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समाज एवं राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियों का उन्मूलन करने की उन्हें प्ररणा दी। समाज में व्याप्त गुटबन्दी को समाप्त कराने में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। दोनों पक्षों को समझाने के लिये आपने कई बार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का अनुसरण करते हुए अनशन रूपी सत्याग्रह का भी आश्रय लिया।
मुनि श्री ने अल्प समय में ही मराठी, कन्नड़ इत्यादि भाषाओं में विशिष्ट निपुणता प्राप्त कर ली। उनकी धर्मसभाओं में अमृत का निर्झर बहता था । बंगलौर उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायमूर्ति स्व० श्री टी० के० तुकोल के शब्दों में, "मैंने १९४५ में उनके दर्शन गलतगा ग्राम (बेलगांव जिला) के चातुर्मास के समय किये थे। वहां उनके उपदेश से अजैनों पर जो प्रभाव पड़ा था, उससे मैं चकित हो गया था। उनके उपदेश ग्रामवासियों के अन्तःकरण में सीधा पहुंचते थे। ग्रामवासियों की अनेक शंकाओं का समाधान करते हुए वे उनको णमोकार मन्त्र का जाप और सूर्यास्त के पहले भोजन करने की प्रेरणा देते थे।"
___ वस्तुतः सन् १९३६ से १९४७ के पूर्वार्ध तक दक्षिण भारत में एक गतिशील धर्मचक्र की भांति निरन्तर पदयात्राएं करते हुए आपने असंख्य व्यक्तियों को धर्म के स्वरूप से परिचित कराया और दक्षिण भारत के जैन वैभव एवं शास्त्र भण्डारों का सूक्ष्म अवलोकन किया ।
___इसी अवधि में दिगम्बर जैन समाज के महान् सन्तों का नकट्य प्राप्त करके आपने मुनि धर्म के सम्यक् स्वरूप पर गम्भीर चिन्तन किया । परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज द्वारा वन्दित, दक्षिण भारत के वयोवृद्ध दिगम्बर सन्त, आदर्श तपस्वी, अप्रतिम उपसर्ग विजेता महामुनि श्री आदिसागर जी महाराज के समाधिमरण के समय आप उदगांव में उनके वैयावृत्य की भावना से गये थे। परमपूज्य आचार्य श्री आदिसागर जी महाराज के आदर्श समाधिमरण के दृश्यावलोकन से आपको एक अपूर्व अनुभूति हुई। वास्तव में ऐसे प्रेरक एवं तेजोमय अवसरों से प्रेरणा पाकर मुनि श्री देशभूषण जी ने दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा के लिये प्राण विसर्जन की कला सीखी है। उन्होंने अपनी पदयात्राओं में अनेक अवसरों पर उपसर्गों का मुनियोचित क्षमता से सामना करके दिगम्बरत्व का नया इतिहास लिख दिया है । आपके मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण के कारण विपक्षो (उपसर्गकर्ता) भी धर्म की शरण में आकर धन्य हो गये । ऐसे में कौन विजित, कौन विजेता? समरस होकर एक-दूसरे के दृष्टिकोण के प्रति सहानुभूति रखना ही श्रमण संस्कृति की देन है । आचार्य श्री ने अपनी पदयात्राओं में भेद दृष्टि का उन्मूलन कर अनेकान्त धर्म की अमृत-वर्षा की है। स्वतन्त्रता-पूर्व के चातुर्मास
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने अपनी धर्मयात्राओं में बड़े शहर और छोटे ग्राम सभी को समान महत्त्व दिया है । मैसूर के राज्यवंश के संभ्रान्त प्रतिनिधि, बंगलौर एवं अन्य प्रमुख शहरों के प्रबुद्ध बुद्धिजीवी, दक्षिण भारत के ग्रामीण क्षेत्रों के कृषक एवं मजदूरों का उनसे सम्पर्क हुआ है और मुनि श्री ने सभी को अपनी धर्ममयी वाणी से लाभान्वित किया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व आपके चातुर्मास मांगुर, श्रवणबेलगोल, नागपुर, कोल्हापुर, शमनेवाड़ी, भोज, बोरगांव, पट्टणगुड़ी, स्तवनिधि, गलतगा इत्यादि क्षेत्रों में सम्पन्न हुए । भारतीय स्वातन्त्रय की पावन बेला में आप उत्तर भारत की सांस्कृतिक नगरी बनारस में पधारे । अपने बनारस प्रवास में आपने धर्म के विशद रूप की व्याख्या करते हुए जनसाधारण का राष्ट्र के निर्माण में सहयोग मांगा था। उन्होंने श्रमण परम्परा की परम कारुणिक दृष्टि का प्रतिनिधित्व करते हुए हिंसा के उन्माद की घोर भर्त्सना की थी और भारत के सांस्कृतिक मूल्यों के आलोक में राष्ट्रीय एकता को बल प्रदान किया था। एक धर्मगुरु के रूप में आपने बनारस स्थित जैन तीर्थक्षेत्रों, मन्दिरों एवं संस्थाओं के विकास में भी रुचि ली थी। स्वतन्त्रता-परवर्ती चातुर्मास
__ सन् १९४७ के उपरान्त तो आपने लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष की पदयात्रा करके तीर्थकर भगवान् की परमकल्याणकारी वाणी को संसद् के गलियारों से लेकर खतों व कुटियों में निवास करने वाले श्रमिकों तक पहुँचाया है। इस राष्ट्रव्यापी पदयात्रा में निम्नलिखित स्थानों को आपके चातुर्मास की धर्मदेशना प्राप्त करने का विशेष गौरव प्राप्त हुआ है१९४७
बनारस १९५४
जयपुर १६४८
सूरत १९५५
दिल्ली १६४६ आरा
दिल्ली १६५०
आरा १६५७
दिल्ली १९५१
लखनऊ १९५८
कलकत्ता १९५२
बाराबंकी १६५६
कोल्हापुर १९५३
टिकैतनगर १९६०
मानगांव
कालजयी व्यक्तित्व
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