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________________ 206 आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ||36 ।। सूत्रार्थ - आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान - इनकी विचारणा के निमित्त मन को एकाग्र करना धर्म्यध्यान है । 1361 धर्म्य ध्यान नवम अध्याय नाम आज्ञाविचय अपायविच स्वरूप जिनेन्द्रदेव की ये प्राणी मिथ्यादर्शनादि कर्म के फल का आज्ञा प्रमाण से कैसे दूर होंगे, ऐसा निरन्तर चिन्तन करना यथायोग्य 4 से 7 मिथ्यादृष्टि के धर्म भावना होती है, धर्म्य ध्यान नहीं 个 गुणस्थान ← विपाकविचय संस्थानविचय लोक के आकार का शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ||37।। सूत्रार्थ - आदि के दो शुक्ल ध्यान पूर्वविद् के होते हैं ।। 37 ।। ' परे केवलिनः ॥38॥ सूत्रार्थ - शेष के दो शुक्लध्यान केवली के होते हैं ।। 38 ।। पृथक्त्वैकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवतींनि ॥39॥ सूत्रार्थ - पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत - क्रियानिवर्ति - ये चार शुक्लध्यान हैं ।। 39 || - Jain Education International . त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ||40|| सूत्रार्थ - वे चार ध्यान क्रम से तीन योग वाले, एक योग वाले, काय योग वाले और अयोग के होते हैं। । 40॥ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ।। 41 ॥ सूत्रार्थ - पहले के दो ध्यान एक आश्रय वाले, सवितर्क और सवीचार होते हैं।।41॥ - • दूसरा ध्यान अवीचार है ।। 4211 अवीचारं द्वितीयम् ||42|| For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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