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षष्ठ अध्याय
8 कर्मों में प्रत्येक के आसव के कारण
(वे कारण जिनसे उस उस कर्म का अनुभाग अधिक बँधता है) तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ||10||
सूत्रार्थ - ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात - ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं ||10||
ज्ञानावरण - दर्शनावरण
प्रदोष निह्नव मात्सर्य अंतराय
(तत्त्व की
(ज्ञान और ज्ञान
(जानते हुए ( दूसरे आगे नहीं बढ़ जाएँ,
भी छुपाना)
के साधनों की
इसलिए नहीं प्राप्ति में बाधा
बताना)
डालना)
बात के प्रति मन में ईर्ष्या
- नहीं सुहाना)
आसादन उपघात
(पर के द्वारा
प्रकाशित होने
वाले ज्ञान को
रोकना)
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दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरो भयस्थानान्यसवेद्यस्य।।11।।
सूत्रार्थ - अपने में, दूसरे में या दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन - ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं ||11||
असाता वेदनीय
दुःख शोक
ताप
आक्रन्दन
( पीड़ा रूप (इष्ट के
(संक्लेशता के
आत्म
कारण रोना
(संसार में वियोग में निन्दा होने परिणाम) व्याकुलता) पर पश्चात्ताप) चिल्लाना) ये दुःखादि सभी - 1.
3. आप व पर दोनों को करें ये तीनों ही आस्रव के कारण हैं।
-
वध
(10 प्राणों
का वियोग
(ज्ञान को अज्ञान
कह नष्ट करना)
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परिदेवन
(ऐसा रोना कि
सुनने वाले को
दया पैदा हो )
करना)
आप स्वयं करें, 2. दूसरे को करावें,
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