________________
जापानी बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक स्वरूप ...207 विधि
दोनों हाथों को समीप में लायें, अंगूठों को ऊर्ध्व प्रसरित करते हुए उनकी बाह्य किनारियों को मिलायें, तर्जनी को दूसरे जोड़ से मोड़ते हुए अंगूठा और तर्जनी के अग्रभाग को स्पर्शित करें, मध्यमा और कनिष्ठिका हथेली के अंदर मुड़ी हुई तथा अनामिका के अग्रभाग परस्पर जुड़े हुए रहने पर चक्रवर्ती मुद्रा बनती है।28 सुपरिणाम
• यह मुद्रा अग्नि एवं पृथ्वी तत्त्व को संतुलित करते हुए शारीरिक जड़ता, दुर्बलता, मोटापा आदि को न्यून करके पाचन क्रिया को सम्यक बनाती है। • मणिपुर एवं मूलाधार चक्र को प्रभावित करते हुए शारीरिक आरोग्य, कार्य दक्षता, ओजस्विता आदि प्रदान करती है तथा मधुमेह, अपच, गैस, कब्ज आदि विकृतियों को उपशान्त करती है। • एक्युप्रेशर स्पेशलिस्ट के अनुसार यह मुद्रा एसिडिटी, तेज सिरदर्द, पित्त, रक्तचाप, मधुमेह, कमजोरी, आधासीसी आदि का शमन करते हुए वंध्यत्व एवं संभोगेच्छा का निवारण करती है। 27. चि-केन-इन् मुद्रा-1
प्रस्तुत मुद्रा जापान और चीन में अधिक प्रचलित है। वहाँ के श्रद्धालुगण ही इसे धारण करते हैं। यह वैरोचना से प्राप्त सुदृढ़ ज्ञान की सूचक है। विधि
बायें हाथ को मुट्ठी रूप में बाँधते हुए उसे अंगूठे द्वारा ऊपर से बंद करें और तर्जनी को ऊपर की ओर सीधी रखें। दायीं हथेली को भी मुट्ठि रूप में बनाते हुए आगे की ओर करें तथा अंगूठे को मुट्ठी के बाहर रखें। बायीं तर्जनी दायीं अंगुलियों से बंधी हुई रहें। दायां हाथ नाभि के स्तर पर रहें। इस तरह चिकेन-इन् मुद्रा बनती है।29 सुपरिणाम
• वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा हृदय रुधिराभिसंचरण, श्वसन क्रिया, मल-मूत्र की गति आदि का नियंत्रण करती है। यह स्वभाव एवं हृदय परिवर्तन आदि में भी सहायक बनती है। • अनाहत एवं विशुद्धि चक्र के जागरण से हृदय में निर्मल भावों की उत्पत्ति, सद्ज्ञान का जागरण, कवित्व,