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________________ 118 षष्ठ अध्याय 5 धर्माचरण में दोष कारक क्रियाएँ स्वहस्त निसर्ग (हीन पुरुषों (पाप साधनों (दूसरे के योग्य कार्य के लेन-देन दोष प्रकट स्वयं करना) में सम्मति करना) देना) विदारण आज्ञाव्यापादिकी (शास्त्र की आज्ञा को न पाल उनके विपरीत अर्थ करना) 5 धर्म - धारण से विमुख करने वाली क्रियाएँ परिग्रहिकी माया मिथ्यादर्शन अप्रत्याख्यान आरम्भ ( छेदन, भेदन (परिग्रह की आदि में स्वयं रक्षा के उपाय (ज्ञान - दर्शन ( मिथ्यादृष्टि (त्याग परिणाम आदि के विषय की क्रियाओं नहीं होना) में छल करना) की प्रशंसा रत व हर्षित में लगे रहना) होना) करना) तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।।6।। सूत्रार्थ - तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्यविशेष के भेद से उसकी (आस्रव की) विशेषता होती है ।।6।। आस्रव में हीनता-अधिकता के कारण तीव्रभाव मंदभाव (तीव्र कषाय (मंद कषाय रूप भाव) रूप भाव) अनाकांक्षा (शास्त्र उपदेशित विधि का अनादर) ज्ञातभाव अज्ञातभाव अधिकरण वीर्य (बुद्धिपूर्वक (प्रमाद (आधार) (स्व बल) जानकर ) अज्ञान सहित) कारण के भेद से कार्य - आस्रव में भेद होता ही है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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