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होला।
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सप्तम अध्याय मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना
विमयेषु।।11।। सूत्रार्थ- प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणावृत्ति
और अविनेयों में माध्यस्थ भावना करनी चाहिए।।11॥ वती के चिन्तन योग्य अन्य भावनाएं।
भावना
मैत्री प्रमोद (दूसरे को (प्रसन्नता के दुख न हो) साथ भक्ति
.. अनुराग)
कारुण्य माध्यस्थ (दया) (राग-द्वेष पूर्वक
- पक्षपात न करना)
किनके सत्त्व गुणी जन दीन दुखी अविनयी प्रति (चार गति (सम्यग्दर्शनादि (जिनवाणी के सर्व गुणों में
सुनने का गुण जीव) अधिक जीव) . नहीं होने वाले
. हठाग्रही) जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्।।12।। सूत्रार्थ - संवेग और वैराग्य के लिए जगत के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की
भावना करनी चाहिए।।12।। वती को वैराग्य बढ़ाने के लिए
वैराग्य
संवेग * संसार से भय * धर्म और धर्म के फल में रुचि ।
संसार
शरीर
भोगों से
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