Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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'सामायिक - भाष्य' सामायिक - अध्ययन की व्याख्या - रूप है ।
प्रारम्भ में जिनवाणी के प्रति नतमस्तक होकर और गुरु-चरण को साक्षी मानकर तथा दृढ़प्रतिज्ञ बनकर आवश्यकानुयोग का फल, योग, मंगल, समुदायार्थ, द्वारोपन्यास, तभेद, निरुक्त, क्रम- प्रयोजन आदि तथ्यों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। तत्पश्चात्, निक्षेप के भेद, अनुगम के प्रकार एवं नय के आधार पर व्याख्या करने के बाद अनुयोगद्वारों का विवेचन हुआ है। फिर क्रमशः पंचज्ञानवाद, गणधरवाद तथा निववाद की विवेचना हुई है। यहां एक बात यह समझने योग्य है कि प्रत्येक वस्तु की मर्यादा होती है। इस ग्रन्थ में 3606 गाथाएं हैं। यहां संक्षेप में इतना ही समझना है कि नय, निक्षेप, प्रमाण, स्याद्वाद आदि दर्शन - विषयक जैन- सिद्धान्तों की चर्चा के साथ-साथ पांच ज्ञानों के भेदों-प्रभेदों का विवेचन इस ग्रन्थ की मौलिक देन है। जैन दर्शन के साथ अन्य दार्शनिकों के सिद्धान्तों की समीक्षा इस कृति में गणधरवाद एवं निह्नववाद के रूप में उपलब्ध है। " गणधरवाद के बाद आवश्यकनिर्युक्ति में सात निह्नवों का ही परिचय है, लेकिन जिनभद्रगणि ने अपने इस विशिष्ट ग्रन्थ में इन सात निह्नवों के साथ आठवें 'बोटिक' नामक निनव का भी उल्लेख किया है, जिसकी मान्यता दिगम्बर - परम्परा के अनुसार है। आचार्य सिद्धसेन ने केवलज्ञान एवं केवलदर्शन को एकरूपता के रूप में स्वीकार किया था, लेकिन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपनी कुशाग्र बुद्धि के सहारे आगमिक - तर्कों, परम्पराओं अथवा मान्यताओं के आलम्बनों द्वारा ज्ञान, दर्शन की एकरूपता के सिद्धान्त का खण्डन किया तथा आगमिक - क्रमवाद का समर्थन किया है। जिनभद्रगणि की तार्किक - विमर्श की पद्धति मौलिक थी। उनके प्रत्येक निर्णय में अनेकान्तंवाद, स्याद्वाद तथा नय-निक्षेप की पद्धति का प्रयोग हुआ है। जैन-दर्शन के समग्र सिद्धान्तों को भाष्यकार ने भाष्य में समाहित करने का प्रयत्न किया है । इस भाष्य की महत्ता को प्रदर्शित करते हुए ग्रन्थ के अन्तिम चरण में भाष्यकार लिखते हैं कि इस सामायिक नामक भाष्य के पठन-पाठन, चिन्तन-मनन करने से प्रज्ञा विकसित होती है, साथ ही आगम में वर्णित विषय को ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त होती है ।
51 पण्डित श्री दलसुख मालवणियाकृत 'गणधरवाद' में आचार्य जिनभद्रगणिकृत गणधरवाद की विस्तृत एवं तुलनात्मक प्रस्तावना आदि हैं। गुजरात विद्यासभाभद्र अहमदाबाद की ओर से सन् 1952 में इसका प्रकाशन हुआ ।
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के नाम से भी जाना जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ आवश्यकसूत्र के
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