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________________ सप्तम अध्याय 137 पाच पाप हिंसा झूठ चोरी अब्रह्म परिग्रह (असावधानी- (अयत्नाचार- (बिना दी (रति जन्य (पर द्रव्य में प्रमाद पूर्वक प्रमाद सहित हुई वस्तु का सुख के ममत्व प्राणों का अप्रशस्त दुख- ग्रहण लिए स्त्री- परिणाम) वियोग - घात दायी, मिथ्या] करना) पुरुष की करना) वचन बोलना) जो भी चेष्टाा ) प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।।13।। सूत्रार्थ - प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना हिंसा है।।13।। हिंसा भाव द्रव्य स्व की * आत्मा में रागादि भावों | * दीर्घश्वासादिक, हाथ-पैर से अपने की उत्पत्ति अंगों को पीड़ा पहुँचाना,अपघात करना पर की * मर्म भेदी वचन, कार्य * अन्य के शरीर को पीड़ा पहुँचाना आदि जिससे दूसरे का | अथवा प्राण नाश करना अंतरंग पीड़ित हो हिंसा के अन्य प्रकार से भेद संकल्पी आरम्भी औद्योगिक विरोधी (गृह संबंधित (व्यापारादि (देव, शास्त्र, गुरु कार्यों में होने संबंधित कार्यों आदि की रक्षा वाली) में होने वाली) संबंधित) मारने का भाव) (शिकारादि). Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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