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आगम
(०१)
प्रत
वृत्यंक
[१६०
१६५]
दीप
अनुक्रम [१७३
१७८ ]
श्रीआचारंगसूत्रचूर्णिः
॥१९२॥
“आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्ति: + चूर्णि :)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५] उद्देशक [५] नियुक्ति: [ २४९...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १६०-१६५]
संगतं वा जं तस्स, समियंति मण्णमाणस्स, संविग्गभावितो संविग्गाणं चैव समासे पव्वइओ, एगदा कयाह, अहवा एगभावो एगता पब्बजा, एगता गिहत्थेहि कसाएहि वा असंकप्पो, वितियस्स समिति मण्णमाणस्स एगया असमिया भवति सो संविग्गसाबओ णिव्हगसगासे पव्वइओ, महुराकुंडइलाण वा, पच्छा गेण जातं, अविकोविओ वा उस्सन्नसगासे, पच्छा सो समोसरणादिसु पंथे वा मेलीणो पुच्छिओ दुट्ट ते कर्तति, जइ लक्खणा चेव पडिकमति तो से सो चैव परिताओ, अह पुण सयं ठाणं गंतुं परेहि वा चोदितो अच्छछ यो वा बहुये वा कालं तो पुण उबद्वाविअह, ततिओ संविम्गभाविओ चेव असंविग्गाणं चेवंतेण | पथ्वयति, संकितो पुण मां हु एते णिण्हगा भवेज, पन्चयामि ताव पच्छा जं भविस्मति, संविग्गेहिं संमिलीहामि, एवं पव्वहओ | पच्छा यऽणेण णातं जहा एया जिव्हगा समोसरणादि सेसेसु संजरसु संभिमाणे, पण्णवगाए वा आयारेण वा पच्छा आलोयए, पुणो उबट्ठाविज, चउत्थो मिन्नदंसणोऽभिसंकितचित्ताण चेव समासे पञ्चइओ, तं चैव से रुचितं, एवं दुहतोवि अमिता जाता ओसण्णाण वा एते चैव चत्तारि भंगा दोसु ठाणेसु समोयारिअंति, तंजहा-समियाए य असमियाए य, आदिला दोणि समियाए इतरे असमियाए, तत्थ सुतं 'समितंति मष्णमाणस्स समिया वा असमिया वा होइ उवेहाए' इक्ख दरिसणे, उविच्च इक्खा उविक्खा, पढमस्स उवेहमाणस्स, वितिए पुण ते व्हिए णाऊणं जं तव्वाबारे उदेहं करेति, जं मणंतु तं भणंतु जं करेंतु तं करेंतु वा, जाब विसुद्धदंसणे साहू पासामि ताय आभोग करेड, मा मे ते विच्छुभिस्संति, अहं च अव्वतो अजवि, ताहे सो पण्ण- विअंतो वा असमासु उबेहं करेति, तस्स एवं सा असमिया एवं भवति उवेहाए, वितियविगप्पे तु असमियंति मण्ण माणस समिया वा असमिया वा समिया होइ उवेहाए, असमिया चैव भवति विकोविजमाणस्सवि सम्मछिट्टिएहिं तेसिं पत्रयणे उविक्ख
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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| समितादि
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