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________________ षष्ठ अध्याय 115 * पुण्यासव एवं पापास्रव भेद अघातिया कमों की अपेक्षा है। * घातिया कर्म तो पापरूप ही हैं। सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः।।4।। सूत्रार्थ - कषायसहित और कषायरहित आत्मा का योग क्रम से साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म के आस्रव रूप है।।4।। स्वामी अपेक्षा आसव के भेद साम्परायिक आस्रव ईर्यापथ आस्रव स्वामी | सकषायी (कषाय सहित) | अकषायी (कषाय रहित) | मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद | सिर्फ योग कषाय के साथ योग किसका | संसार का कारण | स्थिति रहित आस्रव का कारण कारण कितने प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और प्रकृति और प्रदेश बंध ही होता है प्रकार | अनुभाग बंध होता है का बंध गुणस्थानं पहले से 10वें गुणस्थान तक 11वें, 12 वें, 13वें गुणस्थान में | (कषाय रूपी) तेल युक्त । कोरी दीवार पर रज | दीवार पर (कर्मरूपी) रज | आकर चली जाती है। चिपक जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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