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________________ षष्ठ अध्याय 127 सूत्रार्थ दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना, ज्ञान में सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार तप, साधु-समाधि, वैयावृत्त्य करना, अरिहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य - ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं ।। 24। तीर्थंकर नामकर्म के आसव के कारणभूत सोलहकारण भावना भावना उसका स्वरूप 1. दर्शन विशुद्धि अरहंत द्वारा कहे गए मोक्षमार्ग में रुचि 2. विनय सम्पन्नता. रत्नत्रय और उनके धारकों की विनय 3. शीलव्रत में अनतिचार शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन 4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग 5. संवेग सम्यग्ज्ञान में निरंतर लगे रहना | संसार के दुखों से भयभीत रहना 6. शक्ति अनुसार त्याग शक्ति के अनुसार त्याग शक्ति के अनुसार तप 7. शक्ति अनुसार तप साधुओं के विघ्न दूर करना 8. साधु समाधि 9. वैयावृत्त्य करण 10. अर्हद् भक्ति 11. आचार्य भक्ति 12. बहुश्रुत भक्ति 13. प्रवचन भक्ति गुणी पुरुषों के दुख आने पर निर्दोष विधि से सेवा करना अरहंत में आचार्य में उपाध्याय में Jain Education International भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग शास्त्र में | 14. आवश्यकापरिहाणि 6 आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करना 15. मार्ग प्रभावना | ज्ञान, तप, दान, पूजा द्वारा धर्म का प्रकाश करना गोवत्सवत् साधर्मियों पर स्नेह रखना 16. प्रवचन वत्सलत्व For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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