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________________ 128 षष्ठ अध्याय परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।।25।। सूत्रार्थ - परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन - ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।।25।। तद्विपर्ययौ नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य।।26।। .. सूत्रार्थ - उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणों का उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक - ये उच्च . गोत्र के आस्रव हैं।। 26।। गोत्र नीच गोत्र * पर की निन्दा * स्व की प्रशंसा *दूसरे के विद्यमान गुण ढाँकना * अपने झूठे गुणों को प्रकट करना उच्च गोत्र * पर प्रशंसा * स्व निन्दा *दूसरे के विद्यमान गुणों को प्रकट करना * अपने गुणों की चर्चा नहीं करना *नम्रवृत्ति- अपने से गुणों में अधिक की विनय * अनुत्सेक - अभिमान न होना किस जीव के कौन-से गोत्र का उदय होता है। नीच गोत्र उच्च गोत्र दोनों में से कोई भी एक * देव * सब नारकी * सब तिर्यंच ___*भोगभूमिया मनुष्य * अपर्याप्त मनुष्य * पर्याप्त कर्मभूमिया मनुष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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