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________________ होला। 136 . सप्तम अध्याय मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विमयेषु।।11।। सूत्रार्थ- प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणावृत्ति और अविनेयों में माध्यस्थ भावना करनी चाहिए।।11॥ वती के चिन्तन योग्य अन्य भावनाएं। भावना मैत्री प्रमोद (दूसरे को (प्रसन्नता के दुख न हो) साथ भक्ति .. अनुराग) कारुण्य माध्यस्थ (दया) (राग-द्वेष पूर्वक - पक्षपात न करना) किनके सत्त्व गुणी जन दीन दुखी अविनयी प्रति (चार गति (सम्यग्दर्शनादि (जिनवाणी के सर्व गुणों में सुनने का गुण जीव) अधिक जीव) . नहीं होने वाले . हठाग्रही) जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्।।12।। सूत्रार्थ - संवेग और वैराग्य के लिए जगत के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।।12।। वती को वैराग्य बढ़ाने के लिए वैराग्य संवेग * संसार से भय * धर्म और धर्म के फल में रुचि । संसार शरीर भोगों से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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