Book Title: Bauddh Parampara Me Prachalit Mudraoka Rahasyatmak parishilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
View full book text
________________
गर्भधातु-वज्रधातु मण्डल सम्बन्धी मुद्राओं की विधियाँ
...353
विधि
हथेलियाँ बाहर की तरफ अभिमुख, अंगूठें हथेली तरफ मुड़े हुए, मध्यमा और अनामिका अंगूठे के ऊपर मुड़ी हुई, तर्जनी और कनिष्ठिका प्रथम दो जोड़ों पर से मुड़ी हुई रहें। फिर दोनों हाथों को Cross करते हुए बायें को दायें के सामने रखने पर ‘गो-सन्- जे' मुद्रा बनती है। 45
सुपरिणाम
• यह मुद्रा अग्नि एवं वायु तत्त्व को नियंत्रित करते हुए गैस की नाना विकृतियों को दूर कर तत्क्षण शान्ति का अनुभव करवाती है । मनः स्थिरता एवं एकाग्रता का विकास करती है, मस्तिष्क स्नायुओं को शक्तिशाली तथा सिरदर्दअनिद्रा आदि रोगों को उपशान्त करती है। • इस मुद्रा के प्रयोग से मणिपुर एवं विशुद्धि चक्र का जागरण होता है। यह शारीरिक एवं मानसिक शक्ति में वर्धन करते हुए कवित्व, शान्तचित्तता, निरोगी दीर्घ जीवन एवं परम ज्ञान को उपलब्ध करवाती है। इससे एड्रिनल एवं थायरॉइड ग्रन्थियों का विकास होने के कारण एसिडिटी, उल्टी, तेज सिरदर्द, रक्तचाप, पित्ताशय, लीवर, प्राणवायु आदि के विकार समाप्त होते हैं।
-
43. हकु शौ- इन् मुद्रा
इस मुद्रा के दो रूप प्रचलित हैं। दोनों ही प्रकार तान्त्रिक एवं जापानी बौद्ध परम्परा से सम्बन्ध रखते हैं। ये मुद्राएँ प्रमुखतः गर्भधातु मण्डल - वज्रधातु मण्डल आदि की पूजोपासना हेतु की जाती है और इन्हें देवताओं के प्रशंसा की सूचक माना गया है तथा क्षुद्र (तुच्छ) शक्तियों को भगाने के लिए इसका प्रयोग करते हैं। इसमें दोनों हाथों को समीप कर ताली बजाते हैं जिससे हर्षाभिव्यक्ति और उपद्रव रक्षा दोनों कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
प्रथम विधि
बायीं हथेली को स्वयं के अभिमुख कर अंगुलियों को ऊर्ध्व प्रसरित करें तथा दायीं हथेली को सामने की तरफ कर अंगुलियों द्वारा बायीं हथेली का हठात स्पर्श करने पर हकु - शौ - इन् मुद्रा कहलाती है। 46