________________
आगम (०१)
“आचार” - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [५], नियुक्ति: [२४९...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक १६०-१६५]
श्रीआचारांग सूत्रचूर्णिः ॥१८॥
प्रत वृत्यक [१६०१६५]
Vइदसाम्य लभ्य वेमि, तत्थ यतिरित्तो दव्वहरतो, परिगलणसोतो णाम एगो णो परियागलणसोतो पउमद्दहाति, परियागळणसोतो णाम |D | एगो गो परिगलणसोतो जहा लवणसमुद्दो, एगो परिगलणसोतोऽवि परियागलणसोतोऽवि अहा णीलवंतद्रहातिगंगाकुड एत्र
मादि, एगो गो परिगलणसोतो णो परियागलणसोतो जहा बाहिरया समुद्दया सासयपुस्खरिणीओ वा, एवं सोतप्पबहे णाम एगे | नोसोयपडियच्छए, सोतप्पडियच्छे णामेगे णो सोतप्पवहे, एवं सेसावि भंगा, पडिपुण्णो णाम आईयाराइपुण्णो, जे वा हरयगुगा I | तेहिं पडिपुण्णो, पसण्णतो यो जलएहिं उत्सोमितो चिट्ठति 'समंसि भोमे चिट्ठतीति णिचकालं सगुणेहि य पडिपुष्णो | चिट्ठति, ण कयाइ सुण्णो जलजेहिं, उवसोमितो अणुतीरतरूहि य पत्तपुष्फफलच्छायोवएहिं 'समभोमे' समे भूमीभागे, ण गिरि-11 | सिहरे ण वा विसमे, सुबउयारउत्तारो य, ण साबएहि सीहाइएहि अनभिगम्मो, उवसंतरए अणेगपुरिसउवेहे, पसण्णपंको णिप्पंको | | वा सैवालरहितो, एगे भणंति-पउमातिरहितोबि, तत्थ सुहं दिस्संति पंककंटाइणो जालाणिगला वा, पति आगासेण पक्खी । || गच्छति तस्सवि च्छाया दिस्सति, उवसंतरयत्ताओ य मच्छकच्छभे सारक्खति, ते ढकादि जालगलातिए य दक्षंण मअंति, तले | वा लग्गति, सारक्खमाणो इत्र सारक्खमाणो, से चिट्ठति, ण सन्चो णिग्गलते, 'सोयमज्झि'त्ति ततियो हरतो जत्थ सोताणि आग-110 | लंति परिआगलंति य तम्हा ण खिञ्जइ पेजमाणो य दुपयचउप्पदापदेहि विगेहि य, एस दिलुतो, अयं अत्थोवणओ-एवं सो | गुरुकुलबासी आयरिओ जुत्तो पडिपुष्णो अट्ठविहाए गणिसंपयाय, तत्थ पढमो सोतप्पवहो ण तु सोयपडिच्छतो तित्थमरो, | वितियो जिणकप्पियो, ततिओ गणहराई, चउत्थो पत्तेयबुद्धो य, ततिएण अहिगारो, पडिपुण्यो सो य आयरियगुणेहिं चिति, माणा अवट्टिनायारो जर्ग जगं समासज पडिपुण्णो, समभोमेत्ति आयरियभूमीए माहुभाषिते खित्ते पउरप्णपाणसुहविहारे सुह- ॥१८९॥
दीप अनुक्रम [१७३१७८०
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
[193]