Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Puja Prakash Chhabda
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *ब्रोध *मन मया औलभ 43 108 जीव अधिकरण तत्त्वार्थसूत्र (रेखाचित्र एवं तालिकाओं में) साधारण भाव या hip वचनयोग काययोग नयोग जीव के असाधारण भाव नाम औपशमिक क्षायिक मिश्र औदयिक पारिणामिक अभेद 2918213 ध्यान काय अजीव दोनों अप्रशस्त षेत्र पर्वत (भरणदि (हिमवनादि (पद्मादि सरोवर। नदियाँ गंगा ऋजुगति पाणिमुक्ता लांगलिका गौमूत्रिका आर्त जीव विग्रह गति 6) रौट प्रशस्त के बंधके कौन से कारण होते है पूर्व बंधे धणे शव >द्रव्य कर्म यहाँ जीव कर्म के मंद उदय में पुरुषार्थ से इस चक्र को रोक सकता है। का उदय पुद्गल सिर्फ प्रकृति, प्रदेशबंध कर्म नवीन द्रव्य कर्म बंध होता जीव भावकर्म करता श्रोह गादि) यो । यहाँ तक चा-प्रकार का बंध अणवस धर्म छह द्रव्य अधर्म | आसव DP आसव WAUT वती द्रव्यास्रव भावास्रव / प्रत्यक्ष साततत्व अन आकाश जीव अजीव निक आस्रव ___बंध महाव्रती विमानों में संवर निर्जरा मोक्ष काल कत पारिणामिक भावा किर्मका अभाव अभव्यत्व भव्यत्व जीवत्व द्रव्य भात यत्नसाध्य For Personal & Private Use Only अयत्नसाध्य . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवराज जैन ग्रंथमाला, सोलापुर. (हिंदी विभाग - पुष्प ५८) आचार्य उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र (रेखाचित्र एवं तालिकाओं में) Tattvartha-Sutra in Charts & Tables - . लेखिका श्रीमती पूजा-प्रकाश छाबड़ा पक्षक नसम्की सालापर भावात में जियानी यम -प्रकाशकजैन संस्कृति संरक्षक संघ (जीवराज जैन ग्रन्थमाला) टी. पी. 4, प्लॉट नं. 56/10, बुधवार पेठ, जूना पुणे नाका, सोलापुर-2 - फोनः 0217-2320007, मो. 09421040022 For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक :- श्री अरविंद रावजी दोशी, अध्यक्ष,जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर -2. प्रथम संस्करण : 1000 द्वितीय संस्करण : 3000 तृतीय संस्करण : 4000 वीरसंवत् - 2537 18/10/2009 16/05/2010 14/12/2010 अर्थ सहयोग : •शक्कर बाई माणकचंद पारमार्थिक न्यास ,इन्दौर •श्रीमती किरण अशोककुमार जैन 'अरिहंत',इन्दौर •श्रीमती मीना सुनील जैन 'अरिहंत',इन्दौर •श्रीमती वंदना नरेश जैन, लन्दन, यू.के. 35000/30000/25000/10000/ प्राप्ति स्थान : • श्रीमान् विमलचन्द छाबड़ा 53, मल्हारगंज, मेनरोड, इन्दौर फोनः 0731-2410880, मो.09753414796 • जीवराज जैन ग्रंथमाला, सोलापुर. लागत मूल्य : ५५ रुपए न्यौछावर राशि : ३० रुपए मुद्रण स्थल : चिंतामणी प्रिंटींग प्रेस पुणे. (सर्वाधिकार सुरक्षित) For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना बाल ब्र.पण्डित श्री रतनलालजी शास्त्री इन्द्र भवन, तुकोगंज, इन्दौर श्री तत्त्वार्थसूत्रजी अपरनाम मोक्षशास्त्रजी वर्तमान में द्वादशांग का सार है। पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती आचार्य भगवन्तों की परम्पराओं अर्थात् दोनों श्रुतस्कन्ध परम्पराओं का संगम यानि प्रयाग है। यह ग्रंथ चारों अनुयोगों का नवनीत है। इस ग्रन्थ का एक-एक सूत्र बीजबुद्धि ऋद्धि के समान है। हर एक सूत्र अनेकान्तरूप है। व्याकरण, न्याय, कोष, सिद्धान्त की अपेक्षा आदि से अंत तक अविरोध रूप से है। इस ग्रंथ पर अनेक आचार्य भगवन्तों व विद्वज्जनों की टीकाएँ व अनुवाद विद्यमान हैं। ‘अल्पबुद्धि भव्यात्माओं को सहज रूप से तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ आत्मसात् हो जाए' इस पवित्र भावना से प्रेरित होकर एवं अनेकानेक भव्यात्माओं के अतीव आग्रह से श्रीमती पूजाजी एवं प्रकाशजी छाबड़ा (जैन) ने बहुत ही लगन व परिश्रम पूर्वक तत्त्वार्थसूत्र (रेखाचित्र एवं तालिकाओं में)' को प्रकाशित कराया है। जिसकी सर्वत्र सराहना हुई है तथा : तृतीय संस्करण प्रकाशित करना अनिवार्य हो गया है। लेखिका श्रीमती पूजा छाबड़ा एवं उनके पति श्री प्रकाश छाबड़ा में ज्ञान एवं वैराग्य का अद्भुत संयोग है। श्री प्रकाश छाबड़ा ने अमेरिका में मास्टर्स ऑफ कम्प्यूटर साइंस की उपाधि प्राप्त कर विश्व की सर्वोच्च कम्पनी 'माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन, अमेरिका' में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में कार्य · · किया। श्रीमती पूजा छाबड़ा ने भी अमेरिका में सी. पी. ए. (चार्टर्ड अकाउंटेण्ट के समकक्ष) की उपाधि प्राप्त कर अमेरिका में प्रोफेशनल अकाउंटेण्ट के पद पर कार्य किया। सात वर्षों के अमेरिका प्रवास में भी आपका धार्मिक अध्ययन व अध्यापन चलता रहा। आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर दोनों अमेरिका व लाखों की नौकरी छोड़कर मात्र 31 व 28 वर्ष की अवस्था में निवृत्त जीवन जीने का For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प कर भारत वापस आ गए। आप यहाँ अत्यन्त सादगीमय व भौतिक साधनों से विरत होकर एक आदर्श श्रावक का जीवन यापन कर रहे हैं एवं अनन्त संसार के अभाव के लिए ही अपना समग्र पुरुषार्थ लगाकर आगे बढ़ रहे हैं। अपने पूर्ण समय में आपने गोम्मटसारजी जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड, लब्धिसारजी, क्षपणासारजी, त्रिलोकसारजी, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, अनगार धर्मामृतजी, समयसारजी, प्रवचनसारजी, सर्वार्थसिद्धिजी आदि चारों अनुयोगों के अनेकानेक ग्रंथराजों का क्रमिक एवं गूढ अध्ययन किया एवं अध्ययन के साथ-साथ शास्त्र प्रवचन, धार्मिक कक्षाओं में अध्यापन, नई तकनीक (प्रोजेक्टर/कम्प्यूटर) के माध्यम से करणानुयोग के विषय को अत्यंत सरलता से प्रस्तुत कर रहे हैं। ____इनके लघुभ्राता श्री विकास-सारिका छाबड़ा भी मात्र 27 वर्ष की उम्र में माइक्रोसॉफ्ट, अमेरिका की नौकरी छोड़कर निवृत्तिमय धार्मिक मार्ग पर उक्त प्रकार से ही चल रहे हैं। पूजा की माताजी श्रीमती जयश्री टोंग्या का भी जीवन धर्म से ओत-प्रोत है। आपके संस्कार पुत्री में परिलक्षित हो रहे हैं। दोनों प्रकाश एवं पूजा प्रचार-प्रसार से दूर मात्र स्व-पर कल्याण हेतु ही इस मार्ग पर अग्रसर हैं। मेरी मंगल कामना है कि आप सदैव उत्तरोत्तर मोक्षमार्ग में वृद्धि करें । अलमस्तु। - रतनलाल जैन इन्द्र भवन, तुकोगंज, इन्दौर 27/04/2010 For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन आचार्य उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र) के रेखाचित्रों एवं तालिकाओं को पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करने के विचार का उद्गम तत्त्वार्थ सूत्र वर्ष के अन्तर्गत कक्षा में पढ़ाने के फलस्वरूप हुआ। वर्तमान में नई पीढ़ी को चार्ट के माध्यम से विषयवस्तु का ग्रहण सरलता से हो जाता है एवं धारणा ज्ञान में शीघ्रता से आ जाता है। इसी बात को ध्यान में रखकर तत्त्वार्थ सूत्र पढ़ाने हेतु ही ये चार्ट तैयार किए गए थे। विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त सरल, संक्षिप्त व विशेष उपयोगी जानकर व इसकी माँग को देखते हुए इसे पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत किया गया था। प्रौढ़ पाठकों को पुस्तक सन्दर्भ के लिए भी उपयोगी साबित हुई है। प्रथम एवं द्वितीय संस्करण के हाथों-हाथ समाप्त होने व अधिक माँग होने से इसका तृतीय संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है। . इस पुस्तक में सूत्र एवं सूत्रार्थ सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ से लिये गए है। इसके साथ ही पूर्वाचार्यों के कथन को ही रेखाचित्रों के माध्यम से तथा उन्हीं के द्वारा बताए गए लक्षणों को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। सूत्रों के क्रम को चार्ट आदि के आग्रह से पूर्ववत् आगे-पीछे रखा गया है। इन्हें तैयार करने में जिन ग्रन्थों का आधार लिया गया है, उनमें तत्त्वार्थसूत्र टीकाएँ सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, अर्थप्रकाशिका तथा प्रवचनसार, त्रिलोकसार एवं गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, वृहद द्रव्य संग्रह प्रमुख हैं। “को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे" के अनुसार पुस्तक में त्रुटियाँ होना सम्भव है। अतः सुधी पाठकों से अनुरोध है कि त्रुटियाँ सुधारकर पढ़ें व मुझे भी अवगत करावें, ताकि आगामी संस्करण में उनकी पुनरावृत्ति न होवे। ... प्रस्तुत पुस्तक को लिखने की प्रेरणा तथा आद्योपांत पूर्ण सहयोग के लिए मैं अपने पति श्री प्रकाश जी छाबड़ा के प्रति विशेष कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। मैं आदरणीय बा. ब्र. पं. श्री रतनलाल जी शास्त्री की विशेष आभारी हूँ, जिनके सान्निध्य में जैन सिद्धान्त प्रवेशिका से लगाकर गोम्मटसार जीवकाण्ड For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार आदि करणानुयोग के अनेक ग्रन्थों का अभ्यास किया और प्रस्तुत पुस्तक लिखने में समर्थ हुई। श्रीमती पूजा-प्रकाश छाबड़ा 53, मल्हारगंज, मेन रोड, इन्दौर (म.प्र.) फोन नं. 99260-40137 For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धित सूत्र 1 2 3 4 5 6 रेखाचित्र एवं तालिकाओं की सूची विषय 13 14 आचार्य उमास्वामी का परिचय तत्त्वार्थ सूत्र सूत्र की विशेषता ग्रन्थ के नाम की सार्थकता टीकाएँ मंगलाचरण मंगलाचरण की विशेषता प्रथम अध्याय प्रथम अध्याय विषय-वस्तु मोक्षमार्ग क्या है? सम्यग्दर्शन क्या है? सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के हेतु 7 - मध्यम रुचि शिष्यों के लिए 8 - विस्तार रुचि शिष्यों के लिए 9-12 प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) के भेद ज्ञान सम्बन्धी प्रयोजनभूत विचार मतिज्ञान के अन्य नाम मतिज्ञान की उत्पत्ति के निमित्त सात तत्त्व निक्षेप पदार्थों को जानने के उपाय - संक्षिप्त रुचि शिष्यों के लिए For Personal & Private Use Only संख्या 1 1 2 2 3 3 4 4 5 5 6 19 7 7 7 8 8 9 10 10 10 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 16-17 18-19 20 21-22 22 23 24 25 26-29 30 31-32 33 1-2 3 4 5 6 7 मतिज्ञान के भेद पदार्थों के 12 भेद मतिज्ञान का विषय व 336 भेद ज्ञान की उत्पत्ति का क्रम श्रुतज्ञान के भेद अवधिज्ञान के भेद गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के भेद अन्य प्रकार से अवधिज्ञान के भेद मन:पर्ययज्ञान के भेद ऋजुमति-विपुलमति मन:पर्ययज्ञान में अंतर अवधिज्ञान - मन:पर्ययज्ञान में अंतर 5 ज्ञानों का विषय एक जीव के एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं मिथ्याज्ञान (कुज्ञान) के भेद य द्वितीय अध्याय द्वितीय अध्याय विषयजीव के असाधारण भाव कर्म की प्रकृतियाँ औपशमिक भाव के भेद क्षायिक भाव के भेद क्षायोपशमिक भाव के भेद क्षयोपशम का स्वरूप औदयिक भाव के भेद पारिणामिक भाव के भेद. सम्यक्त्व आदि गुणों में सम्भावित भाव -वस्तु For Personal & Private Use Only 11 11 22 12 13 13 14 14 व 14 15 15 16 17 18 19 20 21 22 23 23 24 24 25 25 26 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 27 8-9 27 27 | 28 29 20 20 31 लक्षणाभास के भेद लक्षण के भेद उपयोग के भेद उपयोग (अध्यात्म भाषा से 3 प्रकार का) | 10-11 | जीव के भेद । 12-14, | संसारी जीवों के भेद 22-23 पाँच स्थावरों के प्रत्येक के 4-4 भेद | 15 पाँच इन्द्रियाँ 16-18 । इन्द्रिय के भेद 19-21 इन्द्रियों और मन के विषय व आकार 24 संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ | 25,29-30 विग्रहगति 26-28 | अनुश्रेणि गति | 31,33-35 जन्म के भेद किन जीवों के नियम से कौन-सा जन्म होता है कर्मभूमिया पंचेन्द्रिय असैनी व सैनी तिर्यंच के जन्म योनि के भेद किस योनि में कौन जीव जन्म लेता है? 84 लाख योनियाँ | 39,45-46, शरीर के भेद 40-42 | तैजस और कार्मण शरीर की विशेषता | 43 . | एक साथ एक जीव के कितने शरीर होते हैं कार्मण शरीर उपभोग रहित होता है वैक्रियिक शरीर के प्रकार 33 34 34 32 35 35 36 37 38 38 44. 39 47 39 For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 39 40 49 | 40 41 53 4 43 | 43 44 1 1-2 तैजस शरीर के प्रकार | निःसरण तैजस शरीर के प्रकार आहारक शरीर की विशेषता 50-52 | वेद अनपवर्त्य आयु तृतीय अध्याय तृतीय अध्याय विषय-वस्तु लोक का विस्तार त्रस नाड़ी का विस्तार अधोलोक का विस्तार वातवलय नरकों का वर्णन बिल नारकियों का वर्णन नरक से निकला हुआ जीव कहाँ उत्पन्न होता है नरक से निकला जीव क्या नहीं होता है नारकियों के दुःख नारकियों द्वारा परस्पर दिए जाने वाले दुःख | मध्य (तिर्यक) लोक का विस्तार जम्बूद्वीप का वर्णन सुदर्शन मेरु मेरु पर चार वन जम्बूद्वीप के 7 क्षेत्र 11-13 जम्बूद्वीप के 6 पर्वत/कुलाचल 48 48 3-5 49 7-8 51 52 52 52. 10 53 54 For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 57 58 59 60 28 61 14-19 | जम्बूद्वीप के 6 सरोवर 20-23 · | जम्बूद्वीप की 14 नदियाँ 24-26,32 भरतादि क्षेत्रों का विस्तार 27 काल चक्र परिवर्तन | 27,29-31 काल चक्र परिवर्तन विशेषता | अवस्थित भूमियों के काल 33-35 | अढ़ाई द्वीप (मनुष्य क्षेत्र/नर लोक) | मनुष्यों के भेद कुभोगभूमि मनुष्य विशेषता ढ़ाईद्वीप में कर्मभूमियाँ एवं भोग भूमियाँ | मनुष्य एवं तिर्यंचों की आयु तिर्यंचों की आयु-विशेष पूर्वांग 62 36 62 63 37 63 38-39 64 64 65 पूर्व 65 65 65 65 66 66 66 3 प्रकार के पल्य सागर सूत्र से अन्य रचनाएँ व अन्य विषय तीर्थंकरों की गणना त्रिकाल चौबीसी तीन लोक के अकृत्रिम चैत्यालय मध्यलोक के 458 अकृत्रिम चैत्यालय चतुर्थ अध्याय | चतुर्थ अध्याय विषय-वस्तु ऊर्ध्वलोक का विस्तार 1,3-5, | देवों के प्रकार (निकाय) 10-12 68 68 For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 -73 13-15 74 74 22 77 . 78 79 20 |80 देवों के 10 सामान्य भेद चार निकाय के देवों का निवास भवनत्रिक देवों की लेश्याएँ इन्द्रों की व्यवस्था 7-9 देवों में प्रवीचार (मैथुन - काम सेवन) | ज्योतिषी देव 16-17,23/ वैमानिक देवों के भेद 18-19 | वैमानिक देवों के विमानों का वर्णन वैमानिक देवों का वर्णन वैमानिक देवों की देवांगनाओं का वर्णन 29-34,42 वैमानिक देवों की आयु आदि वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर अधिकता वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर हीनता | 24-25 | लौकान्तिक देव | दो भवावतारी एक भवावतारी तिर्यंच कौन हैं? कौन तिर्यंच मरकर किस स्वर्ग में उत्पन्न होता है? | 83 कौन मनुष्य मरकर किस स्वर्ग में उत्पन्न होता है? कौन देव मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं? त्रेसठ शलाका पुरुषों सम्बन्धी विशेषता 28,37-41 भवनत्रिक देवों की आयु आदि 35-36 | नारकियों की आयु पंचम अध्याय पंचम अध्याय विषय-वस्तु 21 .80 81 26 82 82 27 82 84 85 85 86 87 88 For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 91 छह द्रव्य 8-11 · द्रव्यों के प्रदेश 12-15 | द्रव्यों का लोक में अवगाह संख्यामान-संख्यात, असंख्यात, अनंत जीव और पुद्गल के आकाश के अल्प प्रदेशों में रहने | 93 92 92 | 16 का हेतु | 17 93 18 94 धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार - मुख्य बिन्दु आकाश का उपकार - मुख्य बिन्दु पुद्गल का उपकार पुद्गल का अन्य प्रकार से उपकार 19 94 20 95 21 उपकार 95 96 96 97 24 98 24. 98 | 22 | काल का उपकार | 17-22 द्रव्यों का उपकार - सार . | 23-24 | पुद्गल का स्वरूप, गुण और पर्यायें | (1) शब्द 24 | (2) बंध । | 24 (3) सूक्ष्म | (4) स्थूल | (5) संस्थान (आकार) | 24 (6) भेद (ट्रकड़े-भंग होना) (7) तम (अंधकार) 24 (8) छाया (प्रकाश को ढकने वाली) | (9) आतप | (10) उद्योत पुद्गल के भेद (जाति अपेक्षा) परमाणु में एक साथ कितनी पर्यायें हो सकती हैं 24 98 -24 99. 99 99 24 99 100 100 For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26-28 29-30 31 32 33 33-36 37 38 38 38 38 38 39 40 41 42 पुद्गल के अन्य प्रकार से भेद स्कन्धादि की उत्पत्ति के कारण द्रव्य का लक्षण द्रव्य अगर उत्पाद स्वरूप, व्यय स्वरूप, ध्रौव्य स्वरूप या उत्पाद - व्यय रूप ही हो? द्रव्य-भेद से और अभेद से सत्ता के भेद नित्य का स्वरूप स्याद्वाद शैली बंध किनका होता है? परमाणुओं का बंध बंध होने पर क्या होता है पुद्गल बंध से जीव बंध की तुलना द्रव्य का अन्य प्रकार से लक्षण सामान्य-विशेष गुण अन्य प्रकार से गुण के भेद सामान्य गुणों का स्वरूप पर्याय के भेद काल भी द्रव्य है ! काल के प्रकार काल द्रव्य की सिद्धि प्रचय के भेद गुण का लक्षण परिणाम (भाव) का स्वरूप For Personal & Private Use Only 101 101 102 102 103 103 103 104 105 105 105 106 106 107 107 108 108 109 109 110 110 111 111 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 1 1 2 3 4 5 5 117 5 5 5 5. 6 7 8 9 10-27 10 11 12 13-14 षष्ठ अध्याय षष्ठ अध्याय विषय-वस्तु आस्रव के भेद योग के भेद निमित्त अपेक्षा योग के भेद योगगुण आस्रव का स्वरूप योग के निमित्त से आस्रव में भेद स्वामी अपेक्षा आस्रव के भेद साम्परायिक आस्रव-39 भेद 25 क्रियाएँ 5 विभिन्न क्रियाएँ 5 हिंसा भाव की मुख्यतारूप क्रियाएँ 5 इन्द्रियों के भोग बढ़ाने सम्बन्धी क्रियाएँ 5 धर्माचरण में दोष कारक क्रियाएँ 5 धर्म-धारण से विमुख करने वाली क्रियाएँ आस्रव में हीनता - अधिकता के कारण अधिकरण के प्रकार जीव अधिकरण के भेद अजीव अधिकरण के भेद आठ कर्मों में प्रत्येक के आस्रव के कारण ज्ञानावरण - दर्शनावरण के आस्रव के कारण असातावेदनीय के आस्रव के कारण सातावेदनीय के आस्रव के कारण मोहनीय के आस्रव के कारण For Personal & Private Use Only 112 113 113 113 113 114 114 115 116 117 117 117 118 118 118 119 119 120 121 121 121 122 123 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 22 126 126 127 24 | 128 | 128 27 129 130 131 131 132 15-21 आयु के आस्रव के कारण 22-23 नामकर्म के आस्रव के कारण | योग वक्रता एवं विसंवादन में अन्तर तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारणभूत सोलहकारण भावना 25-26 | गोत्र के आस्रव के कारण किस जीव के कौन-से गोत्र का उदय होता है अन्तराय के आस्रव के कारण सप्तम अध्याय । सप्तम अध्याय विषय-वस्तु व्रत के भेद व्रत के प्रकार पाँच व्रतों की पाँच-पाँच भावनाएँ अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएँ | सत्य व्रत की पाँच भावनाएँ अचौर्य व्रत की पाँच भावनाएँ ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ । परिग्रह त्याग व्रत की पाँच भावनाएँ " हिंसादि से विरक्त होने की भावना व्रती के चिन्तन योग्य अन्य भावनाएँ व्रती को वैराग्य बढ़ाने के लिए भावनाएँ पाँच पाप हिंसा के भेद | हिंसा के अन्य प्रकार से भेद पर जीव के घात रूप हिंसा के प्रकार हिंसा के त्याग के लिए जाने 13 . प्रमाद के भेद 132 133 133 134 134 9-10 135 11 136 12 136 13-17 137 13 137 137 | 13 | 13 | 13 138 138 138 For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 139 14 139 16 140 | 17 140 18 141 141 141 142 20 142 143 143 144 144 प्राण के भेद असत्य के भेद अब्रह्म के भेद परिग्रह के भेद व्रती की विशेषता शल्य के भेद व्रती के भेद गृहस्थ के व्रत अणुव्रत के भेद 7 शीलव्रत के भेद अनर्थदण्ड के भेद . उपभोग-परिभोग का स्वरूप अतिथि संविभाग के योग्य सामग्री सल्लेखना का स्वरूप सम्यग्दर्शन के अतिचार व्रतभंग के लिए सहायक परिणाम अतिचार-अनाचार में अन्तर 24-29 | व्रतों के पाँच-पाँच अतिचार | अहिंसाणुव्रत के अतिचार सत्याणुव्रत के अतिचार 27 . | अचौर्याणुव्रत के अतिचार ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार 29 परिग्रह परिमाणाणुव्रत के अतिचार 30-32 गुणव्रत के अतिचार दिग्विरति के अतिचार | देशविरति के अतिचार 22 144 .23 145 145 146 146 25 146 26 147 147 148 148 149 30 149 1491 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 . 150 33-36 . 150 | 33 150 34 151 | 35 151 36 152 37 152 30 39 154 154 अनर्थदण्डविरति के अतिचार शिक्षाव्रत के अतिचार सामायिक व्रत के अतिचार प्रोषधोपवास व्रत के अतिचार उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के अतिचार अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार सल्लेखना के अतिचार दान का स्वरूप 153 दान के फल में विशेषता के कारण 153 विधि विशेष 154 . दाता के सात गुण दान के प्रकार अष्टम अध्याय अष्टम अध्याय विषय-वस्तु बंध के कारण योग के भेद किस गुणस्थान तक बंध के कौन - से कारण होते हैं? | बंध क्या है? कर्म बंध चक्र | द्रव्य कर्म-भाव कर्म निमित्त-उपादान बंध के भेद 158 कर्म के भेद 159 प्रकृति बंध (आठ मूल कर्म) अनुजीवी प्रतिजीवी गुण | 161 ज्ञानावरण कर्म के भेद दर्शनावरण कर्म के भेद 155 155 156 156 157 157 158 4-5 160 161 162 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 163 163 164 164 165 166 10 166 11 167 11 168 | 11 169 169 दर्शन के भेद दर्शन - ज्ञान का व्यापार 163 मनः पर्ययज्ञान की उत्पत्ति का क्रम वेदनीय कर्म के भेद आत्मा का सुख गुण मोहनीय कर्म के भेद कषायों के उत्कृष्ट-जघन्य स्थान के दृष्टांत आयु कर्म के भेद नाम कर्म के भेद | नाम कर्म की 14 पिण्ड प्रकृतियाँ शरीर, बंधन, संघात में अन्तर संस्थान के भेद संहनन के भेद किस संहनन सहित मरकर जीव कहाँ जन्म ले सकता है? 170 किस जीव के कौन-सा संहनन होता है? - 11 नाम कर्म की 8 प्रत्येक प्रकृतियाँ आतप, उद्योत, उष्ण नामकर्म में अन्तर | 11 नाम कर्म के 10 जोड़े पर्याप्ति का स्वरूप व भेद अपर्याप्त के प्रकार गोत्र कर्म के भेद 13.. अंतराय कर्म के भेद | 14-20 | मूल कर्म जघन्य उत्कृष्ट स्थिति बंध व आबाधा शेष जीवों की उत्कृष्ट कर्म स्थिति बंध उत्तर प्रकृति उत्कृष्ट स्थिति बंध 169 170 171 11 . . 171 172 172 - 173 173 173 175 176 1761 For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |. 21-23 | अनुभाग बंध क्या है? कैसे परिणामों से कैसा रस (अनुभाग) बंध होता है? 178 179. | 179 180 . 180 25 181 181 183 184 अनुभाग की प्रवृत्ति 178 फल दान शक्ति की तारतम्यता निर्जरा के प्रकार 24 प्रदेश बंध 25-26 - पुण्य-पाप प्रकृति विभाजन | पुण्य प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ घातिया कर्म की सर्वघाति-देशघाति प्रकृतियाँ नवम अध्याय नवम अध्याय विषय-वस्तु संवर के भेद गुणस्थान का स्वरूप किन आस्रव के कारणों के अभाव में किन प्रकृतियों का संवर होता है? संवर के कारण निर्जरा के भेद निर्जरा का कारण संवर प्रकरण गुप्ति के भेद समिति के भेद धर्म के भेद अनुप्रेक्षा (भावना) के भेद परीषह क्यों सहना? 185 1861 188 188 188 4-18 189 189 189 190 191 192 For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10-12 13-16 17 18 19-45 19 20-21 22 23 24 25 26 27 28-29 29-35 36 43-44 37-42 कहाँ कौन - सा परीषह सम्भव है? किस कर्म के उदय से कौन सा - परीषह होता है? एक साथ एक जीव को कितने परीषह सम्भव हैं? चारित्र के भेद परिहार विशुद्धि चारित्र की विशेषता सामायिकों में अन्तर निर्जरा के भेद बाह्य तप के भेद 4 प्रकार का आहार 6 प्रकार के रस आभ्यंतर तप के भेद प्रायश्चित्त तप के भेद विनय तप के भेद वैयावृत्त्य तप के विषय 4 प्रकार का संघ स्वाध्याय तप के भेद व्युस तप के भेद ध्यान क्या है? अंतर्मुहूर्त का स्वरूप ध्यान के भेद आर्त- रौद्र ध्यान में अन्तर निदान शल्य - निदान आर्तध्यान में अन्तर धर्म्य ध्यान के भेद वितर्क व वीचार का स्वरूप शुक्लध्यान के भेद For Personal & Private Use Only 193 194 195 195 196 196 197 197 198 198 198 199 200 200 201 201 202 202 202 203 203 205 205 206 207 208 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 209 46-47 47 212 215 3-4 217 गुणश्रेणी निर्जरा में विशेषता के 10 स्थान निर्ग्रन्थ के भेद 210 संयम स्थान की तारतम्यता दसवाँ अध्याय दसवाँ अध्याय विषय-वस्तु 213 मोक्ष के भेद 213 मोक्ष के पहले केवलज्ञान की उत्पत्ति 214 मोक्ष होने के हेतु 214 मोक्ष होने पर किन कर्मों का अभाव (क्षय) होता है? . मोक्ष होने पर किन भावों का अभाव और सद्भाव रहता है! 217 3 प्रकार के कर्मों के नाश होने पर मोक्ष होता है | मोक्ष होने के बाद आत्मा ऊपर जाता है। हेतु और दृष्टांत 218 मोक्ष होने पर सिद्धों (मुक्त जीवों) का निवास 219 अष्टम पृथिवी - ईषत् प्राग्भार सिद्ध शिला सिद्धों का निवास - सिद्ध क्षेत्र 219 मुक्त जीवों में भेद नहीं मुक्त जीवों में कथंचित् भेद 220 अल्प-बहुत्व(सिद्ध होने वाले जीवों की संख्या की तुलना) 222 परिशिष्ट-1 सभी कर्मों के आस्रव के विशेष कारण 223 परिशिष्ट-2 (पाठान्तर) सम्मतियाँ 5-8 219 219 220 229 231 For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र (आचार्य उमास्वामी) * कम से कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धि पाने वाले आचार्य हैं। * कुन्दकुन्द आचार्य के पट्ट शिष्य थे। * विक्रम की प्रथम शताब्दी का अंत एवं द्वितीय का पूर्वार्ध आपका समय है। * उमास्वाति एवं गृद्धपिच्छाचार्य भी आपके अन्य नाम हैं। * प्राचीन जैनाचार्य अपने बारे में कुछ नहीं लिखते थे। अतएव आपके जीवन ' परिचय से जैन समाज अपरिचित है। .. तत्त्वार्थसूत्र) * यह संस्कृत भाषा का सर्वप्रथम जैन ग्रंथ है। * समग्र जैन समाज में प्रामाणिकता प्राप्त ग्रंथ है। * जो महत्त्व वैदिकों में गीता, ईसाइयों में बाईबल तथा मुसलमानों में कुरान का हैं; वही जैनदर्शन में तत्त्वार्थसूत्र का है। * जिनागम के लगभग सम्पूर्ण विषयों की “सूची" इस ग्रंथ में सूत्ररूप में उपलब्ध है। अतः इसे सूची ग्रन्थ भी कहा जा सकता है। * इसका संकलन इतना सुसम्बद्ध एवं प्रामाणिक साबित हुआ कि यह महावीर ... भगवान की वाणी की तरह जैन दर्शन का आधार सिद्ध हुआ। * सच्चे शास्त्र का उपलक्षण या प्रतिनिधि ग्रन्थ है। * सारे भारतवर्ष के जैन परीक्षा बोर्डो के पाठ्यक्रम में और जैन विद्यालयों · में निर्धारित है। . * इसमें कुल 357 सूत्र हैं। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तत्त्वार्थसूत्र जैन साहित्य का आदि सूत्र-ग्रन्थ है। * व्याकरण के अनुसार जो कम से कम शब्दों में पूर्ण अर्थ बता दे, उसे "सूत्र" कहते हैं। * छन्द में गद्य की अपेक्षा कम शब्दों में अधिक विषय एवं सूत्र में छन्द की अपेक्षा कम से कम शब्दों में अधिक विषय समाहित होता है। * सूत्र अर्थात् गागर में सागर भरना। * सूत्र की रचना में आधी मात्रा बच जाने पर सूत्रकार पुत्रोत्सव समान सुख मानते हैं। * सूत्रों का निर्माण वैज्ञानिक पद्धति से होता है। * सूत्रों की रचना एवं क्रम युक्तिसंगत होता है। * सूत्र = धागा, साधक, संकेत। * जैसे सूत्र में पिरोई सुई गुमती नहीं,वैसे ही सूत्र का पाठी दुर्गति में भ्रमता नहीं है। नाम की सार्थकता) * यह ग्रंथ सूत्र रूप में है, इसलिए इसका “सूत्र" नाम सार्थक है। * “तत्त्वार्थ" नाम सार्थक है, क्योंकि इसमें 7 तत्त्वों का वर्णन है, जो कि 10 अध्यायों में निम्न प्रकार से है : | प्रारंभ के चार अध्याय जीव तत्त्व पाँचवाँ अध्याय अजीव तत्त्व छठवा एवं सातवाँ अध्याय आस्रव तत्त्व आठवाँ अध्याय बंध तत्त्व | नौवाँ अध्याय संवर व निर्जरा तत्त्व | दसवाँ अध्याय मोक्ष तत्त्व * अपर नाम मोक्षशास्त्र, क्योंकि प्रारंभ मोक्षमार्ग से एवं अंत में भी मोक्ष का वर्णन है। For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (टीकाएँ) * दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में संस्कृत एवं हिन्दी की टीकाएँ और भाष्य उपलब्ध हैं। कुछ टीकाओं के नाम निम्नलिखित हैं : आचार्य का नाम टीका का नाम आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि आचार्य अकलंकदेव तत्त्वार्थ राजवार्तिक आचार्य विद्यानन्दि तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक आचार्य समन्तभद्र गंधहस्ति महाभाष्य (अप्राप्य) आचार्य श्रुतसागरं तत्त्वार्थवृत्ति * ढूँढारी भाषा के प्राचीन विद्वान - | | पं. सदासुखदासजी कासलीवाल अर्थप्रकाशिका * आधुनिक टीकाकार विद्वान - पं. फूलचंदजी सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्दजी सिद्धान्ताचार्य पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य पं. रामजी भाई दोशी आदि मंगलाचरण मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये। (भेत्तारं कर्मभूभृताम्)(ज्ञातारं विश्वतत्त्वानाम्)(मोक्षमार्गस्य नेतारम्) कर्मरूपी पर्वतों के सम्पूर्ण तत्त्वों को मोक्षमार्ग के भेदने वाले जानने वाले नेता सर्वज्ञ हितोपदेशी वीतरागी को नमस्कार किया उनके जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों के भेदनेवाले हैं और विश्वतत्त्वों के ज्ञाता हैं, उनकी मैं उन समान गुणों की प्राप्ति के लिए द्रव्य और भाव उभयरूप से वन्दना करता हूँ। (मंगलाचरण की विशेषता) कलाचसा कामालावरणपुर * आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने 115 श्लोकों में देवागम स्तोत्र बनाया, जो कि गंधहस्ति महाभाष्य (तत्त्वार्थसूत्र टीका) का मंगलाचरण है। * देवागम स्तोत्र पर 800 श्लोकों में अष्टशती भट्ट अकलंक देव ने बनायी। * अष्टशती पर 8000 श्लोकों में अष्टसहस्री आचार्य विद्यानंदि ने बनायी। (प्रथमअध्याय 9 . मोक्षमार्ग का स्वरूप __ 1 1 सम्यग्दर्शन । 2-4 | 3 | 5-6 पदार्थों के जानने के उपाय 5-8 . 7-8 सम्यग्ज्ञान-प्रमाण 9-12 | 4 मतिज्ञान 13-19 | 7 10-12 श्रुतज्ञान 20 1 13 अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान | 21-25 | 5 13-15 पाँच ज्ञानों का विषय 26-29 | 4 16 एक साथ कितने ज्ञान सम्भव 30 1 ___17 मिथ्याज्ञान 31-32 | ___18 33 | 1 | 19 कुल | 33 . 2 नय For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।।1। सूत्रार्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - ये तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग है।।1।। | मोक्षमार्ग क्या है मा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का सम्यक्चारित्र का व्यवहार सात तत्त्वों का | सात तत्त्वों का अशुभ से निवृत्ति, स्वरूप | सही श्रद्धान सही ज्ञान शुभ में प्रवृत्ति निश्चय परद्रव्यों से भिन्न | परद्रव्यों से भिन्न | परद्रव्यों से भिन्न स्वरूप | आत्मा की रुचि | आत्मा का जानना | आत्मा में लीनता तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।।2।। सूत्रार्थ - अपने-अपने स्वरूप के अनुसार पदार्थों का जो श्रद्धान होता है, वह ... सम्यग्दर्शन है।।2।। सम्यग्दर्शन तत्त्व + अर्थ + श्रद्धान भाव + भाववान (पदार्थ) + प्रतीति तन्निसर्गादधिगमावा॥३॥ सूत्रार्थ - वह (सम्यग्दर्शन) निसर्ग से और अधिगम से उत्पन्न होता है।।3।। Skin Escalon International For Personal & Private Use Only For Personal a Private Use only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 निसर्गज * स्वभाव से उदाहरण काँटे की नोंक (काँटे की नोक स्वाभाविक होती है) द्रव्य प्रथम अध्याय सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के हेतु जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ||4|| सूत्रार्थ - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं || 4 || सात तत्त्व कर्मों भाव जीव अजीव आस्रव का आना रुकना का एकदेश खिरना का सम्पूर्ण नाश शुभ - अशुभ भावों शुद्ध भावों की का आना का आत्मा से सम्बन्ध होना बंध संवर निर्जरा मोक्ष द्रव्य अधिगमज * पर के उपदेश से * बाण की धार (बाण की धार को बनाने के लिए किसी की आवश्यकता होती है) E वृद्धि भाव - • आस्रव • बन्ध - की उत्पत्ति - आस्रव का बने रहना-बन्ध उत्पत्ति - संवर वृद्धि - निर्जरा पूर्णता मोक्ष - संवर · - निर्जरा - मोक्ष For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय . नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः।।5।। सूत्रार्थ - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप से उनका अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का न्यास अर्थात् निक्षेप होता है।।5।। निक्षेप (लोक अथवा आगम में शब्द व्यवहार करने की पद्धति) द्रव्य भाव स्वरूप | जिस पदार्थ में | “वह यह है" जो गुणों को वर्तमान जो गुण नहीं, इस प्रकार | प्राप्त हुआ था पर्याय उसको उस नाम बुद्धि से अथवा गुणों | संयुक्त | से कहना । अभेद करना को प्राप्त होगा वस्तु उदाहरण वीरता न होने महावीर की राजकुमार अनंत चतुष्टय पर भी महावीर | प्रतिमा को वर्द्धमान को युक्त को नाम रखना | महावीर कहना | 'महावीर | भगवान भगवान' महावीर' कहना प्रमाणनयैरधिगमः।।6।। सूत्रार्थ - प्रमाण और नयों से पदार्थों का ज्ञान होता है।।6।। | कहना संक्षिप्त रुचि शिष्यों के लिए - पदार्थों को जानने के उपाय __ _ प्रमाण * सच्चा ज्ञान * पदार्थ को सर्वदेश ग्रहण करता है। * श्रुत ज्ञान का अवयव (अंश) - * पदार्थ का एकदेश ग्रहण करता है। For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः।।7।। सूत्रार्थ - निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान से सम्यग्दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है।।7।। मध्यम रुचि शिष्यों के लिए - पदार्थों को जानने के उपाय 7... निर्देश स्वामी साधन अधिकरण स्थिति विधान (स्वरूप) (मालिक) (उत्पत्ति का कारण) (आधार) (काल) (भेद) सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च।।8।। सूत्रार्थ - सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व से भी सम्यग्दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है।।४।। विस्तार रुचि शिष्यों के लिए - पदार्थों को जानने के उपाय सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अंतर भाव अल्पबहुत्व (अस्तित्व) (गिनती) (वर्तमान (तीन (अवधि) (विरह (परिणाम) (कमनिवास) कालों काल) ज्यादा विचरण क्षेत्र) तुलना करना) For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्।।७।। सूत्रार्थ - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान - ये पाँच ज्ञान हैं।।७।। तत्प्रमाणे||10॥ सूत्रार्थ - वह पाँचों प्रकार का ज्ञान दो प्रमाण रूप है।।10।। आद्ये परोक्षम्।।11।। सूत्रार्थ - प्रथम दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं।।11।। प्रत्यक्षमन्यत्।।12॥ सूत्रार्थ - शेष सब ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।।12।। प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) परोक्ष (इन्द्रिय और मन की सहायता के द्वारा पदार्थों को जानना) प्रत्यक्ष (बिना किसी की सहायता के केवल आत्मा के द्वारा पदार्थों को स्पष्ट जानना) मति... श्रुत विकल (मर्यादित) सकल (सम्पूर्ण) अवधि मनःपर्यय केवलज्ञान For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ज्ञान सम्बन्धी प्रयोजनभूत विचार| मति-भूत ज्ञान केवलज्ञान 1.हमारा वर्तमान प्रकट ज्ञान 1. हमारा स्वभाव . 2. पराधीन 2. स्वाधीन | 3. क्रमिक - इन्द्रियों द्वारा पदार्थों 3. युगपत् - सम्पूर्ण पदार्थों को को क्रम से जानता है इन्द्रिय बिना एकसाथ जानता है 4. क्षणिक - क्षायोपशमिक होने से क्षणिक है| 4. शाश्वत - क्षायिक होने से शाश्वत रहता है 5. घटता-बढ़ता है 5. एक जैसा रहता है | 6. इन्द्रियज ज्ञान है 6. अतीन्द्रियज ज्ञान है मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम्।।13।। सूत्रार्थ - मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध - ये पर्यायवाची नाम हैं।।13॥ मतिज्ञान के अन्य नाम मति स्मृति संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध (इन्द्रिय और (स्मरण) (जोड़रूप ज्ञान) (तर्क-व्याप्ति) (अनुमान) मन की सहायता) तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।।14।। सूत्रार्थ - वह (मतिज्ञान) इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है।।14।। मतिज्ञान की उत्पत्ति 5 इन्द्रिय इन्द्रिय (आत्मा की पहचान के चिह्न) मन अनिन्द्रिय/नो इन्द्रिय (किंचित् इन्द्रिय) For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 प्रथम अध्याय अवग्रहेहावायधारणाः।।15।। सूत्रार्थ - अंवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - ये मतिज्ञान के चार भेद हैं।।15।। मतिज्ञान के भेद अवग्रह स्वरूप सर्वप्रथम निर्णय जानना ईहा अवाय धारणा | इच्छा | भूलना नहीं अभिलाषा संशय-विस्मरण | संशय तो नहीं, न संशय, हो जाता है | पर विस्मरण | न विस्मरण होता है होता है । कालांतर बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तधुवाणां सेतराणाम्।।16।। सूत्रार्थ - सेतर (प्रतिपक्षसहित) बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त और ध्रुव के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप मतिज्ञान होते हैं।।16।। अर्थस्य||17॥ सूत्रार्थ - अर्थ (वस्तु के) अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - ये चारों मतिज्ञान होते हैं।।17।। पदार्थों के भेद बहु (1) बहु विध(2) क्षिप्र(3) अनिःसृत(4)अनुक्त(5)ध्रुव(6) (बहुत (बहुत प्रकार (शीघ्र) (गूढ़) (बिना (अचल/बहुत पदार्थ) के पदार्थ) __ कहा) काल स्थायी) अल्प(7) एक विध(8)अक्षिप्र(9) निःसृत(10) उक्त(11)अध्रुव(12) (अल्प (एक प्रकार (मंद) (प्रकट) (बताया (चंचल/ पदार्थ) के पदार्थ) . हुआ) विनाशीक) For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 प्रथम अध्याय व्यञ्जनस्यावग्रहः।।18।। सूत्रार्थ - व्यंजन का अवग्रह ही होता है।।18।। न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।।19।। सूत्रार्थ - चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता।।1।। मतिज्ञान का विषय व 336 भेद व्यंजन(अप्रकट-अव्यक्त) अर्थ(प्रकट-व्यक्त) . सिर्फ अवग्रह → 1 अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा - 4 पाँचों इन्द्रियों एवं मन से 6 नेत्र एवं मन के अलावा x4 शेष 4 इन्द्रियों से .46 12 प्रकार के पदार्थ x 12 . 12 प्रकार के पदार्थ x12 कुल = ____48 + . 288 = 336 ज्ञान की उत्पत्ति का क्रम चक्षु को छोड़कर शेष चार | अचक्षुदर्शन → व्यञ्जनावग्रह → अर्थावग्रह → इन्द्रियाँ | → ईहा →. अवाय → धारणा चक्षु इन्द्रिय चक्षुदर्शन →अर्थावग्रह - ईहा → अवाय→धारणा मन अचक्षु दर्शन→ अर्थावग्रह→ ईहा→ अवाय → धारणा For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___13 प्रथम अध्याय श्रुतं मतिपूर्व व्यनेकद्वादशभेवम्।।20। सूत्रार्थ - श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है। वह दो प्रकार का, अनेक प्रकार का और बारह प्रकार का है।।20।। श्रुतज्ञान (मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन कर अन्य पदार्थ का ज्ञान) अंगबाह्य अंगप्रविष्ट 12 भेद (द्वादशांग) अनेक भेद (सामायिकादि 14 प्रकीर्णक) भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्।।1।। सूत्रार्थ - भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियों के होता है।।21।। क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्।।22।। सूत्रार्थ - क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छह प्रकार का है, जो शेष अर्थात् - तिर्यंचों और मनुष्यों के होता है।।22।। अवधिज्ञान ___ (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिये रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानना) भव प्रत्यय जन गण प्रत्ययक्षियोपशम निमित्तिक) | स्वरूप | जिसके होने में । जिसके होने में | भव ही कारण हो| सम्यग्दर्शनादि कारण हो स्वामी | सर्व देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यंच | तीर्थंकर For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 प्रथम अध्याय गुणप्रत्यय अनुगामी अननुगामी वर्धमान हीयमान अवस्थित अनवस्थित (अन्य क्षेत्र/ (अन्यक्षेत्र/ (बढ़ता (घटता (न घटे, (घटता, भव में साथ भव में साथ, हुआ) हुआ) नबढे) बढ़ता रहे) जाए) न जाए) अन्य प्रकार से अवधिज्ञान के भेद देशावधि परमावधि सर्वावधि भवप्रत्यय गुणप्रत्ययः परमावधि और सर्वावधि के स्वामी नियम से उसी भव में मोक्ष जाते हैं। ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः।।23। सूत्रार्थ - ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान हैं।।23।। विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः।।24।। सूत्रार्थ - विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा इन दोनों में अन्तर है।।24।। मनःपर्ययज्ञान (जो दूसरों के मन में स्थित रूपी पदार्थों को स्पष्ट जाने) ऋजुमति * सरल को जाने विपुलमति * सरल - कुटिल दोनों को जाने For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रथम अध्याय ऋजुमति - विपुलमति में अंतर ऋजुमति विपुलमति । चिन्तित पदार्थ को जानता है चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित को जानता है आत्मा की कम विशुद्धता होती है | अधिक विशुद्धता होती है संयम परिणामों में गिरावट नहीं हो सकती है गिरावट हो सकती है (प्रतिपाती) | (अप्रतिपाती) | उसीभव मेंमोक्षजाने का नियम नहीं है | नियम से उसी भव में मोक्ष जाते हैं | विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः।।25।। सूत्रार्थ - विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में भेद है।।25।। अवधि-मन:पर्यय ज्ञान में अंतर अवधिज्ञान । मनःपर्ययज्ञान | विशुद्धि - | कम विशुद्ध । अधिक विशुद्ध क्षेत्र उत्पत्ति क्षेत्र त्रस नाड़ी विषय क्षेत्र | समस्त लोक स्वामी चारों गति के सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव मनुष्य लोक 45 लाख योजन का घनप्रतर रूप क्षेत्र -कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों को एवं -जो संयमी हो एवं -जो वर्धमान चारित्र सहित हो एवं -जिसके 7 ऋद्धियों में से कम से कम 1 ऋद्धि हो अवधिज्ञान के विषय का अनंतवाँ भाग (मन के विकल्प ज्यादा सूक्ष्म होते हैं) विषय | परमाणु तक For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 16 प्रथम अध्याय __ मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।।26।। सूत्रार्थ - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति कुछ पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों होती है।।26॥ रूपिष्ववधेः।।27।। सूत्रार्थ - अवधिज्ञान की प्रवृत्ति रूपी पदार्थों में होती है।।27।। तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य।।28।। सूत्रार्थ - मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग होती है।।28। ___ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।।29।। सूत्रार्थ - केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्य और उनकी सब पर्यायों में होती है।।29।। 5 ज्ञानों का विषय मति-श्रुत अवधि मनःपर्यय न केवल द्रव्य | सर्व द्रव्य | रूपी द्रव्य रूपी द्रव्य सर्व द्रव्य * पुद्गल * संसारी जीव पर्याय | कुछ पर्यायें कुछ पर्यायें कुछ पर्यायें सर्व पर्याय (अवधि का अनंतवाँ भाग) g For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्यः।।30॥ सूत्रार्थ - एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक भजना से होते हैं।।30॥ एक जीव के एक साथ कितने ज्ञान । । । । - - केवलज्ञान मति मति मति श्रुत श्रुत अवधि मनःपर्यय । अवधि मनःपर्यय For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥31॥ सूत्रार्थ - मति, श्रुत और अवधि - ये तीन विपर्यय भी हैं । । 31 ।। सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ||32| सूत्रार्थ - वास्तविक और अवास्तविक के अन्तर के बिना यदृच्छोपलब्धि (जब जैसा जी में आया उस रूप ग्रहण होने) के कारण उन्मत्त की तरह ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है। 32 ॥ मिथ्याज्ञान 18 कुमति कुश्रुत मिथ्यादृष्टि का सर्व ज्ञान मिथ्या क्योंकि ? उसका श्रद्धान मिथ्या श्रद्धान कैसा ? सत्-असत् का विवेक नहीं किसके जैसा ? पागल की तरह जो अपनी इच्छानुसार पदार्थ का ग्रहण करता है। कुअवधि For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय 19 नैगमसंग्रहव्यवहारर्जु सूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नयाः ।। 33 ।। सूत्रार्थ - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत - ये सात नय हैं ।। 33 । नय (जो पदार्थ के एक अंश को जाने या कहे) द्रव्यार्थिक (जो द्रव्य को ग्रहण करे) संग्रह नैगम (संकल्प ग्रहण ( जाति के विरोध बिना करना) समस्त पदार्थों को इकट्ठा ग्रहण करना) पर्यायार्थिक (जो पर्याय को ग्रहण करे) व्यवहार (विधिपूर्वक पदार्थों के भेद को ग्रहण करना) समभिरूद ऋजुसूत्र शब्द (वर्तमान पर्याय (लिंग आदि के भेद (पर्यायवाची शब्दों • मात्र का ग्रहण) से पदार्थ का भेद से भेद कर पदार्थ रूप ग्रहण) का ग्रहण) For Personal & Private Use Only एवंभूत (उसी क्रिया रूप परिणमित पदार्थ काण ) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 | जीव के असाधारण भाव | जीव का लक्षण | जीवों के भेद इन्द्रियाँ विग्रहगति विषय-वस्तु जन्म और योनि शरीर वेद | आयु अपवर्तन से मरण - (द्वितीय अध्याय) कुमा 1-7 8-9 10-14 15-24 25-30 31-35 36-49 53 कुल 7 2 For Personal & Private Use Only 5 10 6 5 50-52 3 14 1 53 पुछ सख्या 20-26 26-27 28-29 30-31 32-33 33-36 36-40 औपशमिक क्षायिकी भावी मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक - पारिणामिकौ च ॥1॥ सूत्रार्थ औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदायिक और पारिणामिक - ये जीव के स्वतत्त्व हैं।।1।। द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ||2|| सूत्रार्थ - उक्त पाँच भावों के क्रम से दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं || 2 || 40-41 41 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम द्वितीय अध्याय जीव के असाधारण भाव शमिक क्षायिक मिश्र औवकि पारिणामिक (क्षायोपशमिक) भेद 2 कर्म का उपशम | (दबना) संबंधित मोहनीय कर्म उदाहरण जल में मैल हेय- एकदेश उपादेय उपादेय जानने पारिणामिक से लाभ भाव के आश्रय व से विकार दूर सिद्धि होना शुरू होता है 21 क्षयोपशम उदय (फल, दबना, (फल) वियोग एक साथ) 4 घातिया 4 घातिया जीवों संख्यात की अथवा संख्या असंख्यात 9 क्षय ( अत्यन्त का नीचे बैठना शुद्ध होना वियोग ) आत्मा श्रद्धा व चारित्र गुणों की सम्बन्धी भाव- अवस्था में में मल दबना 8 कर्म जल का पूर्ण जल मे कुछ गंदला जल जल मैल का अभाव तथा दबना एवं सामान्य कुछ का प्रकट होना अशुद्धता का सर्वथा क्षय प्रकट करने योग्य उपादेय 18 पुरुषार्थ से विकार नष्ट होता है गुणों का आंशिक विकास एकदेश उपादेय अनादि से विकार करता स्वभाव से शुद्ध होने पर हुआ भी जीव भी कर्म जड़ नहीं होता सम्बन्ध से पर्याय में विकार है अनंत अनंत | ( औपशमिक ( क्षायिक से से अनंतगुणे) अनंतगुणे) |4-14 गुण- 1-12 स्थानवर्ती + सिद्ध भगवान वर्ती गुणस्थान 3 विभाव रूप परिणमन होना 1 -14 गुण स्थानवर्ती कर्म-निरपेक्ष For Personal & Private Use Only 21 जीवत्व, भव्यत्व अभव्यत्व आश्रय करने योग्य परम उपादेय आत्म निर्भरता आती है - अनंत समस्त जीव ( क्षायोपशमिक (औदयिक से विशेष से विशेष अधिक) अधिक)1-14 गुणस्थानवर्ती +सिद्ध भगवान Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ 22 द्वितीय अध्याय 5 भावों को समझने के लिए आवश्यक कर्म प्रकृतियाँ - कर्म घातिया (आत्मा के अनुजीवी गुणों को घाते) (47) अघातिया .. ज्ञानावरण . (5) दर्शनावरण (9 मोहनीय (28) अंतराय (5) दर्शन मोहनीय (3) चारित्र मोहनीय (25) मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व प्रकृति कषाय (16) नोकषाय (9) अनंतानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ (4) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ (4) प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ (4) संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ (4) 'वेदनीय आयु नाम गोत्र For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय 23 सम्यक्त्वचारित्रे।।3।। सूत्रार्थ - औपशमिक भाव के दो भेद हैं-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ।।3।। औपशमिक भाव औपशमिक सम्यक्त्व (मोहनीय की 7, 6 अथवा 5 प्रकृतियों के दबने से) औपशमिक चारित्र (मोहनीय की 21 प्रकृतियों के दबने से) ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च।।4।। सूत्रार्थ - क्षायिक भाव के नौ भेद हैं - क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र।।4।। क्षायिक भाव क्षायिक ज्ञान क्षायिक दर्शन क्षायिक वान क्षायिक सम्यक्त्व (ज्ञानावरण . (दर्शनावरण) क्षायिक लाभ (दर्शनं मोहनीय के क्षय से) के क्षयंसे) क्षायिक भोग के क्षय से) क्षायिक उपभोग क्षायिक चारित्र क्षायिक वीर्य (चारित्रमोहनीय (अंतराय के क्षय से) के क्षय से) For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्ध्यश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमा संयमाश्च ।। 5 ।। सूत्रार्थ - क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं- चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ॥5॥ द्वितीय अध्याय क्षायोपशमिक भाव 4 ज्ञान 3 कुज्ञान 3 दर्शन 5 लब्धि मतिज्ञान कुमतिज्ञान चक्षुदर्शन दान श्रुतज्ञान कुश्रुतज्ञान अचक्षुदर्शन लाभ अवधिज्ञान कुअवधिज्ञान अवधिदर्शन भोग | मन:पर्ययज्ञान उपभोग वीर्य (ज्ञानावरण) सम्यक्त्व * चारित्र *संयमासंयम वर्तमान सदवस्थारूप उदयाभावी क्षय (देशघातिरूप फल) उपशम (दबना) (दर्शन ( चारित्र मोहनीय) मोहनीय) (दर्शनावरण) ( अंतराय) (मोहनीय) क्षयोपशम से क्षयोपशम सर्वघाति स्पर्द्धक (पूर्ण घात) देशघाति स्पर्द्धक ( आंशिक घात) I आगामी उदय (फल देना) For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय गतिकषायलिङ्गमिथ्यावर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये कैकैकैकषड्भेदाः।।6।। सूत्रार्थ - औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं- चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्ध भाव और छह लेश्याएँ।।6।। औदयिक भाव 4 गति 4 कषाय 3 वेव 6 लेश्याएँ 4 शेष - नरकगति - क्रोध -स्त्रीवेद -कृष्ण लेश्या - मिथ्यादर्शन - तिर्यंचगति— मान - पुरुषवेद-नील लेश्या - अज्ञान - मनुष्यगति - माया L नपुंसक -कापोत लेश्या - असंयम – देवगति - लोभ वेद -पीत लेश्या - असिद्धत्व -पद्म लेश्या _शुक्ल लेश्या जीवभव्याभव्यत्वानि च।।7.. सूत्रार्थ-पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व।।7।। पारिणामिक भाव जीवत्व भव्यत्व अभव्यत्व (चेतना परिणाम) (सम्यग्दर्शनादि प्रकट (सम्यग्दर्शनादि प्रकट न होने की योग्यता) होने की योग्यता) For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय सम्यक्त्व आदि गुणों में सम्भावित भाव चारित्र 26 सम्यक्त्व औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक क्षायिक अव्याप्ति जैसे- जीव का लक्षण केवलज्ञान औपशमिक क्षायिक देश संयम (5वें गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक ) अतिव्याप्ति जीव का लक्षण अमूर्तिक ज्ञान, दर्शन, वानादि 5 लब्धि उपयोगो लक्षणम् ॥8॥ सूत्रार्थ - उपयोग जीव का लक्षण है || 8 || लक्षणाभास ( सदोष लक्षण) क्षायोपशमिक सकल संयम (6-7वें गुणस्थानवर्ती मुनिराज ) क्षायोपशमिक For Personal & Private Use Only असम्भव जीव का लक्षण स्पर्श, रस, गंध, वर्ण Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 द्वितीय अध्याय लक्षण (बहुत से मिले पदार्थों में से एक को जुदा करने वाला हेतु) अनात्मभूत आत्मभूत (जैसे - उपयोग जीव का आत्मभूत लक्षण है) स विविधोऽष्टचतुर्भेवः।।।। सूत्रार्थ - वह उपयोग दो प्रकार का है- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है और दर्शनोपयोग चार प्रकार का है।।9।। उपयोग (जीव का लक्षण) ज्ञानोपयोग (विशेष जानना) दर्शनोपयोग (सामान्य प्रतिभास) (साकार) (निराकार) - 5 सम्यग्ज्ञान L3मिथ्याज्ञान । । । । - चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन केवलदर्शन उपयोग (अध्यात्म भाषा से 3 प्रकार) ... शुभोपयोग (देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति आदि) अशुभोपयोग (5 पाप, 4 कषाय व इन्द्रियविषयों में प्रवृत्ति) शुद्धोपयोग (शुभ और अशुभ उपयोग से रहित वीतराग भाव) For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय संसारिणी मुक्ताश्च ।।10।। सूत्रार्थ - जीव दो प्रकार के हैं - संसारी और मुक्त ।।10।। समनस्कामनस्काः ॥11॥ सूत्रार्थ - मनवाले और मनरहित ऐसे संसारी जीव हैं ।।11।। जीव 28 संसारी (कर्म सहित ) समनस्क * मन सहित स्वामी - * चारों गति के जीव मुक्त (कर्म रहित) अमनस्क * मन रहित * सिर्फ तिर्यंच संसारिणस्त्रसस्थावराः ||12|| सूत्रार्थ - (तथा) संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार हैं ।।12।। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ।। 13 || सूत्रार्थ पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक - ये पाँच स्थावर हैं ।।13।। द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ||14|| सूत्रार्थ - दो इन्द्रिय आदि त्रस हैं ।।14।। सूत्र क्रमांक 15 से 21 तक के लिए आगे देखें ! वनस्पत्यन्तानामेकम् ||22|| सूत्रार्थ - वनस्पतिकायिक तक के जीवों के एक अर्थात् प्रथम इन्द्रिय होती है ||22|| कृमिपिपीलिका भ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि || 23 || सूत्रार्थ - कृमि, पिपीलिका, भ्रमर और मनुष्य आदि के क्रम से एक-एक इन्द्रिय अधिक होती है ।। 23 ।। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय संसारी जीवों के अन्य प्रकार से भेद त्रस (त्रस नामकर्म का उदय) स्थावर (स्थावर नामकर्म का उदय) द्वीन्द्रिय जैसे- (लट) त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय एकेन्द्रिय (चींटी) (भ्रमर) (मनुष्य) । पृथिवी जल अग्नि वायु वनस्पति साधारण . प्रत्येक (निगोदिया) . (एक शरीर एक स्वामी) " (एक शरीर अनेक जीव स्वामी) सप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित (जिसके आश्रय से अनेक (जिसके आश्रय से कोई निगोदिया शरीर हों) निगोदिया न हो) पाँच स्थावरों के प्रत्येक के 4-4 भेद ... जैसे । पृथिवी पृथिवी जीव पृथिवीकायिक पृथिवीकाय पृथिवी . विग्रहगति का जीव पृथिवीरूप शरीर के पृथिवीकायिक - सामान्य जो पृथिवी में जन्म सम्बन्ध से युक्त जीव जीव द्वारा छोड़ा लेने जा रहा है गया शरीर For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. द्वितीय अध्याय पञ्चेन्द्रियाणि||15॥ सूत्रार्थ - इन्द्रियाँ पाँच हैं।।15।। इन्द्रियाँ (जीव की पहचान के चिह) स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु कर्ण द्विविधानि।।16। सूत्रार्थ - वे प्रत्येक दो-दो प्रकार की हैं।।16।। निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।।17।। सूत्रार्थ - निर्वृत्ति और उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय है।।17।। लब्युपयोगी भावेन्द्रियम्॥18॥ सूत्रार्थ - लब्धि और उपयोगरूप भावेन्द्रिय है।।18।। इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रि निर्वृत्ति उपकरण (इन्द्रियाकार (निर्वृत्ति का रचना) उपकार करे) लब्धि उपयोग (ज्ञानावरणीय (चेतना का कर्म का क्षयोपशम) परिणाम विशेष) अभ्यंतर (आत्मप्रदेशों का आकार) बहिरंग अभ्यंतर बहिरंग (पुद्गल (जैसे - नेत्र में (जैसे - नेत्र की का आकार) काला - सफेद पलकें , भौहें) मण्डल) For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 द्वितीय अध्याय स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि||19।। सूत्रार्थ - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र - ये पाँच इन्द्रियाँ हैं।।19।। स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः।।20।। सूत्रार्थ - स्पर्शन, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द - ये क्रम से उन इन्द्रियों के विषय हैं।।20।। श्रुतमनिन्द्रियस्य।।21।। सूत्रार्थ - श्रुत मन का विषय है।।21।। . इन्द्रियों और मन के विषय व आकार नाम | स्पर्शन रसना घाण चक्षु श्रोत्र । मन मन विषय 8 प्रकार | 5 प्रकार | 2 प्रकार | 5 प्रकार | 7 प्रकार श्रुतज्ञान का स्पर्श का रस | की गंध का वर्ण का शब्द के विषय भत पदार्थ आकार अनेक | खुरपा | तिल पुष्प मसूर दाल| यव की | आठ नाली | पंखुड़ियों का फूला कमल • संज्ञिनः समनस्काः ।।24|| सूत्रार्थ - मनवाले जीव संज्ञी होते हैं।।24।। संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ | .. नाम ज्ञान आहारादि की इच्छा मनसहित (यह अर्थ यहाँ सूत्र में विवक्षित है) For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय विग्रहगतौ कर्मयोगः ||25|| सूत्रार्थ - विग्रहगति में कार्मण काययोग होता है || 25 | अनुश्रेणि गतिः ||26|| 32 सूत्रार्थ - गति श्रेणी के अनुसार होती है ।। 26।। अविग्रहा जीवस्य || 27 || सूत्रार्थ मुक्त जीव की गति विग्रहरहित होती है ।। 27।। विग्रहवती च संसारिणः प्राक्चतुर्भ्यः ।। 28 11 सूत्रार्थ - संसारी जीव की गति विग्रहरहित और विग्रहवाली होती है। उसमें विग्रहवाली गति चार समय से पहले अर्थात् तीन समय तक होती है ।। 28 ।। एकसमयाऽविग्रहा | | 29 || सूत्रार्थ - एक समयवाली गति विग्रहरहित होती है || 2911 एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ||30|| सूत्रार्थ - एक, दो या तीन समय तक जीव अनाहारक रहता है। 3011 · विग्रहगति (जीव का एक शरीर छोड़ दूसरे शरीर के लिए गमन करना) अविग्रहा (मोड़े रहित) ऋजुगति/इषुगति प्राणिमुक्ता सीधी - बिना मोड़ 1 मोड़ा समय 1 समय 2 समय अनाहारक अनाहारक नहीं होता 1 समय काल नाम मोड़ा - विग्रहवती (मोड़े सहित) लांगलिका | गौमूत्रिका 2 मोड़ा 3 मोड़ा 3 समय 4 समय 2 समय 3 समय औदारिकादि तीन शरीर तथा छः पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं।. For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 द्वितीय अध्याय अनुश्रेणि गति (आकाश के प्रदेशों की पंक्ति के अनुसार गमन) मुक्त जीव संसारी जीव सिर्फ ऋजुगति चारों प्रकार की गति सम्मू नगर्भोपपावा जन्म।।31।। सूत्रार्थ - सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद - ये (तीन) जन्म हैं।।31।। सूत्र क्रमांक 32 के लिए आगे देखें! जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः।।33।। सूत्रार्थ - जरायुज, अण्डज और पोत जीवों का गर्भजन्म होता है।।33।। देवनारकाणामुपपावः।।34।। सूत्रार्थ - देव और नारकियों का उपपाद जन्म होता है।।34।। . शेषाणां सम्मूर्छनम्।।35।। सूत्रार्थ - शेष सब जीवों का सम्मूर्छन जन्म होता है।।35।। जन्म (पूर्व शरीर का त्याग कर नये शरीर का ग्रहण करना) गर्भ ..(माता-पिता के रंज व वीर्य से) उपपाद सम्मूर्छन (अंतर्मुहूर्त में शरीर पूर्ण (सब ओर से परमाणु युवा हो जाता है) ग्रहण कर शरीर की रचना) जरायुज अंडज पोत . (जेर लिपटे (अंडे से (बिना आवरण हुए जरायु से पैदा होते पैदा होते ही . पैदा होते हैं) हैं) चलने लगते हैं) -जैसे - गाय, हाथी चील, कबूतर सिंह, नेवला देव व नारकी शेष जीव For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 निम्नलिखित जीवों के नियम से निम्न जन्म ही होते हैं। द्वितीय अध्याय सम्मूर्छन | * एकेन्द्रिय * विकलेन्द्रिय * लब्धि अपर्याप्त * भोगभूमिया तिर्यंच मनुष्य गर्भज पर्याप्तक गर्भ J * पर्याप्त मनुष्य कर्मभूमिया पंचेन्द्रिय असैनी व सैनी तियंच सम्मूर्च्छन उपपाद * देव * भोगभूमिया मनुष्य * नारकी पर्याप्तक For Personal & Private Use Only अपर्याप्तक Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय 35 सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ।। 32 || सूत्रार्थ - सचित्त, शीत और संवृत तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अचित्त, उष्ण और विवृत तथा मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत - ये उसकी अर्थात् जन्म की योनियाँ हैं ।। 321 योनि (उत्पत्ति स्थान) सचित्त अचित्त सचित्ताचित्त संवृत ( चेतना ( चेतना (मिश्र) (ढकी) सहित) रहित ). शीत देव व नारकी गर्भज-मनुष्य व तिर्यंच सम्मूर्छन मनुष्य व • पंचेन्द्रिय तिर्यंच विकलेन्द्रिय केन्द्रिय (ठंडी) प्रत्येक जीव के ऊपर नौ में से हर समूह में से एक, अर्थात् कुल मिलाकर 3 योनि नियम से होती हैं। किस योनि में कौन जीव जन्म लेता है ? जीव योनि शीत व उष्ण संवृत्त जल साधारण वनस्पति उष्ण शीतोष्ण (गर्म ) (मिश्र) अचित्त सचित्ताचित्त (पृथिवी, वायु, प्रत्येक वनस्पति) मिश्र) अग्नि दो प्रकार (अचित्तव संवृतविवृत विवृत ( खुली) (कुछ ढकी, कुछ खुली) सचित्त तीनों प्रकार उष्ण शीत तीनों प्रकार For Personal & Private Use Only संवृतविवृत विवृत संवृत Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 द्वितीय अध्याय 84 लाख योनियाँ -तिर्यंच * एकेन्द्रिय नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथिवी, जल अग्नि, वायु (प्रत्येक की 7-7 लाख) 6x7 | 42 लाख प्रत्येक वनस्पति 10 लाख *विकलेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय (प्रत्येक की 2 लाख) 6 लाख * पंचेन्द्रिय तिर्यंच 4 लाख -नारकी 4 लाख 3x2 -देव 4लाख -मनुष्य 14 लाख कुल योनि 84 लाख औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि।।36।। सूत्रार्थ- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण-ये पाँच शरीर है।।36।। परं परं सूक्ष्मम्।।37।। सूत्रार्थ - आगे-आगे का शरीर सूक्ष्म है।।37।। प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात्।।38।। सूत्रार्थ - तैजस से पूर्व तीन शरीरों में आगे-आगे का शरीर प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणा है।।38।। अनन्तगुणे परे।।39।। सूत्रार्थ - परवर्ती दो शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं।।39।। सूत्र क्रमांक 40 से 44 तक के लिए आगे देखें! गर्भसम्मूर्छ नजमाद्यम्।।45॥ सूत्रार्थ - पहला शरीर गर्भ और संमूर्च्छन जन्म से पैदा होता है।।45।। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव द्वितीय अध्याय . औपपादिकं वैक्रियिकम्।।46।। सूत्रार्थ - वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्म से पैदा होता है।।46।। | शरीर नाम औदारिक वैक्रियिक आहारक तेजस कामण स्वामी | मनुष्य व | देव व छठे गुणस्थान-सभी संसारी सभी | तिर्यंच । नारकी वर्ती आहारक जीव संसारी ऋद्धिधारी मुनिराज स्वरूप स्थूल शरीर | जो एक- । जो सूक्ष्म जो तीन ज्ञानावर अनेक, सूक्ष्म- पदार्थ का शरीरों को णादि8 स्थूल, हल्का- निर्णय व कांति देता कर्मों का | भारी रूप | संयम की समूह हो सके । रक्षा के लिए होता है सूक्ष्मता | सबसे औदारिक वैक्रियिक से | आहारक से | सबसे स्थूल से सूक्ष्म सूक्ष्म | सूक्ष्म । सूक्ष्म प्रदेशों | सबसे कम औदारिक से वैक्रियिक से | आहारक से सबसे (परम | (पर अनंत) असंख्यात | असंख्यात अनंतगुणे | ज्यादा णुओं) गुणे । | (तैजस की । से अनंत संख्या आगे-आगे के शरीरों में प्रदेशों की अधिकता होने पर भी उनका सम्बन्ध लौह पिण्ड की तरह सघन होता है, अतः वे बाह्य में - अल्प (सूक्ष्म) रूप होते हैं। | गुणे) For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 सूत्रार्थ - प्रतिघात रहित हैं || 40 || अनादिसम्बन्धे च ||41 | सूत्रार्थ - आत्मा के साथ अनादि सम्बन्ध वाले हैं।।41।। सर्वस्य ॥ 42|| सूत्रार्थ - तथा सब संसारी जीवों के होते हैं ।। 42 || तैजस और कार्मण शरीर की विशेषता अप्रतिघात ( न किसी से रुकता है, किसी को रोकता है) द्वितीय अध्याय अप्रतिघाते ।। 40 ।। तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ।।43 ।। सूत्रार्थ - एक साथ एक जीव के तैजस और कार्मण से लेकर चार शरीर तक विकल्प से होते हैं ।। 43॥ एक साथ एक जीव के कितने शरीर ++ से अनादि-सम्बन्ध सभी के (अनादि - संतति अपेक्षा) (सर्व संसारी जीवों के) (सादि-निर्जरा अपेक्षा) कौन तैजस, तैजस, तैजस, कार्मण कार्मण, कार्मण, औदारिक वैक्रियिक स्वामी - मोड़े वाली मनुष्य, विग्रह तिर्यंच गति में स्थित जीव 3 देव. नारकी तैजस, तैजस, कार्मण, कार्मण, औदारिक, औदारिक, आहारक वैक्रियिक छठे गुणस्थान-विक्रिया वर्ती आहारक ऋद्धिधारी ऋद्धिधारी मुनिराज मुनिराज For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 द्वितीय अध्याय निरुपभोगमन्त्यम्।।44॥ सूत्रार्थ - अन्तिम शरीर उपभोग रहित है।।44।। - इन्द्रियों के द्वारा शब्द वगैरह के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं। - कार्मण शरीर में इस प्रकार का उपभोग न होने से वह निरुपभोग है। लब्धिप्रत्ययं च।।4।। सूत्रार्थ - तथा लब्धि से भी पैदा होता है।।47।। वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्म से लब्धि से * देव और नारकियों का. *मुनिराज को तप विशेष से प्राप्त ऋद्धि * औदारिक शरीर का ही परिणमन ' तैजसमपि।।48।। सूत्रार्थ - तैजस शरीर भी लब्धि से पैदा होता है।।48।। तैजस शरीर AMASurvey अनिःसरण निःसरण स्वरूप | शरीरों को कांति देने वाला | शरीर से बाहर निकलने वाला स्वामी | सभी संसारी जीव । ऋद्धिधारी मुनिराज किसका परिणमन तैजस वर्गणा का आहार वर्गणा (औदारिक शरीर) का For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 द्वितीय अध्याय निःसरण तैजस शरीर शुभ * करुणा के कारण निकलता है। * दाहिने कंधे से निकलता है। * श्वेत वर्ण व शुभ आकृति का होता है। * रोग, मारी आदि को दूर करता है। * बायें कंधे से निकलता है। * सिन्दूरी वर्ण व बिलाव के आकार का होता है । * मन में रही विरुद्ध वस्तु एवं स्वयं को भस्मीभूत करता है। शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ||49 || सूत्रार्थ - आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और व्याघात रहित है और वह प्रमत्तसंयत के ही होता है। 49 || शुभ (अच्छे कार्य के लिए होता है) अशुभ * क्रोध के कारण निकलता है। आहारक शरीर विशुद्ध (शुभ कर्म के कारण श्वेत वर्ण समचतु रस्र संस्थान) व्याघात रहित ( ढाई द्वीप में न किसी से रुकता है, न किसी को रोकता है) सूत्रार्थ - देव नपुंसक नहीं होते ||51|| नारकसम्मूर्च्छिनो नपुंसकानि ||50|| सूत्रार्थ - नारक और संमूर्च्छिन नपुंसक होते हैं ||50|| न देवाः ||51|| शेषास्त्रिवेदाः ||52|| सूत्रार्थ - शेष के सब जीव तीन वेदवाले होते हैं ।। 52।। मुनिराज को (छठे गुणस्थान वर्ती किन्हीं For Personal & Private Use Only ऋद्धिधारी मुनिराज को ही होता है) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकी नपुंसक गर्भज 3 वेद उपपाद जन्म ↓ देव, देव पुरुष, स्त्री नारकी द्वितीय अध्याय वेद सम्मूर्च्छन J नपुंसक गर्भज ↓ मनुष्य कर्मभूमि भोगभूमि सम्मूर्छन स्त्री 3 वेद नपुंसक पुरुष एकेन्द्रिय से चौइन्द्रिय तक सभी सम्मूर्च्छन जन्म वाले होने से नपुंसक ही हैं। औपपाविकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषो ऽनपवर्त्यायुषः ||53|| सूत्रार्थ - उपपाद जन्मवाले, चरमोत्तम देहवाले और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव अनपवर्त्य आयुवाले होते हैं । । 53।। तिर्यंच / म्लेच्छ खण्ड ↓ स्त्री, पुरुष कर्मभूमि भोगभूमि अनपवर्त्य आयु (परिपूर्ण आयु भोग कर मरण होना) पंचेन्द्रिय एकेन्द्रिय 7 विकलेन्द्रिय नपुंसक चरमोत्तम देह ↓ उसी भव से मोक्ष जाने वाले 41 For Personal & Private Use Only असंख्यात वर्ष आयु ↓ भोगभूमिया मनुष्य और तिर्यंच Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तृतीय अध्याय) विषय-वस्तु सूत्र क्रमांक कुल सूत्र पृष्ठ संख्या अधोलोक का वर्णन सात पृथिवियाँ व उनमें बिल 1-2 2 44-46 नरकों के दुख | 3-5 | 3 | 49-50 नरकों में उत्कृष्ट आयु 46-48 मध्यलोक का वर्णन द्वीप व समुद्रों के नाम, आकार व विस्तार | 7-8 | 2 | 51 जम्बूद्वीप 9-32 | 24 | 52-59 | 10 पर्वत 11-13 . | 54 सरोवर 14-19 55-56 महा नदियाँ 20-23 56-57 क्षेत्रों का विस्तार 24-26, 32 57-58 काल चक्र परिवर्तन 59-61 __आयु 29-31 | | 59 अढ़ाई द्वीप 33-35 62 | मनुष्यों के भेद 36 1 | 62-63_ | कर्मभूमि । 37 1 63 | मनुष्य व तिर्यंचों की आयु । 38-39 | 2 | 64-65 कुल 39 क्षेत्र 53 27-28 ___3. For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय ___43 नारकियों का वर्णन प्रसंग प्राप्त है। नारकियों का निवास स्थान बताने के लिए लोक, बस नाड़ी एवं अधोलोक का वर्णन यहाँ किया है। लोक कहाँ है आकार ऊँचाई लम्बाई चौड़ाई घनफल (उत्तर-दक्षिण) (पूर्व-पश्चिम) । अलोकाकाश 1) पुरुषाकार सर्वत्र सर्वत्र औसत 343 के मध्य में 2) डेढ़ मृदंगाकार 14 राजू 7 राजू 3.5 राजू घनराजू (14x7x3.5) . तल में = 7 राजू मध्य में= 1 राजू ऊर्ध्व लोक का मध्य = 5 राजू ऊपर = 1 राजू औसत = 7+1+5+1 = 14% 3.5 राजू त्रस नाही । लम्बाई चौड़ाई । निवास कहाँ हैं ऊँचाई लोक के कुछ कम 1 राजू 1 राजू दो से पाँच मध्य में 13 राजू इन्द्रिय जीव ... सूक्ष्म स्थावर जीव सर्व लोक में ठसाठस भरे हैं एवं त्रस जीव सामान्य रुप से त्रसनाड़ी में ही पाए जाते हैं। . For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. कहाँ है आकार ऊँचाई लम्बाई चौड़ाई घनफल ↓ मेरुकी आधा जड़ से मृदंग नीचे तृतीय अध्याय अधो लोक 7 राजू 7 राजू सर्वत्र सर्वत्र 4 राजू 196 औसत घनराजू तल में = 7 राजू ऊपर = 1 राजू औसत = 7+1 = 8 = 4 राजू 2 2 रत्नशर्कराबालुकापङ्क धूमतमोमहातमः प्रभाभूमयो घनाम्बुवताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः ॥1॥ सूत्रार्थ - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमःप्रभा - ये सात भूमियाँ घनाम्बु, वात और आकाश सहारे स्थित हैं तथा क्रम से नीचे-नीचे हैं || 1 | तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम्॥2॥ सूत्रार्थ - उन भूमियों में क्रम से तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच नरक हैं ।। 211 निवास J. एकेन्द्रिय, नारकी, भवनवासी, व्यंतर देव For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक का आधार घनोदधि वातवलय = का आधार घन वातवलय ↓ का आधार तनु वातवलय ↓ का आधार आकाश = = रत्न प्रभा धम्मा· शर्करा प्रभा वंशा बालुका प्रभा मेघा पंक प्रभा अंजना धूम प्रभा अरिष्टा तम प्रभा मघवी महातम प्रभा माघवी तृतीय अध्याय वात वलय ठोस वायु + जल का घेरा ठोस वायु का घेरा नरकों का वर्णन पृथिवियों के रूढ़ी नाम पथिवियों बिलों की पाथड़े सार्थक नाम पतली वायु का घेरा 3 लाख 5 5 कम 1 लाख 5 3 1 For Personal & Private Use Only = = = अवधिज्ञान की मोटाई संख्या (पटल) उत्कृष्ट क्षेत्र उत्कृष्टकाल (योजन में) |1,80,000 30 लाख 13 32,000 25 लाख 11 28,000 15 लाख 9 24,000 10 लाख 7 20,000 16,000 8,000 वाष्प 1 मोटी हवा 45 पतली हवा 1 योजन भिन्न 1 1/2 कोस 31 / 2 कोस यथा 3 कोस योग्य 2 / 2 कोस अन्तर्मुहूर्त 2 कोस अन्तर्मुहू कोस अन्तर्मुहूर्त Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 . तृतीय अध्याय | बिल (नारकियों के रहने का स्थान) रचना/आकार प्रकार ... 1) ढोल की पोल के समान इन्द्रक 2) तलघर की भाँति (बीच का बिल) श्रेणी बद्ध . (4 दिशा व 4 विदिशा में कतारबद्ध) प्रकीर्णक (अंतराल में बिखरे हुए) . सूत्र क्रमांक 3 से 5 तक के लिए आगे देखें! तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परास्थितिः।।। . सूत्रार्थ - उन नरकों में जीवों की उत्कृष्ट स्थिति क्रम से एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तैंतीस सागरोपम है।।6।। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय 47 माउत्पात NATUS 8 बार असैनी पंचेन्द्रिय | 7 बार गोह, प्रथम | जघन्य | 7 धनुष | 1 नरक कापोत | 3 हाथ | 6 अंगुल |द्वितीय मध्यम | 15 धनुष | 3 नरक कापोत 2 हाथ | 12 अंगुल तृतीय उत्कृष्ट | 31 धनुष | 7 नरक कापोत, 1 हाथ जघन्य सरीसर्प 6 बार पक्षी तीर्थंकर सर्प चतुर्थ मध्यम | 62 धनुष | 105 बार नरक नील | 2 हाथ पंचम उत्कृष्ट | 125 125 17 4 बार नरक नील, धनुष सिंह चरम शरीरी जघन्य कृष्ण षष्ठ मध्यम | 25022 3 बार भावलिंगी स्त्री | 33 2 बार सप्तम उत्कृष्ट | 500 नरक कृष्ण | धनुष 2-5 गुण- | पुरुष, स्थानवर्ती मत्स्य For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 तृतीय अध्याय (द्रव्य लेश्या) * सातों नरक के नारकियों के शरीर का रंग अति कृष्ण होता है। आयु) * पहले नरक की जघन्य आयु 10,000 वर्ष है। * पहले-पहले नरक की उत्कृष्ट आयु में 1 समय अधिक करने पर आगे आगे के नरक की जघन्य आयु होती है। नरक से निकला जीव कहाँ उत्पन्न होता है मनुष्य गति तिर्यच गति कर्मभूमिज संज्ञी पर्याप्त गर्भज ही होता है। सातवें नरक से निकला जीव नियम से तिर्यच ही होता है। नरक से निकला जीव क्या नहीं होता है। नारकी देव एकेन्द्रिय - नारायण - प्रतिनारायण - बलभद्र - चक्रवर्ती असैनी पंचेन्द्रिय For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय नारका- नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ||3|| सूत्रार्थ नारकी निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना, और विक्रियावाले €11311 - परस्परोदीरितदुःखाः।।4।। सूत्रार्थ - तथा वे परस्पर उत्पन्न किये गये दुःखवाले होते हैं || 4 || संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ||5|| सूत्रार्थ - और चौथी भूमि से पहले तक वे संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये गये दुःखवाले भी होते हैं ।। 5 ।। नारकियों के दुःख लेश्या परिणाम देह वेदना विक्रिया परस्पर देवकृत (क्षेत्र का (हुंडक (शीत, (अशुभ ( श्वान अपृथक् की अशुभ संस्थान, उष्ण, स्पर्श, रस कुधातुओं रोग, गंध, वर्ण) सहित) भूख, प्यास आदि) * द्रव्य (शरीर का रंग - अति कृष्ण ) विक्रिया) भाँति लड़ते हैं) लड़ाते हैं) भाव (परिणाम - 3 अशुभ) 49 For Personal & Private Use Only (असुर कुमार देव आपस में Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 तृतीय अध्याय नारकियों द्वारा परस्पर दिए जाने वाले दुःख गर्म लोहमय रस पिलाना, अग्निरूप लाल तप्त लोहे के खम्भों से आलिंगन कराना, 1. 2. 3. 4. 5. वसूले से छीलना, 6. चमड़ी उतारना, 7. 8. 9. 10. 11. शूली पर चढ़ाना, 12. भाले से बींधना, 13. करों से चीरना, 14. अंगारों पर लिटाना, 15. गर्म रेत पर चलाना, 16. वैतरणी में स्नान कराना, 17. तलवार जैसे पत्तों के वन में प्रवेश कराना, 18. कूट - शाल्मलि वृक्ष के ऊपर चढ़ाना - उतारना, लोहमय घनों से पीटना, गर्म तेल से नहलाना, लोहे के गर्म कड़ाहों में पकाना, भाड़ में सेंकना, घानी में पेलना, व्याघ्र, रीछ, सिंह, श्वान, सियार, सियारनी, बिलाव, नेवला, सर्प, कौवा, गीध, चमगादड़, उल्लू, बाज, आदि बनकर एक दूसरे को अनेक प्रकार के दुख देना, 19. दूर से देख क्रोध करना, 20. पास आने पर मारना, 21. क्रोध से भरे वचन कहना, 22. विक्रिया से शस्त्र बनकर मारना, काटना, छेदना, भेदना आदि । - For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय ___51 जम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः।।7।। सूत्रार्थ - जम्बूद्वीप आदि शुभ नाम वाले द्वीप और लवणोद आदि शुभ नाम वाले समुद्र हैं।।7।। द्विर्द्धिर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः।।8।। सूत्रार्थ - वे सभी द्वीप और समुद्र दूने-दूने व्यासवाले, पूर्व-पूर्व द्वीप और समुद्र को वेष्टित करनेवाले और चूड़ी के आकार वाले हैं।।8।। मध्य (तिर्यक) लोक कहाँ है ऊँचाई लम्बाई चौड़ाई निवास रचना (मेरु की (1 लाख (1 राजू) (1 राजू) * मनुष्य जड़ से 40 योजन). * तिर्यंच मेरु की * देव चूलिका तक) (भवनवासी व्यंतर, ज्योतिषी) 4 कोने असंख्यात द्वीप - समुद्र - एक - दूसरे को घेरे हुए हैं। - उत्तरोत्तर दूने - दूने व्यास वाले हैं। - सभी शुभ नाम वाले हैं। For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 . तृतीय अध्याय तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः॥9॥ सूत्रार्थ - उन सबके बीच में गोल और एक लाख योजन विष्कम्भवाला जम्बूद्वीप . है। जिसके मध्य में नाभि के समान मेरु पर्वत है।।9।। जम्बूद्धीप विस्तार मेरु क्षेत्र पर्वत सरोवर नदियाँ (1 लाख (सुर्दशन (भरतादि (हिमवनादि (पद्मादि (गंगायोजन मेरु नाभि 7) 6) 6) सिंधु व्यास) के समान आदि 14) मध्य में) सुदर्शन मेरु जड़ ऊँचाई चूलिका कुल वन अकृत्रिम | ऊँचाई । चैत्यालय चित्रा + 99,000 +40 योजन =1 लाख 4 16 (प्रत्येक वन में पृथिवी में योजन 40 योजन प्रत्येक दिशा में 1 =4x4) 1000 यो. (पंच मेरु पर 16x5 = 80) चार वन भद्रशाल नन्दन सौमनस पाण्डक चित्रा पृथिवी भद्रशाल से 500 योजन ऊपर नन्दन से 62500 सौमनस से योजन ऊपर 36000 योजन ऊपर For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि||10॥ सूत्रार्थ - भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष - ये सात क्षेत्र हैं।।10। जम्बूद्धीप के क्षेत्र . । हैमवत हरि विदेह रम्यक हैरण्यवत ऐरावत भरत 32 देश * 5 म्लेच्छ खण्ड * 1 आर्य खण्ड . . (यहाँ हम रहते हैं) * 5 म्लेच्छ खण्ड *1 आर्य खण्ड . प्रत्येक देश में * 5 म्लेच्छ खण्ड * 1 आर्य खण्ड (विद्यमान तीर्थंकर यहाँ हैं) For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 . तृतीय अध्याय तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मि शिखरिणो वर्षधरपर्वताः।।11।। सूत्रार्थ - उन क्षेत्रों को विभाजित करने वाले और पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी - ये छह वर्षधर पर्वत हैं।।11।। हेमार्जुनतपनीयवैडूर्य्यरजतहेममयाः।।12।।.. सूत्रार्थ - ये छहों पर्वत क्रम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं।।12।। मणिविचित्रपार्खा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः।।13।। सूत्रार्थ - इनके पार्श्व मणियों से चित्र-विचित्र हैं तथा वे ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तारवाले हैं।।13।। पर्वत/कुलाचल नाम रंग हिमवन | सोना लम्बाई पूर्व से पश्चिम आकार । चौड़ाई । विशेषः । दीवार ऊपर, आजू-बाजू की भाँति | में विचित्र मूल में । | मणियों से एक जैसा | जड़ा हुआ नीचेव महा हिमवन चाँदी समुद्र निषध तक नील तपाया हुआ सोना वैडूर्य नील मणि रुक्मि । शिखरी | सोना चाँदी For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 ___तृतीय अध्याय पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेशरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हदास्तेषामुपरि।।14।। सूत्रार्थ - इन पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक - ये तालाब हैं।।14।। प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्धविष्कम्भो हृदः।।15।। सूत्रार्थ - पहला तालाब एक हजार योजन लम्बा और इससे आधा चौड़ा है।।15।। दशयोजनावगाहः।।16॥ सूत्रार्थ - तथा दस योजन गहरा है।।16।। तन्मध्ये योजनं पुष्करम्।।17। सूत्रार्थ - इसके बीच में एक योजन का कमल है।।17।। तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च।।18।। सूत्रार्थ - आगे के तालाब और कमल दूने-दूने हैं।।18।। तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः।।1।। ..सूत्रार्थ - इनमें श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी - ये देवियाँ सामानिक और परिषद् देवों के साथ निवास करती हैं तथा इनकी आयु एक पल्योपम है।।19।। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 पद्म 2 महापद्म 3 तिमिञ्छ | 4,000 4 के शरी 4,000 2,000 5 महा पुण्डरीक लम्बाई चौड़ाई गहराई कमल व्यास देवी (योजन में) (योजन में) (योजन में) (योजन में) 1,000 500 10 1 | (40 लाख ( 20 लाख (40,000 ( 4,000 मील) मील) मील) मील) 20 2 4 4 2 तृतीय अध्याय सरोवर 2,000 1,000 2,000 40 2,000 40 1,000 20 श्री ही 6 पुण्डरीक 1,000 500 10 1 लक्ष्मी इन सरोवरों में रहने वाली देवियों की आयु एक पल्य की है। वे सामानिक एवं पारिषद जाति के देवों के साथ रहती हैं, जिनके छोटे कमल हैं। गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्ता For Personal & Private Use Only the सुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः || 2011 सूत्रार्थ - इन भरत आदि क्षेत्रों में से गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता और रक्तोदा नदियाँ बहती हैं || 201 . धृति कीर्ति बुद्धि द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः । । 21 ।। सूत्रार्थ - दो-दो नदियों में से पहली पहली नदी पूर्व समुद्र को जाती है ।। 21 ।। शेषास्त्वपरगाः।।22। सूत्रार्थ - किन्तु शेष नदियाँ पश्चिम समुद्र को जाती हैं । । 22 ।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय नदियाँ पद्य भरत गंगा " चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गङ्गासिन्ध्वादयो नद्यः।।23।। सूत्रार्थ - गंगा और सिन्धु आदि नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं।।23।। 14 नदियाँ सरोवर (जिससे नदियों के नाम । बहने का किस दिशा परिवार नाम निकली है। क्षेत्र में जाती है नदियाँ सिंधु दो-दो नदियों | 14,000 के युगलों में रोहितास्या हैमवत 28,000 महापद्म 'रोहित से पहलीहरिकान्ता पहली नदी | 56,000 तिगिञ्छ हरित् | (जैसे - गंगा) • सीतोदा 1,12,000 केशरी सीता नरकान्ता | रम्यक एवं बाद-बाद नारी मुटुंडरीक की नदी रूप्यकूला हैरण्यवत (जैसे - सिंधु) पुण्डरीक सुवर्णकूला पश्चिम समुद्र रक्तोदा 14,000 में मिलती है। रक्ता पूर्व समुद्र में 156,000 " 8.000 | ऐरावत भरतः षड्विंशतिपञ्चयोजनशतविस्तारः षट्चैकोनविंशतिभागा - योजनस्य||24॥ सूत्रार्थ - भरत क्षेत्र का विस्तार पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस(5264) योजन है।।24।। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः | | 25 | सूत्रार्थ - विदेह पर्यन्त पर्वत और क्षेत्रों का विस्तार भरत क्षेत्र के विस्तार से दूना- दूना है ||25|| 58 उत्तरा दक्षिणतुल्याः || 26 || सूत्रार्थ - उत्तर के क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार दक्षिण के क्षेत्र और पर्वतों के समान है।। 26 ।। क्रमांक 27 से 31 तक के लिए आगे देखें ! सूत्र भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ||32।। सूत्रार्थ - भरतक्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप का एक सौ नब्बेवाँ भाग है ||32|| क्षेत्रों का विस्तार भरत क्षेत्र हिमवन पर्वत हैमवत क्षेत्र आगे-आगे के महा हिमवन पर्वत पर्वत और क्षेत्र हरि क्षेत्र निषेध पर्वत विदेह क्षेत्र नील पर्वत रम्यक क्षेत्र रुक्मि पर्वत हैरण्यवत क्षेत्र शिखरी पर्वत ऐरावत क्षेत्र 5266 / 19 योजन जम्बूद्वीप का 190 वाँ भाग 2/190, काना- 2 विस्तार विदेह तक विदेह से आगे आगे के पर्वत और क्षेत्रों का विस्तार आधा-आधा है। "" "" 33 "" 33 23 4/190, 8/190, 16/190 2/190 64/190 For Personal & Private Use Only 32 उत्तर की रचना दक्षिण जैसी है। 33 33 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय 59 भरतैराक्तयोर्वृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्।।27।। सूत्रार्थ - भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह समयों की अपेक्षा वृद्धि और हास होता रहता है।।27।। काल चक्र परिवर्तन 10 कोड़ा | उत्सर्पिणी जीवों के शरीर की ऊँचाई कोड़ी सागर आयु आदि की क्रमश: वृद्धि 10 कोड़ा | अवसर्पिणी । | जीवों के शरीर की ऊँचाई कोड़ी सागर आयु आदि की क्रमश: हानि 20 कोड़ा = 1 कल्प काल | कोड़ी सागर एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षक दैवकुरवकाः।।29॥ : सूत्रार्थ - हैमवत, हरिवर्ष और देवकुरु के मनुष्यों की स्थिति क्रम से एक, दो .. और तीन पल्योपम प्रमाण है।।29।। तथोत्तराः।।30॥ सूत्रार्थ - दक्षिण के समान उत्तर में (स्थिति) है।।30।। .. विदेहेषु संख्येयकालाः।।31।। सूत्रार्थ - विदेहों में संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य हैं।।31।। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only भोग - भूमि कर्म भूमि 1. 2. 3. 4. 5. Gil barte सुषमा सुषमा 4 कोड़कोड़ी सागर सुषमा 3 कोड़ाकोड़ी सागर सुषमा दुषमा 2 कोड़ाकोड़ी सागर दुषमा सुषमा 42,000 वर्ष कम 1 कोड़ा कोड़ी स 21,000 वर्ष दुषमा दुषमा दुषमा 21,000 वर्ष आयु 3 पल्य- 2 पल्य 2 पल्य- 1पल्य 1 पल्य- 1 पूर्व कोटी 1 पूर्व कोटी120 वर्ष -120 वर्ष 20 वर्ष 20 वर्ष 15 वर्ष शरीर की ऊंचाई 3 कोस-2 कोस 2 कोस-1 कोस 1 कास- 500 धनुष |500 धनुष - 7 हाथ 7 हाथ - 2 हाथ 2 हाथ - 1 हाथ उदित सूर्य सदृश पूर्ण चन्द्र सदृश प्रियङ्गु ( हरा ) 1 दिन बाद सदृश पाँचों वर्ण 3 दिन बाद बेर जितना 2 दिन बाद बहेड़ा जितना पाँचों वर्ण कांतिहीन धूम्रवर्ण सदृश आँवले जितना प्रतिदिन 1 बार बहुत बार बारम्बार, तीव्र के साथ गृद्धता काल परिवर्तन भरत - ऐरावत क्षेत्रों में ही होता है। यह तालिका अवसर्पिणी काल की है, उत्सर्पिणी में इससे ठीक विपरीत होता है। तृतीय अध्याय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ।। 28 || सूत्रार्थ - भरत और ऐरावत के सिवा शेष भूमियाँ अवस्थित हैं ।। 28 ।। तृतीय अध्याय क्षेत्र का नाम देवकुरु- उत्तर कुरु हरि - रम्यक हैमवत - हैरण्यवत विदेह अवस्थित भूमियों के काल काल प्रथम काल-उत्तम भोगभूमि दूसरा काल-मध्यम भोगभूमि तीसरा काल- जघन्य भोगभूमि चौथे काल की आदि तीसरा काल तुल्य तीसरा काल तुल्य कुभोग भूमि-अंतद्वीपज मानुषोत्तर पर्वत से स्वयंप्रभ पर्वत तक असंख्यात द्वीप एवं समुद्र अंत का आधा स्वयंभूरमण द्वीप, स्वयंभूरमण समुद्र एवं चार कोने देवगति नरक गति भरत एवं ऐरावत के पाँच म्लेच्छ खण्ड एवं विद्याधरों की श्रेणियाँ पंचम काल तुल्य प्रथम काल तुल्य छठा काल तुल्य 61 चौथे काल के आदि से लगाकर उसी के अंत तक हानि - वृद्धि For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय द्विर्धातकीखण्डे ||33 | सूत्रार्थ - धातकीखण्ड में क्षेत्र तथा पर्वत आदि जम्बूद्वीप से दूने हैं। 331 - पुष्करार्धे च || 34 || सूत्रार्थ - पुष्करार्ध में उतने ही क्षेत्र और पर्वत हैं ।। 34। 62 प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ।। 35।। सूत्रार्थ - मानुषोत्तर पर्वत के पहले तक ही मनुष्य हैं। 35 || अढ़ाई द्वीप (मनुष्य क्षेत्र/नर लोक) द्वीप जम्बूद्वीप कालोदधि धातकी खण्ड आधा पुष्करवर विस्तार ↓ 45 लाख लवण, योजन समुद्र आर्य (जिसमें धर्म प्रवृत्ति हो ) ऋद्धि प्राप्त जितने क्षेत्र आदि मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत तक ही होते हैं। आर्या म्लेच्छाश्च ||36।। सूत्रार्थ - मनुष्य दो प्रकार के हैं - आर्य और म्लेच्छ । 36 ।। मनुष्यों के भेद रचना ↓ 1 मेरु संबंधी ऋद्धि अप्राप्त → 2 मेरु, जम्बूद्वीप से दूने क्षेत्रादि 2 मेरु, धातकी खण्ड म्लेच्छ (जिसमें धर्म प्रवृत्ति न हो) कर्म भूमिज ( म्लेच्छ खण्ड 850) For Personal & Private Use Only अंतद्वपज (कुभोग भूमि 96) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 तृतीय अध्याय | कुभोगभूमि मनुष्य • 1. एक जाँघ वाले, एक टाँग वाले, पूंछ वाले, गूंगे, सींग वाले मनुष्य 2. खरगोश के समान, साँकल के समान लम्बे कान वाले, एक कान वाले (जिसे ओढ़ व बिछा भी लें) मनुष्य 3.घोड़े, सिंह, कुत्ता, बकरा, हाथी, गाय, मेढ़ा, मछली, भैंसा, सुअर, व्याघ्र, कौआ, बन्दर के समान मुख वाले मनुष्य 4. मेघ, बिजली, काल (मगर), दर्पण मुख वाले मनुष्य (अन्य विशेषता 1. गुफाओं में व पेड़ों पर रहते हैं। . 2. मिट्टी का, फूलों का व फलों का आहार करते हैं। 3. सबकी आयु 1 पल्य है। - भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः।।37॥ सूत्रार्थ - देवकुरु और उत्तरकुरु के सिवा भरत, ऐरावत और विदेह - ये सब __ कर्मभूमियाँ हैं।।37॥ ढाईद्वीप में कर्मभूमि एवं भोग भूमि 15 कर्म- जहाँ असि, मसि, कृषि आदि कार्य हो भूमियाँ पाँच भरत - 5 पाँच ऐरावत - 5 पाँच विदेह - 5 कुल - 15 30 भोग - जहाँ 10 प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त हो भूमियाँ जघन्य भोगभूमि - हैमवत एवं हैरण्यवत - 2X5 = 10 मध्यम भोगभूमि - हरि एवं रम्यक - 2X5 = 10 उत्कृष्ट भोगभूमि - देवकुरु एवं उत्तरकुरु - 2X5 = 10 कूल = 30 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 . तृतीय अध्याय नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते।।38।। सूत्रार्थ-मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है।।38॥ तिर्यग्योनिजानाञ्च||39।। सूत्रार्थ - तिर्यंचों की स्थिति भी उतनी ही है।।39।। मनुष्य एवं तिर्यंच आयु जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त (श्वास का 18 वाँ भाग) स्वामी - लब्धि अपर्याप्तक 3 पल्य . (असंख्यात वर्ष) उत्कृष्ट भोगभूमिया तिर्यंचों की आयु - विशेष जीव उत्कृष्ट आयु जीव मृदु(शुद्ध)पृथ्वीकायिक/ 12000 वर्ष | तीन इन्द्रिय | 49 दिन कठोर पृथ्वीकायिक 22000 वर्ष | चार इन्द्रिय 6 मास जलकायिक |7000 वर्ष । |पंचेन्द्रिय जलचर 1 कोटि पूर्व वायुकायिक | 3000 वर्ष सरीसर्प रंगने वाले पशु| 9 पूर्वांग अग्निकायिक 3 दिन | 42000 वर्ष वनस्पतिकायिक | 10000 वर्ष | पक्षी 72000 वर्ष दो इन्द्रिय | 12 वर्ष चौपाये पशु 3 पल्य सभी की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। सर्प For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय 1 पूर्वांग = 84,00,000 वर्ष |1 पूर्व = 84,00,000 पूर्वांग = 70,56,000 करोड़ वर्ष 3 प्रकार के पल्य उद्धार पल्य व्यवहार पल्य से असंख्यात कोटी नाम व्यवहार पत्य स्व- 2000 कोस, गोल गहरे गड्डे रूप में से प्रति 100 वर्ष में रोम निकालने जितने वर्ष कार्य आगे के 2 पल्य निकालने आदि के लिए सूत्र से अन्य रचनाएँ 1. विजयार्द्ध पर्वत 2. वृषभाचल पर्वत 3. गजदंत पर्वत सागर | अद्धा सागर = 10 कोड़ा कोड़ी x अद्धा पल्य 4. जम्बू 5. विदेह क्षेत्र नगरियाँ अ) वक्षार गिरि ब) विभंगा नदी स) 6 खण्ड 6. नाभिगिर 7. इष्वाकार पर्वत गुणा द्वीप - समुद्रों की गणना के लिए अद्धा पल्य उद्धार पल्य से असंख्यात गुणा 65 आयु, . कर्म स्थिति शेष सभी स्थानों की गणना के लिए सूत्र से अन्य विषय For Personal & Private Use Only 1. तीर्थंकरों की गणना. 2. त्रिकाल चौबीसी 3. तीन लोक के अकृत्रिम चैत्यालय 4. मध्यलोक के अकृत्रिम चैत्यालय Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय | तीर्थंकरों की गणना । कम से कम- ज्यादा से ज्यादा पाँच विदेह | 20 (8 नगरियों के बीच में 1) 160 (32 नगरियों में प्रत्येक में 1) पाँच भरत पाँच ऐरावत | कुल 20 170 .. ... त्रिकाल चौबीसी . 5 भरत 5 5 ऐरावत . + 5 = 10 भूत, भविष्य एवं वर्तमान सम्बन्धी x3 = 30 चौबीस तीर्थंकर अढ़ाई द्वीप की त्रिकाल चौबीसी = 720 _ x24 तीन लोक के अकृत्रिम चैत्यालय लोक का नाम । अकृत्रिम चैत्यालय अधोलोक 7,72,00,000 ऊर्वलोक 84,97,023 मध्यलोक 458 कुल 8,56,97,481 For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय 67 मध्यलोक के 458 अकृत्रिम चैत्यालय एकमेरू सम्बन्धी चैत्यालय मेरु पर कुलाचल गजदंत विजयार्द्ध वक्षारगिरि जम्बूवृक्ष शाल्मली वृक्ष 78 पंच मेरु के x 5 390 390 पंचमेरु सम्बन्धी इष्वाकार पर्वत मानुषोत्तर पर्वत . नन्दीश्वर द्वीप कुण्डलवर द्वीप (11वाँ द्वीप) रुचिकवर द्वीप (13 वाँ द्वीप) कुल 458 680 For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ऊर्ध्व लोक (देवगति) का वर्णन देवों के प्रकार, लेश्या, सामान्य भेद इन्द्रों की व्यवस्था देवों का काम सेवन देवों के भेदों के नाम ज्योतिषी देवों का गमन एवं विभाग वैमानिक देवों का वर्णन सामान्य कथन एवं भेद रहने का स्थान एवं नाम उत्तरोत्तर अधिकता एवं हीनता श्या लौकान्तिक देव द्विचरम भव कथन तिर्यंच कौन देवों की आयु चतुर्थ अध्याय एक बाल ऊपर से लोक शिखर तक मेरु की मृदंगाकार 7 राजू ि सर्वत्र सूत्र क्रमांक कुल सूत्र पृष्ठ संख्या 1-5 6 7-9 10-12 13-15 16-26 16-17,23 28-42 कुल ऊर्ध्वलोक 3 18-19 2 20-21 2 22 1 24-25 2 26 1 27 1 15 7 राजू सर्वत्र कहाँ है आकार ऊँचाई लम्बाई चौड़ाई घनफल निवास ↓ ↓ 5 1 3 3 = 3 2 6 42 3 राजू 147 * एकेन्द्रिय औसत घनराजू वैमानिक देव 15 * सिद्ध भगवान 69-72 72 73 69-70 74 74-82 74 74-78 80 75,77 81 82 82 75,79,85-87 For Personal & Private Use Only = 3 राजू Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 चतुर्थ अध्याय 69 देवाश्चतुर्णिकायाः।।1।। सूत्रार्थ - देव चार निकाय (समूह) वाले हैं।।1।। ___आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः।।2।। सूत्रार्थ - आदि के तीन निकायों में पीत पर्यन्त चार लेश्याएँ हैं।।2।। दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः।।3।। सूत्रार्थ - वे कल्पोपपन्न देव तक के चार निकाय के देव क्रम से दस, आठ, पाँच और बारह भेद वाले हैं।।3।। इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्य __ किल्विषिकाश्चैकशः।।4।। सूत्रार्थ - उक्त दस आदि भेदों में से प्रत्येक इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक रूप हैं।।4।। .. त्रायस्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः।।5।। सूत्रार्थ - किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देव त्रायस्त्रिंश और लोकपाल इन दो भेदों से रहित हैं।।5।। . सूत्र क्रमांक 6 से 9 तक के लिए आगे देखें ! भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः॥10॥ सूत्रार्थ - भवनवासी देव दस प्रकार के हैं - असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार।।10।। व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगंधर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः।।11।। सूत्रार्थ - व्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं - किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, . राक्षस, भूत और पिशाच।।11।। ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च।।12।। सूत्रार्थ - ज्योतिषी देव पाँच प्रकार के हैं - सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे।।12।। For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 चतुर्थ अध्याय देवों के प्रकार (निकाय) नाम | वनवास व्यंतर ज्योतिषी यवमानिक स्वरूप जो भवनों में | जिनका नाना | जो ज्योतिर्मय | जो विमानों में निवास करते हैं। प्रकार के देशों में विमानों में निवास करते हैं| निवास है निवास करते हैं भेद . 10 8 5 12 (कल्पोपपन्न तक) भेदों देखिए सूत्रार्थ के नाम 10 11 12 1 प्रत्येक के 10 8810 सामान्य (त्रायस्त्रिंशव | (त्रायस्त्रिंशव | भेद(इन्द्र, लोकपाल को | लोकपाल को सामानिक छोड़कर शेष | छोड़कर शेष आदि) सभी) सभी), . 10 सामान्य भेद दृष्टांत राजा सामानिक पिता, गुरु, उपाध्याय त्रायस्त्रिंश मंत्री, पुरोहित पारिषद सभा सदस्य (मित्र, परिजन) आत्मरक्ष अंगरक्षक लोकपाल कोतवाल अनीक सात प्रकार की सेना प्रकीर्णक नगरवासी आभियोग्य हाथी - घोड़ा आदि वाहन किल्विषिक चाण्डालादिक दष्टात इन्द्र For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय 71 लोक निवास अधोलोक अधोलोक | * असुरकुमार * राक्षसरत्नप्रभा पृथिवी/ रत्नप्रभा पृथ्वी के | चार निकाय के देवों का निवास | निकाय भवनवासी व्यंतर लोक | * अधोलोक * अधोलोक * मध्यलोक | * ऊर्ध्व * मध्यलोक * मध्यलोक | *चित्रा पृथिवी * सौधर्म स्थान से 790 योजन| स्वर्ग के | पंक भाग में ऊपर से 900 | प्रथम पटल योजन तक है | के विमान से * शेष 9 प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के * तिर्यक् रूप | प्रारम्भ कर - रत्नप्रभा . खर भाग में से घनोदधि । सर्वार्थसिद्धि पृथिवी के मध्यलोक | वातवलय तक विमान तक खरभाग में * भवन भवनपुर है मध्यलोक और आवास के पंक भाग में * शेष 7 प्रकार । * असुर कुमार * चित्रा पृथिवी पर | भवनों में द्वीप, पर्वत, समुद्र, * शेष 9 प्रकार देश, ग्राम, नगर. गृहों के आँगन, - भवन, रास्ता, गली, बाग, भवन पुर और वन आदि में आवासों में For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 . चतुर्थ अध्याय भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी (भवनत्रिक) देवों की लेश्याएँ द्रव्य लेश्या भाव लेश्या 6 प्रकार की पर्याप्त अवस्था अपर्याप्त अवस्था -कृष्ण - नील जघन्य पीत - कापोत पूर्वयोवीन्द्राः।।6।। सूत्रार्थ - प्रथम दो निकायों में दो-दो इन्द्र हैं।।6।। इन्द्रों की व्यवस्था, । प्रत्यकमप्रत्यकम कुल इन्द्र द 10 . %3D10X2X2-40 | 38X2X2332 भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी | वैमानिक %32 - इन्द्र प्रतीन्द्र मा एवं प्रतीन्द्र (राजकुमार तुल्य) 2 . 2 8 2 2 . (चन्द्रमा) + (सूर्य) शुरू के 4 स्वर्ग = 4 इन्द्र बीच के 8 स्वर्ग = 4 इन्द्र अंत के 4 स्वर्ग = 4 इन्द्र = 12x2 = 24 (इन्द्र +प्रतीन्द्र) चक्रवर्ती मनुष्य सिंह तिर्यंच कुल इन्द्र * = 100 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 चतुर्थ अध्याय कायप्रवीचारा आ ऐशानात्।।7। सूत्रार्थ - ऐशान तक के देव कायप्रवीचार अर्थात् शरीर से विषय-सुख भोगने ___ वाले होते हैं।।7।। शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचाराः।।४।। सूत्रार्थ-शेष देव स्पर्श, रूप, शब्द और मन से विषय-सुख भोगने वाले होते हैं।।8।। परेऽप्रवीचाराः।। सूत्रार्थ - बाकी के सब देव विषय-सुख से रहित होते हैं।।।। प्रवीचार (मैथुन-काम सेवन) कैसे । काया स्पर्श रूप शब्द मनालाप्रवीचार प्रवीचार मनुष्य के शरीर के सुन्दर मधुर एक- विषय समान स्पर्श करने शृंगार, दूसरे का वेदना का स्वरूप | संक्लेश मात्र से आकार, मन में अभाव | पूर्वक शरीर संकल्प | के द्वारा मात्र HESTERNMEANISHMIRIES TEYSERENESASRCISE विलास, चतुर, कोमल वचन. मनोज्ञ आभूषण करने से वेश रूप, की लावण्य ध्वनि के देखने सुनने मात्र से से कौन- * भवनवासी तीसरा, पाँचवें से नौवें से तेरहवें से कल्पातीत कौन से * व्यंतर चौथा आठवाँ बारहवाँ सोलहवाँ स्वर्ग में * ज्योतिषी स्वर्ग स्वर्ग स्वर्ग स्वर्ग * पहला, (3-4) |(5-8) (9-12) (13-16) दूसरा स्वर्ग (1-2) For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 . चतुर्थ अध्याय मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।।13।। सूत्रार्थ - ज्योतिषी देव मनुष्यलोक में मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं और निरन्तर गतिशील हैं।।13।। तत्कृतः कालविभागः।।14।। सूत्रार्थ - उन गमन करने वाले ज्योतिषियों के द्वारा किया हुआ काल विभाग है।।14।। बहिरवस्थिताः।।15।। सूत्रार्थ - मनुष्य-लोक के बाहर ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं।।15।।. ज्योतिषी देव अढ़ाई द्वीप में अढाई द्वीप से बाहर -निरंतर गमनशील हैं अवस्थित -मेरु की प्रदक्षिणा देते हैं -व्यवहार काल विभाग के हेतु हैं वैमानिकाः||16|| सूत्रार्थ - चौथे निकाय के देव वैमानिक हैं।।16।। कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च।।17। सूत्रार्थ - वे दो प्रकार के हैं - कल्पोपपन्न और कल्पातीत।।17।। सूत्र क्रमांक 18 से 22 तक के लिए आगे देखें! प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः।।23।। सूत्रार्थ - ग्रैवेयकों से पहले तक कल्प हैं।।23।। वैमानिक कल्पोपपन्न (12) कल्पातीत (इन्द्रादि की व्यवस्था होती है) (अहमिन्द्र - सभी इन्द्र होते हैं, इन्द्रादि 10 प्रकार की व्यवस्था नहीं होती) उपर्युपरि।।18।। सूत्रार्थ - वे ऊपर-ऊपर रहते हैं।।18।। For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 चतुर्थ अध्याय सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतार सहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्त जयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च।।1।। सूत्रार्थ - सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार तथा आनत-प्राणत, आरण-अच्युत, नौ ग्रैवेयक और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि में वे निवास करते हैं।।19॥ पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु।।2।। सूत्रार्थ - दो, तीन, कल्प युगलों में और शेष में क्रम से पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले देव हैं।।22॥ __ सौधर्मशानयोः सागरोपमे अधिके ।।29।। सूत्रार्थ - सौधर्म और ऐशान कल्प में दो सागरोपम से कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिति है।।29।। __सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त।।30॥ सूत्रार्थ - सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में सात सागरोपम से कुछ अधिक __ उत्कृष्ट स्थिति है।।30॥ त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु।।31।। सूत्रार्थ -ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल से लेकर प्रत्येक युगल में आरण-अच्युत तक क्रम . से साधिक तीन से अधिक सात सागरोपम, साधिक सात से अधिक सात सागरोपम, साधिक नौ से अधिक सात सागरोपम, साधिक ग्यारह से अधिक सात सागरोपम, तेरह से अधिक सात सागरोपम और पन्द्रह से अधिक सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।।31॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च।।32।। सूत्रार्थ - आरण-अच्युत के ऊपर नौ ग्रैवेयक में से प्रत्येक में, नौ अनुदिश में, चार विजयादिक में एक-एक सागरोपम अधिक उत्कृष्ट स्थिति है तथा सर्वार्थसिद्धि में पूरी तैंतीस सागरोपम स्थिति है।।32।। अपरा पल्योपममधिकम्।।33।। सूत्रार्थ - सौधर्म और ऐशान कल्प में जघन्य स्थिति साधिक एकपल्योपम है।।33।। परतः परतः पूर्वापूर्वाऽनन्तरा।।34।। सूत्रार्थ - आगे-आगे पूर्व-पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति अनन्तर-अनन्तर की जघन्य स्थिति है।।34।। For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G सख्या 76 चतुर्थ अध्याय ___लौकान्तिकानामष्यै सागरोपमाणि सर्वेषाम्।।42।। सूत्रार्थ - सब लौकान्तिकों की स्थिति आठ सागरोपम है।।42।। वैमानिक देव नाम (राजू) | सौधर्म-ऐशान | 2 | 11/ 2 31 | 60 लाख काला, नीला, (32+28) लाल, पीला, शुक्ल सानत्कुमार 2 | 11/ 2 7 | 20 लाख काले बिना -माहेन्द्र (12+8) शेष 4. ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर | 1 | 1/ 2 4 4 लाख लाल, पीला लांतव-कापिष्ठ 1 | 1/ 2 2 | शुक्ल शुक्र-महाशुक्र | 1 | 1/2 40000, | नीला एवं 50000 शुक्ल शतार-सहस्रार | 1 | 1/ 2 1 6000 1700 शुक्ल 5284,96,700 19 | शुक्ल आनत-प्राणत | 2 | 1/2 आरण-अच्युत | 2 | 1/2 कल्पोपपन्न 126 संबंधी जोड़ कल्पातीत 9 ग्रैवेयक (3 अधो + 3 मध्य + | 3 ऊर्ध्व ग्रैवेयक) 9 अनुदिश 5 अनुत्तर कुल (कल्पोपपन्न + कल्पातीत) 309 (111+ 107+91) शुक्ल | शुक्ल 63 84,97,023. For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय वैमानिक देव अवधिज्ञान गमन क्षेत्र स्वर्ग विमान GIËSI पर की सहायता से मध्यम पीत उत्कृष्ट पीत जघन्य पद्म मध्यम 5-6 पद्म 17-8 मध्यम पद्म | उत्कृष्ट पद्म, |1-2 जल कुछ अधिक 31/2राजू | 11/2 राजू (नीचे-1 (11/2+2) ___ नरक) वायु | 4 राजू (नीचे- 5 राजू | (3+1) 2 नरक) ज 51/2 राजू . 51/2 राजू | . (31/2+2) |ल |6 राजू (नीचे- 6 राजू ||8 राजू एवं | (4+2) 3 नरक) |(ऊपर9-10 | वा 71/2 राजू 61/2 राजू || 16 स्वर्ग तक, *(41/2+3) (नीचे 8 राजू | 4 नरक) 7 राजू ॥ |11-12 | (5+3) + आ |91/2 राजू 51/2 राजू स्व व पर | (51/2+4) (नीचे|15-16|| 10 राजू 5 नरक) 6 राजू - 6 राजू 106+4) कल्पातीत कुछ अधिक 11 राजू ग्रैवेयक | (6+5) (नीचे-6 नरक)। अपने विमानों को | श | कुछ अधिक 13 राजू छोड़कर अन्यत्र क तक) जघन्य शुक्ल उत्कृष्ट पद्म, जघन्य शुक्ल मध्यम 113-14 मिलाकर शुक्ल मध्यम शुक्ल मध्यम शुक्ल परम अनुदिश गमन का अभाव शुक्ल | कुछ कम 14 राजू | है। परम शुक्ल For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 . चतुर्थ अध्याय वैमानिक देव SEE पर प्रत्यकपट दवागनापारवार दवागना कारावाकया सौधर्म-ऐशान | 7 | 8-8 16,000 सानत्कुमार-माहेन्द्र 6 8-8 32,000 ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर | 5 8-8 64,000 लांतव-कापिष्ठ, 5 | 8-8 1,28,000 शुक्र-महाशुक्र | 4 | 8-8 2,56,000 शतार-सहस्रार| 4 | 8-8 |5,12,000 आनत-प्राणत | 3.5 | 8-8 | 10,24,000 आरण-अच्युत 3 | 8-8 |10,24,000 कल्पातीत 9 ग्रैवेयक (3 अधो 3 मध्य 3 ऊर्ध्व) देवांगनाएँ 9 अनुदिश नहीं होती 5 अनुत्तर दवाना। 1,28,000 | 64,000 | 32,000 16,000 | 8,000 4,000 | 2,000 , 2,000 हैं For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 चतुर्थ अध्याय वैमानिक देव अतराल अपत्यमा 1-2 कुछ अधिक "पल्य | 2 587 2,000 3-4 १व 11 | 7,000 5-A पीछे 10,000 10 स्वर्गकी 14 14,000 14 13 व 15 | 17 व 19 21 व 23 25 व 27 16 16,000 7-8 उत्कृष्ट 9-10 आयु में 11-12 एक समय अधिक 15-16/ 16 18 . 18,000 18 13-14 20 34041 | 20,000 20 करने पर, 22 48व 55 | 22,000 | 22 23,000 नव कल्पातीत आगे 23-31 | आगे के ग्रैवेयक स्वर्ग की जघन्य अनुविश आयु | 32 31,000 23-31 32,000 32 33,000 33 # पंच होती है अनुत्तर होती है। | सभी लौकान्तिक देवों की आयु आठ सागर की होती है। # सर्वार्थसिद्धि के देवों की जघन्य व उत्कृष्ट आय तैतीस सागर की ही होती है। 1. घातायुष्क सम्यग्दृष्टि देवों की अपेक्षा पहले से बारहवें स्वर्ग में उत्कृष्ट आयु अपनी-अपनी उपर्युक्त वर्णित उत्कृष्ट आयु से अंतर्मुहूर्त कम आधा सागर अधिक होती है। 2. घातायुष्क मिथ्यादृष्टि देवों की अपेक्षा पल्य के असंख्यातवें भाग से अधिक होती है। For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 . चतुर्थ अध्याय स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः।।20।। सूत्रार्थ - स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रियविषय और __अवधि विषय की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव अधिक हैं।।20।। वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर अधिकता स्थिति प्रभाव सुख द्युति लेश्या इन्द्रिय अवधि (आयु) (पर का भला (इन्द्रिय (शरीर, वस्त्र (भाव) ज्ञान ज्ञान -बुरा करने विषयों की आभूषण की की शक्ति) सामग्री) चमक) गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः। 21।। सूत्रार्थ - गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव हीन हैं।।21॥ वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर हीनता गति शरीर परिग्रह . अभिमान (गमन की इच्छा) (ऊँचाई) (ममता का परिणाम) (अहंकार) For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ||24|| सूत्रार्थ - लौकान्तिक देवों का ब्रह्मलोक निवासस्थान है || 24 || सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च । | 25 || सूत्रार्थ - सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट - ये लौकान्तिक देव हैं ||25|| निवास नाम की सार्थकता भेद कुल संख्या | विशेषता 81 लौकान्तिक देव पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग के अंत में, 8 दिशाओं में लोक + अंत = ब्रह्म स्वर्ग + अंत (में निवास जिनका ) लोक (संसार) + अंत = संसार का अंत निकट जिनका 1. सारस्वत 2. आदित्य 3. वह्नि 4. अरुण 5. गर्दतोय 6. तुषित 7. अव्याबाध 8. अरिष्ट 8+ (16 अन्य) = 24 भेद 4,07,820 1. स्वतन्त्र 3. ब्रह्मचारी 5. सम्यग्दृष्टि 7. देवर्षि 2. परस्पर हीनाधिकता से रहित 4. चौदह पूर्व के पाठी 6. संसार से विरक्त 8. तीर्थंकरों के तप कल्याणक में ही आते हैं। For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 चतुर्थ अध्याय विजयादिषु विचरमाः।।26।। सूत्रार्थ - विजयादिक में दो चरमवाले देव होते हैं।।26।। दो भवावतारी (विजयादिक से अधिक से अधिक 2 बार मनुष्य होकर जीव मोक्ष जाता है) 9 अनुदिश 4 अनुत्तर एक भवावतारी सर्वार्थसिद्धि लौकान्तिक सर्व सौधर्म इन्द्र सौधर्म इन्द्र देव दक्षिणेन्द्र की शची के लोकपाल इन्द्राणी - औपपाविकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः।।27।। सूत्रार्थ- उपपाद जन्मवाले और मनुष्यों के सिवा शेष सब जीव तिर्यंच योनि वाले हैं।।27।। | तिर्यंच कौन है| संसारी जीव - उपपाद जन्म वाले देव व नारकी - मनुष्य = तिर्यच For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त कौन तिर्यच किस स्वर्ग में उत्पन्न होता है भवनवासी व्यंतर चतुर्थ अध्याय भोगभूमि मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि सासादन 'भवनत्रिक सौधर्म सैनी पर्याप्त कर्मभूमि ऐशान स्वर्ग (1 व 2 ) मिथ्यादृष्टि सासादन ↓ भवनत्रिक 83 से सहस्रार (12) स्वर्ग तक केन्द्रिय और विकलेन्द्रिय तिर्यंच देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। For Personal & Private Use Only सम्यग्दृष्टि देशसंयमी सौधर्म से अच्युत स्वर्ग तक (1-16) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 चतुर्थ अध्याय कौन मनुष्य किस स्वर्ग में उत्पन्न होता है? | त्यत्ति स्वर्ग 1) भोगभूमिया - मिथ्यादृष्टि व सासादन गुणस्थानवतीं| भवनत्रिक · सम्यग्दृष्टि सौधर्म-ऐशान स्वर्ग (1 व 2) 2) कुभोगभूमिया मिथ्यादृष्टि व सासादन गुणस्थानवती भवनत्रिक सम्यग्दृष्टि सौधर्म-ऐशान स्वर्ग (1 व 2) 3) कर्मभूमिया - मिथ्यादृष्टि व सासादन गुणस्थानवर्ती | भवनवासीसे अच्युत स्वर्ग (16) तक सम्यग्दृष्टि व देशसंयमी । सौधर्म से अच्युत स्वर्ग (1-16) द्रव्य जिनलिंगी ग्रैवेयक तक सकलसंयमी-भावलिंगीमुनि | सौधर्म से सर्वार्थसिद्धि तक अभव्य जिनलिंगी ग्रैवेयक तक परिव्राजक तपस्वी ब्रह्म स्वर्ग तक (5 तक) आजीवक, कांजी आहारी, | सहस्रार स्वर्ग तक (12 तक) अन्य लिंगी देव और नारकी मरकर देवों में उत्पन्न नहीं होते। For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय कौन देव मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं। सभी देव मरकर देवों में, नरकों में, भोगभूमिया में, विकलत्रय, असैनी पंचेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर अग्नि व वायु, सभी अपर्याप्तकों में उत्पन्न नहीं होते हैं। 1) भवनवासी से ऐशान (2) तक | -बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय, -पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यंच व मनुष्य 2) सानत्कुमार से सहस्रार (3-12)| पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यंच व मनुष्य तक (एकेन्द्रिय नहीं होते) 3) आनत (13) स्वर्ग से ऊपर के | मनुष्य ही होते हैं (तिर्यंच नहीं होते) 63 शलाका पुरुषों सम्बन्धी विशेषता -भवनत्रिक के देव . 63 शलाका पुरुष नहीं होते हैं -सौधर्म से ग्रैवेयक तक के देव 63 शलाका पुरुषों में उत्पन्न हो सकते हैं -अनुदिश व अनुत्तर के देव तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र तो हो सकते हैं । नारायण, प्रतिनारायण नहीं हो सकते हैं। स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्ध हीनमिताः।।28।। सूत्रार्थ - असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और शेष भवनवासियों की उत्कृष्ट स्थितिक्रम से एक सागरोपम, तीन पल्योपम, ढाईपल्योपम, दो पल्योपम और डेढ़ पल्योपम होती है।।28।। सूत्र क्रमांक 35 और 36 के लिए आगे देखें! भवनेषु च।।37॥ सूत्रार्थ - भवनवासियों में भी दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है।।37।। व्यन्तराणाम् च।।38॥ सूत्रार्थ - व्यन्तरों की दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है।।38।। _ परा पल्योपममधिकम्।।39।। सूत्रार्थ - और उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्योपम है।।39।। For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 86 चतुर्थ अध्याय ज्योतिष्काणां च।।40॥ सूत्रार्थ - ज्योतिषियों की उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्योपम है।।40।। तदष्टभागोऽपरा।।41॥ सूत्रार्थ - ज्योतिषियों की जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति का आठवाँ भाग है।।41।। भवनत्रिक-आयु आदि | देवों के नाम | आयु देवांगना आहारेच्छा जघन्य उत्कृष्ट - आय । अतराल भवनवासी | असुरकुमार 10 हजार वर्ष 1 सागर | 3 पल्य 1000 वर्ष नागकुमार 10 हजार वर्ष 3 पल्यपल्य/8 121/2 दिन सुपर्णकुमार 10 हजार वर्ष 21/2 पल्य 3 पूर्व कोटी 121/2 दिन द्वीपकुमार | 10 हजार वर्ष 2 पल्य 3 करोड़ वर्ष 121/2 दिन शेष 6 प्रकार 10 हजार वर्ष 11/2 पल्या3 करोड़ वर्ष । | प्रथम 3 प्रकार 12 दिन, शेष 3 प्रकार 7',दिन व्यंतर 10 हजार वर्ष 1 पल्य | पल्य/2 कुछ अधिक 5 दिन ज्योतिषी | पल्य /8 1 पल्य सभी ज्योतिषी देवांगनाओं की अपने देवों की आयु के आधे प्रमाण |पल्य+1 चन्द्र वर्ष पल्य/4 | पल्य+ 1000 वर्ष ग्रह पल्य+, नक्षत्र पल्य/8 100 वर्ष |पल्य/2 पल्य/4 तारे For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87 चतुर्थ अध्याय भवनत्रिक-आयु आदि | उनासारीर की अविध ज्ञान क्षेत्र) वा अवधि बान काल जघन्य । उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट भवनवासी असुरकुमार 1पक्ष बाद 25 धनुष असंख्यात असंख्यात (37.5 मीटर) कोटी योजन नागकुमार | 12'/, सुपर्णकुमार | मुहूत असंख्यात असुरद्वीपकुमार|| बाद | 10 धनुष || 25 ||हजार प्रथम 3 ||(15 मी.) || योजन | योजन | 1 दिन संख्या| 12 मुहूर्त, तवाँ शेष 3 प्रकार 7 मुहूर्त । वर्ष हजार । कुछ कम का शेष 6 प्रकार प्रकार भाग व्यंतर कुछ धिक5 ज्योतिषी 7 धनुष | व्यंतर | ॥ (लगभग से 10 मीटर) |संख्यात व्यंतर से बहुत अधिक गुणा जिन व्यंतर देवों की आयु मात्र 10 हजार वर्ष है, उनका आहार दो दिन बाद और श्वासोच्छवास सात प्राणापान बाद होता है। नारकियों की आयु का वर्णन तीसरे अध्याय से देखें। नारकाणां च द्वितीयादिषु।।35।। सूत्रार्थ - दूसरी आदि भूमियों में नारकों की पूर्व-पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति ही अनन्तर-अनन्तर की जघन्य स्थिति है।।35।। दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम्।।36।। सूत्रार्थ - प्रथम भूमि में दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है।।36।। For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 . | 1 __ 12-16 | .92 23-24 102-103,106-108 (पञ्चम अध्याय) विषय-वस्तु सूत्र क्रमांक कुल सूत्रा पुष्ट सख्या । अजीवास्तिकाय के भेद 88-89 द्रव्य उनकी विशेषता व स्वरूप | 2-7 | 6 | 88-90 द्रव्यों की प्रदेश संख्या 8-11 | 4 | 91 द्रव्यों के रहने का स्थान (अवगाह क्षेत्र) . द्रव्यों का उपकार 17-22 6 93-96 पुद्गल का लक्षण व उसकी पर्यायें 97-99 पुद्गल के भेद व उत्पत्ति के कारण | | 25-28 / 4 100-101 द्रव्य, सत् व नित्य का लक्षण | 29-31,38 / 4 विरुद्ध धर्मों की एक वस्तु में सिद्धि 32 104 पुद्गल के बंध के हेतु व नियम | 33-37 | 5 | 104-106 | काल का वर्णन 39-40 | 2 109-110 गुण व पर्याय का स्वरूप . 41-42 | 2 ___ 111 कुल 42 अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः।।।।। सूत्रार्थ - धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल - ये अजीवकाय हैं।।1।। द्रव्याणि।।2।। सूत्रार्थ - ये धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल द्रव्य हैं।।2।। जीवाश्च।।3।। सूत्रार्थ - जीव भी द्रव्य हैं।।3।। नित्यावस्थितान्यरूपाणि।।4।। सूत्रार्थ - उक्त द्रव्य नित्य हैं, अवस्थित हैं और अरूपी हैं।।4।। रूपिणः पुद्गलाः।।5।। सूत्रार्थ - पुद्गल रूपी हैं।।5।। For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 89 आ आकाशादेकद्रव्याणि।।6।। सूत्रार्थ - आकाश तक एक-एक द्रव्य हैं।।6। निक्रियाणि च।।7।। सूत्रार्थ - तथा निष्क्रिय हैं।।7।। छह द्रव्य | नाम जीव युद्गल | धर्म अधर्म आकाश - काल स्वरूप उपयोग जिसमें जीव व जीव व सभी को | सभी को स्पर्श, पुद्गलों पुद्गलों अवकाश में | परिणमन रस, गंध को गमन को सहकारी | में व वर्ण | में ठहरने में | सहकारी • पाए जाएँ | सहकारी सहकारी द्रव्य अर्थात् (गुणों का | समूह) | अजीव द्रव्य (जिसमें चेतना न हो) काय (बहुप्रदेशी) अजीवकाय (दोनों) | नित्य । |(कभी नष्ट | न हो) । अवस्थित (संख्या कम । ज्यादा न हो) For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 . पञ्चम अध्याय जीवन पुद्गल धर्म नाम अरूपी (वर्णादि रहित) रूपी (वर्णादि सहित) निष्क्रिय (क्षेत्रान्तर और एक | एक एक असंख्यात परिस्पन्दन क्रिया रहित) द्रव्यों की अनंत | अनंत संख्या एक संख्या अनंतसंख्या । असंख्यात संख्या For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 91 . असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम्।।४।। सूत्रार्थ - धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात प्रदेश हैं।।8।। आकाशस्यानन्ताः॥9॥ सूत्रार्थ - आकाश के अनन्त प्रदेश हैं।।9।। संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम्॥10॥ सूत्रार्थ - पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं।।10।। नाणोः।।11॥ सूत्रार्थ - परमाणु के प्रदेश नहीं होते।।11।। जीव असंख्यात (एक जीव) आकाश । काल अनंत | एक द्रव्यों के प्रदेश (उनका नाप) । पुद्गल धर्म | अधर्म * अणु असंख्यात असंख्यात | अवस्था '- एक . | * स्कंध | अवस्था - संख्यात |-असंख्यात - अनंत प्रदेश = आकाश के जितने हिस्से को एक पुद्गल परमाणु रोके। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय _92 . लोकाकाशेऽवगाहः।।12।। सूत्रार्थ - इन धर्मादिक द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है।।12।। धर्माधर्मयोः कृत्स्ने।।13।। सूत्रार्थ - धर्म और अधर्म द्रव्य का अवगाह समग्र लोकाकाश में है।।13।। एकप्रदेशादिषु भाज्याः पुद्गलानाम्।।14।। सूत्रार्थ - पुद्गलों का अवगाह लोकाकाश के एक प्रदेश आदि में विकल्प से होता है।।14।। ___ असंख्येयभागादिषु जीवानाम्।।15।। सूत्रार्थ - लोकाकाश के असंख्यातवें भाग आदि में जीवों का अवगाह है।।15।। लोक में अवगाह (द्रव्यों के लोक में रहने का तरीका) जीव र पुद्गल । अधर्म आकाश काल - एक * लोक का * एक प्रदेश समस्त |समस्त | - एक प्रदेश द्रव्य असंख्यातवाँ | (अणु और लोक लोक । (रत्नों की लोक का सूक्ष्म स्कंध) (तिल में | (तिल में , | राशि जैसे) . * संख्यात तेल जैसे) तेल जैसे) बहभाग एवं सर्व | प्रदेश लोक(सिर्फ केवली असंख्यात समुद्घात में) । प्रदेश सर्व | सर्व लोक सर्व लोक सर्व लोक | सर्व लोक - सर्व लोक द्रव्य (लोकाकाश) संख्यामान RSERY भाग संख्यात असंख्यात अनंत मति-श्रुत ज्ञानी जिसे जान सकें अवधिज्ञानी जिसे जान पाएँ मात्र केवलज्ञानी परंतु मति-श्रुत ज्ञानी जिसे जिसे जान पाएँ न जान सकें For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 पञ्चम अध्याय प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्।।16।। सूत्रार्थ- क्योंकि प्रदीप के समान जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार होने के कारण लोकाकाश के असंख्येय भागादिक में जीवों का अवगाह बन जाता है।।16।। जीव और पुद्गल के आकाश के अल्प प्रदेशों में रहने का हेतु जीव * प्रदेश संकोच-विस्तार शक्ति (दीपक की तरह) * शरीर नामकर्म का उदय पुद्गल * सूक्ष्म परिणमन *एक-दूसरे को अवगाह देने की शक्ति गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः।।17।। सूत्रार्थ - गति और स्थिति में निमित्त होना - यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।।17।। धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार - मुख्य बिन्दु जीव पुदगल के गमन व स्थिति में - 1. उपादान जीव पुद्गल स्वयं 2. अंतरंग निमित्त क्रियावती शक्ति 3. बहिरंग निमित्त 1. साधारण कारण (उदासीन-अप्रेरक) धर्म और अधर्म द्रव्य 2. विशेष कारण - जल, पटरी, छाया आदि अधर्म द्रव्य - गतिपूर्वक स्थिति रूप परिणमे द्रव्यों की स्थिति में सहायक, स्थित द्रव्यों को नहीं For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय आकाशस्यावगाहः||18|| सूत्रार्थ - अवकाश देना आकाश का उपकार है।।18।। आकाश का उपकार - मुख्य बिन्दु 1. समस्त द्रव्यों को अवगाह में आकाश साधारण कारण है। 2. यद्यपि मूर्तिक का मूर्तिक से व्याघात होता है, पर इससे आकाश की अवगाह देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। 3. अलोकाकाश का भी अवगाह देने का स्वभाव है। शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम्।।1।। सूत्रार्थ - शरीर, वचन, मन और प्राणापान - यह पुद्गलों का उपकार है।।1।। पुद्गल का उपकार शरीर वचन वचन मन प्राणापान प्राणापान 5 प्रकार के भाव वचन द्रव्य वचन भाव द्रव्य प्राण अपान मन मन । । उच्छवास श्वास -पुद्गल कर्म से रचित - पुद्गल कर्म से प्राप्त उपर्युक्त सभी पुद्गल का ही जीव पर निमित्तरूप उपकार है। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95 पञ्चम अध्याय · सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च।।20।। सूत्रार्थ - सुख, दुःख, जीवित और मरण - ये भी पुद्गलों के उपकार हैं।।20।। पुद्गल का उपकार सुख दुःख जीवन मरण साता वेदनीय असाता वेदनीय आयु कर्म आयु कर्म का का उदय होने का उदय होने का बने रहना उच्छेदपर जीव को पर जीव को समाप्त होना प्रसन्नता अप्रसन्नता उपर्युक्त सभी पुद्गल और अन्य जीव का जीव पर निमित्तरूप उपकार है। परस्परोपग्रहो जीवानाम्।।21।। सूत्रार्थ - परस्पर निमित्त होना - यह जीवों का उपकार है।।21।। जीव का उपकार उपकार योग्यता कर्ता (निमित्त) जीव जीव को जीव की स्वयं की एक जीव दूसरे जीव का कर्ता नहीं For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 96 वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ।।22॥.. सूत्रार्थ-वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व - ये काल के उपकार हैं।।22।। काल का उपकार वर्तना परिणाम क्रिया परत्व अपरत्व (परिणमन (पर्याय) (हलन - (बहुत (थोड़ा में निमित्त) चलन) समय समय लगना) लगना) निश्चय काल का उपकार व्यवहार काल का उपकार सूत्र क्रमांक 17 से 22 तक का सार - द्रव्यों का उपकार (निमित्त - सहायक) राजीव पुद्गल धर्म । अधर्म आकाश काल - क्या | परस्पर |1. शरीर | गति | स्थिति अवगाहन 1.वर्तना उपकार में एक | 2. वचन 2. परिणाम (कार्य)| दूसरे का 3. मन 3. क्रिया उपकार | 4. श्वासोन 4. परत्व च्छवास 5. अपरत्व 5. सुख 6.दुख | 7. जीवन 8. मरण किस जीव का जीव पर जीव और जीव और सभी सभी पर द्रव्य जीव पर पुद्गल पर पुद्गल पर पर । पर For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय • स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।।23।। सूत्रार्थ - स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले पुद्गल होते हैं।।23।। शब्दबन्धसोक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च।।24।। सूत्रार्थ - तथा वे शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योत वाले होते हैं।।24।। पुद्गल स्वरूप → जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाए जाएँ। । । । । । । । पर्यायें (1) (2) (3) (4) (5) (6) (7) (8) (9) (10) शब्द बन्ध सूक्ष्म स्थूल संस्थान भेद तम छाया आतप उद्योत (1) शब्द (जो कान से सुना जाए) भाषात्मक (सभी प्रायोगिक) अभाषात्मक (जो मुख से उत्पन्न हो) (जो दो वस्तुओं के आघात से उत्पन्न हो) अक्षरात्मक अनक्षरात्मक प्रायोगिक वैनसिक (मनुष्य व्यवहार * त्रस तिर्यंचों (पुरुष के प्रयत्न (स्वाभाविक) में आने वाली . . की भाषा से उत्पन्न हो) (बादलों की अनेक बोलियाँ). .. * मनुष्य के गर्जन, झरने. संकेत वचन की आवाज * दिव्य ध्वनि आदि) तत (चमड़े के मड़े) (ढोल, तबला) वितत घन (तार वाली) (ठोस पदार्थ) (वीणा) (घंटा, घुघरू) सुषिर (फूंक से) (बाँसुरी) For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 . पञ्चम अध्याय (2) बंध प्रायोगिक (प्रयत्नपूर्वक) वैससिक, (स्वाभाविक) अजीव जीव-अजीव आदिमान अनादिमान . विषयक विषयक (बादल, बिजली (महास्कंध) (मकान (जीव और आदि) कपड़े आदि) कर्म-नोकर्म) (3) सूक्ष्म अन्त्य (अन्य की विवक्षा रहित) आपेक्षिक (विवक्षा सहित) परमाणु — जैसे - बेर आँवले से सूक्ष्म है (4) स्थूल . अन्त्य आपेक्षिक महास्कंध जैसे - आँवला बेर से स्थूल है 1(5) संस्थान (आकार) इत्थं लक्षण (निश्चित आकार) अनित्थं लक्षण (अनिश्चित आकार) (गोल, त्रिकोण आदि) (बादल, आदि) . For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 99 | (6) भेद (टुकड़े - भंग होना) उत्कर (लकड़ी का बुरादा) चूर्ण खण्ड चूर्णिका प्रतर अनुचटन (गेहूँका (घड़े के (मूंग आदि (मेघ के (गर्म लोहे आटा) टुकड़े) की दाल) पटल) की चिनगारी) (7) तम (अंधकार) प्रकाश का विरोधी 1(8) छाया (प्रकाश को ढकने वाली) तवर्ण परिणत (दर्पण में रूप) प्रतिबिम्ब स्वरूप (परछाई) (9) आतप |(10) उद्योत मूल ठंडा, आभा गर्म मूल और आभा दोनों शीतल (सूर्य का बिम्ब) (चन्द्रमा का बिम्ब, जुगनू आदि) For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 100 . अणवः स्कन्धाश्च।।25।। सूत्रार्थ - पुद्गल के दो भेद हैं - अणु और स्कन्ध।।25।। पुद्गल के भेद (जाति अपेक्षा) स्कन्ध (दो या दो से अधिक परमाणुओं का समूह) परमाणु(अणु) (पुद्गल का सबसे छोटा टुकड़ा) (आदि, मध्य, अंत से रहित) (स्वाभाविक दशा) सर्वांश में पूर्ण स्कंध का , देश का आधा | आधा लम्बाई, चौड़ाई हो लम्बाई हो 4 परमाणु | 2 परमाणु लम्बाई, चौड़ाई मोटाई तीनों हो 8 परमाणु सिर्फ परमाणु में एक साथ 2 स्पर्श 1 रस 1 गंध 1 वर्ण कुल=5 * शीत-उष्ण और * 5 में से कोई 1 * 2 में से1 * 5 में से 1 * स्निग्ध-रूक्ष के युगल में से एक-एक स्कंध में एक साथ रूपादि की 20 पर्यायें हो सकती हैं। For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 101 पुद्गल के अन्य प्रकार से भेद सूक्ष्म- सूक्ष्म । सूक्ष्मः स्यूल-स्थल । पदार्थ लकड़ी. स्व- स्कंध इन्द्रियों से | नेत्र के | नेत्र से द्रव ठोस रूप अवस्था | ग्रहण न हो | सिवाय | दिखे पर पदार्थ से रहित शेष | पकड़ में इन्द्रियों | न आए से ग्रहण हो परमाणु | कार्मण | वायु, | छाया, जल, वर्गणा | ध्वनि । प्रकाश तेल भेदसंघातेभ्यः उत्पद्यन्ते ।।26॥ सूत्रार्थ-भेद से, संघात से तथा भेद और संघात दोनों से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं।।26।। भेदावणुः।।27।। सूत्रार्थ - भेद से अणु उत्पन्न होता है।।27।। .... भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः।।28।। सूत्रार्थ - भेद और संघात से चाक्षुष स्कन्ध बनता है।।28।। स्कन्धादि की उत्पत्ति के कारण पत्थर स्कन्ध परमाणु चाक्षुष स्कन्ध (वह स्कंध जो चक्षु से दिखे) भेद-संघात से ही 1. भेद (अलग होना) भेद से ही 2. संघात (मिलना) -- 3. भेद-संघात (दोनों एक साथ) For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 पञ्चम अध्याय सद् द्रव्यलक्षणम्।।29।। सूत्रार्थ - द्रव्य का लक्षण सत् है।।29।। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।।30॥ सूत्रार्थ - जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - इन तीनों से युक्त अर्थात् इन तीनों रूप है, वह सत् है।।30॥ द्रव्य(लक्ष्य) लक्ष्य → सत् (लक्षण) लक्षण उत्पाद (नवीन पर्याय की उत्पत्ति) व्यय ध्रौव्य (पूर्व पर्याय (प्रत्यभिज्ञान को कारणभूत का नाश) द्रव्य की किसी अवस्था की नित्यता) द्रव्य अगर उत्पाद स्वरूप ही हो व्यय स्वरूप ही हो ध्रौव्य स्वरूप उत्पाद-व्यय ही हो : रूप ही हो तो असत् का उत्पाद हो तो विश्व शून्य प्रत्यक्ष से विरोध ध्रौव्य बिना को प्राप्त हो हों, क्योंकि अवस्था दोनों का मेल बदलती दिखाई देती है कैसे हो मिट्टी बिना घट की उत्पत्ति हो घट के नाश मिट्टी की पर मिट्टी अवस्था घट का नाश हो रूप न हो मिट्टी के पिंड और घटकेआधार रूप मिट्टी न हो, तो वे दोनों भी नहीं हो सकते Jan Escaton International For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पाद व्यय ध्रौव्य * लक्ष्य और लक्षण का भेद है तीन रूप (भेद से) पञ्चम अध्याय द्रव्य तद्भाव महासत्ता (सादृश्य अस्तित्व) (जो भी है, वह सब सत् रूप है) जिस वस्तु का जो भाव है हो सकते, इसलिए एक हैं। * नाम, संख्या, स्वरूप, प्रयोजन से भेद * उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य प्रदेशों से एक हैं। सत्ता एक रूप (अभेद से) * उत्पाद-व्यय-१ सत् रूप तद्भावाव्ययं नित्यम्||31॥ सूत्रार्थ - उसके भाव से (अपनी जाति से) च्युत न होना नित्य है । 31 | नित्य का उससे - ध्रौव्य पृथक् नहीं अवान्तर सत्ता (स्वरूप अस्तित्व) (जो भी है, वह अपने - अपने भिन्न-भिन्न स्वरूप से है) अव्यय . 103 च्युत न होना For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 अर्पितानर्पितसिद्धेः।।32।। सूत्रार्थ - मुख्यता और गौणता की अपेक्षा एक वस्तु में विरोधी मालूम पड़ने वाले दो धर्मों की सिद्धि होती है। 321 पञ्चम अध्याय अर्पित अनर्पित (मुख्य) (गौण) वस्तु अनेकान्तात्मक अर्थात् अनेक धर्मों वाली है। जैसे - वस्तु नित्यानित्यात्मक है। चूँकि वक्ता अनेक धर्मों को एक साथ कह नहीं सकता है। वह एक समय में एक ही धर्म को कह सकता है। अतः वह एक धर्म को अर्पित (मुख्य) एवं अन्य धर्मों को अर्पित ( गण ) करके कथन करता है। पुद्गल का पुद्गल से स्याद्वाद शैली (जैनधर्म का आधार स्तम्भ सूत्र) स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥33॥ सूत्रार्थ - स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बन्ध होता है ।। 33 ।। बंध (अनेक पदार्थों में एकपने का ज्ञान कराने वाला संबंध विशेष) स्पर्श गुण के कारण संयोग संबंध (यहाँ ये बन्ध विवक्षित है ।) जीव का जीव का पुद्गल रागादि विकारी भावों से (कर्म - नोकर्म) से ↓ संयोग संबंध एक क्षेत्र अवगाह संबंध For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 105 न जघन्यगुणानाम्।।34।। सूत्रार्थ - जघन्य गुणवाले पुद्गलों का बन्ध नहीं होता।।34।। गुणसाम्ये सदृशानाम्।।35।। सूत्रार्थ - गुणों की समानता होने पर तुल्य जाति वालों का बन्ध नहीं होता।।35।। व्यधिकादिगुणानां तु।।36।। सूत्रार्थ - दो अधिक आदि शक्त्यंश वालों का तो बन्ध होता है।।36।। परमाणुओं का बंध किनका नहीं होता है? कब होता है? किनका होता है? * जघन्य गुण * स्निग्धता व रूक्षता * 1. स्निग्ध का स्निग्ध से (अविभाग प्रतिच्छेद) के कारण 2. रूक्ष का रूक्ष से वाले पुद्गलों का * दो अधिक गुण 3. स्निग्ध का रूक्ष से * साम्य (समान) . होने पर ही गुणवालों का बन्धेऽधिको पारिणामिको च||37॥ सूत्रार्थ - बन्ध होते समय दो अधिक गुणवाला परिणमन कराने वाला होता है।।3।। बंध होने पर → कम गुण वाले परमाणु अधिक गुण रूप परिणत हो जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 पञ्चम अध्याय | पुद्गल बंध से जीव बंध की तुलना होता स्निग्धता और रूक्षता के कारण | राग(स्निग्ध) और द्वेष(रूक्ष) के कारण जघन्य गुण रूप परमाणु का बंध नहीं| *जघन्य (एक) गुण - आत्मा का एकत्व होने पर बंध नहीं *सूक्ष्म लोभ (जघन्य राग)से मोहनीय का बंध नहीं बंध होने पर अधिक गुण (शक्ति) | *लोक में भी अधिक गुणों वाले व्यक्ति रूप परिणमन के संयोग से ऊँचे (गुण) रूप परिणमन होता है और हीन गुण वाले व्यक्ति के संयोग से हीन परिणमन होता है। नही गुणपर्ययवद्रव्यम्।।38॥ सूत्रार्थ - गुण और पर्याय वाला द्रव्य है।।38।। द्रव्य का अन्य प्रकार से लक्षण गुण- पर्यायवान * जो द्रव्य के सभी हिस्सों और सभी * जो उत्पन्न और नष्ट हो अथवा हालतों में पाया जाए गुणों के विकार (विशेष कार्य) * ध्रौव्य रूप * उत्पाद-व्यय रूप * अन्वयी- बने रहना (वही का वही) * व्यतिरेकी - बदलना (भिन्न-भिन्न) * सहभावी पर्याय * क्रमवर्ती पर्याय For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 107 | गुण सामान्य गुण विशेष गुण (जो सभी द्रव्यों में पाए जाएँ) | (जो सभी द्रव्यों में न पाए जाएँ) जैसे - अस्तित्व जैसे-जीव का ज्ञान वस्तुत्व पुद्गल का रूपीपना द्रव्यत्व धर्म का गतिहेतुत्व प्रमेयत्व अधर्म का स्थितिहेतुत्व अगुरुलघुत्व आकाश का अवगाहनहेतुत्व प्रदेशत्व काल का परिणमनहेतुत्व CONTARVA 110 अन्य प्रकार से गुण सामाण साधारण-असाधारण असाधारण । परिभाषा जो सभी द्रव्यों, जो सभी में नहीं, पर जो अपने-अपने में पाए जाएँ एक से अधिक द्रव्यों द्रव्य में ही पाए जाएँ में पाए जाएँ जैसे अमूर्तत्व ज्ञान, दर्शन वस्तुत्व अचेतनत्व रस, गंध अस्तित्व । For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 शक्ति पञ्चम अध्याय सामान्य गुणों का स्वरूप गुण का नाम SURN स्वरूप |1. अस्तित्व गुण | द्रव्य का कभी नाश न हो। 2. वस्तुत्व गुण | द्रव्य में अर्थ क्रिया हो। 3. द्रव्यत्व गुण । द्रव्य सर्वदा एक-सा न रहे और जिसकी पर्यायें हमेशा | बदलती रहें। 4. प्रमेयत्व गुण के द्रव्य किसी न किसी के ज्ञान का विषय हो। द्रव्य की द्रव्यता कायम रहे, 5. अगुरुलघुत्व गुण | एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप न परिणमे, | एक गुण दूसरे गुण रूप न परिणमे, | एक द्रव्य के अनेक गुण बिखरकर जुदे-जुदे न हो जावें। 6. प्रदेशत्व गुण द्रव्य का कुछ न कुछ आकार अवश्य हो। कारण पर्याय व्यंजन पर्याय . अर्थ पर्याय (प्रदेशत्व गुण का विकार) (प्रदेशत्व के सिवाय शेष गुणों का विकार) स्वभाव विभाव . स्वभाव विभाव व्यंजन पर्याय व्यंजन पर्याय अर्थ पर्याय अर्थपर्याय (बिना किसी (अन्य के (बिना किसी (अन्य के निमित्त के) निमित्त से) निमित्त के) निमित्त से) जसिद्ध पर्याय * नर, नारकी पर्याय, *केवलज्ञान * मति-श्रुत ज्ञान से *अणु * स्कंध For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय 109 कालश्च।।39॥ सूत्रार्थ - काल भी द्रव्य है।।39।। सोऽनन्तसमयः।।40॥ सूत्रार्थ - वह अनन्त समय वाला है।।40।। काल भी द्रव्य है। इसलिए सत् स्वरूप गुण-पर्याय वाला उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित और अचेतन नित्य अवस्थित अमूर्तिक निष्क्रिय 1 प्रदेशी (अकायवान मुख्य-गौण दोनों प्रकार से) काल निश्चय काल * द्रव्य * कालाणु * लोक प्रमाण असंख्यात | कालाणु व्यवहार काल का * निश्चय काल द्रव्य की पर्याय * समय, घंटा, दिन आदि . * अनंत पर्यायें (भूत, वर्तमान, भविष्य मिलाकर) For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 पञ्चम अध्याय काल की सिद्धि | 1. काल है ? 1. क्योंकि सभी द्रव्यों के परिणमन में साधारण कारण | की आवश्यकता अनिवार्य है। 2. कालाणु एक 2.* जितनी बड़ी पर्याय होती है, उतना द्रव्य इसलिए काल प्रदेशी ही क्यों ? की समय पर्याय जितना 1 प्रदेशी कालाणु है। * मंदगति से गमन करते पुद्गल परमाणु को एक आकाश प्रदेश ही सहायक होता है ... 3. हर प्रदेश पर एक 3. वर्ना उस प्रदेश के द्रव्यों (विशेष रूप से 1 परमाणु) ही क्यों ? | का परिणमन कैसे हो ! प्रचय के भेद तिर्यक् प्रचय (प्रदेशों का समूह) ऊर्ध्व प्रचय (पर्यायों का समूह) काल द्रव्य तिर्यक् प्रचय नहीं होता है ऊर्ध्व प्रचय होता है (समय रूप पर्याय का) शेष द्रव्य दोनों प्रकार के प्रचय होते हैं। परमाणु के तिर्यक् प्रचय नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।। 41 ।। सूत्रार्थ जो निरन्तर द्रव्य में रहत हैं और (अन्य) गुणरहित हैं, वे गुण हैं ।। 41 ॥ - गुण का लक्षण सदा द्रव्य के आश्रय से रहे अन्य गुणों से रहित हो तद्भावः परिणामः ।। 42।। सूत्रार्थ - उसका होना अर्थात् प्रति समय बदलते रहना परिणाम है ।।42।। परिणाम (भाव) 111 अनादि ( प्रवाह अपेक्षा) सादि (प्रति समय नया-नया) धर्मादि 4 द्रव्य - दोनों परिणाम आगम से जाने जाते हैं। जीव और पुद्गल - दोनों परिणाम कथंचित् प्रत्यक्षगम्य हैं। क For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 विषय-वस्तु आस्रव योग आस्रव है आस्रव के भेद - योग अपेक्षा - स्वामी अपेक्षा - साम्परायिक आस्रव के 39 भेद आस्रव में हीन - अधिकता के कारण अधिकरण और उसके भेद 8 कर्मों में प्रत्येक के आस्रव | के कारण - ज्ञानावरण और दर्शनावरण - वेदनीय - मोहनीय - आयु नाम - गोत्र - अंतराय - षष्ठ अध्याय सूत्र क्रमांक कुल सूत्र पृष्ठ संख्या 1-2 3 4 5 6 7-9 10 .11-12 15-21 22-24 25-26 2 27 कुल 1 1 1 1 3 13-14 2 1 2 7 3 2 1 27 For Personal & Private Use Only 113-114 114 115 116-118 118 119-120 121 121-122 123 124-125 126-127 128 129 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य आस्रव (पौद्गलिक कर्मों का आना) भाव योग (कर्म - नोकर्म को ग्रहण करने की जीव की शक्ति विशेष) कायवाङ्मनः कर्मयोगः ।। 1 ।। सूत्रार्थ - काय, वचन और मन की क्रिया योग है ।। 1 ।। योग षष्ठ अध्याय आसव 4 मनोयोग स्वभाव पर्याय भाव आस्रव (आत्मा के मोह, राग, द्वेषरूप विकारी भाव) निमित्त अपेक्षा योग के भेद द्रव्य योग (आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन (कम्पन)) इसमें निमित्त मन, वचन, काय की क्रिया (चेष्टा) 4 वचन योग योग गुण 113 7 काययोग = कुल 15 विकारी पर्याय सकम्प अवस्था निष्कम्प अवस्था (सिद्धों और 14वें गुणस्थान में ) ( पहले से तेरहवें गुणस्थान तक) For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 षष्ठ अध्याय स आस्रवः॥2॥ सूत्रार्थ - वही आस्रव है।।2।। आसव का स्वरूप - (कर्मों का आना) उपादान भाव योग कार्य द्रव्य योग निमित्त फल मन,वचन,काय द्रव्यास्रव- .. की चेष्ट कर्मों का आना अथवा कारण (निमित्त) द्रव्य योग जैसे - नाव में जल आने का छिद्र कार्य कर्मों का आना जैसे - जल का आना शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ।।3।। सूत्रार्थ - शुभयोग पुण्य का और अशुभयोग पाप का आस्रव है।।3।। योग के निमित्त से आसव में भेद पुण्यास्रव पापासव कारण→ शुभ योग (शुभ परिणामों अशुभ योग (अशुभ परिणामों के निमित्त से) के निमित्त से) । काय वचन मन काय वचन मन जैसे- -प्राणीरक्षा -सत्यकथन -दूसरे का -प्राणीहिंसा -असत्य -मारने का -पूजा -उपदेश भला सोचना -चोरी -कटुवचन विचार -स्वाध्याय -स्तुति -पंच परमेष्ठी -मैथुन -असभ्यवचन -ईर्ष्या का चिंतन For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय 115 * पुण्यासव एवं पापास्रव भेद अघातिया कमों की अपेक्षा है। * घातिया कर्म तो पापरूप ही हैं। सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः।।4।। सूत्रार्थ - कषायसहित और कषायरहित आत्मा का योग क्रम से साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म के आस्रव रूप है।।4।। स्वामी अपेक्षा आसव के भेद साम्परायिक आस्रव ईर्यापथ आस्रव स्वामी | सकषायी (कषाय सहित) | अकषायी (कषाय रहित) | मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद | सिर्फ योग कषाय के साथ योग किसका | संसार का कारण | स्थिति रहित आस्रव का कारण कारण कितने प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और प्रकृति और प्रदेश बंध ही होता है प्रकार | अनुभाग बंध होता है का बंध गुणस्थानं पहले से 10वें गुणस्थान तक 11वें, 12 वें, 13वें गुणस्थान में | (कषाय रूपी) तेल युक्त । कोरी दीवार पर रज | दीवार पर (कर्मरूपी) रज | आकर चली जाती है। चिपक जाती है। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ||5|| 116 सूत्रार्थ - पूर्व के अर्थात् साम्परायिक कर्मास्रव के इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रिया रूप भेद हैं, जो क्रम से पाँच, चार, पाँच और पच्चीस हैं ||5|| साम्परायिक आसव इन्द्रिय 5 (पाँच इन्द्रियों के विषय में प्रवृत्ति का भाव ) - स्पर्शन - रसना घ्राण चक्षु - श्रोत्र कषाय अव्रत 5 (दुःख का कारण बुरा अर्थात् दुःख दे ) कार्य) - क्रोध हिंसा मान माया - लोभ (जो आत्मा को कसे झूठ 'चोरी' 39 भेद - कुशील • परिग्रह For Personal & Private Use Only क्रिया 25 ( भिन्न-भिन्न भावों सहित प्रवृत्ति) 5 विभिन्न क्रिया 5 हिंसा भाव की मुख्यतारूप 5 इन्द्रियों के भोग - बढ़ाने सम्बन्धी 5 धर्माचरण में दोष कारक 5 धर्म धारण से विमुख करनेवाली Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय 117 25 क्रियाए। 5 विभिन्न क्रियाएँ। सम्यक्त्व मिथ्यात्व प्रयोग समादान ईर्यापथ (सम्यक्त्व (मिथ्यात्व पुष्ट (शरीरादि (संयमी का (संयम बढ़ाने बढ़ाने वाली) करने वाली) द्वारा असंयम वाली) गमनादि के सन्मुख प्रवृत्ति) होना) 5 हिंसा भाव की मुख्यतारूप क्रियाएँ प्रादोषिकी कायिकी अधिकरणिकी परितापकी प्राणातिपातिकी (क्रोध के (क्रोध के (हिंसा के साधन (दूसरों को (दूसरे के 10 आवेश में आवेश में ग्रहण करना) दुख उत्पत्ति प्राणों का द्वेषबुद्धि करना) काय चेष्टा के कारणरूप वियोग करना) करना) क्रिया) 5 इन्द्रियों के भोग बढ़ाने सम्बन्धी क्रियाएँ। वर्शन स्पर्शन (सुन्दर रूप (स्पर्श करने देखने का का भाव) अभिप्राय) प्रात्ययिकी समन्तानुपात अनाभोग (भोगों की (जीवों के रहने (बिना देखे नई-नई के स्थान पर स्थान पर सामग्री जुटाना) मल-मूत्र उठना, त्यागना) बैठना आदि) For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 षष्ठ अध्याय 5 धर्माचरण में दोष कारक क्रियाएँ स्वहस्त निसर्ग (हीन पुरुषों (पाप साधनों (दूसरे के योग्य कार्य के लेन-देन दोष प्रकट स्वयं करना) में सम्मति करना) देना) विदारण आज्ञाव्यापादिकी (शास्त्र की आज्ञा को न पाल उनके विपरीत अर्थ करना) 5 धर्म - धारण से विमुख करने वाली क्रियाएँ परिग्रहिकी माया मिथ्यादर्शन अप्रत्याख्यान आरम्भ ( छेदन, भेदन (परिग्रह की आदि में स्वयं रक्षा के उपाय (ज्ञान - दर्शन ( मिथ्यादृष्टि (त्याग परिणाम आदि के विषय की क्रियाओं नहीं होना) में छल करना) की प्रशंसा रत व हर्षित में लगे रहना) होना) करना) तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।।6।। सूत्रार्थ - तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्यविशेष के भेद से उसकी (आस्रव की) विशेषता होती है ।।6।। आस्रव में हीनता-अधिकता के कारण तीव्रभाव मंदभाव (तीव्र कषाय (मंद कषाय रूप भाव) रूप भाव) अनाकांक्षा (शास्त्र उपदेशित विधि का अनादर) ज्ञातभाव अज्ञातभाव अधिकरण वीर्य (बुद्धिपूर्वक (प्रमाद (आधार) (स्व बल) जानकर ) अज्ञान सहित) कारण के भेद से कार्य - आस्रव में भेद होता ही है। For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 षष्ठ अध्याय अधिकरणं जीवाजीवाः।।7।। सूत्रार्थ - अधिकरण जीव और अजीव रूप हैं।।7।। अधिकरण (आधार) जीव अधिकरण (जीव की पर्यायें) अजीव अधिकरण (अजीव की पर्यायें) आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषै स्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः।।४।। सूत्रार्थ - पहला जीवाधिकरण संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ के भेद से तीन प्रकार का, योगों के भेद से तीन प्रकार का, कृत, कारित और अनुमत के भेद से तीन प्रकार का तथा कषायों के भेद से चार प्रकार का होता हुआ परस्पर मिलाने से एक सौ आठ प्रकार का है।।8।। जीव अधिकरण *माया। * संरम्भ | *मनयोग | * कृत |* क्रोध | - (विचार-संकल्प) (करना) * समारम्भ * वचनयोग * कारित | * मान (साधन-सामग्री जुटाना) | (कराना) * आरम्भ * काय योग * अनुमत (कार्य शुरू करना) कार्य में | * लोभ | सम्मति देना) • कुल = 3 x | 3 x | 3x| 4 = 108 जीव अधिकरण (दूसरे के For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 . षष्ठ अध्याय निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम्।।७।। सूत्रार्थ - पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रम से दो, चार, दो और तीन भेद वाले . निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग रूप है।।9।।। अजीव अधिकरण निर्वर्तना निक्षेप (रचना करना) (रखना) 2 . 4 संयोग (मिलाना) . निसर्ग (प्रवर्तना) मूल उत्तर अप्रत्यवेक्षित भक्तपान काय : गुण गुण (बिना देखे) | (विरुद्ध अन्न, (शरीर से (अंतरंग (बहिरंग दुःप्रमृष्ट जल आदि) | कुचेष्टा आदि) साधन) साधन) | (बिना प्रमार्जित) उपकरण वचन शरीर काष्ठ कर्म सहसा (शीत का उष्ण, (दुष्ट शब्दों -वचन -चित्रकर्म । (भय, शीघ्रता शुद्ध का अंशुद्ध | काउच्चारण) -मन पुस्तक कर्म के कारण) से स्पर्श करना) मन प्राण आदि अनाभोग (मन में दुष्ट (उपयोग रहित विचार आदि) कहीं भी) अपान For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय 8 कर्मों में प्रत्येक के आसव के कारण (वे कारण जिनसे उस उस कर्म का अनुभाग अधिक बँधता है) तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ||10|| सूत्रार्थ - ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात - ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं ||10|| ज्ञानावरण - दर्शनावरण प्रदोष निह्नव मात्सर्य अंतराय (तत्त्व की (ज्ञान और ज्ञान (जानते हुए ( दूसरे आगे नहीं बढ़ जाएँ, भी छुपाना) के साधनों की इसलिए नहीं प्राप्ति में बाधा बताना) डालना) बात के प्रति मन में ईर्ष्या - नहीं सुहाना) आसादन उपघात (पर के द्वारा प्रकाशित होने वाले ज्ञान को रोकना) 121 दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरो भयस्थानान्यसवेद्यस्य।।11।। सूत्रार्थ - अपने में, दूसरे में या दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन - ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं ||11|| असाता वेदनीय दुःख शोक ताप आक्रन्दन ( पीड़ा रूप (इष्ट के (संक्लेशता के आत्म कारण रोना (संसार में वियोग में निन्दा होने परिणाम) व्याकुलता) पर पश्चात्ताप) चिल्लाना) ये दुःखादि सभी - 1. 3. आप व पर दोनों को करें ये तीनों ही आस्रव के कारण हैं। - वध (10 प्राणों का वियोग (ज्ञान को अज्ञान कह नष्ट करना) For Personal & Private Use Only परिदेवन (ऐसा रोना कि सुनने वाले को दया पैदा हो ) करना) आप स्वयं करें, 2. दूसरे को करावें, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 . षष्ठ अध्याय भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सवेद्यस्य।।12।। सूत्रार्थ - भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान और सरागसंयम आदि का . योग तथा क्षान्ति और शौच - ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं।।12।। साता वेदनीय अनुकम्पा दान सरागसंयम आदि क्षान्ति शौच (दूसरे की पीड़ा (निज व पर (राग 1. संयमासंयम (शुभ (शुभ .. को अपनी के उपकार के सहित 2. बाल तप परिणामों परिणाम मानना) लिए अपनी संयम) 3. अकाम- की भावना पूर्वक वस्तु का निर्जरा पूर्वक लोभ का अर्पण) क्रोधादि त्याग) दोषों का निराकरण) किसके प्रति व्रती . (प्राणी मात्र) (अणुव्रत या महाव्रत से युक्त) For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय __123 केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य।।13।। सूत्रार्थ - केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव - इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है।।13।। कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य।।14।। सूत्रार्थ - कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्मपरिणाम चारित्र मोहनीय का आस्रव है।।14।। मोहनीय दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीय इनका अवर्णवाद करना (निर्दोष में दोष लगाना) . कषाय के उदय से तीव्र . कलुष परिणाम जैसे केवली श्रुत संघ धर्म देव (अरिहंत (केवली (निर्ग्रन्थ (जो उत्तम (देवगति - स्वयं कषाय करना सर्वज्ञ) का कहा वीतरागी स्थान में के देव) - दूसरों में कषाय हुआ और मुनियों का रखे) उत्पन्न कराना गणधर समूह) - तपस्वी जनों के चारित्र द्वारा रचा में दूषण लगाना - संक्लेश पैदा करने वाले वेष और व्रत धारण करना हुआ) For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124. 124. षष्ठ अध्याय बहारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः।।15।। सूत्रार्थ - बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहपने का भाव नरकायु का आस्रव है।।15।।. मायातैर्यग्योनस्य।।16।। सूत्रार्थ - माया तिर्यंचायु का आस्रव है।।16।। अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य।।17।। सूत्रार्थ - अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रहपने का भाव मनुष्यायु का आस्रव है।।17। स्वभावमार्दवं च।।18।। सूत्रार्थ - स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायु का आस्रव है।।18।। निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम्।।1।। सूत्रार्थ - शीलरहित और व्रतरहित होना सब आयुओं का आस्रव है।।19।। सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य।।20।। सूत्रार्थ - सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप - ये देवायु के आस्रव हैं।।20।। सम्यक्त्वं च||21|| सूत्रार्थ - सम्यक्त्व भी देवायु का आस्रव है।।21।। For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय आयु नरकायु तिर्यंचायु मनुष्यायु देवायु बहुत (अधिक मायाचार *अल्प आरम्भ *स्वभाव की सरलता और तीव्र (छल-कपट) *अल्प परिग्रह *सराग संयम(संयम के परिणाम) *स्वभाव की साथ का राग) सरलता संयमासंयम(त्रस और *बहुत आरम्भ (सहज मंद स्थावर के प्रति क्रमशः (हिंसादि पाप कषाय- संयम और असंयम) पोषक क्रियाएँ) बनावटी नहीं) *अकाम निर्जरा (बिना बहुत परिग्रह इच्छा दुःख सहना) (ममत्व *बालतप (अज्ञानता - परिणाम) .. सहित आचरण) *सम्यक्त्व (मनुष्य और तिर्यंच सम्यक्त्व के साथ देव ही होते हैं) शील और व्रत का अभाव सभी आयु के आस्रव का कारण है। For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 षष्ठ अध्याय . योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः।।22।। सूत्रार्थ - योगवक्रता और विसंवाद - ये अशुभ नाम कर्म के आस्रव हैं।।22।। तविपरीतं शुभस्य।।23।। सूत्रार्थ - उससे विपरीत अर्थात् योग की सरलता और अविसंवाद - ये शुभ नामकर्म के आस्रव हैं।।23।। नाम अशुभ नाम शुभ नाम * योग कुटिलता (स्वयं के मोक्षमार्ग के * सरल मन, वचन, काय की चेष्टा प्रतिकूल मन, वचन, काय की चेष्टा) * विसंवादन (दूसरे को मोक्षमार्ग के * अन्य को अन्यथा प्रवर्तन नहीं प्रतिकूल प्रवर्तन कराना) . कराना योग वक्रता एवं विसंवादन में अन्तर योग वक्रता विसंवादन - * स्व अपेक्षा * पर की अपेक्षा * मन, वचन, काय की कुटिलता * कुटिल योग सहित दूसरों को मिथ्यामार्ग के लिए प्रेरित करना *कारण * कार्य दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।।24।। For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय 127 सूत्रार्थ दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना, ज्ञान में सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार तप, साधु-समाधि, वैयावृत्त्य करना, अरिहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य - ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं ।। 24। तीर्थंकर नामकर्म के आसव के कारणभूत सोलहकारण भावना भावना उसका स्वरूप 1. दर्शन विशुद्धि अरहंत द्वारा कहे गए मोक्षमार्ग में रुचि 2. विनय सम्पन्नता. रत्नत्रय और उनके धारकों की विनय 3. शीलव्रत में अनतिचार शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन 4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग 5. संवेग सम्यग्ज्ञान में निरंतर लगे रहना | संसार के दुखों से भयभीत रहना 6. शक्ति अनुसार त्याग शक्ति के अनुसार त्याग शक्ति के अनुसार तप 7. शक्ति अनुसार तप साधुओं के विघ्न दूर करना 8. साधु समाधि 9. वैयावृत्त्य करण 10. अर्हद् भक्ति 11. आचार्य भक्ति 12. बहुश्रुत भक्ति 13. प्रवचन भक्ति गुणी पुरुषों के दुख आने पर निर्दोष विधि से सेवा करना अरहंत में आचार्य में उपाध्याय में भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग शास्त्र में | 14. आवश्यकापरिहाणि 6 आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करना 15. मार्ग प्रभावना | ज्ञान, तप, दान, पूजा द्वारा धर्म का प्रकाश करना गोवत्सवत् साधर्मियों पर स्नेह रखना 16. प्रवचन वत्सलत्व For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 षष्ठ अध्याय परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।।25।। सूत्रार्थ - परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन - ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।।25।। तद्विपर्ययौ नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य।।26।। .. सूत्रार्थ - उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणों का उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक - ये उच्च . गोत्र के आस्रव हैं।। 26।। गोत्र नीच गोत्र * पर की निन्दा * स्व की प्रशंसा *दूसरे के विद्यमान गुण ढाँकना * अपने झूठे गुणों को प्रकट करना उच्च गोत्र * पर प्रशंसा * स्व निन्दा *दूसरे के विद्यमान गुणों को प्रकट करना * अपने गुणों की चर्चा नहीं करना *नम्रवृत्ति- अपने से गुणों में अधिक की विनय * अनुत्सेक - अभिमान न होना किस जीव के कौन-से गोत्र का उदय होता है। नीच गोत्र उच्च गोत्र दोनों में से कोई भी एक * देव * सब नारकी * सब तिर्यंच ___*भोगभूमिया मनुष्य * अपर्याप्त मनुष्य * पर्याप्त कर्मभूमिया मनुष्य For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय विघ्नकरणमन्तरायस्य। । 27 ।। सूत्रार्थ - दानादिक में विघ्न डालना अन्तराय कर्म का आस्रव है ।। 27 ।। अन्तराय दान (निज व पर के उपकार के लिए देना) इनमें बाधा डालना लाभ भोग उपभोग ( फायदा) (जो एक बार ( जो बार - भोगा जाए) भोगा जाए) कु र- बार वीर्य (बल) "इस अध्याय सम्बन्धी विशेष जानकारी के लिए परिशिष्ट देखें। " For Personal & Private Use Only 129 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 STENANDIT HORITIEND | 1-2 | 131 136 12 136 (सप्तम अध्याय) विषय-वस्तु सूत्र क्रमांक कुल सूत्र पृष्ठ संख्या व्रत व्रत का लक्षण व भेद प्रत्येक व्रत की रक्षा की 5-5 | 3-8 6 132-134 भावनाएँ पाप दुःखदायी व दुःख रूप 9-10 | 2 135 . मैत्री आदि 4 भावना संवेग-वैराग्य भावनाएँ पाँच पाप के लक्षण 13-17 137-140 व्रती का स्वरूप व भेद 18-20 141 सात शील व्रत | 142-144 सल्लेखना का स्वरूप । 22 .1 144 अतिचारसम्यग्दर्शन के 145 5 अणुव्रत और 7 शील व्रतों के 24-36 | 13 146-152 सल्लेखना के | 37 1 152 दान दान व उसके फल में विशेषता 38-39 | 2 | 153-154 कुल । 39 3 For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 सप्तम अध्याय · हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्।।1।। सूत्रार्थ - हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होना व्रत है।।1।। वत निश्चय व्रत व्यवहार व्रत (राग-द्वेषादि विकल्पों से रहित होना) (प्रतिज्ञा पूर्वक पाँच पापों के त्याग विरति-निवृत्ति रूप नियम लेना) - देशसर्वतोऽणुमहती।।2।। सूत्रार्थ - हिंसादिक से एकदेश निवृत्त होना अणुव्रत है और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है।।2।। वत के प्रकार अणुव्रत (हिंसादि से एकदेश निवृत्ति) - अहिंसाणुव्रत - सत्याणुव्रत - अचौर्याणुव्रत स्वदार संतोष ब्रह्मचर्याणुव्रत L परिग्रह परिमाणाणुव्रत महाव्रत (हिंसादि से पूर्ण निवृत्ति) अहिंसा महाव्रत - सत्य महाव्रत - अचौर्य महाव्रत -ब्रह्मचर्य महाव्रत - परिग्रह त्याग महाव्रत For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 सप्तम अध्याय तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च।।3।। सूत्रार्थ - उन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं।।3।। ALEM पाँच वतों की पाँच-पाँच भावनाएं भावना - निरन्तर भाने योग्य ... वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च।।4।। सूत्रार्थ - वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान-निक्षेपणंसमिति और आलोकितपान-भोजन - ये अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं।।4।। अहिंसा व्रत की भावनाएँ। गुप्ति समिति (यत्नाचार प्रवृत्ति) (निवृत्ति) वचनगुप्ति मनोगुप्ति ईयासमिति (वचन को भले प्रकार रोकना) (मन को भले प्रकार रोकना) (चार हाथ आगे की जमीन देख कर चलना) आदान- आलोकित निक्षेपण पानभोजन (सावधानी (देख-शोधकर पूर्वक सूर्य के प्रकाश उठाना- में भोजन रखना) करना) For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय क्रोधलो भभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पञ्च ||5|| सूत्रार्थ - क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्व प्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण - ये सत्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं || 5 || सत्य व्रत की भावनाएँ त्याग (निषेध) क्रोध लोभ भय हास्य शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माविसंवादाः पञ्च ।।6।। सूत्रार्थ - शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्षशुद्धि और सधर्माविसंवाद - ये अचौर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं । । 6 || अचौर्य व्रत की भावनाएँ आवास संबंधित शून्यागार विमोचिता- परोपरोधा वास वास (निर्जन ( दूसरों के स्थान में द्वारा त्यागे स्थान में रहना) निवास करना) करण (दूसरे को अपने विधि (प्रवृत्ति) अनुवीची भाषण (शास्त्र के अनुसार निर्दोष वचन बोलना) ठहरे हुए स्थान पर आने से नहीं रोकना) भैक्ष सधर्म 133 शुद्धि (भिक्षा की शुद्धि रखना) For Personal & Private Use Only अविसंवाद (साधर्मी के साथ विसंवाद नहीं करना) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय 134 . स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीर . संस्कारत्यागाः पञ्च।।7।। सूत्रार्थ - स्त्रियों में राग को पैदा करने वाली कथा के सुनने का त्याग, स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पूर्व भोगों के स्मरण का त्याग, गरिष्ठ और इष्ट रस का त्याग तथा अपने शरीर के संस्कार का त्याग - ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं।।7।। | ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएँ। त्यांग स्त्री राग मनोहर अंग पूर्व भोगे हुए गरिष्ठ रसों शरीर का कथा श्रवण निरीक्षण विषयोंका स्मरण का सेवन संस्कार सम्ब- (कर्ण (चक्षु (मन) (रसना (स्पर्शन और इन्द्रय इन्द्रिय) इन्द्रिय) इन्द्रिय) , घ्राण इन्द्रिय) न्धित मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च।।।। सूत्रार्थ - मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रियों के विषयों में क्रम से राग और द्वेष का त्याग करना - ये अपरिग्रहव्रत की पाँच भावनाएँ हैं।।४।। परिग्रह त्याग वत की भावनाएँ मनोज्ञ (जो मन को अच्छे लगें) अमनोज्ञ (जो मन को अच्छे न लगें) ऐसे पञ्चेन्द्रिय विषय-भोगों में राग-द्वेषा राग-द्वेष का त्याग For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय अन्य भी भावनाए हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ||9|| सूत्रार्थ - हिंसादिक पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है ।। 9 ॥ इह (इस लोक.) दुःखमेव वा।।10।। सूत्रार्थ - अथवा हिंसादिक दुःख ही हैं - ऐसी भावना करनी चाहिए ।।10।। हिंसादि से विरक्त होने की भावना हिंसादि पाँच पाप अपाय (नाश) (स्वर्ग और मोक्ष का ) अमुत्र ( पर लोक) 135 अवद्य ( निन्दनीयपना) देखा जाता है। दुख रूप ही हैं (आकुलता रूप होने से ) For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होला। 136 . सप्तम अध्याय मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विमयेषु।।11।। सूत्रार्थ- प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणावृत्ति और अविनेयों में माध्यस्थ भावना करनी चाहिए।।11॥ वती के चिन्तन योग्य अन्य भावनाएं। भावना मैत्री प्रमोद (दूसरे को (प्रसन्नता के दुख न हो) साथ भक्ति .. अनुराग) कारुण्य माध्यस्थ (दया) (राग-द्वेष पूर्वक - पक्षपात न करना) किनके सत्त्व गुणी जन दीन दुखी अविनयी प्रति (चार गति (सम्यग्दर्शनादि (जिनवाणी के सर्व गुणों में सुनने का गुण जीव) अधिक जीव) . नहीं होने वाले . हठाग्रही) जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्।।12।। सूत्रार्थ - संवेग और वैराग्य के लिए जगत के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।।12।। वती को वैराग्य बढ़ाने के लिए वैराग्य संवेग * संसार से भय * धर्म और धर्म के फल में रुचि । संसार शरीर भोगों से For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय 137 पाच पाप हिंसा झूठ चोरी अब्रह्म परिग्रह (असावधानी- (अयत्नाचार- (बिना दी (रति जन्य (पर द्रव्य में प्रमाद पूर्वक प्रमाद सहित हुई वस्तु का सुख के ममत्व प्राणों का अप्रशस्त दुख- ग्रहण लिए स्त्री- परिणाम) वियोग - घात दायी, मिथ्या] करना) पुरुष की करना) वचन बोलना) जो भी चेष्टाा ) प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।।13।। सूत्रार्थ - प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना हिंसा है।।13।। हिंसा भाव द्रव्य स्व की * आत्मा में रागादि भावों | * दीर्घश्वासादिक, हाथ-पैर से अपने की उत्पत्ति अंगों को पीड़ा पहुँचाना,अपघात करना पर की * मर्म भेदी वचन, कार्य * अन्य के शरीर को पीड़ा पहुँचाना आदि जिससे दूसरे का | अथवा प्राण नाश करना अंतरंग पीड़ित हो हिंसा के अन्य प्रकार से भेद संकल्पी आरम्भी औद्योगिक विरोधी (गृह संबंधित (व्यापारादि (देव, शास्त्र, गुरु कार्यों में होने संबंधित कार्यों आदि की रक्षा वाली) में होने वाली) संबंधित) मारने का भाव) (शिकारादि). For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 . सप्तम अध्याय पर जीव के घात रूप हिंसा अविरमण रूप * पर जीव के घात में प्रवर्तन न होने पर भी हिंसा का त्याग नहीं करना परिणमन रूप पर जीव के घात में प्रवर्तन करना हिंसा के त्याग के लिए जानें हिंस्य हिंसक हिंसा हिंसा फल . * जिसकी । * हिंसा करने * हिंस्य का * इस लोक में निन्दा हिंसा हो वाला घात करना, घात व पर लोक में पीड़ा पहुँचाना नरकादिदुःख * स्वयं उसका * स्वयं वैसे घात न करें न बनें * इसका त्याग * इससे भयभीत रहें करें 15 प्रमाद 5 इन्द्रिय -स्पर्शन 4 कषाय क्रोध -मान -रसना घ्राण चक्षु 4 विकथा निद्रा स्नेह स्त्री कथा - भोजन कथा - राष्ट्र कथा L चोर कथा माया Lलोभ Lश्रोत्र For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय 139 प्राण भाव प्राण * ज्ञान-दर्शनादि गुण द्रव्य प्राण * जिसके संयोग से जीव जीवंत अवस्था व वियोग से मरण अवस्था को प्राप्त हो 5 इन्द्रिय 3 बल आयु श्वासोच्छवास मनोबल वचनबल कायबल असदभिधानमनृतम्।।14।। सूत्रार्थ - असत् बोलना अनृत है।।14।। असत्य विद्यमान अविद्यमान विद्यमान वस्तु का वस्तु का सद्भाव वस्तु को अन्य निषेध करना प्रकट करना स्वरूप से कहना गर्हित (निन्द्य) अवद्य (पाप संयुक्त) अप्रिय Fदुष्टता व निन्दा छेदन अप्रीतिकारक रूप हास्य भेदन भयकारक कठोर Fमारण खेदकारक मिथ्याश्रद्धान शोषण बैर प्रलापरूप व्यापार - शोक -शास्त्र विरुद्ध आदि चोरी आदि के वचन - कलहकारक आदि For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140. सप्तम अध्याय अदत्तावानं स्तेयम्।।15।। सूत्रार्थ - बिना दी हुई वस्तु का लेना स्तेय है।।15।। मैथुनमब्रह्म।।16।। सूत्रार्थ - मैथुन अब्रह्म है।।16।। अब बहिरंग (रतिजन्य सुख के लिए पुरुष-स्त्री की जो भी चेष्टा) अंतरंग (ब्रह्म [आत्मा] में लीनता का अभाव) . मूर्छा परिग्रहः।।17। .. सूत्रार्थ - मूर्छा परिग्रह है।।17।। परिग्रह अभ्यंतर (14) (आत्मा का परिणाम) -मिथ्यात्व -4 कषाय Lनोकषाय बहिरंग (10) (बाह्य पदार्थ) क्षेत्र-मकान सोना-चाँदी धन-धान्य दास-दासी -बर्तन-कपड़े For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 सप्तम अध्याय निश्शल्यो व्रती॥18॥ सूत्रार्थ - जो शल्यरहित है, वह व्रती है।।18।। वती की विशेषता शल्य (निरंतर पीड़ा देने वाली वस्तु,जैसे शरीर मे चुभा काँटा) से रहित होना शल्य मिथ्यात्व * अतत्त्वों का श्रद्धान करना माया * ठगने की वृत्ति होना निदान *भोगों की लालसा होना अगार्यनगारश्च||19॥ सूत्रार्थ - उसके अगारी और अनागार - ये दो भेद हैं।।1।। . अणुव्रतोऽगारी।।20।। सूत्रार्थ - अणुव्रतों का धारी अगारी है।।20।। - वती अगारी अनगारी * भाव घर सहित-गृहस्थ व्रती * भाव घर रहित-गृह त्यागी साधु .. अणुव्रती महाव्रती For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 . सप्तम अध्याय गृहस्थ के वत 5 अणुव्रत 7 शील व्रत * मूल व्रत * उत्तर व्रत * अल्प व्रत (समस्त पाप क्रिया * मूल व्रतों की का पूर्ण अभाव न होने से) रक्षा के लिए हैं। सल्लेखना * जीवन के अंत में स्वीकृत व्रत अणुव्रत MOHARTERESISTAR NIRAHARA N PURI अहिंसाणुव्रत सत्याणुव्रत अचौर्या ब्रह्मचर्याणुव्रत परिग्रह परिअणुव्रत माणाणुव्रत संकल्पी त्रस स्नेह, बैर, बिना दिया स्वीकारी या | स्वेच्छा से दूसरे के द्रव्य | बिना स्वीकारी | परिग्रह का त्याग व के वश को ग्रहण परस्त्री के संग | परिमाण स्थावर हिंसा असत्य करने का का त्याग करना | करना को यथासंभव कहने का त्याग कम करना त्याग दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणा तिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च।।21।। सूत्रार्थ - वह दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिकव्रत, प्रोषधोप वासव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभागवत - इन व्रतों से भी सम्पन्न होता है।।21।। For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणव्रत (अणुव्रतों का उपकार करे) दिग्विरति देशविरति * पूर्वादि 10 दिशाओं * ग्रामादिक की में प्रसिद्ध चिह्नों के निश्चित काल के लिए मर्यादा करना द्वारा जीवनपर्यंत की मर्यादा करना सप्तम अध्याय 7 शीलव्रत सामायिक व्रत प्रोषधोपवास व्रत *समस्त पाप योग *पर्व के दिनों में क्रिया व राग-द्वेष सकल आरम्भ, का त्याग, साम्यभाव विषय - कषाय को प्राप्त हो शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होना व आहार का त्याग करना आदि के वचन शिक्षाव्रत (मुनिव्रत पालन की शिक्षा मिले) अनर्थदण्ड विरति *उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, उसका त्याग करना उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत न्यायरूप उपभोग अनर्थदण्ड अपध्यान पापोपदेश प्रमादचरित * दूसरे की जय - प्राणियों के बिना प्रयोजन पराजय, मृत्यु हिंसा के कारण के पाप आदि कैसे हो, भूत वाणिज्य कार्य करना ऐसा मन में का प्रसार करने विचार करना वाले आरम्भ परिभोग में काल की मर्यादा लेकर त्याग करना 143 अतिथि संविभाग व्रत For Personal & Private Use Only हिंसा के उपकरणों को प्रदान करना (देना) मोक्ष उद्यमी के लिए अपने भोजन, धनादि का विभाग करना हिंसाप्रदान अशुभश्रुति हिंसा व राग आदि को बढ़ाने वाली कथा का सुनना व शिक्षा देना Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 . सप्तम अध्याय उपभोग-परिभोग उपभोग परिभोग * जो वस्तु एक बार ही भोगने में * जो वस्तु अनेक बार भोगने में आती है आती है जैसे- * भोजन, पानी, इत्र, पुष्प, * गृह, वाहन, वस्त्र, आभूषण आदि माला आदि अतिथि संविभाग के योग्य सामग्री भिक्षा उपकरण औषध प्रतिश्रय (रहने का स्थान) *निर्दोष शुद्ध * रत्नत्रय बढ़ाने * योग्य * ध्यान-अध्ययन आहार में सहायक शास्त्र आदि औषधि के लिए मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता।।22।। सूत्रार्थ - तथा वह मारणान्तिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता है।।22।। सल्लेखना (अच्छे प्रकार से कृश करना) भेद काय कषाय (बाहरी शरीर) (भीतरी परिणाम) कैसे अनशन, रस परित्यागादि शुभ ध्यान, स्वाध्यायादि पूर्वक करें । के क्रम से निज परमात्म स्वरूप के सेवन से किस इतना ही कृश करें कि इस प्रकार कि मोह, राग, द्वेषादि से प्रकार परिणाम आकुलित होकर, अपना ज्ञान-दर्शन रूप परिणाम कृश करें | आराधना से चलायमान न हो मलिन न हो ___ व्रती मरण के अंत में इसे प्रीतिपूर्वक स्वीकार करता है। For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय 145 अतिचार शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः।।23।। सूत्रार्थ - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव -ये सम्यग्दृष्टि के पाँच अतिचार हैं।।23।। सम्यग्दर्शन के अतिचार शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टि *आत्मा को * इस लोक * दुःखी, रोगी * मिथ्यादृष्टि का ज्ञान, अखण्ड परलोक में दरिद्री इत्यादि चारित्र आदि को देख अविनाशी भोगादिक मनुष्य, तिर्यंच । । जानकर भी सामग्री की और मुनिराज प्रशंसा संस्तव 7 प्रकार के वांछा होना के शरीर को .. * मन में - * वचनों से भय को देख ग्लानि भलाजानना प्रशंसा करना प्राप्त होना करना - सम्यग्दृष्टि को इन दोषों का खेव हो और ये यवा-कवा हों तो ये अतिचार हैं, अन्यथा अनाचार होते हैं। वतभंग के लिए सहायक परिणाम अतिक्रम व्यतिक्रम * मन में व्रतभंग *व्रत का उल्लंघन का विचार उठना करना अतिचार *विषयों में प्रवृत्ति अनाचार * विषयों में अतिशय आसक्तिरूप प्रवृत्ति For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय 146 . अतिचार अनाचारमा व्रत का एकदेश भंग *व्रत का पूर्ण भंग *अज्ञान, असावधानी, मोहवश होते हैं| *जान-बूझकर करना *संस्कारवश - क्षणिक *अभिप्राय पूर्वक *आत्मग्लानि सहित हो जाने वाला | *अच्छा समझकर किया जाने वाला * 'यह गलत किया' ऐसा भाव होता है | *'किया तो किया, क्या गलत है'. ऐसा भाव होता है *पर्वत जितना होने पर भी हल्का | *तुच्छ होने पर भी बड़ा अपराध व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम्।।24।। सूत्रार्थ - व्रतों और शीलों में पाँच-पाँच अतिचार हैं, जो क्रम से इस प्रकार हैं।।24।। वतों के पाँच-पाँच अतिचार बन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः।।25।। सूत्रार्थ - बन्ध, वध, छेद, अतिभार का आरोपण और अन्नपान का निरोध - ये अहिंसा अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।।25।। अहिंसाणवत बन्ध वध छेद अतिभारारोपण अन्नपाननिरोध किसी को डंडा, चाबुक, कान, नाक, उचित भार से | भूख-प्यास अपने इष्ट | आदि से आदिअवयवों अधिक भार | में बाधा कर स्थान में जाने से । प्राणियों को को भेदना का लादना | अन्न-पान का | रोकना मारना | रोकना For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय 147 ||26|| मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः सूत्रार्थ - मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकार - मन्त्रभेद - ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।।26।। मिथ्योपदेश मोक्षमार्ग से स्त्री-पुरुष के विपरीत उप- एकांत आच|देश देना |रण को प्रकट कर देना - रहोभ्याख्यान कूटलेखक्रिया | अन्य के बारे में झूठा लेख लिखना स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपक व्यवहाराः।।27।। स्तेन प्रयोग सूत्रार्थ स्तेनप्रयोग, स्तेन आहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिक मानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार-ये अचौर्य अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ।। 27 ।। सत्याणुव्रत किसी को चोरी के लिए प्रेरित करना, कराना व ग्रहण अनुमोदना करना स्तेन आहृतादान चोरी की वस्तु का न्यासापहार साकारमंत्र भेद धरोहर रखने किसी कारण वाला आकर दूसरे के मन कम वापस की बात जान माँगे तो कम उसे अन्य को ही दे देना प्रकट कर देना अचौर्याणुव्रत विरुद्ध राज्यातिक्रम मानोन्मान राज्य आज्ञा के विरुद्ध चलना हीनाधिक प्रतिरूपक व्यवहार उत्तम वस्तु में खोटी मिला लेने के व देने के माप कम ज्यादा रखना कर अच्छी For Personal & Private Use Only कहकर बेचना Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 सप्तम अध्याय परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीड़ाकाम तीव्राभिनिवेशाः।।28।। सूत्रार्थ- परविवाहकरण, इत्वरिकापरिगृहीतागमन, इत्वरिका-अपरिगृहीतागमन, अनङ्गक्रीड़ा और कामतीव्राभिनिवेश - ये स्वदारसन्तोष अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।।28।। ब्रह्मचर्याणवत परविवाह इत्वरिका - अनंगक्रीड़ा काम तीव्रा- .. करण परिगृहीता अपरिगृहीता भिनिवेश दूसरों का | जिसका कोई | जिसका कोई काम सेवन के | काम सेवन विवाह | स्वामी हो | स्वामी न हो निश्चित अंगों | की तीव्र कराना को छोड़ शेष | अभिलाषा ऐसी व्यभिचारिणी स्त्री के अंगों द्वारा काम रखना | यहाँ जाना-आना आदि करना सेवन करना क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः।।29।। सूत्रार्थ - क्षेत्र और वास्तु के प्रमाण का अतिक्रम, हिरण्य और सुवर्ण के प्रमाण का अतिक्रम, धन और धान्य के प्रमाण का अतिक्रम, दासी और दास के प्रमाण का अतिक्रम तथा कुष्य के प्रमाण का अतिक्रम ये परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।।29।। परिग्रह परिमाणाणुवत बहिरंग परिग्रह क्षेत्र-वास्तु हिरण्य-स्वर्ण धन-धान्य दासी-दास (जमीन-घर) (चाँदी-सोना) (गोधनादि अनाज़ आदि) कुष्य (वस्त्रादि) इनके प्रमाण का उल्लंघन करना For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय 149 गुणवतों के अतिचार - ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि।।30॥ सूत्रार्थ - ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान - ये दिग्विरतिव्रत के पाँच अतिचार हैं।।30।। दिग्विरति व्यतिक्रम (मर्यादा का उल्लंघन) ऊर्ध्व अधो तिर्यग् क्षेत्रवृद्धि स्मृत्यन्तराधान * ऊपर * नीचे * 4 दिशा व * मर्यादा की हुई * मर्यादा को 4विदिशा दिशा के बढ़ाने याद नहीं का अभिप्राय रखना रखना आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः।।31।। सूत्रार्थ - आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप - ये - देशविरति व्रत के पाँच अतिचार हैं।।31॥ . देशविरति आनयन प्रेष्यप्रयोग शब्दानुपात रूपानुपात पुद्गलक्षेप मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु दूसरे व्यक्ति दूसरे को खाँसी अपना रूप कंकर आदि मँगाना व को काम आदि इशारों से दिखा कार्य पुद्गल फेंक किसी को बताना अपना अभिप्राय करवाना कर अपना बुलाना बताना कार्य करवाना For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 . सप्तम अध्याय A NTALI कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि।।32।। सूत्रार्थ - कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य - ये अनर्थदण्डविरतिव्रत के पाँच अतिचार हैं।।32।। अनर्थदण्डविरति कन्दर्प कौत्कुच्य मौखर्य । असमीक्ष्या- उपभोगपरिभोग धिकरण अनर्थक्य । रागभाव की कन्दर्प के साथ| धीठता पूर्वक प्रयोजन विचारे आवश्यकता से तीव्रतावश शारीरिक कुछ भी बक- बिना अधिक | अधिक वस्तु हास्य मिश्रित कुचेष्टा वास करना | प्रवृत्ति करना | का संग्रह करना असभ्य वचन करना बोलना शिक्षावत के अतिचार योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि।।33।। सूत्रार्थ - काययोगदुष्प्रणिधान, वचनयोगदुष्प्रणिधान, मनोयोगदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृति का अनुपस्थान -ये सामायिक व्रत के पाँच अतिचार हैं।।33।। सामायिक व्रत दुष्प्रणिधान (सामायिक काल में । अन्यथा प्रवर्तन) काय वचन मन अनादर स्मृति अनुपस्थान * शरीर के *अशुद्ध *अर्थ में मन * उत्साह रहित * एकाग्रता के अंगोपांगादि उच्चारण, नहीं लगाना सामायिक अभाव में पाठ को निश्च- सही अर्थ आदि भूल जाना लता रहित का ज्ञान रखना न होना करना For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादर स्मृत्यनुपस्थानानि || 34 11 सूत्रार्थ - अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित भूमि में उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित (बिना देखे - बिना शोधे) वस्तुका आदान, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तर का उपक्रमण, अनादर और स्मृति का अनुपस्थान - ये प्रोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार हैं ।। 34।। प्रोषधोपवास व्रत संस्तर उत्सर्ग आदान *जमीन पर *पूजा के उप- *भूमि पर करण आदि आसनादि व स्वयं के बिछाना वस्त्रादि ले लेना मल-मूत्र का त्याग करना. सचित्त ( चेतना सहित पदार्थ) आहार *जैसे-कच्चे से सम्बन्ध फल, फूलादि अनादर उत्साह रहित आवश्यक कार्य करना सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुष्यक्वाहाराः ||35 | सूत्रार्थ- सचित्ताहार, संबन्धाहार, संमिश्राहार, अभिषवाहार और दुःपक्वाहार - ये उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं ।। 35|| उपभोग परिभोग परिमाण व्रत (सभी आहार से सम्बन्धित) प्राप्त हुआ आहार 151 - संबंधाहार सम्मिश्राहार अभिषवाहार दु: पक्वाहार से मिश्रित गरिष्ठ आहार अधपका, अधिक का हुआ आहार आहार For Personal & Private Use Only स्मृति अनुपस्थान आवश्यक धर्म कार्य करना भूल जाना Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ||36 || सूत्रार्थ - सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम - ये अतिथिसंविभाग व्रत के पाँच अतिचार हैं ।। 36 ।। अतिथि संविभाग व्रत (सभी आहार दान से सम्बन्धित) 152 सचित्त निक्षेप अपिधान *सचित्त *सचित्त द्वारा आहार को आहार रखना ढाँका परव्यपदेश 'अन्य की वस्तु है' - यह कह कर दान देना आशंसा (चाह) मात्सर्य अनादर से देना और अन्य दातार से ईर्ष्या करना जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि || 37।। सूत्रार्थ - जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान - ये सल्लेखना के पाँच अतिचार हैं।] 37 || सल्लेखना अतिचार जीवित मरण मित्रांनुराग *जीने की *मरने की * मित्रों को याद करना सुखानुबंध पूर्व में भोगे भोगों का स्मरण करना • For Personal & Private Use Only कालातिक्रम भिक्षा काल का उल्लंघन करके दान देना भोगाकांक्षा आगामी भोगों की वांछा करना Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय 153 • अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्।।38।। सूत्रार्थ - अनुग्रह (निज व पर के कल्याण) के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।।38॥ दान (उपकार के लिए स्व की वस्तु का त्याग) स्व का उपकार पर का उपकार * लोभ वृत्ति कम होती है * जीवन यात्रा में मदद * आत्मा त्याग की तरफ झुकता है * धर्म साधना में सहायता * पुण्यबंध होता है । विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः।।39।। सूत्रार्थ - विधि, देय वस्तु, दाता और पात्र की विशेषता से उसकी विशेषता है।।39॥ दान के फल में विशेषता के कारण विधि विशेष द्रव्य विशेष दाता विशेष पात्रविशेष * नवधा भक्ति * देय वस्तु जिससे *दान देने वाला * दान लेने वाला में विशेषता — तप स्वाध्याय जो ईर्ष्या,खेद मोक्ष के कारणभूत .... आदि की वृद्धि हो रहित सात गुणों सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त हो से युक्त हो उत्तम मध्यम जघन्य *मुनिराज *व्रती श्रावक *अव्रती सम्यग्दृष्टि For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 सप्तम अध्याय |विधि विशेष । । । संग्रह/प्रतिग्रह उच्च स्थान पादोदक अर्चन प्रणाम शुद्धि *'आईये पधारिये' *ऊँचा आसन प्रासुक जल भ्योग्य पूजा #योग्य (रखना ऐसा निवेदन देना से पैर धोना स्तवन नमस्कार |बोलना) .. करना व . मन वचन काय भोजन की . दाता के सात गुण 1B भक्ति तुष्टि श्रद्धा विज्ञान अलोलुप सात्त्विक क्षमा प्रमाद पात्र प्राप्ति दान कल्याण योग्य भक्ष्य सांसारिक | धन थोड़ा | किसी रहित, पर अत्यंत | -कारी है पदार्थ का | लाभ की | होने पर भी | पर भी ज्ञान खुशी ऐसा विश्वास दान देना | इच्छा रहित दान के प्रति रोष नहीं होना करना सहित उत्साह दान के प्रकार आहार औषध ज्ञान अभय (प्राण दान) For personal a Private Use only For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 1ि35ARTHREE Jeans (अष्टम अध्याय विषय-वस्तु सूत्र क्रमांक कुल सूत्र पृष्ठ संख्या बंध के कारण 155-156 बंध और बंध के भेद 2-3 | 2 | 157-158 द्रव्य बंध प्रकृति बंध 4-13 | 10 159-173 स्थितिबंध -उत्कृष्ट 14-17 174-177 -जघन्य 18-20 174-175 अनुभाग बंध 21-23 177-179 प्रदेश बंध 24 1 179-180 पुण्य व पाप प्रकृतियाँ 25-26 2 180-181 कुल | 26 मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः।।1।। सूत्रार्थ - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं।।1।। बंध के कारण मिथ्यादर्शन(2) अविरति(12) प्रमाद(15) कषाय(25) योग(15) (अतत्त्वश्रद्वान) (इन्द्रिय विषयों (अच्छे कार्यों (आत्मा (आत्मा के व प्राणी हिंसा में अनुत्साह) को कसे) प्रदेशों का का त्याग न होना) परिस्पन्दन) अगृहीत गृहीत 6 इन्द्रिय (नैसर्गिक) (परोपदेश पूर्वक) अविरति 6 प्राणी अविरति एकान्त .. . विपरीत संशय विनय अज्ञान For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 मनोयोग (4) -सत्य मनोयोग -असत्य मनोयोग - उभय मनोयोग -अनुभव मनोयोग 14 13 12 11 10 9 गुणस्थान किस गुणस्थान तक बंध कारण होते हैं 8 7 6 5 4 3 2 1 वचनयोग (4) - सत्य वचन योग • असत्य वचन योग - उभय वचन योग - अनुभय वचन योग अष्टम अध्याय योग ( 15 ) आंशिक अविरति ल वि मिथ्यात्व ति प्र मा द काययोग (7) औदारिक काय योग औदारिक मिश्र काय योग बंध के कारण वैक्रियिक काय योग. वैक्रियिक मिश्र काययोग. आहारक काय योग आहारक मिश्र काय योग कार्माण काय योग के कौन-से For Personal & Private Use Only यो ग सिर्फ प्रकृति, प्रदेशबंध यहाँ तक चार प्रकार का बंध Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 अष्टम अध्याय सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः।।2।। सूत्रार्थ - कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध है।।2।। * क्या हो रहा है? * किसका ? * किसे ? * कब से ? बंध क्या है → बंध → योग्य कार्मण वर्गणा का (पुद्गल का) → कषाय सहित जीव को (संसारी मूर्तिक जीव) → अनादि से ... कर्म बंध चक्र पूर्व बँधे द्रव्य कर्म यहाँ जीव कर्म का उदय के मंद उदय में पुरुषार्थ से इस चक्र को रोक सकता है। जीव भावकर्म करता (मोह-रागादि) नवीन द्रव्य कर्म बंध होता For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 अष्टम अध्याय द्रव्यकर्म-भावकर्म निमित्त-उपादान कार्य उपावान कारण(कर्ता) निमित्त कारण (स्वयं कार्य रूप परिणमे) (स्वयं कार्य रूप न परिणमे, पर कार्य की उत्पत्ति में सहायक हो) द्रव्य बंध कार्मण वर्गणा जीव के योग व कषाय (द्रव्य कर्म) भाव बंध जीव के योग कषाय की उदय/उदीरणा को (भाव कर्म) | पूर्व पर्याय | प्राप्त कर्म दृष्टातघड़ा | मिट्टी कुम्भकार HARACTES प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः।।3।। सूत्रार्थ - उसके प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश - ये चार भेद हैं।।3।। बंध | नाम प्रकृति प्रवेश स्थिति अनुभाग स्वरूप | स्वभाव परमाणुओं | आत्मा के साथ | फल दान देने की (कर्म का... की संख्या । रहने की मियाद । हीनाधिक शक्ति कर्म का द्रव्य क्षेत्र | काल भाव कारण योग से कषाय से For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 159 आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः।।4।। सूत्रार्थ - पहला अर्थात् प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय रूप है।।4।। पञ्चनवद्व्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम्।।5।। सूत्रार्थ -आठ मूल प्रकृतियों के अनुक्रम से पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, ब्यालीस,दो और पाँच भेद हैं।।5।। 1-कर्म कर्म के भेद सामान्य से 2-घातिया कर्म-अघातिया कर्म 3-द्रव्यकर्म, भाव कर्म, नो कर्म | मूल प्रकृति | उत्तर प्रकृति 148 (संख्यात) | भावों की अपेक्षा असंख्यात परमाणुओं की अपेक्षा | अनंत | अविभाग प्रतिच्छेद अपेक्षा अनंतानंत द्रव्य कर्म क्या?→ जीव के रागादि परिणामों के निमित्त से जो कार्मण वर्गणा जीव के साथ संबंध को प्राप्त होती हैं। For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only नाम भेद स्वरूप (प्रकृति) इसके अभाव में कौन-सा घातिया कर्म (आत्मा के अनुजीवी गुणों को घाते) ज्ञानावरण दर्शनावरण अतराय मोहनीय 5 5 28 जीव के ज्ञान को दृष्टांत मूर्ति पर पड़ा पर्दा अनंत गुण प्रकट ज्ञान होता है 9 जीव के दर्शन को आवृत करें (ढकें) द्वारपाल प्रकृति बंध (आठ मूल कर्म, अनंत दर्शन वीर्य को खजांची अनंत वीर्य सम्यक्त्व व चारित्र को घाते मदिरा अनंत सुख आयु 4 - शरीर में रोके रखे बेड़ी अघातिया कर्म (प्रतिजीवी गुणों को घाते) अवगाहनत्व नाम गोत्र 42 2 - शरीरादि करवाये Taa चित्रकार सूक्ष्मत्व जीव को | - गत्यादि रूप - उच्च-नीच -आकुलता हो परिणमावे पना प्राप्त वदनाथ 2 कुम्भकार 160 शहद लपेटी तलवार की धार अगुरुलघुत्व अव्याबाधत्व Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 161 गुण अनुजीवी * भाव स्वरूप गुण जैसे- * ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य प्रतिजीवी * अभाव स्वरूप धर्म * नास्तित्व, अचेतनत्व सूक्ष्मत्व, अमूर्तत्व मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम्।।6।। सूत्रार्थ - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ___- इनको आवरण करनेवाले कर्म पाँच ज्ञानावरण हैं।।6।। ज्ञानावरण 5 ज्ञान को आवरण करने वाले 5 भेद मति ज्ञानावरण श्रुत अवधि ज्ञानावरण ज्ञानावरण मनःपर्यय ज्ञानावरण केवल ज्ञानावरण For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 अष्टम अध्याय चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च।।7।। . सूत्रार्थ - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन - इन चारों के चार आवरण तथा निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि - ये पाँच निद्रादिक ऐसे नौ दर्शनावरण हैं।।7।। दर्शनावरण (प्रत्येक भेद के साथ दर्शनावरण' लगावें) 4 आवरण 5 निद्रा चक्षु अचक्षु अवधि केवल निद्रा निद्रा-2 प्रचला प्रचला-2 स्त्यानगृद्धि *थकावट को * नींद पर | * शोक, श्रम, *खड़े-2,बैठे-2 * वीर्य शक्ति दूर करने | नींद मद से चलते-2 पुनः-2 विशेष होने से के लिए उत्पन्न. नींद आए नींद में कठिन *गमन करते *नेत्रों को | * नेत्र कुछ * मुख से लार | कार्य करना हुए रुकना, | न उघाड़, उघाड़े हुए | आना, हाथ | * उठा हुआ बैठना, गिरना पाना | सोना, ऊँघना पैर चलाना | भी सोना For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्षु *नेत्रजन्य मति ज्ञान से पहले अष्टम अध्याय दर्शन अचक्षु नेत्र के सिवाय अचक्षु दर्शन शेष इन्द्रियों व मन संबंधी मति ज्ञान से पहले, | अल्पज्ञ (छद्यस्थ) *दर्शन पहले फिर ज्ञान _*क्रमशः *क्षायोपशमिक अवधि अवधिज्ञान से पहले होने वाला सामान्य प्रतिभास यहाँ 4 दर्शन बताए हैं, ऊपर इनको आवरण करने वाले .4 दर्शनावरण कर्म जानना । दर्शन - ज्ञान का व्यापार केवल *युगपद् * क्षायिक सर्वज्ञ (केवली) *दर्शन और ज्ञान साथ में मन:पर्ययज्ञान उत्पत्ति क्रम → मन:पर्यय ज्ञान → ईहा मतिज्ञान मन:पर्यय दर्शन न होने से उसे आवरण करने वाला कर्म भी नहीं होता है। केवलज्ञान के साथ For Personal & Private Use Only 163 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 अष्टम अध्याय सदसवेद्ये।।8। सूत्रार्थ - सवेद्य और असद्वेद्य - ये दो वेदनीय हैं।।४।। वेदनीय सांता असाता * सुख रूप अनुभव *दुःख रूप अनुभव उपचार से * अनुकूल सामग्री की प्राप्ति *प्रतिकूल सामग्री की प्राप्ति चारों गतियों में दोनों का उदय होता है। आत्मा का सुख गण स्वभाव परिणमन निराकुलता विभाव परिणमन आकुलता अतीन्द्रिय सुख इन्द्रिय सुख .. इन्द्रियदुःख इनमें वेदनीय कर्म निमित्त है दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायो हास्यरत्यरतिशोक भयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः।।9। सूत्रार्थ-दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, अकषायवेदनीय और कषाय वेदनीय इनके क्रम से तीन, दो, नौ और सोलह भेद हैं। सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और तदुभय -ये तीन दर्शनमोहनीय हैं। अकषायवेदनीय और कषायवेदनीय ये दोचारित्र-मोहनीय हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद- ये नौ अकषायवेदनीय हैं तथा अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन- ये प्रत्येक क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से सोलह कषायवेदनीय हैं।।9।। For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 165 मोहनीय (281 / नोट - सभी में । ("जिसके उदय से" शुरू) 7 में लगाएँ दर्शन' मोहनीय (3) चरित्र मोहनीय (2) * सम्यक्त्व गुण का घात हो * चारित्र गुण का घात हो सम्यक्त्व मगत सम्यक्त्व मिथ्यात्व अकषाय कषाय 4 मिथ्यात्व *सम्यक्त्व का *अतत्त्व *मिश्रपरिणाम. वेदनीय(9) वेदनीय(16) मूल घातन श्रद्धान हो तत्त्व अतत्त्व (नोकषाय) हो पर दोष लगे दोनों श्रद्धान हो किंचित् कषाय हो हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा वेद *हँसी *देशादि में *देशादि में *इष्ट का *उद्वेग(चित्त * अपने दोष आए उत्सुकता उत्सुकता वियोग में घबराहट) छुपाने व दूसरे के हो न हो होने पर हो प्रकट करने एवं दुःख हो ग्लानि का भाव हो पुरुष नपुसंक - पुरुष से रमने का स्त्री से रमने का स्त्री-पुरुष दोनों ___ भाव इत्यादि भाव इत्यादि से रमने का भाव इत्यादि अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण| संज्वलन क्रोध मान । माया लोभ । *स्वरूपाचरण/] *देश चारित्र *सकल चारित्र भ्यथाख्यात चारित्र सम्यक्त्वाचरण. का घात हो *अनंत संसार | *किंचित् त्याग | *पूर्ण त्याग *जो संयम के (मिथ्यात्व) न होने दे न होने दे | साथ प्रज्वलित के साथ बँधे For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 अष्टम अध्याय कषायों के उत्कृष्ट-जघन्य स्थान के दृष्टांत उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट । अजघन्य का जघन्य र क्रोध शिला भेद पृथिवी भेद | धूलि रेखा । जल रेखा | मान | शैल अस्थि । काष्ठ । बेंत बाँस की जड़ मेढ़े का सींग | गोमूत्र । किरमिची रंग चक्रमल | शरीर का मैल | हल्दी का रंग | माया खुरपा.' | लोभ । * क्रोध, मान, माया व लोभ में से एक समय में एक का ही उदय होता है। * अंतर्मुहूर्त में उदय नियम से बदल जाता है। * बंध चारों का प्रति समय होता है। नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि।।100 , सूत्रार्थ - नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु - ये चार आयु हैं।।10।। आयु तिथंचायु मनुष्यायु देवायु नरकायु नारकी तिर्यंच मनुष्य देव के शरीर में रोके रखे For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 167 गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहुननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकीर्ति सेतराणि तीर्थकरत्वं च।।11।। सूत्रार्थ - गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास और विहायोंगति तथा प्रतिपक्षभूत प्रकृतियों के साथ अर्थात् साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर, स्थावर और त्रस, दुर्भग और सुभग, दुःस्वर और सुस्वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्त और पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय, अयशःकीर्ति और यशःकीर्ति एवं तीर्थंकरत्व - ये ब्यालीस नामकर्म के भेद हैं।।11।। प्रत्यक 10 नाम कर्म 14 पिण्ड : प्रत्येक 10 जोड़े कुल प्रकृति अभेद विवक्षा 148 2042 भेद विवक्षा | 65 8 20 93| C For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only शरीर नाम गति जाति स्वरूप जीव समानता शरीर की भवांतर से इकट्ठे रचना हो में जाता किए जाते है भेद 4 विशेष the हैं 5 5 अंगोपांग बंधन संघात शरीर के शरीर के हाथ-पैर आदि अंग परमाणु परमाणु व नाकादि छिद्र छिद्र उपांग की सहित रहित रचना हो इकट्ठे एकता को बँधे प्राप्त हो 3 5 नरक एकेन्द्रिय औदारिक औदारिक भेदों के तिर्यंच द्वीन्द्रिय वैक्रियिक वैक्रियिक शरीर मनुष्य त्रीन्द्रिय आहारक आहारकवाले नाम देव चौइन्द्रिय तैजस भेद पंचेन्द्रिय कार्मण 5 एकेन्द्रिय के नहीं होते 14 पिण्ड प्रकृति संस्थान 5 5 शरीर वाले भेद शरीर की आकृति बने 6 आगे देखें संहनन स्पर्श हड्डियों शरीर में के बंधन स्पर्श रस गंध में हो हो हो विशेषता हो The 6 आगे देखें एकेन्द्रिय, देव, नारकी के नहीं होता 8 5 2 &a वर्ण हो 10 5 आनुपूर्वी विहायो विग्रह गति आकाश (द्रव्य) में पूर्व शरीर का में आकार बना रहे हो 1681 4 गमन 2 नरकगति प्रशस्त तिर्यंचगति अप्रशस्त मनुष्यगति देवगति Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय शरीर, बंधन, संघात में अन्तर दृष्टांत जैसे दीवार बनाने के लिए शरीर ईंट जमाना समचतुस्र न्यग्रोध परिमण्डल शरीर ऊपर वट वृक्षवत् नाभि के नीचे व मध्य में नीचे के अंग छोटे एवं ऊपर के बड़े हों सम भाग हो बंधन ईंको गारे से जोड़ना सर्प की बाँबीवत् ऊपर के अंग छोटे एवं नीचे के बड़े हों संस्थान स्वाति कुब्जक वामन हुण्डक वज्रवृषभ व्रजनाराच नाराच नाराच वज्र के हाड़ वज्र के हाड़ वज्र रहित बेठन व वकीली हो कीलित कीलियाँ हो संहनन संघात सीमेंट से मजबूत करना हड्डियों की सन्धि हो कुबड़ा शरीर हो शरीर अवक्तव्य आकार हों बौना अनेक विरूप हो the 169 अर्द्धनाराच कीलक असंप्राप्ता सूपाटिका जुदे - 2 हड्डियों की हड्डियाँ सन्धि अर्द्ध कीलित हो कीलित हो परस्पर हाड़ For Personal & Private Use Only नसों से बँधे ह Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 . अष्टम अध्याय किस संहनन सहित मरा जीव कहाँ जन्म ले सकता है संहनन स्वर्ग में नरक में श्रेणी चढ़े तो 6 संहनन | आठवें (8)स्वर्ग तक | पहले तीन (3) प्रथम 5 बारहवें (12)स्वर्गतक | पाँचवे (5) तक प्रथम 4 सोलहवें (16)स्वर्ग तक | छठे (6) तक प्रथम 3 नवमें ग्रैवेयकतक । " उपशम श्रेणी प्रथम 2 नवमें अनुदिश तक केवल पांचवे अनुत्तर तक | सातवें (7) तक | क्षपक श्रेणी । प्रथम किस जीव के कौन-सा संहनन होता है। जीव ATM संहनन * दो से चार इन्द्रिय | अंतिम संहनन * भोगभूमि मनुष्य-तिर्यंच | प्रथम संहनन * कर्मभूमि द्रव्य स्त्रियाँ | अंतिम तीन *कर्मभूमि मनुष्य व तिर्यंच | 6 संहनन For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 171 8 प्रत्येक प्रकृति नमाण गुलघु उपधात परघात आतप उद्योत उच्छवासा तीर्थका स्वरूप अंगोपांग शरीर भारी अपना ही दूसरे का शरीर शरीर श्वासो- | अर्हन्त की व हल्का घात करने घात करने की की च्छ्वास पद यथास्थानान हो वाले अंग वाले आभा आभा हो । के साथ यथाप्रमाण हो अंगोपांग उष्ण शीत | धर्मतीर्थ रचना हो । हो हो हो प्रवर्तन हो किन्हें उदय सभी को सभी को सभी को सभी त्रस पर्याप्त पर्याप्त श्वासो- | केवली बादर च्छ्वास विग्रहगति को शरीर बादर तिर्यंचों के बाद पर्याप्ति को को पूरी होने के बाद (किन्हीं-2को)| पर होता आतप, उद्योत, उष्ण नामकर्म । आतप उद्योत । . उष्ण आभा | गर्म | ठंडा | गर्म मूल (शरीर) ठंडा | ठंडा - गर्म सूर्य चन्द्रमा । अग्निकायिक का विमान| का विमान | का शरीर .. For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 अष्टम अध्याय | 10 जोड़े। शभ | प्रत्येक | एक शरीर, एक स्वामी | साधारण एक शरीर, अनेक स्वामी शरीर | शरीर (इनका उदय निगोदिया जीव को ही होता है) त्रस द्वीन्द्रियादि में जन्म हो | स्थावर | एकेन्द्रियों में उत्पत्ति हो . सुभग | दूसरे जीव अपने से दुर्भग | दूसरे जीव अपने से प्रीति | प्रीति करें न करें । सुस्वर | अच्छा स्वर हो दुस्वर | अच्छा स्वर न हो। | शरीर के अवयव सुन्दर हों अशुभ शरीर के अवयव सुन्दर न हों. बादर | दूसरों को रोके व दूसरों | सूक्ष्म | न किसी को रोके, न रुके केद्वारा रुके, ऐसा शरीर हो ऐसा शरीर हो पर्याप्त अपने-2 योग्य पर्याप्तियाँ अपर्याप्त एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हो पूर्ण हों शरीर की धातु-उपधातु | अस्थिर | शरीर की धातू-उपधात | अपने ठिकाने रहे अपने ठिकाने न रहे आदेय | प्रभा सहित शरीर उपजे | अनादेय | प्रभा रहित शरीर उपजे | संसार में यश हो रहा है | अयशः | अपयश हो रहा है, ऐसा जीव -कीर्ति | ऐसाजीव के द्वारा मानाजाना -कीर्ति | के द्वारा माना जाना यशः पर्याप्ति (आहारादि वर्गणा के परमाणुओं को शरीरावि रूप परिणमाने की जीव की शक्ति की पूर्णता) । । आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास भाषा मनः ये छः पर्याप्तियाँ एक साथ प्रारम्भ हो क्रम से पूर्ण होती हैं। For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय अपर्याप्त लब्धि निर्वृत्ति * पर्याप्त नामकर्म का उदय * अपर्याप्त नाम कर्म का उदय * शरीर पर्याप्ति जब तक *एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हो पूर्ण न हो, पर नियम से पूर्ण होगी और न होने वाली हो उच्चैनीचैश्च।।12।। सूत्रार्थ - उच्चगोत्र और नीचगोत्र - ये दो गोत्रकर्म हैं।।12।। गोत्र उच्च * लोक पूजित कुल में जन्म हो नीच * निन्दित कुल में जन्म हो - दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्।।13।। सूत्रार्थ -दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य - इनके पाँच अन्तराय हैं।।13।। अंतराय दानान्तराय लाभान्तराय भोगान्तराय उपभोगान्तराय वीर्यान्तराय *देने की इच्छा *प्राप्ति की *भोगने की *उपभोगने की शक्ति प्रकट करता हुआ इच्छा रखता इच्छा करता इच्छा करता करने की इच्छा भी नहीं देता हुआ भी नहीं हुआ भी नहीं हुआ भी नहीं हो, पर शक्ति प्राप्त करता भोग सकता उपभोग सकता प्रकट न हो For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 . अष्टम अध्याय · आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः।।14। सूत्रार्थ - आदि की तीन प्रकृतियाँ अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय इन चार की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम है।।14।। सप्ततिर्मोहनीयस्य।।15॥ सूत्रार्थ - मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरोपम है।।15।। .. विंशतिर्नामगोत्रयोः।।16।। सूत्रार्थ - नाम और गोत्र की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटि सागरोपम है।।16।। त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः।।17।। सूत्रार्थ - आयु की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम है।।17। __ अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य।।18।। सूत्रार्थ - वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है।।18।। नामगोत्रयोरष्टौ॥19॥ सूत्रार्थ - नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है।।1।। शेषाणामन्तर्मुहूर्ता।।20।। पूत्रार्थ - बाकी के पाँच कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।।20।। For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म अष्टम अध्याय मूल कर्म जघन्य - उत्कृष्ट स्थिति बंध व आबाधा उत्कृष्ट (सागर में) नाम गोत्र आयु ज्ञानावरण 30 कोड़ाकोड़ी अंतर्मुहूर्त दर्शनावरण अंतराय मोहनीय 70 कोड़ाकोड़ी वेदनीय 30 कोड़ाकोड़ी 20 कोड़ाकोड़ी स्वामी स्थिति बंध 33 मात्र जघन्य 12 मुहूर्त 8 मुहूर्त अंतर्मुहूर्त *संज्ञी पंचेन्द्रिय *आयु बिना शेष पर्याप्त मिथ्यादृष्टि 7 क्षपक श्रेणी में * उत्कृष्ट देवायु को आयु मिथ्यादृष्टि सकल संयमी ही मनुष्य व तिर्यंच बाँध सकता है। आबाधा उत्कृष्ट 3000 वर्ष 7000 वर्ष 3000 वर्ष 2000 वर्ष 175 For Personal & Private Use Only धन्य (उरणा अपेक्षा) 1 आवली 1कोटिपूर्व / 3 आवली / असंख्यात 1. आबाधा - जितने काल तक कर्म फल नहीं देता । 2. आवली = असंख्यात समय 3. एक श्वास में संख्यात हजार कोड़ाकोड़ी आवलियाँ होती हैं। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय शेष जीवों का उत्कृष्ट कर्म स्थिति बंध ज्ञानावरणादि 5 नाम गोत्र | मोहनीय एकेन्द्रिय 1 सागर 3/7 सागर |2/7 सागर द्वीन्द्रिय 25 सागर | 25X3 / 7 सागर 25X2 / 7 सागर त्रीन्द्रिय 50 सागर | 50X3 / 7 सागर 50x2/7 सागर 100X3 / 7 सागर | 100x2 / 7 सागर चौइन्द्रिय 100 सागर असैनी 1000 सागर |1000X3/7 सागर 1000x2 / 7 सागर पत्य / असंख्यात पंचेन्द्रिय 176 उत्तर प्रकृति उत्कृष्ट स्थिति बंध उत्कृष्ट स्थिति उत्तर प्रकृति (कोड़ाकोड़ी सागर में) उत्तर प्रकृति 30 ज्ञानावरण-5 दर्शनावरण - 9 | 30 अंतराय - 5 30 मोहनीय - दर्शन मोहनीय 70 (मिथ्यात्व ही बँधती) चारित्र मोहनीय 1. 16 कषाय 2. अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुसंक वेद 20 15 3. स्त्री वेद 4. हास्य, रति, पुरुष वेद 40 10 वेदनीय गोत्र -. - असाता - साता - आयु. - देवायु, नरकायु 33 सागर मात्र मनुष्यायु, तिर्यंचायु 3 पल्य आयु 1 कोटी पूर्व उत्कृष्टस्थिति (कोडाकोडी * सागर में) 30 15 For Personal & Private Use Only - नीच गोत्र 20 - उच्च गोत्र 10 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर प्रकृति नाम - संस्थान और संहनन - हुण्डक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन - आगे - 2 एक - 2 संस्थान व संहनन की 2 कोड़ाकोड़ी सागर कम - 2 होती जाती है - आहारक शरीर, आंहारक अंगोपांग, तीर्थंकर - देवगति व आनुपूर्वी, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर आदेय, यशः कीर्ति, प्रशस्त विहायोगति - मनुष्य गति व आनुपूर्वी - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चौइंन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अष्टम अध्याय अपर्याप्त, साधारण - शेष 35 प्रकृतियाँ ततश्च निर्जरा || 23 | सूत्रार्थ - इसके बाद निर्जरा होती है ।। 231 20 अंतः विपाकोऽनुभवः ।। 21 ।। सूत्रार्थ - विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देने की शक्ति का पड़ना ही अनुभव है || 21 | For Personal & Private Use Only 10 15 स यथानाम ||22|| सूत्रार्थ - वह जिस कर्म का जैसा नाम है, उसके अनुरूप होता है ।। 22 ।। 18 20 177 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 अष्टम अध्याय *अनुभाग क्या ? अनुभाग बंध अनुभव-विविध प्रकार की फल देने की शक्ति का पड़ना अपने अपने नाम रूप निर्जरा(आत्मा से कर्मपने के संबंध का अभाव) * किस रूप. *फल (उदय)देकर क्या होता है ? कैसे परिणामों से कैसा रस (अनुभाग) * शुभ परिणाम पुण्य में अधिक। पाप में कम । * अशुभ परिणाम पुण्य में कम । पाप में अधिक। अनुभाग की प्रवृत्ति स्वमुख परमुख । * अपने स्वभाव रूप ही उदय में आना * अन्य कर्म रूप हो उदय में आना * जैसे - असाता साता रूप उदय में आए जिनका नियम से स्वमुख से उदय आता है| * मूल प्रकृतियाँ * 4 आयु . * दर्शन और चारित्र मोहनीय For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय 179 फल दान शक्ति की तारतम्यता घातिया अघातिया पाप -लता (बेल) निम्ब -दारू (काष्ठ) काजीर - अस्थि (हड्डी) -विष -शैल (पत्थर) –हलाहल पुण्य -गुड़ -खाण्ड शर्करा (मिश्री) __L अमृत निर्जरा . सविपाक अविपाक/सकाम अकाम *कर्म का स्थिति * स्थिति बिना पूर्ण हुए *इच्छा बिना भूखपूर्ण होने पर फल तपादि द्वारा बीच में प्यासादि को मंद देकर खिरना ही कर्मों को खिपा देना कषाय से सहना * यहाँ पाप की निर्जरा व पुण्य का बंध होता है नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः।।24।। सूत्रार्थ - कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रति समय योग विशेष से सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुसब आत्मप्रदेशों में (सम्बन्ध को प्राप्त) होते हैं।।24।। For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 . अष्टम अध्याय *कब प्रदेश बंध * किस रूप? ज्ञानावरणादिरूप संसारी जीवों को सदा (सभी भवों में) *किस कारण से योग की न्यूनाधिकता से * किसमें सभी आत्मप्रदेशों में (दूध में पानीवत्) *कैसे स्वभाव वाला | सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाही (आत्मा के प्रदेशों पर ही स्थित) * कितनी स्थिति वाले 1 समय से असंख्यात समय की *कितना अनंत परमाणु (जघन्यपने अभव्य राशि से अनंतगुणा व उत्कृष्टपने सिद्ध राशि का अनंतवाँ भाग) सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्।।25।। सूत्रार्थ - साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र - ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं।।25।। अतोऽन्यत्पापम्।।26|| . सूत्रार्थ - इनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ पापरूप हैं।।26।। पुण्य-पाप प्रकृति विभाजन य 100 168 अनुभाग अपेक्षा | 68 स्थिति अपेक्षा | 3(3 आयु) 145 148 कुल कर्म प्रकृति- 148 + 20 = 168 (वर्णादि प्रशस्त व अप्रशस्त दोनों होते हैं) For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 अष्टम अध्याय पुण्य प्रकृतियाँ (68) आयु(3) *तिर्यंचायु *मनुष्यायु नाम(63) गोत्र(1) ___ * उच्च वेदनीय(1) * साता *देवायु । । । । शरीर संबंधी वर्णादि जोड़े की प्रत्येक पिण्ड (20) (20) प्रशस्त । . प्रकृतियाँ स्त प्रकृति(7) प्रकृति(6) शरीर(5) स्पर्श(8) 10 गति(2) -बंधन(5) Fरस(5) उपघात के जाति(1) संघात(5) गंध(2) अलावा शेष Fआनुपूर्वी (2) . अंगोपांग(3) - वर्ण(5) -विहायोगति(1) संस्थान(1) - संहनन(1) पाप प्रकृतियाँ (100). घातिया(47) आयु(1) गोत्र (1) वेदनीय(1) नाम(50) | . *नरकायु *नीच * असाता 50 शरीर वर्णादि जोड़े की प्रत्येक पिण्ड संबंधी (20) अप्रशस्त प्रकृति (1) प्रकृति (9) (10) प्रकृतियाँ - गति(2) Lसंहनन(5) - जाति(4) आनुपूर्वी(2) L विहायोगति(1) -संस्थान(5) *उपघात (10) For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182. अष्टम अध्याय घातिया कर्म सर्वघाति (जो अनुजीवी गुणों देशघाति (जो अनुजीवी गुणों " को पूरे तौर से घाते) 140) को एकदेश घाते) ज्ञानावरण(1) दर्शनावरण(6) मोहनीय(14) * केवलज्ञानावरण * केवलदर्शनावरण * मिथ्यात्व ।। * 5 निद्राएँ * मिश्र *12 कषाय ज्ञानावरण(4) वर्शनावरण(3) मोहनीय(14) अंतराय(5) * केवलज्ञाना- * चक्षुदर्शनावरण * सम्यक्त्व प्रकृति वरण के * अचक्षुदर्शनावरण * 4 संज्वलन कषाय अलावा * अवधिदर्शनावरण * 9 चोकषाय शेष चार १० For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183 AaleTHE (नवम अध्याय विषय वस्तु सूत्र क्रमांक कुल सूत्र पूछ संख्या संवर का लक्षण व कारण __1- 2 2 . 184,186-188| निर्जरा का कारण 3 1 | 187-188 संवर प्रकरण गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा 4-7 189-191 परीषहजय 8-17 .] 10 | 192-195 चारित्र | 18 | 1 195-196 निर्जरा प्रकरण बाह्य तप के नाम _ 19 | 1 | 197-198 आभ्यन्तर तप के नाम व भेद | 20-21 | 2 199 प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग के भेद 22-26 200-202 ध्यान 27-44 | 18 202-208 -ध्याता, ध्यान, ध्यान का काल 202 - ध्यान के भेद व फल 28-29 203 - आर्त ध्यान 30-34 204-205 | - रौद्र ध्यान 204-205 | - धर्म्य ध्यान 206 - शुक्ल ध्यान 37-44 206-208 निर्जरा विशेषता 45 1 209 निर्ग्रन्थ के भेद व विशेषता 46-47 ] 2 . 210-212 कुल । 47 27 35 36 For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 आस्रवनिरोधः संवरः।।1।। सूत्रार्थ - आस्रव का निरोध संवर है।।1।। संवर(आस्रव का रुकना) भाव द्रव्य कर्मों का आना रुकना संसार के निमित्तभूत परिणामों की निवृत्ति संवर दूसरे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर आगे-आगे बढ़ता जाता है। इसलिए यहाँ 'गुणस्थान' का स्वरूप दिया जा रहा है : For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 185 गुणस्थान (मोह और योग के निमित्त से होने वाली जीव की अवस्था विशेष) गुणस्थान का नाम | स्वरूप का 1. मिथ्यादृष्टि |जिसके मिथ्यादर्शन पाया जाता है। 2.सासादन | सम्यक्त्व से च्युत होकर भी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं सम्यग्दृष्टि हुआ। दृष्टि अनुभय रूप है। B. सम्यग्मिथ्यादृष्टि | | जिसकी दृष्टि सम्यक्त्व व मिथ्यात्व उभयरूप है। 4. अविरत सम्यग्दृष्टि सम्यग्दृष्टि होकर जो अविरति है। 5. देशविरत स्थावर हिंसा से विरत न होकर भी त्रस हिंसा से (व्रती श्रावक) | विरत है। 6. प्रमत्तसंयत(मुनि) प्रमाद सहित संयमभाव पाया जाता है। 7. अप्रमत्तसंयत प्रमाद रहित संयमभाव पाया जाता है। 8. अपूर्वकरण जहाँ पहले नहीं प्राप्त हुए, ऐसे परिणाम (करण) प्राप्त होते हैं। 9. अनिवृत्तिकरण | जहाँ एक समय वालों के परिणामों में भेद नहीं होता है। 10. सूक्ष्म लोभ जहाँ सिर्फ लोभ कषाय अत्यंत सूक्ष्म रह जाती है। 11. उपशांत मोह | जहाँ सम्पूर्ण मोह दब जाता है। 12. क्षीणमोह जहाँ सम्पूर्ण मोह का क्षय हो जाता है। 13. सयोग केवली | जहाँ केवलज्ञान के साथ योग पाया जाता है। . (अरहत) 14. अंयोग केवली | जहाँ केवलज्ञान के साथ योग का अभाव है। गुणस्थानातीत जहाँ द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म तीनों का अभाव है। (सिद्ध) For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 नवम अध्याय किन आसव के कारणों के अभाव में किन प्रकृतियों का संवर होता है ? कारण किस गुण- कितनी कौन-सी प्रकृतियाँ स्थान से प्रकृतियाँ । संवर होता है। 1.मिथ्यात्व 2 मोहनीय = 2 मिथ्यात्व, नपुंसक वेद .... आयु = 1 नरकायु नामकर्म =13 | नरक गति, नरक गत्यानुपूर्वी, कुल =16 | एकेन्द्रियादि 4 जाति, हुण्डक संस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर, आतप, अपर्याप्त 2.अविरति |-अनंतानुबंधी| 3 मोहनीय = 5 | अनंतानुबंधी 4 कषाय, स्त्रीवेद, सम्बन्धी दर्शनावरण=3 | 3 बड़ी निद्रा, आयु = 1 तिर्यंचायु गोत्र = 1 नीच गोत्र नाम =15| तिर्यंच गति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, कुल =25| मध्य के 4 संस्थान एवं 4 संहनन दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अप्रशस्त विहायोगति, उद्योत -अप्रत्या - 5 | मोहनीय = 4/अप्रत्याख्यानावरण 4 कषाय ख्यानावरण आयु = 1 मनुष्यायु नाम = 5| मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, कुल 10 औदारिक शरीर एवं अंगोपांग, वज्रवृषभनाराच संहनन । संबंधी For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 187 -प्रत्याख्याना प्रत्याख्यानावरण 4 कषाय |वरण संबंधी 3. प्रमाद मोहनीय = 2 अरति, शोक वेदनीय = 1| असाता वेदनीय नाम = 3| अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति कुल = 6 8 | आयु = 1| देवायु(प्रमाद के नजदीक का अप्रमाद भी बंध का कारण है) 4. कषाय मोहनीय = 4/ हास्य, रति, भय, जुगुप्सा (प्रमाद दर्शनावरण=2| निद्रा, प्रचला रहित) नाम =30| पंचेन्द्रिय जाति, 4 शरीर, 2 -तीव्र कुल = 36| अंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, वर्णादि 4, जोड़ों की 9 प्रशस्त प्रकृति, 6 प्रत्येक प्रकृति, प्रशस्त विहायोगति -मध्यम | 10 | मोहनीय = 5| संज्वलन 4 कषाय, पुरुषवेद -जघन्य 16 ज्ञानावरण 5; अंतराय 5, दर्शनावरण 4, उच्च गोत्र, यशःकीर्ति 5. योग - 14 1 साता वेदनीय 9 स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रः।।2।। . सूत्रार्थ - वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है।।2।। .. तपसा निर्जरा च।।3।। सूत्रार्थ - तप से निर्जरा होती है और संवर भी होता है।।3।। For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 निश्चय से निजात्मा में लीनता रूप वीतराग भाव भेद 3 नवम अध्याय संवर के कारण | गुप्ति समिति | धर्म | अनुप्रेक्षा | परीषहजयं चारित्र | तप स्वरूप निवृत्तिं यत्नाचार उत्तम शरीरादिक क्षुधादि संसार इच्छाओं स्थान के स्वभाव वेदना को परिभ्रमण का (संसार रूप | के प्रवृत्ति कारणों से आत्मा की रक्षा करना 16 में धरे का बारबार चिंतन रहित सहना 10 द्रव्य बँधे कर्मों का एकदेश खिरना (नाश होना) 12 निर्जरा व्यवहार से संक्लेशता की कारण रुकना रूप क्रिया का अभाव 22 भाव जीव के परिणाम जिनसे कर्म खिरते हैं निर्जरा का कारण 5 तप शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजय करना For Personal & Private Use Only 12 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 189 |संवर प्रकरण सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः।।4।। सूत्रार्थ - योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है।।4।। गुप्ति (स्वच्छन्द प्रवृत्ति का बंद होना) काय * शारीरिक क्रिया का नियमन वचन * मौन धारण मन * संकल्प-विकल्प से जीवन की रक्षा ईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः।।5।। सूत्रार्थ - ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग - ये पाँच समितियाँ हैं।।5॥ समिति ईर्या . भाषा एषणा आदान-निक्षेपण उत्सर्ग 4 हाथ आगे हित-मित दिन में 1 उपकरणों को जन्तुरहित की जमीन प्रिय वचन बार निर्दोष देख-भाल कर स्थान पर देखकर . बोलना आहार लेना लेना व रखना मल-मूत्र चलना आदि का त्याग करना For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 नवम अध्याय उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः।।6।। सूत्रार्थ - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य, उत्तम · ब्रह्मचर्य - यह दस प्रकार का धर्म है।।6।। | मान | माया धर्म - स्वरूप 1. उत्तम क्षमा 2. उत्तम मार्दव - का अभाव 3. उत्तम आर्जव 4. उत्तम शौच लोभ 5. उत्तम सत्य | सज्जन पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना 6. उत्तम संयम | प्राणियों की हिंसा व इन्द्रिय विषयों का परिहार 7. उत्तम तप | कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है 8. उत्तम त्याग | संयत के योग्य ज्ञानादि का दान 9. उत्तम आकिंचन्य शरीरादि में ममकार का त्याग 10. उत्तम ब्रह्मचर्य | मन, वचन, काय से समस्त स्त्रियों का त्याग For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्म स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ 7 ॥ सूत्रार्थ - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं ।। 7 ।। अनुप्रेक्षा ( भावना) - बारम्बार चिंतन करना वैराग्य प्रेरक 6 भावनाएँ नाम 1. अनित्य क्षणभंगुरता अशरणता निरर्थकता निःसंगता संयोगों संबन्धी चिंतन 2. अशरण 3. संसार 4. एकत्व 5. अन्यत्व पृथक्ता 6. अशुचि अपवित्रता तत्त्व प्रधान 6 भावनाएँ नाम 7. आस्रव 8. संवर 9. निर्जरा 10. लोक 11. बोधिदुर्लभ 12. धर्म आत्मा संबन्धी चिन्तन नित्यता- स्थायीपना शरणभूतत्व सार्थकता संगता एकता पवित्रता किनका चिंतन ? विकारी संयोगी भावों का संवर के गुणों का निर्जरा के गुणों का लोक के स्वभाव का रत्नत्रय की दुर्लभता का मोक्ष प्राप्ति के उपाय का 191 For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 . नवम अध्याय मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः।।8।। . सूत्रार्थ - मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा करने के लिए जो ___ सहन करने योग्य हों, वे परीषह हैं।।8।। क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि।।।। सूत्रार्थ - क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल,सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन - इन नामवाले परीषह हैं।।9।। परीषह क्यों सहना ppyRELAMOURNA भूख मार्ग (रत्नत्रय-संवर) निर्जरा के लिए से च्युत न हो 22 परीषह परीषह स्वरूप परीषहम स्वरूप 1. क्षुधा 12. आक्रोश | कठोर वचन 2. तृषा प्यास 13. वध | मारना 3. शीत ठण्ड 14.याचना | माँगना गर्मी 15. अलाभ | आहारादि की अप्राप्ति 5. दंशमशक | मच्छरादि का काटना |16. रोग | व्याधियाँ (चेतन) 17. तृणस्पर्श | काँटे, कंकर आदि का 6. नग्नता बालकवत् जन्मजात स्पर्श (अचेतन) 18. मल शरीर पर एकत्रित मल 7. अरति अच्छा न लगना 19. सत्कार | पूजा-प्रशंसा 8. स्त्री सभी प्रकार की स्त्री | -पुरस्कार 9. चर्या गमन 20. प्रज्ञा पाण्डित्य का गर्व 10. निषद्या बैठना 21. अज्ञान ज्ञान का कम होना 11. शय्या सोना | 22. अदर्शन मनि मार्ग से आस्था चलित होना For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 नवम अध्याय - सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश।।10।। सूत्रार्थ - सूक्ष्मसाम्पराय और छद्मस्थवीतराग के चौदह परीषह सम्भव हैं।।10।। एकादश जिने||11॥ सूत्रार्थ - जिन में ग्यारह परीषह सम्भव हैं।।11।। बादरसांपराये सर्वे।।12।। सूत्रार्थ - बादरसाम्पराय में सब परीषह सम्भव हैं।।12।। कहाँ कौन-सा परीषह सम्भव है कहाँ गुणस्थान कौन-सा परीषह क्रमांक बादर कषाय | छठे से नवाँ सब | 22 | सभी 4 | सूक्ष्म कषाय | दसवाँव । क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण 14 ज्ञानावरण-2 व वीतराग | ग्यारवें- | दंशमशक, चर्या, शय्या . अंतराय-1 छद्मस्थ बारहवें वध, अलाभ, रोग, तृण- वेदनीय-11 स्पर्श, मल, प्रज्ञा, अज्ञान केवली जिनं | तेरहवें ऊपर की 14 में से प्रज्ञा 11 | वेदनीय अज्ञान, अलाभ नहीं For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 194 . ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने।।13।। सूत्रार्थ - ज्ञानावरण के सद्भाव में प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं।।13।। - दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ।।14।। सूत्रार्थ - दर्शनमोह और अन्तराय के सद्भाव में क्रम से अदर्शन और अलाभ ___ परीषह होते हैं।।14॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कार पुरस्काराः।।15॥ सूत्रार्थ - चारित्रमोह के सद्भाव में नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश; याचना ___ और सत्कार-पुरस्कार परीषह होते हैं।।15।। वेदनीये शेषाः।।16॥ सूत्रार्थ - बाकी के सब परीषह वेदनीय के सद्भाव में होते हैं।।16।। किस कर्म के उदय से कौन-सा परीषह होता है *प्रज्ञा *अज्ञान ज्ञानावरण(2) अंतराय(1) वर्शन(1) चारित्र (1) वेदनीय(11) मोहनीय मोहनीय * अलाभ * अदर्शन .* नग्नता * क्षुधा * अरति * तृषा * स्त्री * शीत *निषद्या * उष्ण * आक्रोश *दंशमशक *याचना * सत्कार- * शय्या पुरस्कार *वध * रोग * तृणस्पर्श * मल . For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 195 एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतः।।17।। सूत्रार्थ - एक साथ एक आत्मा में एक से लेकर उन्नीस तक परीषह विकल्प से हो सकते हैं।।17।। एक साथ एक जीव को कितने परीषह सम्भव हैं | 1 से लेकर 19 19 कौन सी → *शीत * शय्या * शेष 17 *चर्या *निषद्या *उष्ण इनमें से 1-1 19 = . 1 + 1 + 17 सामायिकच्छे दोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यातमितिचारित्रम्।।18।। सूत्रार्थ - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात - यह पाँच प्रकार का चारित्र है।।18।। चारित्र |1. व्रतों का धारण 2. समितियों का पालन | 3. कषायों का निग्रह. 4. दण्डों का त्याग 5. इन्द्रियों की विजय नाम सामायिक छेदोप- परिहार सूक्ष्म यथाख्यात स्थापना विशुद्धि साम्पराय स्वरूप समस्त सावद्य *दोषों को दूर प्राणी हिंसा जहाँ | मोहनीय के (हिंसा सहित) कर पुनः व्रतों से पूर्ण । कषाय | सम्पूर्ण क्षय योग का एक का ग्रहण करना निवृत्ति अति अथवा उपशम सेसाथ त्याग *समस्त सावद्य से प्राप्त | सूक्ष्म | आत्मा का योग का भेद विशुद्धि जैसा स्वभाव रूप से त्याग है, वैसा होना EME6-9 | 6-9 | 6-7 | 10 | 11-14 हो स्थान For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 . नवम अध्याय परिहार विशद्धि चारित्र निम्न सभी विशेषताओं से युक्त जीव के ही परिहार विशुद्धि चारित्र हो सकता है:* 30 वर्ष तक सुखी रहने के बाद * दीक्षा लेकर * 8 वर्ष तीर्थंकर के पाद मूल में रहकर * नवमें प्रत्याख्यान नामक पूर्व का अध्ययन करने वाला जीव। . इस चारित्र के धारक जीव नियम से | * 2 कोस प्रतिदिन विहार करते हैं। परंतु * 3 संध्या काल में विहार नहीं करते * वर्षा काल में विहार का निषेध नहीं है। . सामायिकों में अन्तर । सामायिक गुणस्थान व स्वरूप । 1.सामायिक शिक्षा व्रत दूसरी प्रतिमा, पंचम गुणस्थान | अभ्यास रूप 2. सामायिक प्रतिमा तीसरी प्रतिमा, पंचम गुणस्थान व्रतरूप 3. सामायिक आवश्यक | छठा-सातवाँ गुणस्थान नियमरूप 4. सामायिक चारित्र छठे से नौवाँ गुणस्थान यमरूप For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 197 निर्जरा प्रकरण अनशनावमौवर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तपः।।19।। सूत्रार्थ - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश - यह छह प्रकार का बाह्य तप है।।19।। तप 1 व्यवहार तप निश्चय तप शुद्धात्म स्वरूपमें प्रतपन बाह्य तप आभ्यंतर तप * बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होते हैं * बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती है * दूसरों को दिखते हैं * मानसिक क्रिया की प्रधानता रहती है * बाह्य तप आभ्यंतर तप की पुष्टि * आभ्यंतर तप वीतरागता की वृद्धि .. के लिए हैं के लिए हैं For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 नवम अध्याय तपकरना 198 बाह्य तप नाम | अनशन | अवमौदर्य वृत्तिपरि- रस विविक्त कायक्लेश | | ऊनोदर संख्यान परित्याग शय्यासन | | 4 प्रकार दिन में एक | अनेक प्रकार 1,2 आदि एकांत अनेक प्रकार के आहार, बार भूख की अटपटी 6रसों तक स्थान में के काय के विषय |से कम प्रतिज्ञाओं | का त्याग सोना- कष्ट रूप व कषाय आहार की पूर्ति पर करना बैठना का त्याग करना भोजन करना -संयम की -संयम की -आशा की |-इन्द्रियों |-बाधारहित -सुख किया | सिद्धि | जागृति | निवृत्ति पर विजय ब्रह्मचर्य, | विषयक जाता | -राग का -संतोषएवं -परम संतोष-निद्रापर |स्वाध्याय, आसक्ति है ? | नाश स्वाध्याय की सिद्धि विजय ध्यान की | कम करने | -ध्यान, की सिद्धि के लिए -स्वाध्याय प्रसिद्धि के लिये आगम के लिए की सिद्धि के लिए -प्रवचन के लिए प्रभावना के लिए क्यों की प्राप्ति के लिये 4 प्रकार का आहार खाद्य रोटी आदि पेय पानी आदि लेह्य स्वाद्य चटनी आदि सौंफ-इलायची आदि 6 प्रकार के रस घी दूध तेल खांड, गुड़ आदि नमक दही. . For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 199 प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्।।20।। सूत्रार्थ - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान - यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है।।20। नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदा यथाक्रमं प्रारध्यानात्।।21।। सूत्रार्थ - ध्यान से पूर्व के आभ्यन्तर तपों के अनुक्रम से नौ, चार, दश, पाँच और दो भेद हैं।।21॥ आभ्यंतर तप नाम प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्त्य । स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान । स्व- प्रमाद से -ज्ञानादि अन्य मुनियों ज्ञान की अहंकार- चित्त की रूप लगे दोषों का बहुमान की संयम | आराधना ममकार चंचलता को दूर -पूज्य साधना के | करना का त्याग का त्याग करना पुरुषों निमित्त .. का आदर सेवा करना भेद 94 | 10524 लाभ | -दोषों का -ज्ञान की | -समाधि की - बुद्धि में -निःसंगता कर्मों शोधन प्राप्ति प्राप्ति | अतिशय -निर्भयता का क्षय -मर्यादा में | -आचारकी | -ग्लानि का | प्रकट |-जीवित रहना | विशुद्धता | अभाव | होना । | रहने की -भावों में -सम्यक् |-प्रवचन में |-संशय आशा का उज्ज्वलता आराधना | वात्सल्य | दूर होना | अभाव की सिद्धि |-अतिचारों में विशुद्धि -संसारादि से विरक्तता For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 . नवम अध्याय आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपच्छेदपरिहारो-. पस्थापनाः।।22॥ सूत्रार्थ - आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना - यह नव प्रकार का प्रायश्चित्त है।।22।। प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त स्वरूप 1.आलोचना गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना । 2. प्रतिक्रमण | 'मेरे दोष मिथ्या हो' ऐसे भावों को वचनों से प्रकट करना 3. तदुभय आलोचना व प्रतिक्रमण दोनों साथ में करना |4. विवेक सदोष अन्न, पात्र, उपकरणादि मिलने पर उनका त्याग | नियमित काल के लिए कायोत्सर्ग करना. 6. तप अनशनादि 7. छेद कुछ समय की दीक्षा का छेद करना 8. परिहार कुछ समय के लिए संघ से दूर करना 9. उपस्थापन पूर्ण दीक्षा छेद कर पूनः दीक्षा प्राप्त करना ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः।।23।। सूत्रार्थ - ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय - ये चार प्रकार की विनय हैं।।23।। विनय ज्ञान दर्शन चारित्र ज्ञान का ग्रहण तत्त्वार्थ निर्दोष अभ्यास, स्मरण श्रद्धान चारित्र का उपचार पूज्य पुरुषों के प्रति समुचित व्यवहार पालन For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 201 आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्।।24।। सूत्रार्थ - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ - इनकी वैयावृत्त्य के भेद से वैयावृत्त्य दश प्रकार का है।।24।। वैयावृत्य के विषय (इन 10 प्रकार के मुनियों की सेवा) आचार्य उपाध्याय तपस्वी शैक्ष ग्लान व्रतों का श्रुत का महान शिक्षा रोगी आचरण अध्ययन उपवासादि शील मुनि करायें करें-करायें करें कुल गण वृद्ध मुनियों - दीक्षकाचार्य का समुदाय · का शिष्य समुदाय संघ साधु मनोज्ञ वर्ण के बहुत काल लोक सम्मत . मुनियों का के दीक्षित साधु समूह 4 प्रकार का संघ - ऋषि ऋद्धि प्राप्त मुनि यति अनगार अवधिज्ञानी उपशम व शेष सभी मनःपर्ययज्ञानी क्षपक श्रेणी वाले मुनि . । राजर्षि . ब्रह्मर्षि प्राप्त * विक्रिया * बुद्धि ऋद्धियों * अक्षीण ___ * सौषधि के नाम महानस आदि देवर्षि चारण परमर्षि केवलज्ञान For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 202 . वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः।।25।। सूत्रार्थ - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश - यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय है।।25।। स्वाध्याय वाचना - पृच्छना अनुप्रेक्षा आम्नाय धर्मोपदेश पढ़ना पूछना चिंतन पुनः-पुनः दोहराना उपदेश देनाः ' बाह्याभ्यन्तरोपध्योः।।26॥ सूत्रार्थ- बाह्य और अभ्यन्तर उपधि का त्याग -यह दो प्रकार का व्युत्सर्ग है।।26॥ व्युत्सर्ग बाह्य * आत्मा से भिन्न मकान, पुत्रादि का त्याग अभ्यन्तर *क्रोधादिरूप आत्मभाव का त्याग * शरीर के ममत्व का त्याग उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्।।27।। सूत्रार्थ - उत्तम संहननवाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है।।27। ध्यान (एक विषय में चित्त का रुकना) * ध्याता | ध्यान करने वाला - उत्तम संहनन सहित(शुरू के तीन संहनन) * ध्येय |जिसका ध्यान किया जाए - एक अग्र (प्रधान विषय) * ध्यान ज्ञान में व्यग्रता का अभाव * ध्यान अंतर्मुहूर्त | का काल For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य 1 आवलि 1 समय नवम अध्याय अंतर्मुहूर्त इनके बीच में असंख्यात मध्यम भेद हैं। आर्त्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि || 28 ।। सूत्रार्थ - आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल - ये ध्यान के चार भेद हैं।। 28 ।। परे मोक्षहेतु ||29 || सूत्रार्थ - उनमें से पर अर्थात् अन्त के दो ध्यान मोक्ष के हेतु हैं। । 29।। ध्यान अप्रशस्त * पापास्रव का कारण * दुर्ध्यान आर्त रौद्र पीड़ा का चिन्तन पाप में आनंद ( क्रूर आशय ) संसार के कारण उत्कृष्ट 48 मिनिट में 1 समय कम प्रशस्त * कर्मों के नाश का कारण * सुध्यान धर्म्य धर्म से युक्त परिणाम ↓ परम्परा शुक्ल शुद्ध परिणाम मोक्ष के कारण For Personal & Private Use Only 203 ↓ क्ष Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 . नवम अध्याय आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः।।30।। सूत्रार्थ - अमनोज्ञ पदार्थ के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए चिन्तासातत्य (सतत चिन्ता) का होना प्रथम आर्तध्यान है।।3।।। विपरीतं मनोज्ञस्य।।31॥ सूत्रार्थ - मनोज्ञ वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान है।।31॥ • वेदनायाश्च||32| सूत्रार्थ - वेदना के होने पर उसे दूर करने के लिए सतत चिन्ता करना . . तीसरा आर्तध्यान है।।32॥ निदानं च।।33।। सूत्रार्थ - निदान नाम का चौथा आर्तध्यान है।।33।। तवविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्।।34॥ सूत्रार्थ - यह आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों के होता है।।34॥ हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः।।35।। सूत्रार्थ - हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण के लिए सतत चिन्तन करना रौद्रध्यान है। वह अविरत और देशविरत के होता है।।35।। For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 205 आर्त - रौद्र ध्यान नाम | आतध्यान | रौद्र ध्यान स्वरूप दुःख चिंतन पाप में आनंद फल तिर्यंच गति नरकगति गुणस्थान 1-6 (छठे में निदान नहीं) 1-5 भेद निरंतर चिंता करना आनंद मानना अनिष्ट संयोगज | हिंसानंदी *अप्रिय संयोग को || * हिंसा में दूर करने की . मृषानंदी -इष्टवियोगज * प्रिय के वियोग में || चौर्यानंदी उसकी प्राप्ति की ।। * चोरी में -वेदना L परिग्रहानंदी/ * रोग दूर करने की विषयानंदी | निदान * पाँच इन्द्रिय के भोगों में * आगामी भोगों की प्राप्ति की * झूठ में निदान निवान शल्य निवान आर्तध्यान * निरंतर सताती है * कभी-कभी होता है * कषाय की तीव्रता * कषाय कम-तीव्र स्वामी- * अव्रती * अव्रती व देशव्रती For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ||36 ।। सूत्रार्थ - आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान - इनकी विचारणा के निमित्त मन को एकाग्र करना धर्म्यध्यान है । 1361 धर्म्य ध्यान नवम अध्याय नाम आज्ञाविचय अपायविच स्वरूप जिनेन्द्रदेव की ये प्राणी मिथ्यादर्शनादि कर्म के फल का आज्ञा प्रमाण से कैसे दूर होंगे, ऐसा निरन्तर चिन्तन करना यथायोग्य 4 से 7 मिथ्यादृष्टि के धर्म भावना होती है, धर्म्य ध्यान नहीं 个 गुणस्थान ← विपाकविचय संस्थानविचय लोक के आकार का शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ||37।। सूत्रार्थ - आदि के दो शुक्ल ध्यान पूर्वविद् के होते हैं ।। 37 ।। ' परे केवलिनः ॥38॥ सूत्रार्थ - शेष के दो शुक्लध्यान केवली के होते हैं ।। 38 ।। पृथक्त्वैकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवतींनि ॥39॥ सूत्रार्थ - पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत - क्रियानिवर्ति - ये चार शुक्लध्यान हैं ।। 39 || - . त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ||40|| सूत्रार्थ - वे चार ध्यान क्रम से तीन योग वाले, एक योग वाले, काय योग वाले और अयोग के होते हैं। । 40॥ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ।। 41 ॥ सूत्रार्थ - पहले के दो ध्यान एक आश्रय वाले, सवितर्क और सवीचार होते हैं।।41॥ - • दूसरा ध्यान अवीचार है ।। 4211 अवीचारं द्वितीयम् ||42|| For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 207 वितर्कः श्रुतम्।।43॥ सूत्रार्थ - वितर्क का अर्थ श्रुत है।।43।। वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिः।।44।। सूत्रार्थ - अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति वीचार है।।44।। वितर्क = श्रुत = विशेष रूप से तर्कणा या विचार करना = संक्रान्ति = परिवर्तन (पलटना) किसका वीचार अर्थ व्यञ्जन द्रव्य और पर्याय वचन या शब्द योग मन, वचन या काय की क्रिया . For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 नवम अध्याय भिन्न शुक्लध्यान नाम | पृथक्त्व एकत्व वितर्क सूक्ष्मक्रिया व्युपरत । वितर्क वीचार अवीचार - प्रतिपाती क्रियानिवृत्ति । स्वरूप | पृथक्त्व = एकत्व = एक सूक्ष्म क्रिया व्युपरत में (द्रव्य या | = सूक्ष्म काय |क्रिया = भिन्न में पर्याय) योग में स्थित समस्त योग वितर्क = |वितर्क = | अप्रतिपाती | से निवृत्ति . भावश्रुत भावश्रुत ज्ञान | = जिससे अनिवृत्ति = ज्ञान के बल से के बल से गिरना न हो । संसार से वीचार = अवीचार = अभी निवृत्ति | परिवर्तन सहित परिवर्तन रहित गुणस्थान 8-11 12 | 13 के अंत में | 14. . स्वामी | श्रुत केवली श्रुत केवली | केवली केवली योग कौन सा तीन योग कोई एक योग | काय योग योग नहीं फल | मोहनीय का शेष 3 घातिया| योग का | 4 अघातिया उपशम व क्षय कर्मों का क्षय. | अभाव कर्मों का क्षय अर्थात् मोक्ष |संहनन | उत्तम 3 सहनन वज्रवृषभ वज्रवृषभ वज्रवृषभ नाराच नाराच नाराच दृष्टांत | दीपक की लौ मणि का सूर्य का प्रकाश नहीं . प्रकाश For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय 209 सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः।।45।। सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोह क्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन - ये क्रम से असंख्यगुण निर्जरा वाले होते हैं।।45।। गुणश्रेणी निर्जरा में विशेषता के 10 स्थान (एक ही जीव की अपेक्षा) InHESARKOND स्वरूप स्वामा नजरा (गुणस्थान अपेक्षा) सातिशय मिथ्याष्टिप्रथमोपशम सम्यक्त्व के पहले आगे-2 करण लब्धि में के स्थान 1. सम्यग्दृष्टि अव्रती श्रावक 2. श्रावक व्रती श्रावक असंख्यात 3. विरत • गुणी 4. अनंतानुबंधी अनंतानुबंधीको अप्रत्याख्यानावरण | वियोजक आदि रूप विसंयोजित करने वाला 4-7 होती है। 5. दर्शनमोह क्षपकदर्शनमोह का क्षय करनेवाला 4-7 सामान्य निर्जरा 6. उपशामक चारित्र मोह दबाने वाला उपशमश्रेणी सबका 8-10 अंतर्मुहूर्त 11 काल क्षपकश्रेणी होने पर 7. उपशांत कषाय चारित्र मोह दबने पर 8. क्षपक चारित्र मोह क्षय करने वाला 8-10 9. क्षीण मोह चारित्र मोह क्षय होने पर 12- 10. सयोगी जिन घातिया कर्मों का क्षय करने के 13 बाद योग सहित आगे-2 संख्यात गुणाहीन काल है। For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 नवम अध्याय पुलाकबकु शकु शीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ||46|| सूत्रार्थ- पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पाँच निर्ग्रन्थ हैं ||46 || संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंगले श्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ।। 47।। सूत्रार्थ - संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद और स्थान के भेद से इन निर्ग्रन्थों का व्याख्यान करना चाहिए ।। 47 ।। निर्ग्रन्थ कुशील नाम पुलाक बकुश स्वरूप - उत्तर गुणों - व्रतों को की भावना अखण्ड से रहित पालते हैं - मूलगुणों - शरीर, में भी उपकरण निर्ग्रथ स्नातक प्रतिसेवना कषाय -मूल- -संज्वलन - जिनका समस्त के मोह नाश घातिया उत्तर गुणों में अलावा परिपूर्ण शेष -कभी - 2 कषायों कदाचित् की शोभा अपूर्णता बढ़ाने में लगते हैं गुणस्थान 6-7 6-7 6-7 6-10 11-12 13-14 संयम सामायिक, सामायिक, सामायिक यथाख्यात यथाख्याता यथाख्यात छेदो- छेदो- के सिवाय छेदोपस्थापना पस्थापना पस्थापना शेष 4 उत्तर गुणों की विराधना अथवा कर्मों का उपशमित नाश कर हो गया है दिया है - केवल को जीत लिया है ज्ञान नहीं हुआ है श्रुत - जघन्य आचारांग 8 प्रवचन 8 (अष्ट) 8 प्रवचन 8 प्रवचन श्रुतज्ञान में आचार मातृका प्रवचन मातृका मातृका से रहित वस्तु प्रमाण (5 समिति, मातृका केवली होते हैं 3 गुप्ति) - उत्कृष्ट 10 पूर्व 10 पूर्व 10 पूर्व 14 पूर्व 14 पूर्व For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पुलाक प्रति- दूसरों के सेवना दबाववश (विरा - धना ) तीर्थ भावलिंग द्रव्यलिंग बिकश 5 व्रत व रात्रि भोजन की चाह कुशील प्रतिसेवना कषाय 1. उपकरण उत्तर प्रतिसेवना प्रतिसेवना प्रतिसेवना त्याग व्रत 2. शरीर में से 1 की विराधना लेश्या 3 शुभ (भाव) नवम अध्याय बकुशउपकरण बकुश - शरीर संस्कार की चाह w गुणों की का विराधना अभाव सभी निग्रंथ सब तीर्थंकरों के तीर्थ में होते हैं। * सभी भावलिंगी होते हैं। * सभी यथाजात रूप वाले होते हैं। * शरीर की ऊँचाई आदि प्रवृत्ति में अंतर होता है। कापोत, शुक्ल 6 6 पीत, उत्कृष्ट 12वें स्वर्ग 15 -16वें 15 - 16वें उपपाद - 18 सागर स्वर्ग स्वर्ग (जन्म) आयु जघन्य पद्म, शुक्ल सर्वार्थ सिद्धि का का अभाव अभाव 211 सर्वार्थ सिद्धि V |22 सागर 22 सागर 33 सागर 33 सागर सभी का पहले स्वर्ग - 2 सागर आयु For Personal & Private Use Only शुक्ल / श्या उपपाद संयम कषाय कषाय कषाय कषाय कषाय कषाय स्थान सहित सहित सहित सहित रहित रहित रहित मोक्ष ही जाते हैं Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 - स्नातक - निर्ग्रथ - प्रतिसेवना - बकुश - कषाय कुशील - पुलाक संयम स्थान की तारतम्यता निग्रंथों के भेद 5 ज जघन्य नवम अध्याय उ ந I M ज संयमस्थान उ 5 For Personal & Private Use Only |ज = उ = f . एक ही उ उत्कृष्ट * सभी के जघन्य से उत्कृष्ट तक असंख्यात संगमस्थान होते हैं। * स्नातक अर्थात् केवली का एक ही संगमस्थान होता है। कु जघन्य उत्कृष्ट Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 सलमानसाला. 214 (दसवाँ अध्याय) विषय-वस्तु सूत्र क्रमांक कुल सूत्र पृष्ठ संख्या मोक्ष के पहले केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण 1 | 1 | 214 मोक्ष होने का हेतु 2 1 मोक्ष होने पर-किन भावों का अभाव व सद्भाव 3-4 |-ऊर्ध्वगमन 5 1 | 218 | - ऊर्ध्वगमन क्यों? हेतुव दृष्टांत | - लोकाग्र से आगेन जाने का कारण ____ 8 1 218 मुक्त जीवों में - - भेद के कारण व अल्पबहुत्व 220-222 । १ 217 ____ 6-7 218 मोक्ष द्रव्य कर्मों का आत्मा से सर्वथा पृथक् होना रत्नत्रय की पूर्णता For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥1॥ सूत्रार्थ - मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है ।। 1 ।। 214 मोक्ष के पहले केवलज्ञान की उत्पत्ति क्षय किस गुणस्थान में 4 से 7 किसी एक में 10 के अंत में 12 के अंत में घातिया कर्म 1. दर्शन मोहनीय 2. चारित्र मोहनीय 3. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय फल केवलज्ञान की उत्पत्ति 13वें गुणस्थान में बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥ 2 ॥ सूत्रार्थ - बन्ध-हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है ||2|| मोक्ष होने के हेतु नवीन बंध के हेतुओं (मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग) का अभाव पूर्व बँधे कर्मों की निर्जरा For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 वसवाँ अध्याय कर्म का अभाव (क्षय) यत्नसाध्य(145) अयत्नसाध्य(3) चरमदेह वाले के इनका सत्त्व ही नहीं * नरकायु *तिर्यंचायु * देवायु उत्तर प्रकृतियाँ मूल प्रकृति गुणस्थान प्रकृति संख्या 4 से 77 किसी 4 चारित्र मोहनीय | - अनंतानुबंधी 4 कषाय 3 दर्शन मोहनीय | -मिथ्यात्व, मिश्र,सम्यक्त्व प्रकृति | एक में 16 3 दर्शनावरण 13 नाम कर्म 8 | चारित्र मोहनीय | - 3 बड़ी निद्रा - नरक गति, नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यंच गति, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि 4 जाति, सूक्ष्म, । साधारण, स्थावर, आतप, उद्योत - अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण 8 कषाय - नपुंसक वेद - स्त्रीवेद - नो कषाय - पुरुष वेद - संज्वलन क्रोध - संज्वलन मान - संज्वलन माया 361 For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 दसवाँ अध्याय 11 मूल प्रकृति उत्तरप्रकृतियों सख्या 10 | 1] | 2 | 14 | चारित्र मोहनीय - संज्वलन लोभ दर्शनावरण - निद्रा, प्रचला 5 ज्ञानावरण - पाँचों 5 अंतराय 4 दर्शनावरण |- निद्राओं के अलावा शेष 4' - पाँचों 14 72 1वेदनीय 1 गोत्र 70 नामकर्म 1वेदनीय 1 गोत्र 1 आयु 10 नाम कर्म |- कोई भी एक . | - नीच गोत्र | - अन्य स्थानों में क्षय प्रकृतियों के अलावा शेष सभी - कोई भी एक | - उच्च गोत्र - मनुष्यायु | - मनुष्य गति-मनुष्य गत्यानुपूर्वी पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थंकर कुल | 145 For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय औपशमिकादिभव्यत्वानां च ॥3॥ सूत्रार्थ - तथा औपशमिक आदि भावों और भव्यत्व भाव के अभाव होने से मोक्ष होता है। 3 ॥ अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ||4|| सूत्रार्थ - पर केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व भाव का अभाव नहीं होता || 4 || मोक्ष होने पर किन भावों का अभाव होता है सद्भाव रहता है क्यों ? क्यों ? कर्म के निमित्त भाव * औपशमिक *क्षायोपशमिक से होते थे * औदयिक *पारिणामिक - भव्यत्व रत्नत्रय की पूर्णता हो गई भाव क्षायिक भाव - क्षायिक सम्यक्त्व "" 55 "" ज्ञान दर्शन वीर्य * पारिणामिक - जीवत्व 217 - अभव्यत्व मोक्षगामी के पहले ही नहीं था 3 प्रकार के कर्मों के नाश होने पर मोक्ष नाम भावकर्म स्वरूप जीव के विकार नाश कैसे जीव के पुरुषार्थ से द्रव्य कर्म पौद्गलिक कर्म भाव कर्म के नाश से ? For Personal & Private Use Only प्रतिपक्षी कर्म का अभाव होने से कर्म निरपेक्ष स्वभाव नोकर्म शरीर द्रव्यकर्म के नाश से Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218. दसवाँ अध्याय र तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात्।।5।। सूत्रार्थ - तदनन्तर मुक्त जीव लोक के अन्त तक ऊपर जाता है।।5।। पूर्वप्रयोगावसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च।।6।। सूत्रार्थ - पूर्वप्रयोग से, संग का अभाव होने से, बन्धन के टूटने से और वैसा . गमन करना स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है।।6।। आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च।।7।। सूत्रार्थ - घुमाये हुए कुम्हार के चक्र के समान, लेप से मुक्त हुई तूमड़ी के समान, एरण्ड के बीज के समान और अग्नि की शिखा के समान।।7।। धर्मास्तिकायाभावात्।।8।। सूत्रार्थ- धर्मास्तिकाय का अभाव होने से मुक्त जीव लोकान्त से और ऊपर नहीं जाता।।8।। मोक्ष होने के बाद आत्मा - लोक के अंत तक ऊपर जाता है क्यों दृष्टांत 1. | पूर्व प्रयोग घुमाया हुआ कुम्हार का चक्र | 2. संग का अभाव लेप से मुक्त हुई तूमड़ी. | 3. |बंधन का टूटना बीजकोश के बंधन से टूटा एरण्ड बीज 14. ऊर्ध्वगमन स्वभाव | अग्नि की शिखा लोकाग्र के आगे गमन क्यों नहीं होता? 'धर्मास्तिकाय का अभाव होने से . For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय 219 मोक्ष होने पर सिद्धों (मुक्त जीवों) का निवास अष्टम पृथिवी - ईषत् प्राग्भार मोटाई ↓ 8 योजन कहाँ है ↓ सर्वार्थसिद्धि की ध्वजा से 12 योजन ऊपर कहाँ है ↓ अष्टम पृथिवी के मध्य में लम्बाई ↓ 7 राजू सिद्ध शिला आकार ↓ आधे कटे नींबू के समान योजन गोलाकार व्यास ↓ 45 लाख चौड़ाई ↓ 1 राजू मोटाई ↓ - मध्य में 8 योजन - सिद्धों का निवास - सिद्ध क्षेत्र For Personal & Private Use Only - क्रम से घट कर 1 अंगुल लोकाग्र में (सिद्ध शिला से ठीक ऊपर तनुवात वलय के अन्त में) क्षेत्रकालगतिलिङ्ङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः । । 9 || ! Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 दसवाँ अध्याय सूत्रार्थ - क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितबुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व - इन द्वारा सिद्ध जीव विभाग करने योग्य हैं।।9।। मुक्त जीवों में भेद नहीं आत्मिक सुख, ज्ञान, दर्शन, वीर्यादि- अनंत गुणों की अपेक्षा मुक्त जीवों में कथंचित् भेद नुयोग प्रत्युत्पन्न नय । भूत नय (वर्तमान को ग्रहण (अतीत को ग्रहण करने वाला) करने वाला) 1, क्षेत्र | *अपने आत्मप्रदेश | * जन्म अपेक्षा - 15 कर्म भूमि | *आकाश प्रदेश | * अपहरण अपेक्षा - अढ़ाई द्वीप *सिद्ध क्षेत्र 2, काल 1 समय में * विदेह में - सर्व काल. * भरत - ऐरावत में -अवसर्पिणी के चौथे काल में -उत्सर्पिणी के तीसरे काल में उत्पन्न जीव ही सिद्ध होते हैं। हुण्डावसर्पिणी काल दोष की वजह से तीसरे काल में उत्पन्न जीव भी सिद्ध होते हैं। 3. गति | सिद्ध गति * निकट - मनुष्य गति * दूर - चारों गति से आकर बा लिंग(वेद) | -भाव | वेद रहित * तीनों वेद - द्रव्य तरूपतिना * पुरुष वेद For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 दसवाँ अध्याय यामा प्रत्युत्पन्न नयभूत नय । (वर्तमान को ग्रहण (अतीत को ग्रहण करने वाला) | करने वाला) 5 तीर्थ * तीर्थंकर बनकर * इतर - तीर्थंकर के रहते - तीर्थंकर के अभाव में चारित्र |चारित्र - अचारित्र | *निकट - यथाख्यात चारित्र के अभाव में * दूर - 5 चारित्र अथवा परिहार विशुद्धि के अलावा शेष 4 चारित्र * प्रत्येक बुद्ध - स्वयं से ज्ञान प्राप्त करे |बोधितबुद्ध * बोधित बुद्ध - दूसरे के उपदेश से ज्ञान प्राप्त करें केवलज्ञान *2 ज्ञान *3 ज्ञान *4ज्ञान 5.अवगाहना अंतिम शरीर से * उत्कृष्ट - 525 धनुष कुछ कम * मध्यम - अनेक भेद * जघन्य - 3 1/2 हाथ प्रत्येकबुद्ध । नान 1 अंतर जघन्य - 1 समय उत्कृष्ट - 6 महीने अंतर अभाव (निरन्तर सिद्ध होने का काल) संख्या (एक समय में कितने जीव सिद्ध होते है) जघन्य - 2 समय उत्कृष्ट - 8 समय जघन्य - 1 उत्कृष्ट - 108 For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 2.काल. दसवाँ अध्याय अल्पबहुत्व (सिद्ध होने वाले जीवों की संख्या की तुलना) कम से ज्यादा 1. क्षेत्र | लवणसमुद्र <कालोदधि समुद्र < जम्बूद्वीप धातकी खण्ड द्वीप < पुष्करार्द्ध द्वीप | उत्सर्पिणी < अवसर्पिणी < दोनों से रहित (विदेह . क्षेत्र में परिवर्तन नहीं) 3. गति(भूत अपेक्षा) तिर्यंच गति < मनुष्य गति < नरक गति < देव गति |किस गति से आकर 4.लिंग(भत अपेक्षा) भाव नपुंसक वेद < भाव स्त्री वेद (भाव पुरुषवेद 5. तीर्थ तीर्थंकर केवली < सामान्य केवली 6.चारित्र(भूत अपेक्षा) 5 चारित्र वाले < 4 चारित्र वाले 7.प्रत्येक-बोधितबुद्ध प्रत्येक बुद्ध < बोधित बुद्ध 8.ज्ञान(भूत अपेक्षा) 2 ज्ञानधारी < 4 ज्ञानधारी < 3 ज्ञानधारी 9. अवगाहना | जघन्य अवगाहना < उत्कृष्ट अवगाहना < मध्यम अवगाहना 10. अंतर 6 माह के अंतर से <1 समय के अंतर से < मध्य के अंतर से 11. संख्या(1 समय 108 जीव < 107-50 जीव < 49-25 जीव में सिद्ध) < 24-1 जीव For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट -1 ज्ञानावरण कर्म के आस्रव के विशेष कारण 1. सच्चे आचार्य तथा उपाध्याय से प्रतिकूलता रखना, 2. तत्त्वों में श्रद्धा नहीं रखना, 3. तत्त्वाभ्यास - तत्त्वश्रवण में आलस रखना, 4. अनादर पूर्वक शास्त्र का उपदेश सुनना, 5. धर्मतीर्थ - सच्चे उपदेश का लोप करना, 6. स्वयं को बहुश्रुतज्ञ मानकर अभिमान करना तथा मिथ्या उपदेश देना, 7. अन्य बहुश्रुत ज्ञानियों का अपमान करना, 8. असत्य प्रलाप तथा उत्सूत्र कथन करना, 9.लोभबुद्धि (धनार्जन, ख्यातिबुद्धि, पदवी प्राप्ति आदि) से शास्त्र लिखना और बेचना, 10. हिंसादि में प्रवर्तन करना। वर्शनावरण कर्म के आस्रव के विशेष कारण 1. आँखें बिगाड़ देना - निकाल लेना, 2. अपनी दृष्टि का गर्व करना, 3. बहुत सोना, 4. दिन में सोना, 5.आलस्य स्वभाव रहना, 6. नास्तिकता का भाव रखना, 7. सम्यग्दृष्टि को दूषण लगाना, 8. अन्य मतों की प्रशंसा करना, 9. प्राणियों का घात करना, 10. सच्चे मुनियों की निन्दा करना। असातावेदनीय के आस्रव के विशेष कारण 1.पर का अपवाद, विश्वासघात, चुगली, निंदा, 2. पर को दुःखी करना, निरर्थक दण्ड देना, 3. निर्दयता, अंगोपांग का छेदन-भेदन, ताड़न, त्रासन, तर्जन, भर्त्सना इत्यादि, 4. अपनी प्रशंसा करना, 5. संक्लेश प्रकट करना, 6. महा आरम्भ, महापरिग्रह धारण करना, 7. वक्रस्वभाव रखना, 8.पापकर्म से आजीविका करना, 9.विष मिलाना, जाल-पिंजरा-फाँसी आदि बनाना, 10.अन्य जीवों को पकड़ने - मारने के यन्त्रादि उपाय बताना, 11. खोटे प्रयोग सिखाने वाले शास्त्रों को दूसरों को देना। . For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 . चारित्रमोह के आस्रव के विशेष कारण | 1.जगत का उपकार करने में समर्थ ऐसे शीलव्रतों की निन्दा करना 2. आत्मज्ञानी । तपस्वियों की निन्दा करना, 3. धर्म का विध्वंस करना - धर्म के साधन में अन्तराय करना, 4. शीलवन्तों को शील पालन करने से चलायमान करना, 5. देशव्रती- : महाव्रती जीवों को व्रतों से चलायमान करना, 6. मद्य-मांस-मधु के त्यागियों के चित्त में भ्रम उत्पन्न करना, 7. चारित्रवन्तों के चारित्र में दूषण लगाना, 8. क्लेशरूप लिंग - भेष धारना, क्लेशरूप व्रत धारना। नौ नोकषायों के आसव के विशेष कारण 1. हास्य - मूर्खतापूर्ण हँसना, दीन-दुखी-अनाथों की हँसी करना, कामकथा और कामचेष्टा पूर्वक हँसना, बहुत व्यर्थ प्रलाप करना। 2. रति - दूसरे जीवों की विचित्र क्रीड़ा (कठिनता से किये जा सकनेवाले आगमानुकूल कार्य) में सहयोग पूर्वक तत्परता करना, उचित क्रिया को नहीं रोकना, अन्य का कष्ट दूर करना, अन्य देशों-विदेशों में उत्सुकतापने से देखने का भाव नहीं होना। 3. अरति - दूसरे जीवों के अरति उत्पन्न करना, दूसरों की कीर्ति नष्ट करना, पापी जीवों की संगति करना, खोटी क्रिया करने में उत्साह करना। 4. शोक - स्वयं को शोक होने पर दुखी होकर चिन्ता करना, दूसरों को दुख उत्पन्न करना, दूसरे को शोक में देखकर आनन्द मानना । 5.भय - स्वयं भयरूप परिणाम रखना, दूसरों को भय उत्पन्न कराना, निर्दयता के परिणाम करके दूसरों को दुःख देना। 6. जुगुप्सा - सत्य धर्म को धारण करनेवाले चारों वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कुल की क्रिया - आचार के प्रति ग्लानि रखना, दूसरों का अपवाद - निन्दा करने का स्वभाव होना। 7. स्त्री वेव - अति क्रोध के परिणाम, अति मानीपना, ईर्ष्या का व्यवहार, झूठ बोलने में हर्ष होना, अति मायाचार में तत्पर होना, अति रागभाव करना; पर स्त्री For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 सेवन करना, पर स्त्री का रागभाव से आदर करना व स्व स्त्री के समान भाव से आलिंगन आदि करना। 8. पुरुष वेद - अल्प क्रोध, कुटिलता का अभाव, विषयों में उत्सुकता का अभाव, निर्लोभता, स्त्री के सम्बन्ध में अल्प राग होना, स्व स्त्री में सन्तोष रखना, ईर्ष्या का अभाव, स्नान-गन्ध-पुष्पमाला - आभरणादि में अनादरपना। 9. नपुंसकवेद - प्रबल क्रोध, मान, माया, लोभ के परिणाम, गुह्य इन्द्रिय का छेदना, अनंग क्रीड़ा करना, शीलवन्तों पर उपसर्ग करना, व्रती जीवों को दुःखी करना, गुणवानों की निन्दा करना, दीक्षा ग्रहण करने वालों को दुःख देना, परस्त्री के संगम का बहुत राग रखना, आचार रहित निराचारी होना। नरकायु के आसव के विशेष कारण । 1. मिथ्यादर्शन सहित आचरण करना, 2. अत्यधिक मान करना, 3. शिलाभेद के समान तीव्र क्रोध करना, 4. तीव्र लोभ के परिणाम करना, 5. निर्दयता के परिणाम रखना, 6. दूसरे जीवों को दुःख उत्पन्न करने के परिणाम रखना, 7. दूसरों का घात करने के परिणाम रखना, 8. दूसरों को बन्धन में होने का अभिप्राय रखना, 9. प्राणियों का घात करने वाला असत्य वचन कहना, 10. पर द्रव्य छीनने के परिणाम रखना, 11. मैथुन में अतिराग रखना, 12. अभक्ष्य भक्षण करना, 13. दृढ़ बैर रखना, 14. साधु की निन्दा करना, 15.तीर्थंकर की आज्ञा का विरोध करना, 16. कृष्ण लेश्या के परिणाम रखना, 17. रौद्र .. ध्यानपूर्वक मरण करना। तिबंचायुके समय के विष काल । 1. मिथ्याधर्म का उपदेश देना, 2. कपट-कूट-कुटिल कार्यों में तत्परता रखना,3. पृथ्वी रेखा के समान क्रोधीपना होना, 4. शीलरहितपना होना, 5. शब्दों द्वारा प्रवृत्ति करके तीव्र मायाचार करना, 6. दूसरे के भावों में भेद-विवाद-शत्रुता उत्पन्न कराना, 7.शब्दों का मिथ्या अर्थ करना, अति अनर्थ रूप विरुद्ध अर्थ For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 प्रकट करना, 8. मिलावट करना, 9. जाति, कुल, शील में दूषण लगाना, 10. विसंवाद में प्रीति रखना, 11. दूसरे के उत्तम गुणों को छिपाना, न रहनेवाले . अवगुण प्रकट करना - कहना, 12.नील और कापोत लेश्या के परिणाम रखना, . 13. आर्तध्यान पूर्वक मरण करना। मनुष्यायु के आस्रव के विशेष कारण । 1. मिथ्यादर्शन सहित ज्ञानवान होना, 2. मिथ्यादर्शन सहित विनयवान होना, 3. सरल स्वभाव रखना, 4. सत्य आचरण में सुख मानना, 5. अपना सच्चा सुख प्रकट बतलाना, 6. अल्प और क्षणिक क्रोध रखना, 7.व्यवहार में सरलता रखना, 8. विशेष गुणी पुरुषों के साथ प्रिय व्यवहार रखना, 9. व्यवहार में सन्तोषभाव रखना तथा उसी में सुख मानना, 10. जीवों के घात से विरक्तता रखना, 11. कुकर्म से निवृत्त रहना, 12. सभी से मीठा अनुकूल बोलना, 13. स्वभाव में मधुरता होना, 14. व्यर्थ बकवाद नहीं करना, 15. लौकिक व्यवहार कार्यों से उदासीन रहना, 16. ईर्ष्यारहितपना रखना, 17. अल्प संक्लेशभाव रखना, 18. देव, गुरु और अतिथि आदि के लिए दान-पूजा के लिए अपना धन अलग रखना, 19. कापोत लेश्या और पीत लेश्या के परिणाम होना, 20. धर्मध्यान पूर्वक मरण करना। देवायु के आस्रव के विशेष कारण । 1. अपने आत्मा के कल्याणकारक मित्रों से सम्बन्ध रखना, 2. धर्म के स्थानों का सेवन करना, 3. सत्यार्थ धर्म का श्रवण करना, प्रशंसा करना, 4. धर्म की महिमा दिखाना, 5. तप में भावना रखना, 6. जल रेखा समान अति मन्द क्रोध होना। अशुभ नामकर्म के आस्रव के विशेष कारण .........। 1. मिथ्यादर्शन बनाये रखना, 2. पीठ के पीछे खोटा बोलना, 3. किसी के द्वारा मार्ग पूछने पर खोटा मार्ग ही सही बतलाना, 4. चित्त की अस्थिरता, 5.तौलने For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 के तराजू-बाँट खोटे रखना, 6. स्वर्ण-मणि-रत्नादि खोटे को सच्चे में मिला देना, 7. खोटी गवाही देना, 8. कपट की अधिकता करना, 9. दूसरों की निन्दा करना, 10. झूठ वचन बोलना, 11. दूसरे का धन ले लेना, 12. महा आरम्भ और महा परिग्रह के भाव करना, 13. अपने सुन्दर रूप-उज्ज्वल भेष का गर्व करना, 14. अपने आभूषण, रूप आदि का मद करना, 15. कठोर-निंद्य-असत्य प्रलाप करना, 16. क्रोध और ढीठता के वचन कहना, 17. अपना सौभाग्य चाहना, 18. अन्य जीवों को कौतुहल उत्पन्न कराना, 19. आभूषण-वस्त्रादि पहनने में बहुत शौक - अनुराग रखना, 20. जिनमन्दिर के चन्दन-गन्ध-पुष्पमालादि-धूपादि की चोरी करना, 21. हँसी उड़ाना, 22. ईंट पकाने का कार्य करना, 23. दावाग्नि लगाने का कार्य करना, 24. प्रतिमा का नाश तथा मन्दिर का नाश करना, 25. मनुष्य-तिर्यंचों के सोने-बैठने के स्थान को मल-मूत्रादि से बिगाड़ देना, 26. बाग-बगीचा-वन का विनाश करना, 27. क्रोध-मान-माया-लोभ की तीव्रता रखना, 28. पापकर्म से आजीविका करना। नीच गोत्रकर्म के आस्रव के विशेष कारण 1. जाति, कुल, बल, रूप, ज्ञान, आज्ञा, ऐश्वर्य और तप का मद करना, 2. दूसरों की अवज्ञा करना, 3. दूसरों की हँसी करना, 4. अपवाद करने का स्वभाव रखना, 5. धर्मात्मा पुरुषों की निन्दा करना, 6. अपनी उच्चता दिखाना, 7. दूसरों के यश को बिगाड़ देना, 8. अपनी असत्य कीर्ति प्रकट करना, 9. गुरुओं का तिरस्कार करना, 10. गुरुओं के दोष प्रकट करना, 11. गुरुओं का स्थान बिगाड़ना - अपमान करना, 12. गुरुओं को कष्ट उत्पन्न कराना, अवज्ञा करना, गुणों को लोपना, 13. गुरुओं को हाथ नहीं जोड़ना, स्तुति नहीं करना, गुण प्रकाशित नहीं करना, उन्हें देखकर खड़े नहीं होना, 14. तीर्थंकर आदि की आज्ञा का लोप करना। For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 उच्च गोत्रकर्म के आस्रव के विशेष कारण 1. दूसरों से जाति, कुल, रूप, बल, वीर्य (आज्ञा ), विज्ञान, ऐश्वर्य और तप में स्वयं अधिक विशेषता वाला हो तो भी अपने को उच्च नहीं समझना, 2. अन्य जीवों की अवज्ञा नहीं करना, 3. अन्य जीवों से उद्धतपना छोड़ना, 4. दूसरों की निन्दा - ग्लानि - हास्य- अपवाद करना छोड़ना, 5. अभिमान रहित होकर रहना, 6. धर्मात्मा जनों का आदर-सत्कार करना, 7. देखते साथ ही उठ खड़े होना, हाथ जोड़ना, नम्रीभूत रहना, वन्दना करना, 8. इस काल में जो गुण दूसरों को प्राप्त होना दुर्लभ हैं, वे गुण अपने में होते हुए भी उद्धतपना नहीं करना, 9. अपना माहात्म्य प्रकट नहीं करना, 10. धर्म के कारणों में परम हर्ष करना। अन्तरायकर्म के आस्रव के विशेष कारण - 1. कोई ज्ञानाभ्यास कर रहा हो उसमें बाधा पहुँचाना, 2. किसी का सत्कार हो रहा हो, उसे बिगाड़ देना, 3. दान - लाभ - भोगोपभोग - वीर्य स् - स्नान - विलेपन -इत्रफुलेल - सुगन्ध-पुष्पमाला आदि में विघ्न करना, 4. वस्त्र - आभरण- शैया-आसनभक्षण करने योग्य भोजन, पीने योग्य पेय, आस्वादन योग्य लेह्य इत्यादि में दुष्ट भावों से विघ्न करना, 5. वैभव - समृद्धि देखकर आश्चर्य करना, 6. अपने पास धन होने पर भी खर्च नहीं करना, 7. धन की अत्यधिक वांछा करना, 8. देवता को चढ़ाई गई वस्तु (निर्माल्य) को ग्रहण करना, 9. निर्दोष उपकरण का त्याग कर देना, 10. दूसरों की शक्ति - वीर्य का विनाश कर देना, 11. धर्म का छेद करना, 12. सुन्दर आचार के धारक तपस्वी गुरु का घात करना, 13. धर्म के आयतन तथा जिन प्रतिमा की पूजा को बिगाड़ देना, 14 त्यागी - दीक्षित को तथा दरिद्रीअनाथ- दीनों को कोई वस्त्र - पात्र - स्थान आदि देता हो, उसका निषेध करना, 15. दूसरे को बन्दीगृह में रोकना - बाँधना, 16. किसी का गुह्य अंग छेदना, 17. - ओष्ठ को काटना, 18. जीवों को मारना । कान-नाक For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 (परिशिष्ट-2) पाठांतर REER TERRBERISINESTEE A1 171 पृष्ठ । प्रथम पाठ द्वितीय पाठ चरमोत्तम शब्द के अर्थउसी भव से मोक्ष जाने वाले तीर्थंकर (सर्वार्थसिद्धि-अध्याय 2, (तत्त्वार्थ वृत्ति-अध्याय 2, सूत्र 53) सूत्र 53) 61 अंत का आधा स्वयंभूरमणं द्वीप एवं स्वयंभूरमण समुद्र में कौन-सा काल हैदुःषम (पंचम) काल तुल्य चतुर्थ काल (त्रिलोकसार-गाथा 884) | (वृहद्-द्रव्यसंग्रह-गाथा 35 |श्री ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका) शुक्र-महाशुक्र (9-10) स्वर्ग में भाव लेश्यापद्म और शुक्ल पद्म (सर्वार्थसिद्धि -अध्याय 4,(गोम्मटसार जीवकाण्ड-गाथा सूत्र 22) 534-535) लौकान्तिक देवों की कुल संख्या407820 407806 (त्रिलोकसार-गाथा 537-538) (राजवार्तिक- अध्याय 4, सूत्र 25) 198 | चार प्रकार का आहारखाद्य, पेय, लेह्य, स्वाद्य अन्न, पान, खाद्य, लेह्य (रत्नकरण्ड श्रावकाचार -श्लोक 142) For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 203 प्रथम पाठ जघन्य अंतर्मुहूर्त का प्रमाण1 आवलि 1 समय (गोम्मटसार जीवकाण्ड, संस्कृत टीका जीवतत्त्व प्रदीपिका - गाथा 575) 208 होता है 206 धर्म्यध्यान कौन से गुणस्थान में होता है - यथायोग्य 4 से 10 में 4 (वृहद् द्रव्य संग्रह-गाथा 48 श्री ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका) पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल 78 | ( हाथ में)स्वर्ग 8 से 11 में 11 में (धवला जी - पुस्तक 13, (वृहद् द्रव्य संग्रह- गाथा 48 श्री ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका) पृष्ठ 78) सौधर्मादि सोलह स्वर्गो के देवों के शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई 7 सौधर्म - ऐशान सानत्कुमार- माहेन्द्र 6 बह्म-ब्रह्मोत्तर लांतव- कापिष्ठ | शुक्र- महाशुक्र | शतार-सहस्रार आनत-प्राणत आरण-अच्युत सर्वार्थसिद्धि अध्याय 4, सूत्र 21 आवली का एक असंख्यात भाग (यह पाठ भी वहीं दिया है) 5 4 4 3.5 (धवला जी-पुस्तक 13, पृष्ठ 74) ध्यान कौन से गुणस्थान में - त्रिलोकसार तिलोयपण्णत्ती गाथा 543 गाथा 565 7 6 5 5 4 3.5 3 3 For Personal & Private Use Only 7 व 6 5 व 4 3.5 3.5 3.5 55 3.5 3 3 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 सम्मतियाँ) * पण्डित किशनचन्दजी जैन, अलवर ___ पुस्तक को कई बार बारीकी से पढ़ा। पढ़कर विदित होता है कि आपको इतनी छोटी उम्र में भी जैन तत्त्वज्ञान का कितना गहन अध्ययन है। आपने जो लिखा है कि नई पीढ़ी तालिकाओं एवं रेखाचित्रों के माध्यम से विषय-वस्तु को सरलता से शीघ्र ग्रहण कर लेती है।' मैं आपके इस विचार से शत-प्रतिशत सहमत हूँ। वैसे तो तत्त्वार्थ सूत्र पर अनेक महान आचार्य एवं विद्वानों द्वारा अनेक टीकाएँ छपी हुई मिलती हैं। लेकिन जो कमी उनमें थी, वह इस तत्त्वार्थ सूत्र की पुस्तक से पूरी हो जाती है। इसमें आपने कितनी मेहनत की है, यह इस पुस्तक के पढ़ने से भली-भाँति विदित होता है। आपने (पति-पत्नी) जो इतनी छोटी उम्र में अमेरिका के इतने बड़े पैकेज तथा ग्रीन कार्ड को भी छोड़कर निवृत्ति ली है, वह भी एक आदर्श है। आज के इस भौतिक युग में जहाँ रुपये की ही प्रधानता है, वहाँ उसको ठोकर मार दी। इससे विदित होता है कि आप दोनों अति निकट भव्य है तथा आपको इस त्याग का फल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की भी शीघ्रता से प्राप्ति होगी। .... आप दोनों जो तत्त्व-अभ्यास में लगे हुए हैं। साथ ही अपना ही नहीं, अन्य तत्त्वपिपासुओं को भी पथ प्रदर्शन में सहयोगी बन रहे हैं। यह भी एक परमं हर्ष का विषय है। - किशनचन्द जैन * ब्रह्मचारी संदीपजी 'सरल', अनेकान्त ज्ञान मंदिर, शोध संस्थान, बीना (म.प्र.) अभी तक तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ पर अनेकों टीकाएँ तैयार हुई हैं, प्रकाशन भी . . अनेक स्थलों से हुआ है, किन्तु यह प्रकाशन अपने आप में हटकर है। रेखाचित्र एवं तालिकाओं के साथ आपने जो विवेचना की है, स्वाध्यायी के लिए अत्यंत उपादेय है। अध्येता बिना किसी के आलम्बन से स्वयं विषय को हृदयंगम कर For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 लेगा। आपके इस उत्तम प्रयास के लिए कोटिशः धन्यवाद देते हुए अपेक्षा करते हैं कि आप इसी प्रकार कुछ नया प्रकाशन शीघ्र करायेंगी। - ब्र. संदीप 'सरल' * डॉ. वीरसागरजी जैन, विभाग प्रमुख, जैनदर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली भारतीय प्राच्य विद्याओं के महामेरु पद्मभूषण प्रो. सत्यव्रत शास्त्री ने एक बार कहा था कि जैनदर्शन को भलीभाँति समझने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को दो । ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए- 1. तत्त्वार्थसूत्र और 2. समयसार। ठीक ही है, जैन आगम और अध्यात्म के मूल आधारभूत इन दो ग्रन्थों के गहन अध्ययन से सम्पूर्ण जैनदर्शन का प्रतिपाद्य हृदयंगम किया जा सकता है। जैनदर्शन के जिज्ञासु को इधर-उधर से ध्यान हटाकर उक्त दो ग्रन्थों पर अपना ध्यान मुख्य रूप से केन्द्रित करना चाहिए। ____श्रीमती पूजा-प्रकाश छाबड़ा ने तत्त्वार्थसूत्र को ही भलीभाँति समझाने के लिए उसे रेखाचित्रों और तालिकाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है। मैं समझता हूँ कि इसमें उन्हें बहुत परिश्रम करना पड़ा होगा, परन्तु इससे ग्रन्थ की विषयवस्तु अत्यधिक सरल-सुबोध बन गई है। साधारण से साधारण व्यक्ति भी इससे तत्त्वार्थसूत्र का गूढ़-गंभीर विषय आसानी से समझ सकेगा। लेखिका एवं प्रकाशक - दोनों ही कोटिशः साधुवाद के पात्र हैं। - वीरसागर जैन * श्री कुमुदचन्दजी सोनी, प्रतिष्ठाचार्य, परम मुनिभक्त,कर्मठ कर्मयोगी,दिगम्बर जैन महासभा के केन्द्रीय संयुक्त महामंत्री, अजमेर (राज.) ____4/3/10 मैं सर्वप्रथम आपको बहुत-बहुत साधुवाद एवं बधाईयाँ देना चाहूँगा कि आपने तत्त्वार्थसूत्र कथित तत्त्वार्थों को भलीभाँति भावभासन पूर्वक जानकरसमझकर इसे रेखाचित्र एवं तालिकाओं के माध्यम से अभिनव, सर्वग्राह्य सुगम अभिव्यक्ति प्रदान की है। आपका श्रम सार्थक है। आधुनिक उच्चशिक्षित वर्ग For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 को यह रचना बहुत पसंद आयेगी, क्योंकि रेखाचित्र एवं तालिकाओं के माध्यम से समझना-समझाना आज इस वैज्ञानिक युग की भाषा बन चुकी है। - कुमुदचन्द सोनी * डॉ. उत्तमचन्दजी जैन, सेवा नि. प्राचार्य नेहरु वार्ड, सिवनी (म.प्र.) “तत्त्वार्थसूत्र(रेखाचित्र एवं तालिकाओं में ) " एक नवोदित पुस्तक प्राप्त हुई। पुस्तक का बाह्यभाग (गेट अप ) एकदम नया, आकर्षक, तालिकामय प्रतीत हुआ। मैंने उक्त पुस्तक ध्यानपूर्वक आद्योपान्त पढ़ी एवं पाया कि तत्त्वार्थसूत्र की क्लिष्ट विषय-वस्तु नवीन पीढ़ी के लिए सरल, सुगम एवं सहजग्राह्य बनाने में आपका प्रयास पूर्णतः सफल रहा है। आपका प्रयास आपकी तत्त्वरसिकता, तत्त्वपिपासा एवं तत्त्वप्रेम को व्यक्त करता है। विभिन्न रेखचित्रों एवं तालिकाओं द्वारा सूत्र का अभिप्राय एवं अर्थ एक नजर में ज्ञात होता है। तत्त्वज्ञान के प्रचार प्रसार हेतु आपका अभिनव प्रयास सराहनीय है। इस कार्य हेतु हमारी आपके लिए शुभकामनाएँ हैं। आपकी रुचि उत्तरोत्तर जिनागम के गूढ़तम-आत्मकल्याणकारी रहस्यों को जानकर स्व-पर हित में लगी रहे - यही भावना है। - उत्तमचन्द जैन श For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमती पूजा छाबड़ा आयु लौकिक शिक्षा भूतपूर्व कार्य क्षेत्र : पति लेखिका - परिचय 32 वर्ष एम. ए. सी. पी. ए. (सर्टीफाइड प्रोफेशनल अकाउंटेण्ट) वाशिंगटन स्टेट, अमेरिका प्रोफेशनल अकाउंटेण्ट बेडर मार्टिन, पी. एस., सिएटल अमेरिका श्री प्रकाश छाबड़ा बी. ई. (मेकेनिकल), एम.एस. (कम्प्यूटर साइंस), अमेरिका भूतपूर्व - सॉफ्टवेयर इंजीनियर, माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन, वाशिंगटन स्टेट, अमेरिका For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचपाप जीव परिग्रह म *समरम्भ *समारम्भ *आरम्भ कुल =3 + हिंसा झूठ चोरी अब्रह्म (असावधानी- (अयत्नाचार- (बिना दी (रति जन्य (पर द्रव्य . प्रमाद पूर्वक प्रमाद सहित हुईवट लिए में ममत्व प्राणों का अप्रशस्त ऐरावत क्षेत्र प रिणाम) वियोग- [दुख विजया या करम लेच्छ खण्ड म्लेच्छ खण्ड म्लेच्छ खण्ड HTRA शि खरीपुडरीक पर्वत pagal भो. भूमि रूप्य कूला नदी स्वर्ण कूला नदी हैरण्य वत रुक्मि पर्वत तोदा नदी पर्वत निश्चय व्रत व्रत या जघन्य न जान महापुडंरीक मध्यम भोग भूमि 200 यो. उचाई व्यवहार नर कान्ता नदी नारी नदी रम्य क क्षेत्र केसरी उत्तर उत्कृष्ट कुरु भोग भूमि JORDE-22 सुबाहुजी (25) वमा (26) सुक्मा (27) महावप्रा (28) वाकावती (29) गंधा (३१)-गन्धिका (30) सुगंधा (9) कच्छा (32) गन्धमालिनी (2) सुकच्छा (3) महाकच्छा (4) कच्छकावती (9) आवर्ता (৭)লাভাল (7) पुष्कला (8) पुष्कलावती सीमंधर भगवान भूवारण्य बन 1 सीतोदा नदी सीता नदी महा Dick 2 (24) सरित (22) नलिनी (21) शंखा (20) पद्मकावती (19) महा पद्मा Men (26) (17) पद्मा (16) महक्लावती 1(99) रमणीया 1(98) युरम्यक (13) रम्या ( (12) वत्सकावती (90) सुवत्या (99) महावत्सा (1) वत्या युगमंधर जी ) हरि 20 मिथ्यात्व माया उत्कृष्ट कुरु भोग भूमि निषध तिगिञ्छ वत मध्यमभोग भूमि हरि क्षेत्र मध्यमभोग भूमि हरि कान्ता नदी हरित नदी मध्यमभोग भूमि क्षेत्र मध्यमभोग भूमि Poe जब महा हिमवन महा पदम जघन्य हैमवत क्षेत्र भोग भूमि रोहितास्या नदी रोहित नदी ज. भो. भू. हैमवत क्षेत्र ज.भो.भू. पद्म हद पर्यत म्लेच्छ खण्ड म्लेच्छ खण्ड म्लेच्छ खण्ड विप विजयार्थ पर्वत वि. प. भरतक्षेत्र आर्य खण्ड शिमा-बुक- m संयमस्थान की तारतम्यता ala स्नातक एक ही निग्रंथ पोजल हिमवन शल्य PASH, 900 foror सिंधु नदी गंगा नदी A paleta देवों के प्रकार (नि नाम भवनवासी व्यंतर ज्य स्वरूप जो भवनो में जिनका नाना प्रकार के जोज निवास करते हैं देशों में निवास है में निक भेद 10 8 प्रतिसेवना इन्द्रियोद निग्रंथों के भेद द्रव्येन्द्रिय बकुश निर्वत्ति (इन्द्रियाकार भावन्द्रिय कषाय कुशील रचमा) उपकरण लब्धि उपयोग (निर्वृत्ति का (ज्ञानावरणीय (चेतना का उपकार करे) कर्म का क्षयोपशम) परिणामविशेष) पुलाक 8 संयमस्थान जघन्य उत्कृष्ट For Personal & Private Use Online