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प्रस्तावना
में तत्त्वार्थश्रद्धान को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि तत्त्वों के अर्थों के श्रद्धान अथवा तत्त्व रूप से अर्थों के श्रद्धान का नाम तत्त्वार्थश्रद्धान है और यही तत्त्वार्थश्रद्धान उस सम्यग्दर्शन का लक्षण है जो प्रशम, संवेग. निर्वेद, अनकम्पा और आस्तिक्य स्वरूप है। प्रशमरतिप्रकरण(२२२)में जीवादिकों के विषय में जो निश्चय से 'तत्त्व' इस प्रकार का अध्यवसाय होता है उसे सम्यग्दर्शन कहा गया है। बृहत्कल्पसूत्र (१३४) के अनुसार सुन करके....."जो तत्त्वरुचि होती है उसे सम्यक्त्व कहा जाता है । पउमचरिउ (१०२,१२१) में सम्यग्दृष्टि उसे कहा गया है जो लौकिक श्र तियों से रहित होकर जीवादि नौ पदार्थों का श्रद्धान करता है।
रत्नकरण्डक (४) के अनुसार परमार्थभूत प्राप्त, आगम और गुरु का जो तीन मूढ़ताओं से रहित. आठ अंगों से सहित एवं आठ मदों से रहित श्रद्धान होता है उसका नाम सम्यग्दर्शन है। परमात्मप्रकाश (१-७६) के अनुसार सम्यग्दृष्टि वह जीव होता है जो आत्मा को आत्मा मानता है। योगसार (48) में भी लगभग इसी अभिप्राय को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो सब व्यवहार को छोड़कर आत्मस्वरूप में रमता है उसे सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव शीध्र ही संसार के पार को पा लेता.. वह मक्त हो जाता है। दि. पंचसंग्रह (१-१५९) और भावसग्रह (२७८) में प्रायः समान रूप में यह कहा गया है कि जिन भगवान् के द्वारा उपदिष्ट छह, पांच और नो प्रकार के पदार्थों का आज्ञा और अधिगम से जो श्रद्धान होता है उसे सम्यक्त्व कहते हैं । तत्त्वार्थवार्तिक (१, १, १) में कहा गया है कि उपयोगविशेष से प्रादर्भत निसर्ग व अधिगम रूप दो प्रकार के व्यापार से युक्त जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसका नाम सम्यग्दर्शन है। इसका अनुसरण करते हुए त. श्लो. वार्तिक (१, १, १) में भी प्रायः इसी अभिप्रायो व्यक्त किया गया है।
श्रावकप्रज्ञप्ति (६२) में पूर्वोक्त तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य का अनुसरण करते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण बतलाकर यह कहा गया है कि उसके होने पर नियम से प्रशम आदि (संवेग निर्वेद, अनकम्पा और आस्तिक्य) प्रगट होते हैं।
धवला ( पु. १, पृ. १५१ व पु. ७, पृ. ७) तथा मूलाचार की वृत्ति (१२-१५६) में प्रशम, संवेग, अनकम्पा और आस्तिक्य इनकी अभिव्यक्ति को सम्यक्त्व का लक्षण प्रगट किया गया है। आगे इस धवला (पु. ६, पृ. ३८ तथा पु. १३, पृ. ३५७-५८) में प्राप्त, आगम और पदार्थ विषयक रुचि को दर्शन का लक्षण बतलाते हुए रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन इन शब्दों को समानार्थक निर्दिष्ट किया गया है। यहीं पर (पू. ७, पृ. ७) तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन अथवा तत्त्वरुचिको सम्यक्त्व कहा गया है। प. १३ (पृ. २८६-८७) में 'सम्यग् दृश्यन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्थाः अनया इति सम्यग्दृष्टि:' इस निरुक्ति के साथ यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि जिस दृष्टि के द्वारा जीवादि पदार्थ यथार्थ रूप में जाने जाते हैं उस दृष्टि का नाम सम्यग्दृष्टि है । प्रकारान्तर से यहां यह भी कहा गया है कि अथवा सम्यग्दष्टि के अविनाभाव से सम्यग्दष्टि जानना चाहिये । पू. १५(प. १२) में छह द्रव्य और नौ पदार्थ विषयक श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है।
वरांगचरित (२६-६१) में सम्यग्दृष्टि उन्हें कहा गया है जो जिनप्रणीत प्रवचन पर श्रद्धा करते हैं, भावतः वृद्धिंगत होते हैं और प्रत्यय भी करते हैं। हरिवंशपुराण (५८-१६) में तत्त्वार्थसूत्र के अनसार तत्त्वार्थश्रद्धानको तथा महापुराण (६-१२१ व २४-११७) में धवला (पु. ६, पृ. ३८) के अनुसार प्राप्त, आगम और पदार्थ विषयक रुचि या श्रद्धान को दर्शन या सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा गया है।
त. भाष्य (१-१, पृ. २६) की सिद्धसेन विरचित वृत्ति में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के घातक मिथ्यादर्शन और अनन्तानुबन्धी कषायों के क्षय आदि से जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट समस्त द्रव्यों और पर्यायों को विषय करने वाली जो जीव की रुचि प्रादुर्भत होती है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। प्रागे यहां (प. ३०) यह भी कहा गया है कि अविपरीत (यथार्थ) पदार्थों को ग्रहण करने वाली जो दष्टि जीवादि विषय का उल्लेख करती हुई सी प्रवृत्त होती है उसका नाम सम्यग्दर्शन है। यहीं पर आगे (१-७, पृ. ५५) मख्य वत्ति से जो रुचि-श्रद्धा-संवेगादि रूप ज्ञान लक्षण आत्मपरिणाम होता है उसे सम्यग्दर्शन कहा
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