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प्रथम अध्याय
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥31॥
सूत्रार्थ - मति, श्रुत और अवधि - ये तीन विपर्यय भी हैं । । 31 ।। सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ||32|
सूत्रार्थ - वास्तविक और अवास्तविक के अन्तर के बिना यदृच्छोपलब्धि (जब जैसा जी में आया उस रूप ग्रहण होने) के कारण उन्मत्त की तरह ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है। 32 ॥
मिथ्याज्ञान
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कुमति
कुश्रुत
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मिथ्यादृष्टि का सर्व ज्ञान मिथ्या क्योंकि ?
उसका श्रद्धान मिथ्या
श्रद्धान कैसा ?
सत्-असत् का विवेक नहीं
किसके जैसा ?
पागल की तरह जो अपनी इच्छानुसार पदार्थ का ग्रहण करता है।
कुअवधि
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