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274... बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक परिशीलन सूचक है उसमें भी विशेष रूप से सुरा नामक गाय के घी का दीपक जानना चाहिए। इस परम्परा में वज्रायना देवी तारा अथवा अन्य देवी-देवताओं के समक्ष पाँच द्रव्य चढ़ाये जाते हैं- पुष्प, धूप, इत्र, आहार और दीपक। उनमें से यह मुद्रा एक का प्रतीक है। यह मुद्रा निम्न मन्त्र के साथ प्रयुक्त होती है- 'ॐ गुरु सर्व तथागत आलोक पूजा मेघा-समुद्र-स्फरन-समये हुम्।' विधि __दोनों हथेलियों को छाती की तरफ करते हुए अंगुलियों को हथेली की ओर मोड़ें और अंगूठों को ऊर्ध्व प्रसरित करें जो दीपक की ज्योति दर्शाते हैं। दोनों हाथ एक-दूसरे के लिए प्रतिबिंब की भाँति रहें, आलोक मुद्रा कहलाती है।' सुपरिणाम
• इस मुद्रा की साधना से मूलाधार एवं आज्ञा चक्र सक्रिय एवं जागृत होते हैं। यह आन्तरिक दिव्य ज्ञान का जागरण कर परमानन्द की अनुभूति करवाती है और शक्ति का ऊर्ध्वारोहण करती है।
• पृथ्वी एवं आकाश तत्त्व का संतुलन करते हुए यह मुद्रा मानसिक चेताओं का पोषण करती है तथा शरीर को पुष्ट एवं तंदरूस्त बनाती है।
• प्रजनन एवं पीयूष ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा प्रजनन अंगों के विकास एवं संचालन में सहायक बनती है। चेहरे के आकर्षण एवं तेज को बढ़ाती है। सिर के बाल एवं हड्डियों के विकास को संतुलित रखती है। 2. धर्म मुद्रा
भारतीय परम्परा में चढ़ाने योग्य जल आदि सामग्री को अर्घ्य कहा जाता है। यह तान्त्रिक मुद्रा भारत की बौद्ध परम्परा में अधिक प्रयुक्त होती है। किसी महापुरुष या देवी-देवता आदि के चरण प्रक्षालन हेतु अथवा द्रव्य पूजा के रूप में जो जल आदि चढ़ाया जाता है, यह मुद्रा उसकी सूचक है।
इस मुद्रा को ठुड्डी के नीचे और छाती के स्तर पर धारण करते हैं। इस मुद्रा के प्रयोग काल में निम्न मंत्र बोला जाता है- 'ओम् गुरु सर्व तथागत प्रवर सत्करा, महासत्करा, महाअर्घन् प्रतिच्छाहम् स्वाहा।' विधि
दोनों हथेलियों को आमने-सामने मिलाते हुए अंगूठा और तर्जनी के अग्रभागों को परस्पर संयुक्त करें तथा शेष अंगुलियों को आगे फैलाने पर अधर्म मुद्रा बनती है।