए विप्पगोल्लए, 'एस समिताएं परियाए विवाहिते' समगमणं समिया, पारगमणं परियाए, विविधं आहिते विवाहिते, आह-भणितं भगवया सव्वपरीसदोवसग्गाणं फरिसं समणुष्णातं तं किं जुताहारविहारस्स रोगपरीसहा फुसंति ?, जतो पुच्छा- 'जे असत्ता पावेहिं कस्मेहिं' जे इति अणुद्दिट्ठस्सग्गहणं, ण सत्ता असता, पावं चरितमोहणिअं तं जेर्सि खओवसमं न गतं ते असता, हिंसा| दिसु वा पात्रकम्मेसु असता, 'उदाहु' चि उदीरितवान् रोगा वक्खमाणा गंडि०, 'अदुवा आतंका' आसुधादिणो मूलाति 'फुसंति' पावंति बागरणं 'इति उदाहु' इति परिइरिसणे, उजतं आहु उदाहरितां वीरो तित्थगरो अण्णतरो वा आयरियविसेसो, किं उदाडु ?, चरिचमोहस्स कम्मखओवसमेणं चरितं लम्भति, बेयणिजस्स उदयेणं रोगा भवंति, ते य केवलिणोऽवि भवति, अतो अमग्गणा एसा, ते एवं जति उडिजिज अतो ते फासे पुट्ठो विप्पणोल्लेजा, सणकुमारराया दितो, 'ते' इति ते रोगार्तके अण्णे या परीसहोवसग्गे, विविहं पणोल्लए विप्पणोल्लए, कहं ?, ते तु उप्पण्णा संता सरीरव्त्रयं करिआ तहादि ते सोढव्वा, इमेण आलंब| गण-'से पुवं एतं पच्छाबेतं' से इति णिसे, पुर्व्व णाम वट्टमाणपरिग्गहाओ, जहिं सिस्सो पण्णविजति ततो कालतो जं पढमं तं पुव्वतो, जं अम्गतो तं पच्छा, तवचरण आरंभकालाओ वा, तहा रोगातंकादयः काया वा अहवा पुचं असंजततं पच्छा संजत, | तहा पुब्वे पच्छिमे वा वये 'एतं'ति ओरालियं, भिदुरस्थ भावो भेउरधम्मं, ण मिजमाणं-कतोयिवि भेदं ण देति, विविदं सति विद्धंसति, विद्धंणधम्मं अभिमाणं जिष्णसगडं विद्धंसति, रुक्खं पसं साडो वा सडवणम्मि, ऊसाणुगतं कुईवा, पडणधम्मं अवस्सं एतेण मरण अमतेण वा पडियन्त्र, आदितत्ता अधुवं अणियतं, ण सासतं भवतीति असासतं, इट्टाहाराओ चिजति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [171] समता पर्यायादि ॥१६॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] चयापचयादि श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥१६८ प्रत वृत्यक [१४६१५०] तदभावा अवचिजति अतो चयावचयियं, अहचा जाव चचालीसगो ताव चिजति, ततो परेण अवचिजति, अतो चयावचयियं, | अहवा गम्भकोमारजोवणातीएहि विविधेहिं परिणामविसेसेहिं परिणामसभा विपरिणामधम्म पस्सध एतं पस्सह, जं मणित| पुग्वपि एतं पच्छाऽवेतं जाब विप्परिणामधम्मी, एवं दहण मिजमाणे वा जाव विष्परिणममाणे वाण संगो भवति, अहवा सुच-11 विभागो कीरति-'पस्सध एतं रूवसंधि' पस्सहेति बुझह एतं जं उबक्कमे 'स्व'मिति सब्वें दियावट्ठाणं सरीरं, रूवेण संधिं २, | कारणे कज्जुबयारो, तेण अणिचण रूपेण नागाति भावसंधी भवति, घेरग्गपुब्धगो वा चरित्तसंधी भवति, संगतं सम्मेवा उपेक्व-IAN | माणस्स, किमिति ?, अणिञ्च खलु जाणिज्जा एगस्सायतणरतस्स' आयरंति तमिति आययणं, दवे समादि भावे नाणा- | | तीणि, रागदोसरहियत्ता एगो, एगस्स आययणं चरितं.वेरग्मं वा, तत्थ दबतो एगस्स अणेगाणं चा, भावतो एगस्सेव, एगा यतणरतो, 'इह विष्पमुकस्स' इह सरीरातिममीकारविप्पमुक्कस, इह च प्रवचने एवं विषमुक्तस्य, 'णधि मग्गो' णस्थि-न|N | चिजति, णरगातिगति जो जेण पावेण गच्छति सो तस्स मग्गो भवति, सो तु असरीरत्ता अकम्मत्ता प ण संसारगतीमु गच्छति | अतो णस्थि मग्गो 'विरतस्सत्तिबेमि' बिरतो मुणित्ति जंभणितं तं दरिसितं । इदाणि अविरतो विरतवादी पारिम्गहिओ बुञ्चति, तंजहा-'आवंती केयावंती' जावंती केयी 'लोगे परिग्गहावंती' ते एवंविहेण परिग्गहेण परिग्गहवंता बुचंति, तंजहा-से || अप्पं वा बहुं वा' तस्थ अप्पं पहुं वा भावो गहितो, अणु वा धूलं वा दबं गहितं, एत्थ भंगा-दग्बो णाम एग अप्पं णो|H भावतो, भावतो णाम०, एवं चचारि भंगा, तत्थ दव्यतो अप्पं ण भावतो वार, अग्धं प्रति महतं भवति. वितियभंगो तिणभारो| | एरंटकट्ठभारो बा, दखओ भावी य अप्पं कपड़गादि, उभयतो अणपं महग्य थूलं च जहा गोसीसर्चदणक्खोडी हरिचंदण दीप अनुक्रम [१५९१६३] ॥१६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [172] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४६ १५० ] दीप अनुक्रम [१५९ १६३] श्रीआचा गंग सूत्र चूर्णिः ।। १६९ ।। “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [२], नियुक्ति: [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४६ - १५०] क्खोडी वा, सेयचंदणं हरिचन्दणं भण्णति, सब्र्व्वं चेतं समासतो चेतणं अचेतणं च अहवा परिग्गहो चउन्त्रिहो, तंजहा - दब्बओ क्षेत्रओ कालओ भावओ, एतेसु चैत्र छसु जीवनिकांएसु, अहवा अप्पबहुमुलचित्तमंतमचितेसु मुच्छणा परिग्गहवंतो भवंति, जह चैव अविरतो विश्तो वा दव्यायाणादी परिगेण्हंतो परिग्गहवां भवति तहा सेसेसुवि वतेसु एगदेसावराधा सव्वावराधी भवति, अणिवारितअस्सवातो, आह-जइ अध्यचहुअणु धूलचेयणाचेयणदव्व आदाणा तो परिग्गहो भवति तेण जे इमे सरीरमत्तपरीग्गहा पाणिपुडभोरणो ते णाम अपरिग्गहा, तं जहा उड्डगबोडियासरक्खमादि, तेसिं अप्पादिपरिग्गहवियप्पा णत्थि तं च अपरिग्गहंद साणिवि वयाणि तेसिं भविस्संति, वयिते य संजमो, ततो मोक्खो, तं च ण भवति, जम्हा 'एतदेवेगेसिं' महन्भयं भवति जे बोडिया आउकाइयरसंगाति बर्हेति तेसिं तदेव सरीरं महम्भयं भवति, जेविय आउकायउद्देसियादि परिगिण्हंति जान निज्झाइयो तेऽचि अपडिलेहियं भुंजंति, अपडिलेहिए य ठाणादीणि करेंति, अहवा जाणणा पञ्चक्खाणपरिणा य णत्थि तेसिं दुबिहाए परिण्णाए अपरिण्णयाणं मिच्छादंसणा अचरिताओ य 'एतदेव एगेसिं' एतदेव शरीरं केसिचि अविरतागं विरतवादीणं मुच्छा| परिग्गहो महंतो कम्मबंधो य दुर्गतिगमणाय भवति, किंच-जति ताव सरीरमित्तपरिग्गदाओ मम हत्थो मम पादो मम शरीरंति महम्भयं भवति किं पुण जे पासंडिगो गामखित्तविहारावस हे य परिगिव्हंति ?, 'लोगवित्तं च णं उबेहाए' तत्थ लोगो-गिद्दीणो, तेसिं वित्तं धणधभाइ चणमिति पूरणे तं उविक्ख, किमिति १, जहा लोगस्स मुच्छापरिग्गहाइ वित्तं महन्मयं तदा उड्डगादीणं संगिता सरीरमेव मद्दन्भयं, केसिंचि करगकुच्चातिउवगरणंपि, अहवा लोगे वित्तं च णं लोगचरितं, जहा लोगो वण आहार मरीरातिमुच्छितो तहा उद्दंडगातीबि सरीरमुच्छातो तच्चित्ता अतो असंजता, किं पुण जे गामादिपरिग्गहा गिरिवित्तऽविसिद्धा, एगे पूण विदाणो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [173] परिग्रहवर्जनादि ।।१६९ ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] संगादि श्रीपाचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥१७॥ प्रत वृत्यंक [१४६ १५०] बहतत्ता, जम्हा चेतं सरीरमेगं कसिंचि महन्मयं तेण 'एते संगे अवियाणतो एते इति एतं सरीरमेव मुच्छापरिग्गहो लोग | वा, जहा संगोत्ति वा विग्धोपि वा यक्लोडिति वा एगट्ठा, रागादयो कम्मबंधो या, कस्स सो संगो?-अबियाणतो धम्मोवार्य च आह-एतदेव महम्मयं सरीरं लोगे वित्तंच, एगेसि भण्डगमिपि तेण सरीरधारणा आयारभंडगमेतधारणा य, भवताणवि समाणो दोसो, तं च ण भवति, जम्दा 'एतंपि संगं पासह एतं सरीरं भंडगं च संगिता महन्मयं भवति अयाणगस्स ण तु याण| गस्स, बहरितसरीरस्स संजमस्साहणा उबहिहारणाओ य, भणियं च-आसस्सास्सभंड०, भणिया अविरता तद्दोसा य, संपर्य विरता | भणति, से सुपडिबुद्धं जं वुत्तं एतदेवेगेसि लोयवित्तं च 'एतं सम्मति पासहा' एवमेयं, ण अण्णहा, जं च वक्खति 'एतेसु | चेर बंभचेरंति', एवं सब्बं 'सुपडिबुद्ध' सुट्ठ पडिबुद्धं, च पूरणे, मम-में 'सूबणीतं' उत्रणीतं उबदरिसियं सुठु साहू चेव | Nउवणीतं सरणीतं पचक्खनाणीहि सुदिडिएहिं हेऊई सिस्साणं उवणीतं, पटिअइय-'सुतं अणुविचिंतेति णचा'सुतेण २ अणु-IM विचिंतिता गणधरेहिं णचा विस्तगुणे अविरतदोसे य 'पुरिसा परकम चक्खू पुरि सयणा पुरिसो, पस्सति जेण तं चक्खू, जं भणितं-परमं नाणं, तवे संजमेय विविहं परकम्म विपरकम्मा, जे य एवं तवे संजमे परकमंति, 'एतेसु चेव बंभचेरंति बेमि', अहवा परं-केवलनाणं तं जस्स चक परमचक्खु ते पुरिसा परचक्खुसो तवे संजमे य परक्कम एवं बुयिता, तंजहा-एतदेवेगेसिं लोगविचं च, इमं च अन्नं बुयितं ता 'एतेसु चेव बंभचेर ति, एतेत्ति छक्काया, तं एतेसु संजमतवो बंभचेरं भवतीति बेमित्ति, आयरिय-उपत्थसंजमो गुरुकुलवास वा बभचेर, अहया एतेसु चेव आरंभपरिग्गहेसु भावओ विप्पमुकं भरंति, अहया जो एवं परमचक्खू तवे संजमे य परकमति एतेसु चेव बंभचेरंति, सिरं उग्धाडिना जहागहितत्थं बेमि, ण सिच्छया, जेण भणितं से सुतं दीप अनुक्रम [१५९१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [174] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४६-१५०] श्रीआचा रांग सूत्र पूर्णिः १७१॥ प्रत वृत्यक [१४६ १५०] च में गणधरो सिस्साणं अक्खाति-से सुतं च मे, तित्थगराओ अ अस्थतो, चसद्दा अथितं मे सुत्ततो, अहवा सुयं सुयमेय, 'अज्झ- आत्मनो बन्धत्वादि त्थितं' ऊहितं गुणितं चिंतितंति एगवा, मुणिचा मए चितितं, किमिति ?-'बंधमोक्खो तुज्झ अम्भत्येव' बज्झति जेण सो बंधो, 'एत्वं'ति अप्पए चेव, तत्थ बंधहेऊ 'रागाईया तिपिण तु' गाहा, ते अप्पाणं ण बतिरित्ता वढुति, अतो बंधो, तओ अप्पए | चेब, ते चेव विवरीया मोक्खहेऊ भवंति, तेऽवि अप्पए चेव, मम ताव परतो सोचा चितंतस्स एवं अन्भत्थित-जहा बंध पमोक्खोय | अप्पए चेव, तुमपि एत्तो सोच्चा एवं अणुचितेहि, अहवा जे चेव आरंभपरिग्गहा एतेसु चेव णियतं तस्स बंधपमोक्खो अज्झत्थे पा, जतो एवं नेण 'एस्थ विरते अणगारे' एथति एयाओ आरंभपरिग्गहाओ एयाओ वा अप्पसत्थाज्यस्थाओ, णस्थि अगारं.1 अणगारो, दिग्धकालं जावजीवाए, तितिक्खतिचि या सहतित्ति वा एगट्ठा, परीसहे उबसग्गे य, 'पमत्ते बहिता' पमत्ता-असं-17 जता आरंभपरिग्गहिता कुलिंगिणो य 'बहिया' इति तिविहस्स लोगसारस्स, एवं दहण अप्पमतो तु सिज्जा , अप्पमाओ संजमअणुपालणत्थं पयत्तो, अहवा पंचविहपमायवइरित्तो अप्पमत्तो, अहवा जतण अप्पमतो य कसायअप्पमचो य, जयणप्पमचो संजमअणुपालणडाए ईरियाति उवउचो, कसायअप्पमत्तो जस्स कसाया खीणा उपसंता वा, तं एतं अप्पमायं दुविहाए सिक्खाए सुट्ट 'एतं मोणं' एतंति दुविहसिक्खासिक्खणं अहवा निरारंभपरिग्गहत्त, एतं मोणं सम्म अणुपालिज्जासित्ति वेमि । पंचमस्याध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः॥ उद्देसत्याधिगारो भणितो, वितिए अविरयवादी परिम्गहिओ, इह तु तबिवरीतो अपरिग्गहो, सुत्तस्स सुनेण-अप्पमत्ते परिवएआसित्ति बेमि, अपरिग्गदो आरंभवञ्जणं लोगमाराणुचारी, इह तु सो चेन परिग्गहो पडिसिज्झति, जतो सुतं 'आवंती a ॥१७॥ दीप अनुक्रम [१५९१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अपरिग्रह' आरब्धः, [175] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१५१ १५५] दीप अनुक्रम [१६४ १६८] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णि ५ लोक० ३ उद्देशः ।। १७२|| “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [२४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] | केआवंती अणारंभजीवी केयि लोगे अपरिग्गहवंतों' जं भणितं -संजता, सच्चे ते एतेसु चैव कासु अपरिग्गहावंति, अहवा जे भणिता परिग्गहप्पगारा 'से अप्पं वा जाव चितमंतं वा एएस चैव निम्ममत्ता अपरिम्गहावंति, दव्यातिपरिग्गहणिम्ममा वा कथ्यते अपरिग्गहजुता 'सोबा वई मेहावी' सोचा- सुणित्ता वई वयणं मेहावी सिस्सामंतणं, मेदावीण वा वयणं, | मेहावी तित्थगरगणधरा 'पंडिताण णिसामिया' पापाडीना पंडिता तेसिमेव तित्थगराणं पंडिताणं, मेहाविपंडिताणं को पतिविसेसो १, भण्णति पदमं अपरिग्गह मेहावी भणितो, पापाड्डीणी पंडितो, मेरामेहावी परिग्गहितो, अहवा कोयि केवलमेव गंधमेहावी भवति, ण तु जहात पंडितो, इमो पुण उभयमेहाची तेण ण पुणरुतं, णिसामिया णाम सुणित्ता, सोचाणिसामणाणं को विसेसो है, सोचा किंचि केवलं सुत्तमेव, ण पुव्यावरेण ऊहित्ता हितपदुवियं, इमं पुण सोचा हितपट्टचितं, अहवा सोच्चा मेहावी वयणंति तित्थगरवयणं तं पंडितेहिं भण्णमाणं गणहरादीहिं णिसामिया, एवं ताव सोचा एगेसिं लोग वारलंभो भवति, अण्णेसिं अमिसमिचा जहा पत्तेयबुद्धाणं, किं सोचा -धम्मं, सो कहं पवेदितो केण वा इति १, भण्णति-'समिया धम्मे' समं केवलनाणेण दर्द्ध, 'अहवा जहा पुण्णस्सं कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति एवं समियाण नागदंसणचरितारियेहिं साधु आदितो वा वेदितो पवेदितो, अण्णेहिवि सामिप्यायसिद्धा धम्मा पवेदिता अतो भगवं आह-'जह एत्थ मए' अहवा लोगसाराहिगारो अणुयत्तति, सो अन्नत्थवि किं अस्थि गरिथत्ति पुच्छिते सदेवमणुयासुराए परिसाए मन्झयारे एवं वदासी-अनेऽवि लोगसारा अयाणगा कुधम्मे उवदिसंति, इमो पुण विसेसो 'जहेत्थ एए संधी' जेणप्पगारेण जहा, एस्थति एत्थ मदीए सासणे मोक्खमग्गविडीए मणुस्सलोए पासंडलोए वा, संघणं संधी, नाणादीणं कणिकम्मखयसंधिभूपाणि भवंति, तहिं तस्स संघणं भवति, जं भणितं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [176] अनारंभजीवितादि ॥ १७२ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] प्रत वृत्यंक [१५१ १५५० श्रीआचा ||तं लंभो, जुषी प्रीतिसेवणयोः, जुसिता पालिता जाव आणाए अणुपालिता, 'एव मन्नत्य एवमवधारणे अण्णस्थति-सक्कआजी-|| दोषितरांग सूत्र ॥ वगचरगपरिवायगपभीतीसु, तेसु सारंभपरिग्गहा सुहपसुत्ता जतिचि वस्थिणिग्गहं करेंति तहावि उद्देसियभोयणा जिभिदियं अदन्तं । स्वादि तेसिं, सचिचाहारगा य, जहा एत्थ मए गुत्तिसमितिमावणाहि विसयकसायातिणिग्गहो य सातिरेयाणि दुवालसवासाई दुकरच-IYA ॥१७३||M रिओवगतेण फसिते एवं अनत्थ न, फसिते दुझोसएत्ति वा एगहुँ, भणितं च-'गालस्सेण समं सोकर्ष, ण विआसमणिदया। ण वेरग्गं ममत्तेणं, णालमेसु दयालुया ॥१॥ अतो ममीकाराओ मारंभतो य आयत्थे दज्झोसए, अहवा ते मोक्खोवायं चेव तण याणंति, तेण कह झोसेस्संति ?, किंच 'जं अण्णाणी कम्म खवेति', अहवा जहा मए एत्थ संधी झोसेध, एवं नणु गब्बो भवति जहा बद्धमाणेणं सीहणातो कओ, तं च ण, एवं सिक्खगउच्छाहणा, भणियं च-"आविः परिषदि धर्म काञ्चनसिंहासने । वाणस्य (मुनेः) योजननिर्वारिखो योऽभूनोचैः कथं स सिंहनिनादः ||१|" अतो वुचति 'तम्हा बेमि णो णिहिज्ज' जम्हा | अहं अण्णायचरियाए घोरं तवं अकासी तम्हा बेमि णो णिहेजा, णिहणंति वा गृहणंति वा छायणंति वा एगट्ठा, कयरं?-'पीरियं' | संजमवीरियं, तं च वीरियं च 'अणिगूहियबलवीरियो गाहा, कयरो सो जे ण गृहति बीरियं?, वुचति, 'जे पुखुट्टाती नो TA पछाणिवाती' जे इति अणुहिदुस्स, उहाणं सट्ठाणं संवेगो संपवजा अन्भुवगमो, णो इति पडिसेहे, पच्छा णाम पवञ्जपवित्तस्स जं सेसं तं पच्छा जाव आयुभेए, जधेव उद्विता तहेब विसेसेण वट्टमाणपरिणामा जाव आतुसेसं विहरंति, जहा गणहरा सीहत्ताए |णिक्खंता सीहत्ताए विहरंति, सो पुट्ठाती णो पच्छाणिवाती पढमभंगो, आह-कोयि सीहत्ता णिक्खम्म सियालत्ताए विहरंति ?, आम, इह केइ कलत्तपुत्तमित्ताति तणं व छडित्ता पुणो विहाराशी पडंति, जहा सेलतो, कोयि लिंगाओवि पडति, नन्दिसेणकुमारो ॥१७३।। दीप अनुक्रम [१६४१६८] था मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [177] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] उत्थान निपातादि प्रत वृत्यंक [१५११५५] श्रीआचा. ब, केई दरिसणाओवि पडंति जमालीव, केई दुहओवि पति, अतो पुन्बुढाती पाणिवाती वितियभंगो, जो न पुबुडाई | रांग सूत्र णो पच्छाणिवाती सो घरत्थी, आह-जे इमे सफाजीवगापभिति गिहदाराई छहेत्ता जहा व सधम्मचेट्टिता एते एत्थं मंगतिये | चूर्णिः कत्व ?, वुद्धति ततिए, कहं १, ते जेण 'सेत्ति तारिसए सेचि से अण्णउत्थिए अनउत्थियगणो वा तेसु भगवतो अणाणाए रजंपि ॥१७४|| PI चहचा(पब्बइए)ण य अणुट्ठियस्स णिवातो भवति, गामातिपरिग्गहाओ य, तारिसए व जारिसए चेव पुवं आसी उदिक्खिता, अहवा सुविसुद्धदिढतेणं जारिसगा चेव गिहत्था सचिचाहारासेवि तारिसए चेच, उदायिमारगप्रभृतयोवि एत्थं चेव भंगे, जेवि आणिण्हगविसेसं अजाणता तेसिंतिए णिक्खमंति तेऽपि तारिसए चेव, जेण ताण मिच्छन, मिच्छत्ते व कतो उवरि ?,'जे परिणाय लोगसण्णेसयंति' अकारस्स लोवा जे अपरिणाय लोग-छजीवकायलोग अणु एसति अण्णेसति, काए वित्तिणिमित्तं आरभंति, N/ पटिजह य-'लोगमणुस्सिते' परिण्याय-पच्चक्खाय पयणपयावणाति विसेसेण पुणरवि तदत्थं लोग अस्सिता, अहवा पयणप2. यावणाति आरंभलोगो तसि आसिया, अहवा वितियभंगोवि तइयभंगतुल्लनिकाउं तेचि तारिसए चेव, कहं ,जे दुविहाए परि गाए परिणाय गिहत्थलोग संथक्तीति छकायलोयं वा अण्णेसति 'एतं निदाय मुणिणा पवेदिता' किं तं ?, णणु भणितं जो सो लोगं परिणाय पुणो अण्णेसति एतं कारणं-णिदाणं णचा, भणियं च-"तत्थ जे ते सन्निभूया ते णिदाणवेपणं चेदिन्ति" मुषिणा पवेइयं तित्थगरेणं, साहु आदितो वा वेदितं, जहा एवं पवझ्यावि संता गिहत्यतुल्ला एव भवंति, तेण 'इह आणा| कंखी पंडिए अणिहे' एत्थं पबयणे सरीरविसएमु अरत्तो आणं कंखति, सा य का?-सुतं, जं का आयरिया आणविसंति, पाबाड़ीणो पंडितो, अणिहितो रागातिएहि, केवलं सरीरधारत्थं आहारयति सगइअक्खअभंगदिटुंतो, कसिणं कम्मसंलेहणं कुजा दीप अनुक्रम [१६४ ॥१७॥ १६८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [178] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] M | पूर्वापररा त्रयजना श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ।।१७५।। प्रत वृत्यंक [१५११५५] 'पुधावररातं' पुनरायं अपररतं जयमाणो, तत्थ आदिमे दो जामे पुश्वरायं, पच्छि मे अवररार्थ, नत्थ थेरकप्पं पति पुष्वराय | एगजाम जग्गति पनिछमे रनेवि एगं, मज्झे दो यामे सुयति, तन्थवि मचितो जागरति, सुर्यतोऽवि जणयाए सुयति, णिक्खमपवेसेसु य जयणं करेति, जो एवं अचक्षुवियप वि जतणं करेति सो दिवसओ पुबह अवरण्हमज्झहसु परे व जयति, जिणकप्पिया ततियजामे सोतं सत्ता जामेसु जयंति, एवमवधारण, अपहितमेव जयंति, जं भणित-सुर्यतावि जयसा जतंति, सोचा घई मेधावी पंडिताणं, णिसामियति अहिगारो अणुपत्नति, एवं पुष्परनवरत्तसमएसु लोगसार जोसिआसि, तंजहा-'सता सीलं महाप' सया सव्वं कालं, तत्थ सील सभागो, अट्ठारस वा सीलंगसहस्माणि सील, सो साहुमहावी, अहवा 'महावतसिमाधान, तथैवेंद्रियसंवरमा त्रिदंडविरतित्वं च, कपायानां च निग्रा || सीलं इति अवे, सील ण हावए जावजीवं, पुवरत्तावरलेसु जागरिता पच्छा सुवति, एवमणोमुवि इरियादिएसु सीलेसु जहारोयितवाही होजाहिसम्म पेस्ख, जंभणियं-पता सीलो, अहवा सुनेणेव सील भन्नति-'सुणिता भवे अकामे अझंझे' जेण सम्म पेहा भवति तं अवियना मुणियनि तस्सेव अरथे सुणिता अकामसीलो अझंझसीलो, अहया इह आणा खिलि भणियं, तं आणं पुधरत्नाबरते जागरिला सदा सीले, मुणितभावे सुणियत्ति अत्थं सुणित्ता, अप्पमस्थिन्छाकामे पडूय भवे अकामे, जं भणितं-अलु दे, असे, जं भणितं अकोहे, आदिअंतग्गहणा मद्दवत्यो अवकोऽपि भवे, पिंडत्यो तु मुणिमा धम्म भावं च अकामे अझंझेत्ति, उत्तरगुणा गहिता, एवं मूलगुणेहिवि सुणिय भवे अहिंसगो सथावादी जाय य अपरिग्गहोचि, आह-तुझेहि संदिई-तम्हा बेमिण णिहेज बीरियं, अणिगूहियबलवीरिएण परकामियब्वं, तव व परकममाणो तहावि कम्मरयं निरवसेसं न मकामो उम्मूलेतुं, अन्नपि ता किंचि कहेहि सारपदलंभट्ठाए, अवि दीप अनुक्रम STARSA [१६४ ॥१७५॥ १६८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [179] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] प्रत nam वृत्यंक [१५११५५] श्रीआचा- सीहेणावि समं जुज्झेजामो सरीरपरिश्चागं वा करिआमो, भण्णति, गणु कञ्जमाणे कडे सविञ्जमाणे सविते, जं च भणसे सार-2 रांग सूत्र III पदभत्थं अवि सीहेणावि समं जुज्झेजामो, अतो भण्णति-'इमेण चेव जजमाहि' इमेणंति इमेण इतिवातिणा ओरालियसरीरेण । त्वादि चूर्णिः अट्ठहिं कम्मरिउहि सह, आराहणपडागहरणत्थं, जं च भणिसि णिव्वाणत्थं अहं पाणे परिचयामीति तत्थ 'जुज्झारिहं स्वली ॥१७६॥ दुल्लभं एतं ओरालियसरीरं भावजुद्धारिहं दुल्लभं, तं कहं ?-'माणुस्सखित्त जाई 'गाहा 'जात्र जरा ण पीलेति वाही जाव' अतो परिपालेयव्यं, तत्थ संगामजुद्धं अणारियं, परीसहरिउजुद्धं तु आयरियं, एतं च दुल्लभं तेण जुझाहि, तज्जुद्धमेव उ कई ?, उच्चति'जहिस्थ कुसले, दबकुसला पुनमणिता, भावकुसलो साहू, परिणा विहा, विवेजणं विवेगो, सो दब्बे भावे य, दब्वे विवेगो | कलतमित्ताणं, अंते य सरीरस्स, भावविवेगो णिम्ममचं, ततो तवसा कम्मनिअरविवेगो भवति, जं भणित-लोगसारफललंभो, जो |तु एवं दुल्लभं लोगसारं लद्धा पमाएति से 'चुते हि बालो गम्भाति रजति' जो सो पुष्बुट्ठाती पच्छाणिवाती से चुते घाले, | कुतो चुते !, धम्माओ माणुस्साओ बा, गम्भातिसु दुक्खविसेसेसु, ते य गम्भाति पसवकोमारजोवणमजिझममरणणरगदुक्खा बसाणो संसारपवंचो, अहवा गम्भजम्ममरणगरगदक्खे सुत्ति एनेसु गर्भादिमु देहविगप्पेसु संसारविगप्पे वा, रजति वा पचति । | वा उज्झति वा एगट्ठा, पडिजइ 'गम्भादि रजति' जं भणितं-गम्भातिसु गच्छति, गन्भादिसंसारणिवनेसु वा कामेसु रजति, | एतं कत्थ उवदिटुं इतो चुए बाले ?, जं वा हिट्ठा भणितं ?, णणु 'अस्सि चेत' अस्मिन्नारुहते प्रवचने भिसं बुचति प्रवुचति, 'रूवंसि वा रूवप्रधानविपयाः तेण तम्गहणं, उक्तं च-"चाक्षुषा चक्षुपा येन, विषया रूपिणिस्सिता। रूपत्रेष्ठाश्च सर्वेऽपि, रूपस्य || D| ग्रहणं ततः ॥१॥" 'छणंसित्ति हिंसातिआसवा छणा तेसु छणेसु, छणु हिंसाए, तेण अलीयातीणं गहणं णत्थि, गणु भणितं-10 | ॥१७६॥ दीप अनुक्रम [१६४ १६८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [180] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] प्रत वृत्यंक [१५११५५] श्रीआचा-IAN | सोलसबरिसो, वितितो सुतेण अवतो वएण वत्तो, सो जतिवि साहस्समाल्लो तहावि तस्स ण कप्पति, तस्सेगचारिस्स तिविहा0 रूपक्षणाविरोग पत्र- | सिता तस्थेगतरपि परामुसति छ सो बालो, रूवेसु सञ्जमाणो अविरतो कम्म उवचिणित्ता चुते चाले गम्भादि, तेण साह भणितं रतिप्रभृतिः चूर्णिः अस्सि येतं पश्चति रूवंसि य, जो एवं स्वछणविरतो 'से हु संविद्धभए मुणी' स इति सो सोईदियहिंसादिविरतो य स्खलु | ॥१७७॥ (हु)विसेसणे स एवेगे ण अण्णे 'व्यथ भयचलणयोः' जेण अट्ठविहकम्मगंठिभयं जम्ममरणभयं वा सम्म विद्धं स भवति संवि D भए मुणी, वहितंति वा चालियंति वा (खोनियंति वा) एगट्ठा, सत्तविहं वा जेण भयं संविद्धं, अहवा संविद्धपहे, तत्थ संविद्ध | मिति सणात, पधो नाणादि, मो जस्स संविद्धो स भवति संविद्धपहे, जं भणितं-सम्म उवलद्वो, मुणी भणितो, अण्णहा लोग | उवेहमाणे' अण्णणप्पगारेण अन्नहा, विसयकसायामिभूतो लोगो हिंसादिसु कम्मेसु पवनति, पासंडिणोवि पयणपयावणउद्देसिय सचिचाहारापो वा अनिचो, लोग उविक्खमाणो 'इयं कम्मपरिणाया' इति एवं कम्मर्वधं जाणणापरिणाए परिणाय पञ्च| क्वाणपरिणाए तस्स हेऊ पचक्खाय सव्वे हि पगारेहि सव्वसो सबस एव 'सेण हिंमति' सम्बेहिं चेट्ठपगारेहि कायवायम|णेण वा तिविहंतिविहेण जाव राइमन 'संजमति'ति सत्तरसविहेणं संजमेणं 'नो पगम्भति' असंजमकम्मेसु णो गभं आयाति, | रहस्सेव अप्पपंचमाणं सक्खीणं लजमाणेणं ण आयरति, ण य जाइमयादीहि माणं करोति, एवं ण कुज्झति ण लुम्भति, णवा अपम्मत्तमप्पाणं मन्त्रमाणो पगम्भति, तत्थ इमो आलंबणविसेसो, तंजहा-'उवेहमाणो पत्तेयं मापं' जीवाणं जीवाणं जीवा | नेरइयादि एते तं प्रति पत्तेय, पनेयमिति वीप्सा, जत्थ जं एगस्स सुहं तं अण्णस्स सुह, अह पुनसोक्खाओ जणगसोक्खं भवति, [नतो भण्णति-तस्थेगस्म सारीरं मोक्वं एगम्म माणसं, अहवाममाणाभिहाणेवि सुहस्सामिसंबंधो तो जं अण्णस्स मुदं तं अण्णस ||1||१७७।। दीप अनुक्रम [१६४ १६८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [181] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] अनारंभादि श्रीआचासंग सूत्र चूर्णिः ॥१७॥ प्रत वृत्यंक [१५११५५] ण भवति, अतो पत्तेयं सुई, एवं दुक्खमवि, मिसं इक्खमाणो उजतं वा पेक्खमाणो उपेक्खमाणो, उवदेसो चेव, सो एवं उबेह- माणो 'वण्णादेसि णारमें' वणिज्जति जेण वष्णो, जं भणितं-तक्सोयसंजमों एव, आयजसा, आतं जसं उवजीवंति, तत्थ जे सम्म उपजीवति ते आतजसं उबजीवंति, तस्स वण्णस्स हेऊ णारमे किंचिदपि सब्बलोए, आरंभो णाम घातो, जंचारंभमाणस्स घातो भवति सत्तायं तं ण आरभे, लोगो तिविहो-उड़ाइ, कायलोगो बा, अहवा ण किंचित्ति सहसिलोगट्टयाए किंचि आतावणं वा वेदावच्चं वा अन्नतरं वा अतिसेसं आरमिज्जा, तंजहा-प्रावचनी धर्मकधी वादी नैमित्तिकस्तपखी च। विजा सिद्धः ख्यातः कविरपि चोद्भावकास्त्वष्टौ ॥१॥' अहवा 'वण्णोति रूवं बुचति, तस्स अड्डाए ण किंचि वमणविरयेणसिणेहोसवणण-| अभंगुब्बलणअंगारणादीया हत्धपादधोवणं वा आरमे, 'सबलोगे'ति जहा अप्पणो तहा अनेसिपिणारभे, णारंभावेति आरंभंतपि। अन्न न समणुजाणति, 'एगप्पमुहे' एर्ग अस्स मुहं एगचित्तो एगमणो सारपदाभिमुहो 'विदिसम्पतिपणो' दिस्सति जेण सा |दिसा तं विदिसं मिसं तिण्णो विदिसप्पतिण्णो, तत्थ सम्मत्तनाणचरिचाणि दिसा, तब्बतिरित्ता विदिसा, सम्मने तानि तिण्णि तिसवाणि पावातियसताणि विदिसा, नाणस्सवि भारहरामायणाईणि विदिसा, चरिचे विसयकसाया रागादीया तिण्णि. गाहा, एवमादि विदिमाओ वाओ पतिण्णो, उबएससरवि' णिविण्णचारी अरए पदासु' णिविष्णो चरति णिन्विष्णचारी, सो य बाहिरम्भतरेसु वत्थूK णिन्वेदो भवति, बाहिरेसु सयणातिसु णिबिज्जति, तंजहा-'पुत्तोऽवि अमिप्पाय' माता भवित्ता धूता | भवति, एवमादि, चिरभवेवि णिविज्जति, 'होऊण पुणो 'सरीराओवि सुसंघिता संधी भवति, जहा सणकुमारचक्कवहिस्स, अहवा सबलोगेऽवि रागस्स मूलस्थाणं इत्थीओ ताहितो णिबिदति, जत्थ इमं सुन 'अरए पदासु' अहवा णिग्विष्णचारिस्स एतं | दीप अनुक्रम [१६४ ॥१७८।। १६८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [182] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] त्यादि प्रत वृत्यंक [१५११५५] | लकवणं 'अरते पयासु'ण रतो अरती पयणणधम्मी पसवधम्मी पजायति वा पया-इस्थिो णिव्वेदपुष्वगमेव तासि अरतो,DIप्रजाविररांग भूत्र-IVतंजहा-एता हसति च रुदंति च अर्थहे तोविश्वासपंति च नरं च न विश्वसंति । तमामरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः स्मशान चूर्णिः सुमना इव वर्जनीयाः॥१॥' तथा 'मूलमेतमधम्मस्म' 'महाजाताहि वरितो "स वसुम' स इति णिविण्णचारी अरए पदासु ॥१७९10 वसंति तंमि गुणा इति वसु तं च वसु धणं भावे संजमो जस्स अस्थि सो वसुम, सव्वं सम्म अणुागतं पण्णाणं जस्स स भवति सव्व समण्णागतपण्णाणे, आयरियपरंपरएणं आगतं साहु वादिओ वा आगतं समण्णागतं, पगयं नाणं पण्णाणं, वसुमा चेव एगो सम-16 ण्णागतपण्णाणो 'ण करणिज्जं पावं कम्म' हिंसादि, तण्णो अण्णेसि सयाणं करिज्जा, सो एवं वसुमं सबसमण्णागतपण्णाणोतेण पण्णाणेणं 'जं मोणंति पासह तं सम्मति पासह' संजमभावो मोणं, णिच्छयणवस्स जो चरिनी सो सम्मट्ठिी, अतो नुञ्चति-जं सम्मतं, तत्थ णियमा गाणं, जत्थ नाणं तत्थ णियमा सम्मनं, अतो तदुभयमवि सम्मन, अपरिग्गाहिता इति णिविष्णकामया ब वट्टति, तं एतं जहा भणितं-'ण इमं सकं सिढिलेहिं अदिजमाणेहिं' अहवा जं एतं सबलोगसारभूतं णिरारंभनं अपरिग्गहनं च तं कम्हा अण्णोषि एवं न पडिवज्जति !, तेण बुचंति-ण इमं सक०, सिढिला गाम तबसंजमे य ण जावजीवंत | परीसहजय ददधिति, अद्दिज्जमाणा, जं भणित-सिणेहमाणेणं, दवे उदगउल्लो, भावे मे माया मे पिता मे जाव चियत्तोबगरणपरवज्जणा, एत्थ अभिसंगता सड़ी भवंति, जहा प्रसन्नचन्द्रो रायरिसी, अहया अद्दि अभिभवपरीसहेहिं अभिभूयमाणेणं | 'गुणासातेणं'ति गुणा-सदाति ते गुणे सादयति गुणासाता, जं भणितं-सुहा, बंको णाम असंजमो माया का बंकं समायरतीति, | अण्ण यरं अकिवट्ठाणं श्रासेविचा णालोवेति, गिलाणकुडंगं वा पविसितुं ओभासति, ण वा तवे उज्जमति, पमचे हि कसायादि-11॥१७९॥ दीप अनुक्रम [१६४ १६८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [183] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५१-१५५] प्रत वृत्यक [१५११५५] श्रीआचा- पमारणं, पब्वइएवि भवित्ता एरिसेहिं ग आसेविअति, किं पुण 'गारमावसंतेहि ?' अगारंति वा गिहंति वा एगट्ठा, आदिअक्ष- शिथिलादि 10 रलोवतो गारं भवति, गारमावसंतेहिं गिहत्थअबउत्थिरहि, लोगिताणं गिहस्स तुल्लो अण्णो अस्समोणथि, इधण तहा गारमावसंचूर्णिः ॥१८॥ तेहिं, कर्तुमिति वकसेस, जो पुण ण सिढिलो णो अदितो णो गुणासातो बंको अपमत्तो णामारं वसति, जं भणितं अणगारो, सो । | एवं 'मुणी मोणं समानाए' मुणातीति मुणी, मुणिभावो मोणं, सम्म सम्मन वा आदाय, जं भणित-गहिया, तप्पुब्बएण वा तवसा 'हुणे सरीरगं' कतरं १, ओरालियं कम्मर्ग, सरीरधुवणत्थं, तधुणणणिमिन वा 'पंतं लूह सेवंति' पंत दोसीणीभूत तंपिलूह, एवं उबहिपि पंतं ददुबलं उजियधम्मित सेज्जा सुण्णगारादि फलगाति संथारगा, अहवा पंतमिति सेलाउवही गहितो,। लूह दव्यभाये, दम्ये लुक्खाहार सेवति, भावलूह वीतिंगालं, विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजति । तपोवीर्येण युक्तव, बीरो बीरेण कीत्यते ॥ १॥ सम्मनदंसिणो, अणेगे हि एगादेसामओ भण्णति-'एस ओहंतरे मुणी तिण्णे' एस इति जो एतं जह-I7 मणितं धारयति, अहवा जो असिटिलो जाव लूह सेवति वीरो सम्मत्तदंसी, दवओषो समुदो भावे कम्मा उदइओ वा भावो, तरमाणो तित्तिकाउं, तं ओई जो तरति तरिस्सति वा सो ओहंतरो, मुत्तेति मुनो, तेण णाहिगारो, भावे तु सावसेसकम्मा मुंचमाणो मुत्त एव. विरतो संजतो. विसेसेण आहितो वियाहिनो इति-एवं बेमि सारपदं इच्छता सह आयरह इति पंचमाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः ॥ उसस्थाहिगारो अवत्तस्स एगचरस्म पचवाया चउत्थंमि, तत्थ सुत्तेण वयेण य वत्तावते चत्तारि भंगा, सुते ण जेण आयारो अधीतो, अहवा जेण पदिएण एगल्लविहारपडिमाजोग्गा भवति तण ताव अहिज्जति, वयेण अट्ट वरिसाणी आरम्भ जाच ॥१८॥ दीप अनुक्रम [१६४ १६८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: पंचम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'अव्यक्त' आरब्धः, [184] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१५६ १५९] दीप अनुक्रम [१६९ १७२] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥ १८१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [४], नियुक्ति: [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] पच्चवाया- आयाए पत्रयणे चरिते य, ततिए सुनेण वसो वतेण अवतो, तस्स तिविद्या विराहणा, बालोत्तिकाउं परिभविञ्जति तेण कुलिंगादीहिं, दोहिवि वत्तस्स सेच्छा पडिमं वा पडिवजतु अन्भुञ्जततवं धारेउ वा अन्भुञ्जतं मरणं वा, सेसस्स णिकारणे ण बट्टति, | भणियं च - 'साहम्मिएहि संबुद्धतेहिं एगणियो तु जो विहरे । आर्थकपउरताए छकाय हो तु भइयन्वो ॥ १ ॥' एसो अत्थतो संबंधो, सुत्तस्स सुतेणं- 'तिष्णे मुने विवाहितो तहा गदिं वरमाणो समत्यो अपगं तारेउं अनंपि तस्यं कट्ठेण वा घेतुं तारेति, एवं तिरथगरा सयं तुरंता अनंपि तारेति, अहवा गोजूधे उत्तरमाणे वस्त अंतरंतरेसु जेविण लग्गंति तेवि मंदवेगीकतेण उत्तरंति, एवं साहु समुदायवि केयि पुरिसा सारण वीथीहिं चोतिया, सो एवं तरमामो तिष्णो मुखमाणो को सव्वगंथ विरतो इहवि अ संव| ण्णिअति, जेण वृच्चति 'गामाणुगामं दूइजमाणस्स' जतो चलति सो गामो, तेण परं जो अष्णो गामो सो अणुगामो, अहवा गच्छतो जो अणुलोमो सो अणुगामो, जं भणितं अणुपहे अनहगं वा पडुञ्च गामाणुगामि, हेमंतगिहासु दोसु रिजति जति दोहिं वा पादेहिं रिजति दृइखति दुइ, दुई जातं दुजातं सारपदणिस्सारजातातो दुजातं, जहा एगो साहू कारणिओ, पउत्थभोइयघरे अणुष्णवित्तु भोयणायोडितो, ताओ चचारि जणीओ सामत्थेतुं एकमिकं जाम उवसग्गति, सो णिच्छति, एया अण्णोष्णाए साहति, विसयवियक्खणोति व साहेति कत्तिया एवं अहिया सेस्संतित्ति, एवमादि दुआ, 'आहारे गतीथे य' आहारे एमागी वइयादिसु ताव अणिवारितेण तं जाव तस्स छड़ी वा विख्यिगा वा जाता एवमादि आहारे दुप्परकंतं, गतीयेवि अण्णेण अपडिचोइञ्जमाणो अप्पादीणि आलोएमाणो गच्छंतो आतविराहणं वा संजमविराहणं वा पाविज, आतविराहणाए अहरदत्तो साहू दितो, जा सो तए वाणमंतरीए वियरओदगं अतिदूरं उल्लंघेमाणो उरुच्छिन्नो ता एवमादि गतिदुप्परकंतं तं गंतुं 'अवियत्तस्स भिक्खुणो' मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [185] एकचर दोषाः ४१८१॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] व्यक्ताव्यक्तादि श्रीआचा- रांग सत्र चूर्णिः | ॥१८॥ प्रत SUMARINA वृत्यंक [१५६१५९] Sunday वयसा सुरण य वत्तायते चउरो भंगा, सुएणं अब्बत्तो जस्स आयारपगप्पो अस्थतो ण गतो गच्छवासीणं, गच्छनिग्गयाणं तीसव-10 रिसहिडो, एते अवचा, बत्ता सुयवयेहिं चचारि भंगा जोएयच्या, वयसुए य अवचाणं बहुगाणंपि वत्तरहियाणं दोसो-आता पबयणं संजमं, अण्णो पुण सुतेण अवतो वयेण सोलसवरिसेहिं उत्तिष्णो जतिवि साहस्समल्लो तस्सवि दोसो, अवरो सुतेण वचो | A आयारपगप्पो पढितो सुत्ततोऽपि अत्थतो, ण वएण वचे, तस्सवि एगचरस्स दोसो, सुतेण बतेणवि वत्तो, जिणकप्पे यो परिहारियो अहालंदियो, जो वा तेसिं परिकम्मं करेंति, एतवतिरित्ता जतिवि उभयविचा'साहम्मिएहि संबुज्झतेहिति' गाहा, तस्स पर कारणियस्स अणुण्णा जाव कारणं, एवं तेसिं गणा गच्छमाणाणं इमेहि दिटुंता दिअंति 'जह सायरंमि मीणा संखोभं सायरस्स असहंता गाहा, 'जहा दियापोतमपत्तजातं०'गाहा, गच्छंमि केइ पुरिसासारणधीयीहि चोदितासंता। |णिति ततो सुहकामी णिग्गयमेत्ता विणस्संति।।१।। एवं तस्स अवियनस्स दुआत दुप्परकंत वयसावि एगे पिता कुप्पं ति माणवा'वयसा-वायाए एते अव्वनाएगचरा अणेगचरा वा युयिता-भणिता कुप्पंति कुझंति बकति लुम्भंति, केरिसाए वायाए || कुप्पंति ?-जहा के इमे ? अम्हं एए चेव दट्टत्वा तिबग्गे बंभणाति, तिबग्गपरिचारग मुद्दा पवयंति ?, एवं थंभे मायाएचि लोभेवि | जोएयवं, अविसदा कायेणावि पुट्ठा कुप्पंति, वत्ता पूण वयसा कायेणवि पुट्ठा ण कुप्पंति, जहा खंभो णिकंपो, इमेण य अब्बचदोसा 'उपणयमाणे यणरे महता मोहेण मुज्झति' एगचरो अवत्तो उन्नमिजमाणे य कहिचि कयिवया सिलोगा कट्टित्ता, गिहत्थत्तणे वा कलावगा सुत्ता, फुडवको वा संभावणे, केयि उप्पासणबुद्धीये भगंति तं-अहो पब्बइओ धम्मकही, ण एरिसो अस्थि | अण्णो, जति जहा बंभणस्स वाया सकतश्रमिधारणजुत्ता, पायते वा महाकव्वाई जाणमाणो, उन्नामियाति अंगुलि उक्खिवित्ता दीप अनुक्रम [१६९ १८२॥ १७२]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [186] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] कामानादयो दोषाः प्रत वृत्यंक [१५६१५९] श्रीजाचाAVात बेते-को अन्नो मम तुल्लो ?-गिहत्थत्ते मम किनी आसी, अहया सम्भावितो बंभणो खत्तियो कलायरितो वा णारायणसरिसो वा D रांग मूत्र- | बलरूवेण इब्भपुनो वा आसी, एवमादीएहि उण्णामितो सो महंतेणं दंसणचरित्नमोहेण मुज्झति, अहवा चुज्झति असंजमेण ण संसर चूणिः | तेगं 'संथाहा बहवे भुजो२ दुरतिकमा 'बाध लोडने' सबतो समनं समूहेण वा चाहंति संवाहंति, के य ते ?, परीसहो॥१८३|| वसग्गा, तस्स अवत्स्स एगचरस्स, दुप्पभिति बहुलत्त, भुजोर पुण २ दुरतिकमा-दुरधियासया, अहया संवाहा अणुलोमा बाहिति इन्थि पुरिसगादि, ते दुरहियासा अयाणतो ण याणति एवमेते अहियासिव्वा, दोसे य ण याणति, परीसहउवसम्गेहिं णिहयस्स, अहियासियफलं च ण पासति, जतो एवं आह-'एयं ते मा होउ, एतं कुसलस्स देसणं' एतं ते मा होउ मणसावि जहा अई एगागी विहरामि, एतं कुसलस्स दंसणं, सृहम्मो जंधु आह, इमं जं उदिटुं एवं कुसलस्स-बद्धमाणसामिस्स दंसणं, जहा एते अवतस्स एगचस्गस्स दोसा, अविय 'नाणस्म होति भागी० गाहा, अमुयंक्स तस्स आयरिय उवार हरएण उवमा कीरिहिति, कहं | णञ्जति जं कुसलस्म एतं दसणं ?, जतो-'अत्यं भासति अरहा०'गाहा, अहवा कुसलस्स एतं दरिसणं जहा अवत्तेण ण चरियच्च जो यत्नो सो जणो रीयति, थेरकप्पिया वत्तसहिया रीयंति, तम्हा 'तदिट्टीए तम्मुत्तीये' आयरियाधिगारो अणुयत्तति, दग्वे | लठ्ठिीए पंथं मोतुं अन्नत्थ दिढि ण पाडेति जुयंतरपलोयणाए, अतद्दिहिस्स दोसा कूवादिएसु पडिल अरिफडिज वा, भावतद्दिडीए | आयरियस्स उबदेसदरिसणेण विहरति, मुत्तत्थगहणं कायन, जति मन्वायरितो तो देसदरिसणं, ताहे पवावेत्तुं आयरिओ भणइ-2 एस तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए, मुत्ती णाम सरीरं, दब्धमुत्ती सरीरं चेव, भावमुची जं उवदेसं देति अणुपालिति वा, सरीरप्पमाणप्पित| दिट्ठी वा तद्दिडी तम्मुत्ती 'तप्पुरकारित्ति तदेव सुत्ति दिवि पहं वा पुरकरेति आयरियप्यं च 'तस्सपणी लपणाणोवयुत्तो दीप अनुक्रम [१६९ १७२]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [187] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] श्रीशाचारांग सूत्र चूर्णिः ॥१८४|| प्रत वृत्यंक [१५६१५९] तण्णिवेसी' तचित्तो वा आयरियअहिगारो अणुयत्ता, दवणिवेसणे घरे वासो देवदत्तस्स, भावे आयरियकुले णिवासो, आयरिय-IV जीवरक्षादि समीवे बा, चोयओ भणति-आयरियसमीवे वसंताणं दुजातं दुप्परिकंतं पण भवति इरियावहिगमादी चा?, आयरिओ आह-जहा ग भवति तदा भणामि, तत्थ सुतं 'जयं विहारी चित्तणिवाई पंथाणिहाई' कह ?, तदुभयमुत्तं 'पडिलेह गाहा, गच्छंतस्स। गच्छस्स जो तिहिं उवउत्तो सो पुरतो गच्छति, इरियासु उवउत्तो खेत्तपडिलेहया सव्वं च विधिं दरिसिति, अहवा जतं-अतुरियं | अविलंबिताए गईए गच्छति, तुरितो ण पेक्खति रियादि, विलंबिए सेसजोगहाणी, वत्ता चक्खंमि णिहाय पंथं णिरिक्खति, अहवा |जविहारी चित्तणिधायी पंमि घेव, सो एवं चमतो जीवे दट्टण 'पलीवाहरे' प्रतीपं आहरे जंतं दृष्ट्वा संकोचए देसीभासाए, | एताओ सुत्ताओ तिनि इरियाउग्गमेसणा णिम्गता, 'पासिय पाणे गच्छिज्जा' पाणे पच्चुविक्ख गच्छति, जुयंतरदिट्ठीदिवे यी | पाणे साहुणा एवं करेयवं-'से अभिक्कममाणे' अभिरामुख्ये क्रमु पादविक्षेपे, बोलेऊण पाणे ठवेति पार्द, 'पडिक्कममाणे' पतीवं | गच्छेत एवं दटुं पाणे, सर्वप्रकारेण जहा सत्ताणं आवाहा ण भवति तहा कुर्या, 'संकुचेमाणे पसारेमाणे' कुच फंदणे, सम्मत्तं | कुंचेमाणे संकुचेमाणे, प्रसृग् पसारणे णिसण्णोतुयट्टी चा पमजित्ता जतो कुकुडिवियंमितेणं संकुचे पसारए वा, गमणागमणवजं विणि|| यदृर्ण जाव ते सत्ता गता ताव विणियमाणो गच्छति,'संपलिजमाणे' सरीरे जे सत्ता लग्गा ते संजतामेव पलिमअति, एगताण सव्यता, कार्य-सरीरं कायजोगं गुणा-नाणादि ३ 'समियस्स रीयतों' जं भणितं समितिसहितस्स 'संफासा समणुचिपणा' |संफरिसा अणुचिण्णा, जं भणित-संघट्टणं, एगतिया पाणा उद्दायंति, कदायि इहलोयचेतणविजापडितं, सेलेसिपडिवण्णास्स जे | VA॥१८४॥ सत्ता संफरिसं पप्प उद्दायति मसगाति तत्थ कम्मबंधो पत्थि, सजोगिस्त कम्मबंधो दो समया, जो अप्पमचो उपद्दवेति तस्स दीप अनुक्रम [१६९ १७२]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [188] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] आकुट्टी प्रत वृत्यक [१५६१५९] श्रीआचा जहन्नणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं अट्ठ मुहुत्ता, जो पुण पमचो ण य आउट्टियाए तस्स जहन्नेणं अंतोमुहुर्च उकोसेणं अट्ठ संवच्छगंग मत्र- राई, जो पुण आउट्टियाए पाणे उद्दवेति तवो वा छेदे वा, वियावडं वा करेति, वेयावडियं कर्म खबणीयं विदारणीयं, वेयाव-14 चूणिः मडियं इह भवे खिज्जति, अणाउट्टीकत इहलोयवेयणाए चेतेति, आउट्टिकतं 'परिणाय विवेग'मिति परिष्णा णाम मिच्छत्तं, एवं ॥१८५॥ से अप्पमत्तेण' एवमवधारणे 'सेति भगवं तित्थमराणं पमाएणं उवचितस्स कम्मस्स विवेगकत्तेति वेदवी, तित्थगर एव कित्त-2 | यति विवेगं, दुवालसंग वा प्रवचनं वेदो, तं जे वेदयति स वेदवी । इदाणिं वचो से पभूतदंसी सेत्ति वेदवी, पभूतं दरिसणं A जस्स स भवति पभृतदंसी, पभूतं परिणाणं जस्स स भवति पभूतपरिणाणे, पभृत-बहुगं दरिसणं पभूतपन्नाणं, अहवा पभृतं । | खाइतं दरिसणं, पभूतं पण्णाणं खाइयं णाणं, उवसंता कसायादीहि, चरिते वा उपसंते, समितो इरियादीहि, सहिते नाणादीहि, सदा |VA | णिचं 'जते' चकवालसामायारी एसा बिभासियवा, सो एवंगुणजाइओ दट्टुं अण्णउत्थिए विष्पडिवेदेति जाणेति-अहं सम्म दिडी, एते मिच्छाद्दिडी, अहवा विविहं अप्पाणं पवेदेति, जं भणितं-जाणति, कह ,सष्णागतमादि दळं अप्पाणं अबसस्स बंधु| मज्झे वलामह, मच्नुणोवणीतस्स सो सुबहुयोधि अत्थो किं कुवियवावडो कुणति ? अहवा किमेस जणो करिस्सति ?, रोगामिभूयस्स ण ताणाए सरणाए वा भविस्सति, इह परलोगे वा, अहवा तेहिं उप्पबाविज्जति उचिंतिजा-किं पुण में एते उप्पवाविति ?, मम करिज्जा ण वा, संसाराओ वा कि उत्तारेति !, णिचोलिंति, अहवा मिक्खायरियाए सण्णाभूमीए वा गच्छंतं आयाक्तिं वा | राया वा रायामचो वा धणेण भोगेहिं वा उवणिमंतेज्जा 'विप्पडिवेदेति' किमेस जणो धणं वा करिस्सति ?, 'एस परमा-|| रामें एसेव तस्स, एसे स परमारामो, परम इति उकिडं आ मज्जाया परमकिड्डाए, एता-एता इहं लोए खाताओ इत्थीओ, एया। दीप अनुक्रम [१६९ १७२]] ॥१८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [189] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] प्रत वृत्यंक [१५६१५९] श्रीआचाय परमकरणीया एया परमसुहा 'गवामतिरसः खर्गः, स्वर्गस्यातिरसः खियः' अहवा मणुस्सा कामा अणिच्चा बंतासवा पित्तासवत्तिउद्धाधनारांग सूत्रचूर्णिः सोचा पर अणुत्तरं कुरु इत्थीसु-ण एता मम सासता, 'एता हसंति च०' एवमासां संदरिसणाओ मोहो भवति तम्हा अमिसंगो दिट्ठो, | केण एतं कहितं जं बुच्चमाण ? 'मुणिणा हु एतं पवेदितं' किमिति ?-'उब्बाहिज्जमाणो गामधम्मेहि अश्वत्थं वाहिज्जमाणो ॥१८६॥ गामो-इंदियगामो माउगामो य, किं कुज्जा उब्याहिजमाणे ? 'अवि निब्बलासए' निब्बलाणि दव्वाणि असती णिब्बलासए.IN ताणि पुण णिप्फावकोदवकूरतकाईणि, अहवा जाणि सरीरं निवलंति ताणि जो असति स भवति णिब्बलासतो, सरीरे य निब्ब-D. लिज्जमाणे मोहोवि णिबलिज्जति, आयंबिल वा आहारेइ, अवि ओपोदरिय, तंपिणिब्बलं आयंबिलं वा ओमं करेइ जाब एगूणतीसाओ आरद्ध लंबमाणोत्ति, जति तहावि ण उवसंमति ताहे चउत्थं काउं जाव छम्मासे अवि आहार वोचिदिज्जा, तहवि ण हाति पच्छा 'अवि उट्ठाणं' रनिं एक दोनि तिनि चत्तारि बा जामे ठाति दिवसं वा, 'अवि गामाणुगाम इतिजउ'm दिअति उवहिं उप्पायंताण वा, सथ्वस्थ णिब्बलासमा ओमोदरियाओ करेति, सब्बहा अट्ठायंते संलेहणं काउं भत्तं पचक्खाइ, एवं | ता अबहुसुयस्स मोहतिगिच्छा, बहुमुत्तो पुण वावणं दवाविजइ, सेट्टिकप्पट्टदिद्वैतो, सम्वत्थवि य अह विजहे इत्थीसु मणं, संकप्पप्पभवो किल कामो भवति, भणियं च-'काम! जानामि ते मूलं, संकल्पास्किल जायसे । संकल्पं न फरिष्यामि, तेन मे न | भविष्यसि ॥१॥ इमाओ य आलंबणाओ इत्थीओ वञ्जणिजा भवंति, तंजहा 'पुवं दंडा पच्छा फासा' सत्था दंडा, दम्मन्ति | जेण सो दंडो, तेण पुण इह परत्थ य, इह ताव पुब पहारा कस्साति लंभंति पच्छा फासा संवाएणावतासणालिंगणचुंबणादि, तत्थ दिलैंतो-एगस्स रनो महादेवीए धूया संपत्तजोधणा ओलोयणवरगया अच्छति, तीए तंबोलगं निच्छूद, इंददत्तो य इम्भ दीप अनुक्रम [१६९ १७२]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [190] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] श्रीआचारांग सूत्र- चूर्णिः ।।१८७॥ प्रत वृत्यंक [१५६१५९] सुओ तेण हाणेणं वोलेइ, सो य ताए ण दिडो, तेण एतं पडतं तं रायकण्णं पलोएउं हत्थेण पडिच्छिन्तु मुहे च्छुई, तीएवि दिडो D| दंडस्पओरालियसरीरोत्ति, रायपुरिसेहि य घेर्नु पिट्टित्ता रण्यो य णीओ पास, सिढे रष्णा विज्झडावेउं वज्झो आणतो, पच्छा सादारियायोः पूर्वातं चेडिसगासाओ सोउँ मुच्छिता, आसत्था संती माताए पुच्छिया-एस ते रोयति !, रोयतित्ति बुत्ते रण्णो णिवेदिते तस्स चेव सा । परीभावः दिण्णा, तेण फरिसिता, एवं पुध्वं दंडा पच्छा फासा, परलोएवि अग्गिवण्णाओ इत्थीओ अवतासाविजंति, एवं पुर्व दंडा पच्छा फासा, पुवं फासा पच्छा दंडा, पारदारिया गहिता संता संसट्ठा वा कण्णणासोदसीहपुच्छिता कीरति मारिअंति य, परलोए तहेव | निरयपालेहि य णरगवेदणाहि य दंडिअइ, इमानो य आलंबणाओ इत्थीओ बजाओ, 'इचेते कलहसंगकरा भवंति' इति एते || कामा इस्थिसंथवा चा कलहकरा जहा सीयाए दोवईए य, एवमादी कलहकरा, कलह एव संगो, अहवा कलहो-दोसो संगो| रागो, अहवा संगंति सिंग बुञ्चति, सिंगभूतं च मोहणिजं कम्म, तस्सवि इत्थीओ सिंगभूता पडिलेहाए आगमित्ता' पवि तस्स निवित्तस्स य गुणदोसे पडिलेहाए सुयनाणपडिलेहाए आगमित्ता जंभणितं-णचा, तित्थगराणाए 'आणविज अणासेव| णताएत्ति बेमि' इमो अण्णो परिहरणोवातो, दुक्खं ताओ परिहरिअंतित्तिकाउं, तेण एसो गतोपि अहिगारो पुणो आरम्भति, पियपुत्तअप्पाहणिया वा, तंजहा-'से णो काहीए' जातिकहं कुलकहं णवत्थ कह सिंगारकहं, धम्मोवि तासि रहसे ण कहेयब्बो, जेसु दोसो उप्पज्जा, पुरिसाणं च सिंगारकहा ण कहेयच्या, कलिया कहेयन्या, कलियाकहाणरवाहणादि, पासणितत्तंपि ण करेति, कयरा अम्ह सा भवति सुमंडिता वा कलाकुसला वा, आहहेसु पासणितत्तं करेइ, सुमिणे वा पुच्छिो वागरेइ, अण्णतरं । A वा अट्ठात्रतं, जहा एकाए गणियाए दीगारिकेण चंपएण चंपगमाला बज्झति, रापपुत्ता देंति, पच्छा सा एगेण इन्भेण वाहिता, ॥१८७॥ दीप अनुक्रम [१६९ १७२]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [191] Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१५६ १५९] दीप अनुक्रम [१६९ १७२] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥१८८॥ "आचार" - - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [४], नियुक्ति: [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५६-१५९] गया, चिंतेइ सो मए सद्धिं अच्छितुकामो, पच्छा तस्स घरे चंपगपुष्फेहिं पुंजपुंजेहि अबणिया कया, आसणे दिष्णे वीणं सो | भजए समं वाएइ, को अम्हं कुसलोति पसिणं पुच्छिता, विलक्खीभूया गया, संपसारता णामा उपसमतिया, काति कस्सति साहुस्स अद्धितिंकरेज, पुच्छिया भणइ-भत्तारो मे अनं परिणे, धूया वा न, कुमारी बेस्सा वा, अह पच्छा सो तीसे वसीकर| णादि देति, सावि तं अणुयत्तड, तेहिं दोसो होज्जा, तेण णो संपसारए, एरिसा मम भाउज्जा भइणी भज्जा वा हवइ, इतरहेव गम| नागमणसंबंधसंथवेहिं ममीकारं करेह, कतकिरियो णाम कते कते किरियं करेड, मंडितुं पुच्छितो- किमहं सोभामि ?, अपुच्छिओ वा भणति - अहो सोभसि, न वा सोमसि, एवं करेह तो सोभिस्ससि, द वा ता भावओ रोसितो, सुट्ट सा ते धृता तस्स दिण्णा, ण दिण्णा वा, एवं संजमदोसो, एवं पुट्टेण अपुट्टेण वा पासणियातिएसु वइगुत्तेण पडिसेहेयव्त्रं-ण एरिसं सोतुंपि वद्धति, कओ पुण | उचदिसितुं ?, आयरिओ वा अज्झष्यं णाम सुतं अत्थो वा तत्थ उवउत्तो णिचं तदप्पितमणा अज्झप्पेण संवुडो परिवज्जते तमेव मेहुणं तदणुपसंगेण य अण्णे हिंसातिए, ता 'मोणं' मुणिभावो मोणं, सम्मं नाम ण आससप्पयोगादीहि उवहतं, अणुवासिञ्जासि, अहवा तित्थगरादीहिं वासियं अणुवंसिज्जासित्ति बेमि । पञ्चमाध्ययनस्य चतुर्थः उद्देशकः ॥ उद्देत्याहिगारो गुरुकुले वसंतो आयरिओ हरयतुल्लो पंचविहायारजुत्तों नाणादीहिं कारणेहिं साहूहिं सावएहि य सम्म उवा| सिज्जति, आयारो पूर्वमधिकृत एव, स एव च सारो, गहियसारो य णाणाति णिव्वाणपज्जव साणसारस्थिए हिं उबासिज्जति, अयं - ता अज्झयण संबंधो, सुत्तस्स सुत्तेण संबंधो- एतं जहा भणितं-मोणं अणुवसमाणो आयरिओ भवति, भणियं च 'नाणस्स होड़ भागी ०" सो य बहुस्सुओ एवंविधो भवति, तंजहा - 'से वेमि' (सू. १६९) 'से'ति शिंदेसे, अहवा सोऽहं एवंविह आयरियविसेसं उब मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम अध्ययने पंचम उद्देशक: 'हद उपमा' आरब्धः, [192] प्राश्निकादि निषेधः ||१८८ ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥१८॥ प्रत वृत्यक [१६०१६५] Vइदसाम्य लभ्य वेमि, तत्थ यतिरित्तो दव्वहरतो, परिगलणसोतो णाम एगो णो परियागलणसोतो पउमद्दहाति, परियागळणसोतो णाम |D | एगो गो परिगलणसोतो जहा लवणसमुद्दो, एगो परिगलणसोतोऽवि परियागलणसोतोऽवि अहा णीलवंतद्रहातिगंगाकुड एत्र मादि, एगो गो परिगलणसोतो णो परियागलणसोतो जहा बाहिरया समुद्दया सासयपुस्खरिणीओ वा, एवं सोतप्पबहे णाम एगे | नोसोयपडियच्छए, सोतप्पडियच्छे णामेगे णो सोतप्पवहे, एवं सेसावि भंगा, पडिपुण्णो णाम आईयाराइपुण्णो, जे वा हरयगुगा I | तेहिं पडिपुण्णो, पसण्णतो यो जलएहिं उत्सोमितो चिट्ठति 'समंसि भोमे चिट्ठतीति णिचकालं सगुणेहि य पडिपुष्णो | चिट्ठति, ण कयाइ सुण्णो जलजेहिं, उवसोमितो अणुतीरतरूहि य पत्तपुष्फफलच्छायोवएहिं 'समभोमे' समे भूमीभागे, ण गिरि-11 | सिहरे ण वा विसमे, सुबउयारउत्तारो य, ण साबएहि सीहाइएहि अनभिगम्मो, उवसंतरए अणेगपुरिसउवेहे, पसण्णपंको णिप्पंको | | वा सैवालरहितो, एगे भणंति-पउमातिरहितोबि, तत्थ सुहं दिस्संति पंककंटाइणो जालाणिगला वा, पति आगासेण पक्खी । || गच्छति तस्सवि च्छाया दिस्सति, उवसंतरयत्ताओ य मच्छकच्छभे सारक्खति, ते ढकादि जालगलातिए य दक्षंण मअंति, तले | वा लग्गति, सारक्खमाणो इत्र सारक्खमाणो, से चिट्ठति, ण सन्चो णिग्गलते, 'सोयमज्झि'त्ति ततियो हरतो जत्थ सोताणि आग-110 | लंति परिआगलंति य तम्हा ण खिञ्जइ पेजमाणो य दुपयचउप्पदापदेहि विगेहि य, एस दिलुतो, अयं अत्थोवणओ-एवं सो | गुरुकुलबासी आयरिओ जुत्तो पडिपुष्णो अट्ठविहाए गणिसंपयाय, तत्थ पढमो सोतप्पवहो ण तु सोयपडिच्छतो तित्थमरो, | वितियो जिणकप्पियो, ततिओ गणहराई, चउत्थो पत्तेयबुद्धो य, ततिएण अहिगारो, पडिपुण्यो सो य आयरियगुणेहिं चिति, माणा अवट्टिनायारो जर्ग जगं समासज पडिपुण्णो, समभोमेत्ति आयरियभूमीए माहुभाषिते खित्ते पउरप्णपाणसुहविहारे सुह- ॥१८९॥ दीप अनुक्रम [१७३१७८० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [193] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१६० १६५] दीप अनुक्रम [१७३१७८ ] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥ १९०॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [५] नियुक्ति: [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] णिक्खमणपवेसे, इहरहा च ण सकति चोरादीहिं तत्थ गंतुं, जे तु पट्टिउकामा अहवा सुत्तस्स तेणेव उवसंथारो पडिपुण्णो 'से पास सबओ गुत्तों' सेति णिसे, पस्सत्ति-बुज्झत्ति, सन्त्रओ गुतेति-सन्देहिं पडिपुष्णादीहिं हरदगुणेहिं उवसंथायरेयव्वो सव्वेहि इंदिएहिं गुते य से जाण लोए०, तत्थ महेसिणो गणहरा सोयमज्झडिया, 'जे य पण्णाणमंता पबुद्धा' मिसं नाणमंता चोहसपुव्यधरा जे अण्णे गणहरवजा परंपरएण आगया आयरिया जाब अजकालं, बुद्धा ओहिमणपञ्जवनाणिणो सुयधम्मे वा बुद्धा जे जहिं काले, ण पुण अन्वचा एगचरा वा बचा, जेऽवि ण जिणमादिट्ठा णाणाई पार्वति गुरुकुले वसंता ते सामायारी कुसला भवंति 'आरंभोवरय'चि अण्णाण कसायणोकसाय असंजमो वा आरंभो, उवरया णाम विरता, जे आरंभउबरता 'एतं संमति पासह, 'कालकंखी परिव्वए' कालो णाम समाहिमरणकालो तस्स कालस्स कंखाए एवंविसारजुचा गुरुकुलवासिणो सम्बओ वयंतीचि, बेमिति करणं अज्झायअज्झयणमुखंध अंगपरिसमत्तीए भवति, इद्द उ पगरणसमत्तीए दट्ठब्बं गतं आयरियपगरणं, इदाणिं सिस्सपगरणं आरम्भति, तत्थ अत्था तिविहा-सुरहिगमा दुरहिगमा अणहिगमा य श्रोतारं प्रति तत्थ सुरद्दिगमेण अहिगारो, अपहिगमाचि अवत्थू, दुरहिगमेसु तु 'वितिगिच्छासमावण्णेणं' (सू. १६२) तत्थ तान दरिसणे संका भवति, जइ धम्मस्थिकायो गतिलक्खणो तेण णिचमेव गई भवतु, अधम्मस्थिकायो द्विति तो ये निधठाणं किं न भवति ?, आयरिओ भणइ धम्मत्थिकायो न रज्जू जहा तहा कट्टति, किंतु गतिपरिणतस्स उग्गहे वइति मन्छजलवत् एवं आगासत्थिकारवि, जीवाइस वा वसु पदस्थेसु परियतस्स वा पढिपुच्छं अणुप्पेहं धम्मं वा कहेंतस्स एगपदे अणेगेसु वा वितिमिच्छा उप्पजेज, किं अयं अत्थो एवं अनहिति, एवं संकितेण लभते समाहिं समाही णाम एगगं, तिविहा वा समाही, तत्थ सम्महंसणस माहीएं अहिगारो, ते मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [194] प्रतिपूर्णतादि ॥ १९०॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] प्रत वृत्यक [१६०१६५] पुण सिरसा दुबिहा सिता य असिता, तत्थ सिता बद्धा, जं भणितं गृहस्था, असिया साह, अबद्धा कलत्तातिपासेहि, तेण हरतोव-10 सितारांग सूत्र-1 मेण आयरिएण कहिजंतं सियावि अणुगच्छंति असितात्रि, अणुलोमं गच्छति अणुगच्छंति, एगदा कदा किंचि ण अणुगच्छंति Mall सितादि एवं सेहतरावि केपि परियच्छति, ते परियच्छया पायपडिया भणति-अहो सुभासिय पेसलं च भणिय, तत्थ गाद च अणणु-IN गच्छमाणोवि चिंतेति-कि मण्णे आपरिया अणुयत्तीए भकति ?, उदाहु परियच्छतो भणति, सो य पुण कदायि खमओ होज पयणु| कसाओ वा आयडिओ चिरपन्चइओ साहू किं मन्ने अहं भवसिद्धीओ अभवसिद्धी भो ?, संजमभावोनि मे णस्थि जं अहं एतं फुडवियडकहिअंतं नाणुगच्छामि, तस्स सम्मनधिरीकरणथं आयरिओ भणइ-णियमा तुमं भवसिद्धीए, अभवियस्स एवं संकादि | Nण भवति-कि अहं भविओ अभविओ वा ?, किंच-'बारसविहे कसाए खबिए उत्सामिए य जोगेहि' संजमो लब्भति, सो य ते लद्धो, तहेच दरिसणचरित्रमोहणीये तव खयोवसमं गते जेण सि सम्मत्तचरिचाई पडिवण्णो, जं पुण सम्मऽपि वट्टमाणो कहिज- | | माणं ण पडियुज्झसि तं गाणावरणिज ते कम्म ण सुट्ट खओवसमं गतं, जस्स उदएणं णिउणे पत्थे ण बुज्झसि तत्थ इमं आलंवर्ण-'तमेव सर्थ निस्संकं जं जिणेहिं पवेदित' (स. १६३) अहवा सो तेसु अणुगच्छमाणेसु अणणुगच्छमाणो कहण णिबिजे दरिसणातो ततो वा अधीतयातो, तत्थ इमं आलंबणं-'तमेव सर्व णिस्संक' अत्थिणं भंते ! समणावि णिग्गंथा संकामोहणिजं कम्मं वेदेंता०' आलावो विभासितब्बो, तथा 'वीतरागा हि सर्वजा, मिथ्या न बुवते वचः' (यस्मात् तस्माद चस्तेषां, सत्यं भूतार्थदर्शनम् ॥१॥) एवमादीहि आलंबणेहि ण णिधिजति, सा पुण तस्स वितिगिच्छा पब्वइयस्स भवति पव्ययंतस्स वा तेण बुचति'सडिस्स णं समणुष्णस्स संपवयमाणस्स'(. १६४) सट्टा अस्स अधिनि, समणुण्णो णाम पवारुहो, समाययंतस्स ॥१९॥ दीप अनुक्रम [१७३१७८० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [195] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१६० १६५] दीप अनुक्रम [१७३ १७८ ] श्रीआचारंगसूत्रचूर्णिः ॥१९२॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [५] नियुक्ति: [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] संगतं वा जं तस्स, समियंति मण्णमाणस्स, संविग्गभावितो संविग्गाणं चैव समासे पव्वइओ, एगदा कयाह, अहवा एगभावो एगता पब्बजा, एगता गिहत्थेहि कसाएहि वा असंकप्पो, वितियस्स समिति मण्णमाणस्स एगया असमिया भवति सो संविग्गसाबओ णिव्हगसगासे पव्वइओ, महुराकुंडइलाण वा, पच्छा गेण जातं, अविकोविओ वा उस्सन्नसगासे, पच्छा सो समोसरणादिसु पंथे वा मेलीणो पुच्छिओ दुट्ट ते कर्तति, जइ लक्खणा चेव पडिकमति तो से सो चैव परिताओ, अह पुण सयं ठाणं गंतुं परेहि वा चोदितो अच्छछ यो वा बहुये वा कालं तो पुण उबद्वाविअह, ततिओ संविम्गभाविओ चेव असंविग्गाणं चेवंतेण | पथ्वयति, संकितो पुण मां हु एते णिण्हगा भवेज, पन्चयामि ताव पच्छा जं भविस्मति, संविग्गेहिं संमिलीहामि, एवं पव्वहओ | पच्छा यऽणेण णातं जहा एया जिव्हगा समोसरणादि सेसेसु संजरसु संभिमाणे, पण्णवगाए वा आयारेण वा पच्छा आलोयए, पुणो उबट्ठाविज, चउत्थो मिन्नदंसणोऽभिसंकितचित्ताण चेव समासे पञ्चइओ, तं चैव से रुचितं, एवं दुहतोवि अमिता जाता ओसण्णाण वा एते चैव चत्तारि भंगा दोसु ठाणेसु समोयारिअंति, तंजहा-समियाए य असमियाए य, आदिला दोणि समियाए इतरे असमियाए, तत्थ सुतं 'समितंति मष्णमाणस्स समिया वा असमिया वा होइ उवेहाए' इक्ख दरिसणे, उविच्च इक्खा उविक्खा, पढमस्स उवेहमाणस्स, वितिए पुण ते व्हिए णाऊणं जं तव्वाबारे उदेहं करेति, जं मणंतु तं भणंतु जं करेंतु तं करेंतु वा, जाब विसुद्धदंसणे साहू पासामि ताय आभोग करेड, मा मे ते विच्छुभिस्संति, अहं च अव्वतो अजवि, ताहे सो पण्ण- विअंतो वा असमासु उबेहं करेति, तस्स एवं सा असमिया एवं भवति उवेहाए, वितियविगप्पे तु असमियंति मण्ण माणस समिया वा असमिया वा समिया होइ उवेहाए, असमिया चैव भवति विकोविजमाणस्सवि सम्मछिट्टिएहिं तेसिं पत्रयणे उविक्ख मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [196] | समितादि ॥१९२॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१६० १६५] दीप अनुक्रम [१७३ १७८ ] श्रीआचा रांग सूत्र चूणिः ।।१९३।। “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [५] नियुक्ति: [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] माणस्स, जं भणितं असदहमाणस्स वतियस्सवि संविग्गा एतेति णचावि जया तस्स पडिकमियन्वै उवेहं करेति तदा असमिया भवति, चउत्थो असमिओ चैव तत्थ जो सो हरतो धम्मो आयरिओ तस्सियो वा अत्तपारो (पण्णो) उवेहमाणो अणुवेहमाणो, जं भणितं अपरिबुज्झमाणो, एवं उवेह, एवं एयस्स, एवं बुज्झ समियाएचि, अरूसंतो अफरुसं भणतं टंकणदिडुंतेण ताव णाहेति जाव परिचाति, तदा तस्स ठाणस्स तं भवति णयणं, भणति 'जट्ट चल्ल'ति, अगिलाए काले काले य पढमबितियादिपरीसहेहि अगि लायमाणस्स स एव अत्थो पुणो पुणो उब्वेतस्स ' ( तत्थ तत्थ) संधी झोसितो भवति'' तत्थ तत्थे 'ति वीप्सा, तत्थ तत्थ नाणं| तरे दंसण० चरितंतरे लिंगंतरे वा संघाणं संधी दरिमणसंधिमेव, अयं 'जुपी प्रीतिसेवनयोः' अहंबा, अहवा पदपादसिलोगगाहावृत्तउद्देस अज्झयणसुयवसंघअंगसंधिरिति, जुसितं जं भणितं आसेवितं, सदद्दिता पत्नीता भवति, अथवा सूत्रमिति संधितास्थ, एवं सद्दहमाणस्स से उडियस्स टियस्स गतिं समणुष्ण' सम्मं उड्डाणेणं उडितस्स गुरुकुले वसंतो गति समणुपस्सह, किं गतिं गतो ?, जहा कोयि रायसेत्रगो रायाणं आराहित्ता पट्टबंधं पत्तो, तत्थ लोए बत्तारो भवति-पेह अम्रुगो कं गतिं गओ ?, एवं अभितरइस्सरियत्तणेण महाविजाए वा, इह हि आयरियकुलावासे वसंतो 'णीयं सेज्जं गतिं ठाणं णियमा (णीयं च आ) सणाणि या' एवं वट्टमाणो 'पूजा य से पसीयंति, संबुद्धा पुन्यसंयुता ।' सो अचिरयकालेण आयरियपदं पावति पट्टबंधठाणीयं, अतो वृच्चति-उडितस्ल द्वितस्स, अन्नाओवि रिद्धिओ पार्वति, सिद्धिगतिं देवलोगं वा, एवं पावित्ता पंचविहे आयारे परिकमियन्वं, 'एत्थवि बालभावे' वाला, जं भणितं मूढा संकिया, यश्च संकियभावे य अप्पाणं णो दरिसिजा, जोवि अण्णो बालभावो, तंजहा- भारहरामायणादि तेहिं पुष्यं भाविपथ्यो कुप्पापपणेसु वा वइसेसियबुद्धवणमादिकबिला दिए अविरत अवत असंजयाण यतादिसु मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [197] उपेक्षादि ॥१९३॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१६० १६५] दीप अनुक्रम [१७३१७८ ] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥१९४॥ "आचार" - - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], निर्युक्ति: [२४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] वा अगुत्तिअसमितिसु वा अहवा अन्ततो एगचरियाते निष्हगत्ते एवमादि बालियभावो, निच्चता अध्यणो णत्थि पाणावाओ अ पुण्णत्ता य, आगासदेसे वा जवि रुक्खोति छेदो डाहे वा, अवतट्ठितस्स आगासस्स डादच्छेदा ण भवंति, जहा णिचत्ता अप्पणो णत्थि पाणाइवाओ, तस्स अभावे न पुरिसस्स सीसंपि छिंदिता, बालियभावे अप्पाणं ण दंसेति, भणियं च “न जायते न म्रियते" एवमादि, तम्हा हंतव्यं परियावेयन्त्रं उदयच्वं ततो बुच्चति 'तुमंसि णाम तं चैव' (स. १६५) तुमसिभि जो तुमं पवादी तहिं चैव अविरतित्ति, अहवा तुमंस तंभि चैत्र काए अतिगतो असई अदुवा अनंतखुतो हंमिहिसि, अमेहि वा जाव उदवेषांति, अहवा छसु अण्णतरंसि कप्पति तेहिं चैव एवं मुसावाए अलियं मासिययंति मण्णसि, एवं जाव परिग्गहे अहवा तुमसि णाम तंमि चैव अण्णुष्णमिच्छत्तविसयकसायभावे, तेण 'अंजु चेयं' अंजुरिति ऋजु साधु च पूरणे, एतं पदं हंतव्यादि पडिबुज्झतीए साहु, अहवा अञ्जवभावेण ण सढयाए भएण वा, तम्हा 'ण हंता गवि घातए' ण दंतव्वा सतं, घातयति कारावणं च अणुमो दणा य दोऽवि गहियाई भवंति एवं 'अणुवेयणं अप्पाणेणं' अणु पन्छाभावे, अणुवेदणं अणुसंवेदणं, को अत्थो ?-- जहा तुमो वेदावितो तहेव वेतितव्यं, अहवा समंता वेदिजइ अणुवेदिजर, अप्पानंति अप्पणा ते अणुसंवेदिअंति, ण तु अण्णेसिं वेतेसंति 'जंति दंतव्यं णाभिपत्थए' जंति जम्हा कारणा, इंतव्यं-मारेयन्त्रमिति ण पडिसेहे, अभिमुहं पत्थए २। वितिमिच्छाहिगारो अणुयतर, इमा वितिमिच्छा चैव सिस्सस्स किं दब्वा गुणा अणण्णे अहवातो अण्णे १, अडवा अणुसंवेदणीयं भणियं च-अप्पाणेणं, वेदमाए णाणमेव, तं किं णाणं गाउं एगते अण्ण ने संतो संदेहो, लोगेऽवि के अण्णं दव्वं गुणेहिं इच्छंति केषि अणण्णं, अतो संमयाओ पुच्छा, जे आवा से विष्णाता (सू. १६६) पुच्छाणुलोममेव वागरणं, जे आता से विष्णाता, गवि अप्पा नाणचित्रा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [198] बाल भावादि ॥ १९४॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५] आत्म प्रत वृत्यक [१६०१६५] श्रीआचा णविरहितो कोइ, जहा अणुदो अंग्गी णस्थि, ग य उण्ई अग्गीओ अत्यंतर, तेण अग्गी बुत्ते उन्हें बुत्तमेव भवति, तहा आता || रांग सूत्र- | इति वुत्ते विष्णाणं भणितमेव भवति, विष्णाणे भणिते अप्पा भणितमेव भवति, एवं एनं गतिपञ्चागतिलक्षणेणं, तंजहा-जीवे | चूर्णिः IA भंते ! जीवे ? जीवे २१, अण्यो भणंति-कि जे आता से विण्णाया? जे विष्णाया से आता? पुच्छा, वागरणं तु जेण बियाणति ॥१९५॥ | से आता, केण बियाणति !, नाणेणं पंचबिहेणं बियाणति, तं च नाणं अप्पा चेव, ण ततो अत्यंतरं अप्पा, आइ-जइ एवं तेण णाणपहुचे अप्पबहुसं एकेके अप्पाए, एवं दरिसणबहुसेवि अप्पबहुतं, जावतिया वा आमिणियोहियनाणभेदा, एवं सुयनाण-| ओहिनाणमणपअवनाणभेदा तत्तिया जीवा, तत्थ इमं अस्पबहुत्तसंकाए पडिसेधत्थं सिस्स! सुत्तं भग्णति-'तं पडव पडिसंखाए' पञ्चत्ति जं जं नाणं परिणमति अयं अप्पा तं तं पप्प तप्पक्खो भवति, अहवा घडपडादिणो य बहवो अपवत्तं पवत्तं, अणिद्वं च। एतं, जेण बुश्चति पहुच संखाए, जता घडणाणेण उबउत्तो भवति अप्पा तता व घडणेयं प्रति घडणाणमेव भवति अप्पा, एवं पडरहअस्सनाणमिति, सोतातिउवओगो वा जहा सोओवउत्तो अप्पा सोइंदियं भवति, एवं जाव फरिसिदियमिति, भणियं च"जं जं जे जे भावे परिणमइ" अतो य उप्पायवयवत्तं भवति जीवस्स, एतं पहुच पडिसंखाए, सब्बवावगं मुत्तं एवं, जं जं भवं | नेरइयाइ भावं च उदइयादि धावगलावगादिकिरियाो पहुच तदक्खो भवति, पडनाणं च परिणतो पडनाणते, ण उ घडाइउवओगा य पडनाणकाले, अघडनाणकाले य अपडियमेव, एवं सम्बदबाणं पडुच्च पडिसंखा उप्पातादयो आयोजा, नंजहासुवणं कुंडलत्तेण उप्पण्णं, गंधत्तेण विगतं, सुवण्णण अवद्वितं, तहा परमाणू कालगनेण उत्पण्णो नीलगतेण विगतो, द्रव्यतया अवद्वितो, एवं पपोगवीमसापरिणामा योजा, 'एस आतावानो' अपणो अपणो बातो आतावातो, दवे नाणे वा आतोबयारं दीप अनुक्रम [१७३१७८० ॥१९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [199] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६६-१७१] VAN प्रत वृत्यक [१६६१७१] श्रीआचा-8 काउं घुच्चति-एस आतावाते, सम्म परियाए, परियाए णाम पजाओ, विविहं विसिटुं वा आहितो विाहितो, एवं उट्ठियस्स | |आज्ञानारांग सूत्र|| ट्ठियस्स गई समणुपस्सह सिद्धान्तगतिं वा । पंचमस्याध्ययनस्य पंचमोद्देशकः ॥ धादि चूर्णिः | एस एवाधिगारो-तिणि तिसट्ठा कुष्पावणियसया बजेयब्बा, गिहत्था अन्नउस्थिया बजेयवा, रागदोसा बजेयष्या, अणं-11 ५अध्य० ६ उद्देशः | तरसुत्तसंबंधो तु सम्म परियाओ वक्खाओ, इमपि सम्म बक्खति-अणाणा अणुवदेसो (सू. १६७) जं भणित-अणुवयारो, तच्चि१९मावरीया आणा, अतो ताए अणाणाए सोवत्थाणं, मुठुबट्ठाणं आणाए, अणुबहाणं अणुजमो, एतं ते मा होतु, एतेण दोग्गई गम्मह| | तेण णिवारिजसि, तब्विवजयं कुरु, को य सो तबिवजओ?, अणाणाए निरुवट्ठाणं, एतं कुसलस्स दंसणं' एतमिति जं भणितं, तट्टिीते-कुसलदरिसणदिट्टीए. मुत्ती-सरीरं, तपुरकारो तस्सणि तंणिवेसणा पुनमणिता, 'अभिभूय अदक्खू परीसहे|" (सू. १६८) अभिभृय चचारि घाइकम्माई अभिभूता, अदक्खू-एवं दिटुं भगवया, अणभिभूते तेहिं चेव परीसहोवसग्गेहि | | अन्नतिथिएहि य, पभु णिरालंधणं निरालंबणभावो, पभूणिरावणयाएत्ति, आलंबणं मोक्खो तस्स च आलंबणस्स पभू, अण्णं च निरालंबणं काउं पभ , 'से अहं अकहिमणों' जे इति णिदेसो, अहमेव सोजो अबहिमणो-ण णिग्गयमणो संजमाओ सासणाओ||| | वा पंचविहायारपयाओ वा अबहिल्लेसो, जति अण्णउत्थियाणं वेउब्धियाइरिद्धिो पासति तहावि न बहीमणो भवति, छलवाते Vवा णिग्गहीती ण पहिलेसी भवति, 'पवारण पवाययं जाणिजा,' पगतो वादो पवादो, अप्पए पत्राएणं तिणि तिसट्टाणि पावा दियसयाणि जाणिजा-परिक्खिञ्जा, परोप्परविरुद्धाणि एयाणि, तंजहा-ईसरेण कडे, अंडाओ, अग्गिसोमीयं, लोगमादीकतं, एवं परोप्परविरुद्ध पावादिए णचा सएण पवारण णिगिण्डर, गणु एवं परसिद्धृतदोसकहाए रागदोसा, भण्णाति, जहा उप्पहमम्गं दरिसें-1011 | ॥१९॥ दीप अनुक्रम [१७९१८५] I मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पंचम-अध्ययने षष्ठ-उद्देशक: 'उन्मार्गवर्जन' आरब्धः, [200] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६६-१७१] प्रत वृत्यक [१६६१७१] तस्स ण दोसो भवति, जहा अपत्थमो यणातो आतुरं णियारतस्स ण दोसो, एवं सएणं पवादेणं परवादे दुढे दरिसेंतस्स ण राग-2 श्रीआचा कुवाद्यादि संग सूत्र दोसो भवति, ते पुण सो कुवादे कहं जाणइ १, पुच्छति, सहसंमुहताते परवागरणेणं अण्णेसि चा अंतिए सोचा, एतेहिं तिहिं कारणेहिं 14 चूर्णिः णचा 'णिसं णादिवनिजा'दि (सू. १६९.) दिसणं देसो णिदेसो, णातिवत्तए णातिचरति, मेहावी पुब्वभणितो, सयं भगवया । ॥१९७॥ | सुट्ठ पडिलेहितं-विण्णाय, तमेव सिद्धतं भागवतं तिण्हं उबलद्विकारणाणं अण्णयरेणं उबलद्धिकारणेणं अभिसमागम्म,'सबतो सवताए' सम्बतो इति दयखिनकालभावा, सय्बनाए सब्वभावेणं, चाहिएणवि अमितरएणवि कारणेणं, सम्म एतं समभिजच्चा-सममिजाणिय, इह आरामं परिणाय' इहेति इह सासणे, आ माताएं, जावओवं, आरामो तवणियमसंजमे वेरग्गे य परीमहोवसम्गे जो रमति, दुविहाए परिणाए परिजाणगाए जाणित्ता पञ्चक्खाण जाणणाए अणारामं पडिसेहिता तप्पडिपक्वभूते | | रमति, अञ्चत्थं नाणादिसु लीणो अल्लीणगुनो सोइंदिपहि, सव्यतो वते परिधए, 'णिट्रियट्टी वीरे आगमेणं' ण एतीति णिद्वितो, | वीरो भणितो, आगमो अन्थो, तेणं पंचविहं सारं आगममाणे-उबलभमाणे आयरियमाणे, मुट्ठ परकमिजासि सोभणं वा परकमिआसित्तिबेमि, एवं आणाए णचा कम्मसुत्ताई णिरुधियव्याई, ताणि पुण सोयाणि कुतो भवंतित्ति ?, वुच्चति-उई (गा०१३) । सोइदियविसयकसाया य सोयाणि, उड़े कखंति विसए दिव्वे णियाणं या करेति, एवं अहे भवणवासी, तिरियं वाणमंतरा मणु| स्सए कामे पत्थेइ णियाणं वा करेइ जहा यंभवत्तेणं, पण्णवगंवा पहुच उद्दसोता चंदाइचगहताराविज्जुगलियादि तहा य गिरि सिहरपम्भारणितंबादिसु, अहो णदिपरिक्खिवगुहालेणादिसु, एते सोता वियक्खाता, जम्हा संगति पासहा तम्हा तिविहप्पगारो 10 सोयगणो, अभिहितो संगो, कम्मसंग पस्स-बुज्मह, भणियं च-"सबओ पमत्तस्स भयं", सो य संगो रागद्दोसविसयकसायअट्टस्स ॥१ दीप अनुक्रम [१७९१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [201] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१६६ १७१] दीप अनुक्रम [१७९ १८५] श्रीआचा रंग सूत्र चूर्णिः ॥१९८॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [६], निर्युक्ति: [२४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६६-१७१] | भवति अतो भण्णति-"अहमेयं उवेहाए (यू. १७०) रागदोसवसई कम्मबंधगंठि उवेहित्ता तेहिं अस्सवेहिं विवेगं कड़ेति, विवेगो | णाम अस्सवदारपरिचाओ, पुब्बोवचियस्स कम्मस्स जहा विवेगो भवति तं पगारं करेति, वेदं वेदति वेदवी, तित्थगर एव, एगे | आहु-'एत्थ विरभिज्ज वेदवी' 'एताओ आसवदारगणाउ गाहो वदिट्ठाओ विरमज वेदवी, विणएत्तु सोतं क्खिम्म' सदादीणि | ताणि, ण सका सच्वहा उच्छिदेउं जे तेसु रामदोसोवाते ण कुजा, एगे आहु-'विणएत्ता सोयं क्विम्म एस मह' एस इति, जो यणिक्खतो, महा पाहण्णे, मतीए वा, सासणे जं भणितं, णत्थि से कम्मआसवो, बाइकम्मक्खयाओ य अकम्मा भविता जाणति पासइ कसिणं लोयं, जो जहा उडं सोयादीहि सो तहिं बज्झइ, कम्मबंधकड्यं च फलविवागं जाणइ पासइ, पडिलेहाए, स चैव नाणपडिलेहा, आपत्ति वा नाणत्ति वा पडिलेहिति वा एगड्डा, णावकंवंति अतीते पुब्वरय कीलिगादि, अणागतेवि विदाणकरणाइ, वट्टमाणे सदावसाए, पावकखंति-न रागदोसेसु बहंति, 'आगतिं गतिं परिण्णाय' आगति चउन्विद्दा, गई पंचविहा, जाणणापरिण्णाए पच्चवखाणपरिण्णाए तप्पायोग्गाई परिहरति, एयाए चेत्र दुबिहाए परिष्णाए 'अथेति जाइमरणस्स वहमग्गं' (सू. १७१) अतीत्र अतीति अच्चेतीति, जाई मरणंच जाईमरणं संसार एवं जाइमरणं तस्स वट्टमग्गो पंथो, तत्थ विपप्पितसं सारपियत्रिष्पयोगदारिदो भग्गादिसारीरादिदुक्खवमग्गो संसारसोतं उत्तरह, तं कहं अच्चेति कयरे च ते ? 'सवे सरा शियहंति ?, वक्खायरतो सुत्ते अस्थे य, भणियं च 'जह जह सुयमोगाहइ०' अपुब्बगहणं स्वतियं भवति, सव्वे सरा, सयं इंदियविसयं पप्य सरंति-धावंति, अतो ते तहिं वक्खायरए साहुमि णियति, तत्रिवागवियाणएहिं 'सदेण मतो' कुत्थियपत्राता वा सरा, ते वक्वायरते सार्द्धमिणियति पडिहणंति, ण सकेति तं विष्परिणामे, किं पुण तं ?, वक्खति-धम्मस्थियकायाइ पंच अस्थि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [202] विवेकादि ।। १९८ ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६६-१७१] प्रत वृत्यक [१६६१७१] काया, जीवंता अहिफिच बुधति-सचे सरा नियति, सब्वे पवाया तत्थ णियति, किमिति ?-'तका जत्थ ण विजई' तका श्रीआचाAणाम मीमांसा, हेऊ मग्गो, ण य हेऊहिं परिक्खमाणो अप्पा सक्खं उपलब्भति घडो वा, जम्हा य एसोतकागेझोण भवति वेण। स्यादि चूर्णिः अथ चउब्धिहावि मती ण माहिता, उप्पति उग्गहादि वा मती, केवलपचक्खो, 'ओओ अपतिढाणस्स खेयण्णो' ओयेत्ति-एग ॥१९९॥ स एव जीवो अण्णं सरीरादि, अहया केवलणाणं ओयं, अपइट्ठाणस्स खेयण्णेति सो य अप्पइट्ठाणो-सिद्धो, 'से ण दीहे ण हस्से ण बढे ण तसे ण चउरसे ण पडिमंडले' एतं संठाणं,'ण किण्हे जाव मुकिल्ले एतं रूवं गहितं, 'ण सुन्भिगंधे ण दुन्भिगंधे' गंधो गहितो, 'ण तित्ते ण कटुए ण अंबिले ण महुरे' रसो गहितो, 'ण कक्खडे जाव ण लुक्खे'फासो गहितो, काउगहणेणं लेसाओ गहिताओ, अहवा ण काऊत्ति ण कायव्य, जहा वेदिगाणं एगो पुरिसो खीणकिलेसो अणुपविसति, आइञ्चरस्सीओ वा अंसुमंति, एवं 'णवि रुहि"ति रूह बीजजम्मणि, ण पुण जणेइ अग्गीदड़बीयं चा, ण संगे इति जहा आजीवणगे, "पुणो किडापदोसेणं से तत्थ अवरज्झति"ण इत्यिवेदगो"ण अण्णहति ण णपुंसवेदगो, किंतु केवलं 'परिणो सबओं' | समंता जाणइ परिण्या सब्बतो सभालकखणो, (उपमा) ण विजति, जहा इदिएहिं एगदेसेणं णचति, गाणदरिसणमतो, उवमा ण बिञ्जति, जहा कंतीए चंदेण मुहस्स उबमा कीरति एवं ण संसारिएणं केणइ भावणं सिद्धस्स मकति उपमं काउं तस्मुक्खस्स बा, भणियं च-"इय सिद्धाणं सोक्ख अणोवम" केवलं तु अरूबी, सतो भावो सचा, ण एवं अभावो पावति, अपदस्स पदंणस्थिति बुञ्चति, अपदो हि दीहजाइओ, तस्स गच्छओ दीई वढू परिमंडलं वा पदं पत्थि, एवं णिबाणस्स उवमा णत्थि, से ण सद्दे ण रूवे ण.' (सू. १७२) पुचभणित तु, मुत्दवाणं सदाइमंतं भवति, सो य तबिम्मिते, तस्स सदाइमत्तंण विजति, इति परिस S11१९९॥ दीप अनुक्रम [१७९१८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [203] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७२ १८०] दीप अनुक्रम [१८६ १९३] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥२००॥ अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) "आचार" श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५० - २५२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२ १८ + गाथा: ] - मत्तीए, एतावतिति तस्स परियाता एतावंति य परियायसेसा इति ॥ लोगसारविजओ णाम पंचमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ संबंधो लोगमारे द्वितो कम्मं घुणति (२४९ - २५०) पढमे णियगविणणा, जहा अतारिसे मुणी, बितिते कम्माण विहुणणा 'सुभि अहवा दुभि अहवा तत्थ भैरवा', सतिए उबगरणसरीराणं, धु णाति भिक्खु अचेलो परिवसितो तस्स णं भिक्खुस्स गो एवं भवति सुतं जाइस्सामि, सरीरे किसावाहा, चउत्थे गारवतिगस्स विदुगणा, नियमाणावि एगे आधारगोयर० उवसम्गासंमाणो य पंचमे, संतेगतिया जेण लूसमा भवंति, अणुओगदारा चत्तारि णामणिप्फण्णे धुवं, दव्यधुवं जं धुवति जहा चरंडी पसम| गादि ध्रुवति हत्थीयो रुक्खं घुणति वाओ वा, फाली वा तत्थेव मले, भावघुणणा कम्मं तवसा धूयइति णामणिफण्णो गतो । | सुचालावए सुत्तं ओषज्झमाणो (सु. १७३) संबुज्झमाणो निबुज्झमाणो पयुज्झमाणो सत्यपरिण्णाओ आरम्भ जं भणितं जं च वक्खमाणं अणुत्तरं लोगसारं, तिविहं वा बोहिं, इह माणबेस' इहेति इह सासणे, इहं वा चरिते, माणवेसु आधाई - अक्खाति, गरे, णराणं चैव तिरिया ण सकेंति अक्खाइउं, केरियो अक्खाति ?, जस्स इमाओ जोणीओ, जाइओति पगारा, ते य जीवादी णवपयथा अन्नतित्थियजाईओ वा अहवा एगिंदियजाईमाईओ, सव्वग्गहणा दव्यखेन कालभावेसु अग्घाति, सेमाणि य संतपद| परूवणादीणि जहासम्भवंति, पडिलेहियाओ ताओ सुद्ध पडिलेहियाओ सुपडिलेहियाओ, अन्धाति - अक्खाति, सेति विदेसे जाणंति जहत्थोवलंमं तं केरिसं १, रलतोरेकत्वे (उबलं कायब्वे) असरिसं तं च पंचविहं अहवा असरिसं केवलणाणं तेण असरिसमेव सुथनाणं कधेति, दंसणं चरितं तवं विषयं च कहे आयरिओ, किडतेचि वा कहेतेति वा एगट्ठा, अहवा आइक्चविभागेहिं, किहेतेति पवेदेति, कीर्तिग्रहणा आइक्खति व्रतसमितिकायाणां धारण रक्षण, आयरिया विभागेहिं तेसिं चेत्र भेदं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : षष्ठ- अध्ययनं 'द्युत' आरब्ध:, षष्ठं अध्ययने प्रथम उद्देशक: 'स्वजन विधुनन' आरब्ध:, [204] धूनना ॥ २००॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] उत्थितादि श्रीआचा चूर्णिः प्रत वृत्यक [१७२१८०] | किटति वाणं धारणं पवेयणं तवफलं नाणादिसु पजोएआ, कस्स पुण सोवाते वा कहयंति ?, तेसिं चेव णराणं समुट्टियाणं, समु-10 TT द्वाणं दचे भावे य, दवे पुरिसा अणुट्टिता, इत्थियाओ उट्टियाओ, भावे दोवि उडियाई उडेउकामाणि वा, णिक्वित्तस-1 IN/ स्धेमु, सत्थं छुरियादिवावारो, छिंदणा भिंदणा, अहवा णिक्खि तदंडाणं पंच राय कुहा आरोहिता, जे य णिक्वमिउकामा तेसिं ॥२०॥ विसेसेण कहयंति, नाणादि ३ समाहियाणं, तिविहाय पज्जुवासणाए, कोति निक्खिनदंडोण य समाहितो जहा ओहाणुप्पेही । | अणुवयुक्तो चा, पण्णाणमंताण-बुद्धिसंपण्णाणं, इतरे सुत्तत्थहाणी, ण य गिर्हति, सति सणिते आयरियाणं इह गहणो, इह प्रवचने, मोनिमग्गो मुत्तिए मग्गो २ मुत्तेहिं चा अणुचिण्णो मग्गो सो, इणमेव जिग्गंथं पात्र पणं नागादि वा मुत्तिमग्गो, मुत्तिनाम मणिब्याण, जं भणितं सिद्धी, एवं एगे महावीरा, एवं एगे सुणित्ता, अविसदा असुणित्तावि पत्तेयबुद्धजाइस्सरणादि, अविय "दोहि ठाणेहि आता धम्म लमिजा-सोचा य अभिसमिचाय"वीरा भणिता, 'विपरकमंति' विविधेहिं पगारेहि जयंति-परकमंति, | विधुणंति, अहवा परो-संजमो मोक्खो वा तत्थ परकमंति, परीसहा वा परकमंति, पासह एगे विसीदमाणे'पापहत्ति पस्सह, एगे |पासत्यादि, सेलगवत् सीयंति, अहवा विविहं सीयंति नाणादि ३, जेहिं इह अप्पीकता पण्णा ते अत्तपत्राण अत्तषण्णा अणतINI पण्णा अपत्तपण्णा वा, अहवा अत्ता-इट्ठा अम्हण अपणो हितकरी पणा, किह पुण ते विसीदति ?, जहा चा उत्सग्गपरिणाए पडिलोमउवसम्गेहि य, कीवा बसगता केति सलिंगेसु चेव बहता पागाइवायाइसु वति, ते णो पुणो अमिलति माणुसादि, एतत्थं 'सोहं बेमि' सेत्ति णिसे जहत्ति ओवम्मे 'कुम्मोचि कच्छभो, हरतीति हरतो, किं हरति ?, बाहिरमल, विविहं णिवेसिय |चित्तं कच्छभस्स मयणादिसु हरते य, केरिसो पूण सो हरतो?, घणसेवालेण वा पउमपत्तेहि वा पच्छन्नपलासो, जतिवि तत्थ दुपद दीप अनुक्रम [१८६१९३]] २०१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [205] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२, [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] कर्म प्रत वृत्यक [१७२१८०] श्रीआचा- चउपपदा चरंति तोपि ण मिजा, तस्स य कहिंचि देसे छिद्रं अस्थि, तेण सो कुम्मो जहिज्छाए एवं उम्मग्गं लघु, उम्मगंणाम | रांग सूत्र दृष्टान्तादि उमग्गणा छिदं, तस्स य चित्तं जाय--कह णाम सव्वं सयणपरियाई इह आणेमिनि एवेति, ण य तं उम्मग्गं लभति, एस दिटुंतो,DI चूर्णिः ॥२०२॥ अयं अत्योवणतो-जीवो कुम्मत्थाणीतो, संसारत्थाणीओ हतो, पलासस्थाणीया कम्मा, उम्मग्गं माणुस्सादि ४ समतादि ३ साहू वा, ततो असंजमहरयाओ उत्तियो विधुणणं काउमारद्वो, पुणो कीबो बसगतो गिहिगतो, णिविष्णोविण सकेति संजमरथं उम्मग्गं लमिउं, इमं अण्णं विसीदंतार्ण अणचपचाणं उदाहरणं-'भंजगा इव सणिवेसं जे भुचि भूमीई ते जाता भंजगा, जहेति सण्णि विसं | सत्यागं छिअंतावि ण जहंति, एवं गिहवासःखेणं दारिदादिणा अभिभूतावि संता ण सकंति पन्वइउँ, किमंग पुण रायादी?, अहवा | ka दोहवि इमो उवसंधारोत्ति-एवं एगे अणेगगोसेसु कुलेमु एवमत्रधारणे, एगे ण सब्वे, अणेगगोचसु मरुमादिसु, अहवा उच्चणीयेसु, उपवतिया समाणा रूवेसु गिद्धा सएसु पराएं य, अद्धा(ट्ठा)। गहिए चिंतेइ-अहो अहं रुवस्सी, सद्दादिसु वा सचा रागदोमगता मातापिचि एवमादिसु बा, तस्स असुहकम्मोदयस्स दोसेण णरगादिसु उववष्णा, ते वेयणाभिदुता कलुणं थणति वा कंदति वा सोयंति वा एगट्ठा, णिताणातो वा ते पा लभंति मोक्वं' णिदा बंधणे, णिदाणं कम्म, अहवा कसाया णेहफासा, तेहि णो लभंति मोक्वं, मोक्खो संजमो, एवं ते भोगणिमित्तं उष्णिक्खंता समाणा इमेहिं रोगायकेहि ण लभंति भोगा मोतुं, | "अह पास तेहिं तेहिं कुलेहिं जाता' अहरि अणंतर, पास तेसु तेमु कुलेम उमणीएसु, जाता संभृता, तंमि भवे अन्नंमि वा गंडी गलगंडीमादि, कोढी, कोढ अट्ठारसविहं, रायसि खयवाही, अवमारितं अबफेरि, काणो देशकाणो, अण्णेसिं अंधलओ, झिमितो अलसयवाही, कणि इत्येण पापण वा, कृज्जिता बामणो, उदरी जलोदरं, मूती म्पत्तं, सुतिया गुणसरीरा, गिलासिणी अग्गीउ वाही,O॥२०॥ दीप अनुक्रम [१८६१९३]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [206] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] प्रत वृत्यक [१७२१८०] श्रीआघा- बइ बलगत्तया, पीढसप्पी हत्थेहि कड़े घेत्तुं चकमंती, सिलवती पादा सिलीभवंति, मधुमेहणी वस्थिरोगो,'सोलस एते रोगा- रोगातकादि गंग सूत्र- | यंका' सोलसत्ति संख्या, एतेत्ति प्रत्येकं जे भणिता लभते रोमा, एते चेत्र सोलस अक्खाया-कहिता अणुपुब्बसो-कमेणं, अणु-17 चूर्णिः पुब्यसो वा कस्सइ गब्भे कस्सद जायस्स, कम्मुदओ वा अणुपुब्बो, अहवारोमा बाइयादि ४, संयोगे सोलसभंगा, अहवा णं फुसंति1॥२०३३॥ पाति आगता अंगं संकामेन्ति आयका, ते य सासकासादि, फासा दंसमसगादी सीयादयो वा, असमिते य णाम अप्पत्तपुच्चा, अहवा असममिता असमिता, असमिता णाम विसमा-तिब्बमंदमज्झा, अहवा फासा य असमंजसा-उल्लत्वपल्लत्था, अणिट्ठा यG Mणाणापगारा, जया सीतं मग्गिजति तता उण्हं भवति, एवं सेमयावि आयोजं, 'मरणं तत्थ सपेहाए' मरणं तत्थ समिक्खिज, वसहा जं मरणं च रोगायंका, अवि घातं उवहारादीहि मारिजंति, अस्थि केति मुत्ता चेव मरति, गभंमि मरंति केह, कोयि पुण मजायमित्तओ मरति, मारेति मायरं कोयि, मरंतीए समं तीए जातस्स धुवं मरणं, तम्हा उम्मग्गं लभिऊण पुणो तहि चेव रोगाय- | केहि मुकंपरियट्वियव, अहवा सम्बस्स अंते मरणं भवति, कोइ भणिजा-देवाणं णस्थि मरणं, तत्थ णिदरिसणं पुरिल्लमुत्तं भविस्सति, जमणमरणम्गहणेण तिरियमणुया गहिया, सवा देवा नारगा य, मरणंताण य अंधलतिरियमादीगं दुकवं उप्पजति, किमंग पुण देवाणं ?, तस्थ सुतं-'उववायं चयणं च णचा' उवायायाओ चयणं, दोण्हं मरणं तिरियमणुयाणं, उब्बट्टणा नेरइयभवणवासिवाणमंतराणं, उववाओ सचदेवाणं, चयणं जोइसियवेमाणियाणं, जति ता अंधलगमादीगं अद्धिती दुक्खं च मरणाओ | उप्पजति, कथं देवचकचट्टीमादीणं चवणमरणकाले दुक्खं ण भविस्सइ ?, जम्हा एते पजाया सपेहाए, रोगार्यकमरणोचवायचयणादीणं, राया भविता दासो भवति, पलिपागं च' पलियं कम्मं पलिपागो कम्मस्स जाव न भवति तं सपेहाए 'तं मुणेह जहा' २०३॥ दीप अनुक्रम [१८६१९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [207] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७२ १८०] दीप अनुक्रम [१८६ १९३] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥२०४॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५० - २५२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२-१८० ] तमिति कम्मस्स णिदेसे, सुमेध जहा तत्थ णं जहा तहा, अहंवा जहा कम्माणि तहा विवागो, 'संति पाणा अंधा' अगमा नरसु चिंधता र तिमिसेसु अपेच्छंता, एगिंदियविगलिंदिया वा, जेसिपि चक्खुइदियं अत्थि तेवि बुद्धीविहीणा एवं चैव दट्ठव्या, भावे वा मिच्छद्दिट्ठी, अंधा तमं पचिट्ठा० आलावतो, समपि दुविहं दन्यतमं अंधगारो, भावतमं मिच्छत्तादिओ, 'तमेव सई असई' कम्मं सई किया से असई - अणेगसो 'अतियच्च' पविसित्ता असुभस्थाणाई उच्चावते फासे अणे गप्पगारे सीतउसिणे सुभासुभादओ अहवा दीहकालडिओ उच्चावया सातासाता, महती द्विती कायद्विती भवट्टिती वा दीहकालिया पडिवेदेति, 'बुद्धेहिं एयं पवेदियं' णिचं आत्मनि गुरुषु बहुवचनं, नाणादिबुदेहिं तिम्थगरादी एडिं, गाणमणेलिस, साधु आदितो वा वेदियं पवेदियं, जहा उद्दिट्ठ| कमेणं जं च वक्खति 'संति पाणा वासगा रसगा' वासंतीति वासगा -भासालद्धी संपण्णा बेइंदियादि वासमा, रसगा णाम जे जिम्मिदियलद्धिसंपन्ना, तिचा तित्तादिरसे उबलमंति, किमिगजलोगराजगादी, केयि रसगा चैव ण तु वासा, एगिंदिया ण वासगा णरलगा, पैदियतेऽवि सति के व्धित्तियाण वासना भवंति, रस आमादलद्वी पुण सव्वेसिं, सावि कस्स उवहम्मति, एवं जस्स जति इदिया ते भावेयच्या जाब पंचिदियतिरिया, तेसिपि केसिंचि उवहताणि इंदियाणि, बुद्धि सरीरं वा अहवा 'बुहेहिं एवं पवेदितं| संति पाणा वासगा रसगा' संति तिसुवि कालेसु छकाया, ण तुच्छिअंति, पाणिणो इति बत्तव्वे सरीरे आओवतारं काउं पाणा वृचंति, वासंतीति वासगा, कोइलमदासलागयादि, तत्थ तु जे जस्स गुणो सो तस्स विणासओ काउं, वासितदोसेणं पंजरत्था सइरपतारवियोगाओ गिरोधादीणि दुक्खाणि अणुभांति, रक्षिता रसगा महिमहमिगत गतितिर बद्धाति, उदते उद्गचरा, मच्छगकच्छभमगर गाहा ( ) सुभगा ते दुविदा-संमुच्छिमा गम्भवंतिया य, उदगचरचि जे थले वि जाता उदगे चरंति ते उद्गचरगा, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [208] अंधादि ॥२०४॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२, [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] प्रत वृत्यक [१७२१८०] D. जहा महोरगा, एतेसिमंथले चरा चुतिया, केइ जले जाता धले विचरति जहा भंडुक्कादि, वेइंदियादि संखगगादि, चिक्खल्लजलेवि || प्राणश्रीआचा जाता उभयचरा भवंति, जाखिणो चिक्खल्लजलयरा भति, केइ उभयचरा, आकासगामी आगासेज गच्छद पक्षिणो, पाणा पाणे क्लेशादि किलेसंति' ते सव्वेऽवि पाणा पाणे तुलजातिए अतुल्लजातिते वा बाहिं अंतो य किलेम्संति, तंजहा-केर उवहणंति केइ संघटृति ॥२०५४ | जाव जीवियाओ ववरोबिन्ति, देवनारगाणं केवलं सारीरं माणसं च वेयणं उप्पाईति, णो उद्दवेंति, ओरालियसरीरे परोप्परं संघ दृती जाव उहवेंति, तं एतं 'पास लोए महन्भय' लोगो छञ्जीवनिकायलोगो जहुद्दिद्रुकमेणं, जहुनरोगादि जाव वासगा य, णो | पाणे किलेसेन्ति, महंतं भयं महम्भय, जंभणितं मरणं, तं एवं पचा मा हु तुमंकच्छभसरिसं काहिसि, किं भयं?-'बहुदुक्खा । ह जंतवो' बहणि जेसिं दुक्खाणि, जे भणितं बहुकम्मा, जो भणितो रागादिकमो पच्छा संसारकमो, जहा-बासगा रसगा, एतेणं | बहुकिलेसा बहुदुक्खा, जायंतीति जंतबो, कम्मोदयाओ वा जहा कच्छुल्लो कन्छु, एवं 'सत्ता कामेहिं माणवा' सत्ता मुच्छिता, अप्पसस्थिच्छाकामेसु मदनकामेसु, मणो अवञ्चाणि माणवा, लोगसिद्ध, अवलेण वधं गच्छंतिण तस्स बलं विजतीति खुध-10 तिसासीतउण्हदसमसगरोगवहादिपरीसहहता अबलेणं छेबदसंघयणेणं, केण छहादिपभगुरेण करणभृतेण तप्पगारेण वह एगेंदियादीणं सत्ताणं जाव पंचिंदियाण तित्तिरादिणं, कंखंति पत्थंति गच्छंति एगट्ठा, एवं मुसावायं जाव परिग्गह, सरतीति सरीरं, मिसं | भंगसील पभंगरं, तेण छहादिपभंगरेण सरीरेण वह कंखतीति बट्टह, अहबा अवलेण वहं गच्छति, सरीरेण पभंगुरेण, जुद्धादिअसह अवलं, तब्बलणिमित्तं अहंमं काउं वधो-संसारो तं गच्छति, केण?-सरोरेण पभंगुरेण, अहबा अपेणावि दुक्खेण भजति अप्पभंगगुणं, एवं 'अट्टे से बहुदुक्खे' अट्टो पुचवाणिओ रोगार्यको बा, सो एवं अट्टो दुक्खउवसमणिमित्तं कायवहे पसञ्जति, जतो दीप अनुक्रम [१८६१९३] ॥२०५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [209] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२, [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] श्रीआचा-18 प्रत वृत्यक [१७२१८०] चुच्चति 'इति वाले पकुवई' इति-एवं, जेण अड्डो रोगायंकेहिं रागदोसेहिं वा तेण दोहि आगलितो बालो मिसं कुबइ, जं वुतं | प्रगल्भादि रोग सूत्र | | पाणा पाणे किलेसंति जोगत्रिककरणत्रिकेण, पढिाइ य 'इति बाले पगन्भंति' पाणाणं किलेसादि करेंतो पगभं गच्छति, चूणिः IN जं भणितं धारिलु, तंजहा-को जाणइ परलोगे, परलोगरूवस्स ण विभेति, जातो एवं आतुरो रोगपडिगाराय पाणा पाणे किलेसंति | ।।२०६॥ 'एए एते रोगा वहुं मचा' जहुदिट्टकम्मेणं 'गंडी अहवा कोढी मलसीसरोगा य आयंका, बहु इति वातादिसमुत्थाणं रोगायं-IAN | काणं अद्वैत्तरसयं, तेसिं उदयेण आतुरो भवति, अहवा खुधतिसासीतउण्हाइएहिं बिसेसेणं णिचं आतुरे सत्ते, वातातिसमुत्था रोगा| सविसयलद्धअवगासा परियावंति, ण य ते उप्पण्णे कोई णियचेउं समन्थो, तेण चुचति 'णालं पास' णो इति पडिसेहे, अलं णिवारणे, णो तेसिं उत्पन्नाणं सयणो अलं निवारणाय, भणियं च-"सयणस्सवि मज्झगओ०" नाणादिभेदसमं सव्वं कम्म, || रागाण उवसमणं तत्थ जइयवं, ण तु वातादिरोगउवसमे कर्ज, परमं णिब्वाणं, तं कखतेणं 'एवं पस्स' दट्टण य तहा करेहि, अहवा जं युतं पाणी-पाणा किलेसंतित्ति, भट्टारओ भणइ-मा हु तुम एवं तं दुक्खं निवारणपञ्जतं उस्सेजासि वहकखणेणं-बह-| पत्थणेणं, ण य रोगेसु पडिगारपवित्तस्स कम्मासबस्स अलं भवति, अढविहं कम्म एगपाणिवहे बज्झति तं जहा भणितं एतं पास, अत एव 'अलं तवेतेहिं' अलं निवारणे, अलं च कंखापसत्ताणं, अहवा अलं च तव, संजमे व सब्बदुक्खविमोक्खाय, अहवा | विसया रोगा, एते बहुविसयरोगे सद्दफरिसादि, अहवा बहुनि इट्टाणिढे गचा-जाणित्ता, आतुरा अप्पत्ता विषयोगे वा समंता | उवेह, इह परस्थ य ताव परितावए, किंच-एतेहि णालं तस्स, णवि विसरहिं सेविजमाणेहिं अलं भवति, भणियं वा-तणकडेण व अग्गी लवणजलो वा णदीसहस्सेसुं । ण तिसा जीवस्स (सक्का, तिप्पे कामभोगेहिं ॥१॥) जतो य विसएहिं तित्ती पत्थि नेण ॥२०६॥ दीप अनुक्रम [१८६१९३] Sammelimins मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [210] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५०-२५२, [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१८०] धुतवादः श्रीआचा-- रांग सूत्र चूर्णिः ॥२०७॥ प्रत वृत्यक [१७२१८०] | अलं विसयासेवणयाए, उबदेस-एतं पासह 'तं पास मुणी' एतदिति जं भणितं रोगादि कम्मेणं दुक्खं भवतीति तप्पडिगारणि-ID | मित्तं च बासमारसगादिपाणा पाणे मुसावायाइसु त पसज्जए, तं एतं पस्स, जं च अण्णं, भणितं च-गंतुं गंतुं सीहो पुणो पुणो मग्गओ पलोएड । सुत्तत्थीवि हु एवं गतंपि सुन पलोएति ॥१।। मुणेति मुणी, हे मुणी, महंतं भयं महन्भय, विचित्तकम्मफलविवागं संसार, तम्भया पाणादिवायातिउज्झी, ण इति प्रतिषेधे, पतिवयणं प्रतिवातो, किंचिदवि तसं थावरं वा जोगत्रिकेण करण-VA त्रिकेण वा जाव परिग्गडं जहुदिढकमेण य 'आजाण भो' अश्वत्थं जाण, भो आमंतणे, जं करणीयं ण वा, अहवा जं भणितं वक्ख माणं च एतं अत्थं जाणह-पासह सहद, सोतुं इच्छा सुस्सा धूणणोबायजाणथं गुरुकुलणिवासी जं इमं णियगधुणणाहिगारे || N वट्टमाणे 'धुयवायं पवेदहस्सामि' धुयं भणितं, धुपस्स वादो धुव्वति जेण कम्मं तवसा, भणियं च-"जं अण्णाणी कम्म खवेइ | बहुयाहि पासकोडीहिं" णागज्जुणीया 'धुतोवायं पवेदइस्सामि' जेण कलत्रमित्तादि अहवा पसंगं, पण उवेज कम्म धुणति तं उपाय साहु आदितो वा वेदितं पवेदितं, पुण केइ पढमेण पन्चजसनेण धुणंति कम, केह वितिएणं जाव अट्ठमेणं, एतेसिं च सम्बेसि इमो चरित्तलाभोवातो, इह खलु अत्तत्ता तेसुतेमु'दहेति इह मणुस्सलामे, अत्तभावेण अत्तत्ताए उववअंति, | ण तु अबो उबवायंतो कोइ इस्सरो पयावई वा, सो उबवञ्जमाणो अत्तत्तेण उववाद, णस्थि भूतधातुपचयासंघातमित्तमेव, 'तेसु | तेसुत्ति उत्तमअहममज्झिमेसु, जेहिं पुष्वं सामन कयं सायगतं वा, मिच्छादिहिट्ठी वा पयणुकम्मा, (अमिसएण) अभिसंभृता| तत्थ अमिसेगो सुक्कसोणितबातो तया उववण्णमित्ता तत्तुल्ला भवंति, ततो अमिसेए भृता 'सत्ताई कललं भवति०' अनुपातो आरद्ध । जाव पेसि ताव अभिसेयभूता, अमिसंजाया च पिलगादिकमसो अंगं उर्वगं णासच्छिरासीसरोमाइकमेणं अक्खता, अमिणिविट्टा दीप अनुक्रम [१८६१९३] ॥२०७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [211] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७२ १८० ] दीप अनुक्रम [१८६ १९३] श्री आचारांग सूत्रचूर्णिः ॥२०८॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५० - २५२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२-१८० ] पभृता, अभिसंबुद्धा जाब अट्ठवरिसाओ आरम्भ सतित्ररिसेणं देवणा वा पुञ्चकोडी, अभिसंबुद्धा तित्थगरा, सच्चे अभिसेकाल एवं संबुद्धा, सेसावि केई अपडिवडितेणं सम्मतेणं गम्भं वकमंति, केसिंचि गम्भद्वाणं जाइसरणेणं उप्पअर, पसूयाण वा चालते जाब वुहुत्ते अभिणिक्खता, कम्माभिमुद्दा णिक्खता अभिणिक्खता, अणुपुथ्वेणं जो एसो आदि उपकमो उवदिट्ठो, महंतं जेण मुणितं जीवादि वा सो महासुणी, 'तं परकमंतं परिदेवमाणा' तं ते च साहु आदिओ वा कम्मति अन्भुजय विहाराय मोक्खं वा मातापितामादि णातिगा देवणं-कंदणं, मा णे जहाहि इति ते वदंति, 'छंदोवणीता' छंदो इच्छा, छंदा उबणीया छंदेण वा उबणीतं, भणितं - अण्णोष्णवसाणुयतं, अज्झोववण्णा तेहिं तेहिं संबंधिविसेसेहिं कारोवकारविसेसेहिय मुच्छिता -गिद्धा गढिता अज्झोबवण्णा, अञ्चत्थं कंदो अकंदो, तेहिं उवसग्गविसेसेहिं अकंदं कुब्वंति अकंदकारी, जणंतीति जणगा, मम पिया बंधवा रोयंति, रुदंता य एवं भणति 'अतारिसे मुणी' उद्धं गवि ओहं संसारसागरतारी मुणी भवति जेण जणगा पगतं जढा विविहं जढ़ा विजढा भावितं अणुरता कुयमाणा दीणदुम्मणमाणसा 'वाह! पित कंत सामिय०' एवमादि, अहवा अतारियो ण वारिसो, मुणी गत्थि, जेण किं कथं ? जेण जणगा विप्पजटा, अहवा अतारियो पोतवहणं णावाभूतो अपणो परेमिं च संसारसमुद्दतरणाय जणया दुच्चता जेण विप्पजढा 'सरणं तत्थ से णो समेति' सरंति तमिति सरणं, तत्थ-बंधुगणे, ण णवि, सो तं अणुरपि बंधत्रगणं सरणमिति समत्थं समं वा ते इति समेति, जह ते मम परलोगभया सरणं भविस्संति एवं ण समेति, अडवा सरीरादिपरिचाणाए जह वृत्तं तेहिं ण सो संसारं तरति जणगा जेण विप्पजदा, एतप्पगारं अणुलोमं उसण सरणं समेति, जहा मम मातापितिमादि, एवं दुक्ख परिचाणाए भविस्मति, किं १, न रमणीयो गिवासो जेण सो ण रमति, गिवासे किं धम्मो णत्थि भणियं च मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः [212] पराक्रमादि ॥२०८॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७२ १८०] दीप अनुक्रम [१८६ १९३] श्रीआचा रांग सूत्रचूणिः ३ उद्देशः || २०९ ।। “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५० - २५२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२-१८० ] 'या गतिः केशदग्धानां ० ' ततो वृच्चति-विसयतिसियाणं अयागगाणं एतं आलंबणं जाणओ पुण 'किह णाम से तत्थ रमति' किहमिति परिपण्डे, कहं णाम सो णिविणकामभोगी पव्वइओ व संतो पुण गिहवासे रमति घिर्ति वा करेति ?, “पुत्रदारकुटुंबे, सक्ता मोदेति जन्तवः । सरःपङ्कार्णवे मग्रा, जीर्णा वनगजा इव ॥ १ ॥ एवमादि, एवं से जं भणितं एवं धुणाविहाणं, एवं | नाणं नाम अवितहं उबलंभो, अणुगतं अणुकूलं आयरियममीवेऽणुत्र साहिऽणुनासिजासित्ति वेमि। षष्टस्याध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः । उसाभिसंबंधी स एव धुगणाहिगारो अणुयनति, तत्थ पढमे जियगा विधुया, वितिते कम्मविहणणं भण्णति, ताणि दुक्खं धुणिअंति, तदत्थमेव नियगा विणिजंति, सुत्तस्म-किं णाम सया सरणं समेति अपरे चरादोसे जाणतो परसंतो, इमं च अन्नं जाणति परसति, तंजहा आउरं लोगमादाय, किंच एतं जं भणितं एतं गियगविहणणं, एतेण य संमं अणुवा सिजसि, इमं च अण्णं, तंजहा- आउरं लोगं, अच्चत्थं तरतीति श्रतुरो, मातापितिमादि सयणलोगं, केण आउर १, ओहेण आउरं तब्धियोगे, तेहिं तेहिं कजेहिं परिहायमाणेहिं आतुरं तमादाय तं पप्प, जहिच्छाया संबोहणत्थेवि, अहवा तमादाय तं घेतुं बुद्धीए आतुरं लोगं गाणेण आदाय, जहित्ता पुवमायतणं आयतणद्वाणं-आमयो “गिहाणि धनधान्यं च कपाया विषयास्तथा । कत्थो वाऽसंयमो होते, सर्वमायतनं नृणां || १ ||"" हिचा उवसमं इह पञ्चाहि वा' आदिअक्खरलोवा अहिचा, इहति अस्मिन् प्रवचने, इहेति मणुस्सलोए, इह वा इदं अज्झयणे, उवसमणं उवसमो-संजमो, जो वा जत्थ पिई करेंति से तस्स उचसमति, 'वसित्ता बंभचेरंसि' तं संजमो सत्तरसत्रिहो, बसित्तु वा पालितु वा एगट्ठा, तं च बंभचेरं वितितं से णामं चारित्रं, अहवा संजमो दद्दा भवति - से वसुमं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः षष्ठं-अध्ययने द्वितीय उद्देशक: 'कर्मविधुनन' आरब्धः, [213] आतुर लोकादि ॥ २०९॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४ श्रीनाचा | वसुत्वादि VIA प्रत वृत्यक [१८११८४० वसति जेहिं गुणो सो वसु, अणु पच्छाभावे थोवे वा, "वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा । सरागोऽनुवसुः प्रोक्तः,स्थविरः श्रावरांग पत्र-14 कोऽयया ॥१॥"'जाणितु धम्म अहातहा' सुणेत्तु धम्मं सुयधम्म चरितधम्मच, दसविहोवा, तंणचा, अहातहत्ति तदा तहत्तिचूणि | काउं चिर अप्पं वा कालं 'अहेगे तमच्चाई कुसीला अधेति अर्णतरिए, एगे, पण सव्ये, तमिति तं वसुं संजममियरं वा, अच्चाई णाम ॥२१॥ अचाएमाणा, जं भणितं असत्तिमंता, कुच्छितं सीलं तमिति कुसीला, परिणालोबातो कुसीला, किं पुण जे अन्नं करिस्संति ? केह वा वण्णलिंगत्तणेणं अच्छंती, केइ लिंगं छड़ेंति, ये लिंग मुयंति तं पटुच चुचति, तत्थ-'पडिग्गहं कंबलं पादपुंछनं विउसज्ज' वत्थं सुत्तियकप्पा पडिग्गहो-पादं कंबलगहणेणं उष्णितकप्पासिता गहिता, पादणिजोगोवा, पादपुंछणं रयहरणं, एवमादि, विविहं| | उसजा कोयि सावओ भवति, कोवि दंसणओवि, भविस्सति चा गिही कुलिंगी वा, कह ?-तो दुल्लभं लमित्ता चरित् ण अच्चतं अणुपालितं, ते तु परीसहेहि पराइया, ते य 'अणुपुवेणं अणाहियासेत्ता' अणुपुब्बी णाम कमो, (परिसहणंति वा) अहियासणंति वा एगट्ठा, परीसहा ते य एवं अणुपुष्येणं ण अहियासिअंति, सई मुणेना तत्थ मुख्छति, तं वा प्रति अमिसप्पति, ण य से अच्वावारं करेइ, तदुवरमे य तदैव अणुस्सरति, एवं दुरधियासा भवंति, जाव फासा, एवं अणिद्वेसु दोसं करेति, जहा सो खुडओ सुगओ जातो, एवं दुरघियासेञ्जा, अणुपुब्वेणं अणहियासेमाणे णचाधि यातुरं लोयं हिचा हि पुथ्वमायतणं वसु अणुवसुनं वा पाविचा पडिभजंति 'कामे ममायमाणस्स' अप्पसस्थिच्छामदणकामा, माणुसए तिविहे अधिकं कामेमाणस्स, तस्म हि पत्तकामस्सवि सतो अणेगे पच्चवाया भवंति, किं पुण जस्स ते ण व संति ?, अदवा अहिकामे चकचट्टिपलदेववासुदेवकामे एकमादि, जो पुण धुणिजति-उप्प आविजइ मो णियाणपि करेमाणोण उचिमे पुरिसो भोगे तंमि भवे पावति, तस्स कामभोगकारणस्स दीप अनुक्रम [१९४. | ॥२१ ॥ १९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [214] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] श्रीआचा उत्प्रवाज नादि संग सूत्र चूर्णिः ॥२१॥ प्रत वृत्यक [१८११८४० जीवियस्स अंतराइयं भवति, किं पुण कामा ण सेवियव्वा ?--'इदाणिं वा मुहुत्ते' इमंमि काले इदाणि, पञ्चतंतो कोइ उप्पब्ब- अइय, मित्तो वा जीवियाओ विहण्णति, वातादि अण्णतरे वा, रोगेण आसुक्कारिणा तं मुहत्तस्स, कोयि तदिवसं कंडरीओ वा, अहोरत्तसत्तरचस्स अद्धमास जाव कोडी एवं अपरिमाणाए, एतेणं तस्स परिमाणं ण विञ्जति, मेदो जीवसरीरप्पा, अहवा अपरिमाणाए उवक्कमेणं अणुवकमेणं वा ण णजति कई गमणमिति, उचकमेवि सति ण सो उवकमविसेसो णजति जेणं मंतव्वमिति, तंजहा'अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बंधंति दारुणं कम्म०' गाहा । डंडकससत्थरज्जु एवं से अंतराइएहिं एवमधारणे, अवधारणादेव हि सअंतराया कामा, जति से केति पुग्वुज्जुचा अह तहा रागादि वा कम्म काउं उवजेता कोदवकूरासिणा साणियापउत्तेणं पलालसाइणा का, सो एवं तेसिं गिफलो दिक्खापरिचागो, ण य गृहं ग य परलोगो, साहूणं पुण जति णाम अण्डाणाइ दुक्खं तहावि तप्फलं, धम्म णं परमाणस्स, सफला जति राइओ। अकेवलिए हिं' केवलं-संपुष्ण ण केवलिया-असंपुष्णा, मणुस्सेसु ताव पेहजणे परोप्परेण कामभोगा छट्ठाणपडिया, ततो मंडलियस्स अणंतगुणा, बलदेव वासुदेव चकचट्टि अणंतगुणा, कमसो चकवहिस्स, माणुसस्स वा केवलाण य पडिभग्गो समाणो मंडलियाईणं चउण्हं ठाणाणं एगतरपि आरापति, रजं णाम कोइ आरातिजा, जहा कंडरीओ, ते तु अकेवला, ते सव्वकामभोगे तु पहुच से जहाणामए केड पुरिसे पढमजोवणुट्ठाणवलत्थे तस्स पुरिसस्स कामभोगेहितो एनो अर्णतगुणं मंडिलयबलदेववासुदेवचकवटियाणमंतरजोइसिय जाव अणुत्तरोववाइयाणं, तेसिं केवलं 'अवितिपणा चेव' विविहं तिण्णा वितिन्ना ण वितिण्णा अवितिष्णा, वेरग्गेण एते कोइ निष्णपुयो तरति वा तरिस्सइ वा, जहा अलं मम तेहिं, च पूरणे, एते मणुस्सकामा, एवं दिव्यादि, आतुरं लोगमादाएति जाव तहत्ति अहेगे तमचाई, पमादो उपदिडो जाव इमं मुसं| दीप अनुक्रम SSETOPARDINITIRT SURYA [१९४. १९७] ॥२११॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [215] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४ प्रत वृत्यक [१८११८४० श्रीश्राचा अवितिष्णा चेते । इदाणिं पुण अप्पमादो सहिते-धम्ममादाय जाणि प्पमादमुत्ताणि भणिताणि तंजहा अहेगे तमच्चायी एताणि । अप्रमादादि रांग सूत्रचूर्णिः | विवञ्जतेण पढिअंति, अस्थआसवातो तंजहा-अहेगे तं चाई सुसीले वत्थं पडिग्गहं अविउसञ्ज अणुपुटवेणं अहियासमाणो परीसहे दुरहियासओ कामे अममायमाणस्स, इदाणि वा मुहुने वा अपरिमाणाए भेदे, एवं ता अंतराइएहि कम्मेहिं वितिष्णा चेते, एयाओ ॥२१२॥ || आलंबणाओ कामे अणासेवमाणे 'अह एगे धम्ममादाय एवं अप्पमादेणं पमादो अंतरिओ उपदिट्ठो, भणियं च-“यस्त्वप्रमादेन | तिरो प्रमादः, स्याद्वापि यत्तेन पुनः प्रमादः। विपर्ययेणापि पठंति तत्र, सत्राण्यधीगारवशाद् विधिनाः ॥१॥ एतं अण्णोण्णमणु|गता अहिगारवसेणं, अधिगे, अधेति अणंतरं कामो उपदिट्ठो, एगे, ण सम्वे, रागदोसमुक्का एव एगे जइणं धम्म आदाय, जं भणितं | गिहिता, अहवा सुयधम्म चरित्तधम्म च, केरिसो सो धम्मो ?, चुच्चति-अणेलिस, केञ्चिर कालं ?, तेण वृञ्चति-आदाणपभती ANआदीयत इति आदाणं-नाणादि, अणुवसुप्पमिति बसुप्पमिति वा, अण्णहावि पटिअति-सहिते धर्ममादाय, आदाणपभितं, सुपणिहिते-सुलट् पणिहितं सुपणिहितं, जं भणितं-सुप्पणिहितेंदियो, उवदेसमेव चर अपलीयमाणे ददे, चर इति उपदेसो, धर्म चर, अप परिवर्जने, लीणो बिसयकसायादि, तेण सत्तुहवल्लीणो, जो जहारोवियभारवाही, अददं जस्स खइयं कुटुंबा उद्दे हिया खइयं वा कटुं दुबलं, बलियं खइरसारादि, भावो दुबलो धीईए संघतोण वा दढो, तेहिं चेव सर्व गंधं परिण्णाय, VAI सम्बं निरवसेसं गंधो गेही कखनि इति वा एगहूँ, विहाए परिणाए सरण महामुणी, एस इति जेण गेही परिण्णाता, मिस तो पणतो, धर्म वेरग्गं इंदियं या भावधुणणं, पणतो महंत मुणेति संसारं, पहाणो वा मुणी, सो एवं महामुणी आसएण ते महामुणी | अतियच्च सवओ संगं अतियञ्च अतिकम्म, सर्व सम्वत्थ सचहा सबकालं, संगो णाम रागो, अहवा कम्मरस संगो, ण महं दीप अनुक्रम [१९४. १९७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [216] Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] प्रत वृत्यक [१८११८४० श्रीआचा अस्थिति ण पडिसेहे ण मे कोई अस्थि जो इहं जरामरणरोगपरित्ताणाए, किं परलोए ?, जहा धणे उबजिते अनेऽवि भोचव्वसंग सत्र-10 सहाया लम्भंति, ण एवं कम्मउवञ्जियस्स अण्णे वेयणसहाया लभंति, इति एगो अहमंसि जयमाणे इति एवं णचा एको अहं, चूर्णिः मे ण कोयि, पिहं कम्मं विवागाणं, तेण एव जा परिवदत्त, सयणसाहुमहाओ य, रागदोसवजितो एगल्लविहारी वा, कम्म॥२१३/ विधुणणाधिगारो अणुयत्तइ, अतो लोगमादाय आरम्भ जे एत्थ कुसीलादिदोसा भणिता तत्थ द्विता एस्थ विरए अणगारे | एत्थंति एत्थ कम्मविधुणणे विसयकसायविरागलक्खणे, णस्थि से अगारं अणगारे, सचओ मुंडे रीयंते, दरमुंडे सिरसा भावI] मुंडे इंदियमुंडो, तंजहा 'सद्देसु य भद्दयपावएसु एवं कसायमुंडोऽवि कोहस्स उदयनिरोहो विफलीकरणं वा, रीयमाणा अणियतविहा| रेणं, कोयि सो जे अचेले चिणंति तं चिजं, एवं चेल दचे भावे य, दवे तित्वगर असंतचेलो, भावे रागदोसविजओ, सेहावि चेलेहि अचेला संविक्खमाणा ओमोदरियाए संमं विक्खमाणे संविक्खमाणे, दमभाव उमोदरियाए, भावे अप्पकोहे अकोहे वा, से अकोहे व, हते व लूसिते वा अकुद्धो वा, एवं हते च हतो वा अट्ठिमुट्ठितलकोप्परादीहि, लूसितेति उम्मुसितेत्ति, उम्मुएण जो अंकिओ, अणुवसुतेणं भंगो वा लूसितो चा हत्थे पादे वा, तत्थ अकोसा धुते व भवंति, तंजहा-पलियगंथे, पलियं णाम कम्म, VAIसो य कम्ममुंगितो पथ्बइओ, ण तहा, कट्टहारो बा, देसं वा पप्प पिल्लेवगादि णिक्खमंति, सो य केणइ सयक्षेण परीक्षेण वा । IN असूयाए पगडं वा पगंथति, असूयाए ताव णाविअणिश्लेषगो तणहारगो, पगडं तुम तणहारओ तहाविण लजसि मर्म सह विरुज्झ | माणो, सरीरजुंगिते वा सूयाएवि अहं काणो कुंडो चा पागडं कोडिग कुजो वा, एवं ओरालाहिं भासाहि पर्गथंति, अहवा पगंथ. I अदुवेती अत्रेह चेव जगारसगारेहि भिसं कंथमाणो पगंथमाणो, अहवा अदुवेति, एगे एकसिं दो बारे, एवं नाव केइ णिक्वता दीप अनुक्रम [१९४. १९७] ॥२१३।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [217] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] प्रत वृत्यक [१८११८४० श्रीआषा-10 उविच्च धम्म आयरियसमी उवसमस्स वा समीव, कामादितिसछेदाओ उपसंते, तझोसमाणेति 'जुषी प्रीतिसेवणयोः' नं| उपरतगंग सत्रजहोद्दिढ झोसमाणे-फासेमाणे, एवं झोसंतस्स के गुणा भवंति ?-आदाणीयं परिणाय आदिजति आयत्ते वा आदाणीयं, | जोषितादि चूर्णिः भणित-संसारबीजं पलियं भणिय, तंजहा-प्रलीयते भवं येन, आदानमेव पलितं, परियाओ णाम सामण्णपरियाओ, नाण-IN ॥२१५॥ दसणपरियाओ, दीहेण वा अप्पेण वा परियाएणं, विगिंचइ विसोहेति अवकिरति छडेति, पिहीकीरमाणं णिजरा, णिजरति वा D|| तवोति वा एगट्ठा, तत्थ बाहिरन् तरतवो अधिकृत्य बुच्चति, तत्व इतरा इतरेहिं तत्थति तत्थ साहुविहारपायोग्गे गामे णगरे | णिवेसे, इतरा इतर इतरेतर, कम्मो गहितो, ण उद्धयाहि देसीभासतो वा जे अभंतरं बुचति, इतरा इतर जंतवो विणिकटुतरं | जाव दमगकुलं, एवमितरा इतर इतरेतरं भवति, कुच्छिते सलतीति कुशलं, सो य एवं चरति, सकेसणाये सब्वेसणायो सुद्धेसणाए अलेबकडाए, चत्तारि उबरिला, एताओ गच्छणिग्गया, तत्थ पंचंसु अग्गहो अभिग्गहो अण्णतरियाए, सव्वेसणाएत्ति गच्छवासी सब्वाहिंवि गिण्हंति, से मेहावी परिव्वए स इति जो सो आदिआदिसुत्तेहि उपदिट्ठो तंजहा, उद्धप्रमाणो णियते धुणिचा, कम्मधुणणाए उबडितो, मेहाए मेहया धावति, परि समंता सबओ ते गामादीणि, अहवा जावंति सगच्छो नाणिएहितो परिब्बए सुद्धसणा परिब्वयमाणो, समणुण वा लड़ इतरं वा अतो सुमि अहवा दुब्मि, सुरमिगहणा गंधादिहीणं, अहवा सुद्धेसणाए सव्वेसणाए से परिचागो गहितो, सुभि अहवा दुम्भि, गंधकामपरिचागो भणितो, एतं इंदियाहिगारे, अहवा तत्थ भेरवा अहवा तत्थ विहरतस्स भयाणगा भेरखा सदा गहिता अकोसा, तद्यथा-णिम्भवणादि, एवं रूवाणिवि मेरवाई भवति, जहा 'तस्स पिसायस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पणचे, तंजहा-सीसं से मोकिलजसंठाणसंठिती', गंधावि अहिमडादि उब्वेयणया, | ॥२१५॥ SAD दीप अनुक्रम [१९४. १९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [218] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] प्रत वृत्यक [१८१ १८४० | श्रीआचा उपरतउपिच धम्म आयरियसमी उवसमस्स या समी, कामादितिसच्छेदाओ उपसंते, समोसमाणेति 'जुपी प्रीतिसेवणयोः नं || संग त्र- जहोदिडं झोसमाणे-फासेमाणे, एवं झोसंतस्स के गुणा भवंति ?-आदाणीयं परिणाय आदिजति आयत्ते वा आदाणीयं, जोषितादि चूर्णिः IYA भणित-संसारबीजं पलिय भणिय, तंजहा-प्रलीयते भवं येन, आदानमेव पलितं, परियाओ णाम सामष्णपरियाओ, नाण-II ॥२१५॥ | दसणपरियाओ, दीहेण वा अप्पेण वा परियाएणं, विगिचइ विसोहेति अवकिरति छडेति, पिहीकीरमाणं णिजरा, जिरति वाI' D|| तवोत्ति वा एगट्ठा, तत्थ बाहिरभंतस्तवो अधिकृत्य बुच्चति, तत्व इतरा इतरेहिं तत्थति तत्थ साहुविहारपायोग्गे गामे णगरे || "णिवेसे, इतरा इतरं इतरेतर, कम्मो गहितो, ण उद्धझ्याहिं देसीभासतो वाजं अभंतरं बुञ्चति, इतरा इतरं जंतको विणिकद्रुतरं । जाव दमगकुलं, एवमितरा इतरं इतरेतरं भवति, कुच्छिते सलतीति कुशलं, सो य एवं चरति, सकेसणाये सब्वेसणायो सुद्धेसणाए अलेवकडाए, चत्तारि उवरिल्ला, एताओ गच्छणिग्गयाणं, तत्थ पंचंसु अग्गहो अभिग्गहो अण्णतरियाए, सव्वेसणाएत्ति गच्छवासी सव्वाहिपि गिण्डंति, से मेहावी परिब्वए स इति जो सो आदिआदिसुत्तेहिं उवदिवो तंजहा, उधुप्रमाणों णियते धुणिला, कम्मधुणणाए उनहितो, मेहाए मेहया धावति, परि समंता सबओ ते गामादीणि, अहवा जावंति सगच्छो नाणिएहितो VA परिष्वए सुद्धेसणा परिब्बयमाणो, समणुण्णं वा लळू इतरं वा अतो सुब्भि अहवा दुम्भि, सुरभिगहणा गंधादिहीणं, अहवा सुद्धेWसणाए सम्वेसणाए से परिचागो गहितो, सुभि अहवा दुम्भि, गंधकामपरिचागो भणितो, एतं इंदियाहिगारे, अहवा तत्थ भेरवा अहवा तत्थ विहरतस्स भयाणगा भेखा सदा गहिता अकोसा, तद्यथा-णिम्भवणादि, एवं रूवाणिवि मेरवाई भवति, जहा 'तस्स पिसायस्म अयमेयारूवे वण्णावासे पणते, तंजहा-सीसं से गोकिलजसंठाणसंठिती', गंधावि अहिमडादि उब्वेयणया, ॥२१५॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [21] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८१-१८४] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२१६॥ SHRIRE प्रत वृत्यक [१८१ १८४ 2. मयं करेंतित्ति मेरखा, रसा तत्थेव, फरिसाबि छेदभेददाहादि, जहा 'ततो मंससोल्लए विउवित्ता तेण उसिणेण मंसेण सोणितेण || उपरत जोषितादि | तव गायाई आयंचामी', जहा संगमएणं भगवतो ते मेरखा उवसग्गा कया, कामदेव एवमादि, पाणा पाणा किलेसंति | पाणा सीहा बम्घा पिसायादि, पुणरवि पाणाओ पाणादि, जं भणितं भैरवा प्राणा, साहुस्स आउप्पाणादि, किलेसंति-परिताति वा किलेसंति वा उद्दवेंति वा इति किलेसो, ते फासे पुट्टो धीरो त इति ते मेरखा इटाणिट्ठा, फुसंतीति फासा, धीमां धीरो, | समं अणाइले अणुब्बिग्गो वासीचंदणकप्पो, अहिवासिज्जासेत्ति, अहवा सुद्धेसणाए सम्बेसणाए मेहावी परिचए भिक्खायरियाए, | तस्थ वण्णिाइ मिक्खाणिमित्तं सुभि अहवा दुभि जं लभते, तत्थ सुम्भी सुगंध, आधाय अहो गंधो णाम अग्घाइजा, दुब्भि| गंधे वावि ण दोसीणादिणा दोसं गच्छिा , चमारस्त्याए व बोलेंतोपासियं आवरिउं ण तुरियं गच्छिा , अहवा तत्थ भेरवत्ति | जति णं कोई अडतं तासिजा अकोसिज वा सदा मेरवा स्वावी पडिणीता आयुधउग्गिरणादि, पंजरसंकलाओ वा फिडिता सीह| बग्धवारणादि अमिभविजा, गंधा भणिता, रसावि तत्थेव, फासावि तालणउच्छोलणादि २, एवं पाणा तस्स साहुस्स पाणे किले| संति, ते फासा पुढत्ति तेहिं फासेंहिं पुट्ठा, ते वो फासे फुसित्ता अहियासिञ्जासित्ति बेमि, अहवा सुभि एतं सम्म अणहियासमाणो मेरवेहिं पुट्टो सम्म अणहियासमाणो पाणा पाणे किलेसंति, रुस्समाणो रागदोसेहिं अप्पाणं संकिलेसति, इह च परलोए य अणाराहगा भवंति, जतो एवं तेणं ते फासे पुट्ठो सम्म अहियासिजा पुरिसुनि धुताध्यपने द्वितीय उद्देशः॥ N संबंधो पढमे णियगविधुणणं, वितिए कम्मविधुगणं, ततिए उबगरणसरीराणं धुणणं, ताणि कहं विधुणाति ?, तेसु मम छिंदति, | णियगविधुणणाओ कम्मविधुण अभितरतरं,ताओ मम अभितरतरं, ततिए विधुणति, एसो अत्थसंबंधो, सुत्तस्स सुण-ते | ॥२१६॥ दीप अनुक्रम [१९४. १९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: षष्ठं-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'उपकरण-शरीर विधुनन' आरब्धः, [220] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२१७॥ प्रत वृत्यंक [१८५१८७]] फासे पुट्ठो अहियासे, इयं च एवं अहियासिजति-एस मुणी आदाणं, एवमिति जं भणितं वक्खमाणं वा, मुणी तित्थगरो, एसा ||आदानादि ताव तित्थयराउ आणा आगता, नवि गयाभिओगो नवि बलामिओगो, अहंपि तित्थयराणं आणाए तह उपदिसामि निषगविधुणणं कम्मविधुणणं च, इमंपि तस्स आणाए भणामो उबगरणसरीरविहगणं वत्थविसेसगरुयआए, एसा ते जा भणिता वक्खमाणा य, मुणी भगवं, सीस्सामंतणं वा, आणप्पत इति आणा, जं भणितं उबदेसो, अहं वा एतं मुणी ! आदाणं, इम इति जं मणितं वक्खमाणं || वा, मुणी तित्थगरो वा आमंतणं वा, आमंतिजति, आताणं-आयाणं नाणादि तेयं, जं भणितं भावविहणणं, कत्थ एतं ?, सया || सुयक्खायधम्मे, सया सव्वकालं, तित्थगरमत्तीए संसारभीरुत्तेण य जहारोवियभारविस्सामवाहिणा मुठ्ठ अक्खातं सवासुयक्खायं, | आणाइ वट्टति, सब्वण्णता वीयरायना य मया सुअक्खायं, धम्मो पुब्धभणितो, धुणणाधम्मो वा, केरिसो सो ?, विधूतकप्पणिजो, | सति ता विधुतो कप्पोति का मग्गोत्ति वा आयारोत्ति वा धम्मोत्ति वा एगट्ठा, रागादिकिब्बिसधुणणाकम्मविहंगणा वा विधूय कप्पो, विधूतं वा जेण कम्म तेण तुल्यो विधूतकप्पो, गगहराओ पण्णवाणिजे भावे मतिकवलिणो अक्खरलद्धीए तुल्ला, णियनं | |णिच्छितं वा झोसइता, अहवा 'जुसी पीतिसेवणयो' णियतं णिच्छियं वा झोसइत्ता जं भणितं णिसेवति, तो फासइत्ति पालइ, | तीसे पुण गच्छवासी गच्छणिग्गतोवा, इमं पुण मुलं गच्छनिग्गयाणं, तंजहा-अचेले परिसिते चिजतीति चेलं, अचेल-IN मावो जग्गयभावो. पुर्व ता सो संतअचेलभावो परिसितो, अचेलत्ते को गुणो जेण ते दुरज्झबसेयपि अमरसिजति ?, तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवति तस्स अचेलस्स 'परिजुण्यो मे वत्थे सुतं जाइस्सामि, सबओ जूगों अंतो मज्झे य परिजुष्णं वत्थं, । इमं सीतं उपट्टितं, तं कह करेस्सामि ?, एवमादि णिमम्मस्स अज्झत्रसाणं ण भवति, एवमादि विसोतिया ण भवति, सुत्तं जाइ. २१७|| दीप अनुक्रम [१९८ SarpanMISHRA २००० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [221] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] संधानादि श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२१८॥ प्रत वृत्यक [१८५१८७] | स्सामि ततो संघिस्सामि, संधणा दोण्हालीणं, अहवा छिण्णस्स वा फालियरस वा, उकसणं णाम होणपमाणं गाउं पासेहिं दिग्धत्तेण वा वति, तस्सेवनकरिसणं वा, मसिणं णियसणं णियसिस्सामि, उरि पाउरण, पडिग्गहधारिस्सवि अचेलस्स जो पादणिजोगो | सोतं अहागडं घेव मग्गति, तस्स जइ जुण्णेहि जुष्णेहि अइमरगतो, तहावि से अपरिकमोवहिताण एवं भवति-मुत्तं जाइस्सामि, जोवि अचेलो तस्सवि एवं ष भवती-परिजुण्णे मे वत्थे, किं कारणं ?, सो याणि हेमंते समतिकते परिवविउकामो चेव उवगरणं, पडिग्गहधारिस्स पादणिजोगो सो तं अहागडं चेव मग्गति, तस्स बइ जुण्णेहि मग्मति तहवि तस्स अपरिकम्मोवधिविहारित्ता एवंण भवति-मुचं जाइस्सामि सति जाइस्सामि संघिस्सामि उकसिमसामि चोक सिस्सामि, पाउरणसहियस्सवि अन्नत्थ अपाउरणो भवति, हेमंते सिया पाउरणे, अहवा तत्थ परकमंत-अस्थितिमामादिसु परकर्मतं अचेलना अणच्छुरणसेआसाइणं तणफासा फुसंति, दम्भ- | कुसादि तणादि विधति वा फालेति या, अबाउडं च सिसिरे अवायसीतफासे फुसंति, बत्तव्ययं बहुपयणं तं जाणवेद, तिब्वमंदमझि माणि, सहा रुक्खसीयं सतुसारं चेव, तेउफासावि फुसंति, तेजो आदिचो, तेजो मंतो, तेजो तेजस्स संफासा तेउफासा, जं भणियंउन्हफासा, गिम्हे सरते य, पुणो अबाउटे डंसमसगफासा फुसंति, तआतीया य मंकृणपिसुगादि, एगतरे-अण्णतरे, अत एव जे उदिट्ठा एगतरा अविसिट्ठा परीसहा, खुहा तिसा अचेल अरतिमादि, अहवा एएसि एगवरो, एगतरो इतर एव, विरूवरूवफासे अहियासेइत्ति विविधं रू विरूवं २ रूर्व जेसि ते विरूवरुवा, फासंतीति कासा-परीसहा, गहिता कसिणा तजातीया य, उवसग्गे अहियासेमाणे-सहमाणे, अचेले-णिच्चले, कयरेण बलेण ? भाववल अहिकिच तुचति-लाघवियं आगमेमाणे-लघुत्तं लघुभावो या लाघवंति, दब्वे सरीरे उवगरणे य, भावे अलु द्वता, भावलापवियत्वं उबगरणलाघवेणं अहिगारो, तं आगमेमाणे दीप अनुक्रम [१९८ २१८॥ २००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [222] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचा आसेवमाणे, तं अप्पाणं परिसयमाणे, भदंतणागज्जुणा तु 'एवं खलु से उवधारणलाघवियं तवं कम्मस्वयकरणं गंग पत्र-I|करेति', उबगरणलाघवाओ भावलापत्र, भावलाघवाओ य उवगरणलाघवं, अतो अण्णोणं, अविक्खिता अचिरोहो, एवं भाव चूर्णिः लापवाओ कम्मलापन कम्मलाघवाओ पसत्थं भावलाघवं अतो अविरोहो, ततो सिट्ठ लापवितं आगम जो तवे सो, अतोताहे १२१९॥ से अभिसमण्णागते भवति, ताहेत्ति, तप्पति वा जेण सो तवो, अभिमुहं सं अणु आगते अमिसमण्णागते, जं भणितं-सम्म उवलद्धे, दग्नोमोदरिया तवे से अमिसमण्णागते भवति, कई अभिसमण्णागते भवति १, से जहेयं भगवया पवेदितं से इति |णिद्देसे उच्चारणस्थं वा, जहेति जेण पगारेण, जंच भणितं-पंचहि ठाणेहिं अवेलगे पसत्थे भगवया तिस्थगरेणं साहु आदितो वा वेइयं पवेदियं सिस्साणं, किमिति:-अचेलतं पिहुणणं, तमेव अभिसमिया तमिति जहा वृतं उपगरणलाघवं आहारेऽवितं एतं | जहा जस्थ य पडिवजातं अमिमदं पुण्य अभिसमेजा, ते आयरए य, कत्थ अभिसमेति ? कया कहं वा इति ?-भण्णति-सबओ | सव्वत्ताए सबओ इति सम्बं उपदेशं सबहिं खिने सबहिं काले सब्वे भावे इति, णागज्जुपिणया उ'सव्वं चेव सब्यकालंपि सब्वेहि एवं विसेसेति, दवे सम्बं उबगरणं आहारं वा, सम्वत्थ गामे अगामे वा, सब्बता दिता राई वा, तहा सुमिक्खे दुम्भिक्के वा, सम्वभावेण सचभावेणं, णवि कइयवेणं परपरचगा वा भयाओ मायाए वा, इह तु सम्बो सिर्त गहितं, सब| त्ताए सच्चअनुयायी भावो महितो, जं भणित--ण कल्लेण, वजाइयाणं एगग्गहणा दबकाला महिता, सम्मतमेव सममिजाणित्ता | | पसत्थो-सोभणो एगो संगतो वा भावो संमत्तं, प्रशस्तः शोभनश्चैव, एक: संगत एव वा । इत्येतैरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥१॥ सम्म अभिजाणित्ता समभिजाणिचा, अहबा समभावो सम्म तमिति, जेवि एने अचेलगत्तं प भावेंति तेवि अचेलगनं फासंति, HONE दीप अनुक्रम [१९८२००] ॥२१९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [223] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] प्रत वृत्यंक [१८५१८७] श्रीआचा- भणित-ण अवमन्नंति, भणियं वा 'जोवि दुवत्थ तिवस्थो गाथा | जिनकप्पिओ पुण जति एकेणं संघरति एक चेव धारेंति, परेण वा तिण्डं गच्छवासी, गच्छणिग्गया पुण तिणि वा दुण्णिा वा एकं वा धारेंति अचेलभावा, सव्वेऽवि ते भगवतो आणाए। चूर्णिः उबट्ठिता-आणाए आराधगा भवंति, एवं सेसाणं वत्थाणं वा, तहा सचेलाणं अचेलाणं च आराहणं प्रति सम्मत्तं समभिजाणमाणे - ॥२२०॥ PM आराधओ भवतीति वक्सेसं, एवं तेसिं महावीराणं एवं एतेणं पगारेणं, ण अण्णहा, तेसिमिति वपूर्ण अणुवरण य, सोभणि | वीराणं, विदारयति यत्कर्म० अरहताणं, महावीरस्स अवच्चाणि महावीरा, जं भणितं-तस्सिस्सपसिस्सा, चिरं बहुयं, चिरा राईओ | जेसिं पुय्वाणं बरिसाणं च ताणि चिररायाणि पुढवाई वासाई पुब्बाई पुब्बाउएहि, मणुस्सेसु आसि पुल्याउया मणुस्सा, जाव "सीतलो ताव आसी, भणियं च-“एगं च सयसहरसं पुवाणं आसि सीयलजिणस्स" तेणारेण वाससयसहस्साउया, भणियं च| 'एगं च सयसहस्सं संतिस्सवि आउयं जिणवरस्सा तेणारेण सहस्साउगा जाब अरिडवरनेमी, दोमु जिणेसु वाससयाउया, एवं चिरपक्खाति चिरमासाई, चिरमासाई चिरउद्रेणी चिरया यतणाई, अहवा चिरराई, जं भणितं जावजीवाए, रीयमाणा-विहरमागाणं, दवरिया कुंभारचकुरीयति, 'आइट्ठ भमर गाहा, तेसि भगवंताणं महावीराणं अप्पसत्थेसु दव्वादिसु भमंतकुलालचकं वाण भावो चिट्ठति, कालेण कहंचिवि पडिबुज्झति, कहं णाम रत्ती भवे दिवसो वा तहा सुभिक्खे खेमादि, एरिसो वा कह Aण होजा?, भावतो सद्दादिसु ण रागं दोसं वा करेति, एवं दयादिसु अपसत्थ रीयमाणाणं जं भणित--ण तेसु अवस्थाणं करेति, पसत्थेमु उत्तरोत्तरं पगरिसेणं रीयमाणदथ्वभूयाणं पास अहियासिय जहा दिग्धकालं पुत्राणि वासाणि तेण फासादिदुक्खं अहि| यासियं फासिय पालियं तीरियं किट्टियं आणाए अशुपालियं तं एवं प्रकार तेसि अहियासिय पासह बमुत्तेण अणुवसुतेण वा, सद्दहाहि | H॥२२०॥ दीप अनुक्रम [१९८ २०० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [224] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] आगत श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥२२॥ प्रत वृत्यक [१८५१८७] | पत्तियाहि रोएहि, आगतपण्णाणं आगतं-उवलद्धं मिसं गाणं पण्णाणं, परोयदेसाओ सुयं तेणं आगतं, आगमितं गुणिय च । | एगट्ठा, आमिणिबोहियं तग्गयमेव, पञ्चक्खाणाणि आयसमुत्थाणि पसत्थेहिं अज्झत्रसाणेहिं लेस्साहिं विसुज्झमाणाहिं उप्पअंति, प्रज्ञानादि |तं एवं तेसिं तं आगमं आगमेंताणं पुब्बगहियं वा गुणताणं णिचसज्झाओवओगाओ अत्रेण य अम्भितरेण बाहिरेण वा तवेण | | अप्पाणं भावेंताणं किसा बाहा भवति 'एगग्गहणे तज्जाइयगहण'मितिकाउं अपि सरीरं किसीभवति, अतो बुच्चति येन कतेण ते ।। मंससोणिए मिसं तणुते, येन णयंतस्स रुक्षाहारस्य अप्पाहारस्स पायसो खलतेणेव आहारो परिणमति, किंचि रसीभवति, रसाओ सोणिय, तंपि कारणअपत्ता एते तणुयमेव भवति, सोणिते पतणुए य तापुच्वग मंसंपि तणुईभवति, एवमेयं अढि मंसं सुक-11 मिति सव्वाणि एयाणि तणुईभवंति प्रायसो, दुःखं चायतं भवति, बाते य सति णसंतसतत्तायपागो व सोणियादीणं तणुतं भवति, IN घनो दिदंतो गंडओ वा, 'से णं तेणं तेणं उरालएणं विउलेणं पयत्तेणं सुक्खे णिम्मसे' एवं सरीरे विधुणणा भवति, उदयो भवति तेसिं, तणुयसीहवेलाइएणं जोवि उवगरणलाघवअत्थो भणितो सोचि जहासंभवं जोएयथ्यो, तत्थ अतिर्कतं सुतं अचेल| इए लापवियागमे, पेहा नाणादिपरिहाणी ण भवति, तहा कम्मविधुणणत्थं सरीरलाघवंपि आगमेमाणे, न केवलं उबगरणलाघवं, एवं आगमतो वा स अभिसमण्णागतो, दुविहेणवि तवेण सरीरलाधवं भवति, जहेयं भगवया पवेइयं, भगवया तित्थगराणं तित्थ| गरेहिं बा, साधु आदितो वा वेदितं सरीरधुणणं, केसिं च 'तबसमाही चउब्बिहा-णो इहलोगत्थयाए तवं अहिडिजा एवं पवेइयं, । तहेव य सद्दहति आयरति य, तमेवं अभिसमिचा, तमिति तं तित्थगरमणियं सरीरधुणणं संमं अभिसमिञ्च, जं भणितं णचा, सवओ सबत्तादिकमेणं सरीरं धुणाइ, दव्वओ किसा बाहा भवति, पतणुते मंससोणिते भवंति, ताणि दवओ आहारेइ जेहिं| A२२१॥ दीप अनुक्रम [१९८२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [225] Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] बाहादिकृशता श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥२२२॥ प्रत वृत्यक [१८५१८७] तस्स सरीरं किसीभवति, खेतओ तारिसे तारिसे खेते विहरति जस्थ से सरीरं किसं भवति, कालओ णिचं जयति, तंजहा- 'आयावयंति गिम्हामुक भावओवि ण सरीरेण किसेणावस्सतेहिं अवसीयति, एवं सम्बओ सन्बत्ताए, सम्मत्तमेव समभिजाA णित्ता, सम्म कह , जो चाउम्मासियखमओ सो ण मासियखमयं हीलेति, अवष्णं वा तत्थ करेइ, एवं जाब एगंतरखमगं, ण | वा वियट्टभोति हीलेइ, जहा एस ओणयमूढो णिच्चभोइनि, जिणकप्पिओ पडिमापडिवाओ वा कदायि छप्पि मासे अप्पणो | कप्पेणं मिक्खं ण लभति तहाचि सो समदरिसित्ता णवि अण्णो हीलेइ, तं एतं सीहालोइओ अत्थे भणितो, एवं तेसिं महावी राणं आगतपण्णाणं किसा पाहा भवति, पतणुते मंससोणिते, अणेगेसु एगादेसा चुचंति, विस्सेणी कटु परिणाय |दव्वणिस्सेणी पासायाईणं आरोहणी, ओहरणी वा भूमिगिहादीण, भावे पसत्था अपसत्वा य, पसत्था संजमट्ठाणसेणी, जाइ मोक्ख ||" आहरति, अप्पसत्था जा ओसंजमट्ठाणा सेणी जाए णरगं परति, संसारएगट्ठाए वा अपसत्थाए वा अहिगारो, सा पुण अण्णाणमिछत्तअबिरइकसायबिसयमयि, असंसारस्स णिविस्सेणि कटु परिणाएनि एताअ णातुं वितियाए पच्चक्खाएति, जेहिं वञ्जति वा, एएहिं रागादीहिं सो एवं कम्मधुणणत्थं, धुतो वा गणो सरीरघुणणावडिओ संसारस्स बीविस्सेणी कटु तिपणे मुत्ते विरए | वियाहिएत्ति बेमि, तरमाणे तिण्णे संसारसमुई, मुबमाणे मुके अडविहेणं कम्मेणं, विरए असंजमाओ, विविध विसेसेण चा अक्खाओ विक्खाओ, तेण भगवया तित्थगरेहिं वा एवं बेमि, तं च जेण भणितं सद्दहंतो रोयंतो, आह-मणितं भगवया-तरमाणो | तिण्णो मुचमाणो मुको, तं एवं विरतं भिक्खू रीयंत अणवहितं दबादीएहिं णिस्मरंतं पसत्थेसु गुणप्रकर्षेण उपरि वट्टमाणं | अतो रीयमाणं, चिररायोसितंति जाव देसूणपुग्यकोडी अणेगाणि वा वासाणि, जं भणितं चिरराओसितं, तं एवंगुणजुनं अरती दीप अनुक्रम [१९८२००] ॥२२२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [226] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] अरति धारणादि प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचा-VA तस्थ किं वा होइ ?, कत्थ अरति ?, असंजमे, रति संजमे, अरति अंभणितं अरतिपरीसहो, किमिति परिपण्हे, एगज्झत्थं वेग्गं | | मोक्खं वा अभिपत्थितं, विविहं वा धारए विधारण, इह हि दुचलाणि चलाणि अविणयबंति वा इंदियाई तेण किंचिवि दुबल" विहारए, भणियं च-कम्माणि अणण्णगरुयाणि अपुट्ठवाकरणं वा विरय रीयंत चिररातोसितं संधारणाए समुट्टिते 7 ॥२२३॥ [D उसणं आसेवियबहुलीकृततवोकम्माणं अरतीति किं विहारए ?, किमिति अक्खेवे, कहं अति धरेहिति ?, किं वा सा तस्स?, (सोविखणे खणे विचुमति, संजमे व रमति संजमति, भणियं च-'अमरोवमं जाणिय सोक्यमुत्तमं०'अहवा अरती किन्न धारए | जो संधारणाए समुट्टिते?,दवसंधाणं छिन्नसंधाणं अजिन्नसंधणं च, दब्बे अन्छिन्नसुनं कत्तति, रज्जू वा पट्टिअति, छिन्नसंधणं | कंचुगादीणं, भावे पसथ अपसत्य, छिन्नसंधणा य जहा कोयि असंजए किंचि कालं कोहस्स उबसम काउं पुणो रुस्मति, अच्छिन-IN संधणाई णिरुम्बद्धो चेव अर्णताणुवंधिकोहकसाओ, एवं माण माया लोभे य, पसस्थ भावच्छिन्नसंधणाजे खोवसमियाओ भावाओ | उदइयभावं गतो आसी पुणो खोबसमियं चेव जाव, अच्छिन्नसंधणाओ समुट्ठिय उयसामगसेढी खवयसेटी वा, तमेवं पसत्यभाव| संधणअच्छिन्नसंधणा य समुट्ठियं अहक्खायचरित्ताभिमुहं वा. अहवा तित्थगरगणधरा दुवालसंगगणिपिडगसंधगाय समुहिता, तंजहा-'अत्भासह अरहा' तं एवं संघणाए उवहितं संजमे अरती कहं धारए, धीर चिरराओसिगात्रोण भवति, भणियं च 'णारती सहती वीरे' से एवं संधणाए समुट्ठिते, पढिाइ य-संधिमाणे समुट्टिते, दवभावसंधणं परवेऊणं नाणादिपसत्थभावसंघर्ष संधिमाणे, सम्म उद्विते समुट्टिते, इह नाणाहिमागे जेणंति, जहा से दीवे असादीणे (आमासदीवे) दीवयति दिप्प-| यति वा दीवो, दवे दुविहो-आसासदीवो पगासदीचो, समुदे जहा काणणादीवाति, वसंतो सुण्णओ वा, तं पप्प मिष्णयो- ॥२२३॥ दीप अनुक्रम [१९८२०० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [227] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचा तसंजत्तगा अभिण्णपोतसंजनगा वा समाससंति, एवं नदीसासदीपि उत्तरिउकामा समाससित्ता सेसं उत्तरंति, महातलागादिदीवं आवासहीरांग सूत्रDवा, स तु संदीणो असंदीणो य, संदति संदि पोते वा, संदीणो कदायि लायिजति मासियषाणतेण वा संवच्छरियपाणिवाएहिं वा, 10 पादि चूर्णिः असंदीणो तु ण कयाइ गिलाविजति, तंजहा-अ(सु)वण्णभूमी सिंहलदीओ एवमादि, पगासदीवो संघातिमो असंघातिमो |||| ॥२२४॥ वा, तत्थ संघातिमो घोलपट्टितेल्लकारंतगसंजोगा उजोवगे, णामपञ्चया उप्पजंति, असंघातिमो चंदआइचमणी एवमादि, सोवि संदीणो असंदीणो य, तत्थ असंघातिमो णियमा असंदीणो, संघातिमोवि कोइ असंदीणो भवति, कह !, पभृतइंधणो अब्भपडण-10 पाओ उत्तरंति, न विज्झायतेऽपि, केइ पगासे य अस्सासे य इच्छंति, तत्थ पगासयति गिहेसु उन्बरएम दीवा पन्जलिजंति, आसासे । तु वहणे पट्टणेसु उवट्ठाणेमु खलेसु वाणमंतर उपरि चारेति, दीयो पजालियति, तमासासदीवं वाणियगा पासिउं ततो जुत्ता वचंति ।। YAI समासंतिया आसण्णं पट्टणंतिकाऊणं, भावदीवे दुविहे आसासदीवो पगासदीयो य, आसासदीवो संमतं, तं पावित्ना आसासो भवति, | L/ भो(णि)व्वाणं अवस्सं सिझीहामि, सुकपक्खिो सो भवति उकोसेणं अबट्टपोग्गलपरियट्रेणं सिज्झीहामि, तंपि संदीणमसंदीणं, | खयोवसमयं संदीणं, अहवा पडिवाति संदीणं, अपडिवाई असंदीणं, पगासे दीवो, इदाणि सोयणा-सोयणाणं संघातिम इतरं च, | MO| तत्थ संघातिमो सुत्तणाणदीवो, तंजहा अक्खरसंघातणा पदसंघातणा कालिए जाव अंगसंघातणा, दिट्ठीवादेवि, एवं जाव पाहुडे, पाहुडपाहुडे पाहुडियापाहुडिया वत्थुसंघातणा, असंघातणा केवलनागं, दुविहो संदीणो असंदीणो य, जस्स पडिबाइ यस्स संदीणो, अपडिवाई असंदीणो, अहवा संघातिमो इतरो वा, जस्स अपडिवाते केवलनाणं उप्पाइ तस्स असंदीणो, पखिडति संदीणो, एगीमयं तु भावे आसासदीवो जो धम्मेऽवि बहूर्ण जीवाणं आसासो दीवो ताणं, संदीणो असंदीणो य जो पाउं भुंजेउं पुवुद्वितो || ॥२२४॥ दीप अनुक्रम [१९८२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [228] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] प्रत वृत्यक [१८५१८७] श्रीआचाMC समालो पुणो पण्णवेति सो संदीणो, अण्णया असंदीणो, तित्थगरगणधरा पगासेंति असामित्तेण य णिचमेव असंदीणो, एवं से नदीपादि रांग सूत्र आयरियदेसितो एवमवधारणे, स इति सो भिक्खू चिरराओसियं संधणाए समुट्ठितो आसासपगासअसंदीणदीवभूतो अरति । चूर्णिः धारेति तं अहिकिच्चा बुच्चति-एवं से धम्मे आयरियदेशिए, धम्मे दुविहे वट्टमाणे, दसविह नाणाइ, आयरिय पदरिसिते, अहवा । ||२२५॥ AU अत्तपरादेसेणं उभयादेसेणं वा कहेयर, एस धम्मे आयरिए, कयरे ?, अयमेव जतिणो, धम्मे य संजमरती असंदीणा भवति, एवमेव | धम्मो आयरियदरिसितो, एवं से असंदीणो अभयवट्टि, तहा धम्मे रति करेति, कतरस्थ ?, आयरियदेसिते, एगे अणेगादेसा वुञ्चति || ते अवयमाणा भावसोया, कि अवयमाणा ?, मुसावात सव्वं वा वयणदोस, जाय गिरा सोबजा, पटिअइ य-ते अणवर्क-11 खेमाणा, मित्तणादिणियगा सयणकामभोगा वा पुन्चरतपुब्धकीलियाणि वा आजम्मं वा एवमादि, अणतिवादेमाणा कंठयं । 2.जाव अपरिगिण्हेमाणा, एगग्गहणे चियत्तोवगरणसरीरादिया बा, अहवा-धम्मपीईए संविग्गत्तिकाउं जयमाणा साहुबग्गस्स | संनिवम्गस्स वा चियचा, जं भणित-सम्मता, मेरा धाविचा मेहावीणो, पावा डीणा पंडिता, एवं तेसिं भगवओ एवमधारणे, | तेसिमिति देसि परयणपदवीदीयभूताणं जगपईवभूयाणं वा भगवंताणं, आणाए उठाणं अणुट्ठाणं वा, तत्थ आणाउट्ठाणे ठिचा इति | बक्सेस, तित्थगरगणहर मुलं तहिं ठिता, अहवा अणुढाणं आयरणं, लोगेवि वत्तारो भांति-अणुट्टिते हिते, पुण तेसिं भगवंताणं | | तित्थगरगणहराणं तं आणं अणुद्वेति-पवि संपाडेति जहा सो उज्जेणओ रायपुत्तो, उजेणीए जियसत्तुस्स रण्णो दो पुत्ता, |जिट्ठो जुपराया कणि?ओ अणुजुग्गराया, थेरागमो, रायपुत्तो णिग्गतो, धम्म सुणेत्ता जुगराया पथ्वदओ, सेहणिप्फेडीयाए| णीतो, कालेणं बहुस्सुओ जाओ, जिणकप्पपरिकम्मं करमाणे पभावेति, सा पंचविहा, पढमा उवस्सयंमि वितिया बहिं जाव पंचमा | ॥२२५॥ दीप अनुक्रम [१९८२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [229] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८५-१८७] प्रत वृत्यंक [१८५१८७] श्रीआचा- मसाणमि, सो य से कणिडो भाउओ अणुरागेणं धम्मसद्धाए वा दसण्णपुरं गंतु आयरिए आपुच्छह-अहं पव्वयामि महल्लभाउगोअनुष्ठानो' ! मे दरिसेहि, पब्बयाहि ताव, तं ते दरिसेमि, पव्वइयो, अबरण्हे पुणो भणति-दाएह अवेलियं, उकंठिओमि भाउयस्स, तेहिं भणितं स्थानादि चूर्णिः | सो ण कस्सइ उल्ला देति, जिणकप्पं पडिवजिउकामो, णिबंधे कते दरिसितो, बंदितो तुसिणीओ, वांछति अणुरागेणं, अहो ते | ॥२२६| मानवसिरी, आउट्टो य तस्स, वारिअंतोवि तूरते, न ते कालो, पबजा सिक्वा वय एवं कालो भवतित्ति, भणति-अहंपि तेणं चेव | पितरि माओनिकाउं, बलामोडीए तहा चडिओ तस्स पासे, इतरेवि दरिसेउं परियागता, सोवि उद्वितो वियाले हियतेणं आवा| सयं काउं करेति, इतरे सेहो किं काहिति ?, देवता वंदति अणुट्टितं, अणुडियं ण वंदति, रुट्ठो सेहित्ति, परिस्समाओ चलियगस्स | एगेणं तलष्पहारेणं चेवि अक्खिडोलए पाडेति, आलोए उडिओ, हियएणं देवतं भगइ-किं ते एस अयाणतो दुक्खाविओ, देहि | से अच्छीणि, तीए पुति-जीवप्पदेसपरिचत्ताणि, ण सका लाएतुं, तत्थ य वच्छकातीरे णगरे सागारिएणं वालो मारितो, | तस्स य सपदेसाणि अच्छीणि ताणि तस्स लाइताणि, एतं एलगच्छणिबत्ति, कह पुण अणुद्विता', 'पषजा सिक्खा वय'तत्थ इमं सुतं 'जहा से दियापोते' जेण पगारेण जहा, अहबा जहा इति उर्वमे, दो जम्माणि जस्स सो दिओ, वितिय अंडगभेदो, पततीति पोदो, दियस्स पोदो २ सो अंडत्यो पक्खवाएणं पुस्सति उम्मिनोवि किंचिकालं पक्खवाएणं, आहारसमथो सजातिपाउग्गेहिं आहारेहि य पुस्सति, ण प तरति उडणाए, लभति चरंतीति से देति ताब जाव सयं आरद्धो चरिउं, तहेव मातापितरो 'विहाय पत्तेगमेव चरंति, एस दिट्ठतो । एवं ते सिस्सा दिया य सयो य अणुपुष्वेण ता इति पयजा सिक्खा वय०, के वाईति !, | गणहराई, एवं भणामि आणनि बेमि ।। धुरामयणस्स तृतीय उदेशकः ।। ॥२२६॥ दीप अनुक्रम [१९८ २००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चर्णि: [230] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] वाचना प्रत वृत्यक [१८८१९३] भीमाचा 0 उद्देसादिसंबंधो-पढमे णियगविधुणणा बुत्ता, पितिए कम्माण, ततिए उवगरणसरीराणं, इह तु गारवतिययस्स, इह निव्वलेता गंग सत्र-0 सरीरकिसत्ता तेयतवेण अहितो अहमितिकाउं इड्डीगावं मन्छे, ततो आहारादियेहि पूयिअमाणो रससातागारवेहिवि विभूसिज्जा, I0 क्रमादि चूर्णि अतो चउत्थे मारवतियस्स धुणणं वण्णिअति, सुत्तस्स सुचे-ततियस्स अंतिमसुत्ने वायणा, अधिच्छिता वायेतित्ति बेमि, इहवि । ॥२२७॥ वुचति, एवं ते सिस्सा एवमवधारणे, सो विसयस्स दुविहो-दिया य राओ य, दिया-उकालियं पहुश्च कदायि दिवसतो चत्ता रिवि पोरिसीओ वाइजेज, रतिपि पढभपोरिसिं वाइजति, सेसासुबि पादपुच्छगं, अणुपुब्वेण-आयारातिकमेण अणुपुचीए, तहा || |य भणियं-जहा से दिया राओ, अहवा परियागमणतो तेणं, जहा 'तिवासपरियागस्स कप्पति आयारपकप्पे उद्दिसितए' एवं जाव | | दिद्विवाए, तं च जस्स जोग, एवं अणुपुच्चीए सुनं अत्थं उभयं वा वादिया वाइजमाणा बा, अहवा नाणदसणवातिया, चरित्रं च आसेवणासिक्खणा, तंजहा-एवं गंतव्यं०, ते तिविहा-जाणगा अयाणगा दुब्बिडगा, जाणणा पुच्वं सावया एवं आसि अमिगत. जीवाजीवा०, अयाणगा णाम अणभिग्गहियमिच्छादिट्ठी लोगधम्मे अविकोविता, उक्तं च-जे होंति पगइमु(सु)द्वा०, जेण लोइ| यसुतीहि कुप्पासंडिसंजमे पभाविता दुविय दृगा, ते पायसो दुपण्णवगा भवंति, अहवा पगतीए केइ अहंकरेइत्ता भवंति, ण तविहा जाणंति, जहा अहंकारओ दुयता भवंति, तत्थ दुषियडू पट्टच्च उवदेसो, ते उ वाइजमाणा समितिगुत्तीसु उवदिस्समाणासु दव्यचिंताए बावि उत्थाणं जंति, गोहामाहिलवत, केयी बादिया जमालि वा, जत्थ इमं सुत्-तेसिं महावीराणं तेसिमिति तित्थ गराणं गणहराणं वा खे(थ)राणं वा, सोभणा वीरा, परोवदेसो आगमस्स, सुपनाणं गहियं, साहु आदितो वा जाणं पण्णाणं, तं| "आयरियं पद लम्भति, अहवा पण्णाणं चुद्धिमितिकार्ड आभिणियोहियं गहितं, जहा तहा जं भणितं पटुता, मइपुन्वगं च सुत्त-10॥२२७।। दीप अनुक्रम [२०१२०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: षष्ठं-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: ‘गौरवत्रिक विधुनन' आरब्धः, [231] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] बच्चादि प्रत वृत्यक [१८८१९३] श्रीआचा- मितिकाउं तदंतम्गतमेव, तत्थ सुयलंभा णियमा मतिलंभो, सुतलंभ केति भयंति, तत्थ समगुत्थावि मती भवति जहा सुविणंतिगी, AM A जाइस्सरणं सुहुमअणुचिंतणं कप्पकिरियमादि, अवसेसणाणाणि समुत्थाणि चेव, जे य अण्णे तेवि महावीरा चेव, जेहिं नाणपण्णा चूर्णिः | य लद्धा, ते एवं सउणीवुड़ी वा अणुपुब्वेणं वाइयसंगहिता बहुमुता कया, कसायादिउवसमं लभित्ना हिया ओवसमं उवसमणं ॥२२८॥ उपसमो, सो दुविहो-दव्वे भावे य, दब्वे दग्वेण वा उपसमो, दन्बस्स उपसमो, तत्थ दब्बेण कचकफलेण कलुसं उदगं उवस-IN | मति, अंकुसेण कुंजरो, दबस्स उवसमो सुराए पागकाले, भावोबसमो नाणादि, तत्थ जो जेण नाणेण उवसामिग्नइ सो नाणोवसमो भवति, तंजहा-अक्खेवणीए०, अहवा इसिभासितेहिं उत्तरायणा एवमादि, दरिसणोबसमो जो विसुद्धेण संमत्तेण, परंउपसमितेण परंउवसामितो, जहा सेणियरपणो, सो मिच्छादिट्ठी देवो सकवयणं असद्दहमाणो० जाव दंसणप्पभावगाहें सत्थेहिं उचसामिओ, गोविंद, जत्तादिणा चरितमेव उक्समो, तंजहा-उवसंतकोहे उपसंतमाणो उपसंतमाओ उपसंतलोभो, जाहे जयमाणं साहूं, दट्टण उवसमति स चरित्तोवसमो, तं उपसमं विचा, जं भणितं-उबगिरिसित्ता, विणयमूलं संजमं विण्णाणमदेण अक्खरपडत्तेण या फारुसियं समादित्ता फरुसियभावो फारुसियं परोप्परगुणाए अगुणाए अर्थमीमांसा, एवाउमं! ण याणसि, ण य एस अत्यो | एवं भवति, वितिओ पचहे, आयरिया एवं भणंति, पुण आह---अन्थओ आयरिओ, जति तित्थगरोऽपि एवं आह सोऽवि ण याणति, किं पुण अण्णो?, अहवा भणति-सो किंमब्वष्णू, सो बायाकुट्ठो पुद्विविगलो कि जाणह?, तुमंपि तयोचिव पाडि ठिओ णिरूहचाओ पुढविकाइयतुल्लो कि जाणेस्ससि ?, पढिजह य 'हिचा उवसमं अप्पेगे फरुसियं समारभंति, अह इति अणंतरे, | बहुस्सुयीभूतो संतो, एमेण मणे सय्वे दुवियडा, फरुसितं समादियंति समारभंति, समं आरभते समारभते, बहुस्सुपविष्णाणमादीणि दीप अनुक्रम [२०१२०६] ||२२८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [232] Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] ॥२२९॥ प्रत वृत्यक [१८८१९३] श्रीआचा | कहिजमाणे वा अणाढायमाणा अच्छंति, अहवा आलत्ते वाहिते तुसिणीए हुंकारे, एवं फरुसितं समादियंति, ण मुंचति एगी, रांग सूत्र- वसित्ता बंभचेरंसि वसित्ता जं भणितं पालिचा, बंभचरणं चरितं, अतिदुबलेण भन्छिता संता केइ कातरा आणं तं णोत्ति वृणिः | मण्णमाणा आणा सुत्तादेसो, तंजहा-एवं गंतव्वं एवमादि, ते तं तित्थगराणं, णो देसपडिसेहो, म सम्वमेवं अवमण्णति, | सातागारवबहुला सरीरबाउसियन करेंति, ण य दुक्खं मिक्खायरियं हिंडंति, रसगारवाओ उग्गमादि णो सोहेंति, पञ्चतिते वादं |च वदंति पुट्ठा अपुट्ठा य-ण एवं तित्वगरेहि भणियं-आहाकम्मलक्खणं, समणं वाऽऽदा कम्मति काउं संजममेव उवक्खडेति । FOआहाकम्म, अहवा एताणि ताव बलवंति, जहा वुत्तं-'कुजा भिक्खु गिलाणस्स, अगिलाए समाहीए' अण्णोवि जो जेण | विणा सिथिलायति तं नस्स करेयव्वमिति, जं पुण परेणावि स अवसण्णविहारिसमग्गिणो णिहेसो. दोहि आगलितो बालो सि. | ण अबालो, यदुक्तं भवति-असंजतो, केण स बालो, गणु जेण आरंभट्ठी, आरंभणं आरंभो, पदणपादणादिवसंजमो, तेण जस्स अड्डो से भवति आरंभट्टी, अहवा इडिगारवरसगारवसातागारवा आरंभट्टी, तत्थ विजामतणिमित्तसहहेतुमादी अहिअति पढ जइ वा जो रिद्धिहेउं सो रिद्धिगारवारंभट्ठी, ताणि चेव रसहेउं पउंजति अहिजति वा रसगारवारंभट्ठी, एवं सातागारखारंभट्ठीवि, | IYA अणुषयमाणोत्ति अणुबदणं अणुवादो, वदतो पच्छा वदति अणुवदति, तकादीसु पयणपयावणादिप्रारंभे वदंति, तदंडतकी, तस्स | जापखं ते अणुवदंति, एकोत्थ दोसो, ण असरीरो धम्मो भवति, तेण धम्मसरोर धरेयच्वं, साह य तं, जंभणित-'मणुण्णं भोयणं Oभोचा' अहवा णितियादिवायो वा कुसीले अणुवदति, मा एवं भण, जहा अम्हेवि णिहीणपेञ्चत्रावारा इहलोगपडिबद्धा संसारमूIN यरा, ण तुझे, एवं ठिता चेहयपूयणं तो करेह, विसेसेण य आगंतुयागमिते लक्खणखमते उत गिण्ड, सव्वं किर पडिवादी, ||२२९॥ दीप अनुक्रम [२०१ २०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [233] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] भीआचा- संमपत्र चूर्णिः ||२३|| प्रत वृत्यक [१८८१९३] वेदावचं अपडिवाइ, एवं तेसिं अणुकूल बटुंति, एवं सो अणुवट्टमाणे हण पाणे घातमाणे हणतीति हणो घाएतीति पायमाणे, | सावयावृश्य उछलादि | इणओवि समणुण्णे, तत्थ सकाणं अणुवसंपण्णा, तसादि सयं हणंति पागेसु, अवि पायगा हणावेंति, मुंजता अणुमोदंति, एगिदिए प्रति सब्वे हणा पाणे घायमाणा, हणनो याबि, इह तु ओसण्णेहिं अहिगारो, तेऽवि हणपाणधाय, तत्थ आउकाय सोदाफलादि, सचित्तभोयिणो वा सयमेव हणतीति हण, उहिस्सकतभोइणो तु सचित्ताहारविवजगा पातमाणा भवंति, अहवा तुमंसि णाम वाले आरंभट्ठी अणुवदमाणा तं एवं वाले जे तुम आरंभट्ठी अणुवदसि गारवदोसाओ य, अहं सच्चे हितो नाणसंपण्णो दसणसंपण्णो चरित्तसंपन्नो तवसंपण्णो बियणसंपण्णो एवं अणुवदमाणोवि बाल एव तुभं, ण अबालो, आरंभट्ठी पुढविकाइयादिजीचे हणसि हणावेसि हणतेचि योगत्रिककरणत्रिगण, सो एवं बालो घोरे धम्मे उदीरति घोरो-भयाणगो, सव्वस्सवि गिरोधाओ, अहीव एगंतदिद्वित्ता दुरणुचरिचा कापुरिसाणं, धरतीति धम्मो, उक्तं च-"दुर्गतिप्रवृनं जीवं, यस्मात् धारयते ततः। धत्ते चैनान शुभे स्थाने, तस्मात् धर्म इति स्मृतः ॥१॥ देवविही बा, उई ईरितो उदाहरितो दरिसितोनि वा तित्थगरगणहरेहिं, नेहि तेहिं चेच उज्जुब ईरिते उदीरितो, यदुक्तं भवति-कतो, उबेहति णं अणाणाए न उवेक्खति गारखदोसाओ० यद् उक्तं भवति-ण तित्थगरगणधराणं, अणाणाए-अणुवदेसेण, ते एवं यमादिणो मारववतो पमादी वा आरंभट्ठी अणुवदेमाणा जे वृत्ता से एस विसपणे वितहे, जे वा ते घोर धम्म उदीरेंति तं उवेहति अणाणाए, अणेगेहिं एगादेसाओ तुषंति एस विसपणे विती एस इति जो आरंभट्ठी घोरं धम्म उदीरितं पमादेति विविहं सग्यो, दम्बे भारवाहे पहियनदीतरता एवमादि सो समति, भावमष्णो णाणदसणचरिनाणि पत्तो तहावि ण तेसु जो भनिमंताण उञ्जमति, णितियादि जाव छटो, विविहं तद्दो २ दवे मय- २३०॥ दीप अनुक्रम [२०१२०६] PRASHARE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [234] Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] प्रत वृत्यक [१८८१९३] श्रीआचा10 कंटगादि गलए लग्गो वितरे, भावो नाणस्स उपदेस अणणुलोमे वदृति, एवं दसणनाणचरित्चतबविणएवि, तिरिच्छीअंतोवि-1|वितादि तद्दो, एवं ते गगंचिता विविहं आहिता वियाहिता, तहावि ताए पन्चया एवं बुधति इति चेमि, केरिसेणं परिणामेणं ते पच्च-10 चूर्णिः | इया जे गारवदोसेणं ओमण्णा जाय दिढता-कि ते सियाललाए चेव णिवंता उदाहु सीहित्ताएवि, ततो खुचति सीहत्ताएवि ॥२३॥ पगे, जेण पटि अति-किमणेण भो यणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणे, अहवा असवण्णू ताव परिसणिच्छयं असुंदरं . पक्षायेति, तहावि किं सवण्णूवि!, आम, तेसि तं करणं अज्झत्थं भवति, जेण पृणरवि कयाइ उमिज कहंचि, वीतरागो सम्म उद्वितं णिच्छतीति, ते जणं एवं उबतित्थंति, तं०-किमणेण भोजणेण करिस्सामि ? ते पवावेति, किमिति परिपण्हे, अणेणेति जो संपर्य जीवति, ण मती, ण य अणुप्पण्णो, भी इति आमन्त्रणे, जायतीति जगो-मातापितिमाति सपणवग्गो, करि-| स्सामीति पयोयणं, इहपि ताब जणणमरणरोगमोगामिभूतस्स सपणो न तागाइ अतो तस्स वेरगं उप्पअति, जेण अप्पणो आमतणं काउं बेमि-किमणेण भो यणेण ?, जया वा णिक्खमंतो परेण वुमति किं मातापितामादि सपणं णविक्खति !, ततो तेसि | आमंतणं काउं भणति-किमणेण भो यणेण ?, जो से इह ण जरादिताणाए, कि परलोगे?, जतो बुच्चति-इमे ते सव्वाति कामभोगाहिरण्णाई धणधान्यं च सव्वपि पतं, भुजत इति भोयणं, अहो राइभावो य ण ते कि छडिजा, नतो बेमि-किमणेण भोयणेण, णवि एतेण तित्ता मुबहुणावि मोतुं भवति, तणकट्ठण व अग्गी अग्गीसामण्णं चोरसामन, अतो किमणेण भो यणेणं, एवं मण्णमाणा जाणमाणा इति अन्थो, पढिजइ य-एवं एगे विभत्ता एवमवधारणे, एगेण सव्वे, आवकहाए सीहत्ताए विहरि-1 स्सामो, मातरं पितरं हिचा णायते वीरा इव अप्पाणं आयरंति धीरा पमाणा, अहवा ते आदितो वा नवेण विरजमाणो एवासी, | ॥२३॥ दीप अनुक्रम [२०१२०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [235] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१८८ १९३] दीप अनुक्रम [२०१२०६] श्रीजाचारांग सूत्रचूर्णिः ॥२३२॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], निर्युक्तिः [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] सम्म उडाए समुट्ठाए, ण मिच्छोबट्टाए, गोविंदवत्, अविहिंसगा सुबता देता सच्चवादी जाव संतुट्ठा सोभणाणि वताणि तेसिं सुब्बता, तबजुत्ता इंदियनोईदियदंता, नागज्जुण्णा ते समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू अविहिंसगा सुबता देता परदत्तभोइणो पावकम्मं णो करिस्सामो समुट्ठाए एवं महईए पष्णं तरित्ता सियावित्ता विहारिणो अघडणंतरे, एगेण सव्वे, पासंडी व सीहि अणुदारसतचाए, परीसहपराजिते उडूं परतिचिसत्ता उप्पइत्ता, आमरणंताए संजमट्ठाणे हिचा गारवदोसाओ पुणो पडिवयमाणे, कत्थ १-अविरतीए गिवास चारए वा, पडिवयमाणो पडितेय, बस| हिकायरा जणावासे वहू॑तीति, वसही केसि ?, इंदियवसहगारवाणं अस्थित्ते आदारे, जेसिं कायरा य दुक्खं भवति, ण तवमूरा, जाईति जाइस्संति य जाणंति वा कम्माणि जणा, अहवां जणा इति साहू, ते पडिभग्गा समणा ण साहू जणा वुञ्चति, काउं दुद्धराणि अट्ठारससीलंगसहस्साणि धारेस्सतीति दव्वलिंगस्स भावलिंगस्स लगा भवंति तेसिं वयाणं, केई दरिसणस्सवि 'अह | मेगेसिं लोए पावए भवति' अह तेसिं भगवयाणं भम्गउच्छहाणं भग्गपरक माणं गारववसोते उप्पञ्जयित्ताणं, पंसेति पातेति वा पावगं असिलोगो, अहमेसो, सो तु सपक्खाओं परपक्खाओ तहा, सपक्वं परपक्खं वा, तत्थ ताव परपक्खाओ परोक्खं जति तं कोइ पसंसति सुतेण या जातीए वा तो भणति-धिरत्धु या, तेसिं तु तस्स उबदेसे ण वद्धति, 'जहा खरो वंदण भारवाही भारस्स भागी ण हु चंदणस्स', हीणं से जाति कुलं वा, मा एतस्स कुलफंसणस्स णामपि गिण्डादि, असिक्खिगिज्झस्स पब्वाईस, उप्पण्य इयाणं देवावि बीमेंति, जेवि समविस्समियाहिं धम्मं करेंति, एवं सक्खमवि के भणंति, विवातउग्गहादिसु रोसिता अरोसिता वा मुकत्थं भणति, अण्णं परात्र सेंति, आदिचाणि ज्झायंति, चम्पुडियं देति, तंमि य आगते परिसमज्झाओ पंतीओ वा उट्ठेति सप मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [236] सुववादि ॥२३२॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२३३॥ प्रत वृत्यंक [१८८ १९३] | खेवि बहूर्ण समणाणं सभणीणं हीलणिजे गरहणिजे, पुराणो इय बुचति, तरुणोवि होतओ, एवं तस्स ण विषयह णाम गइभेणेव | श्रमण| बलवापसूयस्स, इथे तस्स पावते सिलोगे भवति, अहया सुनेणेव तेर्सि पावते सिलोगे भण्णति, तंजहा-समणवितंते, जावि वितंतादि | विरतेहिं अविरतेत्ति अतिणिद्धरणं तवोकम्मेणं अम्हाणतेण या लूहएण य, भगं वाणेणं, विविहं तंतो वितंतो, समणे विर्ततो समणवितंतति, वीज्झासमणतणेण, विविहं ततो २, जं भणितं पुणो उप्पबाति, किंच-पसह समग्णागतेहि, निहत्था चेव परोप्परं भणंति-पुरिसभेयमागया ते एगंतेण लाए विणियट्टमाणे पासित्ता पस्सह-पस्सऽहो वा समण्णागतेहि असमण्णागता, | अन्नत्थवि संखडीते समुदये वा सम्णायएहि समण्णागतेहिं लजाए ओभासमाणा भीता वा असमण्णागता, जे भणितं-ण तत्थति, |ण वा सदाइजंति, जेवि समण्णायगा मित्ता वा तेविएव चंति-एसो सो तुझं चउलो महासीसो एति वा गच्छति वा, देसंच पड्डच कत्थर समण्णागतोबि एस विलितचिकाऊणं तेण सद्धिं झुंजंति, धीयारपब्बाइतेण वा धीयारा सुयिवादी भागवताति सण्णा-IN गर्यपि ण भुजंति संजयविट्टालितोत्तिकाऊणं, अतो सो तेहिं असंभुञ्जमाणो भोयणेसु असमण्णामतेसु असमण्णागतो, ऊति णाम | मरहवादिसु णादि दुगुंछिअति, तहारिसो अण्णोवि पडिभग्गो, सो तेण मंतकलेण लोपहतेण वा सीसेणं समण्णागतेसु अस-11 मण्णागते, उत्तरपहादिसु चिर उपजइ तोवि गरहिअति, जत्थ वा धीयारा पिल्लिताऊगा, तत्थ णाममाणेहिं अणाममाणेहि, ते तु तम्भाविता मरुते णमंति, सो पुण मा सम्मद रिसणातियारो भविस्सतीति णो णमति, तो तेहिं बंदमाणेहि अवंदमाणे एवं लविजइ-एस समणतो णवि अण्णेसि पणाम करेइ, अहवा अकोसते, किंष-दवितेमु अदविते दवं तं जस्स अस्थि स भवति । | दविए, तस्स य पुत्वं उजितं णत्थि, जंपि आसि तंपि तस्स अग्णयोगेहिं खइयं वइयं च, सो य कम्मरओ आसि विढयंतओ, ॥२३३॥ दीप अनुक्रम [२०१२०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [237] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १८८-१९३] श्रीआचारांग सूत्र चूणिः |२३४॥ प्रत वृत्यक [१८८१९३] अतो तेसु बंधवेसु इस्सरेसु सो अद्दविते, जं भणित-दरिदो, दवियउबजणाणिमित्तं वराहन्भूतो किलिस्सति, अतोऽवि सण्णागतेहिं अद्रव्यादि असमण्णागते, चाणकलोइयदिट्टतेण य णायसमण्णागतेहिं असमण्णागते ण सारीजतीतिकाऊणं, जतिवि णाम कहिचि सारिअति तहावि भणंति-भुजह ण तानि रिको, अतो समण्णागते असम०, कुतो व ते अट्ठारसट्ठाणाए गारपदोसेण पावंति ?-'हं भो। दुस्समाए दुप्पजीवी' नहा विरते, तेसुवि पाम तस्स नायगा करेंसु, कम्मेसु चिरमंतिताणि य, सो अविच्छिमहीए करेति, अतो विरतेहिं अविरते, अहवा णवि विरतेहिं समं जाओ, ण विकरहिं समं जातो, णवि अविरतेहिं, कही, जेण तस्स कामभोगा ण विअंति, विणावि वित्तेण केरिसा कामभोगा?, जम्हा एते दोसा उप्पचतिया पाति उप्पवादिते ते अभिसमिचा, नं भणितं-नंपि दव्वं तपि चओषचाय, पापाड्डीणो पंडितो, णिट्टियही वीरे पिट्ठ णेतीणि द्वितं, जं भणितं-मोक्खो दि, उत्तमो अत्यो उत्तमत्थो, कोयि, सो नाणदसणचरित्ततबविणय०, णय अगारोवत्थो, तं एवं उत्तमं आगममाणो-चिंतेमाणो सता निचं आमरणंताए | |कसिणकम्मलपत्थं सच्चो परिवयेासित्ति बेमि ॥ षष्ठाध्ययने चतुर्थोदेशकः परिसमाप्तः।। उद्देसाभिसंबंधो-पढमे णियगविधुणणा भणिता, वितिए कम्मस्स, ततिए उवगरणसरीराण, चउत्थे गारवतियस्स, इह उवCO सग्गा जहा धुणिअंति तहा उदाहरिस्सामि, तस्स गारवरहियस्स बिरतो, जति णाम चत्तारि चउपगारा उबसग्गा उप्पजिजा, | उवसम्गगहणेन पडिलोमा परीसहोवसग्गा गहिता, समाणग्गहणेण अणुलोमा, ते जति णाम कहिंचि जुगवं अजुगवं वा उप्पजेजा ते वासीचंदणकप्पसमाणेणं विधुवयंति, सुत्तस्स-गारवतिय विधुगमाणो सुटुं परित्रएजासि, तं च परिवयणं तस्स कत्थ ', भणि| अति से गिहतरेसु वा से इति णिदेसे, कस्स?, तस्स मारवरहितस्स साहुणो, गिण्हंतीति गिहा, तत्थ गिहेहिं उच्चणीयमजिझमाणि भा॥२३४॥ दीप अनुक्रम [२०१२०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: षष्ठं-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'उपसर्ग-सन्मान विधुनन' आरब्धः, [238] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] प्रत वृत्यक [१९४१९६] श्रीआचा- | गिहाणि विपति, ताणि तु मिक्खाणिमित्तं पविसिर्जति, गिहतो गिहाणं वा अंतरं, ततो परं गामो, जेण वुचति-गामेसुवा, मण्णि-ID गृहान्तरादि रांग सूत्र | वेसणे साही पाडओ वा तेसिं वा, अंतरालं रत्थातियचउकचच्चरं वा, विहारभूमीगयस्स था, गच्छंतस्स वा, एवं विहारमीएवि. चूर्णिः | | उजाणतरेण उआणगतस्स वा, जहा वंदगस्स उवसग्गा कया उजाणाओ, सेसं गामंतरं तु गामओ गामाणं वा अंतर ५ उद्देशः गामांतरं, पंथं उपहो वा, एवं नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जाब रायहाणीसु वा रायहाणीअंतरेसु वा, एत्थं सण्णिगासो कायब्बो ॥२३५|| अस्थतो, तंजहा गामस्स य नगरस्स य अंतरे, एवं गामस्स खेडस य अंतरे, जो गारवदोसे ण पावति 'हं भो दुस्समए दुष्पजीवी' तहा विरते, तेसुवि णाम तस्स सण्णायगा कयरेसु कम्मेसु चिरमंतिताणि य, सो अविहवं, गामस्स खेडस्स अंतरे जाव गामस्स | रायहाणीए य । एवं एकेक छड़ेंतेणं जाव अपच्छिमे रायहाणीए य, एवं एकतेसु जहुदिउसु जणवयंतरेसु वा अद्धाणपडिवास्स IN अच्छतस्स या जाप काउस्सगं ठाणं वा ठियस्स संतेगड्या जणा लूसगा भवंति संतीति विजंतीति, एगतिया, ण सम्वे, जायंतीति जणा, तंजहा-नेरइया तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा देवा, तत्थ नेरइया उवसम्गे प्रति अवत्थू , सेसा करेंति, तत्थचि मणुस्सा विसेसेणं, तत्व भंगा-एमइया जणा एगइयाणं साहूणं अणुलोमे उवसग्गे करेंति, अत्थेगइयाणं पडिलोमे उबसग्गे, अस्थेगतिया जणा एगतियाणं अणुलोमेवि उवसग्गे, अत्गइया जणा णावि अणुलोमे णावि पडिलोमे, मज्झत्या चेव । तत्थ देवा | चउबिहा-हासा पयोसा वीमंसा पुढोमाया, वीमंसा जहा कामदेवस्स, माणुस्सगा चउनिहा-हाम्रा पयोसा बीमंसा कुसीलपडि सेवणा, तिरिक्खजोषिया चउबिहा-भया पदोसा आहारहेडं वा अवचलेणसारक्खणया, साणगोणादि भएण पदोसेण य, सीहहो बग्धा आहारहेउं, अबञ्चलेणसारक्खणयाए वायसमेण्ठाति । लूसंतीति लूसगा, सरीरलूमगा संजमलूसगा वा पडिलोमा, अणुलोमा | |२३५|| दीप अनुक्रम [२०७२०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [239] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२३६।। प्रत वृत्यक [१९४१९६] | तु एगतेण संजमलूसगा, अदुवा(अहवावि)फुसंति अह इति अणंतरे, जस्स अविसद्दा उपसग्गा ते फासा, जं भणित-आतसंवेय स्पर्शादि | णिजा, तेवि चउचिहा-घडणया थंभणया लेसणया पवडणया, अहवा वाइयपित्तियसिभियसनिवाइया । अहवा फुसंतीति फासा, सहनादि | सीतं उण्हं दंसमसगादि, ते फासे पुट्ठा अहियासते, हाकारलोबो एत्थ दहब्बो, सम्म अहियासते, संमंति रागदोसरहितो पसत्थ| अण्णतरज्माणउवात्तो, जहा फासा तहा रसावि, जाव सद्दा रागदोसरहितोवि अहियासिज, अतो भण्णति-ओते समितदसणो ओते णाम एगो रागादिरहितो, समितदसणे संमदरिसी अहवा संमितदरिसो, तं च मिच्छादसणसमितं, सो एवं समितदसणे | गामादि रीयमाणे दयं लोगस्स जाणिज्जा दया अहिंसा, लोगो छज्जीवलोगो, तं जाणिजासि जस्स लोगस्स जहा कजति, | जे दयतो गुणा इह परलोगे य भवंति, णचा, न तत्परस्य संदध्यात्, प्रतिकूलं यदात्मनः । एषः संग्राहिको धर्मः, कामादन्यत्प्रवर्तते ॥१॥ जहा खंदगसीसेहिं सुहदुक्खखमेहि सांबाणुगाहसमत्थेहिषि दयागुणं जाणित्ता दंडियस अहियासिय, एवं | जाव परिग्गरं जाणित्ता ततो बिरमति । ताणि एवं दयादीणि वताणि णचा धंमं कहेमाणोतिरिजति, सा य दया दब्वादिसु ।। | भवति, दव्यतो छयु जीवनिकायेसु, लोगग्गहणा दब्बग्गहणं । एवं च णातं भवति, जति कीरति, खिने उ पाईणं पदीणं सवाहि IAN | दिसाहिं सव्वाहि भणदिसीहिं य पाणातिवातं पडिसेधंति, कालतो जावजी, भावतो अरत्तो अदुट्ठो, अहवा सो एवं लोगस्स | | दयं जाषिचा गामादि रीयमाण इति अणियतचरित्ता पादीणं जाव ओहारणिं, केवलियपण्णसं धम्मं तित्थपभावणत्थं से आइ-15 क्वति, स इति णिद्देसे सो अणियतचारी मिक्खु भिक्खुणो अभिक्खुणो चा, किं अक्खाति ? जाव रायिभोयणं चएजतित्ति। 1 |से य पाणाइवाए चउम्बिहे दवादि ४, एवं जाव परिग्गहो, किडेति णामं इहपारलोइए पाणावाए अस्सवदोसे संवरगुणे य दीप अनुक्रम [२०७२०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [240] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९४ १९६] दीप अनुक्रम [२०७ २०९] आगम (०१) श्रीआधासंग सूत्रचूर्णि: ॥२३७॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], निर्युक्ति: [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] अक्खेवणादीहिं कहाहिं, वेतिजति अणेण वेदो, वेदेतित्ति वेदो, जं भणितं सम्मद्दिड्डी नाणी, अभेऽवि जीवातिपदत्थे वेदापयतीति वेदवी, नाणदंसणचरित्ततवविणए वा अहवा दव्वं खितं कालं पुरिसं सामत्थं च विदित्ता कहेतीति, णागज्जुणा तु 'जे खलु भिक्खू बहुसुत्तो बज्झागमे आहरणउकुसलो धम्म कहियलद्धिसंपण्णो खितं कालं पुरिसं समा सज्ज के अयं पुरिसे? कं वा दरिसणं अभिसंपण्णो ? एवं गुणजाईए पभू धम्मस्स आघवित्तए भणितो वेदवी, किं तेसिं कहेइ सो वेदवी गिहत्थो साहू कारणा एगो गच्छसहगतो वा अण्णाणिवि तजातीयाणि पुत्र भणिताणि पदानि विभासियच्चाणि आयर ( उवरय) दंडेसु वा जाव सोबडिएस वा सोतुं इच्छा सुस्सा समृसुसमाणाणं कहिजति । साहु आदितो वा वेदिते पवेदिते, तं च इमं कहेति संति विरति उवसमं णिव्वाणं समणं संतिं जं भणितं अहिंसा, लोगे वि बनारो भवति-संतिकम्मं कीरंतु, यदुक्तं भवति - आरोग्गं अव्वाबाहं, विरतिगणा सेसाणि वयाणि गहियाणि, उवसमगहणा उत्तरगुणाण गहणं, तंजहाकोहोवसमं० लोभोवसमं, अणुवसंतकसायाणं च पव्वयराइसमाणेणं इहलोगपरलोगदोसे कधेति, इहलोगे डज्झइ तिवकसाओ० | परलोगे णरगादि विभासा, णिच्युति णिवाणं, तं च उवसमा भवति, इह परत्थ य, इह सीतिभृतो परिनिव्वुडोच, तहा 'तणसंथारणिवण्णो परलोगेवि मोक्खो, तंजहा- कंमविवेगो असरीरया य०, सोयवितं सोयं, दब्बे भावे य, दव्वे पडादीणं भावे अलुद्वता, लोगेवि बत्तारो भवंति - सुतिउ सो, गवि सो उक्कोडं लंचं वा गिण्हेति, अजया जातं अजवितं-अमाता, मदवाजातं मदवितं, लाघवातं लाघवितं, जं मणितं - अकोहसं । एवं पच्छाणुपुच्चीते केसिंचि, अण्णे तु असुतिकलसो तु कोहितिकाउं को होडवि होतु, अपसण्णमणा कजाकजं ण जाणति तेण अभूतिकोहो, सोयवियत्ता अकोहसाऽऽहता, अणाणुपृथ्वीकमेण तु अजवितं मद मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [241] धर्मकथा ॥२३७॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९४ १९६] दीप अनुक्रम [२०७ २०९] श्रीआचारंग सूत्रचूर्णिः ||२३८|| “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], निर्युक्ति: [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] | वितं लाघवितं, लाघवाजात लाघवितं यदुक्तं भवति- अलोभो, अणतित्रातियं नाणादीणि जहा पण अतिवयति तहा कहेति, अहवा अतिपतणं अतिपातो, किं अतिवातेति १, आयु सरीरं इंदियं बलं पाणातिवातो, ण अतिवातेति अणतित्रातियं तं तु सम्देसिं पाणाणं, ण तु जहा कुलिंगीणं अम्हे न तब्बा, अत्रे तब्बा, एवं पभूताणं जीवाणं सत्ताणं अतिवातो ण भवति तहा तहा कहे, इमं च अक्षं | विचितेति, तंजहा के अयं पुरिसे ? कं वा दरिमण० अहवा 'दक्षं खित्तं काळं' गाहा, भिक्खू पुब्वभणितो, धम्मो अगारधम्मो अणगारधम्मो य अक्खाइ अति-परुविजति, सो एवं अणुवीति मिक्स्यू धम्मं कहेमाणो किं अनं कुजा १, बुधति-णो अप्पाणं आसादिना णो परं आसादिज्या अहवा एतं च अणुचितेति जेण णो अप्पाणं आसादिजा, अश्लाघया अप्पा चैत्र घेप्पति, तथ्वतिरितो परो साहू, आयं सातेतीति आसातणा, लोहगा लोउत्तरा य, एकेका दव्वे मावे य, लोइया दव्वे सचिचादिदम्बआसायणा, भावे तु जस्स जतो विआइलंभो भवति ततो विणयातिखलितस्स आसायणा भवति, लोउचरिया दब्बे शरीरोबगरणाण | अष्णपाणातिसातणा दव्वासातणा, भावे नाणदंसणचरिततवविषय० से धम्मं कहें तो तहा कहेति जहा आसायणा ण भवति दुविहावि, दब्बे ताव तहा कहेति धम्मं जेण आहासदिआयसायणा न भवति, तंजहा - भिक्खुस्स अणुवरोहेण कहेयवं, पिंडियाए वेलाए हिंडतो ण लम्भति अपजसं वा, तेण विणा जा हाणी, अदवा के पुरिसे कं वा दरिसणं० एवं भावं कयन्त्रं, इधरा हि उद्रुट्ठो समाणो अकोसे तहानुसेद्दिज या विच्छिदिज या अवहरेअ वा, तेण तस्स सरीरे दव्वामायणा भवति, उद्रुट्टो वा भिक्ख पडिसेधेजा, आहारामायणाओ जा परिहाणी भावासायणा, वहा धम्मो को जहा से परिहाणी भवति, जहा य सुत्तस्थ तदुभयं आपपरतदुभयस्स सीवंति, सारण वारण चोषणा पडिचोषणा ते यत्थे, भणितं च-जोगे जोगा जिणसास मि०, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [242] आशातनावर्जनं ४२३८॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९४ १९६] दीप अनुक्रम [२०७२०९] श्रीचा रोग सूत्रचूर्णिः ॥२३९॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] ण य तारिसिताए इरिथयाए धम्मं कहे जतो चरितभावासायणा भवति, वक्खति य-अवि साविया पवातेण०, एत्थ भंगा, दव्वासायणा कति भवति भावासायणा, चारि भंगा विभासियन्त्रा णो परं आमाएजा, धम्मं कहें तो अणुधम्मकाही निंदति, सो वरातो धम्मं चैव ण जाणति तो किं कहेदिति ?, गवि सो जहा अहं ससमयपरसमपवियाणओ, ण य वादं कहेति, णय अक्खितो, प्रत्ययितुं समत्थो, लजालुओ वा सो ण सडिओ ण हेडओ न वा सुमुहो एवं आसादेति, जाइकलसन्भावा दीहिं वा परं आसादेति, परावताओ वा इत्थियाओ पुरिया वा भणति णवि सुलभो सुसादुममागमो, अचिन्तं सरीरेणं धम्मकहीणं | तेण मुहूचंतरं सुणद, ततो ते अणुवरणाए सुणेति, पच्छा इत्थिया भत्तारेण ईसायमाणेणं अणिस्सोयमाणेणं वारं २ भणति, ण करेसिति इम्मति, तो पितिमादिणा, भावासायणा जो अनहेउं वा कहेति, अइवा तेण कहेति जहा सम्मदिड्डी वा थिरीभवति, जहा सक्केति तो चउन्निहाए कहाए कहेति, अह अक्खिविऊणं णेतरि पुणो विक्खेविडं सम्मं नाणे चरिते तवे विणए, ततो तेसिं सुट्टयरं भावो सादितो भवति, संसारसमुदं तेण पडिन्तो समूढो भवति, कुसत्थभावितमतियस्स अण्णतित्थियस्स पुरतो परिसाते असमत्येण ण भणियां-सच्चे सेसा कुसिद्धतगा, पुण अक्खेवे सति अपचाईतस्स परिसाए सुठुपरं मिच्छतं भविस्सति, | सम्मदिट्ठीणं ओभावणा हीलणा य, बालमरणाणि य पसंसंतस्स दव्वभावासादणा भवति, जेण सुतेण तेसिं अन्नपरं मरिज, अभूत| उन्भावणं च मिच्छत्तं णो पाणाई भूवाई जीवाई सत्ताई आसादेज, पंथं गच्छमाणो पुढवि०, तत्थ आउतेउवाऊवणप्फइ छण्ई कायाणं अनंताणं आसाते, पुढविमादिसु वा कायेसु ठितो ठियस्स वा कहेति, धूमिताए मिण्णवासे वा गडते पाणाई भूयाई - सत्ताई आसादेति, अत एवं भष्णति - णो पाणाई णो भूषाई णो जीवाई को सत्ताई आसादिज, सो एवं आवासात - अणासायमाणे मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [243] आज्ञातनावर्जनं ॥२३९॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] श्रीआचा आशातना वर्जन रांग सूत्रचूर्णिः प्रत वृत्यक [१९४१९६] | किंचि जति लोइया कुप्पावणिया वा दाणधम्म कूवतलागादीणि वा पसंसति तो पाणभूतजीवसत्ता आसादिता भवंति, अह भणतिदाणे दिर्जते कूवतलाएहिं वा खणतेहिं छकाया वहिजंति तेण अप्पणिग्गहो सेयो, अतो अंतराअदोसासायणा तजीवणाइ य पाणि भूतजीवसत्ताणि आसादियाणि भवंति, भणियं च-'जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं' तेण जह उभयमविण विरु॥२४॥ ज्झति तहा कहियव्यं, जह पवतणबिंदुपदाण अञ्जापदाण सरियाए वा (1) अतो णो पाणभूतजीवसत्ता आसादिता भवंति, जो य एवं कहेति से अणासादिते, अणासातयसीले अणासातयगो, सता पाणादीणं णचा इति वदृति, अणासातमाणोति तहाण कहेति जहा पाणभूयजीवसत्ताणं आसायणा भवति, अप्पं वा, अहवा धम्म कहेंतोण किंचि आसादए अचं पाणं वा, जंभणित-तदवाण कहेति, IMण तहा कहेति जहा सो पाणभृयजीवसत्ताणं आसादेति, कहते तु दाणघम्मे पसंसिते पाणा भूते चा हंति, अतो तदासायणापडि सेहोत्ति, णवि तदासायणा कया भवति, सो एवं अणासादतो, अणासायमाणो य धम्म केसि कहेंति ?, वुचति-बुज्नमाणाणं या पाणाणं चहिजमाणाणं वा संसारसमुदंतेण पाणाणं सरणं गई पइट्टा भवति जहा से दीवे असंदीणे, जहा सो दव्वदीवो आसास पगासदीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा भवति एवं सोऽवि अप्पणो परस्स तदुभयस्स आसासदीवो भवति पगासदीयो य, जहुद्दिद्वेण कहाविहाणेणं कहेंतो केति पब्बावेंति केति सावते करेति, तहेति अहाभदए करेति, आगादमिच्छादिट्ठीवि मउईभवंति, तथा मुणिति PAतित्थयरगणधरो वा अण्णतरो वा साहू कम्मबललद्विसंपन्नो एवं से उहिते एवमवधारणे से इति मोजाणओ कहं कहेति गिहा दीणि चंदना मोक्खगमणे उद्वितो नाणादिपंथपट्टितो जस्स अप्पा स भवति उट्टिते उद्वितप्पा, अणिहेतिण णिहेति नयोपिरियं | पणिहंति जंच रागदोसेहिं कम्मविधुणणस्थं नाणादिपंधए ठितो मेरूप वादेण ण कंपिञ्जति परीसहोवसग्गेहिं अतो अचले, दीप अनुक्रम [२०७२०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [244] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] अबहिर्ले श्यादि ॥२४॥ प्रत वृत्यक [१९४१९६] श्रीआचा- चलति चालयति वा चलो, जीवायो व अट्ठविहं कम्मसंघातं चालेतीति चलो, चालितेनि वा उदीरितेति वा एगट्ठा, अवहिलेस्से रांग पत्र |परिवए दबलेसा सिलेसादि, भावे परिणामो, संजमनिग्गतभावो वहिलेस्सो भवति, अबहिलेस्सोण पहिलेसी, अहवा अप्पसत्थाओ।" चूर्णि | लेस्साओ संजमस्स बाहिं वहंतीतिकाउं सो बहिलिस्सो भवति, नो पहिलेस्सो अबहिलिस्सो अणुलोमेहिं पडिलोमेहिं उपसग्गेहि उप्पण्णेहिं अबहिलिस्सो, अणाइलभावो अणिग्गयभावो, सचिचो अबहिलिस्सोचि एगट्ठा, जेवि ते मामाणुगामं दहजतेणं आय| रिया अणारिया वा धर्म गाहिता तेहिं बंदिजमाणो पूइजमाणो य आढायमानो अणादाइजमाणो वा तत्थ अपहिलिस्से चेव परिFilबतिज, समता वते परिवते, यदुक्तं भवति-ण कत्थति पडिबज्झमाणो, एवं सो अणियतविहारी परीसहउबसग्गसहो संस्खाए। पेसलं धम्म संखाए परिगणित्ता, जं भणितं-णचा, किमिति?-पेसलं धम्म, पीति उप्पाएतीति पेसलो, धम्मो दुविहो-सुयधम्मो | चरितधम्मो य, जो चुनो वुचमाणो वा, दिटिमंति अविवरीतं दरिसणं दिट्ठी सा जस्स अस्थि जहिं वा विज्जति सो दिट्ठिमा, एवं जाव विणयवं परिणिव्युडित्ति विसयकसाएहिं उवसमतो, दवणिव्वुडो अम्गी सीतीभूतो, रागाउवसमाओ य णिवुडगा| जय भवंति, भावे अकसाओ सीतीभूतो परिणिन्बुडो य, तंणिग्गो, परमो वा तणुयकसाओ वा असंजमविवजयओ वाणिवुत्तो, | परिणिव्यापमाणे वा परिणिबचेति वुचति, जो पुण असंखाय पेसलं धम्म मिच्छविट्ठी अपरिणिबुडे भवति, तम्हा संगई पासह | अहवा सन्न एव एसो गिहतराओ आरम्भ दुविहो उपसम्गसहो भिक्खू अक्खाओ धम्मकहलद्धिसंपण्णो, तम्बिवजए तु संगति | पासह, तम्हा इति जहोदिट्ठगुणविवजयाओ सद्दाईणं संगो, दन्वे पंकादि, पंचविहविरजतो वा, तदुवचितं कम्म संगो भवति, | संगोत्ति वा विग्घोत्ति वा वक्खोडित्ति या एगट्ठा, कस्स?-मोक्खस्स, जाणह वा संग-गंथं पासह, यदुक्तं भवति-कम्मं संगर्थते, एवं दीप अनुक्रम [२०७२०९] ॥२४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [245] Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] कामविषण्णादि प्रत वृत्यक [१९४१९६] श्रीआचा- संगिणो, गंथे पढिता णरा कतरे, ते जेहिं गणियगादि पंचवि धुया, अप्पाणं वा पंच गाहितो, तेहि य अचिहिते हिते रागद्रोसारांग सूत्र दिएहिं गढिवा बद्धा नरा विसन्ना कामविप्पिता विविहं सन्ना विसण्णा, दव्वे पंकादिविसण्णा भारवाहपरिया चा, भावसन्ना चूर्णि ॥२४२॥ | नियगा पंच, एयाए दुविहाए कामविप्पिता, विग्पितनि विप्पितत्ति वा एगट्ठा, दब्वे खंभादिविप्पिता दुरुद्वरा भवंति, भावे दुविहकामासनचित्ता, सयणधणादिणा मुच्छिता वा कामा, जेहिं वा सारीरमाणसेहिं वा दुक्खादी, माणसेहिं इह विप्पिता परलोएविपरहि | डंडणेहि य जाब पियविष्पोगेहि य विपिस्सिंति, जंसि इमे लूसिणो णो परिवित्तसंति जंसि जत्थ, इमे इति जे वुत्ता | गंथेहिं गढिता नरा, अहवा इमे मिच्छादिट्ठी असंजतमणुस्सा, लूसंतीति लूसगा, पंचगस्स वा लूसगा भंजगा विहारगा एगट्ठा, | जो परिवित्तसंति-णो उब्वियंति, णो वीभेति, लूपगत्ता ण परिविचसंति, तदुवचियस्स वा कम्मस्स नरमादिभयस्स वा, तहा ANIगंधाओ कामेहितो, पढिजह य-तम्हा लूहाओणो परिवित्तसिजा जम्हा गंथेहिं गहिता णरा विसना इह परत्य य दुक्खेहि |च विपिजंति तम्हा तुम लूहातो णो परिवित्तसिज, दब्वे जं नेदविरहितं दध्वं तं लूई, भावे रागादिरहितो धम्मो, तत्थ रुक्खत्ता |ण कसादि वज्झति, भावरुक्रवत्थं दबक्खाओ ण चिचसे, भणियं च-अतिणिद्वेण चलि तिकतोसो लहाओ ण परिवित्त| सेत्ति,णणु जस्सिमे आरंभा सबओसुपरिणाता भवंति, जस्सेति जस्स साहुस्स, कतरे आरंभाः पुढविकाइआरंभा आउका इयारंभातेउकाइयारंभा वाउकाइयारंभा वणस्सकाइयारंभा जाव तसकाइयारंभा, जह सत्थपरिणाए एकेकस्स बहवे आरंभा भणिता | तंजहा उपभोगे य सस्थे य, अहवा णामादिआरंभा, णामठवणाओ गयाओ, दब्वे कायारंभो, भावे 'रागादीया तिपिण'गाहा, | सबतो इति सिचं गहियं, गामे वा जाव सब्बलोए, सन्नता इति सब अप्पत्तेण, भावे गहिते कालोवि तत्थेव, जाणणापरिणाए दीप अनुक्रम [२०७२०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [246] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] कषायशमादि श्रीआचारांग खत्र चूर्णिः • ॥२४॥ प्रत वृत्यक [१९४१९६] वा, पथक्वाणपरिणाए पडिसेधिता, एवं लूदाओ णो परिवित्तत्थो भवति, अहवा से वंता कोहं च माणं च मायं च से इति | से रुक्खातो अवितस्थो, सपओ सम्बअप्पत्तेणं सबआरंभपरिणाओ धुणणाधिगारो अणुपत्तति, तेण पंता कोहं च, जमणितंधुणित्ता हता, कोहमाणमायालोभनि वत्तम्ब, जं एकेकस्स उच्चारणं कीरति तंजहा-जावंतिज जइ ब, एकेको कसायो चउविहो, | कसायो य एकेकस्स खमणे कीरति, तंजहा-अण मिच्छ मीसं अट्ठ णपुंसिस्थि वेद लकं च। आवस्सए, संवरेण निरूभित्ता तवेण | पुथ्वउबचितं कर्म खवित्ता, एस तिउद्दे एस इति जो साहू जहुदिहकमेणं णियगादि विधूता बोडिअमामा, तुट्टो बोडेति बोडइतवा, तं त्रोटये किमिति ?, कम्मबंधणं, उभयथावि एत्य समासो, कमबंधणं जस्स हूं, कम्मवंधणाओ वा तुट्टो, तित्थगरग-1] | गहरेहिं विविहं अक्खाओ विक्खाओ, इति एवं, वेगि(वेमि)पंचासवनिरोहसामत्था तुट्ठति, केचिरं एवंविहे गुणे धरेतेण कम्माई || | तु तुडेति तिव्बाई , भन्नति-कायस्सवि ओवाए कम्मसरीरस्स भवोवनहकम्मचउक्कयरस वा वियोवाते विविहरूस जा ओरा| लियतेयाकम्मसरीरकायस्स अचंतविओवाते, संगमतीति संगामो, संगामस्स सीसं संगामसीसं, दव्वसंगामो बइवीरपट्टणं, तंजहारही रहेहिं हस्थिगतो हस्थिगतेहिं एवं जाव पदातिभावे, परीसहरिउजयसंगामसिरं अट्ठविहकम्मारिसंगामसीसं, जहा दग्यसंगामसिरे पराजिणिता इढे भोगे पावति एवं कम्मारिजयाओ को गुणो', भण्णति-से हु पारंगमे मुणी स इति सो दवभाव| जुज्झे कायवियोवाता परीसहरिउं जेता, पारं गच्छतीति पारंगमा, दबपारं नदीसमुद्दादीणं, भावे जहुदिट्टनियगादि पंचगं धुणित्ता |णाणादिपंचगपोतारूढो संसारसमुद्दपारं गच्छति, मुणी साहू आयरिओ अन्नतरोवा, सो एव परीसह अरी जिणति संसारपारं गच्छति, | कदा-अवि हण्णमाणो अवि पदार्थसंभावने, भण्णति-हण्णमाणो फलगावयट्टी जहा उभयतओ फलतं अवगरिसिजमाणं दीप अनुक्रम [२०७२०९] ॥२४३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [247] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९४ १९६] दीप अनुक्रम [२०७ २०९] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णि ८ अध्य० ॥२४४॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२५२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९४-१९६] अवगरिसियं च फलगा भवति, एवं सो बाहिर भंतरेण तवेण चाहिं अंतो य अप्पाणं अवकरिसति, तंजहा—बाहिं सरीरं अंतो कम्मं, दुविहेहि य उवसग्गेहिं अप्पाणं अवगरिसति, सत्थेण वा तच्हिमाणे जोतेण वचारणा वा हंममाणो कम्मत्रोडणातोण | णिब्बिञ्जति-न नियतति, जह बाहिरे सरीरे हम्ममाणे ण णिब्विजति, कालोवणीते कालं उचणीतो कालोवणीतो, कालं मरणकालं तं तु पाउवगमणं भत्तपचक्खाणं वा, एकेकं वाघातिमं च निव्वाघातिमं च, कालोवणीतो, गहणे वाण अप्पत्ते काले मरणस्स उअमियन्वं एत्थ णागज्जुण्णा सक्खिणो-जति खलु अहं अपुणे आउते उ कालं करिस्सामि तो परिण्णालोवो अकित्ती दुग्गतिगमणं च भविस्सइ, सो एवं कालोवणीतो पातो० भत्तपाणपडियातिखित्तो वा कंखिञ्ज| पत्थेज पीहिअ अभिलसिजा जाव करिसणो कम्मक्खओ, कालमिति पंडियमरणं, ण तु तेणं णित्रिष्णो समाणो बेहाणसं गामगद्धपट्टे वा अण्णतरं बालमरणं वा जाव आउभेदे जाब परिमाणे अवहारणे वा भेदणं भेदे, कतरस्स ?, आउय कम्मगलरीगस्त, तदववद्वाणि चिट्ठति, यदुक्तं भवति-जीव सरीरवियोगो, तं जाव सरीरभेदो ताय कालं कंखिञ्ज, सो य देहवियोगो खिप्यं चिरातो वा होजा, ण य अष्णतरं आससापयोगं आसंसेजां कम्मधुयं भवतीति वेमि ।। षष्ठमध्ययनं समाप्तं ॥ ओवातो महापरिणाह संबंधो पुव्वभणितो, णिक्खेवणिज्जुत्ती, तंजदा - मोहसमुत्था परी महोवसग्गा परिजाणियव्वा, परिष्णाय || कम्मस्स णिजाणं भवति, यदुक्तं भवति-मरणं संपतं, महापरिण्णाण पढिज्जइ असमणुग्णाया, तेसिंपि घुणणं विवेगं च करेइ, अयं सुत्तस्स सुचेणं - कालं कंखिज जाव सरीरभेदो, तेणं सुत्तेणं, अवि सुनाओ आरंभ सव्वं संबज्झति, तत्थ आदिसु तेण सह संबंधो तंजहा 'इहमेगेसिं णो सण्णा भवति, ण सव्वैसिं, तहा इहमेगेसिं सण्णा भवति जहा पातोत्रगमनं भतपञ्चक्खाणं वा ठितो कंखिञ्ज कालकांक्षि तादि [248] ॥२४४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: *** पूर्वकालात् अध्ययन - ७ व्युच्छिन्नम्, वृत्तिकारेण स्वयम् अस्य अध्ययनस्य विच्छेदस्य कथनं कृतमेव | परंतु चूर्णिकारेण इह अध्ययनस्य क्रमं सप्तमं एव लिखितम् तत् चिन्त्यम् | [ यहां चूर्णिमें इस अध्ययन का क्रम ७ लिखा है, वृत्तिकारने यहा स्पष्ट लिखा है कि अध्ययन-७ विच्छेद हो गया है, चूर्णि और वृत्ति दोनोमे निर्युक्ति और सूत्र तो समान हि है सिर्फ़ क्रममे विसंवाद है |] अष्टम अध्ययनं 'विमोक्ष' आरब्ध:, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- | कालं, सका पुण सुहेण धम्मोत्तिकाउं भत्तपञ्चक्खाणं चेष णिचंति, जेवि इच्छंति तेसिपि जहा अम्हं सुद्धं परिकम्मेउं च पचक्या-100 रांग सूत्र- IMI इअति तहा तेसिंणो सण्णा भवति, जह य अहं सरीरमेदाओ मोक्खो भवति, कर्मबन्धनबद्धसद्भूतस्थान्तरात्मनः सर्वकर्मविनि धिकाराः चूर्णिः | मुक्तो मोक्ष इत्यपदिश्यते, एवं अण्णेसिं णो सण्णा भवति, तेसिं सन्नाणलोवाण अणवो भवति, एवं आदिमसुत्ताओ आरम्भ |N ॥२४५॥ जाणि पसत्याणि उपदंसियाणि सुत्ताणि ताणि सदहमाणो आयरमाणो य अपसस्थाणि वज्जंतो कंखेज कालं, जहा य आदिमतस्स | मंगलमुत्तस्स अवसानेण सुत्तेण सह संबंधो जोइओ एवं अबेहिवि सुचेहिं सह संजोएयचं, तंजहा-अट्टे लोए परिजुण्यो इहमेगेसि | णो सण्णा भवति, एवं सब्बसुत्ताणि जोएयवाणि, जहा ध एतं आदिम मंगलसुन सधमुत्तेहिं सह संबद्धं एवं अण्णाशिवि मुत्ताणि | अण्णोण्णं सह संबद्धियवाणि, भणितो संबंधो, अणुयोगदारा परूवेऊणं दुविहो अत्याहिगारो-अज्झयणत्याहिगारो य उद्देसस्थाहिगारो य, अज्झयणस्थाहिगारो पुथ्वभणितो,'णिआणं अट्ठमए' अहवा विमोक्खेण अहिगारो, उद्देसत्थाहिगारो-पहमे असमणुग्णातं २५२-२५६।। तिण्डं तिसट्ठाणं कुप्पावयणियसताणं विवेगो कातव्यो, आहारउवहिसेजाओवि तेसिं संतियाउ वजेयवाओ, किं | पुण जे तेसि दिट्ठी ?, नाणादिपंचगे समणुण्या, ते पासत्यादि चरित्ततरविणयमुअसमणुष्णा, अहाछंदा पंचसुवि असुहरूबा, तत्थुबसग्गा, बितिते अप्पितविमोक्योति, णिमंतिज्ज ताव पडिसेहंति, पडिसेहेंतेमु जति णाम कहिंचि रूसति ताहे तेसि सिद्धतसम्भावो कहिज्जति, ततियंमि अंगचिट्ठा हेमंते भिक्खं हिंडतं सीतवेवमाणगातं जति कोइ दुट्टत्ताए पुच्छइ-किं ते सीतं | अदुव गामधम्मा बाधंति? जेण कंपसि, तत्थ तस्स सम्भावकहणं कीरति, न गाम बाधंति, सीतं मम कंपति, उद्देसंमि चउत्थे । | वेहाणसं केलं, पंचमए गेलनं कंठथ, स एव य उवगरणानां नाम 'छटुंमि उ एगत्ते'उबगरणमोक्खं तम्हा णाणिणं एकत्वं वक्ष्यति,0॥२४५॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'असमनोज्ञ विमोक्ष' आरब्ध:. [249] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४] श्री आचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥२४६॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५३-२७५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] 'एकोऽहं न मे कश्चित् नाहमन्यस्य कस्यचित् । इंगिणिमरणं अणुपविसेत्ता लाभं न लाति, अह स्वयं अनंतर पायोवगमकार्येव जो वयं चरिउं, 'अट्टमे अणुपुवविहारीणं' कंठलं, णामणिफण्णे विमोक्खाययणं, सो छन्निहो णामं उचिओ मोक्खो दवमोक्लो घ गाहा || २५७|| दवविमोक्खो णिगलातिएहिं० गाहा || २५९|| दव्वस्स दव्वाणं, तत्थ दव्वस्त बद्धस्स गोण| पडिनिमस्स वा बहूणं वा दव्याणं, जो जेण दव्वेण मुच्चति, बद्धो सचितेग अचितेण वा दब्वेहिं सचितादीहिं बहुणिगले हिंतो, बहूहिं निगलेहिं गलसंकलहत्थं दुगादीहिंनो या, खेतविमोक्खो चारगाओ विमुचति, जो वा खित्तं दाऊणं विमोएति, अहाकष्पगं सव्वता वा, काले जो जहिं काले मुञ्चति, दुब्भिक्ालकाला ओ वा मुको, मारिजिङकायो वा कत्तिमाइएस अमाघाते घुट्टे मुचति, दुविहो उ भावमोक्यो ।। २५९ ।। देशविमोक्खो दुविदो-सावगाणं साहूण य, सावगा दुविद्या-दंसणसावगा य गहियाणुब्वया य, दंसणसावगाणं पढिमिल्दुम कसायविमोक्खो, सामिग्गहाण तु अट्टहं कसायाणं विमोक्स्खो, साहूणं केसिंचि वारसह कायाणं विमोक्खो, केसिंचि 'दो दो०' एवं खवगसेढी उवसामगोदी य रखेऊगं जो जरिए कम्मेदिं विमोक्खो, सख्यचिमुका सिद्धा, बद्धस्स मोक्खो भवति तेण बंधो भंगियो, केप विषदो कर्हि वा १, तेण पोग्गलपातेण सह संजोगा, भवियं च-सव्वआतप्पदेसेहिं अनंताणंतष्णदेना, कहं बज्झति ?, 'कहणं भंते! जीवा अट्ठ कम्मपगडीओ बंधंति, गो० अत्तस्स रेणु उवलग्गते जहा अंगे, अहया रागेण य गाहा ॥ २६०॥ तथा सकपायत्याज्जीवः, अहंवा बद्धपृधिनिकालिएत्ति, एवं बंधो भणितो, इदाणिं मोक्खे, बंधवियोगो मोक्खो भवति, जीवस्स अत्तजणितेहिं गाहा ।। २६२॥ कंठ्या, भणितो भावविमुक्खो, भावमोक्खस्स | उवाओ भत्तपरिण्णा गिणि० गाहा ॥२६२॥ चरिममरणंति-चरिमभवसिद्धियमरणस्त्र संसारविमोक्खो भवति, तं पुष्प एकेक मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [250] मोक्षनिक्षेपाः ॥२४६॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] मरणविभक्तिः श्रीआचा- गंग सूत्रचूर्णिः ॥२४७॥ प्रत वृत्यक [१९७२०१] मरणं दुविहं भवति, तंजहा-सपरकम अपरकम च, एक दविह-वाघातिम निवाघाइमं च, सपरकामे य. गाहा ॥२६३।। सुत्तत्थजाणतेणंति जहा सुत्तत्थतदुभयणिम्मातो भवति, ततो तिहं मरणाणं अनतरं अभुवगच्छति, अणिम्मातो वा गीयत्थं | | अब्भुवगच्छति, सपरक्कममादेसो गाहा ।।२६४|| सुदिणिमित्तं अज्जवतिरेहिं सपरकमेहिं चेव होतपहिं पारिहदगिरिमि | मर्च पञ्चक्रवाय, पाउवगमणमि तहा तहा तेण पगारेणं पाओवगमणं, किंचि तहा चेव सपरकम्मस्स भवति, अपरकम्म आदेसो| ।।२६५।। आदेसोणाम दिटुंतो, उदहि णाम अजसमुद्दा चुचंति, ते य गतिदुबला चेव आसि, पच्छा तेहिं लुंघालव(जंघाचल)परिहीणेहिं गच्छे चेव भत्त्रं पञ्चक्खातं, पाउवगमणंति सहा तहा येव जंघाबलि परिहीणो उबसग्गरसेव एगते पाउवगमणं पडिवज्जति | अणीहारिम, इदाणिं वाघातिमं युवति, वाघातिमं आदेशो॥२६६।। अवरदो णाम आरद्विया वा से उहिता अतिगिच्छा, विसेण लद्धो, वालेण वा भक्खितो, रिछेण वा चिरुगितो, तोसलिते वा महिसीते-हतो, तोसलीए बहुउदए बहुईओ महिसीओ अडवीए चरति, पिंडार ण मारेंति, अण्णं जणं मारेंति, तत्थ ताहि एको साहू दिट्ठो, केइ भणति-तस्सवि तोसलितो चेवणाम, सो ताहिं | दुहमहिसीहिं पाडेउं सुरेहि य तुंडेण य संचुन्नियंगमंगो अतिवेयगाए वाघातिमं पचक्खातं, बुनं वाघातिम, अणुपुब्वियं तु अणुपुषिगमादेसो गाहा ॥२६७।। पवजचि 'पव्या सिक्खापय अस्थगहणं च तत्थ अत्थग्गदणं णिकापिया य सिस्सा कहणति ताणि सिस्साणं कहियाणि, णि फायिया य सिस्सा गाहा । पच्छा जइ आयरिओ ताहे अण्णं गणे ठवेऊणं णीति, विरुज्झितो समाणो गणं, ण जाव आयरिओ ठविरलतो, जो पुण अणायरिओसोवि जति उवज्झातो ताहे तं तु उवज्झातनं णिक्खि| विउं णीति गुरुविसभितो, एवं पटंति-धेरा गणावच्छेतियावि, मिक्खुको वा विसज्जितो गणागो णितो, अब्भुञ्जयमरणकारणा दीप अनुक्रम [२१०२१४ |२४७|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [251] Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः प्रत ||२४८॥ वृत्यक [१९७२०१] | आहारोबहिसेज्जाओ विविहिं तिण्णि, जं भणित-णिचं आसेविज्जंति, भत्ते वा पञ्चक्खाते पाणगस्स आहारेण असणखाइमसाइDD मेत्ति सेसो तिविहो आहारो भवति, तस्स तियस्स मुको, अन्भुज्जतमरणं पुण अन्भुवगतो पढमं चेव सलेहं करेति, दवसलेहणाए। | भावेण य, इहरहा विराहेति, तत्थु एको दबसंलिहितो ण पुण भावेणं, आयरिए उवद्वितो विसज्जेहित्ति, मते, पच्छा आयरिएण पडिचोईओ-संलिहाहि ताव, सो कुवितो अंगुलि भंजेउं दरिसेति, पुलि(एत्तिपहिं किं संलिहितो ण वित्ति ?, गुरुणा भण्णतिअतो चेव ण संलिहितो ते भावी जेण कुप्पसि, पच्छा एत्य तिक्खसीतला आणा वुचति, जहा तेण वेज्जेणं रणो, एको विचंडको | राया, किरियं करेंतोवि अप्पणिज्जेहिं वेज्जेहिं नो पिल्लियाए मुचद, आगंतुओ विज्जो आगंतुं भणइ-अहं एतं पउणावेमि ते, जति पुण एमेकं गुलियाणिवातं सहसि, ण वा ममं महत्तमित्तं मारवेसि, अन्भुवगते अजिताणि, तिब्बवेयणडो भणति-मारेह २ | एतं वेज, फुट्ठाणि मे अच्छीणि, एवं सा तिक्खा आणा सीयला भूता, जेण पुर्व चेव बुता मुहुत्तमझे मते भगंतेवि ण मारि ज्जह, मुहुर्ततरेण पल्हाणाणि, गट्ठा पेल्लिता, पूजितो वेज्जो, एवं चेव तम्हाऽऽयरिया तिक्खं आणं पउंजंति, तुमं पडिचोयणं ग | सहेसि, तंबोलपत्तसरिसो अण्णेवि विणासेहिसि, मने पञ्चक्खाते समाणे मावाओ असिलीढो रुसमाणो, तेसु कारणेमु दमोवि । असंलिहितो एवं चेव वुच्चति, इच्चेतस्स विवेगो कीरति, अन्नगणातो आगतो ण पडिबज्जिज्जइ अतो विवेगो, अह सगणे व तो से ण ताव पञ्चक्खिज्जइ अतो विवेगो, घट्टणत्ति एवं घट्टितमट्टितो कज्जति, एवं आतीयेति तक्खणाए पुज्जति, जइ पुण एवं घट्टि जंतो वा आउद्दति अकरगाए अब्भुतुति पच्छित्तं पडिवज्जति तहा से पसाओ कीरति, अतो तिक्खा आणा सीतलीभवती, णिप्फा- इया य सीसा० गाहा ।। सुत्तत्थतदुभयेसु णिफातिता, सउणिसि जहा से दियापोते अंडाओ आरम्भ जाव सर्य पविष्णो ताव दीप अनुक्रम [२१०२१४ ॥२४८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [252] Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४] श्रीआचा राग सूत्रचूर्णिः ॥२४९॥ "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५३-२७५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] सारक्खति एवं उपसंगिहितो णिम्माओ विमजितो पारस संत्रच्छरियं संलेहिं चत्तारि विचित्ताई गाहा ॥ ॥ चत्थछट्टमाईहिं विचितेहिं तवोकम्मेहिं, पारणते विगतिरहितेमु वा गिन्धिगतितेहिवि भवति, पंचमाओ वरिसाओ आरम्भ जाव अट्ठ ताव विचिचाणि चैव तवोकम्माणि करेति, पारणाए पुण ण विगई पडि सेवति, दो संवच्छरे णवमदसमेसु संवच्छ रेसु पक्वंतरएण आयं विलेण परकमति, पक्खदिवसं चउत्थयं पारणाए आयंबिलं, ताहे एकारसमं वरिसं दो भाए, तत्थ आदिलेसु छम्मासेसु णातिविगि उत्थछट्टमं तवं काउं परिमियं आयंबिलं मुंज, बारसमं संच्छरं सव्वं चैव वरिसं कोडिस हियं काउं णिचं चेव आर्यबिलस्स कोडियमिति, पच्छा आयरिए पुच्छिओ सति परकमे एएण कमेण लहुं मुनति अपरिकिलिट्ठो, तं जहा- किइ णाम सो ?, | तावाहारेणविरहितो० गाहा ।। पारणए पुण अप्पाहारो, बचीसं किर कवला०, पमाणाहारो तं हासतो जान एको लंबणो, अड| लंबणा एए निरंभिज, णिज्जुती, सुत्ताणुगमे सुतमुच्चारयन्वं अक्खलियं, सुयं मे आउसं । तेण भगवया, सव्यमेवंपिण असतं, किंतु सुतं, सो बेभि समणुण्णस्स वा सेति विदेसे आमंतणे य, तस्स परिव्ययंतस्स भिक्खु अण्ण तित्थियाणं च उभयहावि य अविरुद्धं समाणो, समणुष्णो दिडीओ लिंगाओ, सह भोयणादीहि वा समणुण्णे, अन्ना असमणुष्णो सकादीणं, समणुस्सस्स वा | असमगुण्णस्त्र वा अविरुद्धाचालस्सवि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहंवा कंबलं वा पाय पुंछणं वा पुत्रभणियाण, पाए तहा पादि भोजा, तीयग्ग्रहणं देसी भासाओ असितपीतं भण्णति, जहां थके साहेहि वा, तहा लुक्खितोऽपि वा वातो बुच्चति पुग्वदेसाणं, जं जस्स कप्पं फासूयं अफासुयं वा तं चैव पातेति भातेंति, सावसेसं तेसु चैव पात्रेषु वा पक्खिवंति, | एवं ताव सतमागते पार्वति वा मोति वा, अणुलियनंपि अण्णे णिमंतेंति-दिणे दिणे एज्जासि, कुजा वा वियावजियंति गिलाणाति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [253] समनोज्ञादि ॥२४९॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] समनोज्ञादि प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- निमित्त, जाइचा अण्णतोवि दवावेंति, गिलापमाणस्स वा सयमेव उव्वदृणादिवेयावचं करेंति, परं आढायमाणा, अहवा परमिति रांग सूत्र | परेणं पयत्तेणं आढायमाणा, पासं णिमंतेति वेयावडियं, जं भणितं-ण अणादरेणं, अहवा परं आदायमाणेसि जं वा देंति तहा तेसिं| चूर्णि हत्थाओ गिष्टंति, अतो आदिता भवंति, एवं सवपासंडिको णिमंतेति, अम्हतणएमु अहिगारो, तेणंति हे साधु ! धुवं वेयं ॥२५॥ जाणाहि, असणं वा जाच पादपुंछणं वा, धुवमिति णिणं, रज्झति सयट्ठाए, ण तबट्ठाए, जति तब उवक्खडितंग गिण्हह तदा विधुता अम्हं, सम्वता तेल्लगुलघयादिगोरसखीरादिणि वा लमिय णो लमित, जतिचि अण्णहिं लमहा ताव अम्द पीतिए इह | एजाह, तो कुसणं गोरसं पाणगं वा गेण्हिह, जति विचं पातं तोवि अम्हं चिति भविस्सति, अलद्धे तु णियमा चेव एजह, भुंजि| यत्ति भोत्तुंपि एजह पुणो भोक्सह, जति एते पढमालिता कयाओ इदं सध्वालियं करिजह, अनुना तु एबह चेव, इह वा पढ| मालिय छिच्छिह, अतो अभुजितेविअ च अचियचं, अणुपंथे सो अम्हं विहारावसहो वा, थोवं उचं कतिवि पदाणि, अहवा वचो पहो णिरावातो, ण तिणादिणा छण्णोवि भवइत्ति, अहा तुझं धम्मो, अन्नहा अम्ह, तं तुज्झे वि अप्पणिजग धर्म जोसमाणा, यदुक्तं भवति-सेवमाणा, मा तुज्झे मंसं वा कंदमूले वा गिहिजह, जहा य तुझं एसणिजं भवति तहा दाहामो आउकायादि TO असंघट्टित्ता, समेमाणेति इमं पलं विहारं चा समेमाणा पत्ता मालेमाणा गळता उपजानि चट्टति इति, एवं पादिज वा जाव कुखा वेयावडियं वा, ते पुण पुन्धसंगतिया वा अणुकंपाए या आहारादीदि वा लोमेऊणं कड़ितुकामा, एवं ते उवाएणं पादिज वा जाव कुजा विचा(वेया)वदियं आढायमाणा, तेसिं एवं भावपराणं ण गिहियष ण संवसिय ण संबवो कापन्यो, परं अणा- | |ढायमाणाणं वज्जेयन्वा, भणियं च-एसा दसणसोही, के दोसा, चुगंति इहमेगेसिं आयारगोपरेणो सुणिसंते भवति दीप अनुक्रम [२१०२१४ । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [254] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] FDI प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- | इह पवयणे, एगेसिं, ण सब्वेसि सेवादीण, आयारमोयरो विसतोलि एगट्ठा, णो पडिसेहे, सु पसंसायां, पिसंतो सुतो, अहवा सुणिना समनोनादि रांग सूत्र उबलद्धो, यदुक्तं भवति-हितपट्ठवितो, णो सुणिसंतो, तहा आणावि सिद्धंतो, ण ताव च उवधारितो भवति, ते य भिक्खायरिया चूर्णिः अण्हाणगसेयानलमलपंकपरिताविता तश्चिष्णियाति घडम? विहारवासी सपंपि घट्ठा मट्ठा, ते दुई युधम्मावि ताव आहारादि-1 ॥२५॥ लोमेण तहि परिणमंति, किमंग पुण अण्णे ?, अधम्मदिट्ठीए विपण्णवेति-णियंठाणं पत्थरावि जीवा, तेण एवं मिच्छतं, ण य जीव| पहुने सकति अहिंसाणिफत्ति अ, णिरत्थो य किलेसो अणुपहिज्जति, इह तु सुहेण धम्मो पाविज्जइ णिवाणं च, एवं बुग्गा|हिता समाणातं कुदरिसणं सद्दहमाणा जाव रोएमाणा केति तमेव पडिवज्जति, जेण पडिवज्जति तेपि जिब्भा अवहिता ते एवं | आरंभट्ठी, आरंभो णाम पयणपयावणादि असंजमो तेण जेसि अट्ठी एसो आरंभट्ठी, सकादिते य आरंभेणं धम्ममिच्छति, विहा-17 | रारामासमतलागकरणउद्देसियभोयणादि, जे हि वदंति पत्थि एत्थ दोसो इति सोचि ते एवंवादी अणुबदति-को वा एत्थ दोसो। जति गिलाणादिनिमित्तं पिजाती कीरति, निरोगे तु सति बले विणयधम्भाश्रो अतीति, एवं तिण्हं तिसट्ठाणं पावादियसताणं जस्स | जं दरिसर्ण तहा अणुवति, जे अहिंसगवादिणो ते भणंति-को दोसो, तुज्झवि अहिंसा अम्हवि अहिंसा, तुज्झवि पन्चइया, अम्हेचि पन्वइया, तुज्झेवि बंभयारी, हणपाणघातमाणा सयं हणंति, एगिदियते पाणा रंधावेमाणा कडावेमाणा भणओ यावि सम-| Aणुजाणमाणा उद्दिसियं भुंजमाणा एवं ताव हिंसं अणुनदंति णवएण मेदेण, मुसाबाते बहुयं भाणियबंतिकाउं तेण सो पच्छा वुच्चि हिति, तेणं अदन बुच्चति, अहवा अदिनं वाऽऽदियंति अगविहदरिसणाओ माणं भवति, भणियं च-उजमकजुत्तीणीकेण तं तेसि । ID उदगं दिणं जंणमादिएमु सगराई अवगाहिता पहायंतिपियंति य, अह राणतेणं अणुणातं तदावि जेसि जीवाणं सरीराणि तेहिं ॥२५१॥ दीप अनुक्रम [२१०२१४१ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [255] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४] श्री आचा यंग सूत्र चूर्ध्निः ॥२५२॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५३-२७५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] ण. अणुष्णातं, एवं पुप्फफलपचादीणिवि गिति, गोणिमादिघण्णाण य वत्थे वर्धति, बेंदियागवि अग्निहोत्तकारिते विसीयमाणे तेषं अणुष्णातं, एवं मेहुणं 'जहा गंडं खि(पि) लागं वा' विवाहदिवसते वा देति, परिग्गहं विविहं गिव्हंति गामखित्तगिहादीणि, अहवा मिच्छादिट्ठिस्स एगमवियं मंत्थि, मुसावाते उवायांओ विजुअंति वयणं वा ण केवलं हिंसंति तिविद्दकरणप्रयोगेण, वायाओवि एगे विविहं जुंजंति णाम विणासितं वृच्चति, पृथ्वुत्तरं विरुद्धं भासितातो य विणासेंति, विजुंजंति णाम विणासंति, केति भगति-अस्थि लोगो, णणु अस्थिमेव लोगो, तेण कहं विणासंति ?, भणिजड़-लोग अत्थितं एति अविरोधो, नाणाविहेहिं सच्छन्दविगप्पेहिं विणासेंति, तंजहा लोगो किर वामतो, केसिंचि णिचं भवति, आदिचे अवद्वियमेव तं आदिवमंडलं, अव| ट्ठियमेव तं आदिचमंडल दूरसाओ जे पुब्बं पासंति तेसिं आइचोदयो, मंडलहिडियाणं मज्झण्हे, जे उ दूरातिकंता ण पसंति | तेसिं अत्थमिओ, तहा य धुवे लोगो, एवमादि विष्पडिवनीओ, णत्थि लोए, णत्थि लोएति वेइतूलिया पडिवण्णा, तंजा | गंधव्वनगरतुलं माताकारगहेतुपञ्चयसामग्गिएहिं भावेहिं अभावा, एवमादिहेऊहिं णत्थि लोगो पडिवअंति इति, एवं ता वार्य विजुअंति, धुवेत्ति संख्या बुचंति, धुवो लोगे वायंति वृबति, सत्कार्यकारणत्वात्तेसिं, ण किंचि उप्पजति विणस्पति वा, 'असदकरणा | उपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । शक्यस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कायें ||१|| एगो मगति-जातिरेव भावानां विनाश| हेतुमितिकाउं कसिणं तेलोगं खणे खणे विषस्सति उप्पज्जइ य, ते पुण अधुवे लोगे तु वायं विरंजंति, अण्णे सादियं सह आदीये । | सादीयं, इस्सरेण अन्नतरेण वा सिट्टो, से इति से तु किंचिकालं भवित्ता वलयकाले पुणो ण भवति अतो सादीयो, भणति - दिव्वं वरिससहस्सं सुयति, दिव्वं वरिससहस्सं जागरति, अणादीयो तञ्चण्गिया पादं भणति, जहा अणवदग्गोऽयं मिश्रवः संसारो, यतिवि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [256] लोक ध्रुवत्वादि ॥२५२ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] चूर्णिः प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- IOणाम केति णयादेसेण अण्णो लोगो भवति तहावि तेसिं ण भवति अतो वायं वियुंजंति सपञ्जवसितोनि, जेसिं अणादीयो तेर्सि रांग सूत्र- अपज्जवसिओवि, परिमाणो वा एगेसिं पज्जवसिओ तंजहा-सच दीवा, सकाणं सपज्जवसाणो अपज्जवसाणो वा इति अवाचं, एवं ता लोगं प्रति वार्य विद्युति तहा अप्पाणमवि युजंति, तंजहा-मुक हेचि या सुट्ठ कडं सुकडं, दुट्ठ कडं २, किरियावा॥२५॥ इणो पडिवज्जंति-सुकडेत्ति वा, पडिबज्जमाणोवि वायाओ वियुंजंति, अण्णास अण्णहा सुकडं भवति, अण्णेसि हिंसाते अण्णेसिं अहिंसाते, अण्णेसि तित्थामिसेगादिणेहसोयसुतघोरणमुह इति एवं सुकई इच्छंति, केइ अण्णहा, दकडे विमासा, सुकडाणं कम्माणं । कल्लाणं फलविवागो भवति, दुकडाणं पावओ, अकिरियावादीणं पवि सुक्कडं पावि दुकर्ड, कुतो तग्विवागो, णवि कत्ता णवि। | कल्लाणपावर्ग, एवं अण्णाणियवेणतियवादीवि भाणेयब्बा, अण्णाणियाणं अण्णागा बंधो ण भवति, वेणतिया सबभावे मिस्से वदंति, किंचि साहत्ति वा असाहत्ति वा, जे साधतो ते असाह भणंति, जे असाधू ते साह भगति, अहवा विवरीपग्महणा जं साह अहिं-IN | सादिवयं तं असाहू वदंति, जंच असाधु हिंसादिकम्मं तं साधु त्रुवंति इति, एवं वियुजंति, तहा सिद्धीति वा असिद्धीति वा, केसिंचि | | सिद्धी अस्थि, यदुक्तं-भवति णिवाणं, केसिंचि णस्थि, जेसिपि णस्थि तेवि अन्नहा पडिवअंति, कारण विप्पडिवत्तीए कारियविप्पडिवत्ति, जह मट्टियातंतुवीरणाणं विवरीते कारणे कारियभावो भवति न तहा, अण्णे सिद्धिमेव ण इच्छति, तथा 'णत्थि ण णिच्चो ण कुणति०' एवं एगे विष्णडिवण्णा, एतं जहूद्दिढकमेणं तंजहा-अस्थि लोए णस्थि लोए जाव सेहीति वा असेधीइ वा वयं संपडिDवण्णा, एते तु पादेण किरियावादियो, अकिरियावदिणो य भगिता, अस्थि लोए छिण्णे छिण्णे व धुवो, यदुक्तं भवति-अजय णीयो, अणादीये णवि सासतो णवि असासतो, एवं अनहावि एगे बदंति, अहवा अण्णाणिया वेणपिया एते अबहा वदंति, अहवा दीप अनुक्रम [२१०२१४ ॥२५३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [257] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४] श्रीआचा रोग सूत्रचूणिः ॥२५४॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५३-२७५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] एवं एगे विपवना, अनहावि उभयथावि आयारं प्रति एगे विप्पडिवण्णा, केह सुहेणं धम्ममिच्छंति, केइ दुक्खेणं, केइ बहाणेणं केह मोणेणं, केइ गामवासेणं केइ अरण्णवासेणं, एवं दिप्पगारेणं आयारपगारेहिं आयारपगारेहि य विविहं प्रतिपण्णा मामगं सिद्धतं मम एगो सिर्द्धतो, अष्णे पण्णवैति परूवेति दंसेंति उवदंसेति, इह सुद्धी नान्यत्र, अहवा सयं सयं पसंसंति, एवमादि, एवं सामगं धम्मं पण्णवेमाणा तेसिं अणुद्धं धम्माणं विष्परिणामं करेंति, जतो एवं तेग हरतो वजेयब्यो, जइ पुण गिलाणादिकारणेण गतं अष्णत्थवि कत्थति, परिसाए वा अपरिसाए वा आगलेजा, तत्थ आगमे सति पासणिते गिण्डित्ता जं जं धावेति तत्थ तत्थ वतव्यं एत्थवि जाणह अकम्मा, यदुक्तं- एगंतेणं अस्थि लोगोति, अस्थित्तणामो एवं ण भवति, कम्हा ?, परिण्णाविरोधाओ, तज्ञ्जहाजं अस्थि तं लोगो, तप्पडिपक्खो य अलोगो, सोचि अत्थित्तिकाउं लोग एवं अलोगो, अभावो, अलोगअभावे तपक्तिभूयस्स लोगस्सवि अभावो, सब्बगतो वा लोगस्सेति, अहया अलोगो अस्थि य, ण य लोगो भवति, तेण लोगोवि अस्थिणा लोगो भवति, तेणं लोगस्स अभावो पावति, अणि च एतं, लोग बहुत्पसंगो य, एवं तंजहा घडोवि अस्थि, सोवि | लोगो, पडोवि अस्थि सोवि लोगो, एवं लोग बहुलं, पतिष्णाविसेसाओ य, तव जं अस्थि लोगो तेण पइण्णावि अस्थि स लोगो, हेऊवि अस्थि सोवि लोग इतिकाउं पइष्णाऊ एगनं, एगने य हेअभावी, वस्तभावे य किं तेण पडिवति ?, अह अस्थिनाओ अष्णो लोगो तेण लोगस्स अभावे पड़नाहाणी, जह एत्थं एगंवेणं लोगजत्थिते असदतेतदुतिं तहा इपि जागह है सिस्स ! अम्ना अहेऊ ण कम्मा अकम्मा, जं भणितं अहेतुं, जंबुतं-गत्थि लोएत्ति, किं भवं अतित्थ णत्थिचि है, जति 'अस्थि लोग अंतगत वा न वा?, जति लोपअंतगतो कई भगसि-अस्थि लोगो ? अह न लोग अंतगतो तेग न लोकसि खरवि साणं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [258] धर्महेत्वादि | ॥२५४॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] अकर्मादि प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- | वा, तेण कि केण पडिसिद्धं , कस्स च उत्तरं मते दायव्यं इति, एवं जं जं भणति तत्थ तत्थ वनब्ध, एत्यवि जागह अम्मा रांग सत्र-10 | जाव सेवति, अहवा जहा पदण्णा ते अक्रम्मा न तहा हेउणावि अम्मा न, एवं दिट्ठत उपसंथारेसुवि, एवं पुन्योतरविरुद्धभाचूर्णिः सीणं तिनि तिसठ्ठाणं कुप्पावयणपासंडीणं पंचात्रयवेण दसावयवेण ठाउं वत्तव्यं, निरुत्तरीभूतेसु एरिसं प्राप्य संडगभितं करेइ ||२५५॥ ण केवलमेव एतं एतेसिं या जुञ्जइ, अहवाण केवल एतेसि एवं ण जुञ्जति, अन्नेसिपि कुतित्थियाणं सामिप्पाय पस्साहि ताणि | मथाणि ण जुञ्जति, ततो बुञ्चति-ण एसु धम्मे मुअक्बाए ण पडिसोहइ एस इति जो जेण जहा सइच्छाए विकस्थितो कुप्पक्षणधम्मो, अहवा जो जो भणइ तं तं भणइ ण एस धम्मे सुयक्खाए, कई सुयक्खाओ भवति ?, नगु से जहेते भगक्या पवेइयं, इति णिसे, जेण पगारेण जह, भगवया वद्धमाणसामिणा, साहु आदितो वा वेदितं पवेदितं, जहाण एसो कुतिस्थियधम्मो मुयक्खाओ भवति, आसुपपणेण पासता आसुरिति क्षिI, आखूपयाणति ओहीनाणी मणपजानाणीषिण अणुषउत्ता जागति उवओगाय अंहोमहुत्ताउ, तेण तेऽवि ण आसुपण्णा, आसुप्पण्णो भवति केवलनाणी णिचो णियोवपोगाओ सब्बपञ्चक्खाओ य आउय आसुपण्णो, तेण आसुपण्णेण, वियाणता पासया य अक्खाय, ण एम धम्मे सुपरवातेत्ति चट्टति, एवं आयसामत्थं णचा विगिज्ज्ञणिपट्टपसिणवागरणा कापवा, अहवा गुतीए, या विभाषायां, जइ असमत्थो एगतेण उचर दाउं नतो भणतिवयं आरिसमुत्तपाढगा, जति तमेव इच्छसि ततो पागण यादं करेभो, सबहा अकीरमाणे सेहादि विपरिणामो भवति, सहहीला, सहअवण्यो, अह पागतेणवि असमस्थो ततो बेति----अम्ह इस्थिवालबुट्टअक्खरजयाणमाणाणं अणुकंपणत्थं सच्चसत्समदरिसीहि अदमागहाए भासाते सुतं उपदिलु, तं च अण्णेसि पुरतो ण पगामिति, अतो पुत्ला वहगोयरस्स, यदुक्तं भवति-पायाविसओ दीप अनुक्रम [२१०२१४ ॥२५५।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [259] Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] | वादनिषे धादि प्रत वृत्यक [१९७ २०१] श्रीबाचा FIDAIन, किंच-रागदोसकरो वादो, एवं जहा जहा उत्तरं भवति तहा तहा ठाएयव्यं, अवा सुट्ठ विसद्धियं हेउस्स इमं उत्तरं दायव्यशंग मूत्रवृणिः A कई भवां अम्हेहिं सद्धिं पावदिट्ठी विरोधं इच्छिह , कहं पावदिट्ठी, नणु सचत्य संमतं पावं, सव्वसत्थे तिण्डं तिसट्ठाणं पावा॥२५६॥ | दियसयाणं, तेसिं सम्वेसिं पुढविआउतेउवाउवणस्सतिआरंभे कयकारियअणुमोयियातिहिति अणुण्णाओ, तेण सम्बत्य संमयं अप्पियं | भवतां तेण तदारंभ ण करेतु, अहवा सवपगारेहिं सम्मतं, यदुक्तं भवति-अपडिसिद्ध, हिंसं ताव एगिदियघाता उद्देसियभोइत्ता। य णवभेदेण ण परिहरंति, अहवा अदिण्णमादियंति जाव परिग्गह, वायाओ विजुज्जति, अतो सम्बासवपगारेहिं तं तेसिं पावं | | अच्छतं संमतं जेण तं न पडिसिद्धति, तमेव उपादिकम, तमिति त अण्णेसि ज समयं उक्सामिगादि, अतिरतिकमणादिसु,। जं भणित-धर्म उविच्च-अतिकम्म, एस महाविवेगो विवाहिते एस इति जो उचो, महमिति मम, अहवा महंतणएण सता | विवेगेणं, विवेगो मोक्खो, विमोहायतणं व एतं वट्टति, विविहं आहितो वियाहितो, तं कई ?, अहं सब्बत्थ सबभावेहिं अपडी| सिद्धअस्सबदारेहिं तं जायं अतिकतो तेहिं सभावमवि करिस्सामि, भणंतु वा सोतारो, किं ताव आरंभत्थिनेणं एतेहिं सद्धि अस माणेहिं संकहा कायब्वा ?, ण कार्यव्या इति, एवं असमणुनविवेगं करेति, अहवा गिहिणोऽवि असमणुष्णा चेव धम्मावट्टियस, तेज । उवदेशः एसो, सव्वत्थ सांमत्यं सम्वेसि, अविरताणं संमयं हिंसादि तमेव उवर्कम, तमिति तं हिंसादि पावकम्मपवनो असंते | उवातिकम एस मम विवेगे वियाहिते एम अपमणुण्ण विमोहाययणमिति यति, अहवा सत्थरांमनं अपितं तं च उपातिकंतो एस महं विधेगे अक्खाए, यदुक्तं भवति-अमोक्खो, जेण वा विमुचति, सो य मोक्खो, सो य तयो संजमो बा, अब कह सम्वेसि अनउत्थियाणं अहवा महा पहाणो संपावर? कह च सव्वे अन्नाणी मिच्छादिट्ठी रिती अतवस्सी ?, णणु तेवि अह दीप अनुक्रम [२१०२१४ ॥२५६।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [260] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] श्रीआचारांग सूत्र- चूर्णिः ॥२५७॥ प्रत वृत्यक [१९७२०१] किल क्लिष्टभूमीवणवासिणो मूलाहारा कंदाहाग फलाहारा बीयाहारा जाव परिसडियपंहुपत्ताओ व सधण्णुप्पण्ण तो भाणियग्यो, एवं उम्गं तवं अस्सिता, तहा अवरे पंसुमृलिता रुक्खमलिता, तं कहं ते अनाणी जाव अतवस्ती असमणुण्णा य भवंति जेण परि| वजंति ?, आयरिओ आह-'जह वणवासमित्तेणं नाणी जाव तवस्सी भवति तेण सीहवम्पादयोविणाणाइ पंचए बहेअ, णतं इ8,। णाणातिपंचगवियुत्तोचि गामे अहया रण्णे, ण व गामे, ण वसतीति वकसेस, तहा सोनाणादिपंचगे वकृति ण य समणुण्णो भवति । तत्थ गामग्गहणेण णगराईणि सम्बाई घेप्पंति, तबिवरीय अरणं, जंभणितं-अमणुण्णस्स सेवितं च णं, जं अगामस्स अहरे तं पर गामो भवति, ण च रणं, तं एवं गामे वा रणे वा गामेण व रण्णेण व वसमाणो ण य चीवरधारी वा सिही मुंडो वा असंजये वा णाणादिपंचगे भवति, ण मुणी रणवासेण कुसचीरेण व वाबसो, अवरो वियप्पो-भगवं! जति गिहत्थगा य सच्चे असमगुण्णा, तेण वआओ गामे रणे वसियवं, भण्णति-गामो अहवा रणो, गामे वा वसतु अरण्णे वा वसतु ण व गामे ण व रणे गामनिस्साओ गाम उर्वते ण य जिइंदिओणवि सोनाणादिपंचए भवति समणुष्णो बा, सिस्सो पुच्छइ-किंगामगएणं भगवता धम्मो | | पवेदितो?, अरण्णगएण ?, भष्णति-गामे अहवा रणे, न च गामे न च रण्यो, तत्व गामो दुविहो-दव्यगामो भावगामो य, 1 एवं अरणंपि, तत्थ दव्यगामो जीवसमुदओ गिहरस्थावडियदेउलमणुस्सा विवरीयमरण, तत्थ दब्बगामं पति गामगतेण वा | नगरगतेण वा कतादि, समावण्णा य अरणगतेणवि, जह संमेतसेलसिहरे मज्झिमतेहिं तित्थगरेहिं कहितं, भावगाम पड्डुच्च |ण व गामेत्ति, केवलनाणस्स अतीतइंदियत्ता इंदियगामणववितेण भगवता कहितं, भावारणं सुणीता किरियावादी तं भयवं आतो, करण्णे, एवं धम्म सुणिना चाती ते कयरत्थ वते ?, जहा परिवायगाणं वीसतिवरिसाओ हिट्ठा ण पन्चाविञ्जति, किं एवं भग- दीप अनुक्रम [२१०२१४१ २५७।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [261] Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१९७ २०१] दीप अनुक्रम [२१० २१४१ श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥२५८॥ "आचार” - अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) तस्कंध [१] अध्ययन [८] उद्देशक [१] नियुक्तिः [२५३-२७५] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] बयावि वृत्ताण्णोचि भगइ-जामा तिनि उदाहडा, तंजा-पढमे मज्झिमे पच्छिमे, जामोनि वा वयोति वा एगड्डा, उदाहडा कहिता, अवखाओ, जैसु इमे आयरिया इमे खितायरियादि, नागदंसणचरितारिएहिं अहिगारो छिष्णछेषणस्सट्टि, णाणादिआरियो पव्वाविजति, न तु अणारितो, खित्तारियादि भत्ता, अडवरिसाओ आरद्धं जाव तीसतिवरिसाई ताव पढमो जामो, तीसाओ आरद्धं जाव सट्टिवरिसाई मज्झिमो जामो, इत्थ अतिबालअतिवृद्धा पडिसिद्धा, सेसा अणुष्णाता, तिण्डं जामाणं अष्णयरे जामे, संमं युज्झमाणा संयुज्झमाणा, चरितबोहिते अहिगारो, सम्मं संजमसमुहापेण उट्टिता समुद्धता, तत्थ भगवं पढमे जामे बुढो, गणहरा केइ पढने के मज्झिमे, तत्थ संजमसाणेणचि उडता संता पमावबहुत्ता ण सच्चे शिव्यानं गच्छंतीतिअतो भण्णतिजे विडा पावेहिं कम्मेहिं जे इति अणुद्दिस्स, जे ते तिन्हं वयाणं अण्गतरे समं युज्झमाणा जामसमुत्थाणेण उत्थिता जिव्बुडा उवसंता, कतो ? पाणाइवायाइपहिंको अट्ठारसहिं ठाणेहिं अणियाणा ते विग्राहिया भियाण बंधणो ण तेसिं णिदाणं अस्थि अणिदाणं, जं भणितं अबंधणा, अडवा अणिदाणमिति हेउ रागादि तत्थ जे गिब्बुडा तेसिं रागादिबंधहेऊ ण संभयंति अतो अणिदाणा, दव्वणिदाणं मातापितिमादि धणवनं च, भावनिदाणं विसयकपाया, विविहं आहिया वियाहिया, जे अमणुष्णा कुलिंगिणो लिंगिणो वा ते अरथतो पावति अणिव्युडा सलियाणा व आहिता, केण सब्बयासमणुहि तित्थगरगणदरेहि य जे अमणुष्णा ते उ अहं तिरियं दिसासु पण्णवर्ग पट्टच उट्टे पुप्फफलादिवसकाइ वासायमूलकंदद्गादीविया तिरियं वाता सच्चत्त इति सध्वदिसाविदितासु सम्यकालं च सब्वे सच्च जाव अ सध्यावति सव्यभावेण य, एकेकं प्रति पत्तेयं सका ताब सयं ण पचति पार्वति य, तत्थ कगामा य णिम्मित तहा गामणिण घणधनगावि महिसि मादि उपासगतिमाणि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः [262] यामत्रयादि ।। २५८ ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] दंडवजेनं श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२५९॥ प्रत वृत्यंक [१९७२०१] | भवंति जेसिं परिभोगं च करेंति, विहारकूवतलागणिमितं सयमवि काये समारंभंति आरभावती य, मांसमपि भक्षयंति, न य तत्थ | दोसं मण्णति, इति एवं पत्तेगं ठंड समारभंते, एवं च किर तेसि उवदिट्ठ-संघनिमित्तं किर म अरवृणदोसो भवति, अण्णे तु वणस्सइसमारंभं न इच्छंति, अण्णे उद्देसितमवि बजेति, ण पुण आउकार्य परिहरंति, अणणे तु पियंति, ण तु हायंति, अण्णे हत्थितावसा, अन्ने दिसापोक्खिता अन्ने मूलादिसचित्ताहारा, अन्ने परिसडियपंदुपत्ताहारा, एवं सच्छंदविगप्पएहि विविहेहिं पगारेहिं । | पत्तेयं पत्तेयं संमत्तं कायेसु डंडं आरंभंते समारभंते, णाघुकामा इति, साहू वा जहा ण आरभे, अहवा पनेयं इति जंपि संघाति| णिमित् आरम्भति अन्नस्स अट्ठाए तंपि तेणेव वेदियव्वमिति, इति पाडियकं डंडं आरभंति, जतोऽयमुवदेशो-तं परिणाय मेहावी तं इति तं तेसि मिच्छादिहितं कायडंडअणिबाणं परत्व य विवागं जाणणापरिणाए परियाणित्ता इतरीए पञ्चक्खाइत्तुं जहा ते अण्णाणिचा अविरइत्ताओ य कापसु डंडं पाविता तहा तम्हा इति उपदेसो, एवमादिसु कजेसु णेव सर्य छजीवकाएसु | य इंडं समारंभेजा, गोवि अण्णे एतेसु कायेसु डंडं समारंभाविजा, जाव समणुजाणिज्जा, एवं अन्नत्ववि जाति जावंति साबअप्रयोगा ते जोगत्तियकरणत्तियजोगेण वजेजा, जाब मिच्छादसणसल्लं, जे वऽपणे एतेमु काए जे इति अणुद्दिटुस्स कुलिंगि-| | पासत्यादि बा एतेसु इति पुढविमादिकाएमु णवगस्स ते दस अनतरेण सम्वेहि वा समारंभंति तेसिपि वयं लजामोति वा परि हरामोति वा, यदुक्तं भवति-यो तेसु संसम्गी करेमो, अहवा जइ सासणपडिणीया चरगा अवि बहूहि असम्भावुभावणाहिं जाव | विहरंति, निण्हगा अहाछंदा य, तहा तेसिं लामोत्ति वा दयामोति वा एगट्ठा, भणियं च-लज्जा दया संजमो बंभचेरं,ण | जहा राया व चोरादी सारीरेण अण्णयरेणं वा दंडेणं दंडेइ, तहा ते वयं पातेभो, मतिवि उरष्णो बले, तहा बलेवा, तेसिं हियत्थं च दीप अनुक्रम [२१०२१४१ ॥२५९।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [263] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) •“आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२५३-२७५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १९७-२०१] अकरप प्रत वृत्यक [१९७२०१] श्रीआचा- वाकडंडेहिं ते उवालभामो सासणपीतिते अडिणादि, अवि उहऽहे पविते णिहोडेमो, त परिषणाय मेहावी तमिति तं सव्वतिरांग सूत्र वर्जनादि 0 बिहकरणजोगेण आयडंडं दुविहाते परिणाए मेहावी तं वा डंडेति अन्नउस्थितेसु डंडं अन्नं पति छसु जीवनिकाएसु डंड, अहवा तं || चूर्णिः ७अध्य० पाणवहादिडंडं जहा कुलिंगिणो समारभंति, अण्णंति मुसावायं जाव सल्लं, अहवा पाणवहादि जाव राइभोयर्ण, अन्नं तं विसयकसा२ उद्देशःINयादि, णोऽभिदंडं, ते प्रति इंडो प्राणवधादि तकरणे अप्पडंडोविणगरादिसु, एतं ते डंढाओ वीभेति डंडभीरू,हे डंडभीरूणो इंडस- | ॥२६०॥ मारमिजासीति, बेमि एवं बेमि भवहिपत्थं सकम्मनिजरणाति । विमोहायपणस्स अज्झयणस्स सप्तमस्य प्रथम उद्देशः। उदेसामिसंबंधो असमणुण्ण विमोक्खो मणितः, अण्णंपिजं अकप्पं उवदिस्सति, मुत्तस्स सुसेण-णो दंडभीरू इंडं समारमिजासि जाव समणुजाणेजा, तस्स पुण अकप्पस्स पगासं अप्पगासं वा संभवो होजा, पगासं भणिअति-भिक्खू य | परक्कमिज वा पर आणाभिमुहे परउक्कमेजा भिक्खाए वा वियारविहारट्ठाए वा अबतरेण वा कजेणं, चिट्ठिा बावि यतो अच्छिा , । णिसितेज वा णिविडिओ अच्छेज, ण चिट्ठि अ वा णिवण्णतो अच्छइ जागरति, ण णिहातुयट्टो, सुमाणे ण कप्पति गच्छवासिस्स | अच्छित्ता, को जाणति अणुप्पेहेंतो आभावगं पमादेणं भणेजा, देवता अवरज्ोज, पडिमापडिवण्णस्स जहिं चेव सूरो अस्थि सम| मिलसति ताहे चेव अच्छति तेण सो अच्छिा जाव जिणकप्पस्स परिकम करेति, सत्तभावणाते, सोऽवि किरण मुसाणमझे ठाति, | मुसाणस्स पासे ठाति, अन्भासे वा सुण्णघरे वा ठितओ होजा, रुक्समूले वा जारिसो रुक्खमूलो णिसीहे भणितो, गिरिगुहाए| वा, लेणआवसहंपि, परिवायगावसहमादिएहिं दगसोदरियमादीहिं जया छविता, उवट्टणं गिह किर धंघसाला सा गाममज्झेसु Lil कुजति पुग्बदेसमादीएहिं, दक्षिणापहे गामदेउलिया भवति, देउलियाम प्रायेण वाणमंतरा हविजंति, कम्मगारसालाए वा तंतुवा दीप अनुक्रम [२१०२१४ ॥२६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'अकल्पनीय विमोक्ष' आरब्ध:, [264] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] abee आधाकर्मनिषेधः प्रत १।२६१॥ वृत्यक [२०२ २०६४ श्रीआचा-10 यमसालाए वा लोहगारसालाए वा जत्तियाओ साला सब्बाओ भाणियनाओ, सुमाणादिसु ठियणिविट्ठो आवासिओ णिवणो जया रांग सूत्र- | तासु ण णिद्दावसीकतो, हुरत्थं बहिता गामादीणं देसीभासा उआणादिसु, हुरत्या गच्छतो बहिं बद्धति, गच्छणिग्गतो विहरमाणो चूर्णिः विविहेहि पगारेहि कम्मरयं हरति विविहं वा कम्मरयं हरति, तं मिखं उपकमिज गाहावती, एवं सो निहत्थी सुसाणादिसु पुबडितो वा होजा पच्छा वा एञ्ज जुगवं वा, सो पुण अहिको वितो सढो वाणिसम्गसम्मदसणं वा, से तं सागुरूवं दलृ दक्षिणा | चेव उपजिज, अहाभदउ व साहुं दिस्स साहुणो वा एते भगवंतो लद्धालद्धभोइणो भोएण ण सुट्ट आढाइअंति, जहा मरुयच| रंगादि, अहं एतेसिं अज देमि, तं उवसंकमिचा बेति-आउसंतो! समणा आउसोति आमंतणे, हे सुमण! अहं खलु तबट्ठाए अहमिति अब्भुवगमे, खलु विसेसणे, सावगो सावगपुनो वा मित्तो वा, तुझं अट्ठाए-तुज्य णिमित्तं, असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा बत्थं वा पदिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा असिज्जतीति असणं, पाणगं कहं उदिस्सकयं भवति , गणु खंडपाणगं, मट्टियाषाणगादि फासुर्यपि समारभते, जहा वा सिझति, वा विभापायां, कोइ अपणमेव या आई | करेमि, कोयि पाणं अणुत्तरं वा, अहवा दोन्नि तिमि सब्याणि वा, ए वत्थादीणि वा, पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ, समु| हिस्स पाणेण, ण पाणादि आरंभअंतरेण उद्देसियं णिफाइ, कीयपामिचअच्छि जणिसट्ठाणि वा, तेग अत्थावत्तीए उवदिस्सतिपाणाई भूयाई जीयाई सत्ताई समारंभ समुदिस्स समणत्थं आरंभसमारंभ०, छकायसमारंभगहणे आहाकम्म गहितं, समुद्दिस्स सो पुणो वाहिते करिता, आहाकम्मग्गहणाओ य सव्वा अविसोहिकोडी गहिता, कीयपामियअच्छिजअणिसअमिहडेहिं विसोहिकोडी गहिता, आहटु-आणित्ता, चेतेमिचि केवि भगति करेमि, तं तु ण युति, जेण तं आहियमेव, आहियस्स करणं ण दीप अनुक्रम [२१५ २१९ CanSMELLIAMSUTATEL ARANAUNPURIHARIHARANEPA A ॥२६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [265] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] श्रीधाचा रांग सूत्र चूर्णिः ५२६२॥ प्रत वृत्यंक [२०२२०६] | विजति, एरिसे सा चेतेमित्ति बेमि पदच्छामि, आवसहं वा समुस्सिणामि, से भुंजह वसह आउसंतो! समणा भुंजंतु | आधाकर्मझुंजह वा असणं वा ४, वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछगं या, आवसधे वसह, एवं पायवडणं करिचा भणइ, आउसंतो! निषेधः | समणा अकप्पितविमोक्खत्ति, एवं णिमंतितो सो साहू जदिचि, अतिकभितुकामो अभत्तट्टितो वा पञ्जनं वा से तो पडिसेहेयग्वं, कहं १, वुचइ-तं भिक्खू गाहावर्ति समणसं सवयसं पडियाइक्खेजा तमिति तं दातार, भिक्खू पुत्वमणितो, समण-IN संति सम्म सोभणेण वा मणसा समणसं णं एवं विनेयवा अहो अम्हं भगवया परगलओ ण चलितो जेण उद्देसियादि पडिसिद्धं, तत्थ तु अपमादो कायरो, अहो भगवयाऽऽदि सुदिट्ठी दिवा अहिंसा निउणा दिट्ठा इंदियणोइंदियदमो य, एवं वायाएविण पुण | एवं वत्तव्ब, किं?, करेह साबग! मुठ्ठ भत्ततो तुमं, अम्हं एसो भट्टारएण पोग्गलउबदुओ, तत्थवि सीभरमेव उपदिसियन, उज्जतेण वयसा कायेणवि, ण दीणदुम्मणेण होउं पढिसेहेयध्वं, सो दिदिए महुराए, ण य काया लक्खिजति, ण वा रूसिज एस |VAI अम्ह अकप्पिवेण णिमंतेतिति, इचवं पडियाइक्खिज, तिविहेणवि करणेणं, आउसंतो! गाहावती हे आउसं ! गिहबई पो| खलु भे एवं वयणं पटिमुणेमि, कतर, जं में संभणसि, आउसंतो समणा ! अहं खलु तुझं अट्ठाओ असणं वा पाणं वा खाइम | वा साइमं वा जाव आवसह वा समुस्सिणामि, जति जातिएणेव सहो तो उल्लो तेण पिंडणिज्जुत्ती कडेति, अहामहगाणवि वा ] इमे उम्गमदोसा कहेइ-एरिसं कप्पद असणादि वस्थादि, सिजाए, फायदाणविहिफलं च अक्खाति, सरिसपत्तिमागमात्र वटस्य | | चीजं महंतमव्यस्तं अपच्छेदितमलं जनयति विपुलं महाखंध, जति ते सड़ा तो खीरादि फासुयदवाई दिज्जासिनि चेतिमित्ति च । करिआसि, एतावताए गयडंडं वृत्तं, अनो पुण कोई असंविग्गभावितो सद्धो असन्नी वा अणुकंपाए पच्छन्नं करेज ततो चुचति- ॥२६॥ दीप अनुक्रम [२१५२१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [266] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] IPाआधाकर्म श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥२६॥ निषेधः प्रत वृत्यंक [२०२२०६८ | भिक्खू परक्कमिज्ज वा चिढिन्त्र वा णिसिएज्ज वा सुसाणंसि वा, सवस्तयणा सुपाणं, सुन्नमेन अगारं जाव हुरत्था वा कम्हिवि विहरमाणं पासेत्ता आतगताए पेहाए अप्पए गता आयगता, इक्खा पेक्खा, यदुक्तं-सामिप्पारण, जहा ममं ण अण्णो कोइ जाणति, मा पुण कण्याओ कण्णंतरं गते सो साहू सोचा णो गिहिहित्ति अतो मम निरत्थो उज्जमो भविस्सइ, भोइयाएवि अणमिगयाए, मा सा पगासेज्ज, असणं वा पाणं वा खाइमं वा जाव आवसहं वा समुस्सिणादि, तं च मिक् परिघासेउं तं वा | मिक्युं ते या भिक्खुणो परिघासेउं-पडिलाभेउं, जं भणित-भोतावेचा वत्थादीणि परिभुजावेउ आसवहे परिवसाइट, तं च भिक्खू जाणिजा तमिति तं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा जाव आवसह, किमिति , जह एतेण अम्हे प्रति कीय वा कारियं वा असणादि पत्थादि आवसहवा, सहसंमुयाए सोभणा मती सहसंमुया साए, अबही मणो केवलनाणी जाइसरणस्स य, एत्थ य अभावो, परस बागरणं परवागरणं, सो य तित्थगरो, तब्बइरितो सबो अन्नो, सो उ केवली मणविऊ चोदसपुवी जाव दसपुची अन्नयरो वा साहू सावओ वा, तस्सयणो, समासितो वा अन्नतरो चा, किं हिंडसि ?, मा वा अज्ज हिंडिज्जासि | तुज्झ अज्ज अम्ह घरे अमुगस्स वा घरे उवक्खडिज्जइ वा इति, एवं सयं गाउं सोउं वा जह एस गाहाबई मम अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गई वा कंबलं वा पायपुंछणं चा आवसई वा समुस्सिणादि तं एवं आयगयाए पेहाए | आगमेत्ता, जं भणितं-तचतो गया, जति जिणकप्पिओ तो तुहिको चेव अच्छति, पारिहारिया पुण अणुपरिहारिताणं कहेंति, अहालिंदिया सहाणे कति गच्छवासीणं, हिंडता वा उवस्सप वा गंतु आणविज, अश्वत्थजणो व ते आणविजा, किमिति?-आउसंतो समणा! असुयस्थ गिहत्धेण मम णिमित्तेण अनतरस्स वा साहुस्स साहूण वा संघस्स वा असणं वा ४ वत्थपडिग्गह जाव दीप अनुक्रम [२१५२१९] | ॥२६३२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [267] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२०२ २०६] दीप अनुक्रम [२१५२१९] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि: ॥२६४॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] आवसह वा समुस्सिणाति, अणासेवणं अगम अग्गहणं पुन्नगहियस्स वा अपढिभोगो, एवं वैमि इति एवं अकप्पित विमोक्खो भवति, स एव अहिगारो, भिक्खु च खलु पुट्टा वा अपुट्ठा वा जो इमं आधञ्च गंधा फुसंति भिक्खू पुव्यभणितो, च पूरणे, खलु विसेसणे, भावभिक्खु विसेसेह, पुट्ठो णाम आपुच्छित्ता, जहा अहं तुज्झ अड्डा असणादि करेमि जाब आवसहं समुस्सिणामि, सो जंति वारितो ठाति तो सुंदरं, तेण ण अहिगारो, जो पुण वारितो संतो करेति अवस्सं एसो गिव्हिहित्ति, अपुट्ठा अपुच्छित्ता चैव करेंति, एवं पुट्ठा वा जे इमे आहश्च णाम कयाद गंधणं गंथो से रायपुतो वा अन्नतरो इस्सरो वा अणिस्सरो वा, तत्थ बहुते व्यजाते कतपरिचातो, सिद्धो, भंगे वा कते रोसेण बंधेज णियलेहिं रज्जूए वा संसगरुद्धए वा कीरेज, अतो ते णियलादिगंधा, यदुक्तं भवति-बंधा, फुसंति, जं भणितं - पार्वति इमे य अण्णे-से हंता हणध खणह छणह डहह पयह जाव विप्परामुसह सेति णिसे इसरो इस्सराइजो अणजो, हंव आमंतणे संपेसणे वा, पुरिसे आमंतेत्ता संपेसेति, मते तु महता पयतेणं तेसिं साघियं असणाति, ण य इच्छंति, एतो तं मम ण दव्वं जातं ण धम्मो, तं एते हणह हत्थेण वा केसेण वा जखेण अवदार ताव कसेहिं पिहेह जाव सेवमाणिपललितथि एवं खतो भवति, छिंदह हत्थपादकण्णणासंति, डहद्द खारादिणा, पयघ उंमुगादिणा आलुपद मुखणवैर्भक्षय, एवं विप्पलंपथ भूतो भृतो सहमकारेण, सीसं से छिंदह, हत्थिपायस्स वा णं देह, विविहं परामुसह, यदुक्तं भवति डसह, ते फासे पुट्ठो अहियास ते इति जे एते भणिया बंधवहखणण छेदणादि, अहवा फासा हेमंते सीतोडण सिंह, गिम्हे उम्हे धरेह, तेसिं फासेहिं पुट्ठो, समं अहियासए, अणुलोमे वा करिआ बहुपदकयवतो सड्डो जतो मम मंदपरिव्वणावि ता बुज्झं, सम्यसंघस्स वा, व 'कर्म च साली घगुलगोरस' गाहा, अनतरकालोपगं वा भवं, तं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [268] NUT निषेधन दुःख ||२६४|| Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] श्रीश्राचारांग सूत्रचूर्णिः i ॥२६॥ प्रत art वृत्यक [२०२२०६ FAGANISHERSEAirtmHERE भुजंतु अणुग्गहत्थं, कई वा अम्हेईि अहवा धम्मो करयच्यो, जो जस्स भत्तो सो तस्स देइ, जहा उपासमा सकाणं, संखा चर- आचार Talगोचरादि | गाणं एवमादि, एते अणुरोमे अहियासते, जे जिजकप्पितो सो अणुलोमेसु वा पडिलोमेसु वा उप्पण्णेसु तुहिको चेव अगद, गळवासी जा करणलद्विसंपण्णी. तो से कहेति, जता भण्वाति-अहवा आयारगोयरमाइक्खे आयारगोपरो जं भणितविसयो, आपारगोयर, णो आया एव तत्थ कहिअति, ण विणा दंसणं वा, दम्वचिंता वा, सो य आयारो मूलगुणा उत्तरगणा। वा, मूलगुणधिरीकरणस्थं उत्तरगुणा कहिअंति, संजहा-'पिंडस्स जा विसोही' तत्थ मिक्स् परकडपरणिहितं पेसित बेसितं । तद्दा य गिजीवं जं स्वयं, पवमादि कहिअति. सोतार अप्पगो य सत्ती जचा पंचावयवेहि कहियध्वं, असमत्थो तु पागतेण महवं आणेति, अणुलोमेणं उपसामति, तकिया मणा मिसं ताजं भणितं पच्चा, आयरियं अणारियं वा, नहा अयं कं च णते ? तहा को एस मिच्छादिट्ठी, सो य धम्मो ण भवति जत्थ कप्पाकप्पविहीण मषितो, एवं सम्मेण तहा तहा उवसामति जहा पवावेइ | सावगो पा अहाभयो वा भवति, असरिसं जं भणित-अणण्णतुल्ल, अणुव्वणाणि सम्म, जंभणित-कम्मेण कित असरिस, पढि| लेहा पेक्खिता, आयगुत्ते तिहिं गुत्तीहिं उबउत्तो उत्तरेवि दिजमाणे कुप्पति ण बा, सतं उत्तरसमथो भवति ताहे, अह गुत्ती एगंतेणं गुची वयोगोयरे, से बुद्धहेयं पवेदय नाणादितियं बुझंतीति बुद्धा, तेहि य एतं पवेइयं, ण केवलं निहत्थाओ अकप्पं । ण घेप्पति, जेऽपि असमणुमा कुलिंगी तेसिंण यकृति दाउं ततो वा घेत्तुं, तत्थ इमं सुत-से समणुभो असमणुनस्स से इति णिदेसो, समणुनो साहू संविम्गो, असमणुना अबउत्थिया, सो य समणुष्णो असमणुण्णस्सवि एसो मम समाणोचिकाउं असण | वा ४ णो पाएजा णो णिमंतेज णो कुजा याहि पूर्वक् विभाषा, सो एवं भावपरो तं परं अणा आढायमाणेत्ति दीप अनुक्रम [२१५२१९] ॥२६५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [269] Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२०२ २०६] दीप अनुक्रम [२१५२१९] बीजाचा रांग सूत्रचूणिः अध्य० ८ उद्देशः २ ।। २६६ ।। “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २०२-२०६] बेमि जहा तेसिंग दिजह तहा ण घेप्पतीति तेहिंतो अहवा समणुण्णो साहू संविग्गो, असमणुण्णा असंदिग्गा, सो य समणुण्णो अणुष्णस्स असंगिस असणं वा ४ वत्थं वा पडिग्गई या कंबलं वा पायपुंछणं वा णो दिज, जहा न देति तहा ण गिण्ड वीति, अहवा इमं लोइओ असमशुण्णो, अण्णसंभोइओ असंमण्णो तस्यवि तदेव असणं वा ४ वत्थं वा गो पाएअ, गिठाणमादी मदणा, तेण तुमं मा रुमाद्दि, गवि अम्हं सब् सन्स् वा मूलाओ विप्पति वा दिजति वा, एतं केण भणितं १, गणु बुद्धेभेतं पवेइयं, ण बेस सर्छदेणं भणामो, इमं च अयं बुद्धेहिं पवेइयं निचं, अप्पते गुरुसु य बहुवयणं सव्वतित्थगरेहिं वा, साहूआदितो वावेदितं पवेदितं, धम्मो दुविहो, अहवा साभावो धम्मो, जं भणितं अस्थिति, अञ्चत्थं जाणह आयाणह दरिसितं, समपोति वा माहणेति वा एगड्डा, कतरेण माहणेण वद्धमाणसामिणा मतीमता, मन्नति जेण सा मती केवलनाणमती, मती जस्स अस्थिति मतिमता, समणुष्णो संविग्गो संभोइओ, सो य मणुण्णो समणुष्णस्स वा असणं वा ४ वत्थं वा ४ पाएज परं आढाय-नाणे, एवं कप्पाकप्पविही अक्खाओ, अममणुण्णाण तु जत्तियं लम्भति तं अगिज्झं, गिद्दत्थाओ केवलमेव अकप्पं पडिसिद्धं, असमनुष्योति स । इति मोक्षाध्ययने द्वितीयोदेशकः ।। उद्देत्याहिगारों णिज्जुतीए भणितो, ततिए इस्सर गेहादिपविडो साहू बादातासीतेण कंपिञ्ज, तं च गृही तथा संकतेकिन्तु तं इत्थीत अलंकियविभूसियाओ द मोहो वाहेति जेण वायधूता वा कंदलि कंपसि, इति आसंकिते पडिसेदो भणिति, सुचस्स सुतेण समणुष्णो अडिकितो, इहवि समणुष्णवन्यजाए अरुहो, सो कमि काले पचाविअ १-मज्झिमेणं वयसा एंगे वरतीति वयो, सो तिविदो; संजदा-पदमो मज्झिमी चरिमो, एगेण सब्बे, एगे पच्छिमे वए, एगे पढमे, मज्झिमगडणं तु प्रायसो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने तृतीय- उद्देशक : 'अंगचेष्टाभाषित' आरब्ध:, [270] समनोशेतरादि ॥२६६।। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] वयखिकादि भीत्राचारांग खत्र पूर्णिः ॥२६७ प्रत वृत्यंक [२०७२१०] मज्झिमे वये पुज्झति तेण तम्गहणं, ते तु भुत्तभोगिता विगयकोउया सुई विरागमम्गे चिट्ठति, विष्णाणं च तेसिं पटुपरं भवति, गणहरा य पायसो मज्झिमे बये पाइया, तेहि य एतं सुतं आयणिक्खमणपजायसवेणं भणितं, भगवंपि य मज्झिमवए पडिवण्णो निक्खंतो, एअकारणओ मज्झिमवयगहणं, सम्मं नाणादि बुज्झमाणा संवुज्झमाणा, चलमाणे चलितवत् , संजम उहाणेण संमें उद्विता, ते तिविहा-सयंबुद्धा पत्तेयबुद्धा घुबोधिता, तत्थ बुद्धबोधिते य पद्धच्च बुचति-सोचा चई मेहावीणं सोऊणं भवति वयणं, मेरा धावति मेहावी मेहावीर्ण वयणं, सो एवं मेहावी सोचा तित्थगरवयणंति, वयणंति वायगं चेव, अस्थं भासइ(अरहा)सुचं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए ततो मुर्त पवचति ।।१।। पंडिता गणहरा, तं तित्थगखयणं पंडितगणहरेहिं ता सुची| कयं, सोचा णिसम्म हियए करिता, स्वादेतरिक धम्मो मज्झिमवयसामेव पवेदितो? जम्दा वृत्ती, मा, मज्झिमबए किण्णु हविज ?, | समो. कहितो लोगष्पदीचेहिंति, तदुच्यते-समयाए धम्मो आरिएहिं पवेदिते समता समं वा समिता तर तरुणमज्झिमवु डाणं सय्येसि समताए अक्खाओ, वृतं च-'जहा पुण्णस्स कत्थति' धम्मो दुविहो नाणादि, आरिया वित्वगरा, साहू आदितो | पवेदो, एत एवं सम्मं धम्म सोचा तिण्हं बयाणं अनतरे वए संबुझ, समुद्विता पचहा संता ते अणवकखमागा इति, जे ते अबतरे एव णिक्खंता मोक्खअमिमुहा पट्टिता, प अणवकखमाणा मित्तणातिमादि काममोगे वा मिच्छाभावाण वा, अश्वा सरीरं | अणवकंखमाणा तबे, कि पूण सेसं १, अहवा इडलोग च परलोगं च प्रति अगवखमाणा, भणियं च-छलिता अवयक्खंता अणवयवाचता गया.मोक्द, अगतिवाएमाणत्ति अतिववर्ष आयुसरीरईदियबुद्विषाणाहितो, प अतिपातेमाणा अणतिवाते । माणा ते एवं अणतिवातेमागा, यदुक्तं भवति-पाणादिपातं अकुधमाण!, अपरिग्गहो दयादि पुनभगितो, जहा अपरिग्गहमाणा दीप अनुक्रम [२२०२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [271] Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ||२६८॥ प्रत वृत्यंक [२०७ २१० तहा अलियमवि अभासमाणा अदचमवि अगिण्हमाणा मेहुणं च अगासेवमाणा, णो परिग्गहावंति, आदिरंतेन सहेता, जहाणो| परिग्गहावंता तहा पच्छाणुपुब्बीए जाव णो पाणाइवायतो, अणेगेसु एगादेसाओ वुच्चति-स सबावंति च णं लोगंसि णिहाय इंडस इमो पुलमणितो, तिण्डं चयाणं अनतरे वए पन्चइओ अणगारो असमिताए सोचा धम्म अगवखेमाणे अणतिवातेमाणे | जाव णो परिग्गहावंति, गंतुं गंतुं सीहो तहा येव दट्ठवं, ते कत्तिया पाणा जे अणतियातेपना, ततो चुचति-सवावंति च, IN | समति धावति वा सन्चं, सब्बावंति जावति पाणा, दबं गहितं खितं च, चसहा कालभावादि, एतेसिं चउण्हवि णिदेसो, जहा सव्वं सन्वत्थ सब्बकालं सम्बहा, सबलोगेत्ति सव्वजीवलोए, णिहाय णाम णीक्वंता, डंडं घायणं मारणंति वा एगट्ठा, पाणा भूया जीवा सत्ता, सो एवं निक्खित्तबंडा पावकम्मं अकुबमाणा पावं कर्म हिंसादि अष्टादशप्रकारं अवहमाणा एस महं | अगंथे वियाहिते एस इति जो भणितो सबलोगपाणेसु णिक्खित्तडंडो, महा प्राधान्ये, गंथणं यो पूर्ववत् , ण तस्स गंथो विद्यत | इति अगंथो, यहाँ च अगंथे य मईगंथे, विविहं विसेसेण वा अक्खाओ, स एव वायोये जुतिमस्स खेयपणे, ओधो णाम | एगो, यदुक्तं भवति-रागदोसरहितो, णिरुवहियचा अगासियत्तातो य, जुतिम संजमो, खेयण्णो णाम जाणगो, जुतिमस्स खेयण्णो, जं भणित-संजाणगो, अहवा जुचिमं सिद्धिक्षेत्रं, तं तु सज्वंतिमेहिंतो जुत्तिम-जाजल्लमाणं एवमादि, अतो जुत्तिमं तस्स जाणतो," जुतिमस्स जाणतो, जुत्तिमस्म खेयण्णो, सो य भगवं केवली अण्णोवि ओयजुत्तिमस्स खेयण्णो छउमत्ववीतरागो उत्सामिओ खइओ वा, अण्णोवि यो वीतरागवत् रोगदोमनिग्गहपरो वीतरागवत् वीतरागो भवति, 'सहेसु य भयपावएसु' इति, एवं ओयभृतो जुतिम खेयण्णो, केवली भगवं इम जाणइ-जेदि कम्मे हि जब उवच अति, तंजहा-नेरइएस ताव महारंभयाए महापरिग्गयाए। दीप अनुक्रम [२२०२२३] ॥२६८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [272] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] उपपातादि चूर्णिः प्रत वृत्यक [२०७२१०] श्रीश्राचा-0 जाब देवाणं चुर्य-चयणं च, तं च जाणइ जो जचियं जीविता चयति, अहवा उपत्रातो नारंगदेवाणं, तिरियमणुस्साणं जम्म, रांग सूत्र- चयणं जोइसियवैमानिकानां, सेसाणं उब्वट्टणं, सो य सव्वं जाणइ, उववार्य चयणं च णचा अनतरे वए वट्टमाणा ओय चउक-| म्मक्खयाय पबत्तति केवली, अकेवली तउबदेसेणं अडविहकम्मक्खयाय जयति-घडति, आह-जहा छउमथीभूओ अट्ठविहक॥२६९॥ म्मक्खयट्ठताए पवट्टमाणो फासुयं आहारं तहा कंवली ?, वुचर, सो चउकम्मावसेसा छुद्दापरीसहवेयणिज्जकम्मे समोयरति, सा य| हा जाब सरीर ताव अस्थि, तं च सरीरं छहाए उसकामिज्जति. छहापडियारण पुस्मति, कहं ?, नणु आहारोपचिता देहा, आहारिज्जतीति आहारो असणाति चउधिह, उबिच्चा चिज्जति जेण सो उवचओ, उपचओ णाम विहिआहारहिं वा जाइडेहि ॥ YA उवचिज्जति तेण आहारोवचयो, आहारस्स ताव आहारप्रयोजणी देहि यत इति देहो, तदभावे तु हीयाति मिलायति मरते वेति, परीसहपभंगुरा परीसहेहि मिसं भजइति पदमवितिएहिं परीसहेदि, अहवा अण्णेहिवि पभज्जति दुबलीभवणं हीणति, समभंगे | वा पतति, एवं अन्नेषि परीसहे विसीतति, सीतउसिणदंसमसगवहरोगघाताइएहिं पभज्जति, जयो य एवं तेण केवलीवि आहारम्मिचा सरीरस्स, अतो आहारेति, किंच-केवलीणं आहारगप्पसिद्धीए दिट्ठीओ भण्णंति, पासग सर्व पगडं इंदिएहि परिगिलायमाणेहि पस्सह, एगे ण सव्ये, गहुँदिएहि परिगिलायमाणेहिं पस्सह, एगे ग सब्वे, आहारेण विणा मणुस्से सब्वेहिं सोतादीहि | इंदिएहि परिहायमाणेहिं, केइ एगे ण सब्बे, परिहायति छुहाए अविभज्जति, मंदं वा पस्सति, ण वा सुणेइ, जहा य एगे असंजयमाणुस्सा अकेबलिणो वा आहारेणवि सम्वेहिं इंदिपहि परिहायमाणा पथक्वंदीसंति तहा य पासाहि एगे केवलिणो, ण सब्बे, आहारमंतरेण सबिदिएहिं परिहायमाणेहि, जतिवि तेसिं दबिदियं आहारेण विणा परिगिलायतिनि विपुच्छाय, जती आगति- " दीप अनुक्रम [२२०२२३] ॥२६९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [273] Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] हारोपमा चितवं प्रत वृत्यक [२०७ २१० मादिविसेसेहिं परिहायति, गुणओ, चिरेण हि कालेण आहारसरीराओ ण परिहावंति, छहिं मासेहिं अट्ठहिं मासेहिं वरिसेणं, तं| रांग सूत्र-IN | जइवि ताव उत्तमसंघयणाणं केवलं, सरीराणि आहारमन्तरेण ण पुस्संति, किं पुण अन्नेसि , अतो आहारोपचता देहा परीसह-10 चूणिः ॥२७॥ पभंगुरा, गिराहारिता सबिदिएहि परिहायमाणेहिंति सन्चमणुस्साणं दिस्संत इति वक्सेस, अकेवली अकियत्यसरीरधारणत्थं | आहारं आहारेइ, दयादीणि वयाणि अणुपालित्ता सरीरोवरमा णियमा सिझंति, तेण किं सरीरं धारेंति तद्धारणथं च आहारेति ?, एस्थ धुब्बति, णणु सोऽवि चउकम्मवसेसो तवखवणनिमित्तं च सरीरं धारेति तद्वारणथं च आहारं आहारेति, दयाईणि अणु| व्ययाणि अणुपालेति, जत्थ इमं सुतं ओदे दयं दयाति ओजो भणितो, दीयत इति दया, दय दाणे, जं भणितं ददाति, जहा || |दयं ददाति तहा सेसाणिवि वयाणि, एवं चरितं गहितं, जहा चरितं तहा नाणदंसणचरिते अणुपालेति, दिटुंते जहा भरवहणVI समत्थस्स सगडस्स अडविमझे अक्खमक्खणं कीरति, एवं वईणवि आहारो भरवहणत्थं, एवं सिद्धिगमणोऽवि साहू सिद्भिणिमि | | आहारेति, अकेवलीवि सातासातातिकम्मक्खयस्थं च अन्तसो सिद्धिगमणत्तेवि, केवली दयादीणि वयाणि अणुपालेइ आहारेतिय, | को दोसो ?, अयमवि रोचिकप्पो, सो एवं ओयभूतो गुचिमतो खेयण्णो उययायाइगणगहणं संसारं णचा आहारोवचयदेहतदभावे पढमएण अवहभंगुरा, कि, सब्वे परीसहा, गुणा णाणाति, तिस्थगराओ जे अन्ने पासाहि सबिदिएहि परिहायमाणेसु, एवं जाणित्ता | पासित्ता य ओदे दयं दयाहि सब्बजीवाणं, कयरे सो', णणु जो सपिणधाणस्स खेयण्णो जे इति अणुट्ठिस्स निदेसे, सनिधि | सन्निहाणं, जेण पुण जोनिग्गहणे चउगइए संमारे तासु तासु गतिमु सभिधीयते तं मणिहाणं-कम्मं तस्स खेयण्णो-जाणंग इति, अणइवाइणाए जे संणिहाणसस्थस्स खेयपणे सण्णिाहाणं तदेव तस्म सत्वं नागादिपंचगं, एवंविहो दयं ददाति जाव परिग्गह दीप अनुक्रम [२२०२२३] ||२७०11 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [274] Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] प्रत वृत्यक [२०७२१०] श्रीआचावेरमणं, भणिया मूलगुणा । इदाणिं उत्तरगुणा-पिंडचिसोही०, अविय-आहार एव बन्धुओ पिंडो आहारोवचया देहनि पभंगुरा, कालज Aओदे दयं दयाति जे संणिहाणस्स०, आहारगवेमणोवायो तु 'से भिक्खू कालपणे बलण्णे जाव दुहतो छित्ता णिआति'-al चूर्णिः INति एतं पूर्ववत् , मिक्खावेलाधिगारो चेव वति, सो य मज्झिमयओ अधिकृतो साह, अभिगतत्थो, गवि अतितरुणो गवि अति-10 |२७१॥ विदो य, तरुणस वलवन्तसरीरस्म ण सीतेण अंग थरथरेति, बद्धे तु कंपमाणेवि बरोण मेहुणसंकाए संकिजति, तेण मज्झिमवतो अधिकृतो साहू, सो य उपानीयमज्झिमाई अडतो एगस्स ईश्वरस्य गिहं पविसित्ता बाहिरे ठितो, सीतवाया य ते ण वारेण पविसर, तस्स अंग सर्व कंपति, सो य इम्भो मियलोमपाउयो कुंकुमाणुगतअगरुविलिनमतो सित्ति सुराए व मत्तो हस्सरिया उपहाए अणुगतो, पुणो य अंगारसगडियाए अणुतापमाणो अंतेपुरपरिखुद्दो परइस्थिणरगीतोवरमे कथंचितं साहुं दहें कंपमाणं | चिंतयति किमयं साहू सीतेण कंपति ? उत एयाओ ममित्थीओ अलकियाओ दढ़ मणस्स खोभो जातो ?, जेण से वतीवि धूत-| मिव कदलीपत्रं थरथरेति इति, एवं साई सीयफासेण वेवमाणगाय दड़े आसणा ओवट्ठाय तमुवसंक्राम्य ब्रवीति-आउसंतो! समणा ण स्वल ते गामधंमा उवाहति?, आउसोति आमन्त्रणं, समेति व वाणी समणो, अत्रणीय उवणीतवयणं, खलु ते | गामधंमा ओबादंति, खलु विशेषणे, किं विशेषयति-? इत्थीविसता गामा गणीया या गामा सहातिविसया तेसि धम्मो गाम०, यदुक्तं भवति-सभावो, इसित्ति वाधंति जेण ते अंगं पति, इति पुट्ठो जति विरहितो तो सऽणिचं भाबितो बेति-हे आउसं! अप्पं खलु मम गामधम्मा ओवाहंति अप्पंति अभावे भवति थोवे य, एस्थ अभाव, अप्पं च खलु मे गामधम्मा उवाईति, सीयं फासं चऽहं णो चएमि अहियासित्तए, जेण मे अंग थरथरेति, सो भणइ-अग्गीओ चालिजउ, तत्थ तावेह अप्पाणं, ॥२७॥ दीप अनुक्रम [२२०२२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [275] Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२०७ २१०] दीप अनुक्रम [२२० २२३] श्रीआचा रोग सूत्र चूर्णि ॥२७२॥ "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २०७-२१०] तत्थ भणिजड़- णो एवं स्वल में कप्पति अगणिकार्य उज्जालित्तए वा ईसित्ति जालणं उञ्जालणं, तं कार्यं आयावित्तए वा, कायो सरीरं, ईसि तावणं भिसं तवणं आतावणं पतावणं, पुणो २ वातावणं पतावणं, अन्नेसिं वा वयणाए अ, गो मोण कप्पति सेवेतुं लब्धं अरिंग ताव पञ्जालेहि तत्थ कार्य तविस्तामि एवं ण वयणेवि वत्तव्यं, जाब कोइ अनुतोवि अरिंग ममडाए पजालए सोऽचि पडि सेहेयथ्यो, सो सेवं वयंतस्स सियायि एवमधारणे बदतोवि परो स एव माहावई, पाणाई समारंभ धाता घुगादि कट्ठादिसंसिते संमं उद्दिस्स समुद्दिस्त एगं वा साधुं उद्दिस्स, कीतं कट्टाणि किणित्ता, कट्ठाणि पामिश्चेति अलातं वा, अच्छिज्जं णाम अच्छिदित्ता अण्णेसिं कट्टाणि, अणिसद्वेण वा कट्टा णिति, इंधणेण अगणिकार्य उआलिज्ज वा पज्जालिज्ज वा, तं च भिक्खु अगणिकार्य जाणित्ता आज्ञापयति, यदुक्तं भवति - उद्दिस्सति, तस्य गाहावइस्स जह मम अडाए अग्गी पालिए, ण बट्टति, जतिवि सडाए गिहीहिं पज्जालिते तहाचि ण बट्ट आतंवित्तए वा पतावित्तए वा, ताहे सो गाहावर्ड आउट्टो बंदिता तं साहुं ताहे चेव इंगालसगडियाए एतस्स कार्य आतावेति, तत्थवि सं भिक्खू पडिलेहाए पडिलेहा नाम सुतोवदेसं ताए आग| मित्ता-जाणित्ता आणाविज अंणासेवणापत्ति परेणवि ण मे कप्पति कातो आतवित्तए वा०, आतवितो वा सातिज्जितए, जत्थ सो ठितो तस्थ गंतुं एगल्लविहारपडिवण्णस्स वा अणेगलविहारपडिवण्णस्स वा पडिमागतस्स वा इहरहा वा तस्स समीवे | पाणाई भृयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कीतं पामिचं जाव अच्छिज्जं अणिस अगणिकार्य उज्जालित्ता वा तस्स कार्य आता| वेति वा पतावेति वा तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्तए, यदुक्तं भवति- ज्ञात्वा, आणवेज्जा अणा सेवणाए- अणुवभोगाइति बेमि तित्थगरोवदेसाओ || इति विमोक्षाध्ययनस्स तृतीयोदेशकः ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [276] ANNA NA NA N आतापन निषेधः ॥२७२ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २११-२१५] IAL वृणिः | प्रत वृत्यक [२११२१५] श्रीआचा-0 एम एव सीतफासाहिगारो, परित्राणं च वत्थं, तस्स उवायआसेवणं, जत्थ इमं सुत्तं परिणामपसिद्धीए-जे भिक्खू तिहिं | त्रिवखता वस्थेहिं परिवुसिते जे इति अणुद्दिवस गहणं, भिक्षु पुचत्रणितो, सो जहा पडिमापडियनगो, परिउसितो पज्जुसितोथितो५ उद्दशः ति वा एगट्ठा, ण एनो परं मए वत्थाणि घेत्तवाणि, पादं तेसिं चउत्थं, पडिग्गहो गहितो, तो ओहोरवीत्वेन पातम्गहणे सनि॥२७३।। जोगो सत्त, तिनि वत्थति एते दस, एकारसमं स्यहरणं, बारसमा मुहपोतिया, ने पुण दो सोतिया एको उणितो, कप्पाणं तु । पापमाणं संडासो, अहया दो च स्यणीशो चिट्ठग पाउणंति, पढमें एक पाउगंति खोमियं, पच्छा अतिसी तेण विहज्जयं तस्सुवरिं तहावि अतिसीने ततियं पाउणति, मबत्थ उचितं वाहि, ततो परं महासीते चउत्थं न गिवति, अतो एतं सुतं-जे मिक्खू तिहिं । | वत्थेहि, तस्स णं णो एवं भवति-च उत्थं वत्थं धारिस्सामि, मणमावि एवं ण भवति, से अहेसणिजाई वधाई जाएजा से इति जो गच्छणिग्गओ जहेगणिज्जंति जहा जिषकप्पियस एसणा भणिता, उवरिल्लियाहिं दोहि अग्गहो, अभिग्गहो अनतरिज्जाए, एवं जाएता अदापरिग्गहाई वत्थाई धारेज्जा, जहा परिग्गहियाणि चेव धारए, णो धोएजा णो रगजति कमायधातुकदमादीहि, धोतरत्तं णाम जं धोवितुं पुणो रयति, अन्नं अरुचमाणगं घोहउं अण्योग रयति, जहा अहोयरतंतहा अपरिकम्मियंपि, सो भगवं उज्झियधम्मियाणि चेव धारेति अहरणिज्जाई, तेसिं इमो गुणो–अपलिउंचमाणो गार्मतरेसु, पलिउंचणं समंता, यदुक्तं भवति-अन्नेग समं गमणं, अहवा कक्खंतरे वा गंठिए वा गोवेति चोरभएण, पंथे दूइज्जमाणे गामंतरेसु, अहवा | गड्डाए वा दरीए वा ण णिहेति, जहा पंथे तहा मिक्वंपि हिंडतो अपलिउंचंतो हिंडति, ण य चोरभयाईणि पडिलेहेति, पडिले| हितोचि अपडिलेहेउं चरमाणो पडिलेहेइ, णिचव तस्स पगासपडिलेहणा, ओमवेलिते गणणेण पमायोण य, गगणपमाणेणं तिष्णि | ||२७३॥ दीप अनुक्रम [२२४ २२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'वेहासनादि मरण' आरब्धः, [277] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २११-२१५] प्रत वृत्यक [२११२१५] श्रीआचा DANपमाणं, पमाणेण य संडासो दो य रयणीओ, एवं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं एवमिति जं भणितं, समस्तं ता सामग्गी त्रिवेखता संग सूत्र-IA सामग्गिओ आतं सामग्गीजातं उबगरणं, पय्यदय झाणं तथा चरित्रं च असढभावस्स, अह पुण एवं जाणिज्जा अह अर्णतरे, ॥२७॥ पुण बिसेसणे, पयोयणेण विणा ण घरेति अयं विसेसो, अहया इमो विसेसो, एवमवधारणे, जाणेज्जा-विदिज्जा, उविच अति-| कतो हेमंतो, गिम्हे पडिक्ने चित्ते बहसाहे च, अहापरिजुलाई वत्थाई परिडुबिज्जा सवाईपि, जति वितिज हेमंतं ण पावेंति तो | परिट्ठवेद, तहा जुनाई परिद्वविना अट्ठ मासे अपाउओ चेव भवति, अह पुण एवं जाणिजा-पडीदुल्लहाई, न भविस्संति वा, ताहे जं। जुण्णं तं परिदुविचा सेसगाणि धारेति, ण पाउणति, अहबा संतरुत्तरेत्ति, जति चित्ते सीतं परति जहा गोल्लविसए ताहे) | संतरुत्तरो भवति, एगं अंतरे एग उत्तरे सवडीभवति, अहवा दोषिण अतिजुण्णाई एको साधारण ताहे दोनि परिद्ववित्ता एगं| | घरेतिचि एगसाडो, यदुक्तं भवति-एगमावरणो, सोवि क्खोमिओ, इतरहा हि तस्स चोलपटोविण कम्पति, कतो पूण साडओ', | एतं चैव दृल्लभवस्थेहि पा जुष्णाई परिदृविना एगं.धारेति, किमत्थं सो एगेगं उद्धरति !, ततो भण्णति-लापवियं आगमेमाणे, लघुतं लापवितं, दबलापवितं उबगरणलापवितं सरीरलापवितं च, भावे अप्पकोहे अप्पमाणे अपमाणे अप्पलोमे, इह पुण उवगरणलापविर्त अधिकतं, आगममाणे चिंतेमाणे, से जहेयं भगवता पवेइयं जाव सम्मत्तमेव समभिजाणित्ता | | एवं पूर्ववत् , उवगरणविमोक्खो भणितो। दाणि सरीरविमोक्खं भण्णति, भणियं णिज्जुसीए-उबगरणसरीराण चउत्थए, सोणपु सरीरविमोक्खो उस्सग्गेण भत्तपञ्चक्खाटोण ठाइ पाओवगमोण वा, अववादो वेहाणा, णसेण वा गिद्ध पुढेण वा णं, तं कई !, बुञ्चति| जस्स वा जेमि वा भिक्स् पूर्ववत् , पडीमापडीवष्णो गच्छवासी या भवति, जतेति स तं सरीरावत्थं दळू उपसगं बा, तबिह-| २७४॥ दीप अनुक्रम [२२४ २२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [278] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२११ २१५] दीप अनुक्रम [२२४ २२८] श्री आचा रांग सूत्रचूर्णिः 1120411 “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) 20 श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [४], निर्युक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २११-२१५] | चिंता उप्पज्जति, 'पुढो अहमंसि भवति पतो, केण ?, सीतपरीसहेण णालमहंसि ण पडिसेहे, अलं पर्यावरणभूषणेषु णवि अहं अलं तं उप्पनं अहियासेउं किमिति ?, सीतफास अहिया सित्तए, ण दव्वसीतं भावसीतमवि, इत्थी सकारपरीसहो य दो भावसीतला एते, अहियामणा णाम महणं, जहा सुदंसणो गाहाबई तहा णालमहं तं पप्पनं अहियासेउं से सबसम ण्णागसपण्णाणणं अप्पाणेण से इति सह मोहया ओवरए ओहरितेलओ, सव्यसमण्णागतं पष्णाणं जस्म भवति सच्चसमण्णागते पण्णाणे, अतो य तस्म सन्चसमणागतं पण्णा, तंजहा असहणिजे परीमहोदए कारण मणसा बायाए य ण खुम्मति, केपि अकरणाए, केवि ण सच्चे, अकरणं अणासेवर्ण, कस्स १, मेहुणस्स सुदंसणवत्, आउट्टिति वा अम्भुट्टित्ति वा एगट्टा, जो पुण अपलो, मणेण वाताए कारण ण पारेति अप्पाणं साहारिचए तवस्त्रिणो उसे तय किं करेति ?, णणु भण्णति-जं सेवे गिहमा| दिते एगो रामदोसरहितो सण्णायएहिं उच्चरए, स च भोइयाए सणिरुद्धो न सकेति कतोड़वि णिस्सरिउं, साय तं आलिंगणा| इएहिं उबयारेहि पुल्वलद्वप्पसरा खोमेति, ताहे सो कतितयमतो, तं च मतमिवं गच्चा, देहमादि ये तिविहं अगासं तं आदचे, यदुक्तं भवति कहतत्रउबंधणं, साय तं वारेति विद्वंसेजसि तो सुंदरं, अह ण विसज्जेति ताहे चिंतेमा में मंगो भविस्सति उच्चचिखावि, सिभक्खणं बात्रि करेजा, इतराईपि य भगह- जति मे ण सुयह तो विसभक्खणं करेमि उकलंबेमि वा पासायलाओ तौड वा अप्पानं मृयामि, एवमचि अमुचमाणो ताव करेति, अण्णोवि जो अणुवसग्गजमाणो निध्वियातिकयपरिकम्मो तहावि ण ट्टाति ण य तरति भत्तपचक्खाणं काउं सो गिद्धपट्टे बेदाणसं वा अम्भुवेति इति, एवं तत्येव तस्स कालपरियाए तत्थमिति तत्थ उवसग्गे, असहणिजे या मोहणिजे, तस्म उवस्मात्तस्य अभिमवकीवस्य वा इतरस्स वा ण एतं बालमरणं संसारबडणं, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [279] शीतस्पर्शासहस्वं 1120411 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २११-२१५] ॥२७६|| प्रत वृत्यक [२११२१५] श्रीआचा | इञ्चेतेणं बालमरणेणं मरमाणे जीचे अर्णतेहिं नेरइयभवंगहणेहिं मुञ्चति, पाणु कारणे पुण?, दो अणुण्णाता, तंजहाशंग सूत्रचूणिः । | वेहाणसे य गद्धपट्टे,य, कालकरणं कालपञ्जाओ, जत्तियं सेसकालं आउएणं कम्मं निजरिजति इत्तियं सो अप्पेणवि लब्भति, से | ५-६ उदेशः तस्य बियंतिकारए स इति कारणितं मरणं मरमाणो, तत्थेति तत्थ वेहाणसे गिद्धपट्टे वा, विसिट्ठाअंती वियंती, वियंति करेति | वियंतीकारओ, यदुक्तं भवति-अंतकिरियाकारओ, तस्स तं कारणमासन्ज उवसम्गमरणमेव गणिजति, इति एवं, अववाइयं मरणं |N अतीतकाले अणंता साहू मरिता निव्वाणगमणं पत्ता, जेण बुञ्चति-इथेयं विमोहाययणं हियं सुहं स्वमं जिस्सेसियं अणु गाभितं हियमप्पणो परेसिं च, ण उवधायगं, जहा अम्मिमरणं, आसुकारिता अप्पे असुई, सब्यअवग्गहे सुई, अपरोक्वाइचा "अण्णसुहमवि, एवं खमं, निस्सेसिमं चेति, अणुगच्छति अणुगामितं, जइविण णिवाति तहावि पुण बोधिलाभाय पंडितमरणमि-11 वेति, इति-एवं मज्झिमवयसाहिगारेण इहं उद्देसए पाएंणं तरुणस्स तस्स सीयविमोक्खो भणितो, तस्साहणा य सव्वविभोक्खो। इति विमोहज्झयणस्त चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो।। __उद्देसत्याहिगारो णिज्जुत्तीए वस्थए गच्छे सीते य, जिणकप्पाओ वा थेरकप्पाओवा, दुवत्थपज्जुसितो पुण णियमा जिणकप्पिो वा परिहारअहालंदन्न पडिमाए पडिवण्णो वा. जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं जाव पुट्टो अहमंसि अबलो अहमंसीति, अपडियणता अपडिण्णत्तस्स, एनो धेरकप्पियाणं भणितो अहिगारो सुत्तं उच्चारित्ता-जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं सों नरुत्तर बज्झो स एव बज्झो जाव संसत्तमेव सममिजाणित्ता, इमंपि जओ कप्पिए सुतं चेत्र, तंजहा-जस्स णं निक्खुस्स एवं भवति-पुट्ठो अहमंसि, जस्सवि गच्छणिग्गयस्स चउण्इं जिणकप्पियादीणं अण्णतरस्स, किमिति ?-पुट्ठो-पुण्णो रोगेण आतंकेण वा, 100 दीप अनुक्रम [२२४२२८] ॥२७६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'ग्लान-भक्त-परिज्ञा' आरब्धः, [280] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१६-२१७] वैयावश्य प्रत वृत्यक २१६२१७]] श्रीआचा तेण अपडिकम्मेण वाहिणा अबलो, किं करेतु ?, भण्णाति-वसही वसही, अन्नतरं, मिहंतरंति मिहामो अन्नं गिहं गिहतर, तेण रांग सूत्र- | आमपि अबलत्ताए गिहतर ण मिक्वायरियाए गमणा, सो एवं अचलताण मिक्खा, नेरिय अभिगच्छंति, तं च केह गाहावई परि-IN वृणिः किलामियसरीरं दटुं. तस्स अणुकंपापरिणतो जत्थ इमं सुन सेवा सेयतरं, तस्सवि परो भणितं-तं दुक्खं अकहतस्स परो ||२७७|| Mणाम सावओ वा सण्णी अहाभद्दओ वा मिच्छादिट्टी वा अणुकंपाए परिणतो असणं वा पाणं वा खाइमं या साइमं चा आहटु आणिचा आसन्नाओ दूरओ वा, आहटु दलएजा, अण्णहा उपवई, से पुवामेव आलोरबा से इति सो गिलाणो जिण| कपिलो ४, आलोएज्जत्ति णाम आउसंतो! गाहावई ?-आउमो गिहपती णो बल मे कप्पए णो पडिसेहे, खलु विसेसणे, किं विसेसेति !, ण केवल गिहिणा, साहुणावि अण्णेण आहितं णकप्पति, एवंविहे हि पडिमाभिग्गहविसेसे कप्पति वदति, अभिमुहं हितं | अभिहडं, असणे पाणे खाइमे साइमे भोलए वा पात्तए बा, भोयर्ण भोतु, अण्णवरेण वा तहप्पगारेण वा अभिहडं जीबोवरोहि-|| |निकाउंण मम कप्पति, एवं अनं भवे, तेण पगारेण तहपगारं आहाकम्मादि उम्गमदोससुई ण कप्पति-पद्दति, एवं उप्पा यणाए गहणेमणाए वा अविसुद्धं, अहवा जीवा समारंभ समुहिस्स, कीपपामिर्च, तत्थवि तहेब अफासुर्य अणेसणिजं लाभे संने णो पडिगहिजा, गिलाणाधिगारो अणुयति, गिलाणोचितं अभिग्गहणं गणु चट्टति, तंजहा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं पकप्पे Mजस्स जो वा जेसि, मिक्ख पुब्वभणियो, एवमवधारणे, साहु आदीओ कप्पो पकप्पो-सामायारी माता, कतरे सो ?, परिहार विसुद्धीओ अहालंदितो बा, अहं च खलु पडियन्नो अपडिण्णतेहिं च समुच्चये, स्खलु पूरणे, पडिपन्नो णाम पडिण्णवितो, जहा वयं वेयावचं करेमो उड्डावणणिसियावणभत्तपाणाति, अपडिण्णतेहि-ण ते मते पडिण्णाना जहा तुझे मम करिअब उट्ठावणादि दीप अनुक्रम [२२९२३०] ॥२७७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [281] Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२१६ २१७] दीप अनुक्रम [२२९ २३०] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णि ॥२७८॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [५], निर्युक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २१६-२१७] बेयायचं, गिलाणोसहेण बावारसमणा शिव्त्रायणं मोहता मूलादिगिलाणेण अगिलाणेहिं तस्य पुण अणुपरिहारितो करेति, कप्पद्वितो वा, जइ तेवि गिलाणाओ सेसमा करेंति, एवं अहालंदिताणवि, अभिकख सामियवेयावडियं सो निजराकंखितेहिं सरिकप्पएहिं ण पुण थेस्कप्पिएहिं गिहत्थेहिं वा कीरमाणं सातिजिस्मामि, जहा चेत्र पढिष्णते अपडिण तेहिं गिलाणो अगिला हिं वेयावडियं कीरमाणं सातिनिस्सामि तहा परस्सवि जहण्णेग कयपडिकतियाए अहं खलु पनित्तो पडिण्णत्तस्स पडिपणती णाम नाहं साइजिस्सामि ण य वेयावचं केणयि अन्त्यव्य इति अपडिण्णत्तो अपडिण्णत्तरसत्ति अहं तव इच्छाकारेण वैयावडियं करेमि जांव गिलायसि, अगिलाणो गिलाणस्स वैयावचं गुणे अभिकंखित्ता वैयावडियं करिस्सामि एवं ताव दण्डं भणितं, तंजहा एगो करेति एगो कारवेति इदाणिं तेसिं चैव चत्तारि विगप्पा आहद्दु परिवणं अणिविस्वस्सामि आरुमिता पहने अहवा अपडित्ते आरुमित्ता पहनं अनिक्खिस्सामिति-अणिरिससामि करेस्सामि सरिकधियवेयावचं आहड च साइजिस्सामि, अणुपरिहारितो अण्णतरो वा गिलाणस्स वेयावडियं काहिति तंपि अहं सम्माणिहामि, चितियो अभिग्गदं गिण्डति, तंजा सरिकप्पियस्स आहडं परिणयं अणिक्खिस्सामि गिलायमाणस्स, जं भणितं आणेतुं दिस्यामि पुण गिलायमाणोवि सरिकष्पितेणावि वैयावडियं कीरमाणं सातिजिस्यामि एवं तइयचउत्था य जहा सुवे तहा विभावियया ततियभंगे अहालंदिया चैव पडिवी, उत्थभंगे जिणकप्पिओ, लाघवितं आगमेमाणो सुण ता लाघवितं दच्चे भावे य, जं इच्छमाणे जाय संमत्तमेव समभिजाणित्ता, एवं से अहाकिनिमेव किट्टितो दरिसितो तित्थगरेहिं, जहां कितिओ अहाकिट्टितो, एवमवधारणे दुवत्थमादि धम्मं, जो य अन्य अज्झाते अभिग्गहविसेसो भणितो तं अभिमुहं जाणमाणे समभिजाण माणो परमाणो य संतो विर मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [282] वैयावृष्यविचार: ॥२७८॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१६-२१७] श्रीआचा- संग सत्र चूर्णिः ७ अध्य ६ उद्देशः ॥२७९।। प्रत वृत्यक २१६२१७]] तेसु समाहिलिस्सो संते कोहादिपहि, विरतो पाणावायातीतो, मुट्ठ संमं अप्पते अहिलिस्सो सुसमाहियलेसो, पसस्थासुनी प्रतिमा |लेसासु अप्पा आहितो जस्स जेण वा अप्पते आडियाओ लेस्साो तत्थेव तस्स कालपरियाग एवमेव एमा, जेण सो गिलागो । अपडि कम्मसरीरो अण्णेण य असरिकप्पितेण गहितं अगिण्हमाणो काले करेजा तस्स कालपायो मन्नुमेव तस्स गणिजह से | तत्थ वियंतिकारए, इच्चेयं विमोहायणं हितं सुहं धम्म णिस्सेसं ४ आणुगामितंतिबेमि । विमोक्षाध्ययनस्य पंचम उद्देशकः॥ तिवत्थदुवत्थेहिंतो इमो बलवंतो संघयणजुनो जेण तस्स सुतं-भिक्खू एगेणं वत्येणं परिचुसितो जाव संमत्तमेव | समभिजाणित्ता, अभिग्गहबिसेसाहिगारे एव अणुयत्तते, तंजहा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति जस्स जयो जेसिं वा भिक्खू पूर्ववत् एवमवधारणे, किं भवति ?-वसाओ बुद्धिअज्झवसाओ एगहुँ, जहा एगो अहमंसि एगो नाम रागदोसरहितो |ण मे अस्थि कोइवि, ण पडिसेहे ण मम अस्थि-ण विति, कोइवित्ति पुब्बसंजोगो मातापितिमादि, सो भावतो परिचत्तो, बिजमाणो भवति मम तहेब आयरिओ विसेसिञ्जति एए बासिणोवि में अत्यित्ति जहेव भावओ परिचनं ता ण मम कोई णिोM नहा णाहमवि कस्मति, एवं से एगो णियमेव अप्पाणं समभिजाणेजा, एवं एएणं प्रकारेणं, स इति सो जस्स अयं अमि| पाओ ण मम कोयि ण याहमवि कस्मति एमाणियं अचंतियं एवमेव अप्पाणं समभिजाणमाणो लापवितं आगमेमाणो भाव|लापवितं, यदुक्तं भवति-अममीकारो जाव सम्मत्तमेव सममिजाणिता से आहारं स इति सो एगो, जपावि ण मे कयाति आहा रेइ ततोवि ण तं आहारं आहारेइ, आहारेमाणो नो वामातो हणुयाओ ण पडिसेहे वामाणाम अबसब्बा, तीति हणुया, Mणवि वामातो हणुयातो किंचि अस्ससे, जगं आहार दाहिणं हणुयं साहरेजा जामेव सर्व मुहं पम्हालेति, निधनदत्ता कुतो तस्स |॥२७९॥ दीप अनुक्रम [२२९२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने षष्ठ-उद्देशक: ‘एकत्व भावना/इंगित मरण' आरब्ध: [283] Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] प्रत वृत्यंक [२१८२२२ श्रीआचा- अस्सातेवं !, गणु कलमसालिओदणो कुम्मामाहिंगुदद्दराजीरगलवणसंजुना या सत्तुयपिंडी सअट्ठाए मदित्ता अहवा तस्स जति रांग बत्र| स्थाने कथाह णाम पञ्जनं आहारं तस्स परिफ़सियस्स किंचिदवि अस्सातणिजं भवति, पढिजह य-आढायमाणे, आढाणाम || त्यागादि चूणिः आयरो, तत्थ आहारे मुच्छितो गिरो, अमणुण्णे वा अणादायमाणे, सीतकरादी भोयणे कराणए वा, तं दुग्गंधं विरसं वा, णो ॥२८ वामातो हणुयातो दाहिणं हणयं साहरेजा अणाढायमाणो, दाहिणाओ वा हणुयाओ वाम हणुयं साहरेआ, एवं रागेणं दोसेणं वा|FA इतरेतरं हणुयं साहरति, तेण ते रामदोसा ग कायचा इति लाबवित आगमेमाणे, कतरं लापवितं !, आहारलापवियं जाव सम| भिजाणित्ता, एतेसु अट्ठसुवि उद्देसएसु एस आलावओ सम्बत्थ भाणियब्यो-ण मे अस्थि कोयिणाहमवि कस्सति, अहवा) | बेहाणसमरणउद्देसगातो आरम्भ एस आलावो वत्तव्यो, ण मम अस्थि कोयि०, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति जस्स जतो || PAIजेसि वा इह तु एगसाडए वा अधिकतो एवं भवतीति, गिलाणमिव खलु अहं इमंसि समते, कतरेण गिलश्रेण ?, रोगेण, इहरह IN पुण एचिरकालिओ, ओसण अपअत्तभोयणेण य, कुपाउरणो अपाउरणो वा, सुहीसु य णिचुकडयासणेण य, एगजाममाइ, अगि लाणोवि गिलाणो भवति, तम्स य एवं गिलायतो भवति-गिलाणमिव य बलु अहं इमंमि समते, च पूरणे, खलु विस-|| Mसणे, प केवलं गिलाणतातिसयाए तवेणं वा झुसितसरीरो गिलाति, इहं तु गेलण्मेण चेव गिलायइ, इमंमि से भवति इमंमि पच्छिमकालसमए भिक्खायरियसन्नाभमिमादिस आवसएस इमं तवोसोसियं सरीरगं अणुपुब्वेण परिहित्तए, तत्थ अणुपुब्बी | जहमणितकालोवमग्गोवकमो, कुत्सितं अणुकंपणिशं वा सरीरं सरीरंग, परि समंता गामाणुगाम भिक्खायरियातिसु आवस्सएसु सम्वो वहिसए परिवदित्तए, से अणुपृथ्वीए आहार संबदित्ता, रोगस्य संलेहणाविही णिज्जुत्तीए-चत्तारि विचित्ताई० जस्स |DD/॥२८॥ दीप अनुक्रम [२३१२३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [284] Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] श्रीआचा. गंग सूत्र चूर्णिः ॥२८॥ प्रत वृत्यक [२१८२२२१ एचिरकालं आउयं पहुप्पिहिति, इमो पृण गिलाणो अणुपुष्वीए छद्रुट्ठमदममदुवालसहि आयंबिलपरिग्गई दब्बसलेहणाए आहारं 0 संलेखनादि सम संवट्टेति, यदुक्तं भवति-संखिबति, अणुपुयीने वट्टित्ता भावसंलहणाए कमाए य पयणुए किचा, अन्नोवि ततो साहू कसाए । पपयणुए करेति, संलेहणाकाले विसेसेणं, कोइ सब्वे कमाए खवेति, अप्पाहारो वा अहाहारो वा अणाहारो वा गाहियन्यो, अञ्चा णाम | सरीरं, सा अच्चा जस्स सम्मं आहिना स भवति समाहियचो, यदुक्तं भवति-कायगुत्तो, अहवा अच्चा लेसा, यदुक्तं भवति-भावो, | सो जस्स भावो समाहितो स भवति समाहियचो, यदुक्तं भवति-विसुद्धलेसो, अहबा अचा जाला, ता जेण रागदोसजालारहितो | स भवति समाहियचो, फलगावयही फलगमिव वासीमातीहिं उभयतो अवगरिसियं बाहिरतो अम्भितरओ य स भवति फल| गावपट्टो, बाहिरतो वहेणं सरीरं अवकरिसितं अंतो कसायकम्मं वा, जहा फलगतं छिअंत ण रुस्सति, चंदणेण वा लिप्पंतं ण | तुस्सति, रुक्खो वा, एवं सोवि वासीचंदणकप्पो, सो एवं रोगाभिभूतो दिणे दिणे सागारं मतं पथक्वायमाणो सब महारोगे आयके चा अट्ठार्यते उहाय मिक्ख उवट्ठाण ताव पूवं ताव संजमउट्ठाणं पच्छा अन्भुञ्जयविहारं उड्डाणं ततो य अन्भु-10 जयमरणउट्ठाणं मिक्खू पुखमणितो द्रव्याचिवलनशिखावपुश्च भावे तु भावाचि लेश्या अन्योऽप्यचिः प्रोक्तो रागद्वेपानलज्जाला, अभिमता निव्वुता अर्था जस्म भवति अभिणिन्वुडच्चो अमिणिबुडप्पा चा, सो संलिहप्पा सप्पति सामत्थे अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा खेडं वा कम्बई वा जाव रायहाणि वा अट्ठारसहं करभराण गंमो गमणिो वा गामी, गमति बुद्धिमा | दिगुणे वा गामो, ण एत्थ करो विजतीति नगरं, खेडं पंसुपागारवेढें, कब्बडं पाम धुल्लो जस पागारो, मडवं जस्स अट्टाइजेहिं गाउएहिं णस्थि गामो, पट्टणं जलपट्टणं थलपट्टणं च, जलपट्टणं जहा काल गदीबो, थलपट्टणं जहा महुरा, आगरो हिर- २८१॥. दीप अनुक्रम [२३१२३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [285] Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२१८ २२२] दीप अनुक्रम [२३१२३५] श्री आचारांग सूत्र चूर्णिः ॥ २८२ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], नियुक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] ष्णागरादी, गामो विञ्जसष्णिविट्ठो दोहिं गम्मति जलेगवि थलेणवि दोणमुहं जहा भरुयच्छं तामलित्ती एवमादि, आसमो आसमपदं, जहा आसन्नसन्निवेसो सनसन्निवेसो य, जहा समागमो वा, णिग्गमो जस्थ णेगमवग्गो परिवसति, रायहाणी जत्थ राया वसई, तणाइ दव्यकुसादीणि अनुसिराणि डगउतणादीणं जस्सोग्गहं करेति-तणसामी जायति, जाइता से तमादाय एगन्तं उनक मेजा, ताणि आदाय गिण्डित्ता एगंतमवकमति, अगावातमसंलोग गमेत्ता अप्पपाणे बंबाणुलोमेण अप्पपार्ण, इहरहा अप्पाणमेव, अप्पबीजं सामगादीचीयरहियं, अप्पहरियं हरियविवजियं, अप्पाओसे जस्म हिट्टाओ वा उप्परातो वा ओसा णत्थि, एवं अप्पोदगमचि, भोमो अंतरिक्खो वा, उलिंगं कीडियानगरं, पणतो णाम उलितिया भूमि, उद्गमट्टिया, आणेति वा फासु गीए भूमीए छुमित्या, अडवा उदगमट्टिया मकडगसंताणउकलियाओ, अहया संताणओ पिपीलियादीणं, एरिसं थंडिलं पडिलेहित्ता संथारगं संथ संथारगं संथरेता पुरस्थामिमुहो संथारोबगतो करतलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्यए अंजलि काउं एत्तिवि समए इतिरियं करेति, इत्तिरियं णाम अप्पकालिये, तं केयि मण्णंति- इतिरियं भत्तपचखाइयं, यदुक्तं भवति - सागारं जति | एतो रोगायंकाओ मुच्चीहामी यहिं वारसहिं दिवसेहिं वो मे वरि कप्पति पारेतर, अह ण मुच्चामि तो मे तहा पञ्चकखायमेव भवतु, सागारं भतं पञ्चकखाति, इतरसद्मेचो, केह एवं इच्छति, तं ण भवंति वयं भणामो एवं सागा अभिग्गहे अभिगिपति, सेसगाओ पडिमाओ पडिवजंति, ण तु साहवोऽवित्तरे, ण तु जिणकप्पिया, ते तु अण्णहंपि काले णिचं अप्पमति, ताण सागारं पुरिमद्धमादि पञ्चकख, किं पुण आवकहितं भत्तपञ्चवाणमिति, जं पुण वृञ्चति एत्थंपि समए इतिरियं करेति तं एवं जाणावेति- एसो इंगिणीमरणं उद्देसिओ, चउन्त्रिहाहारविरओ, से जावजीबाए एत्यंपि समत्ति इंगिणिमरणकालसमए, इतिरियं णाम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [286] ग्रामादि ॥२८२ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२१८ २२२] दीप अनुक्रम [२३१ २३५] श्रीआचा संग सूत्र चूर्णिः ॥ २८३ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], नियुक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] अप्पकालिये ठाणसिजणि सीहियं करेति तं स सञ्चवादी, तमिति इंगिणिमरणं, सच्चं णडलियं, तित्थगरोवरसाए तं सचं, जहोबसअड्डाणतो, अडवा सच्चो संजमो, तं जावजीचे अणुपालित्ता अंतेण सचमरणेण मरंतो सच सचकरो जहारो विपत्तिष्णे अंत नेता सचं कर्त भवति, ओए तिष्णे छिनकहे ओयो पाम एगो रागदोसरहितो, तरमाणे तिष्णे पब्वजं, एगवत्थओसितिं जिणकपपणं इंगिणिमरणं च चरमाणे तिष्येण तस्स पुणरावची भवति, छिनक कहा संसयकरणं, कहं कहा भवति ?, किमहं एतं मणक्खाणं णित्थरेखण णित्थरेज ?, जीवादि० पयत्थेसु छिन्नक, कई १, 'तमेव सथं निस्संकं' आइट्ठो अणातीते आतीतं णाम गहितं, तत्थ जीवादिनाणादीण वा पंचाण आतीतो अणातीतो, जहारोविय भारवाही पुर्वपि इंगिणिमरणेति, अतीता अत्था वा सावजाओ सत्यासणसणघणधभाउ आरंभाउ अतीता, अतिकममाणो अतिकंने, अहवा अतीतं संमाणियं असमत्ता तस्स नाणादी पंच अत्था कियवओयणा दत्तफला, समाणिजमाणा समत्ता, अस्सि विस्संभणयाए अस्मिन्निति अरिंस जहा जहा लद्धिड्डे इंगिणीमरणं, विहीए विस्सं अणेगविदं विस्संभावित्ता विस्संभणियाए, कहं हैं, अब सरीरं अन्नो अहं अने संबंधिबंधवा, अथवा 'भज सेवाए' एवं भजिता, यदुक्तं भवति सेवित्ता, अहरा विस्सं भविता जीवाओ सरीरं संधीसु भवति, देसी भासाओ वीसं पिहं, विचा णो भेउरं कार्य वेचा णाम विला, भिदुरधम्मं भेउरं, दुडाणेहिं दुस्सेजाहिं दुनिस्सीहिताहिं मिजंति, अहवा आर्यके से बहाए होति संकप्पे से बहाए मरणंते से बहाए एतेहिं पगारेहिं भिदुरधम्मं भेउरं, कायो सरीरं, संविहुणिय विरूवरूवेर्हि परीसहोवसग्गेहिं संमतं विरुणियं विसि विविदं वा रूपं जेर्ति ते इमे विरूवरुवा, अणुलोमा पढिलोमा य परीसोसम्म य भणिया, अस्मिन् विस्संभणयाए विस्सं अगप्पगारं विस्सं भवित्ता, तंजहा- अण्णं सरीरं अण्णोऽहं, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [287] सत्यसत्य वादित्वादि ॥ २८३॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२१८ २२] दीप अनुक्रम [२३१२३५] श्रीचा रांग सूत्र चूर्णि ७ उद्देशः ॥ २८४ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [६], निर्युक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २१८-२२२] भय सेवाए, एवं भवित्ता, यदुक्तं भवति - सेवित्ता, अहवा विस्सं अणेगविदं भवो तं महता, वीस वा भइया, जीवो सरीराओ सरीरं वा जीवाओ, अहवा जीवाओ कम्मं क्रम्मं वा जीवाओ, भैरवमणुचिवणे भयं करोतीति भेरवं, भेरवेहिं परीसहोत्रसम्गेहिं अणुचिजमाणो अणुचिष्णो, दंसमसगसीहवग्धातिएहि य रक्खसपिसायादीहि य, अहवा दव्यादीहिं अणुचिष्णो तहावि अक्खुन्भमाणो, तत्थेव तस्स कालपरियाते तेसिं वा कालपरियार, तत्थ इंगिणिमरणे कालपरियाए से तत्थ वियंति करे, इधेयं विमोहातणं विविहं सुहं खेमं णिस्सेसं आणुगामियंति वेमि ।। सप्तमस्य षष्ठोदेशकः परिसमाप्तः ॥ भणिता वत्थधारिणो सीत फास अहियासणा कमेण इदाणिं सीतफास विसोही बुचंति-जे भिक्खू अचेलए परिवु सिते एस पुण पडिमा पडिवनओ मामादि जात्र सत्तममा, केह तु भण्णंति-पडिमा पडिवन्नोवि कोइ जावजीवं होति, वासारते या पुण विहरति, तस्स णं एतं भवति, किं भवति ?, भिक्खु अचेलए परिवसिते, एस पुग पडिमा किसप्पो वा एव, अहं तणफार्स अहियासेत्तए, एवं सीतकासं दंसमसगकासं जाव एगतरे अनतरे विरूवरूवफासे अहियासेत्तए, हिरिपंडिच्छायणं वह णो | संचाएमि हिरी णाम लज्जा, ताए हिरीए पड़िच्छायणं, यदुक्तं भवति-लञ्जापडिच्छायणं, ण सो अहं अबाउडोति लञ्जति शरीरं नैरूपतया लञ्जति, अरिमाउ संणिग्गतेलियाउ, ईसित्ति दूरं वा लंबंति, पउप्पलो वा अवदंसितो वा अतिखद्धसागरिओ वा विरु | पिएल्यं वा से अविरइयं वा दट्टणं ततो य थंभा घडंति, रसिया वा से संगलति, मेधपगारो वा मुत्तं पुणो २ कृमिया वा कस्सइ प्रति, सागारियाओ संपातिमा वा लग्गति, अरिसासु सागारे, एवमादिपगारेहिं लजमाणस्स एवं से कप्पह कडिबंधणं धारि तए, कडीए कअति कडिचंधणं, पमाण० लजमाणेणं एकं, जुने जुन्ने अन्नं मग्गति, एगस्रू पूण एगल्ल विहार पडिमपविष्णस्स णं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम अध्ययने सप्तम उद्देशकः पादपोपगमन' आरब्धः, [288] भैरवानु चीर्णत्वादि ॥२८४ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [७], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२३-२२६] RIMAR प्रत वृत्यक [२२३२२६] यावृश्यश्रीआचा- भवति ततो ने उ दंसममगा, इतरे अण्णतरे, एवमेतं एग कडिपंधणं मुइना से एगल्लविहारकप्पं अणुपालेति लापवितं आगमे-10 रांग सूत्र कल्पः | माणे, अचेलगत्तं लापवितं जाव संमत्तमेव सममिजाणिता, अभिग्गहअहिग रो वति, तंजहा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भ. चूर्णिः वति जस्स जतो जेमि वा, पटिवण्णगस्म कप्पो दसासु भणिजिहि ति, तंजहा-परिजितकालामंतणं, अहवा तत्थ पर-IN ॥२८५॥ कमति अह इति अर्णतरे, नत्थेति तर्हि काले, एगल्लविहारे एगकडिबंधणधारि अचेलतेण परिकमंत, भुञ्जो विसेसेणं अचेलं अपा-2 | उरणं हेमंतसातफामा फुसंति एवं भवति-अहं च खलु अप.सिं भिक्खूणं अहमिति अत्तणिदेसे, च पूरणे, खलु त्रिसेमणे, किं । HAIविसे सेति ? पडिमापटियमओ चेव सो, अनि आयवतिरिलार्ण सरिकप्पियाणं घेव पडिमापटियाग चेव असणं पा ४, विभासाए। Mवत्यमादि कटिबंधणं तणं वा आहह (टु)परिणं आहष्ह(टु निक्सिविस्सामि पाहण्ड(दृटुपदण्ण-अणिम्गहं गहिना दाहामि | तेहि य आहेडं माइजिस्सामि पढमो, अण्णस्म पूण अभिग्गही-आटु परिणं दाहामि पूण गिलायमाणो विसरिकप्पियस्मवि गिहिस्सामो असणादि पितियो, तइयम्स कम्मद करेमि जइवि से लद्दी पत्थि अण्णं वा किंचि कारणं, आहट पुण सालिजिस्सामि,100 | चउत्थे उभयपडिसेहो, लाघवितं आगमेमाणे आहारउक्गरणलाघवितं, चत्तारि पडिमा अभिग्गहक्सेिसा बुत्ता । इदाणि पंचमोसो पूण तेसि चेव अतिण्डं आदिल्लाणं पहिमाविसेसाणं अभिग्गहं दरिसेति जस्म णं भिक्खुस्स० अहं च खलु, अहमिति आतणिद्देसे, चः ममुचये, खलु पूरणे, अमिति अप्पाणं वञ्जिचा, समाणा सरिमा बाधम्मिया साहम्मिया, जति ते एगदान भंजंति 10 तिहावि ते अभिम्गहसाहम्मिया एगल्लविहारसाहम्मिया य संभोइया गणिअंति, तेण समणुण्यस्म, यदुक्तं भवति-मरिसामिग्गहस्स, परिहारकवन् पडिवण्णाणं, एतं व तेसि परिहास्तव जस्म कस्स देति, ण पडिम्महेंति, अहेसणिा , जहा तम्म एमणा बुना, a दीप अनुक्रम [२३६२३९] HAMARA २८५।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [289] Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२३ २२६] दीप अनुक्रम [२३६२३९] श्रीआचा रांग सूत्रचूणिः ॥२८६ ।। “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [७], निर्युक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२३-२२६] पंचहिं अग्गहो अनतरीए अभिग्गहो, अहा अहापरिग्गहितं अहाभावपरिग्गहितंति, अहाभावपरिग्गहितेणं अतट्टाए परिग्गहितेण दाव न देति, अतस्तस्स, एवं वत्थपत्ताईपि, अहवा तेसिं कारणे मग्गज अहातिरितं च से देखा, अभत्तरोयगमादिएहिं अगिलाए णो तिमिलाएति, अपरितंमंतो अणुग्गहबुद्धी (बुद्धी) ए निअरट्ठाए अतिकम्म सामिएहिं अभिकखंति, वेयावश्चं अभिकतो, किह णाम अहं पक (एया) रिसस्स वेयावचं करिजामि, कम्मणिजरं वा अभिकखंतो अहवा इच्छतो करेति ण बला कारिजति बेडिं वा मष्णति, विदालयति कम्मगंठिं, वेयावडियं करिस्सामि अवावि खलु तेण अहातिरिषेण, अहमिति आतणिदेशे, वा विभासा, खलु प्रेरणे, तेणेति तेण सरिसएण साहम्मिएण, अहेसणि जेणं असद्वाए तेण तं परिम्गहितं, आहारसित्ति, जइ तस्स अमलस्थं दाति उच्च| रीते सह सहाणेण वा अतिरिनं जातं, अभिकखंतेण पिञ्जरलाभो, तेण साहम्मिएण पडिमापडिवण्णरण चैत्र अगिला एवं ण कयमणं वेयावडियं कीरमाणं सातिजिस्सामि- इच्छिस्सामि, जो वा अण्णो सरिकप्पियस्स करेति तंपि अहं मणेण अणुमोदीहामि सुद्ध एस करेति, बायाए अणुवृदयिस्सामि कारणवि दिमुपासायादीहिं अणुवृहामि, से जहेतं भगवया पवेइयं जाव संमतमेव समभिजात्रा, एवं ते भगवंता जयंता घडता परकर्मता, अह चाए उप्पण्णे वा आउसेस आसनं वा जायेता पन्छा एत्थ उद्देमए पाओगमण अधिकृत उच्यते-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति, अभिग्गहाहिकारेण वा अतो अणुयनति, इमो तबो चेव, तंजहा-जस्म णं भिक्खुस्स एवं भवति, किमिति गिलामि च खलु इममि समए जाय तह चैत्र संथारगं संथरेति, संथारगं संधरेता समारुहति, समारुद्दित्ता एवं वदति - नमोत्थूणं अरहंताणं० सिद्धाणं, सयमेव पंच महाबाई आरुहेति, सयमेव पंच महव्ययाई आहमित्ता एवं पाओगमणं अधिकतं, तेण अत्थ चउच्चिपि आहारंपि यत्ता कार्य च योगं च रीयं च गमणागम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [290] वैयावृस्यकल्पः ॥२८६ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [७], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२३-२२६] प्रत श्रीश्राचा रांग पत्र चूर्णिः ७ अध्य ८ उद्देशः ||२८७॥ वृत्यक [२२३२२६] णादि पचखाएजा, णिसण्णो सपणन्थो वा, आउदृणपसारणं दिविसंचारणं च सम्बं काययोगं निरंभति, वायोयोग निरंभति, अहवा काय इति सरीरं तं वोसिरति, जोगे णाम तस्सेव आउंटणपसारणादी बाइयो गहितो, माणसियपि अपसत्थं निरंमति, रीयंानुपूर्वीच च गमणादि पचक्खाएज, पाओवगमणं भणित, समे विसमे वा पादवोविवजह पाडिओ, णागझुणा-कट्ठमिव आतडे तत्थV संचतितं सजकरेत्ता उ पतिपणे छिन्नकहं कहेजा जाव इयं विमोहामतणं हितं सुहं खमं निस्सेसं अणुगामिति ।। विमोक्षाध्ययनस्य सप्तमाद्देशकः समाप्तः॥ भणियं चउत्थउद्देसए वाघातिममरणं वेहाणसगद्धपढ़े च, पंचमे भत्तपणखाणं इच्चेयं छड़े इंगिणिमरणं, सत्तमए पाओवगमणं, अट्ठमए तेसिं तिण्हपि पडिसमणेण बुचति, पुषभणि तु जंभष्णइ तत्व कारणं०, ताणि तिनि भत्तपञ्चक्वाणाईणि, बाहातिमाणि वा अणुपुच्चीए भणियाणि, इमं पुण निब्यापातिगे चेव, जतोऽभिधीयते-अणुपुवेणं विमोहाई० (१७) अणुशमो अणुपूब्धी, तंजहा-पवजा सिक्वा वय अस्थग्रहणं च पुरिसं आमञ्ज अणुपुब्बी भत्तपचक्खाणं इंगिणि पाउवगमणं, संलेहणाणुपुब्बी तंजहा-चत्तारि विचित्ताई०, विमोक्वतेति विमोहा, जं भणियं-मरणाणि जाणि बीरा समासज, वीरा भणिता, बुसिमंता मतिमंतो, संजमो उसी जत्थ अस्थि जत्थ वा विजति सो उसिम, भणियं च-"संजमे वसता तु वसुD. सी वा, येनेन्द्रियाणि तस्य चशे, वसु च धनं वानाचं, तस्यास्तित्वान्मुनिसुमां" बुसिमं च बुसिमंतो, एवं मतिमंतोवि, यदुक्तं भवति-नाणमंतो, सर्व णच्चा अणेलिसं भत्तपञ्चक्खाणाइ तिविहं मरणविहाणं जो य जय विही जंच जस्स अणुण्णातं मरणं स्वतः संघयणधितिबलाणि आसञ्ज, अलिस इति अणण्णसरिसं, अट्ठाणे अरेलिसं, बालमरणाणि वा पहुच अणेलिसं, दुविहंमि ॥२८७ दीप अनुक्रम [२३६२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: अष्टम-अध्ययने अष्टम-उद्देशक: 'अनशन-मरण' आरब्धः, [291] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२५] दीप अनुक्रम [२३६ २६४] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥२८८॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], निर्युक्तिः [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२५] विदित्ताणं बुद्धा धम्मस्स पारगा (१८) बज्यं अभितरं च बज् सरीरोवगरणादि, अभितरं रागादि, पदिजइ य'दुबिपि बिचित्ता दुट्टादुद्वाण जाणगा' तिविहं वा मरणं बुद्धा, धम्मो दुविहो, धम्मस्स पारं गच्छंतीति, अणुपुत्रीए संखाए, अणुकमो अणुपुच्ची, संखाए जाणणाए, यदुक्तं भवति संखाए णच्चा, किं ताव जीवंतस्स ममं गुणा ? अह सरीरं विमोक्खं कुणमाणस्स ? कस्स वा अहं मरणस्म जोगो ? इति संखाए, आरंभा यतिउहति आरंभणं आरंभो सरीरधारणत्थं भत्तपाणा ईओ तिउकृति, अथवा बेयावचत्रायणपुच्छणादिआरंभा तिउद्धति, यदुक्तं भवति णिञ्जति, पढिजह य-कम्मुणा यतिउहृति, कम्मं अद्भुविहं ततो तुट्टमाणो तुट्टे, दुबिपि संलेहं करेंतस्स जया जयासो अतिगिलाणो भवइ कसाह पतणुते किवा (१९) अहवा मूलसंलेडणाए कमाए पतणुकरणं, तेण सा आहिये -मणिअति, कसंतीति कमाया कोहादि सव्वधाओ वा तजुए, तणुए। संलेहणाए अप्पाहारो तिउहति, यदुक्तं भवति-अपअनाहारो, एत्थ दुबिहाए संलेहणाए कोंकणगतो, अक्खोवंजणाणुलेवणसमाहिणिमित्तं आहारते इति, तितिक्खणं सहणं सहणं सहति ओमोदरियं अह भिक्खु गिलाएजा आहारस्सेव कारणा अह इति अन्न ( णं) तरे, भिक्खू पुण्यवनितो, गिलायति, किं निमित्तं १, आहारकारणा, आहारेण संलेहं करेमाणो अंतियं अम्मासे अतीव संलिहित्ता, जं भणितं आसनमरणकालो, एवं गिलायमाणोऽवि जीवियं णाभिकंखिज्ञा (२०) कह णाम जीवजा चिरतरं ?, संलेहणं वा पमादेति मरणंपिण पत्थर अतीव छुहाए वा विज्झामि कहं णाम मरिजति १, पञ्चकखाते वा जति से देवता गडोवहारात अणुलोमे उवसग्गे करेड़, थपादिणा वा मणुया पूयं करेंति तहवि जी वियं णावकंखेज, पडिलोमे| हि वा कीरमाणे मरणं णोवि पत्थए, दुहओवि ण सज्जेज्जा दुविहो दुहतो, कत्थ ?, जीविए मरणे तहा। मज्झत्थो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [292] बाह्याभ्य न्तरादित्यागः ॥२८८॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] समाधि श्रीप्राचा रांग पत्र चूर्णिः ॥२८॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५] दीप अनुक्रम [२३६२६४१ | णिजपेही (२१) मज्झेहि चिट्ठीति मज्झन्धो, जीवियमरणे ग आसंमते मुहृदुक्खे वा, पडिलोमअणुलोमेहि वा उपसग्गेहि |णिजर पेक्वतीति णिञ्जरापेही, कद्द मम णिजग भविजा ?, नाणादि पंचविहं समाहिं अणुपालेति इति, एवं अंतो परिं पालनादि विउस्सज अंतो गगादीवित्तिउस्सग्गो, बाहिरं सरीरं, आहारउवगरणमादीइ, एवं बर्हि अभितरं च उवहिं विउसञ्ज, अहवा।। अंतो वा बाहिबा गानादीणं सरीर विउस्सा, विसेसेण चषणा वियोसज, अज्झत्थं सुद्धमेसर अपाणं अहिकिश्च बद्दति, अमत्थं मुद्धं णाम जीवितमरणादि वियजेति, रागदोमादिराहियं बा, एमति णाम मग्गति, सो एवं संलिईतो जं किंचि उवक्रम जाणेज (२२) इति अणुद्दिस्म किंचि इति अतिगिलाणितो पित्तमुच्छ वा आयंबिल परिग्गदितण वा तवेण अतिघाती सरीरस्म | आउखेमस्स अपणो आउसो खेम-अबाधायत्तं जीवियस्म, अहवा जं किंचिदिति तस्म उकोसेहिं तवेहि सोसितसरीरस्स अण्णादिरूवा उबकमकारी भवंति, तं एवं आउमो खेम समतीए परवागरणेण वा जागेचा तस्सेय अंतरद्वाए श्रद्धा णाम कालो, अंतरे अद्धा अंतरद्धा, यदनं भवति-तत्व कालंतरे, खिप्पं सिविल खिप्पं सब्यासंगेण तहेव कालो, सिकाया णाम आसे| बगा, जं तवमिति जं तेण अवसितं तदेव सिक्खिज, तक्षणादेव आलोइयपडिकतो बयाई आरोपिता मन पचवावेजा, | पापाड्डीणो पंडितो, तत्थ गामे या अहवा रपणे (२३) अंतो गामस्म बसही तब्बाहि वा उजाणे ठितो गिरिगुहाइसु वा, पाडिचरएहि मद्धिं, आसुकारण वा एगाणितो, थंडिलं पहिलेहए थाणं ददातीति थंडिल पडिलेहेहि, तं दृविहं सरीरं पडिहाय पाणियथंडिलं च, जत्थ प भ पञ्चस्वाति जत्थचि थंडिले सरीरमं परिद्वविअिस्सति पि जति अगीयस्था सेहा य ताहे तंपि सय मेत्र पडिलेहेति, एरिसे थंडिले मते परिढविजाह, पारिट्ठावणिया च बहि च मि कहेति, जत्थ पुण ण विञ्जति तं अप्पपाणं 11२८९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [293] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२५] दीप अनुक्रम [२३६ २६४] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥२९० ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], निर्युक्तिः [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२५] अप्पयीयं च अपहरितं जात्र बियाणेचा तणाई संथरेजा, तलाई संधरेचा दम्भकुमादीणि सयमेव अणाहारो निवज्वेल (२४) मुणी, तस्स आहारो ण विजतीति अणाहारो, तिविहं वा पथक्खाति, ताणि वओआ जाव विष्णो संतो, पुट्टो तत्थऽधियासिज्जा पुड्डो णाम दिगिंछाते, तिविहे पश्चक्खाए, तिविहे चउन्त्रि वा पञ्चकखाया, पित्रासितो तत्थऽहियाए, एवं अनेहिवि परीसहेहिं पुट्ठो अहियासए णातिवेलं उवचरे ण पडिसेहे अतिरतिक्रमणादिपु, वेलति वा सीमति वा मेरत्ति वा एगड्डा, दब्बबेला समृद्दस्स, भाववेला चरिचपाली, तं सो परीमहेहिं उवसग्गेहिं पुट्ठो ण अतिवेलं धम्मसुक्काजाण, उबगरणे आहारो दाइजा, मस्से सुवि पुढवं धम्मं मणुस्सेसु, अणुलोमेहिं वा पडिलोमेहिं तत्थ अणुलोको आहारनिमंतणादी, इत्थिया वा उवसग्गं करेति, पुरिसएसणी वा गणिया चउसट्टिकलाविसारया, पडिलोमे या कटुलेहिं पिडिज वा कट्टविकट्टिं वा करेजा, अवि पदत्यादिसु दिव्येहिवि पुडुवं तिरिक्खजोणिया पुण उवसग्गा सिरीसिवादि ततो भणिजति संसध्या य जे पाणा (२५) संमतीति संसप्पगा-मुगाओ मकोडगचगसीयल सीइवग्यतरच्छादि, जे य उड आहे चरा उडे चरा उड़चरा पक्षिणो कागा गिद्धा सण्डादि, दंगमसगादयो य, पण्णवगदिसं पहुंच अहेचरा विलवासिणो, तंजा-अहिमगादि, भुंजंते मंससोणियं तत्थ मंसं सीहवग्धजंबुगादि भक्खयंति जहा अवंतिकुसुमालस्स, सोणियं तु दंसममगपिपीलिगादि पिते, सच्चेवि ण च्छणे हत्थेण वा पादेग वाकडेण वा तणेण त्राण छणिअ, यदुक्तं भवति-ण मारेज, पमज्जते समय वत्थे वा हत्थेण पचेण वा पाणा देहं विहिंसंति (२६) इत्थ इमं आलंपणं कार्ड अहियासेयन्वं मा तेमिं अंतराइयं भविस्पति, एते तु पाणा मम देहमेव विहिंसंति, ण पुण नाणा दिउवरोहं करेति कथं १- अण्णो जीवो अण्णं सरीरमितिकाउं, भणियं च अण्णं इमं सरीरं अमो० असे संबंधिबंधवा, तं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [294] अनाहारादि ॥ २९०॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] गंग सूत्र चूर्णिः ॥२९॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५] दीप अनुक्रम [२३६२६४१ जति पाणा देहं भक्खें ति मया णिसमिति एत्थ किं मम अवरजाति !, अंतरं वा तेसिं, अतोरण णिवारते, ठाणाओ णवि उम्भमेति दवठाणं सो चेव ओवासो, भत्तट्ठाणं भत्तपरिणा, विविई उम्भमे विउम्भमे, सो एवं भावठाणायो अचलितो भवति, जतो अवसब्वेहिं विचित्तेहिं अवसम्बंतीति अबसना विसयकसाया हिंसादयो य विचित्ता-मुत्ता, अहवा विरूवप्पिहभावो, विचित्तेहिं अबसम्बेहिं अमिलितेहि पमाणे अहिपासएति पमाण इति अमएणेव सिञ्चमाणो खुम्पिवासिएहि परीसह उवसग्गेहि मिलायमाणे छिजमाणे वा देहित्ति तो बसे, णवि कायावायामणेहिं तिहिं तप्पति अहेयासेजत्ति-सहिज, कम्मक्खयत्थं कम-10 गंथेहि विचित्तेहिं (२७) दबगंथो सरीखत्थपत्ताति भावे रागादि, आउकालस्स पारते आउकालस्स पारगो पइण्णापारगो |य जाव चरिमा उस्सासणिस्मासा मिद्धिगमणं वा देवलोगउववातं, भत्तपञ्चक्खाणं चुनं । इदाणि इंगिणिमरणं बुबति, पग्गि-m |हियतरागं च एतं मिसं गहियतरं पम्गहियतरं भन्नपच्चक्खाणाश्रो भारिततरं पूइततरं च, दुक्खतर, कस्स?-दवियस्स वियाणओ रागदोसरहियस्स दवियस्स सुटु आदितो वा आहिते सुयाहितो, पछजा सिवावय अस्थगहणं च०, सोवि ताD परिकम्म करिता उवगरणादिवहिं चइता थंडिलं पमजिना आलोइयपडिकतो वयाणि आरुभित्ता चउविहं आहारं पचक्खाय संथारारूदो चिट्ठति, सयमेव चंकमणाकिरियं करेतित्रि सो, आयविलं पडिगारं (२८) सयमेव उद्देति निसीयति चंकमणं |वा करेति, आयविज नाम नो तं असुहीभूतं अन्नो कोई उहवेति णिसियावेह वा उच्चारपासवणभूमि णेति वा आणेति वा, पडियरणं परियारो गायस्त आउंट गपसारणगमणागमणादि विजहेज निहा तिधा त्रिविहं २ जहिज विजहि, तिहा २ योगत्रिककरणत्रिकेम, करिसए थंडिले णिवञ्जति ?, भन्नति-हरितेसु ण णिवजे जा(२९) सयमेव थंडिल्लं पडीलेहित्ता गंतुं तत्थ णिविञ्जति, IY२९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [295] Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२५] दीप अनुक्रम [२३६ २६४] श्रीआचा रांग सूत्र चूणिः ॥२९२॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], निर्युक्तिः [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२५] मुणी पुत्रभणितो आसीत आमए वियोसज, अणाहारो, कयसजचउन्विहं वा आहारं, अणाहारो पञ्चतन्त्रऽधियास, पुट्ठोति छुदाईहिं पर सहेहिं उवसग्गेहि य अहियासए तिविहकरोणवि, सो एवं दिट्ठो संतो इंदिएहिं (३०) अंगचंगचिडो संकु डीतो वा समितं माहरे मुणी, संकुडितो परिकिलंतो वा पमञ्जिता साहरति, एवं उबवतो परियसंतो होऊण परावनति, यदुक्तं भवति - पडिलेहिता, तब से आउंडेन्तो पसारतो वा चंक्रमणियं वा करेंतो अगरहणिज्जो चैव सो भवति, अचले जे समाधिते अचलति अचलो, समाधिते अ, जति अचलो समाधितो भवति, इंगिणिमरणसमाधितो अहवा पतिष्णि, अचलो चैव अच्छइ वते. चलतोवि समाधितो अचलो गणिअति, किंच-ण केवलं उब्वसत्ति वा परियचति वा, कताई मिसण्यो सयत्थो वा अवि परिसंतो उडाय अभिकमे परिकमे (३१) पन्नवर्ग पड़च अभिमुदं कमे, अभिमुो क्रान्तभृतो, किमिति पडिक मे १, यदुक्तं भवति-तं गमयागमणं करेति हत्थं वा पायं वा परिस्तं संकोडिज्ज वा पसारेख वा सम्मं कुचणं संकुचणं यदुक्तं भवति पडिले हित्ता, प्रभूति प्रसारणं, किमत्थं वृञ्चति ? काया साधारणट्ठाए सम्मं धारणं संधारणं, जं भणितं सारक्खणं, एगपक्खेण संयमाणस्स गायाणि परिस्समंति ताणि उब्वसणपरियत्तण आकुंचणपसारणेहिं साधारेति एत्थं वावि अवेधणेति इत्थं इंगिणिमरणे वा विभासा जहा पाओगमणे कट्टमिव अचेयणा सर्वक्रियारहिते चिट्ठति एवं एत्थवि इंगिणिमरणे जति से सामत्थं अत्थि तो अयणो, अचेयगोव्य किरियारहितो चिट्ठति, अनेयणेण तुछो अवेयणवत्, जो पुण परिगिलाति कट्टमित्र चिह्नमाणो सो परकमे परिकितो (३२) परिकमतेण तेवि जदा क्लान्तो भवति तदा अहवा चिट्टे अहायतं अहायतमे भवित्ता चिट्ठति जहा परिहि यतो ठिनओवा अच्छति, जया पुण ठाणेणावि परिकिलेमति तदा छातो परिक्रमणं, वेणचि ठाणेणं परिकिलंतो निसिएज वा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [296] अनाहारादि ॥२९२ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] प्रत वृत्यंक [२२६गाथा श्रीआचारांग मूत्र अंतसो ठाणस्स अंते यतसो णिसणोवि जया पलियंकण वा अद्धपलियंकेण वा उक्कुटुयासणो वा परितमति णिविज्जति, उत्ता-10 गतो वा पासिल्लितो च। उहायतो वा लगंडसाथी वा जहासमाहीते सन्धथवि (३३) आसीगमाण मिसं आसीण इति, उदासीणो। चूणिः ।।२९३। मज्झस्थो रागदोसरहितो, अणेलिसो, अहवा धम्म आसीतो मरणं वा अणण्णसरिसं इंदियाई समीरते 'ई गति कंपणतो' संमं ईरते | | समीरए इटाणिद्वेगु विसएसु रागदोसअंकणं ईदियसमीरण, अहवा ठितो चेव कोलावासं समासज कोला णाम घुगा, केइ आहु-उद्देहियाओ, कोलाणं आवासो कालापासो, यदुक्तं भवति-मुक्तकहूं, णायि अदे कढे कोला संभवंति, तं च अमुन्नं अघुणितं । अणुदेहियाखइयं उविध-आमज समाज, अहवा अवयंभे पने वितहं पादुसते सतो णं तहं वितह, किंमितो सो कोला वासो?, जधा कोलेवि अवहितो भवति तदा व नस्थ सन्ना भवति, तदवि पादुअतेसए-पादु पगासणे, पगासे अबट्टितं तं चक्खुसा Dय आलोके, बद्धमूलं अझुसिरं एसति, यदुक्तं भवति-अबद्धं भवति, अवलंबति वा, जतो वजं समुप्पजे (३४) जम्हा ततो जत्थ वा कडे कुडे चा अवलंबमाणो, वजं णाम कम्भ, समत्थं उप्पञ्जइ समुप्पञ्जइ, किमिति पुण ?, वयलिअंति, उद्देहियाउ पा संच-ID | रओ वा बंधा भजंति, पढ़ति वा, ण तस्थ अवलंबते, उक्कसे अप्पाणं ततो जम्हा ईसित्ति कसिता उकसिता अप्पाणं सव्वे फासेऽधियासए, अहियामणे ठाणे वा निसियणे वा तुयट्टणे वा, जहा फासे तहा-सेसेवि विसए, भणियं इंगिणिमरणं, अयं तु | सिलीगत्थो तहवि मरणोहे समोयारेयव्यो, तंजहा कदायि पातोवगमणं पिडितयो वा करेजा, अप्रत्यंभियं वा कढ हत्थेण अबलंबिउं, सोवि जतो बज्ज समुपज्जे ण तन्थ अवलंबते, भत्तपञ्चक्खाणेवि जतो वजं समुप्पजे जतो वा णिदाणकरणादि परिपणावितोबा, वजं कम्म उप्पज्जति ण तत्थ अवलंबते- तं परिणाम पुणो अवलंबिना, ततो उकसे अग्याणं, विसुद्धपरिणाम EFSAIDEHATI १-२५] दीप अनुक्रम [२३६२६४ m. nidin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [297] Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] आततरादि प्रत श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि: ॥२९॥ वृत्यंक [२२६गाथा १-२५] तरमासज्ज सम्मं ठावति अप्पागं, पाओवगमणमियाणि, तंजहा-अयं वाततरे सिता(३५)अयमिति जो युवति अंततरो अंततरी वा आयतरो, पढिजह आयरे-द्रढग्गाहतरे धम्म मरणधम्मे इंगिणिमरणाओ आयतरे उत्तमतरेजो विवेकं करेति, नणु जो एवं अणुपालते तहेव एत्थवि पन्चज्जा सिक्खावय० जाव संलेहितुं णिवज्जति, सो पुण सधगायनिरोधेवि गातं हत्थषादं जतिथि से परिमट्ठाणट्टियस्स उत्तावितेहिं मुच्छा उप्पज्जति मरणं समुग्धातो वा तहवि ततो ठाणाओ णवि उम्भमे, दमट्ठाण स एव अवगासो, भाषट्ठाणं स एगो मरणभिग्गहो, ईसितमेव उज्जमे, एपस्त पादवेण उवमा कीरति पाओवगमणं, जहा पायवो अच्छिन्नोवि ण चलति, किं छिन्नपातो?, सो उज्झमाणे वा छिण्णमाणे वा विसमपडितो वा मित्तिकाउंण ततो ठाणाओ चलति, अण्णहा ठाणं ण करेइ, एवं एसोऽपि पातववत् पडितो निचलो निष्फंदो चिट्ठति, कत्थ पूण सो चिट्ठति ?-गामे अहवारपणे, कहं पुण गामेति ?, जति जाणइ एस गामो अचिरेण इंहिति, मम असमते घेव पाओवगमणा, ताहे गामे ठाति, इहरा तु सति | परकमे अरण्णे पेव करेति, अचिरं पडिलेहिता अचिरं णाम ठाणं, अहवा अचिरं कालं, कालकतं अविरं, तं पडिलेहित्ता पम- | ज्जेता बिहरे चिट्ठ माहणे विहरेति अच्छति णिसण्णे वा णिवण्णो वा चिट्ठति, उट्ठीयतो अच्छति, काउस्सग्गे ठिओ वा, माह| घोति वा समणेत्ति वा एगहुँ, णिश्चले निप्पडीकम्मो णिक्खिवति जं जहि जहा अंग, अचित्तं तु समासज्ज (३७) अचित्रं [अचेयणं किंचि अवटुंभणं जा कई वा कटुं वा तं आसज्ज समासज, यदुक्तं भवति-प्राध्य, तत्थवि किर कीरति अवलुमितं पाओ| वगमणं संमं, जो तिवत्य० पाओवगमणं, एतं कतरस्स?, अहवा अयं चंडिलं, सो थंडिल्ले णिसण्णो अबढेभो वा अविलंबितो वा || | चोसिरे सबसो कार्य सम्येहि पगारेहिं सब्बसो सबसस्था पणामए देहे परीसहाण णामए देहि किंचि परायतं एतं सरीर-10 दीप अनुक्रम २३६२६४] ॥२९४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [298] Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] सर्व श्रीआचारांगन- प्रत चूर्णिः ॥२९५॥ वृत्यंक [२२६गाथा १-२५] मेते, सव्यहा बोस?, सयं परीसडतीति, सेति देहे, दुक्खाणं भवंति, सो य देहो मम ण विज्जति, कतो परीसहा ?, अहवाण मम || सहनादि देहे परीसहा संतीति सुहृदुक्खसमत्ता, एवं मण्णति पुढवी विव सबसहे णणु कम्मसतुजयसहायकत्ता तो परीसहाणं अपरीसहा एव मन्नति, ते पुग केच्चिरं कालं परीसहा अहियासेइ उवसग्गा, युचंति–जावज्जीव परीसहा (३८) उवसग्गा य, परीसहा दिगिच्छादि उवसग्गा य अणुलोमा पडिलोमा य, इति संखाय एवं संखावां तेण भवति, यदुक्तं-ते न भवति ततो| अहियासते, पुण सुद्धते पडुश्च ण संखाया भवंति, अहवा जावज्जीवं एते परीसहा उबसग्गाविण मम तस्सविसंतीति एवं संखाए | अहियासए, अहवा परीसहा एव उवसम्गा ण देहे छिज्जमाणे डज्झमाणे वा इति पण्णे अहियासए इति एवं प्रज्ञावां उपग्यो अहि| यासए-सहेजासि, परिणिद्देसो वा, एवं सो पणो अहियासेति, देहदुक्रवं महाफलंतिकाउं अहियासेति, एवं तं अध तं कोति | विविहेहिं कामभोगेहिं णिमंतिज्ज सद्दातिविसरहिं तप्पडिसेहे इमं सुत्तं आरम्भति-भेउरेसु न रज्जेजा (३९) कामेसु बहु| तरेसु भेउरधम्मा मेउरा सदादिपसु कामेसु, बहुतरा णाम पभूततरा, अलाहि आसत्तमाश्रो कुलवंसाओ, पढिजइ य-कामेसु बहुलेसुवि, यदुक्तं भवति-बहुएम, जतिवि रायकन्ना गणिया वा चउसटिकलागुणोरवेया उपसग्गे करेति तंपि सहति, एवं | पडिलोमेवि भेउरे सहति, जह खंदसीसे हिं, किंच-इत्थ (च्छा)लोभ ण सेविज्जा इच्छा चए लोभो, ते पुरिसे, अन्नोऽवि काम इच्छा, पसत्था इच्छा नाणादि, सा तु लोभगहणा अपसत्था इच्छा, णिदाणकरणं, जहा भदत्तादी हिं, तं ण सेविज्जा, ण पत्थेज्जा या अभिलसेज्जा, इहलोगे वा आहारादि, अहया इहलोगासंसप्पयोगे परलोगासंसप्पयोगे जीवियास सप्पओमे मरणा| संसप्पयोगे कामभोगासंसप्पयोगे, सुहमरूवे उवसग्गे सूयणीया सुहुमा, वण्णो णाम संजमो, सो य सुहुमो, थोवेणवि विर दीप अनुक्रम [२३६२६४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [299] Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२७५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२५] ध्रुवप्रेवादि प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२५] रांग सूत्र | हिज्जति बालपद्मवत् , सम्ममेहिता समेहिता, पढिज्जइ य-धुवमन्नं समेहिता थिरसंजमं पेहित्ता, सो कहं थिरो?, धुर्व अव्व- चूर्णिः मिचारी, अहवा धुवमन्नं सपेहिया धुवो मोक्खो, सो य आणा, संजमो उ जस्स दोहि ता, किंच-सासतेहिं णिमंतिज्जा ॥२९६॥ | दिवं मातं न सहहे (४०) सासयमिति णितिएहिं, कोयी देवता व समत्थं पडिणीतताए वा, तं मायां, किं एवं किलिस्ससि ? PM अहं ते सासते कामे देमि, जं भणितं-दिव्बे, उढेहि एतं विमाणं, तं च अट्ठाए सकेण देवराइणा पेसिता, सरूवेणमेव सग्गं आर-1 मिज्जासि, अन्नं वा जं इच्छसि तं ते बरं देमि रज्जं धणं वा अक्खयं जीवितं, एतं निमतते तहिं देवे, तं दिवमायं ण सरहे। Bण एतिते जाव तं सव्वं तिविहेण करणेगवि, अहवा दिव्वं आयं ण सहहे, आतं-लाभं आगमणं ण सहहे, एवं देवीवि दिव्वं ।। रूवं विउवित्ता भोगेहिं निमंतिज्जा साभावितं कइयविय वा, तं दिव्वमायं ण सहहे, त पडिमिति तं मायाठाणं पडीबुज्झे, यदुक्तं । भवति जाणिज्जा, समणेति या माहणेत्ति वा सवणूमं विधूणिता धूत्र कंपने, तं मातं विधूणिता, जंभणित-खवित्ता, अहवा|" 2 नूमं कम्म, जेण तासु तासु गईसु मिज्जति-निहिज्जति, मातामहिताओ वा रागगहितो, तं विधूना, एवं दोसंपि, अहवा तमिति तं दब्ब मुंचति तिविहं, धूमिता विधूमित्ता विमोक्खो य इति । एवं सो सबस्थेहिं अमुच्छितो (४१) अत्था सदादि, ते य । | दिव्या माणुसा य, केइ इच्छंति तिरिक्खजोणियपि, दिब्बा सामाणीया तायतीसगादी, मणुस्सा चकवहिबलदेववासुदेवमंडलियादि एतेसु कम्मबंधणगेसु अड्डेसु अमुच्छिते-अगिद्धो आयु कालस्स पारतो एतीति आयुं तस्स आयुकालस्स पारं गच्छतीति पारगो सजाय तस्स मवविमोक्खो भवति देसविमोक्खो बा, भणिय चा पाओवगमणं, एतेसिं तिण्डवि मरणाण किं आलंवर्ण , तदुच्यते तितिक्वं परमं णचा णाविमो(तिण्हम)प्रणतरं हितं तधिमि तितिक्खगं, यदुक्तं भवति-सहणं तं, एतेसिं तिण्हवि मरणाणं ।। दीप अनुक्रम [२३६ २६४१ ॥२९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [300] Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] | उद्देशार्थाधिकाराः चूर्णिः प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२३] श्रीआचा- परमं सिद्धं पहाणं भवति, जं भणित-जाणेत्ता जह विही विमोक्खतीति विमोक्खं, अण्णावरं णाम तिण्डवि एतेमि अन्नतरं, अणुरांग सूत्र- पालिअंति इन्चेयं विमोहायपयणं एगतियं च अचंतियं च हितं मुहं आवकहितं परहित मेति एवं धु(बु)वामि, तित्थगरोदेसाओ, MINण सेच्छाती इति ।। आचारचूपयों सप्तममध्ययनं विमोक्षायतनं नाम परिसमाप्तं ॥ ॥२९॥ ___अज्झयणामिसंबंधो जहा णिज्जुत्तीए पद मे अज्झयणे बुचो, तंजड़ा-कयरेण इमं सुथर्खधं प्रणीत ? केण वा एते गुणा अणुचरिता जे अडसु अज्झयणेसु उत्ता?, तं पुच्च(बुच)ति-बदमाणसामिणा भगवया, एस द्वितकप्पो व सब्बतित्थगराणं जेण भचेराणं नवमे अज्झपणे तवोकम्म वण्णेति जे अप्पणा अणुचिण्णमिति, जं च साहहिं अणुचरियध्वमिति, तत्थ गाहा-जो जइता तिस्थगरो॥२७५।। कंठणं, चत्तारि अणुयोगदारा वण्णेत्ता दुविहो अस्थाहिगारो, अज्झयणे ताब चउहिवि उद्देसरहिं तवोकम्मेहि अहिगारो बदमाणसामिणा य, उद्देसत्याधिमारो इमो-चरिया १ सेजा २ यं परीसहा य ३ आयकिते तिगिच्छाए ४ ॥२७६।। | तत्थ पढभए उद्देसए चरिया वणिजति जहा सा चरियब्वा, बितिए सेजाओ वणिजंति जारिसियासु सो भगवं वसिताइओ, ततिए | उपसग्गा वण्णिअंति, चउत्थे ओमोदरिया, जं च आहारं भगवं आहारियमो, णामणिष्फण्णे उवहाणसुतं, तस्स णिक खेवो-नाम | ठवणुबहाणं० गाहा ।।२८०।। दध्खुवहाणं वइरिच उवहाणं सयणिजस्स एगतो दुहतो वा, निरुवहाणो उत्तभयंति, आदिग्गहणा | उवविट्ठस्सवि, भावोवहाणं चरित्तस्स सेजाए, चाहिन्भतरो तवो, पंचमहत्वयसिजाए पा, जतो य एवं नाणदसणचरित अभिग| मणं-अभिगच्छणं, जं भणितं-करणं, तवसा को गुणो?, भण्णति-जह खलु महलं वत्थं० गाहा ।।२८२।। कंठधं, तस्स पुण|| " भावोवहाणस्स इमे एगट्ठा नामधेचा भवंति, जं वा तेणं भायोवहाणेण वुचंति एगद्वियाणि, तंजहा -'उवहणण'गाहा ।।२८३॥ दीप अनुक्रम [२६५२८७] २९७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययनं 'उपधानश्रुत' आरब्ध:, [301] Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५२८७] “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ २७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२३] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥२९८॥ एतं किमत्थं वणिअति उपहाणसुयं १, वुञ्चति- 'तित्थगरो चउनाणी ० ' गाहा ||२७७॥ एवं तु समणुचिण्णं जं अणुचरेदु बीरा सिवं० गाहा ॥ २८४ ॥ जहा य तेण भगवया एतं अणुविष्णं एवं अण्येहिवि अणुचरिष्यमिति अयं संखेवत्थो, सुत्ताणुगमे सुतं उच्चारेय, अहासुयं वइस्सामि (४२) अजमुमो जंबुखामि पृच्छंतं भगति अहासुतं वइस्सामि, जहा सुतं अहासुतं, जहेति जेण पगारेण, ण अनहा, वइस्सामि, अहं वा जह सुतं तहा वदिस्सामि, जहा से जेण पगारेण सेति णिसे, कस्म ? भगवतो समणस्स, कतरस्स - वर्द्धमानस्वामिनो, अपच्छिमतित्थगरस्स, उड्डाणं उद्दाय, तंजहा-पंथं किर देसित्ता साहूणं अड विविणप्पट्टणं० सामाइयनिज्जुत्सीगमएणं जहा पज्जोवसणाकप्पे भणियं जाव आमरण अलंकार ओमुइत्ता पंचमुट्ठियालोयं सिद्धाण णमोकारं कार्ड सब्बं सावज्जं एगं देवसमादाय मुंडे भवित्ता मणपञ्जवे उप्पण्णे इति, एवं अट्टविहकम्मसत्तु निग्धायणयाए तित्थपवत्तणाय उट्टिते संखाय तंमि हेमंते संखाय परिगणित्ता, यदुक्तं - गथा, पुत्रं चेव अंमापी तिर्हि देव तं गतेहि नंदिवणपमितिण सयणाण अज्झत्थिते गम्भकालपतिष्णाते परिसमतीय निग्गीभावो सयणं अणुपत्नति, अफासुर्य आहारं रामसं चण आहारैतो बंभयारी असंजमवावाररहितो ठितो इति, एवं संखाय पव्वज्जाकालं च छउमत्यपरियागं च कम्मालयकालं च संखाय संसारे दुक्खं सुहं च एवमादि संखाय, तत्थ हेमंते मग्गसिरबहुलंइसमीए पाईणग मिणीए छायाए अहुणा पच्चतिए रीतित्था, रितित्था णाम विहरित्था ततो दिवसे म्रुदुत्तसेसे कुमारगामं अणुपत्तो, अयं च उद्देसओ चरियाधिगारेणं जाति, जहा सामियीय निज्जुनीए छउमत्थचरिया, इहं तु किंचि विसेसं भण्णति, सो नगवां णिमिणो भवित्ता एगद वा से खंवे काउं पञ्चइतो, तस्स पुण भगवतो एवं आलंबणं नो चेव इमेण बत्थेण पीहेस्सामि तंसि हेमंते, ण पढिसेहे, ण अहं इमेण वत्थेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम अध्ययने प्रथम उद्देशक : 'चर्या' आरब्धः [302] श्रीवीरदीक्षा | ॥२९८॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५ २८७] “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ २७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२३] श्री आचा रांग सूत्र चूणिः ||२९९ ॥ | दिव्वेण, पिहिस्सामि, न तस्स जहा मम एवं सीतत्ताणं हिरिपडिच्छायणं वा भविस्तति से पारते अवकहाए स इति सो भगवं वद्धमाणो, पारं गच्छतीति पारगो, सीतपरीसहाणं वत्थमंतरेणावि, जं पुण तं वत्थं बंधे ठितं धरितं वा तं अणुधम्मियं तस्स अणु पच्छाभावे अनेहिवि तित्थगरेहिं तहा धरियं तं अणुभम्नियमेव एतं जं भणितं गताणुगतं, अहवा तित्थगराणं अयं अणुकालधम्मो से बेमि जे य अतीता जे य पडुपण्णा जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो जे य पव्वइया जे य पब्जयंति जे य पब्बड़स्संति सध्धे सोबहिगो धम्मो देसिपव्यनिकड तित्थवधाए एसा अणुधम्मियत्ति एवं देवसमादाय पञ्चसु वा पति वा प स्संति वा, भणियं च गरीयस्त्वात् सचेलस्स, धर्मस्यान्यैः तथागतैः । शिग्यसंप्रत्ययाच्चैव वस्त्रं दधे न लज्जया ॥ १॥ स हि भगवां दिव्वेहिं गोसीसाइएहिं चंदणेहिं चुन्नेहि य वासेहि य पुष्फेहि य वासितदेहोऽपि णिक्खमणाभिसेगेण य अभिसितो विसेसेणं इंदेहिं चंदणादिगंधेहिं वा वासितो, जओ तस्स पञ्चस्सवि सओ चचारि साधिगे मासे तहावस्थो, ण जाति, आगममग्गसिरा आरद्ध चनारि मासा सो दिवो गंधो न फिडिओ, जओ से सुरभिगंधेणं भमरा मधुकरा य पाणजातीया बहवो आगमेति दूराओबि, पुष्फिलेवि लोहकंदादिवणसंडे चहता, दिव्वेहिं गंधेहिं आगरिसिता, तरस देहमागम्म आरुज्झ कार्य विवंति, कायो णाम सरीरं, तं आरुभित्ताविहरींसु, ततो जतो जतो भट्टारतो जाति ततो ततो विलग्गा चैव केति विहरंति के मग्गओ गता मग्गओ अण्णेंति, जहा पुण किंचिवि ण रोएंति ततो आरुसियाणं तत्थ हिंसिंसु अञ्चत्थं रुस्सिताणं आरुस्सिताणं, तत्थेति तत्थ सरीरे, हिंसिंमु | हेहि य रस्सयंति, वसन्तकालविरियं किंचि रक्तो व सुमणेहिं भवति, ततो विलग्गिउं तं पिचित्ता आरुसचाणं तत्थ हिंसिंसु, | महंगादीवि पाणजातीओ आरम्भ कार्य विदरंति, जाव गाते बस्थे या चंदणाड़ी विलेवणाणं चुनादीणं चकेति अवयववचितं ताव मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [303] देवदूष्यादि |||२९९ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५ २८७] "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ २७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२३] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि: ॥ ३००॥ ते खासु तेहिं णिद्वेहिं पच्छा ते दिवस वा तस वा आरुड्डा समाना कार्य विहिंसिंस, जे वा अजितेंदिया ते गंधे अघात तरुणनातं मंत्रमुच्छिता भगवंतं भिक्खायरियाए हिंडतं गामाणुगामं दइज्जत अणुगच्छंता अणुलोमं जायंति देहि अम्हवि एवं गंधजुति, सिणी अच्छमाणे पडिलोमा उवसग्गे करेंति, देहि वा, किंवा पिच्छसित्ति, एवं पडिमाडियंपि उबलगति, एवं | स्थियाओवि तस्स भगवतो गायं प्रस्वेदमलेहिं विरहितं गिलाससुगंधं व मुहं दमणंति-कहिं तुझे बस उवेद १ पुच्छंति जुती, ण से, सो एवं विहरमाणो संवच्छरं साहियं मासं सो हि भगवं तं वत्थं संयच्छरमेगं, अहाभावेण स्थितवान्, ण तु रिकमतो साहियं मासेणं साहियं मासं, जंण रिक्कासि तं तस्स खं तेण वत्थेण रिकं ण आसि, अहवा ण णिकासितवान् तं वत्थं सरीराओ, अहवा गिर इति पडिसेहे वत्थ तं न कासि, त्थभावो वत्थता, देसी भालाए वा सुतभणिती वत्थता सव्यतित्थगराणं वा तेन अश्रेण वा साहिज्जद, भगवता तु तं पय्यमितेण भावाओ सि, तहात्रि सुत्रष्णवालुगानदीपूरे अवहिते कंटए लग्गं द पुणोवि बुच बोसिरामि, इमं च अबलोइयं किमिति ?, वुच्चति चिस्वरियता, सहसा व लज्जता, थंडिले चुतं णवित्ति, विष्ण केणति दिई सो पेक्खिता दिव्वं, एवं चरिता अचेलए, ततो यागी, अचेलया णाम अवस्थता, तप्पभि नं योज स्थमणगारो, चरियाधिगारो अणुयत्तड, अदु पोरिसिं निरियभित्ति (४६) अद्भुति सुनमणितीने अह इति वृतं भवति, पुरिमा जिएफणा पौरुसी, यदुक्तं भवति - सरीरयमाणा पोरिसी, पुणतो तिरियं पुण मिति, मण्णित्ता दिड्डी, को अत्थो ?, पुरतो संकुडा अंतो वित्थडा सा तिरियमित्तिठिता बति, सगइद्धिसंहिता बा, जतिवि ओहिणा वा पासति तहावि सीमाणं उद्देसतो तहा करेति जेण निरंभत्ति दिट्टिणय णिच कालमेव ओबीओगो अन्थि, चक्मासन अंतसो झायति पस्सति अनेण चक्खु, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [304] सवखता ॥ ३००॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] श्रीआचासंग सूत्रचूर्णिः प्रत ॥३०॥ वृत्यंक [२२६गाथा १-२३] चक्खुसा आसज्ज, यदुक्तं भवति-पुरओ अंतो मजो यातीति पश्यति, तदेव तस्स झागंजं रिउवयोगो अणिमिसाए दिट्ठीए0पयोबद्धेहिं अच्छीहि, तं एवं बद्धअच्छी जुगतरणिरिक्खणं दटुं, अह चक्षुभीन सहिता ते अह इति अर्णतरे, तं चेव स्वाणि गादि भीसोणऽक्विमिव दटुं भीताणि एम रक्खसोत्ति, सहितेति समागता बाला अप्रत्यया, कट्ठलडुगादिएहिं हंता हंता कदाइत्ति अन्नाईपि चेडरूवाणि खोहिंसु एच, एहित्ति पस्सह. इमं पिसायं, इरियाणंतर सेज्जा भाति तेण सतणेहिं विमिस्से हिं (४७) .. सातिउजति जत्थ तं सयणं-उवासओ, बीतिमिस्सं अन्नउत्यियनिहत्थेहिं तत्थ ण ठाति, जति पुण पुब्धट्टियस्स एति से इत्थिया । | पुरिसा जहा पत्तकालगादिसु एकिनाओ वा एज्जा संकेयगदिण्णिताउ बा तट्ठीओ वा ताहे ताओ जाणणापरिणाए परि-101 | ण्णाय जहा एता हुसियाओ 'एता हसति च रुदंति च अर्थहेतोविश्वासयंति पुरुषं च ण विश्वसनि ।' किंपाकफलसमाना विषया हिणिपेव्यमानरमणीयाः, एवं जाणणापरिणाए परिण्णाय पञ्चक्खाणपरिणाय पचक्खाय सागारियं ण सेवेह च सागारियं णाम मेहुणं तं ण सेवति, इति एवं सेति भगवतो णिदेसो, वेरग्गे पविसित्ता अन्नाणं मरणं सोचा ज्झाति, ण ततो सोतं वा |चक्युं वा समरणं वा देति, अप्पमागारितेवि सई पवेसित्ता प्रायति, दवसागारि कहि सति न भावसागारियं, जं भणित-ण सेवति, सो भगवं णिचमेव एगते मुम्रागारादिसु द्वाति, अह वाघातो ज्झाणहुयाए, जड़ पुण से कहवि दीतिमिस्सा वसहि सेजा आसन्ने वावि गिहत्थाणं तत्थ बारेति, जे केड मे अगारस्था(४८)जइ पुबुदिदुस्स, एता गृहस्था, स्थाने पपणादि अस्थि, करिजा | मासिज्ज वा, तत्थ मीसभा तेसु पहापति, न तेमु मणपि संवेति, तेसु रोसो वा, समासो अगारे चिढ़तीति अगारथो, इत्थीओ। पुरिसा य, ते मिस्सीभावं पजहाय, यदुक्तं भवति-संमिम्मभावं, अन्नउस्थियाणवि जहा दुइ जंतएम दरिद्रप्रसूयगीतणक्ष(ट्ट)उणुरु- ॥३०॥ दीप अनुक्रम [२६५२८७] RANDARINupay मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [305] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] अननुनादि श्रीआचा- रांग सूत्रचूर्णिः ॥३०२॥ प्रत वृत्यंक [२२६गाथा १-२३] कादि तदत्थे चइत्ता झाति, यतो किंच-पुढेवि स हि अपुढे वा पुच्छितो अपुच्छितो वा, अह ते भर्च करेमि वा ?, तुसीणीओ, अपु- |च्छिऊणं वा जो कोई करेति तंपि नाणुजाणइ, तं अगिण्हता गाणुण्यातमेव भवति, अहवा पुच्छंति-केण हडो? केण हितं, केण दहूँ | | केण भग्गं? एवं पुट्ठो, णागज्जुण्णा तु पति-पुट्ठोघ सो अपुट्ठोबाणो अणुण्णाति पावगं भगवं, पुट्ठो सो अपुट्ठोवा || | गच्छति मोणेणं, ण तु अतिवचति बा, ज्झाणाश्रो वा, अञ्जवं अञ्जो-रागदोसरहितो, रिजुमग्गं जाति अमायावी, पाथि पडियस्सवि उल्लावं ण देति, पडिलोमे वा उबसग्गे करेंति, तस्स एतं वा णो सुकरमेतमेगेसि न पडीसेहे, सुई कीरति सुकरणं, एतमिति | जानाति आसयो भवति. मंतेहिं पयत्तेणवि दिजमाणो. पादगतेहिदि उपसिञ्जमाणो, जमणियमअब्बाबाईच पुच्छिज्जमाणो, ण || | एतं तहा दुकरं जहा पडीलोमेहिं उबसग्गेहिं कीरमाणेहिं तुसिणीओ अच्छति, अणुलोमेहिं तु कीरमाणेहिं तुहिको तु एवं सुदुर, अहया सब्वमेव एवं, एगेसिं, न सन्वेसि, दुरणुचर हस्तिसरवत् , जहा परिजयमितो हत्थी संगामे सरप्पहारे िण नियत्तति, एवं भगवंपि, आराहणपडागगहणत्थं, परिसहभिजुद्धं वा, जायते परीसहा उवसग्गा पडीलोमा अणुलोमा य, तत्थ अणुलोमा भणिया, नो सुकरणा एतमेगेसिं, पडीलोमे आह-हतपुवो तत्व दंडेणं छउमथकाले विहरतो पडीमागतो वा हतपुब्बो, तत्थ दंडेणं डंडो, अहवा डंड इव डंडो लीलप्पहारः, जहा इंडेण तहा लेठ्ठणा दूरस्थिण अद्विणा वा मुट्ठिणा वा, फलेति मुडिणा, कसेण जोतेण वा, | एते पहारप्पगारा, एतेहिं चेव पहारपग्गारेहिं लूसियपुब्बो अप्पपुषणेहिं लूसितो, यदुक्तं भवति-भग्गो, अहवा लूसियपुथ्यो । | भक्खियपुब्यो, तं पुण दस्सुआयतणेसु, अप्पपुण्णा जाम मंदपुण्णा, जब भगवंतं वहिपर्वतोदोग्गइगामिणो, एवं सुधम्मो जंबुणाम कहयति, तेहिं अप्पनेहि लूसियपुच्चो, अण्णाणि य फरुसाणि फारुसियाणि दुतितिक्वाणि पीतिरहिताई पप्फरुसाई कक दीप अनुक्रम [२६५२८७] 13.२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [306] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५२८७] श्री आचा गंगसूत्रचूर्णि: ॥२०३॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ २७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२३] साई, दुतितिक्खाणि तितिक्खं सहणं दुक्खं तितिक्खिज्जंति दुतितिक्खाई, अतिच मुणी परकममाणे अतिरतिक्रमणादिषु अतीव एत्य अतिअच्चा, अगणेंतो, तेण च मणे सति तेण चिंतेति, गुणी भणितो, धम्मे तद्देव परकममाणो, परीषदा विषयं वा परकममानो, भणिता पडीलोमा । इदाणिं अणुलोमा, आघातणहगीताई आघातं अक्खाणगं, अग्घातितंति वा अतिक्खियंति वा एगट्ठा, लोइयं भारहादि, कुप्पावयणियाणि वा आघाइअंति, कहं ?, पवो लासगो मक्खो बुच्चति, ण णश्चंते, तं पुण इत्थी पुरिसो चाणचति, गति ( गीत ) मेव तंतीवंसादि आयोजं, जुद्धं विविहं, संजहा-डंडजुद्वाणि मुट्ठिजुद्वाति, डंडेहिं जुद्धं मल्लाणं जुद्धाणि वा रामियाई एयाई पाएण तेण ताई वारेति एव, गढिते विधूत (मिहुकहासु) समयमि (५१) गढितं यदुक्तं भवति-बद्धं विसयंमि, तहा विद्धं अनेहिं वा, से तंति चोएन्तो अच्छति, भगवं च हिंडमाणो आगतो, सो तं आगतं पेच्छेता भणइ-भगवं देवज्जगा ! इमं वा सुजेहि, अमुर्ग कलं वा पेच्छाहि, तत्थवि मोणेणं चैव गच्छति, णातिवतति अंजू, अतियश्च मुणी परकममाणो, एवं कदगस्सवि, मिहोक हासमयोति जे केवि इत्थिकदाति कहति, भक्तकहा देवकहा रायकहा, दोनि जगा वह वा, तहिं गच्छति, जातिवचति अंजूं, अहवा रीयंतं अच्छंतं वा पुच्छह-तुम्भं किंजाइत्थिया सुंदरी १, किं बंभणी खत्तियाणी वतिस्सी सुद्दी व १, एवमादी मिडुकहा, समतो गच्छति, णातिवत्तए पोहइरिसे, अरने अदुढे अणुलोमपडिलोमेसु, विसोगे विगतहरिसे, अदक्खिति दद, एयाणि से उरालाणि एयाणित्ति जहा उद्दिट्ठाई, अणुलोमाणि य उवसग्गाई, उदाराणि उरालियाणि यदुक्तं भवति-उकिडलोमाई, पडिलो माई तेण असुभपगारेण, उरालं गच्छतीति अतिकमति, णायपुत्ते असरणाए अमरणं अर्चितणं अणाडायमापंति एगट्ठा, अहना सरणं गि, णस्स तं सरणं विजतीति असरणगो, ण य सरणंति अतिकंताणि पृथ्वरयाणीति, किं एत्थवि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : [307] पराक्रमादि ॥२०३॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥३०४॥ प्रत वृत्यंक [२२६गाथा १-२३] तं?, जं भगवं अपरिमितबलबीरियपरकमो पन्धइयो स इंदियदर्म कृतवान् , सो भगवं आघवति जो फासुयाहार एवासी, कह ?, | तस्स हि अट्ठावीसतिबरिसस्स अम्मापियरो कालगयाई, तेसि मरणे सो समत्तपइन्नो भूतो, जणो ण देइ, तेहिं णातखइ(ति)एहिD | विचचितु-भगवं! खये खारावसेगं मा कुरु, पच्छा भगवं उबउत्तो, जह अहं संपयं चेव णिक्खमामि तो एत्थ बहवे सोगेण खित-14 | यथादि भविस्संति, पाणा चइस्संति, एवं ओहिनाणेण णचा भणइ-केचिरं अच्छामि भणह, तेहि भण्णति-अम् परं विहिं संव|चरहिं रायदेविसोगा णासिजति, तेण पडिस्सुतं, ताहे भणइ-तता नवरं अच्छामि जति अप्पच्छंदेण भोयणातिकिरिय करेमि, तेहि सामस्थिय, अतिसयरूबंपिता से किंचिकालं पेच्छामो, तं तेसिं भगवया वयणं अब्भुवगर्य, सयं च णिक्रमणकालं णचा, | अवि समहिते दुवे वासे (५२) अच्छइत्ति, अनतरे जम्हा ते तिब्बसोगे संतत्ता मा भ, मच्चुवसं गता भविस्संति, अह तेसिं |तं अवन्थं गचा साधिते दुवे चासे बसतीति, दुवे वरिसे सीतोदगं भावओ परिचतं न पुण पिबीहामि, जहा सीतोदगंतहा सन्चाहारं सचिन अमोबा-अपीचा, अपिइत्ता इति बत्तब्वे जाणावेति अन्नपि सचेषणं अभोगा, ण य फासुतेणविण्हातो, हस्थपादसोदणं | | त, फासुएणं आयमणं, सबसचेतणाहारपरिचागे सति दुपरिहरं उदगमितिकाउं तेण तस गहणं, इतरहा हि सो पंचवि सवेतणे || | कार्य परिहितवां तिबिहकरणेणवि, परं णिक्खमणमहामिसेगे अफामुएण हाणितो, जहा पाणाइवाय परिहरियवं तहा मुसावायपि अदत्तादाण मेहुणं परिग्गहं राईभनाणिवि, ण य बंधवेहिदि अतिणेहं नृतवा, ततो बुबंति एगत्तिगते पिहितचा एगतिगतो। णाम ण मे कोति णाहमवि कस्सइ, पिहिता अचाओ जस्म स भवति पिहितार्च, अचा पुनभगिता, सरीरं वा, तं पंचेंदियसमुदितो, मो रागदोसोदयं प्रति पिहितो, कायवायमणगुत्तो वा, भावनाओवि अपमत्थाओ पिही नाओ, रामदोसऽणलाला पिहिता, दीप अनुक्रम [२६५२८७] ॥३०४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [308] Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२३] से अभिषणायदसणे संते स इति सो भगवं छउमत्थकाले खातिते सम्प्रदरिसणे. दरिमणे य सति णियमा नाणं ।। दर्शनादि रांग मूत्र-I अस्थि, तं च पुब्बगइयस्स भगवतो चउब्धिई, मणपञ्जवनाणे य सति णियमा चरिन, अतो दरिसणे गहणं तज्जातीयाणं, संतेति ।। चूर्णिः IN विज्जमाणे, केह ति खोरसमियं सम्मईसणं तस्स आसी, तं च संत, जो एवं भगवं गिहवासे व सीतोदगादि छपि काए १॥३०५ दोनि साधिए वासे अभोचा णिक्खंतो मो कह निक्खंतो ते आरभिस्सति ?, अत एव वित्धरा बुचति-'पुढवि आउंच(५३) कंठयं, पणतो णाम उल्ली अणंतकायो, सो जीवन प्रति धिभावो अतो तन्गहणं, तेण जो पणगमवि परिहरिदिद सो कई बत्तजातिबुद्धि आहारमरणधम्माणं वणस्यति न परिहरिस्मति?, अतो पणगग्गहणं बीयग्गहणं च, हरियाणि तु वलिंगाणि, वणस्सइ-in भेददरिसणस्थं च पणगादिगहणं, एवं पुद विकायियादि, पुढची मेदो भाणियबो, तसा बेइंदियादि, सनसो पगारेहिं सुहमवादरप-IYA ज्जतगादी व मेदे णचा उज्झिना 'एयाणि संति पडिलेहे'(५४) एयाइति मागहामिहाणाण एताई कायाई, संतीति विज्जति, । 1| यदुक्तं भवति-ण कयाइ विजजंति, कयाइ न विज्जंति, आह-'इमा णं मंते ! रयणप्पभा पुढवी सम्बनीदेहि जहपूज्या सम्बनीवेडिं जढा ?, गोयमा ! इमा ग रयणप्पट्टा पुढवी सयपुग्वे (जीवे)हिं जहपुब्बा, नो चेव णं सधजीवेहिं जहा, एवं सेमामु वे', अतो संतिग्गहणं, चित्तमंताणि से अभिण्णाय चित्तमिति जीवस्स अक्खा, चित्तं तेसिं अत्थीति चित्तमंता, पुढ चिकाइयादीणिवि कायाई,स इति तित्थगरो छउमथकाले, अभिमुहं णचा अभिष्णात, यदुक्तं भवति-ण विवरीत, परिवजियाण विहरित्ता इति संखाय |से महावीरे एतं कंठथ, अह थावरा तसत्ताप (५५) तसजीवाचि थावरचाए, यदुकं भवति-उववर्जति, अदुवा सबजोणिया सत्ता अवत्ति अवसद्दा अबज्ज, सो मुहृदृहउच्चारणत्ता मधासु जोणिसु उत्रवज्जति सबजोणिया, ण तु जहा लोइता ॥३०५।। दीप अनुक्रम [२६५२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [309] Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५ २८७] "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ २७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२३] श्रीआचा रांग सूत्रबूर्णिः ॥३०६ ॥ जा इत्थी सा इत्थमेव, ण पडलो, इसरो स इसरो एव, जो मुणी सो मुणी चेव, चउरासीइ य सयसहस्सविक्षणा कम्मे हिं अभिसित्ता सत्ता कंमणा कविता पुढो वाला कष्पिता, यदुक्तं भवति-उपवादिगे, युतं च-छ अनतरंसि कप्पति, पुढो णाम पिहप्पिदं, जं भणितं होति-पत्तेयं पुणो पुणो वा, दोनि आगलिता बाला, ते एवं कम्मेहिं कप्पिते, भगवं च एवमण्णासिं (५६) च पूरणे, एवमवधारणे, एवं अनिसित्ता, जं भणितं भवति- अणुचिंतेचा, गिवासे अवहिनागेण पव्वइए चउहिं नाणेहिं अणिसित्ता, किमिति निक्खमणकालं, जं भणिता होति अह सामिवे दुवे वासे जाव कम्मुणा कप्पियत्ति, इमं च अनं अणिसेचा सोवचिते हु लुप्पती पालो दव्बउवही रबादि भावे कम्ममेव उवही, सह उबहीणा सोबही, इह परत्थ य लुप्पति-छिजति भिजति वही अति मारिज्जति, इदं ताव 'कतिया वच्चति सत्थो ? किं मंड ? कत्थ ? कित्तिया भूमी ? । को कप विकयकालो १ णिन्त्रि| सति को ? कहिं ? केण ? ॥ १ ॥ मणूसा लुप्पति, चोररायअग्गिमादीहिं आलुप्पति परत्थ कम्मोव हीमादाय नरगादिएसु लुप्पति, कम्मग्गाओ लुप्पति, मोक्खसुहायो य लुप्पति, अहवा इमं अणिसित्ता-जे पव्वइयावि संता कथं विणावि कारएहिं जीविकाइएहिं जीविस्मायो ?, मंसादिट्टिभोयणेण वा अचंतेण वा, तेसु उववज्नमाणो, सो य उबवज्जमागो बालो, सोयविधिया माइट्ठाणिउ, तंजा-सयं ण पयामि, अनेहिं पाययामि, एवं सवं ण छिंदानि छिंदामण्णेहिं एवं लोगरंजणणिमित्तं सोवि, जं भणीतं तं मोहकंमोचहिमादाय नरगादिभवेसु लुप्पति पकति य, ते पेहियच्या कारण, जहा णच्या सोबहिय दोसे य णच्चा, इमं च अअं णचा, तंजा-कम्मं च सहसो णचा कम्मं अडविहं तं सचसो पारेहिं पदिसदितिअणुभावतो णचा, जो य जस्त बंधदेऊ कम्मफल विवागं च, पडियाइक्खे पावगं भगवं हितजुयो पञ्चक्खाति पांच हिंसादि, अगवजो तवोकम्मादि, पण तं पच मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [310] सर्वयोनि कत्वादि ॥ ३०६ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] L प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२३] श्रीआचा-10 खति, कम्माहिगारे अणुयत्तमाणे दुविहं समिच मेहावी (५७) दोनि विहा दविहं, कीरतीति कम्भ इरियावहियं संपराय-01| कर्म:रांग सूत्र- च, अहवा पूर्व पावं च, अहवा इहलोगविवागं परलोगविवागं च, समिच संमै णचा, मेरा धापी (मेहावी) गहणधारणेवि, सम्पति-1 विध्यादि चूणिः | स्थगरऽक्खायं अनेलिसं-असरिसं, अहवा दुविहं अगारधम्म अणगारधम्म च, तहा राग दोसं च, पुर्व पावं च, किरिय अकिरियं ॥३०७॥ च, संजमपुथ्यगो तयो, कसिणकम्मक्खयफिरिया, तं समेच, नाणं अस्स नाणी, किंच तं ?, सुतं नाणं, सुहमत्ता कम्मपोग्गलाणं ण अवधी तस्स, मणोदयविसयं च मणपज्जबनाणं, तेणंतेण सुतं अधिकृतं, अहया देसेण नाणी, कम्महिगार एवं अणुपत्तए, जतो युवति-आदाणसोपमतिवायसोतं आददाति आदीयते वा तेण इति आदाणं, आदाणस्स. सोयं आदाणसोय, सोतादीणि इंदियाणि सदादिअस्थाणं आदाणाणि भवंति, अतिवादसोत तु हिंसादिपरिग्महत्थं, अहया आदाणसोयं संपराइय, अतिपात इरियावहिय, तेण हि अतिपतति संसारातो अतिपातसोतं, अयं तु आरिसो अत्थो, आयाणसोपं नाणादि, अतिपातं हिंसाति, योगो तिविहो, तंजहा-आदाणसोय अतिवातसोयस्स जोग सम्बहा सब्यसो णचा करेति, भन्नति-अतिवत्तिय अणाउहि अतिवादिजति जेण सो अतिवादो-हिंसादि, आउट्टणं करणं, तं अतिवातं गाउट्टति सयं, अण्णेहि अविकरणाएत्तिण करेति अहिं नाणुमोदति कतं जोगत्रिककरणत्रिकेणं जाव मिच्छादसणसल्लं, केति भगति-जया किर सो बंधूहि पण्णविओ दुवे वरिसे चिट्टत्ति मतदा फासुआहारो सुपासनंदिवद्धणप्रभृतीदि मुहीहि भणितो-कि ण हासि, ण य सीतोदगं पिबसि ?, भूमिए सुवसि, त य सचितं आहारं आहारेसि, पुच्छितो पडिभणति-आदाणसोतं अतिवातसोतं (५८) तहेव बच्चो, अतिपत्तियं अणा उहिं तहेच, अह इत्थीओ किं परिहरसित्ति भणितो यदि भगति-जस्तित्थीओ परिणगाता, अहवा उवदेसगमेव, एवं मूल- ॥३०७॥ दीप अनुक्रम [२६५२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [311] Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] प्रत वृत्यंक [२२६गाथा १-२३] श्रीआचागुणाधिकारी अणुयत्तति-जस्सित्पीओ परिषणाता जतो जेसि वा दुविहाए परिणाए जाणणापरिणाए पचक्याणपरिणाएखीपरिरांग सूत्र| य, जाणणाए, 'एता हसति च रुदंति च अर्थहेतु०' बितियाए पडिसेहेति सव्वं अट्ठविहं कम्म आवहंति एवं पेक्खित्ता, एवं सेसेवि | DD ज्ञादि चूर्णिः अस्सवे, परिहरियं वा जहाय, एतं मूलगुणे परिहरितं वा, तं चेव उत्तरगुणेवि, जेण भण्णति--आहाकडं न से सेवे (५९) ॥३०८॥ जति कोति निमंतिम अअ अम्हंतणए मुंजसु गेहे अहं ते साधयामि भोयणं, तं एवं अहाकडं तमाहाय मणसीकृतं, जोवि अपुच्छिXN | पिउवणखंडे हिंडंतस्स दाहामि तंपि अहाकडं, सबसो कम्मुणा य अदक्खु सव्यस्स इति सवभावेण ण लेमुद्देसेण, किमिति, नणु कम्मुणा कम्मबंधो अदक्खुति, अत एव दृष्टं भवति-जं पावं न सेविअति, जेण आहाकम्मेण भुत्तेण, एवं सर्व अविसोधिकोडि बजेतब्ब, जं किंचि पावगं भगवं जमिति अणुदिट्ठस्स, जं च आहारिमं असणपागखाइमसाइमं या, पावगमिति असुद्धं विसोधिकोडीए वा, तहा आहाकम्मं च बजेहि सेस उग्गमदोसेहिं उप्पारणदोसेहिं एसणादोसेहि य, तं अकुवं वियद्धं भुंजित्ता अकुव्वं सतं अन्नेहिं पाययं जोवि सो कोइ आगताए पेहाए उबक्खडेज आगतस्स दाहामि तंपि नाणुमोदेति, यदुक्तं भवति-न | SH गेहाति तेण अणुष्णा ण भवति, अहवा पापगमिति मंसमक्षमादि, तत्थ अकुव्वं ण असति, जं च अण्णं संजोयणादिपमाणइंगा|लधूमणिकारणादि आहारअस्सितं पावं तं अकुब्छ, तहा य चेव सुरुसुरादिपावं अकुच्छ, विगत जीवं विगई, एवं पाणगमवि चाउलउण्डोदगसोवीरगादिपगारो, अतिकंतं चायी, जं भणित-भुक्तं वा, भणितं आहारविधाणं, इदाणि उबहिं युबति, सो य दुविहो-IN वत्थं पतं च, जतो बुबति-णो सेवह य परबत्थं (६०) जंतं दिव्वं देवाइ संपवयंतेण गहितं तं साहियं वरिसं खंवेणं चेव ॥ धरितं, णवि पाउयं, तं मुइचा सेसं परवत्यं पडिहारितमविण धरितंबा, केइ इच्छंति-से बत्यं तस्य तत् , सेसं परवत्थं, जं गाहितं ॥३०८॥ दीप अनुक्रम [२६५२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [312] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-२३] दीप अनुक्रम [२६५ २८७] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥ ३०९ ॥ "आचार" - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ २७५-२८४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १-२३] णसेवितंपि तहा सपतं तस्स पाणिपतं, सेसं परपतं, तत्थ म भुंजितं, तो केड इच्छंति-सपत्तो धम्मो पण्णवेपव्युचि तेण पढमपारणं परपचे मुत्तं, तेण परं पाणिपत्ते, पगारो तहेव, अतिकंतं चावि, गोसालेण किर तंतुवायसालाए भणियं अहं तत्र भोयणं आमि, गिहपते काउं तंपि भगवता निच्छितं, उप्पण्णनाणस्स लोहजो आगेति धन्नो सो लोधज्जो खंतिग्वमो० किं तत्थ ताण अडियचं ?, भणियं देविंदचकवट्टी मंडलिया ईसरा तलवरा य। अभिगच्छेति जिणिदं गोयरचरितं ण सो अडति ॥ १ ॥ छउमत्थकाले अडियं, परिवजिताण ओमाणं सध्यओ वञ्जिता परिवजिता, ओमं माणं करेति, ओमाणं जं जस्स दिजति तं जणं दिञ्जति सच्चेहिं दुपदचउप्पदादीहिं आहारकंखीहिं संतेहिं पडिपुन्नेहिं चरति, आउयखंडणा संखडी, सयङ्काए परेहिं उबखडितं, जाव णाम संखडी अप्पातिण्णा होजा, भिक्खायरा जत्थ गत्थि तत्थ गच्छति, असरणाएति ण ता सरति हिजो होहिति परसुए होहितित्ति, अहवा पडिवाडी, ण घराणि वा मोतुं गच्छति, जुण्णा. संखडी, अहवा संखडिति ण उस्सुगभूतो भवतिति, एत्थं मणुनं पणीतं बहुयं च लमिस्वामित्ति ण सरति, अहवा सरणमिति गिहं, तं तस्स नत्थि असरणो, जइवि णाम हमासपारणाए संखडीए असंखडीए वा मणुष्णं भत्तपाणं परं लभति, तत्यवि मायणे असणपाणस्स (६१) मतं जाणतीति मातण्णो, कस्स ?, असणपाणस्स, भणियं च 'जह सगडक्स्वोवंको कीरति भरवहण०' जतिवि भगवओ अणुत्तर ओरालियसरीरलद्विजुत्तो ताण अजिष्णादयो दोसा भवति, तहावि सो भगवं संनिवारणत्थं सुभज्झाणादि कि स्यित्थं च मायण्णे असणपाणस्त्र, नाणुगिद्धे रसेसु अपडिपणे गिवासेवि तात्र भगवं रसेसु अविम्हितो आसि, किमु पब्वजाए ?, रसा तित्तादि, अपढियेण तस्स एवं पडिण्णा आसी जहा मते एवंविहा भिक्खा भोजा ण वा मोहयन्त्रा इति, तत्र अभिग्गहपणा आसी जहा कुम्मासा मए मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [313] परपात्र निषेधादि ॥ ३०९ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] श्रीआचा- अपरि चूणिः । ॥३१॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२३] भोत्तव्या इति, एवं ताव आहारं प्रति, रसपरिचागासितं तबो भणितो । इदाणिं कायकिले सासितं चुचति, तंजहा-अच्छीपि,W कर्मस्वादि भगवतो अणिमिसगाणि चेव, नीलुप्पलपत्तसमाणाई अच्छीणि आसि, बीयअंसुविरहिताणि, तं च 'पद्माक्षः धीरगौर:०'आहा-01 रियं तु, रेणु वा स्यो वा तृणावयवो वा पाणजाती वा परियावजेजा तहा त ण पमञ्जति, न वा पादे धुवति, हत्थे परे लेवाडं भोत्तुं मणिबंधाओ जाव धोवति, न वा पिपीलियादीहि खञ्जमाणोवि कहूइतबा, भणियं च-'आरम्भ कार्य विहरिंसु, सव्वं गायमवि-IN प्पमुके आसी' चरियाहिगारे एव अणुयत्तए, जतो सुत्तं-अप्पं तिरिय पेहाए (६२) अप्पमिति अभावे, ण गच्छंतो तिरिय पेहितं, ण वा पिटुतो, पच्छा वा अबलोगितं वा, किंतु 'पुरतो जुगमाताए,पेहमाणो महिं चरे'अयं तु आरिसो अत्थो-अप्पं तिरियं | पेहाए, अप्पमिति दुरा न, अतिदूर निरिक्खमाणे आसणो वादोसा, अतिश्रामण्णं ण पस्सति, तिरीयमवि पसंतो तिरियं संपातिमे अकमति, ण एतं भगवती भवति तहावि आयरियं धम्माणं सिस्साणमितिकाउं अप्पं तिरियं पेहाए, पटुतोवि नातिदुरे, नातिरं ठिया पिट्ठतो परवलोगिता मंचादि, मा भू अभिघाताओ वते पीला, उपउत्चमणो वा मम्गतो हरितादीणि छिदिज, | अप्पं बुतिए पडिमाणी कयो एहि ? जाहिवा? कतो वा मन्गो एवं पुच्छितो अप्प पडिभणति, अभावे दन्यो अप्पसदो, मोणेण अच्छति, पंधापेही चरे जतमाणो पंथं पेहति पंथापेही, चरे इति गच्छे, जयमाणे दट्टण तसे पाणे अमिकमे पडिकमे, जयं चरेति अतुरिय रियाए चरियादिणिविट्ठदिट्ठी, चरियाहिगारे एव वट्टति, जतो भन्नति-सिसिरंसि अद्भपडिवणे (६३) सिणातीति सिसिरं, सिसिरेवि सो भगवं अद्धाणपडिवन्ने, यदुक्तं भवति-पंथं गच्छति, तं दिव्वं वन्थं वायुउद्धृतं कंटगलग्गं योसिरिआ, बोसिरितुं, ण तस्स घरं विजतीति अणगारो, पसारेतुं वा एक बाई पसारिय, किमिति णाविलंबिताण ॥३१ ॥ दीप अनुक्रम २६५२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [314] Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२७५-२८४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-२३] प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-२३] कंधंसि वाहूहि परकमितवान् , ण कंधे अवलंचितवां, चरियादिगारे पडिसमाणे णथि, इमं भवति-एस विही अणिक्ख-10 आवेशरांग सूत्र-- (णुक)तो (६४) माहणेण मतीमता एस इति जो भणितो आ पब्बाओ, विहाणं विही, अणु पच्छाभावे, जहा अण्णेहिं तिस्थ- नादिशय्या चूर्णिः IN गरेहिं कतो तहा तेणावि अणुण्णावो अणुकतो, माहणेण-मा हण इति माहणं, जं भणित-सम्बसावजजोगपडिसेहो सवयणिज॥३११॥ मेतं, समणेत्ति वा, मती जस्स अस्थि स भवति मतिमा तेण मतिमता, अपव्वतितेणावि सता बंधवजयोण सण्णिरुद्धेण जाव छउ८ अध्यक मत्थकालो बारसबरसितो अपडिपणे रिपती (वीरेण कासवेण महेसिणा) सरीरसकार प्रति अपडिण्णेण, अदवा 'णो इहलोग याए तब्बमहिहिस्सामि' इति अपडिष्णो, वीरो भणितो, कामगोषण कासवेण महरिसिणा इति, पटिअइ य-बहुसो अपडिपणेण भगवता रीतियंति बेमि बहुसो इति अणेगसो, अपडिण्णो भणितो, भगवता रीयमाणेण रीयत्ताए वा, वेमि जहा | | मए सुतं । उपधानश्रुतस्य प्रथम उद्देशकः समासः। चरियाणतरं सेजा, तस्विभावगो अ दस्सते-चरितासणाई सिजाओ एगतियाओ जाड बुतिताओ। आइक्ख | तातिं सपणासणाई जाई जाई सेवित्य महावीरो (६५) एसा पुच्छा, आएसणसभापवासु पणियसालासु | एगता वासो, णवि भगवतो आहारवत् सेजामिग्गहा णियमा आसी, पडिमाभिग्गहकाले तु सिामिग्गहो आसी, जहा एग| राईयाए बहिया गामादीणं ठिओ आसी, सुसाणे अन्नयरे वा ठाणे, अहाभावकमेण जत्धेव तत्थ चउत्थी पोरिसी ओगाढा भवति | तत्थेव अणुनवित्ता ठितवान् , तंजहा-आपसणसभापवासु, आगंतुं विसंति जहियं आवेसणं, जं भणियं-गिहं लोगप्पसिद्धं, जहा | कुंभारावेसणं लोहारावेसणं एवमादि, सभा नाम नगरादीणं मज्झे देसे कीरति, गामे पउरसमागमा य भवंति, सेणिमादीणं तु पनेयं ॥३१॥ SurANA दीप अनुक्रम [२६५२८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'शय्या' आरब्ध:, [315] Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-१६] दीप अनुक्रम [ २८८ ३०३] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥३१२|| “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ २८४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६/ गाथा: १-१६] सभा भवंति जन्थ रुदादिपडिमाओ ठविजेति, पिविस्संति पेहियादि सा पवा, तंजहा-उदगयना गुलउदगप्पा खंडण्या सक रप्प वा एवमादि पणियगिदं आपणो पणियसालति, पति सालघराणं विसेसो, सकुडं घरं कुडरहिता साला, जं वा लोगसिद्धं णाम, जहा सकुडावि हत्थिसाला बुच्चति, एगता णाम कताई, वास इति राईगहिता उडुबद्धे, वासासु अदुवा पलियट्ठाणेसु | पलालपंजेसु एगया वासो अदुवेति अण्णतरे पलियं नाम कम्मं, यदुक्तं भवति-कम्मतट्ठाणेसु, दम्भकम्मंतादिसु, अहबा पलिगाति ठाणं, तंजहा- गोसाला, गोवद्धो वा करीसरहितो, ण अज्झावगासं, पलियं तु पलालं, पुंजो संघातो, पलालमंडबस्स हेडामु | सिरचाणे पलालपुंजेसु पविसति, एगता कयाइ, आगंतारे आरामागारे (६७) गामरण्णेऽवि एगता वासे गामस्स अंतो बहिं वा, आगंतु जत्थ आगारा चिति तं आगंतारं, आरामे आगारं आरामागारं गामेति कताई गामे कथाइ नगरे, अयं तु विसेसो| गामे एगरचं नगरे पंचरतं, एवं उदुबद्धे, वासासु नियमां चत्तारि मासे वासो, गामादीणं पुण कयाई अंतो कयाइ बाहिं अन्भासे |सुसाणे सुन्नागारे वा रुक्स्वमूलेवि एगया वासो सबसयणं सुमाणं सुमान्भासे, सुन्नं अगारं सुन्नागारं रुक्खे वा मूले वा | खंधस्स अणम्भासे, जत्थ पुप्फफलाई ण पडंति, एगतत्ति उडुबद्धे, न तु वस्सासु सुनारुकखस्स तले वा वसति, सुन्नागारं वा जं न गलति, एतेसु मुणि सयणेसु (६८) एतेमुत्ति जाणि एताणि उद्दिद्वाणि, अन्नाणि य एवंविहाई सेलगिहादीणि, मुणेतीति सुणी, सुप्पति जत्थ णं सवणं, समणेत्तिस एव वद्धमागासामी, अहवा तेसु पत्रात निवासमसिमे सोगनिरुवसग्गे वसतिसु समण एव आसी अतो समणे, जहा दुक्खसिखा आसी तहा तहा भिमतरं समण आसी, वरिसं पगतं पत्थियं वा, तेरसभं वरिसं | जेसिं वरिसाणं ताणिमाणि पतेरसवरिसाणि छउमत्यकाले, राईदियंपि जयमाणे जहा रचि वहा दिवा, उभयग्गहणमवि सामत्थं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [316] सभादि स्थानादि ||३१२॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] निद्रा श्रीपाचा. रांग सूत्र चूणिः प्रत ॥३१३॥ वृत्यंक [२२६गाथा १-१६] | तु जहा अण्णणे थाणमोणादीरहि जइत्ता रसिं सारक्वगत्य णिदं भजीते, मो तु भगवं जहा दिवा नहा रतिपि जयमाणेसि मणो | वाकाएहिं एगग्गो अप्पमत्त इति जितिदियो कसायरहितो, कह?, मम एते पमादा ण भविज, ठाणाइएतु अप्पमते ज्झाणे य, वर्जनादि सम्म हितो समाहितो धम्म सुक्के ज्झायति भगवं, सव्वपमादाणं णिदप्पमातो गुरुमातो सोवि जितो, जो य दुञ्जयं तं णिह-IN प्पमादं परिहरिततो सो कहं इंदियादिपमादं काहिति ?, जत्थ भण्णति-णिपि णो (६९) पमादे, मिसं कामो पगामे, तं निई D| सो ण पगाम सेवितवां सेवइ वा भगवं, स एव उबट्ठाणंति अणि वजागरियन संजमे समुट्ठाणं वा तेणं वा तेण उद्वितो, भदन्त| नागार्जुनीया तु-णिहावि णपगामा आसी तहेब उठाए जतिआसि, तक्खणादेव उद्वियं वा, जग्गवती अप्पाणं पायसो | छउमत्थकाले जग्गबइ भगवा अप्पाणं ज्झाणेण पमादाओ, सरीरसंधारणत्थं वा चिरं जम्गिता ईसि सम(इ)तासि इत्तरकालं णिमे-H सउम्मेसमेत्तं लवमित्तं वा ईसं सइतयां आसी जहा अट्ठीयग्गामे, निदासुहं प्रति अपडिपणे, यदुक्तं भवति-अणभिलासी, सर्छ । किर छउमस्थकालं निद्दापमादो अंतोमुहतं आसी, सो एवं महारओ निदापमादा अणंतरं संजममाणे (७०) पुणरवि सयं संमं वा बुज्झमाणो, ण परेहिं विबोधिञ्जमाणे, बुज्झमाणो एव वुट्ठो, ण पडिसहो, तेण य ज्झायंति, ण णिहापमादं चिरं करति, सो एवं ज्झाणेण निदं जिणिजमाणो जति कदाइ निदाए अभिभूयति ततो निक्षम्म एगता रातो बहिं चंकमिया मुहुत्तागं | णिच्छितं कम्म णिकम्म उवस्सगाओ निक्खंमिओ, एगयादि गिम्हे अतिणिद्दा भवति हेमंते वा जिघांसुरादिसु, ततो पुन्धरते अबरत्ने वा पुखपडिलेहिय उचासयगतो, तत्थ णिहाविमोयणहेतु मुहुत्तागं चंकमिओ, णि पविणेता पुणो अंतो पविस्स पडिमागतो ज्झाइयवान् , जेसु गुत्तागुत्तेसु व समगम्स, सयणे सु तत्युव सम्गा (७१) मुष्पति तत्थ तं सयणं, तस्सेति तस्स छउमस्थकाले दीप अनुक्रम [२८८३०३] 1॥१३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [317] Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-१६] दीप अनुक्रम [ २८८ ३०३] श्री आचा रंग सूत्रचूर्णिः ॥३१४॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [ २८४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १ - १६] अरुहतो, उवसग्गा दिव्वादि भयंकरा मीमा संगमादिपउत्ता, ण एवं तेसिं रूवमिति अणेगरूवा, एकेका चउन्विहा, अहवा अणुलोमा पडिलोमा य, किंच-उवसग्गाहिगारे एवं तिरिक्ख जोणियमणुस्स उवसग्गदरिसणत्थं वृच्चति-संसप्पा य जे पाणा संसप्पंतीति संसप्पा-अहिनउलसाणमञ्जारपिपीलियादि खायंति के भूमिगता केई कायगता अहवा पक्खिणो उचरंति पक्खा तेसिं संतीति पक्खिणो, ते तु दंसमसगमक्खियादि, तेवि एगतावि उवचरिंसु, एगता दिवसउ रतिं वा, सोणीयादीहिं भिमाणोवि ण अवज्झाणं गतवान्, मिसतरं ज्झाणागतचेता आसी, अद्द मणुस्सगा अदु कुयरा उवचरिंसु अदु इति अणं| तरे, कुत्थियं चरतीति कुत्थियचारी, तंजा-चोरा पारदारिया य, गामं रक्खतीति गामरक्खगा, हिंडिता चोरगाहा ते सचिकृतहत्थगता तं उवचरति, चोरपारदारिया पृरिसत्ति अभिदवंति आहणंति, तंपि खयं लहं चेव पउणति, गूढपहारोवि गिगिट्ठे बंधति, उवसग्गाहिगार एव तेण बुच्चति अदु गामिता उवसग्गा इत्थी एगइया पुरिसा य, गामा जाता गामिता, गामो नाम खल| जणो, मणोवाका थिए तिविहेवि उवसग्गे, पतिमण्सा अंतो, तस्स तं रूवं दट्ठे जहा जातं, पदोमारुदद्दणणेण जणो भयं करेति, अप्पसत्था णं वायाए अक्कोसंति, कारणं तालंति, इच्चेते तिविहेवि गामिते उवसग्गे सहितातिया, अडवा गामधम्मसमुत्थागामिता, ता तु इत्थी एमतरा रिसा य, इत्थीओ तं रूपमंतं रतिं आगंतुं उवसम्मति णपुंसगा य, कम्मोदया अभिद्रवंति, मणसावि भगवंतो पण पकुशवंति, अहवा एस अम्हंतणियाओ इत्थंीओ पत्थमाणो अहं अम्मासे वा समुदागतोसि पुरिया तं चाहति मिच्छुभंति पिट्टेति वा, ते एते सव्वैहिंदि उवसरमा तिविहा, तंजा-दहलोइया परलोइया उभयलोइया य, ते य सब्बे सहियच्या, अतो मणिअति- इहलोइयाई परलोइयाई (७३) तत्थ इहलोइयाई माणुसग्गा, पारलोइया सेसा अहवा इदलोइया इलोग दुक्ख | मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [318] मनुष्याधुपसर्गादि ॥३१४॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] SC श्रीआचा 10 उपायगा पहारअकोसदसमसगादिया, यदुक्तं भवति-पडिलोमा, परलोइया परलोकदुक्खुपायगा, यदुक्तं भवति-अणुलोमा, के लेबलौकिराम सूत्र- उभयलोइया, तंजहा-अस्सगतो पुरिसो अतिणेति, तहा अणुलोमे परलोमे य करेंति जहा अभयमुदरिसणस्म, भीमाई अणे- कोपसर्गादि चूर्णिः गरूवाई भीमा पुष्वभणिया, अणेगरूवाइ व भणिया, उबसम्माहिमारे एव अणुलोमा पढिलोमा य, जेण वुश्चति-अवि मुभि -IN दुन्भिगंधाई अवि पदार्थसंभावणे, सुरमिग्गहणा अणुलोमन्महणं, दुब्भिगद्दणा पडिलोमा, पडिगहणा अणुपडिलोमग्गहणं सुर| मिगंधपुष्पमल्ल देवा पूएंता, मणुस्सा य तेहिं सुरभिएहि, दुरभिगंधेहि पाणभोयणेहि, चमरादिअस्तिता, दुरभिगंधा मासा गेया, | पडिमाए द्वियस्स अस्मादा गंधा आसी, जत्थ गंधो तत्थ रसोवि, जहा गंधाई तहा सदाईपि अणेगरूयाईपि, अणेगरूवाईपि अणु लोमपडिलोमाई, अणुलोमा थुदवंदणापूयाअचणाई, णिभत्थगाति पडिलोमा, अहियासए सपासमाहिए (७४) फासाइंपि | विरूवरूवाई अहियासितबां, अहियासए सयत-णिचं, जहा एगदिवसंतहा अद्धतेरसवासे पक्खाधिने नाणादिरहि, पढिाइ | य-समिते सम्म इतो समितो वासीचंदणकप्पो समभावे दिनो, जह गंधरससहाई तहा फासाइंपि, विरूवरूपाइपि सुहासुहफासाई अवृत्तमवि पचति, एवं रूपाणिवि, अहवा अणेगरूबाइंति रूवग्गहणमेव कयं भवति, परिजइय-अहियासए समाहिते इति मंता भगवं अणगारे इति पदरिसणे, तंजहा-ते व सुम्भिसदा पोग्गला दुभिसद्दयाए परिणमंति, अहवा इमं मंता-कम्म| निजरा भवति अहियासेतस्स, इहरहा कम्मबंधो, ण तस्स अगार विजतीति अणगारो, किंच-सब्वेहिं विसरहिं अणुलोमपडिलो मेहि अरती समुप्पजति, संजमरती ग भवति, अरर्ति रति च अभिभूता जा संजमे अरती उप्पअति पडिलोमेहिं उत्सग्गेहि, | विणा वा उपसग्गेडिं, असंजमे वा रती सद्दातिविसए पप्प पुधरतअणुस्सरणाओवा, ते अभिभूत सज्झाणेणेव रीयति माहणेति । दीप अनुक्रम [२८८३०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [319] Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णि ॥३१६॥ प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] बहुचायी रीयति गामाणुगाम, माहणो पुव्यवणितो, न तम्स बहुवयो, यदुक्तं भवति-मोणेण, अहवा जायणि अणुण्णवणिं च | मोतुं पुट्ठस्स बागरणं च, जहा सादिदत्तातपुच्छा, सेर्स मोणं, किंच-स एवं गुत्तो सुसयणेहिं तत्थ पुछिसु (७५) | एगचरावि एगदा राओ एगा चरंति एगचग उम्भामिया, उम्भामगपुच्चचि, एस्थ को आगो आसी मणुस्सो पुरिसोवा? इथि पुच्छति, अहवा दोषि णं, जणाइआगमं पुच्छंति-अस्थि एत्थ कोयी देवाओ कप्पडिओ वा ?, तुसिणीओ अच्छा, दटुं चा | भणंति-को तुम?, तत्थवि मोणं अच्छति, ण तेसि उम्भामइल्लाण वायपि देति, पच्छा ते अचाहिते कम्मइ, एत्थ पुच्छिजंतोवि | वायं ण देइत्तिकाऊणं रुस्संति पिट्ठति य, उम्भामिया य उभामगं सो ण साहतिनिकाउं, किं आगतो आसि? णागतोत्ति, अपा हिते कसाइय भण्णति-अक्खाहि धम्मे, अहवा हंसपरिणो विसयसमासनिरोही णिवणमुहममाणेहिं वा पेहमाणो विसयसंगAN दोसे अ पेहमाणो, इह परन्थ य अपडिने, तंजहा-णो इहलोगट्टयाए तवं अणुचिट्ठिस्सामि, विसयसुहेसु य अपडिनो, सब प्पमादेसु वा, एगतरपुच्छा गता, सुत्ता रागादिसु, इदाथि केह भणति-प्रभू, पच्छा जेण से दिट्ठी पविसंती, पुने वा मातरि वा, जेण भण्णति-अयमंतरंसि को पत्थं के भणंति !, ते चेव एगचरा आगंतुं दट्टणं भणंति-अयमंतरीस, अयं अस्मिन् अंतरे | अम्हसंतगे को एत्थं ?, एवं वुत्तेहिं अहं भिकाबुत्ति एवं बुत्तेवि रुस्सति, केण तव दिनं? किं वा तुम अम्हं विहारट्ठाणे चिट्टसि ? अकोसेहिति वा, कम्मारगस्स वा ठाओ सामिएण दिनो होजा, पच्छा रन्नो भण्णति-को एस, सामी द्वितो, तुसिणीओ चिट्ठति, तस्थ गिहत्थे ममत्त, कमाइने संका य, ने मकमाइते णातुं ज्झाति मेव ण भवति, परमं दाऊणं एताहे रुस्सह, असंकिते चेव झाति, जंसि एगे पवेदेति सिसिरे मारते पवायंते जा गिम्हकाले एते अन्नतित्थिया मिहत्था वा णिवेदेति, सिसिरं सिसिरे वा ।। दीप अनुक्रम [२८८३०३] ॥३१६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [320] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] प्रत वृत्यंक [२२६गाथा १-१६] श्रीश्राचा मासाओ. पचायति भिसं वायति, तपि एगा अण्ण तिस्थिया वमहीओ निवाता करेंति. पाउरणाई फंफगाई. उफ आहारयं. चण्णं निवातायTH-I7 एत्थं झुंजंति, जतिवि कुंचियाविज्झे(छिद्दे)ण सीतं एति तेणेति भणति-दुक्खाविओ, जेवि पासावचिजा तेविण संजमे रमंति, भावः चूर्णिः | संघाडीओ (७८) वस्थाणि कंबलगादि पहिरिस्सामो पाउणिस्सामो, समिहातो कट्ठाई, ताई समाङहमाणा गिहत्थअण्णउत्थिया, ॥३१७॥ एवं सीतपडिगारं करेमाणो तहावि दुक्खं सीतं अहियासेइ, पिहिता पाउया वा पस्सामो अतिव दुक्खं हिममयं पएसं (७९) तहिं काले ८ उप० | भावेंति अपडिपणे बसहि पडुच्च ण मए णिवाता वही पत्थेयव्या, अहिगदाएवि अहियासेति, दविते पुन्वभणिते, अह अश्वत्थं ३ उद्देशः सीतं ताहे णिक्वंम गगता राओ बसहीओ रातो-राईए मुहत्तं अच्छित्ता पुणी पविसति रासमदिट्टतेणं, पृणो य वसति च। | एति, स हि भगवं समियाए सम्ममणगारे, न भयट्ठाए वा सहति, एस विही अणुकतो (८०) स इति जो भणितो, विहाणं विही, अणु पच्छाभावे, जहा अन्नतित्थगरेहिं कतो तेणावि अणुकतो, पूर्ववतु एतस्स सिलोगस्स बक्खाणं कायब्ध, पढमुद्देमए इति ।। || उपधानधुतस्य द्वितीय उद्देशकः परिसमाप्तः ॥ उद्देसामिसंबंधो भणितो, चरिता पदमुहेसए, अज्झयणे तस्स तया, वितिए सेआविहाणं भण्णति. णिसीहियाहिगारो संपर्य. | सो जहा सामायियणिज्जुत्तीए भगवं अच्छारियदृष्टान्तं मणमा परिकप्पेऊणं लावाविमयं पबिट्टो, एन्थेव निसीहियापरीमहो अधिकतो. तत्थ निसीयणं णिसिजा, यदक्तं भवति-निसीहियासु बसतो उबसग्गा आसी, तंजा-तणफास सीयफासं तेउफासे य दंसमसए य (८१) तरतीति तरणं, तत्थ पहुंजयमादी तणा लगंडसीतफासेण ठितं विधति, णिसन वा कडगकिसासरदन्मादि, सीतं पुण पब्वयाइन्नदेसे अतीव पडति, तेउत्ति उण्हंति, आतावणभूमी व हालदामाए अग्गिमेव आसी, उल्लु दीप अनुक्रम [२८८३०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: परीषह' आरब्ध:, [321] Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-१४५ दीप अनुक्रम [३०४ ३१७] श्रीजाचारांग सूत्रचूर्णिः ॥३१८॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [ २८४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६/ गाथा: १-१४] एण वा कोह, दंसमसगा य जलोयाओ एवमादि उवसग्गे अहियासए, सपा समिते सया नाम निचकालं, फुसंतीति फासा विरूवरूवाति एयाणि य अन्नाणि य अनुलोमाणि पडिलोमाणि य, अवि दुचरलाढमचारी (८२) अवि इति अणंतरे, उबसग्गबहुता दुकरं चरिञ्जतीति दुच्चरं, लाढ इति जाणवतो, सो दुविहो– भोम्मा य, सो तेसु भगवं तात्र तेसु पन्तं सेज्जं सेवित्था, आसणाईपि चैव पंताणि, पंताओ णाम सुन्नागारादीओ, सडियपडियभग्गलग्गाओ, आसणाणि पंताणि पंसुकरीससकरालीडुगादीउवचित्राणि, कट्टासणा वा चिलागि फलपट्टयादीहिं, एरिसेसु सयणआसणेसु बसमाणस्स लाढेसु (८३) ते उवसग्गा बहवे जाणवता आगंम लाढा त एव दुविधा वज्रं सुज्झ० उपसग्मा बहवे पडिलोमा य अकोसवहादि, जाणवता उवसग्गा जणवते भवा जाणपदा, यदुक्तं भवति- अणगरजगत्रओ पार्य सो विसओ, ण तत्थ नगरादीणि संति, लूमगेहिं सो कडूमुट्ठिष्पहारादी एहिं अणेगेहिं य लूसंति, एगे आडु-दंतेहिं खायंतेति, किंच-अहा लूहदेसिए भने, तदेसे पाएण रुक्खाहारा तैलघृतविवर्जिता रूक्षा, भक्तदेस इति वसव्वे बंधाणुलोमओ उपकमकरणं, णेह गोवांगरससीरहिणि, रूक्षं गोपालह लवादादीनं सीतकुरो, आमंतेऊणं अंबिलेण अलोणेण एए दिअंति मज्ाण्छे लुक्खएहिं माससहाएहिं तं पिणाति प्रकामं, ण तत्थ तिला संति, ण गावीतो बहुगीतो, कप्पासो वा, तणपाउरणातो ते, परुक्खाहारता अतीव कोहणा, रुस्सिता अकोसादी व उवसग्गे करेंति, कुक्कूरा तत्थ हिंसिसु णिवर्तिसु तत्थ बहवे कुकुरादी हिंसंतीति हिसिंसु णिवतिति सब्जओ तं निविसयति, भट्टारगस्स य नत्थि दंडउत्ति जेण ते पुण पवारेद्दिति, ते एवं णिम्भया शुक्खिया णिवर्तता अपि अपने निवारेंति (८४) जति सहसा सो कोति एगो निवारेति लूमणगा, जं भणितं होंति-भक्खणगा, भसंतीति भसमाणा, जेवि नाम ण क्खायति तेवि ते छुच्छुकारेंति आहंस आईसुचि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [322] दंशायध्यासनं રૂદ્રા Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [३], नियुक्ति: [२८४..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१४] सान प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-११ समान आहणेत्ता केति चोरं चारिपंति च मण्णमाणा, केई पदेसणेण, एवं तत्थ छम्मासे अच्छितो भगवं, पलिक्खए जणे भुजो(८५)100 परुषादिरांग पत्र-1 एलिक्खएति एरिसए, ओत्ति पुणो, ताई चेव भूय ठाणाणि विहरयं तो यहवे षज्झभूमि फरुप्सासि बहवेति पायसो ते फरुमा || चूर्णिः फरुसं आसंति फरुसासिणो, फरुसासित्तातो य फरुसा एव, फरुसा वा आसी अतिकंतकाले, लट्ठी गहाय नालीयं दंडं लढि च | ॥३१९॥VI गहाय, दंडो सरीरप्पमाणा ऊणो लट्ठी सरीरप्पमाणा, दरतर एवायरति, नालिया चउरंगुलअतिरित्ता, एगे चउरैगुलादि, विहरियं | तो बहवे वज्झसुम्मे मिक्खं हिंडिंसु, ते एवं लट्ठिहत्था एगावि एवंपि तत्थ विहरतो (८६) पुडुपुया य अहेसि सुणतेहिं, | एवमवधारणे, एवमवियप्पं तेण विहरता पुट्टपुष्पा भक्खितपुब्बा बहवे समणमाबणा संलुंचमाणा सुणएहिं सगे लुचंति, संलु चमाणेसु देसेसु संलुंचमाणसुणगा, दुक्खं चरिजंति दुचरमाणि कामादीणि यकसेस, निधाय डंडं पाणेहिं (८७) णिधायेति | णिक्खिप्प, इंडं ण भणति सुणए वारेहि, उबाएण डवति, मणसावि ते णावखंति, सो एवं विहरमाणो अवि गामकंटए भगवं | गामकंटगा सोतादिइंदियगामकंटगा, जं भणितं होति-चउबिहा उवसग्गा, लाढेसु पुण माणुपतिरिच्छिएसु अहिगारो, तेरिच्छगा सुणगादयो, माणुस्सगावि ते अणारिया पायं आणति, अमिस नेवत्ति तं लादविसयं, यदुक्तं भवति-प्राप्य, अहवा ते चेव उवसग्गे प्राप्य, कहं सहियव्वा , णाओ संगामप्तीसेवा (८८) ण तस्स किंचिवि अग्गमिति णागो, संगामसीसं, जं भणितं होति-अग्गाणीयं, सो हि अग्गतो ठितो दूरत्थेहि चेव उसुमादीहिं विमति, समीवत्थेहि य असिमादीहि य, सो य कृतयोगचा तह इण्णमाणोऽपि ण सीतति, पारमेव गच्छति, पारं नाम परेसिं जतो, एवं भगायाऽवि परीसहसतू पराजिता, एवंपि तत्थ विहरतो एवं अवधारणे वोसर्ल्ड काउं विदरंतओ, यदुक्तं भवति-अणवरज्झमाणो, एगया कदायि, गामि पविड्डेण णिवासोप लद्ध दीप अनुक्रम [३०४. IANT३१ ३१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [323] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [२], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१४१ बसत्य रांग सूत्र प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१४१ श्रीआचा- पुचो, जेण उपस्सतो या लद्धो तेण गामो ण लदो चेव भपति, कत्थति पुण उवसंकमंति पतिष्णं मिक्खढाए सहीणिमित्तं वा | | उवसंकमंतं (८९) जं भणेज-गाममभिगच्छंतति, अपडिण्णो णाम पए पए परीसहउवसम्गाणं उदिण्णाणं ण पडिक्खिया कायब्वा, लामादि चूर्णिः कारणेण गाममणियंतियं गामम्भासते लाढा पडिनिक्खमेत्तु लूसेंति, णग्गा तुमं किं अम्हं गार्म पविससि!, लूसितित्ति पितॄति, ॥३२०॥ एतो परं पलेहेति-एनो चेव परेण लेहेन्ति, भसणस्स च्छज्झाहित्ति पा निकटते, जं लादा तारिसेण रूपेण तजंति, बुबंति ते तु चिरु विघायण, तारिसे रूबे रजंति, सरिसासरिसु रमंति, तत्थ अन्नत्य वाहियपुबो, तत्थ दंडेण अदुवा अट्टिणा अदु 0 कुंतफलेणं (९०) दंडो मुट्टी कटु, फलमिति चवेडा, अध लेलुणा लेलू नाम लेट्ठगो, कवालं णाम कप्पर, उढिकवाल वा, हंत ।। | तत्ति हणेत्ता अण्णित्ता बईते, अन्ने कंदंति. जं भणितंबाहरंति, अन्नेहिं पुण मंसाणि छिन्नपुवाणि (९१) केयि थूभातेणं | उठुभंति थुकरिति य, परीसहाणि लुचिमु अदुवा पंसुणा अवकिरिंसु पंसुणाइ कयाइव करेंसु, धूलिए वा छारेण वा | भरेंति, तहावि भगवंतो अच्छीवि ण णिमल्लिंति, एगे तु उच्चालइत्ता णिहणिसु (९२) केइ आसणातो खलयंति आयावणभूमीतो पा, जत्थ वा अनन्य ठिओ णिसष्णो चा, केति पुग एवं वेवमाणो हणेता आसणातो वा खलित्ता पच्छा पाएसु पडितुं ||" खमिन्ति, केरिसो य भगवं, बोसहकाए पणतासी उवसग्गेहिं अहियासे पणतो आसी, दक्खाणि सारीराणि सीतउसिणमादीणि ताणि सहति, अपडिण्णो वुत्तो, सूरो संगामसीसे.वा (९३) संगामअग्गं परेहिं समादीएहिं विज्झमाणोविण णियत्तति एवं सो भगवं, रागं दोसं या ण करेति, एवंपि बहहिं उबसग्गेहिं कीरमाणेहि तत्थ लाटेसु य तवे उबसम्गे वा सहमाणो रागदोसHA रहिते तेरसमे परिसे पतेलिसे, पति पति सेवमाणो, जंभणितं भवति-सहमाणो, फरसाई-ककसाई ओरालाई अचलनि परीसहो-16||३२०॥ दीप अनुक्रम [३०४. ३१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [324] Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] श्रीजाचा गंग सूत्र चूणिः | ॥३२॥ ९ उप० ४ उद्देशः प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] दएबि ज्झाणाओ ण चलति, रीयं-चामिति । एस विही अणोकतो माहणेण मतीमता (९४) इति तृतीयः॥ चिकित्सा उद्देसामिसंबंधो से जासु एमणादीसु य निसीहियाठाणेसु केह नस्स गेगा उप्पन्नपुवा, तेसिंवा उदिनाणं अणुदिनाणं काति चिगिच्छा न कयपुब्धा, भणंति ण च तस्स रोगा उपजंति, जति णाम उप्पजेज तोषि ण करेति किरियं, जारिसा पुण | अढविहकम्मरोगतिगिच्छा तेण कया भगवता सा तिहिं उद्देमपहिं भणिया, इहंपि चउत्थउद्देशए तबसंजमतिमिच्छा, अखिलेसु उद्देसएमु अवि सीतदंसमसगकोसतालनादि, सकं परीसहा सोलु, दुक्खं तु ओमोदरिया, कहमिति , अतो ओमोदरियं चाएति || (९५)सा य दुविहा-दब्वे भावे य, दब्बे ताव उवगरणं प्रति ओमोदरियं अचेलता, आहारेवि अप्पाहारे आसी, ण अतिपमाणभोई0 'बत्तीसं किर कवला' एनो एकेणवि घासेणं ऊगगं, भावे परिताविञ्जमाणोविण रुसति, भणियं च-णो सुकरणं मोनमेगेसिं, चाएतिति अहियासेति, इह पायसो दब्बओमोदरिया, जण बुञ्चति-अपुढेऽवि भगवं रोगेहिं वातातिएहिं रोगेहिं अपुट्ठोवि | ओमोदरियं कृतवान् , लोगो तु जतो पुट्ठो रोगेहि भवति ततो पडिकारणनिमित्तं ओम करेति, भगवं पुण अपुट्ठो वातादीएहिं ओमोदरियं चाएति, सुभुजंग वा जहा आहारति, आह-किमितमेगंतो रोगेहिं ण सो फुसि अति, भण्णति-धातुक्खोभितेहिं ण फुसिन्नति, जइ कोवा कटं सलागं पवेसए तहा, तह(हत)पुन्चो दंडेणं, अतो वुञ्चति-पुढे व से अपुढे वा पुढे वा, पुढे तेहिं । आगंतुएहि णो सतं स करेति, जोवि अण्णो करेति तपि ण च करेतुति साइजा, अतो णीणि अंति, एवं लाए कडगसलागाए मणसावि भगवता ण सातिजिता, सा पुण तिगिच्छा तंजहा-संसोधणं च वमणं च (९६) संसोधणं विरेयणं, वमणं | | वमणमेव, गायभंगणं मक्खणं, सिणाणं देसे तात्र हत्थपायधोवणं, दगपडिगतो वा किंचि सिंचति, सव्वे सब्बगायअमिसेयणं, आता-|1|३२१॥ दीप अनुक्रम [३०४. ३१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: नवम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'आतंकित' आरब्धः, [325] Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] श्रीआचा- | वणपरिसंतो सोवि संबाधणं ण सेविजा, ण च सतं संवाहेति, ण च अण्णेण संवाधावेति, एवं दंतवर्णपि दंतवणेण अंगुलिए वा संग सूत्र वर्जन उदएण वा परिणाय जाणितु ण करेति । एवं ताव सरीरतिगिच्छंण करेति सउ गायपरकमविमुको, मोहतिगिच्छावि विरते चूर्णिः |गामधम्मेसु (९७) गामा इंदियगामा, धम्मा सदाति, एहिंतो विरतो रीयति माहणे अबहुवाई रिपति, माहणो पुब्ब॥३२२॥ IMमणितो, अपहुवायमाणो ण बहुबाई, सिसिरंमि एगता भगवं सीतकाले एगता कदावि छायाए साति आसीत छायाए.IN ण आत गच्छति, तस्थेव झातियासिचि, अतिपतकाले हेमंते अतिकते आयावयंति गिम्हासु (९८) उकुडयासणेण अभिमुहवाते उण्हे रुक्खे य वार्यते, एवं ताव कायकिलेसो, रसच्चागो तु अदु जाब एत्थ लूहेणं अदु इति अहिजावइतवा जीवितं अद्धाणं वा, अपाणं वा जावइतवान् , भावलूहे अरागतं, दवरुक्खं ओदणं विरहितं, मंथु इति मंधुसत्तुया णम्मोहमथुमादी वा | भुजितएहि तएहिं, कुम्मासा कुम्मासा एव, सम्बत्थ रुक्खसहो अणुयत्तति-एयाई तिण्णि पडिसेवे(९९)अट्ठ मासे य जावते । भगवं एतेहिं ओदणमंथुकुम्मासेहि, अट्ठमासेत्ति उडुबद्धिते अट्ठ मासे, वासासु णवरि आदिल्लेसु तिसु, गुत्तीसु, अद्धमासं मासं दोमासं च कितकं, चासारत्ते णेब चेव भुत्तो अपियस्थ एगता भगवं जो पाणगं ण पियति सोपादेण आहारंण आहारेति, एवं |च सव्वं च तवोकम्म अप्पाणगं, अवि साधिते दुवे मासे(१००)जाब छम्मासे रीयितवान् रीयित्था, एवं परिग्महित उराल |तयोकम्म रातोवरातं अपडिपणे पुब्बरते अबरते य, दो पढमजामा पुख्यरतं, पच्छिमरत्तं पच्छिमा दो, तेसु जग्गति, अहवा|N .रति उवरचि रातोवरात-राती जाच सा उवरता, अपडिण्णो भणति अण्णगिलाए एगता भुंजे (१०१) अहवा अट्टमेण दसमेण दुवालसेण एगता भुजे एतं कंठर्थ, पेहमाणे समाही अपडिपणे समाधिमिति तबसमाधी णेवाणं समाही 10 ॥३२२॥ दीप अनुक्रम [३१८३३४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [326] Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२८४..], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] आधाकर्मवर्जनादि प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] श्रीआचा-10 | पेहमाणे, यदुक्तं पस्समाणो, आहारं पडुच्च अपडिण्णणे, णचा णं स महावीरे (१०२) णोवि य पावगं सयमकासी अक- | प्पियस्स आहारस्स दोस णशा, 'आहाकम्म णं भंते ! भुंजमाणो किं बंधेति !, गोयमा ! अट्ठ कम्म०'सतं पावमकासी-ज कारि | तवान् अण्णेहिं केण कारित्या? कीरमाणपि नाणुमोतित्था कंठ, गामं पविस्स नगरं वा घासमेतं कई परवाए ॥३२३।। घासं-आहार 'अत् भक्खणे' परवाएत्ति अण्णसिं अट्ठाए सुविसुद्धं एसिया भगवं आपतजोगजाए गवेसिस्था सम्बउग्ग मादिदासमुद्ध आयतण जागेण-तिविहेणावि सपनाणगवेसणाए सेसेहि य केवलबजेलिनाणेटिं, अद् वायसा दिगिछित्ता (१०४) जे अण्णे रसेसिणो सत्ता घासेसणाए चिट्ठते संधरे णिवतिते य पेहाए अह इति अर्णतरे, दिगिंछा छुहा, ताए अंता तिसिया वा जे अण्णे रसेसिणो काया पारवयचिट्टियादि, घासं एसंतीति घासेमणा ताए चिट्ठति-संचिटुं सततं संणिवेतया, ते मा उद्वेहिति ततो परिहरति, एवं गोणादिएवि, घरं धरेण हिंडंति, तेसि चारी दिअति करो य, एवं ताव तिरिक्खजो| णिए परिहरति घासेसणाए उछितो, इदाणिं मणुस्से अह माहणं च समणं वा (१०५) गामपिंडोलगं च अतिहिं वा माहणा मरुयादि, समणे पंच, पिंडेसु दिञ्जमाणेसु उल्लंतीति पिंडोलगा, जं भणितं-दमगा, गंडगा वा, केति भणंति-अतिहि आगंतुया, सोवागमूसियारिं वा कुछई चिट्टितं पुरुतो सोवागो साणं पचंतीति सोवागा-डोंबादि, मूसगारी मजारो, कुक्कुर्ड वा, उछितो पुरुतो, साणं वा विगप्पन्नतरं तेसिं वित्तिं अछेदेजें तो (१०६) तेसिमपत्तियं परिहरंतो, वित्तिच्छेतो जं तेसिं दायब्बं तं मा मम देहित्ति, तत्थागच्छता वित्तिच्छेदो परिहरितो भवति, अप्पत्तियं भवति जायंतस्स वा देंतस्स वा, मंदपरकमे भगवं अविहिंसमाणो घासमेसित्था मदं णाम अतुरियं घासं एसितवान् , जता पारेति तया तं जहावलद्धं भुजेति दीप अनुक्रम [३१८३३४] ॥३२३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [327] Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२२६ गाथा १-१६] दीप अनुक्रम [३१८ ३३४] श्रीजाचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥३२४ ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], निर्युक्ति: [ २८४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २२६ / गाथा: १ - १६] | अवि सूचितं च सुकं वा सीयपिंडं पुराणकुंमासं (१०७) सूचितं णाम कुणितं असूचितं युक्तंति, पिंडो नाम सीतकुरो, पुराणकुम्मासोबि पज्जुसियकुम्मासो, अदु बुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धे दविए पदे चैतो एकारो, पुराण घण्णं कुरु पुराणतणुसतुगा वा फरुसा वा पुराणगोधूममंडगोवा, पुलागं णाम अवयवो णिप्फावादि, लद्वेपि पजते दवितो-न रागं गच्छति, जहा अज मते पञ्जचं लद्धं, अलद्वेवि ण दोसं दायगाणं करेति, एवं मणुष्णामणुष्णेवि अभिग्गहपाउम्गे वा इचैवं सरसं विरसं अप्पजत्तं पञ्जतं वा भुंजिऊण पसत्थो उवस्सगं आगंम अवि ज्झाति से महावीरे (१०८) आसणे अकुकुते जाणं ज्झाइति धम्मं सुकं वा, आसणं उक्कुडओ वा वीरासणेणं वा, अक्कुक्कुओ णाम निश्चलो, दव्वतो सरीरेण निञ्चलो भावओ | अक्कुक्कुओ पसत्थज्झाणो वगतो झियाति, किं झियाति उडूं अहेयं तिरियं च सच्चलोए झायति समितं, उडलोए जे भावा एवं अहेव तिरिएवि, जेहिं वा कम्मादाहि उट्टं गंमति एवं अहे तिरियं च अहे संसारं संसारहेउं च कम्मविपागं च ज्झायति, एवं मोक्खं मोक्खहेऊ मोक्खसुहं च ज्झायति, पेच्छमाणो आयसमाहिं परसमाहिं च अहवा नाणादिसमाहिं, अपडिष्णो भणितो, अकसायी विगतगेहिय (१०९) अकसायवां, अकसायत्तमवि गतगेहियस्स भवति विगतगेही, कत्थवि विसएस सद्दादिएहि य अमुच्छितो ज्झायति, अरतो अदुड्डो व, छउमत्थोवि परकममाणो छउमत्थकाले विहरंतेणं भगवता जयंतेणं धुर्वतेनं परकर्मतेणं ण कमाइ पमाओं कयतो, अविमड़ा गवरं एक्कसिं एको अंतोमुद्दत्तं अट्ठियगामे, सयमेव अभिसमागम्म (११० ) आयतजोगमायसो भीए सयंबुद्धो भगवं अभिगम्मागम्म णचा एवं विमोक्खो भवति, ण अण्णा मम इति, आयंत णाम द पवचितेण णाणदंसणचरिततवजोगेण अन्तसोही, एवं परकर्मतो भगवं अभिब्बुिटो अमाइल्लो आवकहा भगवं समि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [328] पुराणकल्मासादि ॥३२४ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२८४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२६/गाथा: १-१६] अग्रादि| निक्षेपः प्रत वृत्यक [२२६गाथा १-१६] श्रीआचा | तासि अभिनिम्बुडो सीतीभूतो विमयकमाएसु कम्मबंधणजणएहि अ भावेहि, अमाइल्ले-अमाइल्ले, ण माइट्ठाणेण तवो कतो भग-U रांग सूत्र- बता वरं देवो वा दाणवो मणुस्सो वा तुस्सिहिति, णवर कम्मक्खयट्ठाए, आवकहा जावञ्जीवाए, भगवं समितो आसी। एस चूर्णिः IN | विही अनोकतो (१११) माहणेण मतीमता। बहुसो अपडिन्नेण भगवतारीयते ॥ त्तिबेमि पूर्ववत् इति ।। इति ॥३२५|| ब्रह्मचर्याध्ययनचूर्णिः।। आचारे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य चूर्णिः परिसमाप्ता। २ श्रुत १ अध्य उक्तो आचारार्थः नवयंभचेरः, इतो यदत्र विस्तरेण नोक्तं तदिह आचारे विस्तार्यते, आचारस्य अग्गाणि आचारग्गाणि, FII आचार एव वा अग्गं आचारगं, तेषां तेषामाचाराग्राणामयं न्यासो दशप्रकारः, णामम्ग(२८५) णामस्थापने पूर्ववत , दव्यगतिविहं । सचित्तं कुक्डसिहा रुक्खग्गं वा, अचित्तं कुंतग्गं, मासग्गं, तस्सेव देसे अवचिते, ओगाहणं सासयपवयग्गं चतुद्धागाई, जं वा D| जावतियं किंचि ओगाद, आदेसगं पंचण्डं अंगुलीणं जा पन्छा आदिस्सति, देवदत्चादीणं वा अंतो, भायणकमादिसु वा कजेम, भुंजता करहिं वा जो आदिस्सति, कालग्गं सम्बद्धा, अतः परं नास्ति कालः, कमग्गं चउधिह-दव्बादि ४, दनओ परमाणूANI दुपदेसियादीणं अणंतपएसितो अगं, खिलतो एगपदेसोगाढादीण असंसिअपएसोगाढो कमग्गं, कालओ कम्माणं जा जस्स उकि| दृठिई, आउए कम्मे चउगइयाणं जीवाणं जा उकसा द्विती, अजीवदब्बाण वा परमाणुमादीणं जा वुक्किट्ठडिती, एतं कालग्गं, भाव कमग्गं जे जेसि वण्णादीणं अंतिमा पञ्जबा, वण्णेसु अणंतगुणकालओ, एवं सेसेसुवि, गणणग्गं सीसपहेलिया, संचयग्गं तणकट्ठ| मादीणं जं उवरिं, अण्णे या कस्सइ रासि जस्स उवरिं तं संचयग्गं तिविहं, पधाणग्गं बहुअग्गं उवचारगं, पहाणग्गे खाइओ भावो, || दीप अनुक्रम [३१८३३४१ ॥३२५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: 'आचार'सूत्रे प्रथम श्रुतस्कंध: परिसमाप्त: अथ 'आचार'सूत्रे द्वितीय-श्रुतस्कंध: आरब्ध: [329] Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२८५-२९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-९] चूर्णिः प्रत वृत्यक [२२६गाथा ONDAR भीआचा- बहुअग्गं जीवादीणं छण्हं पञवग्गं (२८६) उवचारे पवबंभचेराणि, उवचरितं आचारग्गाणि दिअति, अतो आयारस्सेव अग्गाणि | | अग्रादिसंग सूत्र निक्षेपः Dआयारम्गाणि जहा रुक्खस्स पध्वयस्स वा अग्गाणि, तधेयाणिं आयारस्स अम्गाणि, जहा रुक्खगं पब्बतम्ग का रुक्खा पव्यया, वाण अत्यंतरभूयाणित्ति एवं ण आयारा आयारग्गाणि अत्यंतरभूयाणि, एत्थ पुण भावग्गेण अहिगारो, तत्थवि आयारउवयार-10 ॥३२६|| भावग्गाणि, उवचारंति वा अहीयंति वा अज्झितंति वा एगटुं, एयाणि पुण आयारम्गाणि आयारा चेव णिज्जूढाणि, केण णिज्जढाति, थेरेहि (२८७) थेरा गणधरा, किं णिमित्तं ?, अणुग्गहत्थं साहूणं सिस्साण हियत्थं पागडत्थं च भवउत्ति आयारस्स | अत्थो आयारग्गेसु णिज्जूढो, दवितो भविता, पिंडीकतो पृथक् पृथक् , पिंडस्स पिंडेसणासु कतो, सेजत्थो सेजासु, एवं सेसाणवि, | सो पुण कतरेहिंतो कतो', वितियस्स (२८८) अज्झयणस्स पंचमगाओ उद्देसगाओ, 'जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंमा कअंति, तंजहा-अप्पणो से पुनाणं धूयाणं धूईणं सवामगंध वा परिणाय बत्थपडिग्गहकंबलेण पादपंछणं ओग्ग IN | कट्ठासणं' अट्ठमस्स वितियाओ उद्देमगातो तं 'मिक्खू उवसंकमित्तु गाहावई चूया-आवसंतो! समणा अहं खलु तब अट्ठाए असणं या ४ वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सचाई समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिर्च अचिज | अणिसहूं अमिहडं आहटु चेतेमि आवसह वा समुस्सिणोमि' एतेहितो पिंडेसणसेज्जावत्थेसणा पादेसणा, उग्गहपडिमा णिच्छूढः ।। | पंचमस्स (२८१) लोगसारअज्झयणस्स चउत्थाओ उद्देसगाओ, 'गामाणुगाम दुइजमाणस्स तद्दिट्टीए पलिबाहिरे पासित पाणे गच्छिज्जा से अभिक्कममाणे एत्तो रिया णिच्छूढा, छट्ठस्स पंचमाओ उद्देसगाओ 'पाइन्न पडीनं दाहिणं उदीणं आइक्खे विरुए किडे' एनो भासजाता, सन सत्तिकगाई (२९०) सत्तवि महापरिणाओ एकेकाो उद्देसाओ, सत्यपरिणाओ भावणा, घुयाओ ||॥३२६।। दीप अनुक्रम [३३५३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: • प्रथमा चूलिका आरब्धा, [330] Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२८५-२९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-९] अब निक्षेपः चूर्णिः प्रत वृत्यक [१-९] श्रीआचा JD विमुनी, आयारपकप्पो (२९१) पच्चक्खाणपुरस्म नतियवधूतो आयारणामधिनाओ वीसतितमातो पाहुढछेदाओ, आयाराओ संग-16आयारग्गाई णिज्जूदाई, वितियातो 'जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुन्छस्स कत्थति' अब्बोगडो (२९२) अविसतो अवि तेसि तो।। N/ अय्योकट इति, इंडणिक्खेवो 'णेव सयं छजीवनिकायम रंड वा समारभेआ, लोगविजते अवि ते-'एसि रक्खणा अप्पमत्था, VA ॥३२७॥ विसयकसायवअणा कीति (पसत्था), सीओसणि जेवि जीवसंरक्षणमेव, सीतोसिणा परीमहोबसग्गा अहियासिअंति, सम्मने लोग सारे य उञ्जमइ त जीवसंरक्षणथमेव, धूतमहापरिष्णापि जीवपालणत्य, अट्ठमे च इमा जीवविराहणा तेण भत्तपरिणा, वेण तं णात !, आयरियं ! उबदेसियं वा ?, जिणेण भगवता, जीवरक्खणधं पिंडेसणाओ जहा तहा सेआरिया जाव विमोती जीवपालनार्थ, एवं ता चिट्ठतो, अथ सूत्रम्-गविहो पुण (२९४) सदविशेषात्सर्वमेकं, तदेव भूयो द्विविधो-जीवाधाजीवाथेति, सम्वनिक्खेवो एवं वित्वारिजति बिरजति तहा, अहवा एगविही असं जमें, दुविहे अस्थतो-बाहिरतरो अज्झन्थो, ने सेवंता, कई च बाहिरहितो, कायवायाणं, मणादिविभासा, चाउआमो य, बहिद्धा आदाणं ग्रहणमित्यर्थः, गृहीतं परिभुज्यते नागृहीसमिति, तेन गहणमेव, पंचमे पंच महत्वता, सराइभोयणा छद्धा, जाव सीलंगसहस्सा आयारस्स पविभागो, सम्बं आतिक्खेउ (२९५) जेण सुहतर होइ, एतेण कारणेणं पंच महव्वया पणत्ता, तेसि पेब (२९६) रक्खगट्ठाए एकेकस्स तस्सेव महब्बयस पंच २| भावणाओ, सस्थपरिण्णाए अम्भितरो सव्व एव आचारार्थमित्यर्थः, पिंडेसणादि जाव उग्गमउपायणेसचा जाब अढविह पिंडनिज्जुत्तीए, सेजाएवि वस्थेसणाए पादेसणाए उग्गहपडिमाए, भासाताणं जहा वकसुद्दीए, सेआयरिया उग्गहे तिव्हं छको णिक्खेको सो, पिंडभासा बस्थे पाते चउको णिक्खेबो, आयारग्गाणेसो पिंडत्थो वण्णितो समासेणं । एतो एकेकं पृण अज्झ-| दीप अनुक्रम [३३५३४३] ॥३२७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: + प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा" आरब्धं प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: [331] Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२८५-२९७], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १-९] प्रत वृत्यक [१-९] श्रीआचा- 10 यणं वनइस्मामि ॥१॥ पिंडेसणाओ चउके पुवाणुपुयादीसु जहासंभवं, सुत्तालावगे सुत्तं उच्चारेयब-से भिक्खू वा भिक्खुणी |STI रांग सूत्र Dवा भिक्खू हेडिमज्झयणगुणयुत्तो दशवकालिकमुत्तराध्ययनेषु अहवा 'जे मिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिसिते मिक्खू चउप्पगारो चूर्णिः निषेधः विभासा, तथा मिक्सुणीवि, गाइत्ति वा गिहत्ति वा एगहुँ, गिहस्स पती गिहपति, गिहपतिग्गहणं रायपिंडप्रतिषेधार्थ, कुलग्ग॥३२८॥ Nहणं पडिकुट्ठपडिसेहाथै, पिंडं पातयामि अनया प्रतिज्ञया, अविसेसिते पिंटो, स एव विसेसितो असणादि चउबिहो, जहा सुतं, IVA या पाडेउं वाणिग्गतो णिग्गतो व णं पाडेउं, जं लम्भति तस्स पाडेउंति सण्या, पाणगस्सत्ति सामइगी संज्ञा पिंडो, यथा जीवो क्षेत्रज्ञो । सांख्यानां, पडिया प्रतिज्ञा, विश प्रवेशने अनु पश्चाद्भावे, सुत्तत्थपोरिसिं सण्णाभूमि च गंतुं पच्छा पविढे चा, अहवा गिहीणं पागकते पच्छा पविढे अणुपविट्ठो, अहवा पिंडोलगादि पविद्वेसु पच्छा पविद्वेसुमणुपविढे समाणे, गच्छवासीणं संघाडएण सम, | अहवा समणाणऽस्थित्ते इत्यर्थः, पुनर्विशेषणे, किं विशिनष्टि ?, अशनादि-शत्तुकोदणकुम्मासादी, अहवा प्राणादीन् प्राणेहिं वा,पाणेहि अदुव आगंतुएहि, अहवा जहा चउत्थरसिते गोरससत्तुयदोसीणेसु होजा, आगंतुगा मूर्यगादी, पणगो खञ्जगदोसीणाइस, भायणेसु | वा, पइणइतेवी वा तलारतियातो वा, अहवा चीयरगहणा कंदाती, हरियं मूलगमादी, हरितग्गहणा रुक्खादी, बलिमादिसु संभव होजा, सचेहिं संसर्ग, इतरेहिं उम्मीस्सं, सीतोदएण अमिसित्तं, कहं ?, अग्गि(ग्ग)मिक्खमादी पाणितेण अमिसिंचति, निक्खेवो, तंदुलोदएण मित्तगं उदगं, मिक्खा वा वरिसे पडतए, रयसा घासित, समंतारएण मिस्सितं, उवचितसकुतपाणाणिमादि, तहप्रकार एतेहि दोसेहिं जुत्तं, परत्थहते (हत्थे) हत्थे पेव परमत्थो, परभावणं, अफासुगं सचित्तं, अणेसणिजं गवसणगहणेसणाय असुद्धं, मन्नमाणो चिंतमाणो, लाभे संते-बिजमाणे नो पडिग्गाहिजा, आहन-सहसा सिता-कदाति अणाभोगे पडीच्छितं, भंगा चत्तारि, ॥३२८॥ दीप अनुक्रम [३३५३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [332] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [1-9] दीप अनुक्रम [३३५३४३] श्रीआचा रांग सूत्र चूणिः ॥ ३२९॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ २८५-२९७], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १-९] से तमादाय गहणाय एगंतमवकमिज, एगकाः एकान्ते, अहे आरामंसि वा २ अधित्ययं णिपातः अहग्गणाऽगोयरे वा अंडगा पाणा जत्थ णत्थि हरितोदगं उस्सा वा जहिं णत्थि, उत्तिंगा गद्दभा की डियाणगरं वा, पणओ उल्ली, दएण मिस्सिता, मट्टिगा वा, मक्कडगा लूतापुडगा, तत्थ चैव कीडगा कीडियं च वा, तत्थ वा विनिश्चिता एकसि, विसोहिया बहु सोहिया, लोगमुहपोत्तियाए काए पमजेत्ता, ततो संजतगं भुंजेज वा पिएज वा जं चाएति २, ज्झामथंडिलं अज्जुसरं सामितगं अडि किड्डे हिरष्णसुवण्णाईणं तत्थ खजगादि णिसिरिजति, वीहितुसेसुं कुंडगादिसु ण उरणगादिसु संगुलिया, तत्यवि सत्तुगादि गोयमकरिसमच्छिगातो, णत्रगणिविसे पवेसे गामे दुल्लभथंडिले अबकरे परिडुत्रिजड़ पडिलेहिय २ तापमखित दूरोगाडे द्रवसिणेहादि, अदूरे सित्यादि, ततो संजतामेत्र परिहविआ, ओसहीओ सचिताओ पडिपुन्नाओ अखंडिताओ, सस्सियाओ परोहणसमत्थाओ, जहा सालि, किल अवसितिलस्स तिवरिस पंचवरिसयं, अविदला कणाण विणा, अतिरिच्छच्छिण्णाओ उज्झिताओ, फालिताओं पुण तिरिच्छी छिण्णा, आहाविणा जीवेण तरुणिया, छिवाडी कोमलिया मग्गजलिसंदातीणं, अणमिकता जीवेहिं, भञ्जिता मीसजीवाचेव, एत्तो विवरीता कप्पणिञ्जा, अववादेणं पिहूगा सालिवीहीणं, बहुरया जवाणं भवंति, भुज्झगा गोधुमाणं दुर्धति, मंथु बोरादि अण्णे वा फला केति, मथिता - चुण्णिता, मध्यतेति मंधु, चाउलं तंदुला चाउल लंब सुगिता विही सुकविता कूरमिस्सिताओ तंदुला कणिगा वा से, दुम्भजितं एकसिं, दुम्भजितं अफासुगं, विवरीयं असई भजिये दुपकं तो कप्पणिजं । अन्न उत्थिया परिमहा (हा) ति, गारत्थिया श्रीयारादी, अन्नो वा गिहत्थो, परिहारितो साहू, अपरिहारितो पासस्थो उ, भावणा वयषेण जाणंति च अप्पाणं, हरियावहियादि निराहणा वियारे दवअण्णकण्ण० असती विहारे चट्टा वारउम्घट्टगादि, गामाणुगामे थंडिलसंक्रमण अप्पमजणरागादियादिदोसा, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [333] पिंडेपणाध्ययनं ॥ ३२९॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [1-9] दीप अनुक्रम [३३५३४३] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥३३०॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१] उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ २८५-२९७], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १-९] देति सयमेव, अणुप्पदाणं दवावणं, तत्थवि अहिकरणादी देसा, अस्मिन् पडियाए-अस्मिन् साधुं एवं प्रतिज्ञाय प्रतीत्य वा, समानः धर्मः साधम्मिकः समुद्दिश्य समस्तं उद्दिश्य समुद्दिश्य समारंभ, अविसोधिकोडी सन्वेसिं पति ण कप्पड़, पुरिसंतरकार्ड अण्णस्स दिनं, णीहढं वहिता णिप्फेडितं, केहिं णीणितं ? अत्तट्ठितं णो कोइ गिण्हइत्ति अम्ह जेण भवतु, अण्णेण वा अप्पणण, मिस्सिय अकासुरणं, अपरिभुक्तं णाम अत्तिसे अच्छति, आसेवितं आ भोतुं ईसि संचितं एतं सव्वंपिन कप्प, एतेसिं अपडिपकतो पडिसिद्धं चैव, बहवे पासंडिया, संघ गणं कुलं गच्छं वा एवं एगं साहम्मिणि बहवे साइम्मिणीओ, पगुणियत्ति प्रागण्य, समणगहणेण आजीवरचवड परिवायतावस साहूणं पंचन्हं, एसा बिसोहिकोडी, छहूं यावंतियं, बहवे समणा पुरिसंतरकडाई कप्पेति, णितिओ पिंडो चिसि भिक्खा, अम्गपिंडो अम्गभिक्खा, जो उ भत्तड्डो अभतो, अद्धभत्तट्ठो तस्सद्धं उबभातो, एतेसिं गिण्हणे कंतियदोसा, अनेसिं दिनमाणे उम्माणं, अह दोहवि देति ता अप्यणो सिं उमाणं पच्छा धर्म रंधेति, अह बहुतरं तो छक्कायवहो, तम्हा सपक्खपरपक्खोमाणाई बजेजा, एतं खलु एवं परिहरता पिंडेसणागुणेहिं उत्तरगुणसमग्गता भवति, समग्गभावो सामग्गियं, मूलओ सम्मगता पाणसं सत्तगादि परिहरता, अगुणसमग्गता अपरिहरणेण, गुणसमग्गता उत्तरगुणाणं, तंसामध्या चरिचसामग्गी, चारित्रसामय्या अव्यावाहा एसणा सामग्री भवति सव्त्रद्वेर्हिति सव्वाहिं समितीहिं जहा पिंडेमणासमितीए तहा सेवारिया भासी जाव विमोचीए वा सुसमितीओ संभवंति चैव, आत्महितो या समितो, सहितो नाणादीहिं, सया विकाले आमरणंता जतेति बेमि । इति प्रथमा पिंडेसणा समत्ता ॥ इदाणिं सो चैव पिंटो कालखि तेहिं मग्मिजड़, कोई अमीर उपवास करेत्ता भोवणं करे, अट्ठमिग्रहणेण सेना दिवसावि ॥ ३३० ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता प्रथम चूलिकायाः प्रथम-अध्ययनं “ पिण्डैषणा”, द्वितीय-त्रुतियाँ उद्देशक आरब्धौ आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: पिंडेपणाध्ययनं [334] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [२,३], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०-२१] ध्ययन रांग सूत्र चूर्णिः ॥३३१॥ प्रत वृत्यंक [१०-२१] | रतिता, अद्धमासितं वा उपवास कार्ड अवामसाए वा करेति भत्तं, मासितं पुन्निमाए, २३४५ छम्मासिए -'अपणमत्तए उहसि-11 सिरतादिसु ऋतौ घृतो गुलो गोरसा साली य पउरा अहवा पदोसा, हेमंतसिसिरगिम्हे सत्तुगमादि, एवं जा मि उड्डुमि दिअति, उडुसंधी दोहं उद्णं संधी, परियट्टे हेमंतो वसंतो अहवा से उधु समता, उक्खाओ खलिया, कुंभी कुंभप्पमाणा, कलसी गिहकुंभे भरिजति, कलोवादी पच्छीपडिगमादी, सनिधी गोरसो, संणिचओ घतगुला, एत्थवि तच्चेव पगारा, अपुरिसंतरकडादी ण कप्यति, कृतो? विसुद्धा णो भतपाणा भंगा ४, दोस विसुद्धेसु गहर्ण, सेसेसु पडिसेहो, उग्गा जे सामिणो दंडधरा आसी, भोजा गुरुत्थाणीया, राईणा राइणो, खत्तिया इक्खागहरियसपसिद्धा, एसिता दरिसणा, वेसिता रंगोचजीविणो, गंडगा गामतित्ति-11 वाहगा, कोहगा हरगाए कोट्टकीत्यर्थः, गामरक्खगा गामाउन्तगा, बोकमा लिताणंतिका, एवमादि अ, दुगुंछिता चंमारादी, तेसु | फासुसगाणवियगडणं । सनबातो-गोहीमनं, पिंडणिगरो-पितिपिंडो, ईदमहे दो, खंदो महासेगो, रुदो रुदमेव, मगुंडोबलदेबो, जागा णागवलियाए, जक्वा आणंदपुरे सिद्धा चेव, मूले जहा देवणिम्मिते, चेइयं वाणमंतरं, रुक्खा पत्चब्बोवगाणि कजंति, गिरि उजंताई, दरी उपयअंधारियासु, कप्पंजणगा दहणागदुमो, णदीए भमतीए, सरे जहा भट्टचरणे, अन्ने य सागारे, अन्नतरेसु NI वा विरूवपर० एगाओ वक्खाओ तहेव अपुरिसंतरकर्ड णो पडिगाहिजा जाव अह पुण जाणे आ दिणं जं तेसिं दायव्यं अह | तत्थ ण मुंजेजा, भुज पालनाभ्यवहारयोः, पभू वा पभुसंदिट्ठो वा पभू गाहाबई आयरियगिलाणादीणं अलंभे वा सो देजा जाव | पडिगाहेजा। इदाणिं खित्त-परतो अद्धजोयणं भिक्खाचरियं गम्मति गामं वा रणं वा चउद्दिसि, जत्थ संखडी तत्थ अबराएवि जई जाइ, सा संखडी प्रतिज्ञातुं न कप्पति । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पाईणं पुरिमदिमार बारेंतेवि जति तत्व संखडी दीप अनुक्रम [३४४. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [335] Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [२,३], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०-२१] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णि ॥३३२॥ प्रत वृत्यक [१०-२१] भांति तंजहा-अणादायमाणे पडिगछति अन्नं वा, एवं सेसामुचि, एवं ता वहिता. सग्गामेवि न कप्पति. जत्थेय सा संखडी सिया || पिडेपणातंजहा-गामंसि वा जम्हा तं पद, गाम वा २ गामादि पुब्ववणिया, णो अभिसं केवली जतो केवली पर समत्थो गाउं ते दोसे, श्ययन आदाणं दोसाणं, प्रभवो संभवः, अहवा केवलिवयणेण भणामि दोसे, ण सच्छंदेणं, कतरतरो केवली, मुयनाण केवली, आहा-1 कंमितादीणं संभवो, तत्थ ताओ संखडीओ एगदेवसियाओ जहा सरस्सईजत्ता अहाभदएसु य सघरपासंड० जावंतियादी दोसा | | तेसु पंतावणादीया दोसो, खुड्डितो दुवारे जातो, महाप्रकाशः प्रवात अवकाशाऽथं बहुपाणा, महिल्लियाओ दुवारियाओ खुड्डु| याओ सुसंगुप्तणिवावार्थ, यो वा णं साहुसमणजावंतियाणं अर्थाय समं भूमि विसमं करेति, साहू अट्ठाए पडिणीयद्वयाए वा, तो| हेमंते सीतरक्षणहूँ णिवाता, गिम्हसरते पवातिढुं, एता सव्वा पडिणीता, अणुकंपणट्ठा वा करेजा, अंतोवि बाहिं चाहिरिया | छिंदिया दलेति कुसा, खरा पिट्टेतो संथरंति, एस खलु भगवया एवं आहाकम्ममि संजतदोसा, तम्हा से संजते णिययढे तहप्पगारे | पुरिसे संखडि वा पुथ्वग्गामे पुरेसंखडी, अहवा पुब्बण्हे अग्गिट्टिगादी जाते वा पुरेसंखडी, पच्छिमा गामे पच्छा संखडी, अवरहे वा | जहा गिरिकनिगादी वा पच्छासंखडी, विवाहे वा पुव्यसंखडी दीजा, दयिता रसगेहीए उकस्संति काउं, अतिप्पमार्ण भुजित्ता | Alपिवित्ता र एगाणियदोसेण वा वियडमादि पीतं होजा, जावजीवो बोसिरा वण्णिता, वमणं वमणा, वागबणात् छिद्रतं ण बमियं, | न सन्म परिणायं, अजीणगमित्यर्थः, आगत्य संकोचयंति आयुं सरीरं बुद्धी व संकोचयंतीति आयङ्को, अन्नतरो षोडशानां एकतरः | अहवा अण्णतरे दुक्खे 'अलसते विसई' गाहा, अलस एव अच्छति, विमूहगा एवमच्छइत्ति, चोसिरइवि एगतरं वा करेति, अहवा | | आयको जरमादी, आर्यको सज्जघाती, रोगो कालेण, असंजता करणकारावणे जीवधाता, असमाधि जरं वा, केवली ज्या पुच्च- ३३२॥ दीप अनुक्रम [३४४. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [336] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [२,३], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १०-२१] प्रत वृत्यंक [१०-२१] श्रीआचा) भणिता, इमे अन्ने-पवयणादी, गाहावई अगारिओ वा, परिवाया कापलियगादी, परिवायायो तेसिं चेव भोईयो, वासगिम्हरी-D पिडैपणारांग मूत्र- | कादीसु संखडीसु, एवंपि अगारीओवि, माहेस्सरसिरिमालउज्जेणीसु एगभ एगवत्ता एगचरित्ताबा, सम्बंमि भवा वा, सोंडे | ध्ययन चूर्णिः विगडं चेव पिबंति, पादुः-प्रकाशने प्रकाशं पिवंति, रे प्रकाशे, पीवितं प्रकाशीभवति, भो! ति शिष्यामन्त्रगं, व्यामिश्रं नामा ||३३३।। तेहिं पासंडगिहत्थेहि, अवा वे सुराओ, अहवा सिधुं व सुरं च अणुकंपया संजतं पाएज्जा, पडिणीययाय पाएज्जा जा उड्डाहो । | भवतु, मत्तगदोसा गाएज चा नवेज वा चमेज या, मत्तेण य पडिस्सओ ण गविट्ठो, हुरत्था णाम बाहि विगालो य जातो, को वा मत्तेल्लगस्स देति, गतिए संतस्सवि, तेहि चेव सम्मिसभावं पगतएल्लर आपेज्जेत, अनमणो णाम ण संजतमणो, सब्बेते ।। विप्परिपा, स० सयओ णाम अचेतो आतपरउभयसमुढेहिं दोसेहि, इत्थीविग्गहे वा विग्गहगहणं मत्तगपरीवत् , तत्रापि ग्रहण | दृष्ट, किली वो जाम नपुंसओ, एते गेण्हेज, पियधम्मेवि न देसो, किमंग पुण मंदधम्मे !. एवं वा बयान-आउसंतो! समणा एयाओ | संझ विगालो रत्तीवि परिचरियब्वा, गामणियंतिथं गाममभासं, कण्हुइ रहस्सितं कम्हिवि रहस्से, उच्छ् अक्खाडे वा अन्नतरे वा पच्छण्णे मिहुणस्स सहयोगे च, पवियरणं पवियारया, आउट्टामो कुचीमो, एगतीया कोई विधम्मोवि साइजेज, सातिजणा समणुजाणणा, अकृत्यमेतत् , जात्वा आदाणत्ता, सासंति विजंतो, प्रत्यवाया इह परलोगे य, तम्हा णो अभिः अण्णयरे संखडी | णिसम्म, समनं धावति, उम्सुगभूतो सज्झायादीणि ण करेति, धुवा अस्थि णत्वि, होतीएवि लंभो हुज वा ण वा, लब्भमाणोवि वेला फिद्विा , णो संचाएति-न शक्नोति इतराइतराई-उच्चनीयाणि जाणि पुनमणियाणि समुद्दाणतातं सामुदाणियं, फासुगं उम्ग| मादिसुद्धं एसणीयं, एसियं फासुगमेव एसितं, वेसियं णाम जहा वेसिवाणुरूवं, विरूवत्थे रयणे वाण जोएति, केवलं कवलिते, ॥३३३॥ दीप अनुक्रम [३४४. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [337] Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१०-२१] दीप अनुक्रम [३४४ ३५५] श्रीआचा रांग सूत्रपूर्णिः ॥ ३३४ ॥ “आचार" अंगसूत्र- १ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१] अध्ययन] [१] उद्देशक [२२] निर्युक्तिः [२९७..] [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १०-२१] - एवं साहूनि एमणाजुचो, वच्छगदितेणं एसगं जोएति, जं एवं लद्धं तं वेसितं माइडाणसंस्पर्शों, ता एवं गामादि पृथ्वभणिता, आइण्णा चरगादीहिं उम्माणा व सतस्य भत्ते कते सहस्सं आगतं, पाऊणं माणं, ण विणा रसगेवीए संखडी गम्मति, आइण्णाए य इमे दोसा-पारण वा पाए अतपुब्वे भवति, आलावा पसिद्धा, असंखडादयो य दोसा, अणेमणिअं सोलसहं एगतरं, तुम्हा से संजए नियंटे वितिमिच्छा संका उग्गमएसणा पंचवीसे, असमाहिया असमाहडा, कण्डलेस्सादि तिमि, चरित्ताणो सध्ये, तिनि, मंदं अब्बोगडो, उबही आदी सुत्नेसुवि भासिजति, एवं बिहारो अध्योगडो जिगथेराणं, जिणकरिता सुमबुद्धी कावि गाणंति, धेरकपिता सुमेण वा सन्नाणेणं, इतरंमि कारणे, तिब्वदेसितं सव्यदिवस वा बाहि वा धाराहिं अच्वोच्छिन्नं तिरिच्छं संपातिमा, निजाति, उरंसि वाणं गिलिजिआ, कक्खसि वा णं आदडेजा, पाणिणा पाणिं पिचित्ता, एयाणि करेति पाणिपडिग्ग हतो रकवियाणं, से भिक्खू वा भिक्खुणी वा खत्तिया चकवड्डीपलदेव वासुदेव मंडलियरायाणो, कुराया पचंतिपरायाणो, रायवंसिता रायसध्या णरा णारी य सिया, अनवश भोड़ता, अंतो अंतो नगरादीगं वाहिणिग्गताणं सन्धिविद्वाणं इतरेसिं गच्छेताणं मंगलत्थं वा, संयमेव आणिउं दुकस्य देजा, देवागं सयमेव अद्वैताणं अण्णो दिन असणं वा ४, लाभे संते णो पडिगाहिआ इस्सरतल पर कोडंबिय लाभे संते रयणमा एमणामादी एवं खउ भिक्खुस्स वा भिक्खुगी वा सामग्गियं । तृतीया पिण्डेमणा परिसमाप्ता ॥ संखडिअहिगारो अनुयतति, मंसादि मासं चाउमा वाणिजिमितो आसि पारणे मांसेहिं चैव संखडि करेति, 'अद् भक्षणे' मंसं अतीति सादी मिगपट्टिना या, गोमहिमवहादीहिं मारिजेज, संखडि करेति एवं मच्ाइ दो पगारा, णवरं गोगाहेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “पिण्डैषणा”, चतुर्थ-उद्देशक: आरब्धः wwwwww [338] पिंडेपणाध्ययनं ॥३३४॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२-२४] श्रीआचा रांग मूत्र चूर्णिः ॥३३५।। प्रत वृत्यंक २२-२४] | मारिजेज, मंसखल जत्थ मंसा सुक्याविति सुक्खस्स वा कडयल्ला कता, एवं मच्छगाणवि सामाणो, तणखलाई काउं सुखावेत्तापिटेपणा विभयं भत्ताई करेति, पहेणं आहेणं वा तिनाणं, वधुया हिजति एहेण वधूइत्ता, अहवा जं आणिअति तं पेहिणं (पहे)हि, हिंगोपलं ध्ययन करडयभक्तं, सम्मेलो विवाहभत्तं, पच्छाकम्मेण या मित्ना वा कजंति भत्तं काऊण, अहवा गोट्ठीमनं संमेलं, हीरमाणं, अहवा कीरति । अंतरा, बहपाणा पीपीलगसंखणगइंदगोवगईदजुवादि पुबुताणि, बहवो समणमाहणा उवागता गमिस्संति पच्छा अत्यर्थः आइण्णा [2] अचाइण्णा चरगादीहि नो पन्नस्स प्रज्ञावां प्राज्ञः तस्य प्राज्ञस्य अचाइण्णनणेग ठाणादी ण सकंति काउं, विसयपवेमा दुक्खं, | लोगो य भषज-अहो जिभिदियं अदंतं साहूणं, सो एवं गचा रायभिसेयाईसु चेव अप्पपाण दिसु अपादिनासु निकारणे ण | कप्पति, गिलाणणाणकारणादिसु कक्खडखेत्तवत्तब्वा, असंथरणे वा एगदिवसअणेगदिवसियासु गिण्हेजा, तत्य य वेलाए थेव | पविसिञ्जति, अवेलाए उस्सकणं पवत्तणदोसा । से भिक्खू बा भिक्खुणी वा खीरिजमाणासु संजयट्ठाए गात्री दुहितुं दिआ, उबक्खडिजमाणे संजतहाए किंचि छान्ती उबक्खडिज, अप्पहितं ण तात्र दिजति, संजयट्ठाए पवत्तणं होजा, एते दोसे जाणिना दो गाहावइकुल सेत्तमादाण आदायं नाणं इह ज्ञात्वा, एगंतमवकमिजा अणावादमसंलोए, सीरियासु उबक्खडिते, पज्जू हेयं पङिन्तं, एते दोमा ण-णथि पविसिा , मिक्खणसीला भिक्खागा, नामगहणा दब्यमिक्खागा, एगे ण सव्वे, एवमवधारणे, आहेसु | कंठा, समाणा चुड़वासी, वसमाणा व विकापविहारी, दूतिजमाणा मासकप्पं चउमासकर्ष वा काउं संकममाणा कहिंचि गामे | द्विता उडुबद्धे अहव हिंडमाणा, माइट्ठाण मा अम्हं किर विममो भवतुति पाहुगए आगते भगति खुड्डाए खलु अयं बसती | खुडगा, तेसिपि मद्दतरा देंतगाई णस्थि, थोपा भोजाणि, मंडिहिं वा अना, से इंता इंतामंत्रगे, पुरसंथुना मातापितादि, पच्छा दीप अनुक्रम ३५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [339] Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २२-२४] श्रीआचा प्रत वृत्यक २२-२४] संथुता ससुरकुलादि, अहवा गिहवासे पुषसंधुता, पच जाए पच्छासंथुता, गाहावतिपिंड णाम संपन्नरसं स्निग्धं द्रवं पेसलं उत्त-IV पिडेपणारांग सूत्र-IN चूर्णिः रसंलोयगं वण्णादीहि अ सोभणितमित्यर्थः, सुकुली सुखजग, फाणियं द्रवगुलो, पुथ्वो वा पूर्वओ, उल्लं खञ्जगं सब्बं गिहितं, ॥३३६।। | सिहिरिणी मअिता, सिहरवयचि चिकणतणेण, तं भोचा पच्छा साहुणो हिंडावेति, तमि गहिते साहुणो किं करेतु ?, माइट्ठाणसं-16 | फासो, ता न एवं करिज्जा, केवलिपडिसेधियं अकप्पितं, सेवंतो मायामोसे बदृति, कह कुज्जा ?, सग्गामे परम्गामे अविसेसे पाहुण-IN | इचिए, तिणि दिणे पाहणं, से तत्थ भिक्वहिं सद्धि कालेण कालेणंति सति काले तत्थितरा सामुदाणितं तं आहार आहारेज्ज, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा २ सामग्गियं । चतुर्थी पिंडेपणा समाप्ता॥ इहापि कालोऽधिगार एव, अग्गपिंडः अग्गो णाम अरिज्जओ खिप्पमाणे संजाए अगारी चंभणस्स अम्गं पिंडं दातुं | समणसग्गदहपवत्तणदोसा अहवा उक्खलियादोसाओ वा उक्खिवति णिक्खिप्पति अण्णेहि बिज्जति हीरमाणं न निज्जति परिभाइज्जति, परिभुज्जति अण्णे भुंजंति, परिद्वविज्जति अधणीया कीरति, पुरा असणादी वा (४) तत्थेव भुंजति जहा बोडियसरक्खा , अहे चरति णाम उक्कममडति, खद्धं खद्धं णाम बहवे इह संकमंति तुरियं च, तत्थ मिक्खुवि तहेव सो० सा० माइट्ठाणं संफासे णो एवं करेज्जा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अप्प० केतारो तलागं वा जं उबस्सं वा, फरिहा गामो उदएणं वेढितो फलिहतो वा, पागारतोरणअम्गलाणि, जहा हस्थिवारी अग्गलपासओ, अग्गलाए वा कार्य, उच्चारणाओ वलितो, अणंतरहिता नामांतरो अंतर्वा तेन अंतरहिता सचेतणा इत्यर्थः, सचेतणा, अहवा णो अगंतेहि रहिताओ, सहिता इत्यर्थः, इत्थं न दीसति, | ससिणिद्वा घडउऽच्छपाणियभरितो पल्हत्थणो, वासं वा पडियमेवयं, ससरक्खांवितो मट्टिता तहिं पडति य सगडमादिणा णिज्ज दीप अनुक्रम [३५६३५८] ॥३३६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", पंचम-उद्देशक: आरब्ध: [340] Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक २५-३०] प्रत वृत्यंक २५-३०] श्रीआचा | माणा कुंभकारादिणा चलणं वा, चित्तमंता मसिणा सिला एव सचित्ता, लेलु महिना, उडओ सचिनो चेव, कोला मता मधुणो, रांग सूत्र-| तस्स आवास कंट, अन्ने चा दारुए, जीवपतिहित हरितादीणं उवरि, उदेहिगाग वा सचिने वा, सअंडो सपाणे पुख्यमणिता, चूणि : | आमजति एकसि, पमअति पुणो पुणो, अससरखं अचिन, देंगे असति उग्गहो अणुण्णावेजति तणादीर्ण, एनमादीहिं पम॥३३७॥ | अजा, मणुस्सं वियालो णाम गहिल्लमत्तओ, गहिल्लाउ हारणपिसाइया गहिता, सेमा गोणादिमारगा अलकइभाषा, खुड्डा खायंति अस्मिन्निति तं, उवातं, वेसी मृसिगा धूली वा, मिल्लुगा पुढाली वा विसममि सुणयं पाणियं तिलविजलं, न दुवारवाहा अग्गदारं कंटगोंदिता अहेसी, शेदियग्गहणा करंगचेलादिणा निहितं, अणुज्यन्न वित्तावि ण वदति, अणुभवितुं वहते गिलाणादिसु | कारणेसु । गामपिंडोलतो विजमाणा ओलेति, संलोगो जहि द्वितो दिस्सति, सपडिदुवारं सपडिजुनं दारस्स, केवली चूना, तस्स पुचपविदुस्स णीणियं विहरेजा, अचियत् अंतरालियदोसा, निहत्थो वा भणति जो एत्तो चेव पडिच्छत्ति, एते दोसा जम्हा पुब्बोद्दिट्टाए पदण्णाए, प्रतिज्ञा हेतुरुपदेशः, एप भगवतां जंणो संलोए, सेनमादाय चावा अणावात संलोए तस्सपि, तस्स | तस्स गिहत्थो सम्बेसि सामन्न गिहपासंडसंजएहिं सम्मं दिअ, भणेज य-अहं अक्खणितो तुझे चे मुंबत परिभातेत वा, तं| च केइ गिण्हित्ता तुसिणीए. माइवाणं णो एवं करेजा, जइ फव्वंति ण गेहंति, अह असंथरणं गिलाणादीण वा णस्थि ताहे गेहंति, अह असंथरणं तचेव भायंति, अह भणंति-तुम पेव भाएहि, ते वा बेंटलेंति ताहे परिभाएति, खद्धं-बहुगं, डार्ग सागं । वाहंगणमादि, अह भणंति-मुंजामो, तत्थ अप्पणो उकट्टति तेसिं तहेव देति, अह णिच्छंति, एवं पुण पासत्थेहिं असंभोइएहिं वा, गामपिंडोलादि पुचपविढे उवादिकम्म णो पविशे, मा पडिसेहिते व दिपणे वा पवेसेज का ओभासेज बा, एवं खलु भिक्युस्स दीप अनुक्रम [३५९३६४ ||३३७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [341] Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [३१-३६] दीप अनुक्रम [३६५ ३७०] श्रीआचा रांग सूत्र चूर्णिः ||३३८|| “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], निर्युक्ति: [ २९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ३१-३६] वा २ सामग्गियं ॥ पंचमा पिंडेषणा ।। इह हि अंतराइयमेव तिरियाणं, रसं एसंतीति रसेसिणो पाणा-सत्ता, घासणाए आहारखइ, संथडा निरंतरं सष्णिचतिया, वदवरु०, तिरियदुट्ठा, के ते ? कुक्कुडजात्तीयं वा, जातिग्गहणे स्त्री नपुंसको वा कुक्कुडपेच्छगा, करिसमादीसु कणयाओ वा कोइ दिशा, कुकुडा कलेवरा, लेहणे वा सरणगराणं कए कुंडगं कोति दिजा, वायसा अग्गपिंडंमि, तत्थ अंतराइयं अधिकरणदोसा, दुवारबाधा दुवारपिंडो, अवलंबणं अवत्थंभणं कारण वा हत्थेण वा, दुब्बलकुड्डि उद्देहिपरिवहिते, फलहिते कलहो चैव दाणंउत्तरतरो कवाडतोरणेसु एतेसु चैव दोसा, दगच्छडणगं जत्थ पाणियं छड्डजति, चंदणिउदगं जहिं उच्छिट्टभाषणादि धुव्वंति, एतेसु वयणदोसा, सिणाणं जहिं ण्हायंति, बर्च नाम पंचवडओ, तर्हि पत्रयण भुताचेण कखंतरेहिं दोसो, आलोगं उलात्र(क)गादि, निम्गलणं कुड्डो खंडितओ, संधी दोन्हं घराणं कडगाण वा, दगभवणं ण्हाणघरं, प्रतिज्झिता बाहं पूरिता, अंगुलीए | उद्देसिय २ निज्ज्ञाति जहा इमे दीणारवत्थाई थिम्गला वा दीसंति, गडहिते बहखुरे संका, अंगुलीए दाएत्ता भणति एवं कुसाणं मे देहि, बालेति, हेतु होतु सन्वेसिं देहि, अम्हण देहि, किं अणुदंसणु १। अह तत्थ किंचि मुं० भुज पालनाभ्यवहारयोः, हत्थो हत्थो चैत्र, मत्तो पिट्ठकुंडगं, मट्टितजाति, दबी दबी चेत्र, उल्लंकिगादीणं वा गढणं, भायणेण कम्मं भायणं कडगादि गहिता, सीतं विगडं चउभंगो, इह अविगतजीवं गहितं, उदउ पुरेकम्मसंजयङ्काए घति, ण ससणिद्वाए चिह्नति, संसद्वेग जाब पढिगा'हेजा, पुहुगादि कोट्टेसुं ३ सचितसिलादिसु, बिललोणं फासुगं कडिजइ, उन्धियम्गणा सा सुद्धसिंघवादि, अफासुगं हि तं देसं | तरसंक्रमणगा उपहादीसु फासुगीभवति, रेवट्टादि भिजति रुपति वा । उस्पिचति ततो णिसिंचति तहिं अण्णत्थ, तत्तं उण्होदगं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “पिण्डैषणा”, षष्ठः-उद्देशक: आरब्धः [342] षष्ठी पिंडेपणी | ||३३८ ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [७], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ३७-४२] सप्तमी प्रत वृत्यक [३७-४२] श्रीआचा|D | घृतं वा आमजी, अगणिकार्य उक्खलितं, तं वा दवं जं देतियं पुणो पुणो उघेतुं ओतारेमाणे वा अगणिविराहणा, एतं खलु रांग सूत्र- भिक्खुस्स चा २ सामग्गियं । षष्ठी पिंडेपणा।। पिंडैपणा चूणिः IN | संबंधो अगणिकाए संयमविराहणा, इहाचि संजमतवविराहणादि, खंधो पागारओ, अहवा खंघो सो तआतो, घरे चेव पाहणा-IN ॥३३९॥ | खंधो वा, तज्जातो गिरिणगरे, अतजातो अन्यत्र, मंचो मंच एव, कडेहिं कीरति, मालो मालो वेव, पासादो पासादो चेब, इंमि-2 | यतलं आगासतलं, अण्णतरं अंतलिक्खग्गहणेणं ता सिकगादि गहिता, एतेसु मालोद्दडदोसा, पीद छगणगोमपमादी, फलय कट्ठ।। मादी, णिसेणी णिस्सेणी चेव, उदृक्खलं मुशलं उक्खलं वा, अवहट्टु अण्णतो गिण्डित्ता अण्णहिं स्थावेति, उस्स विउं उडू ठवितुं, तं | चंचलं पचलिजा, तत्थ पडेंतस्स सरीरिंदियविराहणा जीवविराहणा य, तम्हा ण पडिगाहेजा, उभाषा मालोइडं, कोडिगा एव कालेजो, विसमं ओवरि संकडओ, मूढिगाहा भूमी एगा खणितु भूमीघरगं उबरि संकडं हेट्ठा विच्छि अं अग्गिणा दहित्ता काति, ताहिं तु चिरंपि गोधूमादी वत्थु अच्छति, कुंथा पुंजिगा, ओकुञ्जिय अवकृञ्जिय, अबकुन्जिय ओहरिय ओतारिय आहृदु-आहृत्य णो | FA परि०। मट्टिओलित्ते कायवहो, उभिजमाणे छण्डवि, जउणा लिचे अगणिमादीओवि, लिप्पमाणेऽवि छकापविराहणा पच्छाकम्म वा, एवं पुढविआउतेउकाएमु पतिट्टितेवि, उस्सकिय गिब्वविया ओहरिय उत्तारेतुं । अगणिकाए अदंसितं सूत्रं, सुष्पं विधुवणं | यणो, सेसाणि पागडट्ठाणि चेव, जाव ण पडिमाहेजा । वणस्सपतिहितं पिट्ठस्स हरियकायस्स या उपस्।ि पाणगजातं, उस्सेइमं पिडदीवगादि, संसेइमं तिलजयं तिषष्ण गादि, सीतेण उण्हेण वा चाउलोदउ तिलोदगे य, अगुणाधोतं-धोयमित्तं चेत्र, अणंविल ण अंबिलीमूतं, अब्बोकरण अचेपणं, अपरिणतं बनादीहिं तारिसं चेव, अविद्वत्थं ण जोणी विद्धत्था, एतं ण पडिगाहेजा दीप अनुक्रम [३७१३७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", सप्तम-उद्देशक: आरब्ध: [343] Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [३७-४२] दीप अनुक्रम [३७१ ३७६] श्रीआचारंगसूत्र चूर्णिः ॥३४०॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], नियुक्ति: [ २९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ३७-४२] तिला भुजितगा पाणीते शुभन्ति, तुसोदए तुसिता भुजियगा छुर्मति, जबोदए जब शुज्जियगा छुभंति, आयामं अवस्सावर्ण, सोवीरगं अंबिलं, के भांति - कोसलाए परिसित्तियं, सुद्धवियर्ड संसद्वपाणगं, निज्जा वा अहिगारो, अडणा घोताईणी णो पडिगाहिज्जा, इमं पुण सुतं चिरघोतादिसु से पुव्यामेत्र आलोए, पडिग्गहो एवं मतओवि गिहिभावणेण वा वकखेवे चक्किया फुडा चैव पडिगाहेज्जा से भिक्खु वा भिक्खुणी वा पाणगं अनंतरहितादिसु, उद्धति उद्धृत्य णिक्खितं ठवितं, उदउल्ले | वा ससिणिद्वेण वा सकसाएण बच्चा (ला) दिणा कसा एणं, सो य सवेयको य होज्जा, मत्तेण भायणेण, सीतोदएण संभोएत्ता भासेचा णो पडिगाहेज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा सामग्गियं । सतमा पिंडेसणा ॥ संबंधी इह पाणगं, अंगाई धोवेति अंबसालस्स वां संसट्टपाणगं खोल्लविसए अंबगाणि फालेचा सुकविज्जति तेसिं घोषणं अंत्रपाणगं, एवं अंबाडगकविङ्कमाउलिंगमुद्दियादा लिम खज्जूरना लिएरकरीरकोल आमलग चिंचादीणं सव्वैसिं धोवणं, रसमीसं वा अट्ठियं अलिओ, सह अट्ठिएवं सअडियं, सह कथुएण य सकणुयं कणुर्व अट्ठिएगदेसए वा अस्सो कच्छो वा, बीतेण सह साणुवीयकं, छब्बकं दुसं वन्थं वाले सउणीवरए वा, रण वा, आवीलेति एकसिं, परिपीलेति बहुसो, परिसएति गालेति ण पडि० । आगंतारो मग्गो, मग्गे गिहं, अहवा यत्र आगत्य आगत्यागारा तिष्यंति व आगंतागार, आरामे आगारं गृहपतिकुलं वा, परिव्यायगादीणं आवातो परियावतो, अन्नगंधाणि कलयसालिमादीणं, पाणगंधी कप्पूरपाडलावासितादि सुरभिगंधो चंदनागुरुकुंकुमादीनं आसायपडिता भाणमुहं णो तत्थ सिद्धा, सालुगं उप्पलकंदगो, विगलिया गोलचिसए बल्छी, पलासतो सासबसिद्धत्व पालिता, आमयं अरर्द्ध, असत्यपरिणतं सचितं, पिप्पली पिप्पलिमूलं, मिरियं मि २, सिंगवेरं सुंटी अह्नगं वा, चुणे एतेसिं चैत्र, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “ पिण्डैषणा”, अष्टम-उद्देशक: आरब्धः [344] ८ पिंडेपणा ॥३४० ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४३-४८] W प्रत वृत्यंक [४३-४८] श्रीआचा|| अबफलं च फलमत्थओ, झिझिरी वल्लिपलासगमूल, सुरमिपलंबं सग्गयमूल, सल्लइए मूलं मोपई, पलासा(वाला)णवि, आसो- पिंडैपणा रांग सूत्र- दृपलासं वा आसट्ठो पिप्पलो, तेसि पल्लवा खअंति, नग्मोहो नाम बडो, पिलक्खू पिप्पली, ऊरसल्लइएवि, अंबसरोडुगं डोहियं चूर्णिः | वा, एवं अंबाडगकचिट्ठदालिमविल्लाणवि, उंबरमंथु वा मंथु नाम फलचूर्णा एव, गम्मोहपिलक्खुसोट्ठाण मंथु वमणितिलेहिं। ॥३४॥ | समगं चुण्णिजंति, आमगं आमगमेच, दुरुकं दुपिटुं, अह अणुभी बीजो साणुवीय आमडागं आमचं, न मृतं अमृतं सजीव| मित्यर्थः, पूतीपिण्णाओ सरिसवभक्खो, अहवा सम्बो चेव खलो कुधितो पूतिपिण्णाओ, महुंपि संसजति तवण्णेहि, एवं णव णीयसप्पीवि, खोलं कल्लाणाणं, एत्थ पाणा अणुप्रसृता जाता संवृद्धा वकंता जीवा, एस्थ जीवा, णस्थि परेण विद्धत्था, एत्थ संजमविराहणा, बलीकवग्गुलेस्सादिदोसाग पढिओ, मेरगं च्छोडियणं, मिझो मेदो, अंककरेलुगं वालिखरगं वा, एते गोल्लविसए, | कसेरुगसिंघाडग, कोंकणेसु पूति आलुगं वा, ण पडिगाहेज्जा, एते जलजातीया होंति, उप्पलनालो सब्वेसिपि खिज्जति भिसं। | जहरए, पोक्खर केसरं सुकलं, पुक्खलगं खलगं, पुक्खरविगा कच्छमओ, अम्गवीया सालिमादी अनो वा जो परिभोगमेति, Ka मूलवीया फणसमादी, खंधवीया उंबरमादी, पोरवीया उच्छुमादी, अण्णाणिवि एतेहिं चेव जाई परिभोगमेति, एते आसमाणकुप्पं, | अण्णत्थ तकलिमत्थरण वा तकलीसीसएण वा नालियेरिमत्थएण वा खज्जूरिमत्थरण वा, एते एगजीवा, ते छडित्ता मत्थओ |घेप्पति, सो लहुं चेव विद्धंसति, एते ण कप्पंति, काणं पुण खड्यरात ? अंगिरगं खइराएणं समंडवाहियं वा यासिताला तेहिं दूमयंत न सकेयं खाइतुं चेव, तस्स अग्गर्ग-कंदली उस्सुगं-मज्झं कत्तं तीए हथिदसगसंठित, कलतो सिंचा, कलो चणगो, ओली सिंगा । IN तस्स चेव, एवं मुग्गमासाणवि, आमत्ता ण कप्पेंति, लसणं सव्वं, मिजाउ वा पत्तं तस्सेव, णालोवि तस्सेव, कंदओवि तस्सेव ॥३४१॥ दीप अनुक्रम [३७७३८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [345] Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [८], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४३-४८] IVA श्रीआचा- रांगभूत्रचूर्णिः ॥३४॥ प्रत वृत्यंक [४३-४८] त्या आम ण कप्पति । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अच्छिगं कुंभीए पञ्चति तेंडुर्ग तेम्बरूवं, एवं चेव वेलुगं विलं, कास- पिंडैपणा | वणालिता सीवण्णगं, आमगं असस्थपरिणतं लाभे संते नो पडिगाहेज्जा, कगतंदुला कणियाओ, कुंडओ कुकुसा, तेहिं चेव पूव-19 लिता शमलिता, चाउला तंदुला, पिट्ठत्ति आम, पिट्ठलोवि तिलपिढें, तिलपप्पई श्रामं असत्थपरिणय लाभे सन्ते णो पडिगाहेज्जा ॥ अष्टमी पिंडैषणा परिसमाप्ता॥ संबंधो सीलमधिकृतं, इहापि सीलं, पिंडोऽधिकतो वा इहापि पिंड एव, खेनं ठवित्ता चउदिसिं पण्णवगदिसं वा पडुश्च संते. सडा भवंति, संभवो तं साहुं प्रशान्तं दट्ठ हिंडतं सीलमंतादि संसिद्धा, इमं पुर्व सिद्ध, मेहुणादो, इतर आहारकचिणि, छदिहि, से भिक्खू विस्तामकरो वा सुहाए समणं च, एतप्पगार सो त अंतरिओ भणेज्जा पुरो वा भणिज्जा-एतस्स देह, अम्हे अण्णतरं, धम्मो, लाभे संते गो पडिगाहेज्जा । समणादी पुब्बभणिता, गामादितु पुरेसंधुता पच्छासंधूता, पुर्व पविसमाणस्स, केवली बूता, उकरेति-परिवड़ेति, उबक्खडेति रंधेति, सेत्तमादाय एगतमवकमिज्जा, कालेण सतिकाले तत्येव पढमं वच्चति इहरहावि हिंडतं दहें आरंभ करेज्जा, गिही चेश्य, अहा सकालेवि पविट्ठस्स उवक्खडिज्जा आहू तं पढियाइक्खिस्स, माइट्ठाणं| संफासे, णो०, पुष्यामेव पडिसेहिज्जा, तहवि करेजा ण पडिगाहेजा। मंसमच्छा मज्जिजति, सक्कलिग्गहणा सुकखज्जगं, 17 | पूयग्गहणा वेल्हरदो तेल्लापूतो, आदेसो पाहुणओ उ, णो खलु २ पुणो २, णण्णत्थ गिलाणो। अण्णतरं अणेगप्रकारं, सुभि णाम वनगंधरसफासमन्तं, तबिरीतं दुम्भि, एगं भुजति एग परिदृविज्जति मायादोसा सइंगालदोसो य, रागदोसरहिता अँजिज्जा, |पाणगं पुष्फ अच्छ, कसायकलुस कपई, कसाए उहो होज्जा, अच्छेण पुण सोधणादि, सुहेति मुह, से भिक्ख या भिक्खुणी||॥३४२॥ । दीप अनुक्रम [३७७३८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", नवम-उद्देशक: आरब्ध: [346] Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [९], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४९-५५] पिंटेषणा प्रत वृत्यंक [४९-५५] श्रीआचावा बहुपरियात्रणं णाम परिट्ठावणिय, बहुभिः पर्याय आपनं बहुमिः पर्यायापन, गिलाणपाहुणगापरियमादीहिं । साहमिया संभो-| संग सूत्र- इया उबहिसुत्तभत्तपाणादिसु, मणुनामणुनसि य भंगा चत्नारि, अपरि० परिहास्तवं न पडियना, सखिते उबस्सए अबसाहिते | चूणिः Nता अन्नपाडए वा सग्गामे, अणु पच्छा, परिहवेंतेणं पाहुणगिलाणादी परिचत्ता, तत्थ गंतुं वदिज्जा-इमे भे असणपाणखाइमसाइमे १॥३४३।। झुंजह, पाणे, परिभाएह वा णं, उके सतमेव परियामाए वा, अण्णमण्णेसि देह, जावतिवणं भन्नति, मुंचंतस्स पारिद्वावणियं, भुने पढमे कप्पं दाऊण इतरेण कप्पेतब्बं, अह भणाति इतरेण चेव परिवाएयव्वं वा। से भिक्खू वा भिक्खुणी या परं समुहिस्स | चारभई कुलपुत्तगं मतहरगं वा, णीहई बाहिं णिफिडितं, तं पुण छिन्नं वा अच्छिन्नं वा, छिन्नेत्ति देयं कुलगस्स वा, विवरीय-| मच्छिन्नं, समणुष्णातं गिण्हाहि, णिसटुं, एगते पडी सोय निहत्थाणं भाव आगारेहिं जाणिना एतं कप्पति एतंण कप्पतिचि ।। । णवमी पिंडेसणा समत्ता। संबंधो साधारणाहिगारे इमंपि साहमिएहि साहारणं, माण सामन्न, तं पुण विण्डं तिण्डं वा, तस्स अणापुच्छा जस्सिच्छति तस्स देति असामायारीए बढ़ति माया, सेत्तमादाय-तं गहाय तत्थ गन्छिज्जा, संति पुरेसंधुता पुवायरिया पवावगा आगता Vतेसिं देमि, जया वा आयरियाण मज्झगता जेसि पासे मुतं पढितं सुतं वा ते पच्छासंधुता तेसिं, खद्धं २, कामं णाम इच्छाता, अहापज्जत्तं जहा पज्जतं जावइयं वा बदेजा, इहरहा साधारणतेणिता, इमा णि साधारणतेणिया, अहवा तदपि सामण्णं आलाबगसिद्धं चेव, भगं णाम मणुनं धनादि, संपत्त वा, भिक्खागतो चेव मुंजति जिम्भादंडेणं, विवन बनादीहिं विगतं विवनं, | विगतरसं बनगंधरसफासेहिं या नृ(५)प्रदेइ अण्णेसि रसेहिं वा का (४) आहारति, माया णो, एवं अंतरुच्छणं दोण्हाराणं मां, ॥३४३॥ दीप अनुक्रम [३८३३८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", दशम-उद्देशक: आरब्ध: [347] Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[१], उद्देशक [१०], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४९-५५] श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥३४४॥ प्रत वृत्यक [४९-५५] गडीता चकलिता, छेदेण छिन्नता, चोदगं उच्छ्रितोदया छल्ली इत्यर्थः, उच्छुसालगं मिरो, अहवा सगलं उच्चंदो कालीओ बहु | पिंडैषणा D| गीतो, चोदगं खंडाखंडी, खंडाणि दलिता, सिंबलिं वा थोबातो सिंगाउ, थाली सव्वातो चेव, पिंडो समूहो य, उझियधम्मिया-1D दोसा। मांसे संजमायपवयणविराहणा, कारणिगगिलाणस्सट्ठा जावइयं मंसगं दलेहि, सो य पुण सट्टो सट्टी वा फरुसंण भणेजा। | खंडे गिलाणणिमित्तं वा मग्गिर्त लोणं दिण्णं, अणामोगेण, पुनमणिता लोणा, सेसं आलावगसिद्धं जाव बहुपरियावण्णो । दसमी IN पिंडेसणा समाप्ता ॥ संबंधो गिलाणाहिगारे इहापि गिलाणएण वा, मिक्खणसीलो भिक्खू 'अकु भक्षणे मिक्षा भवन्तीति मिक्षाकाः समणादि भणिता, गिहि पबहतो बा, गिलाणस्स एत्थ वेति-से हंदह णं तस्साहरह खणेध दोण्हवि तेणियं करेति, पलिउंचगया आलो| यमाणे, पिंट संपत्त, कहं पुण पलिउंचति !, पित्तितस्स तिचकटुगं भण्णति, सिंभविपस्स महुरं ण भवति, सेसेसु विवरीय जहिच्छियं आलोएइ, जहा गिलाणस्स सदति, कदाइ वाचातेणं ण णिजावि थोवं भत्तपाणं गिलाणे, अत्यंतो सूरो, गोणा खंधावारो | हत्थी मत्ततो मूलं वा होजा, इच्चेयाई आयतणांई-आयतणदोसाई, अपसत्थाई संसारस्स, पसत्थाई मोक्खस्स नाणादी । इमा || |वा सत्त पिंडेसणा, तंजहा-असंसट्ठा १ संसट्ठा २ उद्दडा ३ अप्पलेवा ४ उवट्टियाए उग्गहिता५ पग्गहिता ६ उझिपधम्मियागा| |७, पढमा दोहि वि असंसट्ठा, सत्तुगकम्मासा सुक्खोदणो वा, सयं जायति परो वा देति, गिलाणादिकारणेण वा इतरंपि गिण्हति | वितिया दोहिवि संसट्ठा, सुठुतरं पच्छेकम्मादोसा वञ्जित्ता, ततिया पाईणादि पण्णवगदिसा गहिता, कुक्कुडीयच्छति वा, कंसरुप्पमयं | वा पहडए वा अन्नंमि च्छूई, सरगं व समयं पिच्छिगादि, पिडीया छड्डगं पलगं वा परगसि वा, धरा भूमी, अहावराहं तंजहा दीप अनुक्रम [३८३३८९] ॥३४४। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", एकादशम-उद्देशक: आरब्धः [348] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [५६-६३] दीप अनुक्रम [३९० ३९९] श्रीजना संग सूत्र चूणिः ॥ ३४५॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१] उद्देशक [११] नियुक्ति: [ २९७...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ५६-६३] | वश हंतीति वराहं उकारतीत्यर्थः तं अलंदिगः वा कुंडगं वा, परज्यं मणिमवमादी, विरूवरूवभायणाणि अणे गप्पगाराणि, भाषणं अगप्पगारमेव, असंसट्टे हत्थे संसङ्के मत्ते चत्तारि भंगा, गच्छवासीणं चउहिंपि अष्णिसीणं चउहिंपि गिण्हंति, जाव णं संसद्वेहिं दोहिवि ग्रहणं भंगेहिं, सुत्तादेसेण वा ३, पुहुगादी पुव्त्रभणिता, अप्पसत्यकम्मे अभावे, अप्पसरशे पञ्जवजायंति निरवसेसं, पाणतं तकणेसरणा ४ पंचमी उबगहिता, उबगहियं भुंजमाणस्स सअड्डाए उवणीतं, सरावं सरावमेव, डिंडिमं थडिक्कगं, कोसओ कोसगमेव, जस्स तं उब्वतंतस्स पाणीसु जो दगलेवो सोवि परिणतो सोवा दिखा, जेण वा उवणीतं सो वा देजा ५, छडा उग्गहिता परमहिता, उग्गहितं दव्वं हत्थगतं, पग्गहितं दिजमाणं, एलुगविक्संयमेतं जस्मंवि अडाए उग्गहियं सोवितं नेच्छति, पादपरियावनं कंसभायणं, विगद्गलेवो पाणीसु, नत्थि दगलेवो देवस्य नियतो भावो छट्टो ६ सत्तमी देतस्सवि जस्सवि दिजति दोहवि णियत्तो भात्रो, अवउज्झियधम्मिया, पुण्वदेसे किर पुत्र रद्धं तं अवरहे परिडुविजति साहू आगमणं च, तंपि भायणगं वा दिजा कप्पति, जिणकप्पियस्स पंचहि गहणं, थेराणं सचहिवि एवं पाणएवि, चउत्थी अप्पलेवा तिलोदगादि, इचेतासं सत्तष्टं पडिमाणं, गव्यो ण कायब्बो जहाऽहं एगवत्थो दुवत्थो, मिच्छापडिवच्चा वा एते, अहमेगो समाहिपडिवण्णे, तमाणा भग| बतो, अन्योऽन्यसमाधानार्थं । पिण्डेषणाध्ययनं प्रथमं समाप्तं ॥ संबंधी एवं भक्त्तपाणं गहाय ठायव्वं भोतव्यं वा एतेण संबंधणं सेजा आगता, सेजा णाम बसही, 'सेजा उग्गम उप्पायण' गाहा ( ) पमाणे अतिरिता, इंगाले सुभा, घूमे विसमा, कारणे वासमावसतां दो अहिगारा बसहीए, ओहे विसेसो य आहिओ, | जहा एगा मणुस्सजाती सधेव बंभणादीहिं विसेसिजति, एवं ओहओ सच्चेवि सेजविसोहिकारगा, विसेसो उद्देसएहिं पढमे उग्ग मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः प्रथम चूलिकायाः द्वितीय अध्ययनं “शयैषणा", आरब्धं [349] पिंडे पजाध्य० ॥३४५॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [६४-७१] दीप अनुक्रम ४०० ४०५ ] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥३४६ ॥ “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [ २९८-३०४], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ६४-७१] मदोसा एवं साहम्मियं समुद्दिस्स' संसत्ता सागारिय सागणिय पाणेहिं वा, संजयपचवाईए, सच्चैव वसही इत्थी बंभपचवाता, पाखंडचारगादीहिं पचवातो, बितिरण वा सोचवादी गाहावती सूपसमायारा य बहुविहाण य सिजण विवेगो, 'ततिए जयंतच्छलणा' गाहा (३०७) सिद्धा चैत्र, तीसे पुण सेज्जाए छको णिक्खेवो णाम ठवणा गता, दब्बे सचित्ताचित्तमीगा, (३०२) सचिता दुपदचतुष्पदअपदाणं, दुपद्स्स मणुसम्सुवरिं, चतुष्पदस्य हरिथसंधव महिसयस्स वा अपदे हरियकायस्थ, अहवा सचित्ताए दन्यसे आए इमं उदाहरणं-उकलो कलिंगो व दो मायरो पल्लीवती य, तेसिं च दोन्हं भइणी वग्गुमती णाम, गोयमो य परिव्वायतो, तेणं तस्थ संवसंतेणं बहु धणं विडतं, ताहे वस्तुमतीए पासा अस्थिधणो ठिओ, अपत्थोत्तिकाऊणं अहममग्गेण घाडितो, इतरेणं सधि णाऊणं सिद्धत्वगा विक्विण्णा, ते उग्गता, तेण मग्गेण ते पल्लीवती आढणाविया, परिव्वायओ वेल्ड (वर) मतीए पोट्टे फालेत्था सुत्यो, एसा च सचिता दव्वसेजा, वितियादेसेणं वेल्लुमती चैव पलीए अहेव पोरेवचं पोरेति, गोयमो बंभणो तहिं तत्थ उकलिकलंगा आजीवगा दोनि आगता, तहिं कोंटलेण वल्लुमती लासिता, तीए गोयमज्जायणाओ आवासो हरिता तेसिं दिण्णो, तहेब अत्रमग्गधारणा सिद्धत्थगपाडणं च तत्थ पण गोयमेग कया-फालेउं पोई सुयामि, पूरिया सा, एतिया अचित्ता भूमिसंधार एहिं उग्गमादिसुद्धा वा वसही मीसिमा सतणिज्जे पृष्फोवयारकलिते, तथा वा अफासुगा न भूमी, फागुगा वा भूमी तथा अफासुगा, एसा तदुम्भवमी सिगा, पच्छति यमीसा वा बच्चा, खिते जम्मि खिते वणिज्जति, एवं कालेवि, भावे दुविहा-कायगता छब्बिहभारंभ, गन्भोकाए वसति सा सुहा दुद्दा य, जहा सुहिताए होति सुही दुहियाए दुखितो भवति, उदइओ उदइए भावे वसति एवं सेसावि, जहा जत्थाहं तत्थ मे हिं, अणुयोगदारवत्तया तिष्ठं सणयाणं आयभावे चैव वसति, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः द्वितीय अध्ययनं “शयैषणा”, प्रथम-उद्देशक: आरब्धः [350] पिंडेपणाध्य० ॥३४६ ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२९८-३०४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६४-७१] श्रीआचा रांग सूत्र-1 चूणिः ॥३४७॥ प्रत वृत्यक [६४-७१] दब्बसेज्जाए पगतं, सा केरिसिता संजमजोगत्ति नायबा (३०१) सुत्तालावं 'से भिक्खू पा भिक्खुणी वा.' ठाणं काउ- पिंडे स्सग्गादी, सयणीयं सेज्जा, मिसीहिया जस्थ णिवसति, चेतिज आसेविजत्ति, तं अप्पंडं० एग साहम्मियं समुहिस्स च्छलणा | पणाध्य. आलाया तहेव जहा पिंडेसणाए, णवरं बहिया णीहडं छप्णी सगड वा छइभंग णीणिज्जति कवितो पासेहि, ओकिंचिमे उबरि IN | उल्लवितो, छनो उपरि चेव, लिचो कुट्टा, एते उत्तरगुणा, मूलगुणे अट्ठवि हणंति, पट्टा विसमा समीकता, मट्ठा माइता, संमट्ठा | पमलिता, संपविता दुग्गंधा सुगंधा कता, बंसगकडणो कम्मे अविसोहिकोडी, दमित धूविता विसोधिकोडी, खुहिनाई दुवारि| याओ जहा पिंडेसणाए, णिण्णुक्खु णीप्पता तं अंतो वा बाहिवा, उदए पस्याणि कंदाणिवा जहा उप्पलकंदगा, पोमणी वा, उस्सए | | कुंडएमु मट्टियं, तप्पोसणिया छातुं वाविज्जति, एवं मूलयीयहरियाणि, उदगप्पयाणि वा इतराणि वा, संजयट्ठाए गीणेज्ना, पीढं ण्हाणपीदादी पुषभणितानि, स्थानात् अन्यस्थानं साहरति-संकामेति, दोसा ते एव, खंति एवं खंभे पासाते दुढे वा विच्छिष्णे | अट्टपारए चा, फालिहोवि कोइ विच्छिन्नी जत्थ सुप्पेज्जति, ठाती वा, अण्णतरगहणा चंपले वा जत्थ पुरिसो निरनो मादि, नान्यत्र, आगाढागाढं असिवाती अलब्भमाणो वा, आहञ्च-कदाचित् स्थितः स्यात् हत्याणि १, अविरुद्धं पागते बहुवयणं विण्डं, महाणि वा, कहं ?, उच्यते, अत्रापि त्रयं, आसए आलुए णवामणमुहाणि, उच्छिते उस्सद्ध उच्चारादि, पत्रयणादिसु दोसा, सागा| रिया पामतुल्छगिभत्था पुरिसेहि, सागणियाए अगणिसंघट्टो सउदयाए उदगवाहा, सेहगिलाणादिदोसा, सह इस्थिताहिं सहस्थिया | आतपरसमुत्था, सखुकुत्ति खुडाणि चेडरूवाणि, मण्णाभूमि गच्छंति, पडते य वदंताणि, इहरहा य वाउलेंति, अहवामुट्टा सीह| बग्घा सुणगा, पम् गोणमहिसादि तं, भंगमादि दोसा, एतेसु भत्तपाणाई च दळु सेहाणं भुताभुत्तदोसा, आताए सेचं भिक्खुस्स ||३४७|| दीप अनुक्रम ४००४०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [351] Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [२९८-३०४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ६४-७१] चूर्णिः । प्रत वृत्यक [६४-७१] श्रीआचा-IV अलसताए वा विसहगा वा, रोगा सोलस, आयको जरादी, दीहघाती वा रोगा, आयको आसुचाती, कालुणपडियाए तेल्लेण वा | रांग सूत्र ४ सिणाणं उवण्हाणं, कट्ठव(को)लवणगं, लोद्धं कसाए, वण्योश हलिद्दमादी, चुष्णो छगलं इटालचुण्णओ वा, पउमं कुसुंभं कुंकुम ।। IA वा, आवंसंति एकसिं, पसंति पुणो २, उन्बलिज्ज वा २, सीतोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज पहोएज, सिणाविञ्जत्ति अण्णेणं, ॥३४८॥ सिंचति सय, दारुणा दारुपरिणामति कटु परियट्टेति दारूं, अथवा उत्तराधरसंजोएण अगणिं पाडिता उजालेला उक्कोसंति वा, 2. उच्चावयं मणं णियच्छिज्जा, उच्चावयं अणेगप्पगारं, अकोसंत वा मा वा, अगणिकार्य उआलिजा, ससणिद्धा एव एत्थ उजा, उज्ज-17 लंतो चोरा सावयं वा ण एहिचि, अहवा सुट्ठ विज्झवितो, मा एणं दच्छितुं सावट्ठाहिति तेणगा एहिंति, एवं कस्सइ उज्जोओ। पितो, कस्सइ अंधगारो, अनाणमेतं, कुंडले च कुचितं, गुणो दोरादी एगतरं, मणी मणिरेव, सूचिए सुत्तिका, हिरणं मासगमाला, | तरुणिय कुमारिमझिमवयं चा, एरिसगा मे भोतिगा आसि णं वा एरिसिंगा भाणिजा, णमए समाणं संचिक्खादि, माण सा एजा, | कहं मम एताए सव्वं मेलतो होजा?, अहवा सा कपणा ताहे चिंतेति-एस मए पटुप्पजेजा, अतोण मे तं इस्थिगाति लवे सीलD. तादि, संवासा जा एतेहि सद्धि मेहुणं अप्पता य सेवति, धूयवियाइणि पुनं पुत्तवियाई यसिन् ओरालसरीरं ते, यस्मिन् सूरो, वचंसी दीप्तिवान् , जसंसी लोगकयसंपराइयपराक्रमः, आलोगदरिसणिजंदरिसणादेः प्रीतिजणणं उपसंपाओ उक्सप्पं करेजा, आय| परतदुभयसमुत्था दोसा, तम्हा तारिसए ण ठाइयव्वं, एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा० सामग्गियं । इति शय्याध्यसने प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ संबंधो सागारिदोसा अणुयत्तंति चेव, गाहावई नामेगे सुइसमायारे, गिम्हे चंदागादिणा समालभंति, सिसिरे अगरुणा, | दीप अनुक्रम ४००४०५] JANUARHARIHEMANTARBHAim ॥३४८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | प्रथम चूलिकाया: द्वितीय-अध्ययनं “शयैषणा", द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: [352] Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [३०४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-८६] शय्याध्य प्रत वृत्यक [७२८६] श्रीआचा | बरिसारने धूवेणं, साहुणो ण हायंति, मोयसमा० वियरंति तेण तेसिं सो गंधो पडिकूलो, पुब्बकम्मति निहत्थाणं पुन्चकम्म || रांग सूत्र- TAI उच्छोलणा तं चा पच्छा पब्बला, समाउट्टा होति, तत्थ बाउसदोसा, अहण करेति तो उड्डाहो, अहवा ताई एवं एए जेमणमाइओ || यनं उ०२ चूर्णिः | पच्छा, संजय उवरोहो मुत्तत्थाणं, उसूरेणं वा पछिमाए पोरिसीए जमिताइओ, ताहे संज्याणं पाढवाघातोति पदे चेव जिमिताई, ॥३४९॥ M. उवखटणावि एवं, प्रत्यागते उसकणं, उसकणदोसा, मिक्खुप्पडियाए वा बहुमाणा करेज वाण वा, अह भिकाबु. आताणमेतं | मिक्खुस्स, अप्पणो उबक्खडिजा, तत्थ भुंजेज वा पीतिअिदावि, पट्ठि नए एमि चक्खुपहे अच्छति, ताहे सीदति गिदंते संजमविराहणा, अणेगरूबाई मिचं पुढालिताणि, दारुणा परिणायं परियणं अभिजाणणं वा, वियट्टित्तए अदरे, तप्पति संजमविरा-11 | इणा, से भिक्खू वा भिक्खुणी कवाडं तदेव संधि चरति तस्संधीचारि, तं घरं उम्भक हिं कतं, खेतं अलभमागगा बाहिर छिई मग्गति, साह णिग्गतो, संधी णाम अंतरे छिई, तेणं उडयं पवि सिजा, आयुधहत्वगतो०, मिक्खु नो कप्पति अयं तेणे | | पवसिति वा ण या पविसति, उपल्लयति टुकति व्रजति रुस्सति, साहू भगति-तेणं हडंति अमुतेण हर्ड ?, ताहे साहू भणति-अण्णेण हडं, पा तेण, एवं साहू चेव भणति, तस्स अमुगस्स ठवियगं हटं, ताणि वा भणंति-अमुगस्स टविपगं इडं ?, ताहे साहू भणति | सो-तस्स अबस्स हई, सो वा साहू किंचि दरिसेति अयं उवचरए, उवचरओ णाम तारिओ, नाणि वा साहुं चेव भणति-अयं तेणे अयं उवचरिये, अयं एत्थ अकासी चरियं, आसि वा एत्थ, सम्भावे कहिए चोराओ भयं, तुहिके एवंगिरा अतेणगमिति संक्रति, एते सागारिए भवे दोसा। से भिक्खू वा भिक्षुणी वा तणपुंजेसु जा गिहाणं उपरितना कया, पलालं वा मंडपस्स उवरिं, हेट्ठा भूमी रमणिआ, संडेहि णो ठाणं चेतिजा, अपंडेहिं चेतिजा । से आगंतारे सु वा आरामागारेसु वा साह मासं अच्छिततो अह ॥३४९॥ दीप अनुक्रम ४०६ ४२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [353] Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [३०४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ७२-८६] श यनं उ०२ प्रत वृत्यक [७२८६] तमि चेव दिवसे तओ ण एति, एवं सध्वं, निरंतरं-अविरहिता, सारण तस्थ दोसा, सीते सड़ी तीए वा परिकम्भ, च्छावणं | रांग मत्र संजयट्ठाए भवति, इदाणि भण्णति अपकिरिया, कालाइकंता जहिं स मासकर्ष वासावासं वा करेति, अतिता पाहणं वा पडीर्ण चूर्णिः | वा दाहिणं वा उदीणं वा दिसा पनवगकप्पत्ति, कालाक्षरा रआदिसा वा गहिता, अट्ठो भणितो एव, णो सुणिस्संतो न सुद्ध॥३५०॥ आयारगोयर सद्दहति, पुषफल वहीदाणस्स समणमाहणा अतिधिकिवणवणीमगा ममुद्दिस्स, आएपणा णित्थरणं सिमत्ति वणि | बुस्मति, अहवा लोहारसालमादी, आयतणं पासंडाणं, अवयन्तिया युद्धस्स पासे, देवउलं वाणमंतरहितं, देउलं वाणमंतरं सप | डिभ इत्यर्थः, सभा मंडवो, चलंती वा सा सवाणमंतरा इतरा या, पवा जन्थ पाणितं पिजा, पाणितगिह, श्रावणो सकुडओ, पणियAM|साला आवणो चेव अकुड', जाणगिह रहादीण वासई, सा एगेसिं चेव अट्टा, छुटाकडा छुहा जत्थ कोहाविमति बा, दम्भा | बलिअंति पिणंति या छिअंति या, यचओ पिअति बलिजति य, वज्झा वरत्ता, जागहोणं दलि अंति, इंगालकम्म, एतेसि सभातो | भवंति, सुसाणे गिहाई, गिरि जहा खहणागिरिरमि लेणमादी, कंदरा गिरिहा, संतिये घराई, सेलपाहाणघराई, उवट्ठाणगिह | जत्थ जावइओ उड्डावितु दमंति, सोभणंति भवणं, भा दीप्तौ, उच्चनंतेहिं उपवति, एमा अतिकता, सा दुसीलमंतत्तिकाऊणं एते | आहाकम्ममि ण वदंति, अप्पणो सयट्ठाए कयाई, एनेसि दोसा-अपणो अण्णाई करेमो इतराइतरेहिं कालातिकता, अणतिकता सइमा अा इतरा, एवं सेमावि अण्णतरा इत्यर्थः, पाहुडेहि पाहुडंति वा पहेणगंति वा एगढ़, कस्य !, कर्मवन्धस्य, णिरतस्य पाहुPaiडाई दुम्गतिपाहुडाई च अप्पसस्था सेवणाए सावअकिरिया, महावज्जा पासंडाण अट्ठाए एमा चेव बनब्बया, सारआ पंचण्हं सम णाणं पगणित २ एसा चेव दत्तव्यया, महासावजा एगं समणस्म जातं समुहिस्स जापति गिहाणि वा महता छजीवनिकायस- दीप अनुक्रम ४०६ ४२० ॥३५०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [354] Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [७२ ८६] दीप अनुक्रम ४०६ ४२०] श्रीआचा संग सूत्रनृणिः ॥३५१॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२] निर्युक्ति: [ ३०४...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक ७२-८६] मारंभेणं महता आरंभ समारंभेणं अणे गप्पगारेहिं च आरंभेहि संजयङ्काए छायत्ति लिप्पति संधारगा उथरंगा कुणंति दुवारं करेंति पीवंति बादो अ, सीतोदगपडे अभितरता सष्णिक्खिता, अगणिकार्य वा उजालेति, पाउया वा जे एतेसु उवागच्छंति, इतराइतरेहिं पृथ्वभणितं दुपक्वं कम्मं सेवंति अपसंस्थासु, जहा रागो दोना य, पुनं पावं, इहलोइयं पारलोइयं च अहवा संपराइयं ईरियावहिये एसा महासावआ, अप्पमाबजाए अप्पणी सयङ्काए चेएति, इतराइतरेहिं इद अप्पयत्याणि वञ्जिता सत्येहिं पाहुडे हिं निव्वाणस्स सास्स वा एगपक्वं कम्मं सेवति, एगपक्वं ईरियावहियं एसा अप्यसावजा एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा० सामग्गियं ॥ इति शय्याध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ • संबंध अागे विवाफासुगाणं गहणं, बसही सेया णो सुलभा, फासुए च उपस्सए आहारो सुहं सोहिज्जति, से बही दुक्खं, अच्चस्थं अण्णावेण कतउंछे असगिज्जे जहा एमणिज्जे सदो पुच्छति, उज्जगं साहुः, कम्मत्य साहणे अत्यंति भति पढमस्सता गत्थि अप्पणी ठाणाइउ, पडिस्स करेड, एवं नो सुलभे फासुए उक्रेण य सुद्धं इमं पाहुडेहिंति कारणेहिं काणि वा ताणि च १, मंगलमादीणि, ते कुडाण भूमीते वा लेवणं, संचारगा उपडगो, दुबारा खुडगा महलगा करेंति, पिणं चेडस्स वा पिंडवातं मम गिरह दोसा पुच्छंति वा, किमत्थं इव साहू तं इच्छति ? उज्जू भणति, अह आह आयरियाणवकम्मणभूमी छिट्टागं | काउस्सम्गा भायणाणि वा जत्थ पुच्छति निसीहिया, एवं एतेसिं पमवो, चरिया जत्थ साहुगो चंक्रमणियं करेंति, आयरिओ ठाणं काउस्सग्गादी निसीहिया, जन्थ उवमति सेआ सयंति, संथारओ इकडादी, विंडवातो आयरिओ, को एवं अक्खाति ? संति भिक्खुणो एज्जगा नियागपडिवण्णा चरिचपडवण्णा अमातियो, वियाहिया व्याख्याता एवं भणितुं साहुणो गता, पच्छा ते मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः प्रथम चूलिकायाः द्वितीय अध्ययनं “शयैषणा”, तृतीय-उद्देशक: आरब्धः [355] शय्याध्य यनं उ० ३ ।। ३५१॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [३०४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८७-११०] प्रत वृत्यक [८७११० श्रीआचा- वा अण्णो वा गता, स्यणग्गहणा संविग्गो, सो गिहत्थो, मज्झो असिन् भनिए, केषां एगता उक्खित्तपुब्बा-पढमं साहूणं उक्खिरांग सूत्र यनं उ०३ वति अग्गे भिक्खं, मिक्खं हिंडताणं, 'थके थकावडित', अभत्तए सालिभतं जातं मज्झाजातं 'मज्झ य पइस्स मरणं दियचूर्णिः | रस्स मे मया भज्जा' उक्खित्तपुब्वा मा एतं चरगादीणं देह, परिभूतपुव्वतं अप्पणो भुंजंति, साहूण य देति, परिद्ववियपुब्वा | ॥३५२॥ अचणियं करेंति, तुरि पञ्चाइतुं, मा मे से सज्जातरो अगिण्हतेण भनिभंग, अण्णपासंडावि जस्स भणिता तस्स अणुग्गहं करेंति, एवं गेहणे दोसा, कत्थति पुण वसही दुल्लभा नो मिक्खा दुल्लभा, णो वसही एगथ मिक्खा, से एवं साहू उज्जुकटो उक्खा10 यमाणो सम्यक् अक्खाति ण लज्जति, कर्म बंधेणं पुच्छा, आस गाहा, वागरणं, हंता सम्यक् भवति, ण लिप्पति कम्मचंधेण । | इत्यर्थः, एते परसमुत्था दोसा, इमे आयसमुत्था वसहीदोसा, अतिरित्ता पट्ठिता ण अण्णतिस्थिया एज्जा खुड्डाखुडि एव दुवार | संनिरुद्धं, खुड्डलगं वा, णिविताओ निरुद्धा साधूहि वा भरितिया, अहवा मुहूतिया चेव भण्णति सण्णिरुद्धिया, एतासु दिवावि पण कप्पति, कारणि ट्ठियाणं जयणा, राइविगाला भणिता, पुरा हत्थेण रयहरणेण हत्थोपचारं कुज्जा पच्छा करेज्जा, आवसियाणि सज्ज णिन्ताणं, पविसंताणं णिसीहिया आसेज्जा, के च दोसा?, समणा पंच, माहणा धीयारा, अहवा सावगा, भन, छत्तगा मे, वमेत्तए उच्चारादि, भंडयादि णिज्जोगो, सव्वं वा उवगरणं, अट्टी आयप्पभिसिता कट्टमयी, तिसिगा मिसिगा चेव, Vवलग्गहणा वत्थं वलयिणीदोसा, चंमए मिगचम, उदाहरणाओ या चमकोसं, उक्खल्लो अंगुजट्ठा कोसए वा, चंमछेदणयं बझो | दुवट्ठादी, साहू पबडमाणेसु व दोसा, पउरण्णपाणं अन्नत्थ णस्थि, वसही दुल्लमे य, अण्णतिथियमादीसु जयणा, अणुवीयि अणु| विचित्य, इस्सरो पभू सामी, स महिहिए पभु संदिडो कामं जाव तव अम्ह य इच्छा, अहालंदं जहाकालं उदगवासासु अहा- ॥३५२॥ दीप अनुक्रम ४२१४४४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [356] Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [३०४...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ८७-११०] प्रत वृत्यक [८७११० परिणायं जाव अणुजाणसि ता ता चेव वसिस्सामि, सो आउत्तो भण्णइ-अहं पुब्बं दिजिजस्सामि जाव आउसो ! जाव तुमं जाव श्रीआचारांग बत्र IA साहम्मियत्ति जचिया तुम इच्छसि जे वा तुम भणसि, गामेणं अणुसुत्रो मोत्तेगं बिसेसिओ, कारणे एवं, णिकारणे ण हायंति, चूर्णिः तेण परं जति तुमं उपविजहिसि ण वा तब रोएइ, इह हि उवस्सओ वा भजिहिति, परेणवि, बाहरण्णामो णामो गोतं जाणेत्ता, |गामेणं उस्सुओ गोनेणं विसेसितो, भत्तपाणं ण गिष्हति, सागारिय सागारितो, पण्णो आयरिओ, अहवा विद् जाणओ, तस्स पण्णयस्स ण भवति, निष्क्रमणं प्रवेश संकड इत्यर्थः, बायणपुच्छणपरियगुणधम्माणुओगचिंताए, सागारिए ण ताणि सकंति । करेउं, तम्हा हाणादीणि ण कुज्जा, मज्झेण गंतु वत्थए अकोसमादी, सिणाणादी सीतोदएण पंच. आलावगा सिद्धा, णिगिणागग्गाओ ट्ठियाओ अच्छंति, णिगिणातो चलि अंति, मेहुणधम्म विनति ओभासंति अविरतगा साहुं वा तबस्सि, मेहुणपत्तियं चेव अन्नं किंचि गुहा, आदिण्णो णाम सागारियमादिगा सलाखा, सचित्तं कम्म इति पदमं संथारगंण गेण्हेजा, वितिय अप्पंडं गुरुयं तंपि ण गेण्हति, ततियं अप्पंड लहुयं अपाडिहारियं न गिहति, चउत्थे अप्पड लहुगं पाडिहारियं णो, अहावचंन गेण्हेजा, पंचमं अप्पड लहुगं पाडिहारियं अहावचं पडिगाहिज, लहुओ जो वीणागहणे आणिजति, लहुओ आहावच्चे, पाडिहारिओ अट्ठ भंगा, पढमो पसस्थो, इचेयाई आययणाई आयतणाणि वा, संसारस्स अप्पसत्थाई, पसत्थाई मोक्खस्स, पडिमा प्रतिज्ञा प्रतिपत्तिर्वा, उद्दिस्सित णामं गेण्हेत्तुं, जहा इकर्ड वा इकडाकयारादिके, कढिणो किं घम्मादी बासरचे, जंतुयं तणजाती, परओ| मंडओ, मोरगो तणजाती वा, तणं सब्वमेव किंचि, कुसा दमा, कुचते सहए दव्वे, वचए सिन्धु, पलालं पलालमेव, एतेसि || | माणसेअं गिव्हंति जत्थ भूमी ओमिजेति, उद्दिढे कताइ छिदित्तु आपोज, गते ण पेहा विसुद्धतरा, पेहा णाम पिक्खित्तु, एरिसगं दीप अनुक्रम ४२१४४४४ ॥३.५३।। . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [357] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३०५-३१२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११९] श्रीआचारांग सूत्र चूर्णिः ॥३५४॥ प्रत वृत्यंक [१११ देहि, वितिया पडिमा, ततिया अधासमण्णागता णाम जति वाहि वसति बाहिं व दुकडाणि, णो अंतो. साहीओ ण वेसणीओ शय्याध्य | आणेयब्वा, अहणं अंतो अंतो चेव इकडाणि घेव, णस्थि तो उक्कुडगो सिज्जिओ विहरिजा तच्चा पडिमा, अहावरा चउत्था अहासंगडा तत्वत्था अहासंगडा पुढविसिलाओ पट्टओ पाहाणसिला वा कट्ठसिला वा, सिलाइग्गहणा गुरुया अहासंधडग्गहणा भूमीए एलगग्गं चेब, अलाभे उक्कुडुगणेसिजतो चउत्था पडिमा, मिच्छा, पडिमापडिवण्णा दीहतवे अप्पिण०, जय णाम सअंडण । पञ्चप्पिणंति, अप्पंडं पडिलेह पमजतोविय विणुधुणिय चलिय पचप्पि० लेहिता व राओ वा वियाले वा पचडणमादी दोसा, सेजा| संथारभुमीए गिझंतीए इमे आचरियगाई एकारस मुतित्तु सेसाणं जहाराइणिया, गणी अण्णगणाओ आयरिओ, गणधरो अजाणं | चावारवाहतो, सब्वेसिं एतेसि विसेसो कप्पो, वातादीण म हाणं तत्थेव, समविसमपवायाण य तत्रैव, अंतो मज्झे वा, बहुफामुगादी सेजा संथारगा आलावगसिद्धा, णवर आसादेति संघट्टेति आसतं-मुहं पोसियं-अधिट्ठाण, पवायणिवायमादिसु पसत्थासु सइंगाला, अप्पसत्थासु सधूमा, पडिग्गहियतरं विहारं विहरेजा णो किंचि गिलाएजा पलादि णाम मात करेति, कहं ?विसमदंसमसगादिसु बाहिं अच्छति अण्णत्थ वा इति ।। शय्याऽध्ययनं परिसमाप्त ॥ संबंधो सेजाओ भुजितु सण्णाभूमि गच्छंतस्स रिया अहासेजं च मिक्खं च मग्गंतस्स रिया सोहेयन्वा, ताए विही भाणियव्वा, ठाणाओ अणंतर वा रिया, तस्स उद्देसगाहिगारो सवेऽविरियाविसोधिकारगा (२१३) नहेति इमो विसेसो-पढमे | | पवेसो णिग्गमो य सरते अद्धाणजयणा णावजयणा वा वितियए णावारूढे छलणं णाम जंघाहिं संतारिमे व पुग्छियन सपचवा| यणिपथपाये, ततिए दाणं नावियादीणं अप्पडिबद्धो य उवधिमि बचे, ण य रायसंपसारियं गाहावइसंपसारियं वा, वयष्या, |३५४॥ दीप अनुक्रम ४४५४५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या', प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: [358] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३०५-३१२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११९] प्रत वृत्यंक [१११ ईर्याध्ययन | दवरिया सचित्तस्स जहा बाउणो पुरिसेण वा पेरियं दव्वं, मणुस्सस्स चा गळतो अणाउत्तस्स, अचित्ता जहा रसस्स, परमा-1 श्रीआचारांग सूत्र | गुस्स वा, मीसगा जहा सगडस्स, खेत्तरिया जंमि खेने भूमिबलं पड्डुच्च, कालएरिया जहा धूयते णयाण, भावे रीया रियासमिती चूणिः संजमे सत्तरसबिहे संजमो, कई वा णिहोसं गमणं समणस पुच्छा ?, वागरणे सोलस भंगा, पंधेण दिया जयणाए सालंबो पहमो । ||३५५॥ | सुद्धो, सेसाणं जस्थ आलंवणं अत्थि नाणादि, उप्पधि वासवाति, जयणाएवि सुद्धो चेव, गाहाणुलोम बद्धा वा सोलस भंगा, | सुत्ताणुगमे अब्भुवगते अभ्यर्ण प्राप्तः अभ्युपगत इत्यर्थः, वासा० वर्षासु वासो, बासे चेव, अहवा वासाकाले बालो वासे चेव | वर्षासु वर्षा इत्यर्थः, अभिमुखेन प्रविष्टः अभिप्रविष्टः वृद्धे काले पत्ते णो वासे भंगा, पाणग्गहणा इंदगोववीयोवगादी अभिसंभूता | | जावइया, अहुणुभिण्णा अडरिता इत्यर्थः, अंतरितो बरिसारत्तो जहा 'अंतरवणसामलो भगवं' अंतराल वा अंते अणो-| Vतो लोएणं चरगादीहिं बा, अकंतावि अणकंतसरिसा णो विण्णाता पाणियण वञ्चति०, सेवं वा णो गा० से भिक्खू वा दीयार भूमि, णस्थि विहारभूमी सज्झायभूमी, पीढके णस्थि मया, इहरहा बरिसारत्ते णिसिजा कुत्थति, फलगं संथारओ, सेजाओवहिमादि जहनेणं चउगुणं खेतं, विरायइ समिई बिहारवसही आहारे उकस्सं तेरसणुणोत्रवेयं चिक्विल्ल पाण थंडिल गोरस वसही जणाउले बेजा । ओसध णिचता अधिपति पासंडा भिक्षु सज्झातो ॥१॥णो सुलभे फासुते उंछे पुव्वुत्तं पिंडेसणाए, उवा| लएआ आगच्छेजा, विपरीएसु पसस्थए उल्लिएजा, अह पूण एवं जाणेजा चत्तारि मासा णिग्गमी तिविहो, आरेण पुणे परेण | असिवादिसु कारणेसु, आयरिय असाधए आरेणवि, वाघानेण सुक्खेसु पव्वेसु, कत्तियपाडिवए, दसराए गतेसु, ततो परेण पव| तेणवि णिम्गंतव्यं, आला दसराए यतिकते बहुपाणे मसगादिसु, समणातिसु अगागएसु ण रीतेजा, विवरीते रीएआ, कहं , दीप अनुक्रम ४५३ ॥३५५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [359] Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३०५-३१२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १११-११९] श्रीआचारांग सूत्र चूणि ॥३५६॥ प्रत वृत्यक [१११ पुरतो जुगमात्रं पेहाए दुहतो य पार्श्वत इत्यर्थः; दलृत्ति उक्खिवित्तु अतिकमितु वा, साहटु पाएति साहरति निवर्तयती ईर्याध्य | त्यर्थः, वितिरिछं पासेणं अतिकमति, सति अ विजमाने, अन्यत्र गच्छेत, ण उज्जुगंधीयमाइसुविण गच्छिजा, विरूवरूवाणि | | भासाए वेसेण य, भासाए जहा मीडसवरादीणं, वेसेण बाहुकट्टेण वा अवणइम्मि चूडगा सीसे मस्साण ओलिहिअति, एवं अणे-1 | गप्पगारा, पचंतियाई अद्धछवीसाए जणवयाणं जे अंता एए भवंति-रिताए जए वेयाए, पर्चता, पर्चते भव। प्रत्यंतिका णिमा गुस्सगणा इत्यर्थः, दसंतीति दमुगाणि, जहा पुवसमुहलग्गा, दसुंति मिलक्खाणि, जंकिंचि भणिवो रुस्सति, अणारियाणि, | अणार्यवृत्ताणि, दुस्सण्णप्पाणि रुद्वाणि दुःखं सण्णविजंति दुक्खेण वा णजआणि धम्मं न गेहंति, तहिं अच्छताणं तित्थवोच्छेदो, अकालपडिबोहीणि रति उद्विना गच्छंति मूलकंदादीणं, अकालभोई रचि चेव भुंजंति, सति लाढे सति विजमाने लादेति संयतस्याख्या, जावति अन्यत्र इत्यर्थः, विहाराय, संथरमाणेसु सुभिक्खे वहमाणे ण विहाराए, केवली, तेणं बाला, उबचरतो चरतो, ते य आरिएहि विरुद्धा०, कारणे सत्येण तेसिं मझेण बीतिकमिजा। अण्णारायं राया मतो, जुगरायं जुगराया अस्थि कता वा दावं अभिसञ्चति, दोरजं जत्थ बेरं अण्णरज्जेण सएण वा सद्धि, विरुद्धगमणं यस्मिन् राज्ये साधुस्स तं विरुद्धरजं सं०, भिक्खू वा २ अंतरा विहं विणा सत्थसण्णिहाणमित्यर्थः, एकाहेण अह इति दिवससंख्या, कहं , उच्यते, असाविति, णा| वा० णावासंतारिसे किणेजत्ति केति सड़ी-श्रद्धी, दुक्खं दिने दिने मग्गिजति ण वा०, पामिर्च उच्छिदति, परिणामो णाम परियदृति, इमा साहूण जोग्गत्ति बट्टिया खुडिया सुंदरी वनिकट्टु, पुण्णा भरितिया, सण्णा सुनिया चिक्खिाल्ले, उड़गामिणी अणुसीयं, तिरिच्छंति तीस्यिमामिणी, बद्धजोषणं दृरतरं वा, ण गरिछा, अप्पतरो अद्धजोयणा आरेण, भुञ्जयरो जोयणा परेणं, दीप अनुक्रम ४५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [360] Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१११ ११९] दीप अनुक्रम ४४५४५३] “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ३०५-३१२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १११-११९] भीआचा रंगसूत्र चूर्णिः ॥३५७॥ अहवा एकसिं अप्पतरो, बहुसो भुजपरो, तिरिच्छसंपातिम जाणिता एतं एमायतं मंडगं, हेट्ठामुहे सांतसे करेति, उवरि भंडगए, पडिम्ब एगजुयगं करेति, कार्य सव्वं पाए ये पमञ्जति भतं पञ्चकखाति सागारं ताव एगंते अच्छति जाव अप्पणो जाएण पट्टिता, जहा एगेण त्थले एगेण णावाए, अशक्ये जले एगे एगे पावाए, अढवा एगे जले एगे थले, थलं आमर्स, ण विरोलेंते, ठाणतियं परिहरितु मज्झे दुरुहेज, ण बाहातो पगिज्झिय २ उष्णमिय २ णिज्झाएजा अहो रुक्खा धानंति, एगचितो ज्झाणे, ऊर्द्ध कसणं उक्कोसणं, समुद्दवातेणं, अधस्तात्कमणं, मंडतेणं खिवलं लग्गाए रखाणं ढोकर्ण णयणं वा ण तस्स तत्प्रतिज्ञं परियाणेजा, ण आढाएञ्जा करिअ वा, तुसिणीओ उवेहेजा, अच्छिंजा खडओ, अलितओ कोडूिंबियाए फिट्टो मदल्लो वंसो, वंसए बलउ, कट्टो वट्ठगं, अवलओ अवगमेव, कंठगंधो उच्यते, उत्तिगं आगलंतगं, चेलमट्टिता चीवरेहिं समं मट्टिया महिजति, कुशपतओ दब्भो, कुंभीचको वा गोल्लविस असवचओ भण्गति, कुविंदो सोदर वक्काडओ, उतिंगगं आसेवति, उवरिगं दूसे गेहति, कजलेतित्ति पाणिते भरिजति, यो परं०, अप्पस्सुओ जीवियमरणं हरिसं ण गच्छति, अबहिंलेसे कण्हादि तिण्णि बाहिरा, अहवा | उवगरणे अज्झोववण्णो वहिलेसो, अहिलेस्से पगतिं गतो, 'एगो मे सासओ० ' अहवा उवगरणवृतित्ता एंगीभृतो, बोसज उवगरणसरीरादि, समाहाणं समाधी, संजतगं ण चडफडेंतो उद्गसंघ करेति, एवं आधारिया जहा रिया इत्यर्थः । रियाए प्रथम उद्देशक समासः ॥ संबंध नावाधिगारो, नावाए व डंडगमादी, आत्मीय उपगरणं गेण्हाहि, एयाणि य असिधणुमादीहिं धारेहिति, दार वा यमजेहित्ति भुंजावेहि, घरेहिं वा पेजा, अम्हे णावाए कम्मं करेमो, भंडभारेति जहा भंडभारियं ण वा किंचि करेति, घेरा उन्बे मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः तृतीय-अध्ययनं “ईर्या”, द्वितीय-उद्देशक: आरब्धः [361] ईर्याध्ययनं ॥३५७॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१२० १२६] दीप अनुक्रम ४५४ ४६०] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥३५८|| “ आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२] निर्युक्तिः [३१२...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२०-१२६] ढँति, जिणकपिओ उप्फेस करेति, उप्फेसो नाम कुडियंडी सीसकरणं वा अभियंतर अमितकर्माणः, ते मणिता सयमेव उभासि, सहसा वा छुभिज्जा, णो सुमणो, कई ? –मरामि चेव, अहवा अहो मरियन्बर्ग, दुम्मणो हा मरियव्वं, कह च उत्तरियध्वं १, उचावए तो जणवहंते उरस्स बल्ली वा विद्वावति, राउले वा छुमति, णियाणं करेति, बहपरिणतो मरंतो, हत्थेण हत्थादीणि संघट्टेति मा आउकाय विराहणा होहिति, दुब्बलभावो दुब्बलियं, ताहेति उपहितीरे ताव अच्छति जाब दगं स गलितं, उदउलससणिद्वाणं कालकओ विसेसो, आमज्जेज कहंचिगा दोसा, जं बल्लेण परिणामिते आम जेज, परे गिहत्था अण्णउत्थिया वा, परिगविय चुंफें करेंतो जाति, धम्मं वा कहतो, संजम आयविराहणा, तेणपहे वा घेप्पेज्जा, जंघासंतारिमे कंठं, वप्पाती पृथ्वभणिता, अहवा वप्पो बडो बलयागारो, गंभीरोदयं वा तलागं, केदारो वा, मट्ठा अपाणिता दरीपव्त्रयकुरा भूमीए वा, जिणकल्पितो पाडिपहिग्रहस्थं जाइतु उत्तरत्ति, थेरा रुक्खादीणिवि, जावसाणि वा मासजवसो वा, जहा गोधूमाण वामुसो, सगडरह० सचकं सविसयराया, परचकं अनराया, सेणा सराइगा, विरूवरूवा अणे गप्पगारा, हस्त्यश्वरथमनुष्यैश्व, चारउति या काउं आगसेजा, कट्टि सुमणो, एते णाविताओ वादेणं दंडियं पड़प्पाएमि, उच्चावदं घातवहाए सावे देति, गामाणु पाडिपहिया पृच्छेज्जा केवइए से गामे नगरे वा, केवतिपत्ति केवडे केलिया आसा हस्थी, ते चारिया अण्गो वा कोइ पुच्छेज्ज, ण पुच्छे, न कयरे वा, णो वागरेज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा २ सामग्गितं । इति इरियाद्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ संबंधो रियाधिगारे, इहापि रिया एव, अंतरा बप्पाणि ते चेव, कूडागारं रहसंटितं, पासाता सोलसहिष्णू मगिहा, भूमीगिहा भूमीघरा, रुक्खगिहं जालीसंहनं, पण्ययगि दरी लेणं वा, रुक्खं वा चेइयकटं वाणमंतरच्छादियगं, पेठं वावि भेवं, धूभेवि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः तृतीय-अध्ययनं "ईर्या”, तृतीय-उद्देशक: आरब्धः [362] ईर्याध्ययनं ॥ ३५८ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [३१२...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १२७-१३१] रांग मूत्र चूणिः ॥३५९॥ प्रत वृत्यंक [१२७१३१] D] एवमादीणि आभिराममा(एसणा)णि जहा गिरिणगरे, णो परिगिझिय २ णिज्झाए, णगरणगखरिया ज्झा व लोलया, पप-|m यावहिता पलिमथु, कच्छाणि जहा नदीकच्छा, दवियं सुवण्णारावणो, वीयं वा चलियं वा, णदिकोप्परो, म भूमीघरं, गहणं गंभीर जस्थ चकमंतस्स कंटगसाहातो य लब्भंति, वणं एगरुक्खजाइयं वा, वणदुग्गं नाणाजातीहिं रुकवेहि, पचतो पश्चयाणि वा, मागहभासाग एगवणेण णपुंपगवत्तव्ययाणं, पथ्यइएवि पधइयपि, प्रासादकप्रासादकाई, पायदुग्गाई बहू पब्धता, अगडतलागदहा अणेगहा संहिता, णदीपउरपाणिया, वावी वट्टा मल्लगमूला वा, पुक्खरणी चउरंसा, सरपंतिया पंतियाए ठिा, सरसरपंतिया पाणियस्स इममि भरिते इमावि भरिज्जति परिवाडीए पाणियं गच्छति, केवली व्या जीवाणं उत्तसगं ईपत् विनसणं अणेगप्प-| गारं वा तस्सति, सरणं मातापितिमूलं गन्छति जं वा जस्स सरणं, जहा निपाणं गवीर्ण गहाणं दिसावसरणं पक्खीणं आगासं सरिसवाणं बिलं, अंतराइयअहिगरणादयो दोसा। से भिक्खू वा २ आयरियमझाएहिं समगं गच्छंतो हत्यादि संघति आधाराइणियाए पगतो, आयरिया पाढिपहिया पुच्छंति, जिगकप्पिओ तुहिको, थेरकप्पिता कहें ति आयरिया, तस्स णो अंतरभासं करेजा, एवं राइणिए दो आलावगा, पडिपाहगोणमादी आइक्वह दूरगतं, दंसह अब्भासत्वं, परिजाणेज्ज कपिज हिज पाडिएहिं ता उदगपत्रयाणि कंदाति ४ पुन्छति छुहाइतो तिसिओ पिविउकामो रंधेउकामो सीयह तो वा अम्गी एवं चेव जह साणिगामो, कोहरे गामह मणुस्सवियाल पुच्चभणिता जिणकप्पियस्म सुत्ता, विहं जाणेजा विहं अडवी अद्धाणं आमोसगा धम्मियजायणा थेराणं तुम्भे चिएहिं चेव दिग्णाई, जिणकप्पिओ तुसिणीओ चेय, सयं करणिज्जंति रुचति तं करेंति अकोमणादी, रायं संसरतीति रायसंसारियं णो सुमणे सिया सुकोसियतोवहिस्स इदि । समाप्तं रियाऽध्ययनं तृतीयं ।। - दीप अनुक्रम ४६१ ४६५] ॥३५९॥ PANE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [363] Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[४], उद्देशक [१,२], नियुक्ति: [३१३-३१४], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३२-१४०] M प्रत वृत्यंक [१३२१४०] बीआचा- उका रिता समिति, इदाणिं भासासमिति, आहारसेज्ज पंथपुच्छा (पादपुच्छणा) य, सव्वेवि वपणविभत्तिकारगाई तहावि | भाषाध्ययन गम सूत्र- विसेसो अस्थि, पढमे सोलसप्पगारा वयणत्रिभनी अप्पीतिवज्जणा वितिए काणकुंटणादी, णामणिफण्णे भासा चउब्विहा जहा चूर्णिः IA | वक्के तहा दब्बतो उप्पत्तीए पज्जवं अंतर, गहणे, उप्पत्ती वा भासाणं किमादीयं पञ्जवं, जतो जाई मूलभासादब्वेहिं परिणामिताई || | विस्सेणिं गच्छंति, अंतरं जतो जाति अणुसेटीए मीसाई गच्छंति, गहणे जारिसाई गिव्हंति दबओ अणंतपएसियाई, भासा किमा-IN | त्मीया? पोग्गलात्मिका, यथा घडं मृत्तिकात्मकं न सिकतापापाणैनिष्पद्यते एवं भासापयोग्गेहिं दम्बेहिं णिप्फज्जइ, खिने जंमि D. द्वितो गिण्हति जहा छर्दिसि जत्तियं वा खेतं गच्छति जहा परे सजोणि, जैमि वा खिने वणिज्जति भासा, कालो जमि जमि जेचिरं काला भासा भवति जाव ताव कालेणं जचिरं वा, से दो भवति काले-भावे उप्पांच पज्जवअंतरे जाता तं भावं भावेंता |णिणादं करेंताणि, तिमवि कालेसु चयि, आयाराई भणियाई जाई वा भन्नमाणाई, जाणेज भासेज, जे कोहातो वार्य युंजंति, क्रोधान विविहमनेकप्रकार जुंजंति सज्झसवत्थो वा जं जुंजंति, जहा कोहा न मम पुत्रः पिता वा अन्य माता वा इत्यर्थः, माणा अहं उत्त|मजाती उच्चहीनजातीयः, अट्ठर्हि वा मयठाणोवरीतने विजुंजणा, माया गिलाणोऽहं, लोभा जहा बाणिजं करेमाणे जणो अचोरं AI चोर भणति अदासी दासी, अजाणतो भणति, सबमेयं सावजं बजए, विविच्यते येन स विवेकः, विवेकमादाय, विवेगो संजमो || चरितं वा कम्मविवेगं सत्यवचनं आयविवेगं कातुं अनृतस्य, लभिहिति, केणति भणितो-भिक्षु ! हिंडामो, भणति-सो तत्थ लभति, ण वदति एवं भणितुं, अंतराइयं उदिज्जा, ताई असणिहिताई होज्जा, अहया भणति-सो तत्थ णो लभिहिति, एवं हिणवदृति, कयाइ लभेज्ज, मिक्खायरियाते गतओ भणति-सोतस्थ भुंजिउं एहिति, अहवा अभुत्तोएहिति, छउमत्थविसओ य वदति उसओ, ॥३६॥ दीप अनुक्रम ४६६ ४७४ M मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: चतुर्थ-अध्ययनं “भाषाजात”, आरब्धं [364] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३१३-३१४१, [[वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १३२-१४०] प्रत वृत्यंक श्रीश्राना || तत्थ णितं आगतो, अज्जा एते ण दापति, एन्थवि आगने, अस्मिन् संखडीए वा, निधिकालो, अणुशीति विचिंति पुर्व युद्धीए || माषारांग सूत्र-14 पासित्ता निश्चितभासी सिद्धभासी, सम्यक् संजतो भाषेत, संकितः मण्णेत्ति, ण वा जाणामि, एगवयर्ण वृक्षः इत्थी वदनं कन्या || जाता चूणिः वीणा लता, पुमवयणं राया गिरी सिहरी, णपुंसगरयणं वर्ण अछि कंसं, अज्झत्थं आयरियसन्नागारं नाउं सन्नाभूमी गंतुकामो ||३६१।। | अणुण्णवति, उवणीतवयणं पढाहि, ता भणति-तुम्भ पसाएणं, अवणीतं तुम सोचि भणिते भणति-नाई सोनि, उवगीत अव गीतक्यणं अहो रूपवती स्त्री किंतु कुशीला, अवणीतउवणीतायणं विरूवरूवो फोकणासो कालो, किंतु इस्सरो, ण य भिक्खा| यारसीलो, तीतादि अतीतत्वात् , करोति करिस्सति, पञ्चक्खं एस, देवदत्तः सो, एगवयणं वतिस्सामीति, तदेव वदिज्जा, इस्थि || पुरिसणेवस्थितं ण वदेज एसो पुरिसो गच्छति एषोऽप्येवं, एवमतिनिस्संदिद्धं अन्नहा वा, एवं णिस्संदिद्धं नाणकज्जेसु ण वत्तब्वं, | चत्तारि भासाजाता वक्तव्या, केन तानि उक्तानि ?, जे य अतीता अम्हंता, अचिनाई णिज्जीवाई, वण्णादिगुणजुत्ताणि चयोवचD| याई, अनित्यो वैशेषिकः, वैदिको नित्यः शब्दः, यथा वायुर्वायनादिभिरभिजिज्जते, एवं शब्दः, ण च एवमरहताना, यथा पटः । चीयते अवचीयते च एवं विप्परिणामसभावाणि, ते चेव णं सुम्भिसद्द। पोग्गला०, पुचि न भासा भासिज्जमाणी भामा भासा| समयति वीतिकंता वा णं अभासा, दृष्टान्तो पटा, पूर्व पांशुकाले न घटः, मुद्राभिघाताच अघटो भविष्यतीति जो नासेज्जा, जहा काणं काणमिति मोसा, चोरं चोरमिति, सच्चामोसा दासचोरस्त, स तु दासः न चोरः, सहऽवजेण सावजा, सकिरिया कम्म जेण भवति, ककसा किसं करोति, कटुकी जहा मिरिएहिं वावडवडादियुत्तो समाणो, णिठ्ठरा जकारसगारेहि, फरुसा हवज्जिता, अण्हयकरी आश्रयकरी, छेदकरी प्रीतिच्छेदं करेति, भेदं स्वजनस्य भूतस्य वार्थस्य परियभूतो, अमिकंख जंमं सोक्खं वान भाषते, PERMANENTENDEANSARITRINA [१३२१४०] दीप अनुक्रम ४६६४७४० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | प्रथम चूलिकाया: चतुर्थ-अध्ययनं “भाषाजात”, प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: [365] Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४१ १५१] दीप अनुक्रम ४७५ ४८५] श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥३६२॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [५] उद्देशक [१२], निर्युक्ति: [ ३१५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १३२-१४०] सव्या सुहा सा सूक्ष्मार्था, जह सुहं मोरंगादिना स्पृष्टस्य, सवस्त न युक्तं भवति, जूरणं खारवणादिना भवति, एवं जीवदयं प्रति सुहुमा, जा य असवामोसा अपाविगा असावज्जा, होलेति हुलं हुलो ऊरणतो, गोलेज्जतित्ति वली वडी, सवलेचि पल, कुपक्खे दासचोरपक्खो जेडउ दासिपुत इति वाच्यं इति वा, ते नाणगा पितरः, पितं वते, पसस्थाई आउसो ! ति वा स्त्रियामपि कंठ, | देवे वा नभमाकाशं, आकाश देव इत्यर्थः, गज्जितदेव विज्जुता य तदेव प्रतिष्ठो देवः निष्टं देवेन, फड्डया वा कंठं असज्झाबुज्झाणं अहिगरणं च अंतलिक्खादि भासेज्ज इति । भासजाते प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ अप्पितियवजणा वितिए, जहा वा एगइयाई रुवाई, णो एवं बएजा गंडी गंडीति वा, सोलसहा, हत्थछिको हत्थछिन्नाणि वा एवं न वक्तव्यं ?, जहा वासुदेवो तम्मि सुणए, एगमवि गुणं भासति, उपत्ति सरीरं, तेयंसी, बचसा दीप्तिः, सजो जसो किसी, अभिमतं अमिरुवं, रूवाणुरूवा गुणे, पडिरूवं प्रासादं जनयतीति प्रासादनीयं द्रव्यं, दर्शनीयं, जति सो किंचि पुच्छियो उभासियब्बो वा ततो सोचयारं वतव्बो, भदगं पहाणं, उसद्धं उत्कृष्टं, रसालं रसियं, पुल्लेवि अप्पत्तियं असंखर्ड मारिजेअवा, सुभे | सदे एगा इतरे दोसा वकसुद्धीगमाण चंता को च निधितभाषा विस्समभासी न बध्यते येन कर्म्म तं भाषेत इति । भासज्जाताध्ययनं समाप्तं ॥ इदाणिं एषणासमिती, तत्थ पिंडेसणा भणिता, वस्थ, पादेण अहिगारो, इह पढमे गहणं वितिए धारणा, बत्थे उगम उपायणा, ता बस्थे चकणिकखेवो, नामंठवणाओ गयाओ, दव्ववत्थं तिविद्धं एगिंदिय० विगलिंदियणिष्फष्णं पंचिदियणिष्कण्णं, एगिंदि| यणिष्कष्णं फलिहमादी, त्रिगलिंदियं को सियारादी, पंचेदियं कंबलेयादि, अदवा उकोसं मज्झिमं जहणं, अहवा अहागडं कय मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः प्रथम चूलिकायाः चतुर्थ अध्ययनं “ भाषाजात”, द्वितीय-उद्देशक: आरब्धः प्रथम चूलिकायाः पंचम अध्ययनं “ वस्त्रैषणा”, आरब्धं | प्रथम चूलिकाया: पंचम अध्ययनं “ वस्त्रैषणा", प्रथम उद्देशक: आरब्धः [366] भाषा जाता० ॥३६२॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१४१ १५१] दीप अनुक्रम [४७५४८५ ] श्रीआचा गंग सूत्र चूणिः ॥३६३॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति:+चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [३१५], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १४१-१५१] परिक्रम्म वा, जंगियमादी वा दव्ववत्थं भाववत्थं सीलिंगसहस्साई अङ्कारस साहुगुणे वियत्थो, भाववत्थसंरक्षणार्थं दव्ववत्येणाहिगारो, सीतदसमसगादीणं च, जंगमाजात जंगियं, अमिलं उट्टिणं, भंगियं अयसिमादी, सर्व सणवागादि, णेच्छगं तालसरिसं, | संघातिमतालक्षति वा, क्षोमियं मूलकडं कप्पति, सम्हं ण कप्पति, तूलकडे वा उण्णियउण्णियउट्टियादि, तरुणीनीसातो आरम्भ जाव चचालीसा, सोलसश्रुना आरम्भ जाब तीसा जुगचं, पण नियमा तरुण्यो, तरुणो जगबंधू भजेत्ता, जति व पत्तबलवं जति य अणाका अध्यायका वा थिरसंघयणो, एक्कं जिणकपिओ, आयंकिता य जहां समाहीए, अथिरसंघयणो तिष्णि, थिरकप्पितवस्त्रिणों एगं पाओषति, आयारसंति आयारसंतिए घरेति, भणियं च-तिष्णि कप्पा जहणोण पंच दढ दुब्बलाई गेण्हेजा सत्त य, निग्गंधी| एवि संघाडीविभासा, पडिस्सए दुहत्थवित्थरा, सष्णाभूमी मिक्वायरियाए दो तिहस्थाओ, एगा समोमरणे चउहत्था, जह मिक्ख अद्धजोयणा, परेण सुत्तादिपलिमंथो, उम्गमदोसा, एवं साहम्मियं समुद्दिस्म नहा पिंडेसणा एत्थ आलावगा, कीतादिविसोहिकोडी, धायंता कता संजयट्ठाए, दार्ड कामेण रसकदममाणासामुलीचालक्खासादितियांदिणादणा घटं पोहम्माई द्वावेति, मठ्ठे अवाडगादि, अमाणं निसंसई आहोडियं संपवितं वा, विसोधिकोडी सव्वा संजयडा ण कप्पति अपुरिसंतरकडादी, पुरिसंतरकडा कष्पति, महद्वणमुल्लाई छावत्तरीए परेण अट्ठारसण्डं वा, आईगाणि चम्माणि सहिणाई, संकल्लाणाणि सण्हाई. लक्खणजुत्ताणि य, आया जायाणि आयताणि, कायाणि, जत्थ इक्खागवण्णी पडिओ, तत्थ मणी, तस्स पभावेण सोवाली जाओ, अइगाणं पदवि ने मुसो सग्गो, आवणे तु विजति जारिसी मणीणं पभा, सिरीए वत्थाणं भवति एयाणि कायाणि, अहवा आयाणि खोमियाणि, पलेहीयाणि पलेहाणि दुगुलाणि, दक्खिणापहे बागेसु पच्चुप्पण्णाणि काये, पायालो दीवाणं मुगाणि, सण्हाणि अमुगाणि, देशरागाणि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [367] वषणा ॥३६३|| Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३१५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४१-१५१] ELIN श्रीआचा रांग सूत्रचूर्णिः ॥३६४ प्रत वृत्यक [१४११५१] W एगपदे सरिचाणि, अमिलाई सामुलीओ, गजलाणि कडकडें ताणि कायकंठलपावारादीणि, सुसिरदोसा य ण गृह्णीयान आयाणाणि AM वखैषणा माणि उद्याणि वा, उद्या मच्छा सिंधुविसए, तेसिं चमं मउयं भवति, पस्सा तहेच, पसचेयगणमाणि कणकप्पोलियाणि, कणग-1 पट्टाणि सोवन्नपदा दिजंति कणगकताई अंतेसु मंडिताणि, कणगखइयाणि कहिं २ चि कणगफुसियाणि इतिलिगा दिअंति, वग्याणि | बिग्घाइचित्तगस्स, आभरणाणि एगजातितेग आभरणेण मंडियाणि आभरणविहिता, णो विचित्तेहिं आभरणेहिं वरो, पडिमा उद्दिस्सिय दंसियमादी, बितिय पेहाए, पुच्छिते भणति-एरिसं, अहवा पेहाए पुच्छिते भगति एरिसं, अहबा पेहाए उक्खेवनिक्खेव| निदेसं चीयाण उबरि, ततियाए अंतरिअगं पंगुरणं, अहवा अंतरिजं हेट्ठिमपत्थरणं उत्तरिजगं पेच्छाओ, उझियधम्मियं चउत्थे | च, दव्वादि आलावगसिद्ध, सिणाणादिणा या घडगं मक्खुउ धोवति, दब्बतो सीयं णो भावतो, फासुगं, भावतो उसिणं तधोदगं, | दोहिं सित्तं सचिचो होति, उसिणं उण्होदयं तिलकंदादी, कुंडलादी अंतो अंतेण सब्बो उक्खलित्ता सअंडं वत्थं, अणलं अपज|चगं, अथिरं दुबलंग, अधुवणं पाड़िहारियं, अधारणिजं अलक्खणं, एतं चेव न रुचति, अहवा तुण्णियकुट्टियपञ्जवलीढे ण गेण्हेज, | विवरीतं गेण्हेआ, ण णत्रए इमे वत्थंति कटु बहुदिवसपिंडं तं बहुदिवसितं, बहुदिवसतं बहुगं वा बहुदिवसित, लोद्धादिणा | सीतोदएण वा, एवं दुम्भिगंधेवि, जाहे पुण तिनं होति किहा, कप्पे या कते, ते णो अणंतरहिताए पुढपीए धूणा वेली गियुगं उमरो | कुरुमुयागं उक्खलं मुसल बा, कामे वलं हागपी, कुले पंगट्ठो दिग्धोलि यो घरे जिदिग्वा ते कुड्डा जे अंतिमपच्छिमा ताओ मिचीओ | 'सीला, सीलाए च लेलू लहुओ, बंधादी पुचभणिता, झामथंडिल्लादिसु, अतो वजा । वझेषणायाः प्रथमोशका समाप्तः।। वस्थेसणाए वितियाए धारणा, इंगालधूमपरिसुद्धं, परेवच्चं, एसणिजाई आहापडिग्गहिताई विमोहावयणे जिणकप्पितो एसेज, दीप अनुक्रम ४७५४८५] ॥३६४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | प्रथम चूलिकाया: पंचम-अध्ययनं “वस्त्रैषणा", द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: [368] Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन[५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [३१५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १४१-१५१] ॥३६५| N प्रत वृत्यक [१४११५१] श्रीआचाचीवरमादाप गाहावति पहिया विहारभूमि वा गामाणुगाम तिब्वादि शतंगादिसुण कप्पति मुहुनगं २ दिवस अहोर पक्खं मासं | 0 पात्रेषणा रांग सूत्र- जत्तियं वा कालं, असादुस्स मा पाडिहारियं निण्हेन्तु, आयरियपेसणेणं गतो एमताणिउ सो तत्थ कजे समत्तिवि अगिलाणो, ण य गिलाणकओण, एगागी पंचाहा परेण, विप्परिवसितसिद्ध नेणं, तेण उवही उपहाणविऊ, तं उबहिं जाणिऊर्ण उवहिं सामि|णाणं गिहियब्बं अन्नेसिं दायच्वं मम उवयंति पामिजिआचि, तो विपरिगहणत्ततो अनं गेण्हेजा, णवरं धूतायारेहि परिहराहि चा, ण पलिछिदिय परि०थिर संतं ससंधियं, संधी नाम ओबी तं वोलीण, तसचेत्र णिसिरिज, एवं निम्घोस, सब्बोमाइद्वाणर्ण उवहि हणावितो तं ताणि उस्सवेतुं परिट्ठाण्यवं, वान्नाई करेजा, पावगंणाम अचोक्वं भण्णाति अदत्तहारी, आलावगा | 'जद्दा रियाए, इति वौषणा परिसमाप्ता ।। दवपादं तिविहं, भावे अप्पा सीलंगसहस्साणं भाणं, जिणो एग घरेति, एगम्मि म वितियम्मि पाणर्ग, मत्तओ अपरि| भोगो, सण्णाभूमि गच्छंतस्स भवति, हारपुटं ते लोहिगं चेय पादं, बिल्लगिरिमादिणा भोतुं कीरति, चम्मपादं चम्मकुतुओ, | उद्दिष्टं लाउगमादी, पेहाए एरिसगं संगतियभनओ, वेजयंतियं पडिग्गहिओ, अहवा संगतियं च, पादा बारा वारएणं वा होति, तिणि वा, तत्थेग देति, जत्थ पत्रयणदोमो णस्थि, वेजयंति णाम जत्थ अन्भरहियस्स रायाहियस्त, सयादि घण्णो उस्सवि कालकिचे वा, भजिया हुँदं छोढुं णिज्जति, उझियधम्मिय, सेसा सब्बे तेल्लादी आलावगसिद्धा, पाषणायाः प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥ गाहावतिकुलं पविढे पेहाए पडिलेहेतु पडिग्गहियाो अवहट्ठ पाणे अवणेतु रिय पमञ्जियं पमञ्जिय परियाभाएति, छुभितु ३६ दीप अनुक्रम ४७५ ARSECPRAMOH ४८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं “पात्रैषणा", आरब्धं प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं “पात्रैषणा", प्रथम उद्देशक: आरब्ध: [369] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], नियुक्ति: ३१५...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १५२-१५४] श्रीआचा- रांग सूत्र चूर्णिः ॥३६६॥ प्रत वृत्यक [१५२१५४ पडिगं, परहत्थगर्य ण गेण्हेअ, आहश्च गहिते गिहत्थो एस चेव उ दए, जति परिसहारति लद्धं, अनत्थ वा उ पत्थह, अञ्चहिं तणे पक्खिवति, सपडिग्गह परियसति पडिग्गहए व संताए उच्चो दारए जोएा, तडीए ठाति, ताए लोटेति, ससणिद्धाए वा | पुढवी आयरति, उदउल्लससणिद्धं पडिग्गहियं आमज पमज अंतो संलिहति बाहिं गिल्लिहति उबल्लेति उपवेति आयवेअ पताविज।। इति पात्रैषणा समाप्ता॥ । उवग्गहेकणिक्खेवो दम्चे सचिचादी तिविहो, लोइओ लोगुचरिओ य, सचिनो सेहो अचित्तो वस्थादी मीसे स भंडमनोवधिगरणे उ, लोगोवि जहासंभ, खेनेवि उड़ादि सिते गामे रण्यो वा, एगदिसि छदिसिं बा, काले उडुवढे वासारते घा, भायोग्गहो दुविहो-मतीए गहणतो य, मती दुविहा-अत्थोग्गहणमती बंजगोग्गहणमती, छबिहो चउनिहो होइ, गहणोग्गहे अममत्ते अपरिकम्मा, परिणामा न मम एतं अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरियणस्स परिहारिते अपडिहारगा जा जपणा, अहया | | देविंदाइ पंचविहो उग्गहो, अहया इमो गहणो समणा भविस्सामो अकिंचणा, दब्वे अपुत्ता अपन, भावे अकोहादी, गहो परतः परिग्रह इतिकृत्वा आदौ परिग्गहणं पापं, हिंसादिसेसरक्षणार्थाय उम्गहो वणिजति, सम्बं अदिनादाणं पञ्चक्खामि, तं कहि , गामे नगरे वा लोइयं गतं, लोउत्तरं उडगादि, छत्तगं देसं पडुच्च जहा कोंकणेसु, णिचं वासत्ताणा ओलंति उडएण, सत्राभूमी गच्छतो अपणो अदिस्संतो अणुमवेत्ता णो तिसंधा, गामादिसु वा अणुण्णवति, ओगिण्हति एकमि, पगेण्डति पूणो २, से आगं| नारेसु वा आरामागारेसु वा इस्सरो राया, भोइओ जाव सामाइओ, सामाइओ समधिष्ठाए, पसंदिट्ठो, गाहाबतिमादी, सम| गुण्णेण तेण सर्ग असणं, ण या एगल्लविहारी परवेयावडिया, परसंतिएणं अण्णसंभोइए, पीढएण वा फलरण वा सेजासंथारपण | | ॥३६६॥ दीप अनुक्रम ४८६ AN ४८८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं “पात्रैषणा", द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: प्रथम चूलिकाया: सप्तम-अध्ययनं “अवग्रह प्रतिमा", आरब्धं प्रथम चूलिकाया: सप्तम-अध्ययनं “अवग्रह प्रतिमा", प्रथम उद्देशक: आरब्ध: [370] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१५५ १६२] दीप अनुक्रम ४८९४९६] “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [३१६-३१९], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १५५-१६२] श्री आचा रांग सूत्र चूर्णिः ॥३६७॥ उवणिमंतेज, सूईपिप्पलगमादी, अनंतरहिया सब्वे, सब्बे आलावा आलावगसिद्धा इत्यवग्रहप्रतिमायाः प्रथमोदेशकः ॥ उग्गहे य दब्वशेषं, से आगंतारेसु वा आरामगारेसु वा 'पुत्रभणियं तु भण्णति' किं पुण तत्थोवग्गहे समणा पंच, माहणा घीयारा, डंडए वा छत्तए वा, वाशब्दाद् हत्थेण वा किंचि उबगरणं, णो अंतोहिंतो चाहिं णीणिआ, सुतं वाण उडवेति, उट्ठेहिं अम्हेहिं एस वसही लद्धा णो वासिं अप्पत्तियं करिजा, एरिसए कारणड्डिया उच्चारपासवणे जयगाए, क्षेत्र संघाइए वेरतियं करेंति, अंबवणे ण वट्टति, दारुयअड्डिमादी दोसा, कारणे ओसहकओ सट्टो मग्गिओ भणति - भगवं ! अंबद्धादे कस्सवि गंधेण चैव विणरसति वाहीति सन्बईए गिलाणो, जहा वा हरीडयीए गंधेग विरिचति एयाए किल, सडमादी ण कप्पति, अप्पंडादी कप्पति, भत्तए अर्द्ध, पेसी चउभागो, दोदृगं छह्निमोयगं, गिरो बसालओ, कोंकणेसु अतिरिच्छच्छिन्ना वकविच्छिन्ना अन्यो| च्छिन्ना वा जीवेण विणिभिन्नं, उक्खुवणेवि अंतरुच्छुगा पव्वसहितं पव्वरहियं खंडं, चोदगं च्छोति वा, मोदगछोडियतं उच्छूसगलगं, छड़ी उच्छुसगलगं, चकली चकलिरेव, लसुणेवि चोहओ, वाहिकारणे लसुणेवि भासिय, इकडाडि तष्णो अच्छि दिय विच्छिदिय २ परिभुंजिय २ सच पडिमा तजातिया उग्गहमग्गणा सच्चा सचण्डं अभितरा, तहा पिंडमरगणा पिंडेमणाणि, एवं सन्चपडिमा पढमा संभोइयाण सामण्णा, वितिया गच्छवासीणं संमोइयाणं, ततिया अन्नसंभोइयाणं, कारणे तेण लब्भंति, अहालंदिया वा आयरियस्स गिव्हिंति, सुचत्थावसेसो आवन्त्रपरिहारियोवि गेण्हति, कारणे तथा पडिमा चउत्थी गच्छे ठिओ जिणकप्पातिपडिकम्मं करेंतस्स, पंचमा जिणकप्पियस्स पडिमाए पडिवण्णगस्स बा, पच्छिमाओ दो वि जिगाणं, छट्टो अंतेहिंतो बाहिं णीणेयच्चा चाहिताउ वा अंतो ने यच्चा, अलाभे उकुडुगणेस जिओ, समिती अहासंघडं तम्मि व संस्थिता अंतरवादी वासं, सुयं मे आउसं! मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकायाः सप्तमं अध्ययनं “ अवग्रह प्रतिमा”, द्वितीय-उद्देशक: आरब्धः [371] अवग्रह सप्तकं ॥ ३६७॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१६३ ] दीप अनुक्रम ४८९४९६] श्रीआचासंग सूत्र चूर्णिः || ३६८ ।। “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [२], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक [-] नियुक्ति: [ ३२० ], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६३] तेण भगवया पंचविहे उग्गहे परूषेयवे, एवं पिंडेसणाणं सहज्झणाण य । इत्यवग्रहप्रतिमाः समाप्ताः ॥ सत्तिका वितिया चूला, दारा अणुपुथ्वीए अहिगारा एमसरगा, उडाणे पगतं तं पुत्रं भणितं लोग विजये, पिसीहियाए छकं, णिसीयणं णिसीहिया, दग्वे कोंचफलेण पंको णिसियति, अहवा दव्यनिसीहिया बसही सज्झायभूमी वा खित्ते जंमि खिते, जत्तियं वा खेतं फुसंति, काले जंमि काले जतियं वा कालं, भावे उदइयाई जेण भावेण अच्छति, सरीराओ उच्छलति- णि फिडबति | तेण उच्चारो, स्रवतीति तेण परसवणं, कई तमयाणमाणस्स ठाणनिसीहियं उचरणं वा संजम सोही भवति १, उच्यते, मुणिणा छकायदयावरेण, छ रूवे, रूवर द्रव्यस्य जो संठाणाकृतिरेव तं रूवं जतियं खित्ते पिच्छति जंमि वा खेते रूवं वणिजति, कालरूवं | अणादीयं अपअवसियं, जहा हरितं साद्धलं प्रावृषेण, तत्कालरूपं, भावतो वण्णं कसिणं जह भमरो कसिणोववेतो, सभावो वा जहा | कोहपरिणतस्त्र रूवं, कालगं मुहं, अच्छी य रत्ताणि भयंति, जहा रूत्रणेण दाइयं, अहवा 'रुट्ठस्स खरा दिट्ठी उप्पलधवला पसन्न चित्तस्स ।' तहा सदो जं दव्यं सदपरिणयं, जहा कंसताला घंटासदो वा, खेत्तसदे जतिए खिते सुब्धति, जहा बारसहिं जोयणेहिंतो, | जंमि खिने सो कीरह, कालसद्दो जहनेणं एकं समयं उकोसेणं आवलियाए असंखेजड़भागो, भावसो गुणेण किचियं, जहा | उसमसामी पढमं जायो णरवई, धम्माण कलाविहीण विभासियन्ना, छक्कं परमं तदन्नपरमाणु परमाणुस तदव्ययरो, परमाणु दुपदेसियस्स अचदव्यपरो अ, से दो सर्पतीए द्विताण जे परिता तेसिं गाहेहि देहि वा, कम्मपरो परमाणूतो दुपदेसिओ, जीवो पोग्गलविसेसा, परो दुपदादि, एवं अनेवि, जयमाणस्स जं परो करेति, कंठथे। इदाणिं सव्वेसिं सुतालाबगा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकखेट्टाइए, सर्जडादिसु ण ठाएखा, अनंतरहिताएं पुढवादी जाय आइण्ण, सलिक्खा आलाचगसिद्धा, गामादिसु मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीया चूलिका- “सप्तसप्तिका " द्वितीया चूलिकायाः प्रथमा सप्तसप्तिका 'स्थान विषयक' [372] अवग्रह सप्तकं ॥ ३६८ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], ससैकक[१], उद्देशक [-1,नियुक्ति: [३२०], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६३] श्रीश्रादा गंग मूत्रघृणिः प्रत वृत्यक [१६] Dएगो बा २,३,४, तेहिं सद्धिं एगततो ठाणं ठाएमाणो आलिंगणा बजेज, जम्हा एते दोसा तम्हा अंतरा सुवंति, दो हत्था अणा- समा.का: बाधा, चउहि द्वाणं द्वारा, अचित्तं अबसजिस्सामि, अमञ्जणं अवत्थंभणं, हे खंभादिसु वा पडीए वा, पट्टीए उरेण बा, | अवलंबणं हत्थेणं, लंबंता परिस्संता, अग्गलादिसु अवलंबति, द्वाणे परिच्चाओ, कायविपरिकमणं सचियारं चंकमणमित्यर्थः, उच्चा-IN पासवणादिसु भवति तं जाणेजा, मणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्मामि, कहं सन्निरुद्धं , अन अज समेति अप्पतिरियं एगपोग्गलदिट्ठी अणिमिमणयणे विभासियच, परूदणहकेसमंसू, पदम हाणमत्तिकर्य समान ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अमिकखेज णिसीहियं उवागच्छित्तए जहा ठाणसनिकए पढमावअणिसीहियासत्तिकग, | सऑर्ड थंडिलं ण उवागच्छति, अप्पड उवागच्छति, पादपुछणं स्पहरगं तं गहाय सतं, सए असंते णडे हिते बिस्सरिते उल्ले वा परा| यग जाएतावि गिझंति, बोसिरति विसोधेति णिल्लेवेति एगई, गाहा खदाइसंनिरुदे' पडणादिदोसा, बीयाणि पडिसारेति बा| पडिमाटिस्संति वा स्खलगादिसु, काहिति वा अचणिया, काया चीपहिं द्वाति, तिसु वा द्वाति हाविस्संति वा खेतादिसु अणं-10 नरहियादि जाव पंधो भणितो, आगंतगासु वा आरामागारेसु वा, उजाणं जत्थ उआणियाए गंमति, णिजाणं जस्थ मत्थो आधा-10 सेति, गिहा एतेसु येव, अद्यालगएर चरिया, अंतो पागारस्स अट्ठहत्थो, दारं च गोपुरं, पागारो, तत्थ छताणं पंतावणादी, दगमरगो मग्गो णिका सारणी वा पाणियाहारिपंथो, गत्लागारं तं चेव पडिबंध, मिभागार रहसंद्वियं, कोडागार धनमाला, जाणसाला मग-1 डादीणं, पाहणमाला पलहादीणं, तणसारा था, लीच्यभचि तुमसाला कुंभकारा जत्थ तुसा दुवेति जनगोधूमाण, तुमसाला पला-14 | सरस भरिता, गोमयसाला ठाणुंडगा करीमो वा, महाकुलं रायादीणं, महागि राउलगिह, श्रावासो श, इत्थीणं जा सणाभूमी दीप अनुक्रम [४९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: दवितीया चूलिकाया: दवितीया सप्तसप्तिका- 'निषिधिका-विषयक' एवं द्वितीया चूलिकाया: तृतीया सप्तसप्तिका- 'उच्चार प्रश्रवण-विषयक' [373] Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], ससैकक[२,३], उद्देशक [-],नियुक्ति: [३२०-३२२], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६४-१६७] प्रत वृत्यक [१६४१६७] श्रीआचा- काइयभूमी वा गिहमज्ज्ञ, गिहमुहं अग्मुमरो, गेहिंदुवार उग्घाडचारिया, मिहंगणं उग्वाडं, साराणंतरं, गिहरवं पुरोहडं, मडगं मृत-| सप्तसप्तकाः रांग सूत्र | कमेव, वच्चं जत्थ छवियति, उज्झति जत्थ तंछारियं, मडगलेणं मतगगिई, जहां दीये जोगविसए वा, धूमिया चियंग, चूर्णिः इंगालदाहसि वा जत्थ इंगाला डझंति, खारो जत्थ तिनकुंतलया डअंति, गावीसु रमंतीसु ममगाई सरीराई उक्समणत्थं डझंति, ॥३७०॥ | अडिगाणि वा, गाविआलोगे जत्थ गावीओ लिहंति, मट्टियाखागी जत्थ कुंभारा मट्टियं खणंति, लोगो वा, सेओ पाणियमि-IN स्सतो पंको, जत्थ खलु पतिपण मो, जत्थ उल्लिया भूमी, आययणं, एतेसिं डाणाणि देसो वा उंबरपब्वंसि बा, पव्वं णाम जत्थ । पचा पुष्फा फला वा मुकविजंति, णग्मोहआसट्ठपिलुक्ख पिप्परि, मालुगा वल्ली भवति, वणे वत्ति अंबवणमादी, चंपगवणमादी पत्तोवगतं, वल्लीपुष्फोवगा जहा पुन्नागा, फलोवगा जहा कविस्थादी, णिच्छा उवगा, तंजतणं मंदिरुक्खादी, उपयोगं गच्छंतीति | उवगा, से भिक्खू वा २ राओ वा वियाले वा, वारगं णाम उचारमत्तओ, अप्पणगं परायगं वा जाइत्ता अमिग्महिओ धरेति न | णिक्खिवति, विगिचति वोसिरति, विसोहिति निल्लेवेति सेतमादाणं झामथंडिलादीसु परिहावेति, तृतीयं समाप्तं ।।। हामणिसीहिगाउच्चारभूमि पत्तस्स रूवाई, तेहिं रागो दोसो वा ण कायचो, से मिक्खू वा २ वा जहेब जाई रुवाई 'ण सका चक्खुविसयमागयं ण दट्टुं जंतनिमित्तं गमणं तं चयेज्ज, तंजहा-वष्पाणि वा पुनमणिताई, कन्यादीवि य भणियधा, गाममादीणि पेच्छामो आगाराओ य पासायंताओ, पहाविते तेसिं चेब, जहा सोपारए लित्ता, महामहाचि एतेसि महिमा, उम्मगं | बालमादी, णगरस्त वा, गामवहाणि गामघायाणि, आसकरणाणि आसा सिक्वाचिअंति, रहचरियादिसु जह हत्थी सिक्खाविअंति, | वेलुम्गाहा गहिता, उट्टगोणमहिसा, उढाणाणि चेव सण्णादी, जुदाणि. तेसिं घेव, मेंदगादीण य णियुद्धं, सविवसं खलीकरेति, ३७०॥ दीप अनुक्रम ४९८५०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीया चूलिकाया: चतुर्था सप्तसप्तिका- 'शब्द-विषयक' एवं द्वितीया चूलिकाया:पंचमा सप्तसप्तिका- 'रूप-विषयक' [374] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], ससैकक[४,५], उद्देशक [-],नियुक्ति: [३२३-३२४१, [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६८-१७१] RADITION प्रत वृत्यंक [१६८१७१] श्रीआचा D| उज्जुहियाणि गावीओ उबद्धणातो अडवितेणं उज्जहंति, णिज्जूहियाणि णिखोडिअंति गावी ओ येव जोइजंति वा, मिहो जुहिगाणि, रांग सूत्र | परियाणगं च उंचराणं, हयाणीयाणि वा अणियम्गहणा चत्तारिवि अणियदंशणाणि, एगो वा एगपूरिसं बा , नवरं सेहस्स चूर्णिः दरिसिअति थिरीकरणत्थं, ओप्पाइतावि केवलपुस्तकवाचणाणि, माणुस्माणि याणि जत्तासुहवाणि, जागाणं गोणाणं च जह कंव||३७१॥ लसंवला, अहवा माणुस्साणं चेव एवं विहं जामणविआर्हि गामिजंति रेखा, अहवा गट्ठ सिक्खाविन्ताणं अंगाई णामिजंति, जोई-DA सत्थे कहियाई कव्वाई, धण्णाई वा पारमिता गधेतुं, कमवित्ताण पाउरणाणि कीरति, तं जाणरुक्खाई मग्गो, दटुं सवरभासाकलहाणि जहा सेंधवाण भासाओ, वेराणि गामाईणं, सग्गामा वा, जणवयाणि चेव जणायाणि जत्थ सभामाईसु जगवया बढुति, कहकम्माणि वट्टाति सरूवायारस्स वा पोत्थगा, कहिगादी, चितागं लेप्पारमादी, गंथिमाग पुष्फमादी, वटीसम विहागर्ग, पूरिमो रहो, संघातिमो कंचुगो महतो । से भिक्खू बा २ इच्छा ण बा, से भिक्खू वा २ महामहाणि बहुरयाणं ससुरउमादि, बहुणडाणि जहा इंदमहे, सब्वतालायरा बहुसढाणि, सरक्खगतला मनहजागएहि, मिलक्खूणि आभासियाणि, ण वा तेसिंग परिच्छि अंति। से भिक्खू वा २ इहलोइयं मणुस्साणं पारलोइंग दियगतादी, अहना जहा धम्मिलो इहलोइएसु परलोइएमु | IV संवदंतो (बंभदत्तो, सेसं कंठध, एवं सदाइपि संखादीणि तताणि वीणावचीसमुग्घायादीणि वितताकि भंभादिकणाईलउलकुटा सुसिराई | | सपञ्चगादिपव्वादीणि सई सुणेन्ताणं, जतो जाति पिक्खतो वणिजंतेसु चारगादीणि जाति । पंचमं सत्तसत्तिकग समत्तं॥ परकिरिया परेण कीरमाणे कम्मं भवति, किरिया कम्म, अध्यात्मकं तस्स २ करेंतस्स, जति सात कर्ज साएति, अध्या- 10 | त्मस्थिता अम्भत्धिया, संसयता संजोयो भवति तत्थ अमत्थेणं, ततो कर्मसंश्लेषो भवति, तम्हा णो सादिजेजा, सा य इमा दीप अनुक्रम [५०२५०५] ॥३७१७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीया चूलिकाया:षष्ठा सप्तसप्तिका- 'परक्रिया-विषयक' [375] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक[६], उद्देशक [-],नियुक्ति: [३२५], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७२-१७३] संग सूत्र प्रत वृत्यक [१७२१७३] श्रीआचा- सिया मेरा, आमज्जेज वा पमज्जेज वा एकसि पुणो पुगो, सादिजणा करायेति करेतवा वा, ण वा करते समणुजाणेजा, समणु- | समतप्तका DIमोदणा परियाइक्खिा , मक्खणा उचलणधावणा आलावगसिद्धा, णहा पदा फुसिता कोविता अलतगं गिण्हंति, एवं काएवि, घृणिः एवं कार्यसि वणं गलगंडादि, अरतीओ अंधारईओ. असियाओ अरिसाओ, पिलगा भगदलं, अपानप्रदेसे मत्थेण अच्छिदणा ॥३७२।। विचिदणा, सीतोदगादि उच्छोलणा, तेल्लादि आलेवणा, जतो उठुवर्ण जाते उवि अति उठ्यवितो व सज्नति, पालुंकि| मितो भगंदलाओ, कुच्छिकिमिता गंडलगा किमिया य, से से परो दीहाओ सिहा अग्गगाई कप्पेति छिंदति संवदेति समारेति, कण्णाणि अच्छिफुमणं कम्मघं पदंसेयच्वं, सेश्रो प्रस्वेदो, जल्लो कमढो मल्लो, पायवो रुक्खो, रेसो चेव पाणिस्स पंको भवति, अणंतरं पुण आगंतारे कोउच्छंगो, एगम्मि जुष्णगो उक्खि ने, पालियंको दोसुवि, अणुफासणं थोवं पातुं पच्छा दंसणं, एवं अणुपालणंपि, मूलाणि वा, पाहणाओ, कमाणि सुद्धेण बहबलेण विजामंतादिणा, तम्हा अपडिकम्मं मरीरेण होयम्ब, किं कारणं ? जेण तिगिच्छा, एवं रसाणीए पचंति, पयंति भाणवा, पचंति पूर्वकृतेन कर्मणा, ते पचमाणा अन्योऽन्यपि संतापयति, यदुक्तमातापयं-10 तीत्यर्थः, इति साम्प्रतं पाति, तेवि एति एयंति अणंतगुणं कटुगवियाग कम्मं एति, करोत्यस्मिन्निति कटुं, पतेति कर्तारं एति कर्म, कटु कडाणि वेदेति, कृत्वा च कृतानि च वेदेति कर्माणि कम्म इत्यर्थः, वेदणं चिर कारए बाएम, वेदणया वेदणापि Mविदार्यतो विगतो भवति कर्मणां ते पच्छा प्रकृतिपुरुषेश्वरनियतवादीनां विगमनं विविक्तिः, अथवा कृत्वा यदुक्तं भवति फुमति MIच, तम्हा संपर्य ण करेमि दुवं । छटुं सत्तिकर्य समाप्तमिति ।। अण्णमण्णकिरिया दो सहिता अप्णमण्णं पगरेंति, ण कापति एवं चेष, एवं पुण पडिमापडिवण्णाणं जिणाणं च ण || दीप अनुक्रम [५०६५०७] MONDA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: द्वितीया चूलिकाया: सप्तमा सप्तसप्तिका- 'अन्योन्य क्रिया'-विषयक' [376] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [७], उद्देशक [-,नियुक्ति: [३२६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७४ भीआचा- रांग सूत्रपण ॥३७३|| प्रत वृत्यक [१७४० कपति, थेराणं किंपि कप्पेञ्ज, कारणजाए कुजावि, भाषितव्यं विभूसापडियाएवि, निम्गमो सो चेच, गवाणं वत्थाणं रयहरणादि- भावनाबदा आलावगा, अविया मतिलाणि विभूसापडिया धरेति, वरं अन्नाणि लमंतो। इति सप्तमं सत्तिकगं समाप्तम् ।। संबंधो-केण सो आयारो? केवतितो? भगवता, आचारवस्थितेन वा भावणा भावेयच्या, इमा वा इत्तियातुला, भावणात्ति भावयति तमिति भावयति वा अनया भावनया, अज्झासो भावणति वा एगटुं, णिक्खेवो चउबिहो, दवे गाहा, दवं गंधM गाहा (३३०) गंधंगेहिं वत्थे माविजंति, तिला य पुष्फमालादीहिं, आदिग्गहणा कविल्लुगादी भाविअंति सीतभावं चणकट्ठ-16 काणं, सियवल्ली एगा वालाणं, मियाणं घोडगाण य, आदिग्गहणा आगदीहिं भाविति, भावे दुविहा-पसत्था य अपसत्था य,। अपसत्था पाणवहमुसाबाया (३३१) पाणवहा पढमं घिणाति पच्छा णि« ईहेति, वीरल्लसउणं वा, मुसाबाते वाणियगाणं च,। | अहवा दसणाणचरित्ते गाहा (३३२) जहा य भावेयव्या तासिं लक्रवर्ण वोच्छामि सुलक्षणतः आत्मीयदसणं भावणा, अप्प| सत्था धीयारवच्छल्लगाणं तम्भचा ओचिट्ठभायणाणि गिव्हंति, अप्पगं बलं दावेंति, नाणेवि अप्पसत्था-दंभकाराद्धितिं कृत्वा, नीतिलाघवमासुरैः। नातिसक्ष्ममुलूकादि, तापिआकरणायशः ॥११॥ चरिचेवि जहा वृक्षमूलिकायां एवमादि, ताहे तवे पंचग्गिताबणादी, वेस्गे सते कवलंतस्स कुब्जंमि पुरे लिख्यते, तं पासिता वेरम्गं भावेति, एसा अपसत्था, इमा पसत्था दसणे 'तित्थ-IN गराणं' गाहा (३३३) जहा भगवं जोयणणीहारिणा सद्देण धम्मं कहेति, सव्येसि सभासाए परिणमति, जहा 'एकरसमंतरिक्षात०' कस्सऽष्णस्स!, एवं पययणे दुवालसंग गंभीरं, सव्यतो रुई, प्रवचनं वेत्ति प्रावचनः, सव्वो दसपुव्वी चउदपुग्नी-पभू ! | घडाए घडसहस्सं, अनिसाचारादी, इड्डी विउव्वणादी जहा 'इत्थी असी पडागा' एतेसिं अप्पसस्थाणं अतिकमणं दूरस्थाणं ||1||३७३॥ दीप अनुक्रम [५०८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: | तृतीया चूलिका- “भावना” आरब्धा: [377] Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन[-1, उद्देशक [-],नियुक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७५-१७९ + गाथा:] NO भावनाध्ययन प्रत वृत्यक [१७५१७९] गाथा: श्रीआचा-1 | गथणं, दरिसणेणं कित्तणाए संधुयणाए पूयणाए दंसणभावणा, सणसुद्दी य भवति, अहवा ठाणं इमं 'जंमाभिसेग'गाहा (३३४) रांगसूत्र जंमभूमी, अमिसेगो,अमि० यस्थ,जस्थ रायाभिसेओवा, निक्खमाणं जहिं णिक्खंतो,चरणं कम्मारगामाअद्वियगामादि,जस्थ हिंडतो, चूर्णिः णाणुप्पभूमी णिवाणभूमी भावेंतस्स आगाई दंसणं भवति, एवं दियलोए विमाणभवणेसु मंदरणंदिस्सरभोमणरगेसु ॥३७४॥ पवेश्यपृया, अट्ठापदादि (३३५) पाससामिणो अधिछत्ताए, पाव चने स्थाविते, जत्थ वा बहुस्सुता कालगता अइच्छिताइया विहरंता वा, चमरुप्पायं च, णिरणचष्णुता वा जत्थ पवयणा, इदाणि (३३६) गणितं वीयादि णिमित्तं अटुंगं जुत्ती सुवण्णादी जोणीपाहुई वा, संदिट्ठगाई एयाई, अवितहाई नाणादि, नान्यसमयेषु एतानि, एगत्ते उबगता दर्शनभावना इत्यर्थः, गुणपञ्चझ्या गुणनिष्फन्ना, इमे अस्था गणियादी (३३७) पपयणीणं गुणमाहप्पं जहा विण्हुअणगारस्स इच्छियसिद्धिदाति वा, इसिणामकित्तणं इसिमंडलत्थउ सुरपूजितो, हरिएमादी, सुरिंदेण अजरविता, नरिंदपूजिता मरिचीहंढादि, पोराणचेइयाणि काइत्तारे जुन्नस्वा-11 मीत्येवमादि, अतिसतो तिविहो-ओहिमणपसबकेवलागि आमोसहाइ वा, इही विउवणादि, दसणभावणा । णाणे णाणेण भावेति (३३८-४०) तत्थ जीराजीवादीनां पदार्थानां च नाणं इह दिटुं जिनप्रवचने वा, इह ज्ञाने लोके वा, कअं फलं, कारण नाणादी ३, कारकः साहू, सिद्धी, बन्धमोक्षे, सुहबद्धो जीवो, बंधहेतुः मिथ्यादर्शनअविरति बंधनं अष्टप्रकार कम्म, बंधफलं तद्विपाको, एताणि इह सुकधियाणि, संसारपवंचो इह कहितो जिणवरेहि, जेण 'अत्थं भासद अरहा सुत्तं' इमे य गुणा"पंचहिं ठाणेहि सुतं अहिजेजा-नाणनिमित्तं", एवं पंचहि ठाणेहि सज्शाए आउंनो, एवं वायणादी, सज्झाए आउत्तयाए य | गुरुकुलवासो भवति, किंच 'जं अन्नाणी कम्मं खनेति 'एसा णाणेण भावणा 'साह अहिंसाधम्मो'गाहा (३४१) साहु अहिंसा दीप अनुक्रम [५०९५४०] ॥३७४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [378] Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन[-], उद्देशक [-],नियुक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७५-१७९] भावनाध्ययन प्रत वृत्यक [१७५१७९] गाथा: आचा- धम्मो, सुट्ट सोहणो अहिंसता धर्मः, एवं सेसव्वतेहि, एते मूलगुणा, साहू पारसविही य तवो, उत्तरगुणा, वेरगं विसएसु) ग सूत्र- आयसरीरया, अप्पमादो खणलवपडिबुझणातो, एग 'जायत्येको मृयत्येको' अहवा 'एगे मे सवे' अप्पाए सितं, अबंपि। चूर्णिः जं किंचि चरित्तभावगं चरित्तवृद्धिकारगं च, सा चरित्नभावणा इति, चरित्तमणुगता, अणुगता अनुसता इत्यर्थः, इदाणिं तव३७५॥ भावणा 'किह मे होज अवंझो' गाहा (३४३) निनीतियादिणा तवेणं, किं वा पभू समर्थः, काउं. तवं, को इध दब्वे जोगे णिफावचणगादि अहोरत्तस्स को जोगो तवो, तहा पणीतं लभंतस्स दब्ब, को वा खिने मंगुलखिते सोमणे वा जो जोगो, | काले बरिसारिने गिम्हे वा जोगो, भावे दुब्बलयं धितिमंतं च जाणेचा जो जोगो ओच्छाह(बल)गाहाओ (३४४) तवे य बारPA सबिहे गिहियध्वे पालेयव्वे य इति तवभावणा, संजमसंघयणा तबवेरग्गेसु समोयरंति, संजमसंघयणगुरुता बेरग्गे, वारसविहा अनित्यता, अस्सवण्णं वर्णयित्वा चरित्तभावणाए इह अध्ययने एगतं, केण एयाओ उपदिट्ठाओ ? केण वा भावियाओ :-तेणं | कालेणं तेणं समएणं० तस्मिन् उबवायसमए इत्यर्थः, हत्थो जासिं उत्तरार्ण आसन्ने हत्थस्स वा जाओ आसमाओ ताओ हत्थुतराओ, चयं चयिता, इह जंबुद्दीचे दीवे, नान्येपु, असंख्याता जंबुद्दीवा, आहारभवसरीरेसु बोच्छिण्णेसु दावेसु, तिणाणोवगतेति तित्राणे, एगसमए जोगो णत्थि तेण ण याणइ चयमाणो, ओहीरमाणी ईसि वियुज्झमाणीए निदाए, हिताणुकं० हितं अप्पाणं। सकस्स य, अणुकंपओ तित्थगरस्स, अदुधित्तएत्नि अवाबाहं तिष्हवि, उम्मिजलमालओ मिजले तद्भवति उम्मिअलमालं उम्मि| अलमालतुल्ला उम्मिजलमालभूता, देवेहि ओवयंतेहि कह कहभूतो, सोभणा मतिः सन्मतिः सन्मत्या सह गतः सहसमु(संम)दियाए, अचले परीसहोवसग्गेहिं भयभेखाणं खंती अहियासइत्ता पडिमाओ पालए अरतिरतिसहे इदि, श्रेयः श्रेयसि तस्मिन्निति धेयांसः, दीप अनुक्रम [५०९५४०] ७५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [379] Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७५१७९] + गाथा: दीप अनुक्रम [५०९ ५४० ] “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७५-१७९] बीआचा रंगसूत्र चूर्णिः ॥३७६ ।। | विदेहेन विदेहवदिना, विदेहजचा, प्रियं करोति प्रेयकारणी, नास्य पओजणं, अणोआ सेसवर, दविणजातस्य पती, दक्खे क्रियासु पतिष्णो जाणकः, पडिरूवो रुवाइगुणो, भद्रस्वभावः भद्रकः मध्यस्थ इति चिणीतो विग्पादिगुणजुत्तोविण माणं गच्छति, णातपुतेवि ण थट्टे, णातकुलाआतः, विदेहदिन्नोति विदेहाए जेणित्थ जातो विदेहवर्चभूतो वा, गुरूहिं अन्भणुन्नातो दोहिं वासेहिं गतेहिं, मणुस्सधम्माओ मणुस्सभावो सोइंदियादि वा णाणं बुज्झाहि चरितधम्मे, अंतोदीपं दीपशिखावत् सव्वाओ, विधिअपियट्टा सरीराओ, पोरिसपमाणपत्ता चतुभागो, मंजुमंजुत्ति मधुरं, अपडिवुज्झमाणेण विभाविञ्जति, रोरेणं कंको भवति, छिन्नसोतिति इंदिय सोएहिं न रागद्वेषं गच्छति, कहं छिन्नसोते हैं, कंसपादी दिहंतो, उदगं कंसभाणे ण पविसति, एवं भगवं उदगं ण पविसति, संखे जहा रंगणं ण गेण्हति एवं भगवंपि कम्मं, जीवो अपडिहयगई एवं भगवंतो जत्थ सीतउण्डभयं वा, जत्थ न पडिहम्मति गतिगममि, एवं भगवं ण किंचि अवलंबति तवं करेंतो देविंदादी, एवं वसहीए गामे वा अपडिबद्धं, सारयं न | कलुस, पुक्खर० एवं कम्पुणा गोवलिप्पति, कूर्मवत् गुप्तेन्द्रियः विहग इव ण वसहीए आहारोव घिमित्तब्य पुच्छति, खग्गविसाणं व एवं एको चेव, रागदोसरहितो, भारंडवत् अप्रमत्तः, कुंजर० सूरभावो सौर्य सोडीयं वा, एवं परीसहादीहिं ण जिजति, सेसा | जहासंभवं वचा, जचकणगं वा जातरुवे पुणो कम्मुणा ण लिप्पति, बहुसहा वसुंधरा एवं भगवं दयतो सचित्ते दुपदादिसु अचि ते | वज्झचामरादिसु मीसए आसहत्थिमादिसु सहत्थिउत्तेसु खित्तकालभावेन, बुध्यतो बोधिवान्, अनतरं नाणं लोगप्रमाणं ओधी, पव्वइयस्स चचारि नाणाई जाब छउमत्थो, खाइयं दंसणं अहक्वायं चरितं सुचिभावो सोवचिका तेसिं फलं परिणिव्वाणं वस मग्गो नाणादी ३, झाणंतरिया सुडुम किरियं असंपतं, अरहंति वंदननमंसणाई, जिणा जिण कसाया, तत्र अभिप्राय: अध्यवसायः !, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [380] भावनाध्ययनं | ॥ ३७६ ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन[-], उद्देशक [-],नियुक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७५-१७९] प्रत चूर्णिः वृत्यक [१७५१७९] श्रीआचा-श्रुतं पडिसेवियं, आविः प्रकाशे कर्म, रहः अप्रकाशं रहो कर्मः, अरहारहसि कृतानां मानसिकानां भाषानां प्रकाशकतानां च काइकानां रांग सूत्र- वेत्ता भगवं जानको इत्यर्थः, तं तं काल तीतानागतवर्तमानं तिहि जोगेहि वट्टमाणाणं, सब्बलोए उड़लोए अहोलोए तिरियलोए, सबजीवानां तसथावराणं भावे जाणमाणे पासमाणे विहरति, अजीवाणं च, अभिसमिचा ज्ञात्वा, किं कृतवान् ?, धर्म आख्याति ॥३७७॥ जीवनिकाये तेभ्यच विरमणं, वट्टमाणेह, ताव आतिक्वे एतन्मात्रं, णस्थि उत्चरिएणं, एतद्विशिष्टो एतद्वयतिरिक्तो वा आख्याति, | पूर्वः भावाः, एतव्यतिरिक्तो न कश्चिद्धमोऽस्तीति तम्हा चुते पढमे महब्बए, तस्स उपसंपजनार्थ, ज्ञानभावना दर्शनभावना चोक्ता, चरित्रभावनेयमपदिश्यते, भावयतीति भावना, यथा शिलाजतो आयसं भाजनं विपस्य कोद्रवाः, सिद्धाय गाहार व इमा भावना, Vतत्र इमा पढमा रियासमितेणं गच्छंतेण य भवियब, एसणासमिति, आलोगपाणेति, आलोगो प्रेक्षणा, आदाणं दोसाणं आपजेत VAI पाणादि, निक्खेवणासमिति, आदाणग्गहणेण वतिकायाण सप्तभंगा वायासमितिरुक्ता संजमे, इदानीं आध्यात्मिकी मणसमिति, कही, जे य मणे पावए सकिरिए, एवं बई व, अहासुतं जहा सुत्ते भणित, अहाकप्पं जहाविधि, अहामग्गं जहामग्गं मग्गो । | नाणादि, अहातचं जहासत्यं, हासं परिजाणे न हसे इत्यर्थः, हसंते संपाइमवायुवहो, इसंता किल संधेत मुसंवा त्यात , अणवीयि पुच्वं बुद्धीए पासित्ता, कोहे पुत्र अपुत्रं भूयात् । इह परत्र च दोष ज्ञावा, कुंचंच कार्याकार्यानभिज्ञः, लोभस दोपां ज्ञात्वात | परिक्षाने, भयसीले उरगजातीओ, आचार भणति, तइएणं अदिन्नादाणसंरक्खणथं अदिण्णादाणे णियत्ति च भावणा, आगंतारेसु अणुचिन्ता उग्गहं जाएज, पभुसंदिट्ठाइसु उग्गहणसीले, एतेण डगलच्छारमल्लगउच्चारादिसु अणुष्णविअति, जइ सागारियस्स, || उम्गहो ततो मनःसंकल्पः कल्पते, ते संघाडइल्लगादिसु अणुण्णावंतु, भंजेज जहा रातीणिया, गंतओ वा साभिएसु जाएत्तु ततो || गाथा: दीप अनुक्रम [५०९५४० ॥३७७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [381] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७५१७९] + गाथा: दीप अनुक्रम [५०९५४० ] “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [३२७-३४१], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७५-१७९] श्रीआचा संग सूत्रचूर्णिः ॥ ३७८ ॥ चिडिज वा जाव पताविज वा, तिनि रागादि तिदोसा, धंमिए अह एगो सामिउग्गहो, णो पणीयं आहारिअ, पणियं णि, रुवपि णातिबहु, संनिसिजत्ति भोदेवरिता उ विविधो भंगो विभङ्गः चित्तविभ्रम इत्यर्थः, धम्माओ भङ्गः पतनमित्यर्थः, अह | णिदेणं विभूसाए हत्थेण पादधोवणादी वत्थाणि च सुकिल्लादि वंदियमुलादीणि मनसः इष्टानि मनोज्ञानि, मणं हरतीति मणोहरणाई, नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई पो इत्थीणं कहूं कहिचा, इत्थिपरिबुडे इत्थियाणं कहेति, परिग्गहे पंचसु विसएसन रागदो गच्छति, गजोक्तोऽर्थः पुनः श्लोकैरेव समनुगयते, तद्व्यक्तिर्व्यवसायार्थ, पुनरुक्तोऽनुगृहाति, रियासु नित्यं समितो सताज पेक्ष्य मुंजुते पाणभोयणं, आयाणणिकखेवे दुर्गुछति अपमञ्जितादि सत्त, सम्यक् आहितो समाहितो, संजमए- निरंभए अप्रशस्तं मणवड, हस्स समानस्य असचं भवति, कोहलोभभयानि च त्यजेत् छहए इत्यर्थः सह दोहरातेण, दीहरायं जावजीवं, समीक्ष्य, एताए भावणाए मुसं वज्जए। समये च उम्महे जाइतच्चए घडति, समं पराइयं जंतिकाय अणुष्णाया, ताणि मतिमां जिसम्म जाणितु, अहियचा व परिभुंजे पाणमोयणं, साईमियाणं उग्गहं च अहिए, आहारे भुने वित्तसिता जो स्त्री न पेहए, संघविजति ण संवसेज, तंमि संमं बुद्धे, सुमचि आमंत्रणं, खुड्डा इत्थिगा, तासिं कहा खुट्टाए कहा न कुर्यात्, धर्मानुपेक्षी संत्रसेज्ज, एवं बंभचेरं दुबिहाए संघणाए, अहया सद्धए बंभयेरं जे सद्दरूय० आगमे आगंते तेषु विपयातेषु वा, धीरो पयपदोसा, द्वेषं तं न करेति पंडिते, स दंते इंडियनोइन्द्रियैः स विरतः स चाचिणः, अकिंचणो अपरिग्रहः, सुसंवृत्तः पंचर्हि संचरेहिं णवं ण कुजा विधुणे पुराणं कर्म, आर्यगुप्तः स्थित इत्यर्थः अहवा जो धर्मो उक्तः, वृत्तो भणितो इत्यर्थः, अहवा अज धर्मः योन स्थितः अविरतः समभवति स च पुण जातिमरणं उवेति संसार इत्यर्थः । इति भावनाऽध्ययनं परिसमाप्तम् ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [382] विमुक्तयध्ययनं ||३७८ ।। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा M, अध्ययन[-], उद्देशक [-1,नियुक्ति: [३४२-३४६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७९/गाथा: १-१२] प्रत विमुक्त्यध्ययन वृत्यक [१७९] गाथा: १-१२ श्रीआचा-10 संबंधो-एयाओ भावणाओ भावेतस्स कर्मविमुक्तिर्भवति, अहया इहवि भाषणा एव तस्स अणुयोगदारविभासा, अधिगारो रांग सूत्र- य से पंच अणिचे पथए रुप्पे गाहा (३४५) जो चेव होइ मोक्खो (३४६) कंठयं, णवरि णिक्खेको दश्वमुत्ति जो जेण चूणिः दव्वेण विमुञ्चति यथा निगडेविमुक्तः, भावविमुनी कर्मक्षया, स च भावणाजुत्तस्स, ताओ य इमाओ भावणाओ अणिचतादी, ॥३७९॥ अणिचमाचासमुति जंतवो (१३६ सू०) माणुस्सं वासं सरीरं वा अणिचं, अहवा सव्य एवं संसारवासो अणि, उतिप्राप्नुवन्ति, जंतबो जीवा, लोइया पासितुं सोचा समिच जाणेतु, इतरकालीयं इतरं, मभिवि अणिचते, जहा देवाणं चिरकालदुिईणं | ण तहा मणुस्साणं आउं, इदं तु अल्पकायस्थितियं संसारं च कदलीगर्भणिस्मारं ज्ञात्वा तस्मादयस्थे(व्युत्सृजेन् ), जे तु विष्णुविद्वान् , अकरणं, अकारणबंधणं, तं तु इत्थिगा गिह वा, किं एतदेवमिति ?, उच्यते इदमन्यत्-अभीतो परीसहोवसम्गाणं, आरंभो| परिग्गहनिमिनं भवति, आरंभपरिम्गहो अतस्तं आरंभपरिग्गहं न कुर्यात् , छड़े चए वोसिरे इत्यर्थः, एवं सेसनता अधिगता । तं | च एवंगुणजातीयं जहा पस्साहि अत उच्यते-तहा गतं भिक्खुम (१३७६) जहा तित्थगरगणहरा गता तहा गतः, तंजहा| कहं ?, उच्यते, भिक्ई अगंतेहिं चरित्तपञ्जवेहिं संजतं, जायजीवं संजयं वा, अपोलिसं असरिसं नाणादीहि ३ अन्नउत्थियादीहिं | वा असरिसं, चिण्हचिट्ठ-सचरितं, एसणंति एसमाणं एसणं, कस्स? मोक्खमग्गस्स संजमस्स वा, तुदंति 'तुद् व्ययने' केण | तुदंति ? वायाहि अभिभवंता अभिवं, नरा मणुस्सा, जहा सरेहिं संगामगतं कुंजरं जोद्धार अभिद्रचंता तुदंति एवं तं भिक्ष | गारा अपंडीयाहिं तुदंति, जहा कोलियचमारा अलसगसामाइगा गहवति, दरिदा एते पबहता, तहाविहैण (१३८*) तहापगारेण, जणेण बालजनेनेत्यर्थः, हीलते जिंदप, कई हीलेति? सदफासेति स इति णिदेसे स मिक्स् , अहया सह सद्देहिं फासा सपहारा दीप अनुक्रम [५४१ ||३.७९॥ ५५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: चतुर्था चूलिका- “विमुक्ति" [383] Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा M, अध्ययन[-], उद्देशक [-1,नियुक्ति: [३४२-३४६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७९/गाथा: १-१२] प्रत वृत्यक [१७९] श्रीआचासंग सूत्र चूर्णिः ॥३८०॥ गाथा: १-१२ | फासा इत्यर्थः, फरुसा णिठुरा अमनोज्ञा, उदीरिता प्रेरिता, तितिक्वएत्ति 'तिज निशामने क्षमायां च नाणेत्ति विदिते परा- विमुक्त्य| परझो, उक्तं च-'आक्रुष्टेन मतिमता' विद्यते वैद्धा(द्विष्यते दुइः) तेण अदुवचेवसत्ति मणसान पदुस्सति, कुतो वाया कम्मणा ध्ययन वा, कहं ?, जहा गिरि वातेण ण संपवेवए 'वेष कंपने कंपये इत्यर्थः कुतो?, वैराग्या संजमदर्शनाद्वा। उयेहमाणो (१३९*) केसु उवेहं करोति ? तेसु बालजणेसु, तेहिं वा फरुसेहिं सदफासेहिं उवेहं करेमाणा कुसला जे अहिंसादिसु वटुंति तः सार्दू संवसे, अहिंसणेणेव संबसे इत्यर्थः, किंनिमित्तं ?, जेण अर्शनदुक्खा , अकंतं अप्पियं, अप्रियदुक्खा इत्यर्थः, के ते?, तसथावरा, दुहीये ते संसारे चिट्ठमाणा, तम्हा एवं णचा अलूलए, अल्लूसएतिनो हिंसए, सब्वे पया सब्बजीवा, मब्बासु पयासु । दया परा यस्य यस्य दयावीरो वा, तहत्ति जहोवदिटुं भगवता तेन प्रकारेण, हि पादपूरणे, सेत्ति निदेशे, योऽधिकतो भिक्षुः17 सोभनको श्रमणः सुसमण इति उच्यते भवति, एवं सेवावि वता, किंचान्यद ? विष्णु विद्वान् , स नतेति प्राप्तः, कं?-धर्मपदं चरित्रमित्यर्थः, अहवा णातकवतेण ये धर्मपवापदं, कीदृशं ?-अणुत्तरं तस्माद् अन्यत् शोभनतरं न अणुनरं, अत्तस्तस्यैव विदुषः न | | तस्य धर्मपदं, विनीततृष्णस्य नातृप्तस्य इत्यर्थः, मुनेयितः, किं भवति ?, समाहि तस्य ध्यानादिषु यथा अग्नि इंधनादितस्य घृनावसिक्तस्य वा शिखा व ति, केन?, तेजेन, सिहा जाला, तेजो दीप्तिः, एवं स मुणितो तेग प्रवजया जसेण य बहुते, जसो संजोगो, अवा नाणदंसणचरितेहिं पडुति, किंच-तकते द्योतते ? दिसोदिसिं (१४१४) सब्यासु खिचदिसासु पण्णवगदिसा वा प्रतीत्य मनुजा तिरिया वा, अणंतो संसारो सो जेण जितो स भवति अणंतजिणो तेण अणंतजिणेणं, तायतीति ताई तेण ताइणा, | किं कृतं ? भावदिसाओ पालणत्थं मता, खेमा अपमादा जेसु महब्बएसु ते खेमंकरा वा, महव्यता खेमंकरा वा, पवेदिता कहिता, दीप अनुक्रम [५४१ ५५२] all॥३८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [384] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा M, अध्ययन[-], उद्देशक [-1,नियुक्ति: [३४२-३४६], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १७९/गाथा: १-१२] ध्ययन प्रत वृत्यक [१७९] श्रीआचा|| तेण अनजिणेण ताइणा, महगुरुनि दुःखं ते धरे महब्बते, गुरु च महागुरुं णिस्सीकरेति, खईतेत्ति यदुक्तं भवति, कहं ? विमुच्यरांग सूत्र- क्षपणकरा उदीरिता प्रेरिता, जहा तमेव तेजत्तिदिशं तम अंधकार, तेउ आदियो, तिदिशि उड़े अहे तिरिय, जं च तमं । चूणिः नाशयति प्रकाशयति च, एवं ते महाव्रता प्रकाशाः। किंच-सितेहिं भिक्खू (१४२%) सिता बद्धा अष्टविधेन कर्मणा, अहवा ॥३८॥ प्रतिहिं पासेहि, असितो गिहपासनिग्गतो कर्मखवणउज्जतो वा, संमं बजे परिव्रजेति, असजमाण इति, कमिन् , इत्वीसु, इत्थी गुरु-1 यतरा, मूलगुणा हिता, उत्तरगुणा-जहेज पूयणं पूयणं सकारः, स एवं मूलगुण उत्तरगुणावस्थितो ण इहलोगपरलोगणिमित्तं ।।। तपः कुर्याद् , जहा इहलोगनिमित्तं धम्मिलो परलोगनिमित्तं बंभदत्तो, अणिस्सिते अनामृत इहलोगं, परलोग-ददं ण पर-11 लोग, तहा परं कामं एवं गुणजुत्तो ण मिजति ण भरिआइ कामगुणप्रत्ययिकेन कर्मणा, न वा मूळति, अहवाण विजतेजो हि जहिं वदति मो तहिं विजते दृश्यते, नहा विमुक्तस्य (१४३६) वेण प्रकारेण मुक्तस्य परिणा-बानं परिणा चरतीति | परिणचारी तस्व परिन्नाचारिणः, घितीमतो-धृतियुक्तस्य, दुःखं परीसहोवसग्गो तं खमिति-अहियासेति महति तस्य दुक्ख-3 | क्षमस्य, कस ?-भिक्षुणो, किं भवति ? उच्यते-विमुञ्चति(विसुज्झइ)निट्ठति मलं कम्मरयं वा पुरे भवे कडं पुरेकडं असंजमेणं, कहं | - बिसुज्झति ?, समीरितं-रूपं सम्यक् ईरितं प्रेरित इत्यर्थः, रूप्पं समलं किटो सो अग्गिणा तावियस्स फिदृति (१४४६) सच्चेवंगुणजातीओ यो भिक्षुः, कस्मिन् च व्रते परिज्ञानसमए-ज्ञानोपदेशे वर्तते, उक्तं च-"ज्ञातागमस्य हि फलं." निरासंसः आसंसा. प्रार्थना, सा च इहलोगे परलोगे वा, तत्र प्रार्थयति, आरते उबरतः मेहुणा चरे-विहरे, यः एवं चरेत् स कर्मभ्यो विमुच्यते, कह ? भुजंगमे, भुजंगमः सर्पः जीर्णत्वचं जहा त्यजेत् , दुहसेआसंथारा संसारा विमुच्यति, कः', माहणः जमाहु ओहं (१४५*) ANDINESHPAHILunee FRana गाथा: १-१२ दीप अनुक्रम [५४१५५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [385] Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७९] + गाथा: १-१२ दीप अनुक्रम [५४१ ५५२] “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः + चूर्णि :) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [४], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-] नियुक्ति: [ ३४२-३४६], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७९/ गाथा: १ - १२] श्री आचा गंग सूत्रचूर्णिः ||३८२ ॥ जं आह-उक्तवान् तीर्थकरो ओहं सलिलं अपारगं यस्य पारं न गम्यते, कस्य :-महासमुद्रस्य वा महासमुद्र इव पाहि दुत्तरो एवं संसारो दुत्तरो अणुपातेणं, अधस्तं परिजानाति दुबिहाए परिष्णाए जेण उवाएण उत्तरिजति, जाणित्ता य करेति स पण्डितः स मुनिः स ओहंतरः स चातकरति उच्यते, अन्यच्च जहा य बद्धा (१४६) जेण प्रकारेण जह रागादिभिः समतीता तिष्णि तु इह मनुष्यलोके, केन बद्धा ? - कर्म्मणा, के नहा ?, पया नाम जीवा, जहां बद्धाणवि परो वेरमणाद्यैस्तपसंजमेण वा, अहा तहा यथातधत्वेन बंधमोक्षं ज्ञात्वा कृत्वा च स अंतकड इह उच्यते । तस्यैवंगुणयुक्तस्य इमंमि लोए (१४७%) परमपदो इमो लोगो माणुस्सभवो परो देवलोको उभए वा इद्दलोगे परलोगे, उभए वा बंधनं कर्म तत्तस्य न विजते किंचिदपि, पच्छा तस्स वोच्छिष्णस्sधणस्स किं भवति १, उच्यते-से हु निरालंबण: आलंवर्ण- सरीरं अमरीर इत्यर्थः, न कर्म तस्मिन् प्रतिष्ठितं सो वा कर्मसु पसत्था, तस्स को गुणो भवति १, उच्यते-कलंकली संकलेया भवसंततिः आउगकम्मसंतती वा, पांचो हीणमध्यमोत्तमपदा नृत्यखीनपुंसक पितापुत्रमादी नदयत् कलंकलीभाव एव प्रपंच: तस्मात्कलंकली भावप्रपंचाद्विमुच्यते पुमान् वा, प्रकामं मुच्यते विमुच्यतेति निव्वाणं गच्छंतीत्यर्थः, वेमित्ति न सयं तीर्थकर उपदेशात् आचार्यसुधर्मो त्रवीति, अथवा भगवान् श्रीव मानस्वामीति, अथवा अस्य वृत्तार्थस्य अयममिसंबंधी तस्थाकर्मचारिणोपसंपन्नस्य चतुर्थचूलोपचारिणः प्रमादाचरितं पंच साहूणो मल्यते स्थितौ शेषं तदेव || इति आचाराङ्गचूर्णिः परिसमाप्ता ॥ प्रत्नानामप्यादर्शानामशुद्धतमत्वात् कृतेऽपि यथामति शोधने न तोषः परं प्रवचनमक्तिरसिकता प्रसारणेऽस्याः प्रयोजिकेति विद्वद्भिः शोधनीयेपा चूर्णिः क्षाम्यतु चापराधं श्रुतदेशीति । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि : आचाराङ्गसूत्रस्य जिनदासगणि विहिता चूर्णि परिसमाप्ताः विमुक्तयध्ययनं मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] [386] Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः। 101 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “आचारांगसूत्र" [भद्रबाहूस्वामी रचिता नियुक्ति: एवं जिनदासगणि विहिता वृत्तिः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “आचार" चूर्णि:” नामेण परिसमाप्त: Remembar it's a Net Publications of 'jain_e_library [387]