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अठारह कर्त्तव्य सम्बन्धी मुद्राओं का सविधि विश्लेषण......149 विधि
दोनों हथेलियाँ ऊर्ध्वाभिमुख, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका मध्य भाग की तरफ हल्की सी झुकी हुई और उनके प्रथम पोर अन्तर्ग्रथित अवस्था में रहें, तर्जनी ऊपर फैली हुई और अपने अग्रभागों का स्पर्श करती हुई रहें तथा अंगूठे के अग्रभाग मध्यमा के अग्रभाग से स्पर्शित करते हुए रहें। इस तरह 'शौछ-रौ इन्' मुद्रा बनती है।
शी-छ-री-हन् मुद्रा सुपरिणाम
• यह मुद्रा धारण करने से जल एवं अग्नि तत्त्व संतुलित होते हैं। इनके संयोग से पित्त से उभरने वाली बीमारियाँ, मूत्र दोष, गुर्दे सम्बन्धी रोगों का परिहार होता है। • स्वाधिष्ठान एवं मणिपुर चक्र को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा आभ्यंतर एवं बाह्य शक्तियों को जागृत करती है तथा मधुमेह, कब्ज, अपच, उदर विकार आदि को दूर करती है। . एडिनल एवं काम ग्रंथियों को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा रक्त परिसंचरण, श्वसन प्रक्रिया, रोग प्रतिकारात्मक शक्ति