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किया । स्थान-स्थान पर आपको श्रावक समुदाय ने भक्ति से प्रेरित होकर सैकड़ों विरुदों से सम्मानित किया है। किन्तु आचार्यश्री अब एक ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि उन्हें इस भौतिक मान-सम्मान में रुचि नहीं है।
आचार्यश्री के जीवन का अब एकमात्र ध्येय आत्मशुद्धि एवं अर्हन्त भगवान् का स्मरण रह गया है। किसी भी साधक की साधना का शायद यह अन्तिम ध्येय है । उन्हीं के शब्दों में-"मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा काम आत्मा की शुद्धि करना है............. ......"जीवन के प्रत्येक समय वीतराग सर्वहितकारी अर्हन्त भगवान् को न भूलो और न अपनी मृत्यु को भूलो।" जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमात्मा बन जाता है । उस परमात्मा की दो अवस्थाएँ हैं- एक शरीर सहित जीवन मुक्त अवस्था, और दूसरी शरीर रहित देह मुक्त अवस्था। पहली अवस्था को अर्हन्त और दूसरी अवस्था को सिद्ध कहा जाता है। आचार्यश्री की साधना का लक्ष्य भी मुक्तावस्था को प्राप्त करना है । उन्हें उनके अभीष्ट की प्राप्ति हो, यही हमारी कामना है और उसी में उनके कालजयी व्यक्तित्व की सार्थकता। अनथक पदयात्रा
जैन धर्म में मुनि के लिए २८ मूलगुणों का निर्दोष पालन करना आवश्यक है। ये २५ गुण इस प्रकार हैं
(१) पंच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । (२) पंच समिति-ईर्या, भाषा, एषणा, उत्सर्ग, आदाननिक्षेपण । (३) पंच इन्द्रिय निरोध-स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु और कर्ण। (४) प्रकीर्ण सप्त-केशलुंचन, अचेलक्य, अस्नान, भूशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन, दिन में एकाहार । (५) षड़ावश्यक क्रिया--सामयिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग ।
अहिंसा महाव्रत के पालन में ईर्या समिति विशेष रूप से सहायक होती है। आचार्य वट्ट कर विरचित मूलाचार में ईर्या समिति के स्वरूप का निर्धारण इस प्रकार किया गया है
फासुयमग्गेण दिवा जुगतरप्पेहिणा सकज्जेण ।
जंतूणि परिहरंतेणिरियासमिदि हवे गमणं ।। मूलगुणाधिकार, पद सं० ११ अर्थात् प्रयोजन के निमित्त चार हाथ आगे जमीन देखने वाले साधु के द्वारा दिवस में प्रासुकमार्गों से जीवों का परिहार करते हए जो गमन है वह ईर्या समिति है । सारांशतः जैन साधु द्वारा धर्मकार्य के निमित्त चार हाथ आगे देखते हुए दिवस (सूर्य उदित हो जाने के उपरान्त) में प्रासुक मार्ग से जो गमन किया जाता है वह ईर्या समिति है।
जैन साधु वर्षा योग (आषाढ़ सुदी १० से कार्तिक सुदी पूर्णिमा) के अतिरिक्त अधिक काल तक एक स्थान पर नहीं ठहरते । निरन्तर एक स्थान पर रहने से स्थान विशेष के प्रति राग भाव विकसित होने की सम्भावना रहती है। इसीलिये मूलाचार में धैर्यवान प्रासकविहारी से ग्राम में एक रात और नगर में पांच दिन रहने की अपेक्षा की गई है। वसंतादि षड़ऋतुओं में से भी साधु के लिये किसी एक ऋतु में एकमास पर्यंत एक स्थान पर ठहरने का विधान है।
इस प्रकार जैन मुनिचर्या के अनुसार साधु में संचरणशीलता का भाव स्वयमेव विकसित हो जाता है। इस निरन्तर गतिशील विहार के महत्त्व का प्रतिपादन 'भगवती आराधना' में इस प्रकार किया गया है
"अनियतविहारी साधु को सम्यग्दर्शन की शुद्धि, स्थितिकरण, रत्नत्रयकी भावना व अभ्यास, शास्त्र-कौशल तथा समाधिमरण के योग्य क्षेत्र की मार्गणा, इतनी बातें प्राप्त होती हैं । अनियतविहारी को तीर्थकरों के जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान आदि के स्थानों का दर्शन होने से उसके सम्यग्दर्शन में निर्मलता होती है अन्य मुनि भी उसके संवेग, वैराग्य, शुद्धलेश्या, तप आदि को देखकर वैसे ही बन जाते हैं, इसलिये उसे स्थितिकरण होता है तथा अन्य साधुओं के गुणों को देखकर वह स्वयं भी अपना स्थितिकरण करता है। परीपह सहन करने की शक्ति प्राप्त करता है। देश-देशान्तरों की भाषाओं आदि का ज्ञान प्राप्त होता है । अनेक आचार्यों के उपदेश सुनने के कारण सुत्र का विशेष अर्थ व अर्थ करने की अनेक पद्धतियों का परिज्ञान होता है। अनेक मुनियों का संयोग प्राप्त होने से साधू के आचारविहार आदि की विशेष जानकारी हो जाती है।"
साधु के लिये विहार के महत्त्व को समझ कर आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने 'चरैवेति, चरैवेति' की भावना को सार्थक करते हए अपनी ५१ वर्षीय दिगम्बर साधना में कितने लाख किलोमीटर की पदयात्रा सम्पन्न की है इसका सही उत्तर आचार्यश्री की पदयात्राओं की मार्गसरिणी के अभाव में देना कठिन है। आचार्यश्री ने एक भेटवार्ता में लेखक को यह भी बताया था कि उन्होंने कालजयी व्यक्तित्व
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