SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74 . चतुर्थ अध्याय मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।।13।। सूत्रार्थ - ज्योतिषी देव मनुष्यलोक में मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं और निरन्तर गतिशील हैं।।13।। तत्कृतः कालविभागः।।14।। सूत्रार्थ - उन गमन करने वाले ज्योतिषियों के द्वारा किया हुआ काल विभाग है।।14।। बहिरवस्थिताः।।15।। सूत्रार्थ - मनुष्य-लोक के बाहर ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं।।15।।. ज्योतिषी देव अढ़ाई द्वीप में अढाई द्वीप से बाहर -निरंतर गमनशील हैं अवस्थित -मेरु की प्रदक्षिणा देते हैं -व्यवहार काल विभाग के हेतु हैं वैमानिकाः||16|| सूत्रार्थ - चौथे निकाय के देव वैमानिक हैं।।16।। कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च।।17। सूत्रार्थ - वे दो प्रकार के हैं - कल्पोपपन्न और कल्पातीत।।17।। सूत्र क्रमांक 18 से 22 तक के लिए आगे देखें! प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः।।23।। सूत्रार्थ - ग्रैवेयकों से पहले तक कल्प हैं।।23।। वैमानिक कल्पोपपन्न (12) कल्पातीत (इन्द्रादि की व्यवस्था होती है) (अहमिन्द्र - सभी इन्द्र होते हैं, इन्द्रादि 10 प्रकार की व्यवस्था नहीं होती) उपर्युपरि।।18।। सूत्रार्थ - वे ऊपर-ऊपर रहते हैं।।18।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004253
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuja Prakash Chhabda
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2010
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy