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अर्पितानर्पितसिद्धेः।।32।।
सूत्रार्थ - मुख्यता और गौणता की अपेक्षा एक वस्तु में विरोधी मालूम पड़ने वाले दो धर्मों की सिद्धि होती है। 321
पञ्चम अध्याय
अर्पित
अनर्पित
(मुख्य)
(गौण)
वस्तु अनेकान्तात्मक अर्थात् अनेक धर्मों वाली है। जैसे - वस्तु नित्यानित्यात्मक है। चूँकि वक्ता अनेक धर्मों को एक साथ कह नहीं सकता है। वह एक समय में एक ही धर्म को कह सकता है। अतः वह एक धर्म को अर्पित (मुख्य) एवं अन्य धर्मों को अर्पित ( गण ) करके कथन करता है।
पुद्गल का
पुद्गल से
स्याद्वाद शैली (जैनधर्म का आधार स्तम्भ सूत्र)
स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥33॥ सूत्रार्थ - स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बन्ध होता है ।। 33 ।।
बंध
(अनेक पदार्थों में एकपने का ज्ञान कराने वाला संबंध विशेष)
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स्पर्श गुण के कारण संयोग संबंध
(यहाँ ये बन्ध विवक्षित है ।)
जीव का
जीव का पुद्गल
रागादि विकारी भावों से (कर्म - नोकर्म) से
↓
संयोग संबंध
एक क्षेत्र अवगाह संबंध
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