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अध्याय-3
सप्तरत्न सम्बन्धी मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप
बौद्ध मान्यता के अनुसार सप्तरत्न विश्वसम्राट के सात विशेष प्रतीक होते हैं और असाधारण गुणों में से विशिष्ट शक्ति के सूचक होते हैं। राजा सिद्धार्थ (भगवान बुद्ध) जब तक बुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हुए थे तब तक उनके मुकुट के निचले हिस्से पर सात रत्न अंकित थे। गृहस्थ जीवन से विमुख होने के पश्चात रत्न संपदा का कोई औचित्य या उसकी मूल्यवत्ता नहीं रह पाती, अत: उन्होंने जान-बूझकर सप्तरत्न का उत्सर्ग कर दिया। सप्तरत्नों का सामान्य वर्णन इस प्रकार है1. चक्ररल- यह हजार आराओं (चक्रों) वाला विजयी चक्र होता है। इसे
धर्म (नियमों) की सम्मति, संतुलन और सम्पूर्णता का द्योतक मानते हैं।
यह सांची के पुराने स्तूप पर उपलब्ध है। 2. मणिरत्न- यह समग्र रत्नों में मातृरत्न है जो सकल इच्छाओं को पूर्ण __ करता है। 3. स्त्रीरत्न- सूर्य की दीप्ति के समान तेजस्विता युक्त नारी, जो अपने
स्वामी को पंखी के द्वारा हवा डालती है और प्रतिक्षण सेवक की तरह
उसके साथ रहती है वह स्त्रीरत्न कहलाता है। 4. पुरुष रत्न- राजा का मुख्य व्यक्ति, जो उसके व्यापार एवं राज्य के
कार्यभार को संभालता है जैसे मंत्री, महामंत्री आदि पुरुषरत्न कहलाते हैं। 5. हस्तिरत्न- धरती को हिला देने वाला श्वेतवर्णी हाथी, जो विश्वव्यापी
आधिपत्य का सूचक है वह हस्तिरत्न कहलाता है। इस रत्न में इन्द्र के
ऐरावत हाथी को भी अन्तर्भूत किया जा सकता है। 6. अश्वरल- अपने मालिक की जहाँ इच्छा हो वहाँ ले जाने में समर्थ एवं
अपने क्षेत्र में कभी अस्त नहीं होने वाला घोड़ा, अश्वरत्न कहलाता है। यह सूर्य रथ में जुते हुये अश्वों का प्रतीक है।