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226... बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक परिशीलन विधि
दोनों हथेलियों को मध्य भाग की ओर अभिमुख करें। फिर बायें अंगूठे के अग्रभाग को मध्यमा के अग्रभाग से स्पर्श करवायें, तर्जनी और कनिष्ठिका को ऊपर की तरफ सीधी रखें तथा अनामिका को झुकायें। दायां अंगूठा, तर्जनी, मध्यमा और कनिष्ठिका को ऊर्ध्व प्रसरित करें, दायें अंगूठे को बायीं हथेली के बाह्य किनारे पर रखें, दायीं तर्जनी को बायां अंगूठा और मध्यमा के बीच स्थान में योजित करें। दायीं मध्यमा बायीं तर्जनी के अग्रभाग को Cross करें तथा दोनों कनिष्ठिकाएँ अग्रभाग का क्रॉस करती हुई रहने पर ‘कन्शुकुन्देन्-इन्' मुद्रा निर्मित होती है।45 सुपरिणाम
• पृथ्वी एवं जल तत्त्व का संतुलन करते हुए यह मुद्रा हड्डी, मांसपेशी आदि ठोस तत्त्वों तथा रक्त, वीर्य, लसिका, मल-मूत्र आदि को नियंत्रित एवं विकसित करती है। • मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्र को प्रभावित करते हए यह मुद्रा जल तत्त्व, फॉस्फोरस आदि तत्त्वों को संतुलित करती है। इससे नाभि चक्र एवं पेट के पर्दे के नीचे स्थित अवयवों के कार्य का नियमन होता है। • यह मुद्रा करने से विशेष रूप से कामग्रन्थियाँ एवं नाभि चक्र प्रभावित होते हैं। हस्तदोष, स्वप्न दोष, मासिक धर्म सम्बन्धी विकृतियाँ एवं बंध्यत्व आदि का निवारण होता है। 42. कर्म-आकाशगर्भ मुद्रा ___ जापानी बौद्ध परम्परा में प्रचलित इस मुद्रा को निम्न विधि से करते हैंविधि
दोनों हथेलियाँ मध्यभाग में निकट रहें, दायां अंगूठा बायें अंगूठे को क्रॉस करता हुआ रहे, तर्जनी, मध्यमा और अनामिका अग्रभाग पर अन्तर्ग्रथित रहें तथा कनिष्ठिका अन्तर्ग्रथित होकर बाहर की तरफ जायें, वह कर्म-आकाश गर्भ मुद्रा कहलाती है।46 सुपरिणाम
• इस मुद्राभ्यास से आकाश तत्त्व संतुलित होता है। जिस प्रकार आकाश सभी को स्थान देता है वैसे ही आकाश तत्त्व अन्य तत्त्वों को कार्यान्वित होने