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________________ नाम द्वितीय अध्याय जीव के असाधारण भाव शमिक क्षायिक मिश्र औवकि पारिणामिक (क्षायोपशमिक) भेद 2 कर्म का उपशम | (दबना) संबंधित मोहनीय कर्म उदाहरण जल में मैल हेय- एकदेश उपादेय उपादेय जानने पारिणामिक से लाभ भाव के आश्रय व से विकार दूर सिद्धि होना शुरू होता है 21 क्षयोपशम उदय (फल, दबना, (फल) वियोग एक साथ) 4 घातिया 4 घातिया जीवों संख्यात की अथवा संख्या असंख्यात Jain Education International 9 क्षय ( अत्यन्त का नीचे बैठना शुद्ध होना वियोग ) आत्मा श्रद्धा व चारित्र गुणों की सम्बन्धी भाव- अवस्था में में मल दबना 8 कर्म जल का पूर्ण जल मे कुछ गंदला जल जल मैल का अभाव तथा दबना एवं सामान्य कुछ का प्रकट होना अशुद्धता का सर्वथा क्षय प्रकट करने योग्य उपादेय 18 पुरुषार्थ से विकार नष्ट होता है गुणों का आंशिक विकास एकदेश उपादेय अनादि से विकार करता स्वभाव से शुद्ध होने पर हुआ भी जीव भी कर्म जड़ नहीं होता सम्बन्ध से पर्याय में विकार है अनंत अनंत | ( औपशमिक ( क्षायिक से से अनंतगुणे) अनंतगुणे) |4-14 गुण- 1-12 स्थानवर्ती + सिद्ध भगवान वर्ती गुणस्थान 3 विभाव रूप परिणमन होना 1 -14 गुण स्थानवर्ती कर्म-निरपेक्ष For Personal & Private Use Only 21 जीवत्व, भव्यत्व अभव्यत्व आश्रय करने योग्य परम उपादेय आत्म निर्भरता आती है - अनंत समस्त जीव ( क्षायोपशमिक (औदयिक से विशेष से विशेष अधिक) अधिक)1-14 गुणस्थानवर्ती +सिद्ध भगवान www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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