Book Title: Vajjalaggam
Author(s): Jayvallabh
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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-505:५१.९]. जोइसियवजा ___502) विउलं फलयं थोरा सलायया' तु पि गणय कुसलो सि ।
तह वि न आओ सुक्को सच्चं चिय सुन्नहियओ सि ॥६॥ 503) उज्झउ सो जोइसिओ विचित्तकरणाइ जाणमाणो वि।
गणिउ सयवारं मे उहह धूमो गणंतस्ल ॥७॥ 504) जइ गणसि पुणो वि तुमं विचित्तकरणेहि गणय सविसेसं।
सुक्ककमेण रहियं न हु लग्गं सोहणं होइ ॥ ८॥ 505) मोत्तूण करणगणियं अंगुलिमेत्तेण जइ वि सो गणइ ।
अइणि उणो जोइसिओ कडुइ नाडीगयं सुक्कं ॥९॥
502) [विपुलं फलकं दीर्घा शलाका त्वमपि गणक कुशलोऽसि । तथापि नागतः शुक्रः सत्यमेव शून्यहृदयोऽसि ।। ] विपुलो विस्तीर्णः फलकः', थोरा प्रौढा शलाका, त्वमपि गणक कुशलोऽसि । तथापि नागतः शुक्रः सत्यमेव शून्यहृदयोऽसि । विस्तीर्णं रतिमन्दिर, दीर्घश्च प्रजापतिस्त्वमपि कुशलो यभने प्रवीणः । तथापि यन्न शुक्र समायातं, न द्रवीभतोऽसि, तज्जाने शून्यहृदयोऽसि ॥ ५०२ ॥
503) [ दह्यतां स ज्यौतिषिको विचित्रकरणानि जानानोऽपि । गणयित्वा शतवारं ममोत्तिष्ठति धूमो गणयतः ॥ ] विचित्रकरणानि जानानोऽपि दह्यतां स ज्यौतिषिकः । मम शतबार गणयित्वा धून उत्तिष्ठति गणयतस्तस्येति ॥ ५०३ ॥
504) [ यदि गणयसि पुनरपि त्वं विचित्रकरणैर्गणय सविशेषम् । शुक्रक्रमेण रहित न खलु लग्नं शोभनं भवति ।। ] हे गणक, यदि गणयसि पुनस्त्वं, विचित्रकरणैः सविशेषं गणय । शुक्रगमनेन रहित न खलु लग्नं शोभनं भवति ।। ५०४ ॥
505) [ मुक्त्वा करणगणितमङ्गुलिमात्रेण यद्यपि स गणयति । अतिनिपुणो ज्यौतिषिकः कर्षति नाडीगतं शुक्रम् ।। ] करणगणितं मुक्ता, अंगुलिमात्रेण अंगुलिरेखाभिर्यदि गणयति, तदा अतिनिपुणो ज्यौ तिषिक आकर्षति नाडीगतं शुक्रम् ।। ५०५ ॥
1G, I सलाइया, 2 G, I सुक्कगमणेण 3 I फलपट्टकः
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