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104... बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक परिशीलन विधि
दोनों हथेलियों को एक-दूसरे के अत्यन्त निकट लाएं, अंगूठा, अनामिका और कनिष्ठिका को ऊपर की ओर प्रसरित करें, अनामिका और कनिष्ठिका के अग्रभाग परस्पर में स्पर्शित रहते हुए भी उनके मध्य में अंतर रखें, फिर मध्यमा
और तर्जनी एक-दूसरे में गुम्फित हुई रहने पर अश्वरत्न मुद्रा बनती है।' सुपरिणाम
• वायु एवं आकाश तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा हृदय एवं वायु विकार सम्बन्धी समस्त रोगों के निवारण में सहयोगी हो सकती है। • विशुद्धि एवं अनाहत चक्र को प्रभावित करते हुए यह वाक्शक्ति का विकास एवं इन्द्रिय नियंत्रण करती है तथा दीर्घजीवन, निरोगी काया एवं शान्तचित्त देती है। . थायमस, थायरॉइड एवं पेराथायरॉइड ग्रंथि के स्राव को व्यवस्थित करते हुए भावों को निर्मल एवं परिष्कृत तथा जीवन को सफल एवं उदात्त बनाती है। 7. उपरत्न मुद्रा ___यह जापानी बौद्ध के वज्रायण, मंत्रायण परम्परा की तान्त्रिक मुद्रा है। यह सप्त रत्न से जुड़ी अनमोल भेंट को दर्शाती है। यह सप्तरत्नों में से अन्तिम रत्न अलौकिक धन के रूप में माना जाता है। वस्तुत: यह मुद्रा वज्रायण परम्परा की शक्तिशाली देवी तारा से जुड़ी हुई है। यह संयुक्त मुद्रा छाती के स्तर पर धारण की जाती है। इस मुद्रा के साथ मन्त्र का पाठ होता है वह यह है- 'ओम् उपरत्न प्रतिच्चाहूम् स्वाहा।' विधि ___दोनों हथेलियों को आमने-सामने कर सभी अंगुलियों को थोड़ा सा मोड़ते हुए एवं उनके अग्रभागों को परस्पर में स्पर्शित करते हुए रखने पर उपरत्न मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• उपरत्न मुद्रा के प्रयोग से अग्नि एवं महत्त तत्त्व प्रभावित होते हैं। इससे कब्ज, दस्त, उल्टी, दमा, सन्धिवात, हड्डियों की कमजोरी में लाभ मिलता है। • मणिपुर एवं सहस्रार चक्र को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा मानसिक संशय,