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चतुर्थ अध्याय मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।।13।। सूत्रार्थ - ज्योतिषी देव मनुष्यलोक में मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं और निरन्तर गतिशील हैं।।13।।
तत्कृतः कालविभागः।।14।। सूत्रार्थ - उन गमन करने वाले ज्योतिषियों के द्वारा किया हुआ काल विभाग है।।14।।
बहिरवस्थिताः।।15।। सूत्रार्थ - मनुष्य-लोक के बाहर ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं।।15।।.
ज्योतिषी देव
अढ़ाई द्वीप में
अढाई द्वीप से बाहर
-निरंतर गमनशील हैं
अवस्थित -मेरु की प्रदक्षिणा देते हैं -व्यवहार काल विभाग के हेतु हैं
वैमानिकाः||16|| सूत्रार्थ - चौथे निकाय के देव वैमानिक हैं।।16।।
कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च।।17। सूत्रार्थ - वे दो प्रकार के हैं - कल्पोपपन्न और कल्पातीत।।17।। सूत्र क्रमांक 18 से 22 तक के लिए आगे देखें!
प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः।।23।। सूत्रार्थ - ग्रैवेयकों से पहले तक कल्प हैं।।23।।
वैमानिक
कल्पोपपन्न (12)
कल्पातीत (इन्द्रादि की व्यवस्था होती है) (अहमिन्द्र - सभी इन्द्र होते हैं, इन्द्रादि 10
प्रकार की व्यवस्था नहीं होती)
उपर्युपरि।।18।। सूत्रार्थ - वे ऊपर-ऊपर रहते हैं।।18।।
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