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"हाँ, यही करूँगा! आनेवाली अमावस्या के दिन अंजन डालकर देखूगा, बाद में आपके यहाँ आऊंगा।" ___ "न, न, आप न आएँ । मैं ही आऊँगी। अभी मैं यहाँ जो आयी-इसकी भी खबर किसी को नहीं।" कहकर वह उठ खड़ी हुई और जाते हए बोली, "आपकी दान-दक्षिणा होनी चाहिए। जब मैं फिर आऊँगी तब दूंगी। ठीक है न?"
"जैसी आपकी इच्छा। मैं तो आपका सेवक ही हूँ!''
दण्डनायिका चूपचाप घर तो आ गयी। लेकिन उसका मन अभी वामशक्ति को छोड़कर आना नहीं चाहता था। अमावस्या तक उसका मन पण्डित के यहाँ हो डोलता रहा। उसके ये दिन करीब-करीब मौन ही रहकर वीत। यह देखकर दण्डनायक को भी आश्चर्य हो रहा था। हंग्गड़े परिवार के बलिपुर से आकर यहाँ रहने की बात मालूम हो जाने पर भी अपनी पत्नी द्वारा इस सम्बन्ध में कोई बात तक लाने प र क्या पदरी हो सकता था? मगर वह भी मौन ही रहे। अमावस्या के पहले तेरस के दिन, मध्याह भोजन के बाद जब पान खाने बैठे तो दण्डनायक ने अपनी पत्नी से हेगड़े परिवार के आने की बात कही।
“यहाँ कब पहुँचेंगे?"-दण्डनाधिका ने. पूष्ठा। ''आठ-दस दिन तो लग ही जाएँगे।" ।
"उनका निवास कहाँ रहेगा?" चामब्बे ने पूछा। मगर मन को यात मन में ही छुपाये रही। बताना ठीक होगा या नहीं-इसी दुविधा में रही। वह पहले दण्डनायक जी से इस बारे में कुछ सुनने के इरादे से प्रतीक्षा करती रही।
“अभी तय नहीं किया। दो-तीन निवास खाली हैं, राजमहल के ही हैं। आने के बाद जो उन्हें अच्छा लगेगा, दे देंगे। यही सोचा है।" ___"राजमहल वाले कोई स्थान उनके रहने को यदि तय करें तो स्वीकार नहीं करेंगे?
"युवराज की इच्छा के अनुसार उनके खास कार्यकर्ता बनकर आनेवाले हैं इसलिए उनका निवास राजमहल के पास ही रहे, यही हपारी और प्रधानजी की राय है। परन्तु राजमहल के पास वह निवास कुछ छोटा है, इसलिए यदि वह उनके लिए असुविधाजनक हुआ तो फिर कोई अन्यत्र देखना होगा। उनके आने पर ही अन्तिम निर्णय लिया जा सकेगा।"
"यूँ तो आपने और भाईजी ने ठीक ही सोचा होगा, फिर भी यदि आप अन्यथा न समझें तो मैं एक सलाह दूं?"
“सुझाने में बाधा ही क्या है? बताओ!"
"चालुक्य पिरिबरसी जी को अपने यहाँ जव रखा और युवराज भी जब वहाँ रहे तो हेग्गड़े का निवास बलिपुर में बड़ा ही रहा होगा। इसलिए यहाँ भी बड़ा
पट्टमहादेयी शान्तला : भाग दो :: का