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________________ 204 . नवम अध्याय आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः।।30।। सूत्रार्थ - अमनोज्ञ पदार्थ के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए चिन्तासातत्य (सतत चिन्ता) का होना प्रथम आर्तध्यान है।।3।।। विपरीतं मनोज्ञस्य।।31॥ सूत्रार्थ - मनोज्ञ वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान है।।31॥ • वेदनायाश्च||32| सूत्रार्थ - वेदना के होने पर उसे दूर करने के लिए सतत चिन्ता करना . . तीसरा आर्तध्यान है।।32॥ निदानं च।।33।। सूत्रार्थ - निदान नाम का चौथा आर्तध्यान है।।33।। तवविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्।।34॥ सूत्रार्थ - यह आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों के होता है।।34॥ हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः।।35।। सूत्रार्थ - हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण के लिए सतत चिन्तन करना रौद्रध्यान है। वह अविरत और देशविरत के होता है।।35।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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