Book Title: Bauddh Parampara Me Prachalit Mudraoka Rahasyatmak parishilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जापानी बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक स्वरूप ...259 विधि
इस मुद्रा में बायीं हथेली मध्यभाग की तरफ, अंगूठा हथेली में मुड़ा हुआ तथा शेष अंगुलियाँ अंगूठे के ऊपर मुड़ी हुई रहें। दायीं हथेली बाहर की तरफ
और अंगुलियाँ एवं अंगूठे ऊपर की तरफ फैले हुए रहें। बायां हाथ बायें नितम्ब पर और दायां हाथ छाती के स्तर पर रखा जाता है इस भाँति 'शुमि-सेन्-हौइन्' मुद्रा बनती है। सुपरिणाम ___ • पृथ्वी एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा जीवन में स्फूर्ति, उत्साह, साहस एवं आनंद की वृद्धि करती है। शरीर की जड़ता, भारीपन, स्थूलता, दुर्बलता आदि को दूर कर श्वसन प्रक्रिया एवं प्राण वायु संतुलन में भी सहायता प्रदान करती है। • मूलाधार एवं विशुद्धि चक्र को जागृत कर यह मुद्रा आन्तरिक ज्ञान एवं शक्तियों को उजागर करती है। यह वक्तृत्व-कवित्व गुणों का विकास एवं स्वस्थ काया को स्थायित्व भी प्रदान करती है। • एक्युप्रेशर विशेषज्ञों के अनुसार यह कपट वृत्ति, अहंकार असामाजिक वृत्तियों का शमन करती है। शरीर से विष एवं विजातीय तत्त्वों का निष्कासन करती है। स्नायुओं में ऐंठन, सुस्ती, थकान, कमजोरी आदि को दूर करती है। 67. सम्मनिंग-सिन्स् मुद्रा
यह मुद्रा जापानी बौद्ध परम्परा. के भक्तों एवं धर्मगुरुओं के द्वारा अपने पापों एवं गलतियों को प्रकट करने के लिए धारण की जाती है। शेष वर्णन पूर्ववत।
विधि
___इस मुद्रा में हथेलियाँ स्पर्श करती हुई, दायां अंगूठा ऊपर उठा हुआ, बायां अंगूठा हथेली में मुड़ा हुआ, तर्जनी ऊपर उठी हुई तथा हल्की सी मुड़ी हुई, मध्यमा ऊपर उठी हुई एवं अग्रभाग मिले हुए, अनामिका एवं कनिष्ठिका हथेली के पृष्ठ भाग पर अन्तर्ग्रथित हुए रहने पर सम्मनिंग-सिन्स् मुद्रा बनती है।76 सुपरिणाम
• पृथ्वी एवं वायु तत्त्व को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा प्राण वायु को स्थिर, हृदय, गुर्दै एवं फेफड़ों को सक्रिय तथा शारीरिक दुर्बलता का निवारण