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________________ 200 . नवम अध्याय आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपच्छेदपरिहारो-. पस्थापनाः।।22॥ सूत्रार्थ - आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना - यह नव प्रकार का प्रायश्चित्त है।।22।। प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त स्वरूप 1.आलोचना गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना । 2. प्रतिक्रमण | 'मेरे दोष मिथ्या हो' ऐसे भावों को वचनों से प्रकट करना 3. तदुभय आलोचना व प्रतिक्रमण दोनों साथ में करना |4. विवेक सदोष अन्न, पात्र, उपकरणादि मिलने पर उनका त्याग | नियमित काल के लिए कायोत्सर्ग करना. 6. तप अनशनादि 7. छेद कुछ समय की दीक्षा का छेद करना 8. परिहार कुछ समय के लिए संघ से दूर करना 9. उपस्थापन पूर्ण दीक्षा छेद कर पूनः दीक्षा प्राप्त करना ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः।।23।। सूत्रार्थ - ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय - ये चार प्रकार की विनय हैं।।23।। विनय ज्ञान दर्शन चारित्र ज्ञान का ग्रहण तत्त्वार्थ निर्दोष अभ्यास, स्मरण श्रद्धान चारित्र का उपचार पूज्य पुरुषों के प्रति समुचित व्यवहार पालन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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