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सूत्र १..
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880 रितमुनिश्री अमालक ऋषिनी
श्रीमहाराजकृत
OMAMMAMANAVARAN
लिब्रह्मचारा परिस
हिंन्दी भाणानुवाद साहिताः
YAAAAAAAAAAAANAANAN
प्रश्नव्याकरण सूत्र
Vलावा
प्रसिद्ध का दाक्षिण हैदराबाद निवासी.
बहादुर लाल
NWANA
सुखदेवसहायजीज्वालाप्रसा
प्रसादजी जौंदा
प्रत
प्राणाया
जैन शास्त्राद्वार मुद्राला सीकंदराबाद (दक्षिण..
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जैन स्थम्भ दानवीर
अमूल्य शास्त्र दानदाता.
स्व राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी जौहरी
म स०१९२०.
स्वर्गस्य स०१९७४.
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जैम शाखोदार मुद्रालय, सिकंदराबाद, (दक्षिण)
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२४
जैन प्रभावक धर्म धूरंधर
SJWALAPRASHAD
लाला ज्यालामसादजी, जौहरी.
जन्म : १९५०
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Rasasaseshमुख्याधिकारीANASRANAHARAM उपकारी-महारसSANTakase
PIRREFE
परम पूज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के शुध्याचारी पूज्य श्री खुवा पिजी महाराज के शिष्यवर्य स्व. तपस्त्रीजी श्री केवल प्रपिजी महाराज आप श्रीने मुझसाथ ले महापरिश्रम से हैद्राबाद जैसा बडा क्षेत्र माध्यागिय धर्म में मसिद्ध किया च परमोपदेश मे राजावहादुर दानवीरलालामुखदेव महायजीयाला प्रसादजी को धर्मप्रेमी बनाये. उनके प्रतापसेटी शास्त्राद्धारादि महा कार्य हैद्राबाद में हुए. इस लिये इम कार्य के मुख्याधिकारी आपही हुए. जो जो भव्य जीवों इन शान्त्र द्वारा महालाभ प्राप्त करेंगे. वे आपही के कृतज्ञ होंगे.
परम पुज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के कविवरेन्द्र महा पुरुष श्री तिलोक ऋषिजी महाराज के पाटवीय शिष्य वर्य, पूज्यपाद गुरुवर्य श्री रत्नऋषिजी महाराज! आपश्री की आज्ञानेही शास्त्रोद्धार का कार्य सी. कार किया और आप के परमाशिर्वाद से पूर्ण करसका इम लिये इस कार्य के परमोपकारी महात्या आप ही आप का उपकार केवल मेरे पर ही नहीं परन्तु जो जो भव्यों इन शानदार लाभ प्राप्त करेंगे उन मनपर ही होगा.
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शिशु-अमोल अपि
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28.2 आभारी-महात्मा
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RRB-हिन्दी भाषानुवादक 6031311935
कच्छ देश पावन कर्ता मोटी पक्ष के परप पूज्य श्री कर्मसिंहजी महाराज के शिष्यवर्य महात्मा कविवर्य श्री नागचन्द्रजी महाराज! इल शास्त्रोद्धार कार्य में आयोपान्त आप श्री प्राधिन शुद्ध शास्त्र, हुंडी,गुटका और समय २पर आवश्यकीय शुभ सम्मति द्वारा मदत देते रहनेसेही मैं इस कार्य को पूर्ण कर सका. इस लिये केवल मैं ही नहीं परन्तु जो जो भव्य इन शास्त्रोद्वारा लाभ प्राप्त करेंगे वे सब ही आप के अभारी
शुद्धाचारी पूज्य श्री खूबा ऋषिजी महाराज के शिष्यवर्य,आर्य मुनि श्री चेना ऋषिजी महाराज के शिष्यवर्य बालब्रह्मचारी पण्डित मुनि श्रीअमोलक
पिजी महाराज आपने बडे साहस से शास्त्रोद्धार जैसे महा परिश्रम बाले कार्य का जिस उत्साहसे स्वीकार किया था उस ही उत्साह से तीन वर्ष जितने स्थप समय में अहर्निश कार्य को अच्छा बनाने के शुभाशय से सदैव एक भक्त भोजन
और दिन के सात घंटे लेखन में व्यतीत कर पूर्ण किया. और ऐसा सरल बनादिया कि कोई भी हिन्दी भाषज्ञ सहज में समज सके, ऐसे ज्ञानदान के महा उपकार तल दवे हुआ हम आप के बड़े अभारी हैं.
संघकी तर्फ से. मुखदेव महाय ज्याला प्रसाद Rel
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आपका अमाल
ऋ
82
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ही
सहायक कुलमंडल
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और भी-सहायदाता
अपनी छत्ती ऋद्धि का त्याग कर हैद्राबाद सीकन्द्राबादमें दीक्षा धारक बाल ब्रह्मचारी पण्डित मुनि श्रीअमोलक ऋषिजीके शिष्यवर्य ज्ञानानंदी श्री देव ऋषिमी. वैय्यावृत्यी श्री राज ऋपिजी. तपस्थी श्री उदय ऋपिजी और विद्याविलासी श्री मोहन पिजी. इन चारों मुनिवरोंने गुरु आज्ञाका बहुमानसे स्वीकार कर आहार पानी आदि मुखोपचार का संयोग मिला. दो प्रहर का व्याख्यान, प्रसंगीसे वार्तालाप,कार्य दक्षता व समाधि भाव से सहाय दिया जिस से ही यह महा कार्य इतनी शीघ्रता से लेखक पूर्ण सके. इस लिये इस कार्य बरस उक्त मुनिवरों का भी बडा उपकार है.
पंजाब देश पापन करता पूज्य श्री सोहनलालजी, महात्मा श्री माधव मुनिजी, शतावधानी श्री रत्नचन्द्रजी.तपस्वीजी माणकचन्दजी.कवीवर श्री भमी ऋषिजी,सुवक्ता श्री दौलत ऋषिजी. पं. श्री नथमलजी.पं.श्री जोरावरमल जी. कविवर श्री नामचन्द्र नी.प्रवर्तिनी सतीजी श्री पार्वतीजी.गुणज्ञ. सतीजी श्री रंभाजी.धोराजी सर्वज्ञ भंडार, भीना सरवाळे कनीरामजी बहादरमलजी बाँठीया, लीबडी भंडार, कुचेरा भंडार, इत्यादिक की तरफ से शारों व सम्मति द्वारा इस कार्य को बहुत सहायता मिली है. इस लिये इन का भी बहुत स्पकार मानते हैं.
मुखदेव सहाय घाला प्रसाद
मुखदव सहाय ज्वालाप्रसाद
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आवश्यकीय सूचना
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BE शास्त्र-प्रकाशक
दक्षिण हैद्राबाद निवासी जौहरी वर्ग में श्रेष्ठ दृधः दानवीर राजा वहादुर लालाजी मात्र श्रो सुखदेव सहायजीपालापमादजी.
आपनेसाघुसेवा कार ज्ञानदान जनमहालाभके लोभी बन जैन साधयागीय धर्म के परम माननीय व परम आदरणीय बत्तीम शाहों को हिन्दी भाषानुवाद सहित छपाने को रु.२००००, का खर्च कर अघल्य देना स्वीकार किया और युरोप युद्धारंभ से मन वस्तु के भाव में वृद्धि होने से रु. ४०००० के खर्च में भी काम पूरा होनेका संभव नहीं होते भी आपने उसही उत्साह से कार्य को समाप्त कर सबको अमूल्य महालाम दिया, यह आप की उदास्ता सामागीयों की गौरख दर्शक व परमादरणीय है !
झोवाला (काठियावाड) निवासी मणीलाल शीवलाल जो शास्त्रोद्धार कार्यालय का मेनेजर था और जो शास्त्रोद्धार जैसे महा उपकारी और धामीक कार्य के हिसाब को संतोष जनक और विश्वाशनीय ढंग से नहीं समझा सकुने के सबब से हमको पूर्णा अविश्वाश हो गया और आपखुद घबरा कर बिना इजाजत एक दम चलागया इस लिये मो प्रेश अखबार और धार्मीक कार्य के लिये मणीलाल को देना चाहाथा को उसकी अप्रमाणिकता और घोठाला देखकर उस को मही देते हुवे आग्रा निवासी जैन पथप्रदर्शक मासिक के प्रसिद्ध कर्ता बबू पदम सिंघ जैनको धार्मिक कार्य निमित्त दिया गया है सर्व सज्जन उस अखबार से फायदा उठायें।
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ज्याला प्रशाद
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हैद्राबाद सिकन्द्राबाद जैन मंघRIES
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________________ ++ श्री प्रश्नव्याकरण मूत्र की प्रस्तावना. श्रीवईमानमानम्यःश्रीगुरूणां प्रसादतः॥प्रश्नव्याकरणांगस्य,वार्तिकं लिख्यतेमया॥ 1 // चौवीस तीर्थंकर श्री वर्द्धमानस्वामी को नमस्कार कर के. और श्री गुरु महाराजने दी हुई कप्रसादी के प्रसाद कर के इस प्रश्नव्याकरण शास्त्र का हिन्दीभाषानुवाद करता हुं // 1 // जिस प्रकार प्रश्नव्याकरण सूत्र का संक्षिप्त कथन समवायांग में कहा है. 1.8 प्रश्न अमन वशीकरणादिविद्या. अंगष्टादि प्रश्न इत्यादि के 45 उद्देश 45 समुद्देश इस वक्त उपलब्ध नहीं होते हैं. परंतु इस वक्त तो प्रश्नव्याकरण के दो श्रुतस्कन्ध आश्रवद्वार के पांव अध्ययनों मे पांचों आश्रवद्वार +का और दूसरे श्रुतस्कन्ध संवरद्वारके पांच अध्ययनमें दया आदि पांच संबरद्वारका बहुत विस्तारे के साथ में नर्णन किया है. इस की छपी हुई प्रत नहीं मिलने से हस्तलिखित तीन प्रतों मेरे पास थी उसपर पाठ का उतारा व अनुवाद किया है. धर्म और पाप का सत्य स्वरूप खुल्लमखुल्ला समझाने के लिये यह शाख मुख्य है. फिर भान एवडा की जैन सुधारक कम्पनी से बाबुधनपतसिंह के तरफ से प्रसिद्ध हुइ प्रत मिली उस पर से प्रूफ का सुधारा किया है. तद्यपि नो.अशुद्धी रहगइ हो उसे शुद्धकर पठन कीजीये. धर्म की परीक्षा के लिये यह मूत्र दुर्वीन रूप हैं. इस लिये इसे दत्तचित्त से भवस्यही पठन करना चाहिये. 4484 दशमांग प्रश्नव्याकरण विषयानुक्रमाणिका 488tist
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________________ प्रयोबक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिाजी + प्रश्रव्याकरण सूत्र की-विषयानुक्रमणिका प्रथम आश्रवहार . .. . द्वितीय संवरद्वार 1 हिंसा नामक प्रथम अध्ययन 1 1 हिंसा नामक प्रथम अध्ययन 131 12 मषा नामक द्वितीय अध्ययन 2. सत्यवचन नामक द्वीतीय अध्ययन 3 अदत्त नामक तृतीय अध्ययन 3 दत्तवत नामक ततीय अध्ययन 4 अब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन 7 | 4 ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन परिग्रह नामक पंचम अध्ययन 117 / 5 निष्परिग्रह नामक पंचम अध्ययन परम पुज्य श्री कहानजी ऋषि महाराज के सम्प्रदाय के बालब्रह्मचारी मुनि श्री अशेलकऋषिजी ने सीर्फ तीन वर्ष में 32 ही शास्त्रों का हिंदी भाषानुवाद किया, उन 32. ही शास्त्रों की 10001000 प्रतों को सीर्फ पांच ही वर्ष में छपवाकर दक्षिण हैद्राबाद निवासी राजा वहादुरलाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ने सब को अमूल्य लाभ दिया हैं ! प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी *
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________________ LLAGADG000.... . . . . . . . .LLLLL . CHESTESTIODERAPISORT IONASE MANTRIESnak XAXI DORIXEXERISEXIXERB HISSION लहsseREEEEEEEEEEEEEEEEEECHEE-CEC86862RECECE-EFERE-REFER-600-666666666107 - - 484 // दशमाङ:-प्रश्नव्याकरण-सूत्रम् // ॥प्रथम-आश्रवहार // है जंबू ! इणमो अण्हय संवर, विणिच्छियं पश्यणस्स निस्संदं // वोच्छामि णिच्छयत्थं, सुभासियत्थं महेसीहिं // 1 // पंचविहो पन्नत्तो जिणेहिं, इह अण्हओ अणादिओ। 1. श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के पांचवे गणधर श्री सुधर्मास्वामी अपने पाटवीय शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि अहो जम्बू ! अब में दशवा प्रश्नव्याकरण सूत्र कहूंगा. इस में जीव रूप तालाब में कर्मरूप पानी आने का आश्रवरूप मार्ग और उस आश्रव का रुंधन करने वाला संवर रूप प्रतिबंध कहा हुवा है. इसलिये तत्व का निर्णय करने को मैं यह शास्त्र कहता हूं. ऐमा शास्त्र श्री तीर्थकर देवने ज्ञान से जानकर प्ररूपा है. // 1 // श्री जिनेश्वर भगवानने कर्म आने के द्वाररूप आश्रय + के पांच भेद कहे हैं. वे पांचों प्रकार के आश्रव संसारी जीववत् भादिरहिन हैं परंतु भनेक प्रकार के 484 देशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम अश्रद र 1 ईसा नामक प्रथम अध्ययन 44
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________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख ऋषिजी+ हिंसा मांस मदत्तं अबंभ परिगह चैव // 2 // जारिसओं जं नामा, जय' को.. जारिस फलदिति॥जेविय करिति पावा, पाणवहं तं निसामेह // 3 // पाणवहो नामएम. निच्चं जिणहिं भणिओ पावो, चंडो,रुद्दो,खुद्दो. साहसिओ,अणारिओ,निग्घिणो णिस्संसो जीवों में किसी जीव की अपेक्षा अंत भी है. इन के नाम कहते हैं-, हिंसा आश्रव-एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवों का घात करे सो, 2 मृषा आश्रय-असत्य बोले सो, 3 अदत्त आश्रय-विना दी हुई किसी की वस्तु ग्रहण करे सो,४ अब्रह्म आश्रव-मैथुन सेवन करे सो और 5 परिग्रह आश्रव-द्रव्य रखे सो 5 अथम उसमें ममत्व करे सो॥२॥इन पांव आश्रवके पांच अध्ययन कहे हैं. जिस में के प्रथम अध्ययन में पांच द्वार कहे हैं. तद्यथा-१ पहिल द्वार में जैसा हिंसा का स्वरूप है सो कहना, 2 दूसरे द्वार में हिंसा के नाम, 3 तीसरे में जिस कारनसे हिंमा होती है सो 4 चौथे में हिंसाका जो फल होता है सो और 5 पांचवे में जो पापी पाणवध करते हैं सो. यो पांच प्रकार के द्वारवाला इस अध्ययन में आश्रन का स्वरूप कहता हूं सो मुनो // 3 // श्री जिनेश्वर भगवान ने इस प्राणवध को सदैव पापकारी अर्थात् पाप प्रकृति का बंधन करनेवाला, चंड-क्रोध का कारन, रौद्र-भयंकर, क्षुद्र-द्रोह कर्ता, साहसिक-सहमात्कार विना 1 यद्यपि सूत्र में अंत शब्द का प्रयोग नहीं है. तथापि जैसे संसारी जीवों का आदि अंत नहीं है वैसे यहां आश्रय आश्रिय नहीं जानना, परंतु आश्रव अभव्य की अपेक्षा अनादि अनंत है और भन्म की अपेक्षा अनादि सान्त भी होता है. प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी लाप्रसादजी.
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________________ 48 महभओ पइन्भओ,अतिभओ,बीहणओ,तामणओ,अणजो उधणउय, णिरयवयक्खो, निद्धम्मोणिप्पिवासो, णिक्कलणो, जिरयबासगमण निधणो मोह महभयपयट्टओ, मरण वेमणसो पढमं अहम्मदार॥१॥तस्सय इमाणि नामाणि गोणाणि हुंति तीसं तंजहा 1 पाणबह, 2 उम्मूलणा सरीराओ, 3 अवीसंभोहिं,४ सविहिंसा,५ तहा अकिच्चंच,६ घायणाय 7 मारणायवहणा 9 उदवणा१० तिवायणाय 11 आरंभ समारंभो 12 विचार से किया हुवा, अनार्य-म्लेच्छादिक से प्रवर्तीया, निम्घाण-निन्दा रहित, नृशंस-क्रूर, अथवा श्लाघा रहित, पहा भयकारी, प्रतिभय-अन्य को भयकर्ता, अतिभय-मारणांतिक भयकर्ता, बीहानक-जीवको Eर का स्थान, त्रास का स्थान, अन्यायकारी, उद्वेगकारी, परलोकादिक की अपेक्षा रहित, श्रुत ‘चारि आदि धर्म रहित, पिणासा स्नेह रहित, दया रहित, अंत में नरकावास में लेजानेवाला, मोह और महा भय में कर्ता, और प्राण त्याग रूप दीनपना का कर्ता कहा है. यह प्रथम अधर्म द्वार हुवा. अब इस के गुणनिष्पन्न तीस नाम होते हैं. तद्यथ -1 प्राण वय, एकेन्द्रिय के चार प्राण से पंचेन्द्रिय के दश प्राण तक माणों का नाश करना सो,२ शरीर से उन्मूलना अर्थात् जैसे वृक्ष जमीन में से नीकल जाता है वैसे ही शरीर में से जीव का नीकालना, 3 अविश्वासी. प्राणघात करने वाला अविश्वासी होता है, 4 जी का विषात, 6 अकरणीय-करने योग्य नहीं, 6 घात करना, 7 मारना, 9 प्राणों को उपद्रव करना, 10 मन वचन और काया से अर्थात् देव, आयुष्य और इन्द्रिय इन तीन से पटा ना . . दशम अ-प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम-आश्रवद्वार 48 हिंसा नामक प्रथम
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________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आउयक्कम्मस्तुबद्दवो भेय णिवणगालणाय सबगसंखेओ 12 मच्चु 13 असंजमो 14 कडग 15 महणं 16 बोरमणं 17 परभवसंकामकारओ 18 दुग्गतिप्पवाओ 19 पावकोबोअ२० पावलोभोय२१ छविच्छेदो, 22 जीवीयंतकरणो, 23 भयंकरो, 24 अणकरो, 25 वज्जो, 26 परितावण अण्हओ, 27 बिणासो, 28 निजवणो, 29 लुंपणा, 30 गुणाणं विराहणेति, अवियतस्स एवमादीणि णामधेजाणि होति तीसं // 2 // पाणवहस्स कलुसरस कडुयफल देसगाई // कृषि इत्यादि व्यापार अथवा जीवों को उपद्रव करना उम को परिताप करना सो आरंभ समारंभ 12 आयुष्य कर्म को उपद्रव करना, आयुष्य कर्म का भेद करना, आयुष्य का गालना E उस का संवर्त करना और संक्षेप करना, 13 मृत्यु 14 अमंयम 15 सेना से मर्दन करना, 16 प्राण में जीव का अंत करना,१७ परभव में गमन करना 18 दुर्गति में गिरना, १९पाप प्रकृतिका विस्तारक 20 पापलोभ सो पापकार्य लोभाना अथवा पापरूपलोभ, शरीर छेदन२२जीवितव्यका अतकरनेवाला २३भयो / करनेवाला२४ऋणकरने वाला२५ वज्रसमान वजनवाला२६परितापरूप पाश्रव२७प्राणीका विनाश२८जीब से 5. रहित करना२९ प्राणका छेदन करना३:प्राणियोंके गुण की विरधना अथवा चरित्रादिगुणकी विराधना. ये तीस नाम हिंमा कहे हैं. ये तीसही प्राण वधरूपकर्म यावत् कदुक फल देनेवाले हैं.॥२॥अब जिस कारनसे हिप्ताकरते / प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदरमहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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________________ देशमाङ्ग प्रश्नकाकरण सून-थ- श्रद्वार तंच पुण करंति केइपावा--असंजया, अविरया; आणिहुय परिणाम,दुःपयोगी, पाणवहं / / भयकर, बहुविह, * बहुप्पगारं, परदुक्खुप्पायणप्पसत्ता, इमेहिं तसथावरेहिं जीवहिं पडिनिविट्ठा // किंते पाठीण, तिमिति मंगल, अणेगझस, विविह 'जाति, मंडक्क दुविह कच्छभ, णक, मगर दुविह गाहदिलिवेढय, मंडुय, सीमागार,पुलय, सुसुमार, बहुप्पगा। जलयर विहाणाकएय एवमाइ // कुरंग, रुरु, सरभ, चमर, संबर, उरभ, ससय, पसय; गोण, रोहिय, हय, गय, खर, करभ, खग्ग, वानर, गवय; विग, सियाल, कोल, मज्जार, कोल, सुणग, सिरि, कंदलगावत्त कोकतिय, गोकण्ण सो कहते हैं. कोई पापी असंयति, अविरति, अनुपशांत परिणाम वाले, और मन वचन काया के दुष्ट योगों की प्रवृत्ति कराने वाले, यहा अनेक प्रकार के महा भयंकर प्राण वध करते हैं. अन्य जीव को दुःख देने में तत्पर रहते हैं,और इन त्रस स्थावर जीवों साथ स्वभाब से वैर रखने वाले कितनेक जीव हैं सोकहते मत्स्य, बडे मत्स्य, विविध प्रकार के मत्स्य, छोटे मत्स्य, दो प्रकार के मेंडक, काच्छवे, नक, मकर." दो प्रकार के ग्राहक, दिलिपेढक,मण्डूक,सीमाकार ग्राह, पुलक, सुसुमार यों अनेक प्रकारके जलचर जीवों जानना. *अब स्थलचर के नाम कहते हैं-मृग; अष्टापद, सरभ, चमरीगाय, सांबर, गाडर शशले, पशु, गोधा, रोहित, अश्व," गज,खर, करम, ऊंट, गेंडा, वंदर, गवय, अगालक, कोल्ला, मार्जार, सूअर, श्वान, श्रीकंदलक, आवर्त एक 418 हिंसा नामक प्रथम-अध्ययन 4.1
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________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनी श्री अमोख ऋषिजी + मिश, महिस, वियग्घ, छगल, दीविय, साण, तरत्थ, अच्छभल, सहल, सीह, चिल्लल, चउप्पयाविहाणाकए एवमादी // अयकर गोणसावराहि, माउलीका उंदर, दम्भ पुप्फाओ सालिय, महोरगोरग विहाणा कएय एव मादी // छोरल सरंग, सेहंसेल्लग, गोधूउदर, णउल, सरड, जाहड, मुंगुस, खाडहिला, चाउप्पइय, घरोलिय, सिरीसिव गणेय, एवमादी // कादं, वगबग, बलाका, सारस आचाडिसेतिय, कुलल, वंजुल, पारिप्पव, कीवसउण, दीविय, हंस, धत्तर?, चास, कुली कोस, कुंच, दग, तुंड, ढणियालग, सुईमुह, कविल, पिंगलक्खग, कारंड, खुर विशेष जीव, लोमडो, गोकर्ण, मृग, महिष, व्याघ्र, बकरा, दीपिका, कुत्तरा, तरछ, रीछ, शार्दुल सिंह, चिलल वगैरह चतष्पद जालना. अब उरपर के नाम कहते हैं। अहिसर्प, गोणसर्प, दृष्टि विषवाला सर्प, मकुलीक-फण विना का सर्प, काकोंदर, दीं पुष्पक, असालिया, महोरग इत्यादि अनेक प्रकार के उरपर, जानना. अब भुजपर के नाम कहते हैं-छोरल(गोलेरी) सरंग, गोड, च्हा, नकुल, सरड, जहाग, ताली, वातोत्पादक, विसंभरा, श्रीशिव वगैरह भुजपरिसर्प जानना. अब खचर के नाम कहते हैं- हंस, बगला, बतक, सारस, जलकूकडी, चील, पंजुल' पारील्ला, कोव, शकु,पोपी शब्द करनेवाला, श्वेत हंस, धनुराष्ट, मासक, क्रौंच, चदग, ठेणिया, भूचिमुख, पकाधक-सजाबहादुरळालामुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी अर्थ |
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________________ 41 दामाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार: चक्कवाय, उक्कोस, गरुल, पिंगल, सुय बरिहिण, मवणसाल, नंदीमुह, नंदीमाणग, कोरिंग, भिंगारग, कोणालग, जीवजीवक, तित्तिर, वग, लावग, कपिंजलक, कवोत, काग, पारेवय, चिडग, डिंक, कुक्कड, मेसर, मयूर, चउरग, हय पोंडरिय करक, चीरल्ल, सेण वायस विहंग भेणासिचास वगुल, चम्भट्ठि, लविततपंखी, खहचर विहाणा कएय एवमादी // जल थल खग चारिणोय पंचिंदिए पसूगणेय, विय तिय चउरिदिएप, विविह जीव पिय जीविए मरणदुक्ख पडिकूले, वराएहणंति बहुसंकिलिट्ठ कम्मा इमेहिं विविहेर्हि, कारणेहिं किं ते-चम्म, वसा, मंस, मेय, कपिल,पिंगलक, कारेड चक्रवाक, करूर, गरुड,पिंगल,शुक, मैना, मालुंकी, नंदीमुख, नंदीमानक,कारंक, भिगोरी, कालणा, जीव, जीवक, तीतर, बतक, लवा, कपिजल, जलध, कपोत, काग, पारापत, चकवा, ढेंक, मर्गे, मेसर. मपूर, चकोर, चामचिडी, और वितत पक्षी. यह खेचर जानना. यों जलचर, स्थलचर, उरपर, भजपर, खेचर,14 ऐसे ही द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरेन्द्रिय जीवों कि जिनको अपना जिवित प्रिय है उनको इन क्रूर कारना से हणते हैं. अब हिंसा करने के कारण बताते हैं. चमडी, चरबी, मांस, रुधिर, फेफसा, कपाल का भेजा, हृदय मांस, आंतरडे, पित्त दोष विशेष, शरीर के अवयव, दांत, हड्डी, हड्डी की भीजी, नाक, आँख है। 44MP हिसा-नामकथम अध्ययन
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________________ है. साणिय, जग, फिफित, मत्थुलिंग, * हिययंत; पित्त, फोफम, दंतहा; अद्विमिजा, नह. नयण, कण्ह, हारुणि, नकं, धमणि, सिंग, दाढि,पिच्छ,विस विमाण, बालहउ, हिंसतिय // भमर मधुकरि गणे रसेमुगिहा तहेव तेइदिए सरीरोगरणट्टयाए, बेइदिए बहवे वत्थाहर परिमंडणट्टयाए, अगणेहिय एव मादिएहिं बहूहि कारण सएहिं, अबूहा इह हिंसाततस पाणे // 3 // इमेय एगिदिए बहवे बराए तसेय अण्ण तदस्मिए चेव तणुसरीरे समारंभति अत्ताणे असरणे अणाहे, अबंध, कम्मीन गडबढे, अकुसल परिणाम मंदबुद्धि जण दुध्विजाणए // 4 // पुढविमए पुढविसंसिए * कान, स्नायु, नाडी, शृङ्ग, दांत, पांख, विष, विषाण और केश के लिये पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा करते हैं. रसगृद्ध पुरुषों भ्रमर व भ्रमरी के समुह मधु ( सहद ) के लिये मारते हैं, शरीर का कष्ट मीटाने के लिये खटमल इत्यादि मारते हैं. शरीर की विभषा के लिये रेशम - इत्यादि बनाने में द्वान्द्रिय जीवों का घात करते हैं, यों अज्ञानी जीव अनेक कारन से त्रस प्राणी की हिंसा करते हैं // 3 // और भी एकेन्द्रिय जीव के आश्रित बहुत बम जीव तथा त्रस आश्रित एकेन्द्रिय जीवों का घात करते हैं. ये जीव त्राण रहित हैं, अनाथ, स्वजन रहित हैं,कर्मरूप लोह शृंखल से बंधे हुवे अकुशल / 1 अध्यवसायवाले, ज्ञानबुद्धि और आश्रय रहित हैं ! // 4 // अब स्थावर कायादिक का आरंभ " 4. अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी - भकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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________________ 4 जलमए जलगए, अणलानिल तणवणस्सइगणे, निस्सिएय तम्मय, तज्जिए चेव तदाहारे तप्परिणत बण-गंध-रस-पास बोंदिरूवे, अचक्खूसे चक्खूसेय, तमकाइए, असंखेथाबरकाइएय,सुहुन,बायरं,पत्तेय सरीर नाम, साधारणेय,अणतेहणति.अविजाणओय परिजाणतोय जीवे // 5 // इमेहि विविहेहि कारणेहि // किं ते-करिसण, पोक्खरणी, वावी. वप्पिण, कूत्र, सर, तलाग, चिति, चेतिय, खातिय, आराम, विहार, धुंभ, पागार, 418+दशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम आश्रद्वार 420 हिमा नामक प्रथम अध्ययन बताते हैं-पृथ्वी काया के जीव तथा पृथ्वी काया की निश्राय में रहे हवे जीव, पानी के जीव तथा पानी की नेश्राय में रहे हुवे अन्य जीव, अग्नि जीव तथा अनिकाया की नेश्राय में रहे हुवे अन्य जीव, में वायु जीव, वायु की नेश्राय के जीव, वनस्पति जीव और वनस्पति की नेश्राय के जीव, उन के ही शरीरमय, उन ही से उत्पन्न हुवे, उनका ही आहार करनेवाले,उनका ही परिणामकाले, वर्ण,मंघ,रस और से उनके शरीर रूप, दृष्टि गोचर में नहीं आवे वैसे और दृष्टि गोचरमें आरे वैसे त्रसकाया, असंख्यात थार काया, बादर प्रत्येक शरीरी, और साधारण शरीरी को कितनेक जानकर मारते हैं और कितनेक बिना जान से भी मारते हैं. ॥५॥अब पृथ्वीकाया के आरंभका कारन बताते हैं. कृषि (खेती)आदि के लिये सरबावडी, कुवा, सरोवर, तलाव, मिति, चित्ता, वेदिका, अराम, स्थुभिका, प्राकार. द्वार, गोपुर, अहालक,
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________________ 21 दार, गोपुर, अट्टालग चरिय, सेतु, संकम, पासाय, विकप्प, भवग, घर, सरण, 'लंण, आवण, चेतिय, देवकुल, चित्तसभा, पवा, आयतण,अवसह,भूमिघर,मंडवाणय कए, भायण, भंडोवगरणस्स विविहस्सय अट्ठाए पुढविं हिंसंति, मंदबुद्धिया // 6 // जलंच-मजणय, पाण, भोयण, वत्थधोवण, सोयमादिएहि ॥७॥पयण, पयावणं, जलण जलावणं, विदंसणेहिय अगिणि||सुप्प वियण तालविंट,पेहुणमुह, करतल, सागपत्त, .. + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिनी / आठ हाथ प्रमाण द्वार का पंथ, पानी उतरने का भाग, (पूल) प्रासाद, विकल्प, भवन, घर, शयन, लपन, दुकान, प्रतिमा, देवालय, चित्रसभा, प्रपा, आयतन, परिव्राजक का निवास स्थान, भूमिगृह, मंडप, घटादि भाजन, और अन्य विविध प्रकार के कारनों से प्रेराए हुवे मंदबुद्धिवाले, पूर्व और तत्व के अज्ञान जीवों पृथ्वीकाया का आरंभ करते हैं. // 6 // पानी के आरंभ की कारन बताते हैं. स्नान के करने के लिये, पानी पीने के लिये, भोजन बनाने के लिये, वस्त्र धोने के लिये, और शुचि काम करने के लिये जीव पानी का आरंभ करते हैं. // 7 // अब अग्नि का समारंभ कहते हैं. धान्य पचाने के लिये, अन्य से पचवाने के लिये, दीपक जलाने और बुझाने से, अनिकाया का आरंभ करने हैं // 8 // अब वायुकाया का आरंप कहते हैं-सूप से झटकने से, पंखे से हवा डालने से, तालवृत से बीजने से प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायनी ज्वालामसादजी.
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________________ - 4.8 वत्थमादिएहिं अणिलं॥९॥अगार,पोस्यार, भक्ख, भोयण, सयणासण, फलग, मूसलं, उक्खल,तत वितत, तोज, वहण बाहण, मंडव, विविह, भवण, तोरण, विडंग, देवकुल, जालय, अडचंद, निज्जुहग, चंदसालिय, चेतिय, णिस्सेणि, दोणि, चंगेरी, खीला, मेढक, सभा, प्पवा, वसह, गंध, मल्लाणुलेवणं, अंबरजुयनंगल, मतिय, कुलिय, संदण, सीया, रह, सगड, जाण, जोग्ग, अट्टालग, चग्यि, दार, गोपुर, फलिहं,जंत, सूलिय, लउड, मुसंढि, सतग्धि, बहुप्पहरणा वरणवक्खाराणयकए, अण्णेहिय एव मादिएहि मयूर पीछादि से, ताली बजाने से, शोक वृक्ष के पत्र से और वस्त्र से वायुकाया का आरंभ होता है. // 9 // अब वनस्पतिकाया का आरंभ के हते हैं. घर बनाने में, खगादि शस्त्र के म्यान बनाने में, खाने के लिये भोजन तैयार करने में, पर्यकादि बनाने में, बाजोदि आसन बनाने में, फलक-पटिया बनाने में सूशल? 4 उखल बनाने में, तंत्री तारके बादित्र बनाने में, वितत पडहादि वादित्र बनाने में, तोज-फूककर बनाने के आदित्र में, कूट के बनाने के वादित्र में, वाहन,जहाज, शकटादि केलिये मंडप, विविध प्रकारके भवन,तोरण, पक्षियों के स्थान, देवालय, जालियों, अर्धचंद्र, वारसाख, चंद्रशाला, वेदिका, सीढी, नावा, घडी, चंगेरी / 17 खंटो, खंदे, सभा, प्रसा, इब्ने, माला, विलेपन, वस्त्र, रथ, . हल, शिविका, स्थ, संग्रमिकरथा / दशमांङ्ग प्रश्नव्याकरण मूत्र प्रयम-आश्रद्वार 48 हिया नामक प्रथम अध्ययन 4 4
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________________ 1 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + / 'बहुहि कारणसएहिं हिंसंति, ते तरुगणेय, भणिया अभणिएय, एवमादी, सत्तेसत्त, परिवजिए उवहणंति दढमूढा दारुणमती // 10 // कोहा, माणा,माया, लीभा,हासा,रती, 1. अरती, सोय, वेदत्थी, जीयकामत्थ, धम्महेउं, सवसा, अवसा, अट्ठा, अणट्ठा, तसेपाणे थावरेय हिंसति मंदबुढी // 11 // सनसाहणंति, अवसाहणंति, सवसाअवसा दुहतोहणंति, अट्ठाहगंति, अणटाहणंति अट्ठाअणट्ठा वुहाहणंति, हस्साहणति, वेराहणंति, रतियहणति, हासावेररतिहणति, कुद्धाहणंति लुद्धाहणति गाडे, अनेक प्रकारके गाडे, अट्टालक, नगरद्वार, गोपुर, यंत्र, शूली, लाट, यीआर, शतघ्नी( ताप )इत्यादि बनाने में और अन्य अनेक प्रकार के कारनों से मंद बुद्धि वाले पुरुष वृक्षों के समुह का घात करते हैं. // 10 // वे मंदबुद्धि वाले जीव क्रेध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, शोक, स्त्री पुरुष व नपुंसक इन तीनों वेद के लिये, जीवितव्य की कक्षा के लिये, धर्मनिमित्त, समवश परघश में अर्थ व अनर्थ से त्रम और स्थावर जीवों की हिंमा करते हैं // 11 // वे मंदबुद्धिवाले स्वरश से जीवों का घात करते हैं। परश से करते हैं. स्वपश और परवश दोनों प्रकार घात करने हैं. किसी प्रकार के प्रयोजनसे घात करते 1. बिना प्रपोजन निरर्थक घात करते हैं. अर्थ अथवा अनर्थ दोनों प्रकार से जीयों का घात करते हैं. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादी
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________________ मुद्धाहणंति कुद्धालुहामुद्धाहणति अत्थाहणंति, धम्माहणंति, कामाहणति अत्थाधम्मां कामा हणंति, // 12 // कयरे जे ते सोयरिया मच्छयधा, साउणिया, बाहा कूर, कम्मा वाउरिया दीविय बंधप्पउग, तपगलं जाल चीरलगाय, सडब्न, वग्गुरा, कूडीछेलिहत्था, हरियसाउणियाय, वीदंसगा, पासहत्था,वणचरगा, लुद्धगाय, महुघाय, पोतघाय, एणियारा, पएणिया। सर, दह, दीहिय, तडाग, पल्लग, परिगालण, मलण हास्य, से करता है, वैरमें करता है, रतिसे करता है, अथवा हास्य, वैर और गति तीनों मे धात करता है. क्रोध से घात करता है, लोभ से घान करता है, मोह-अज्ञान से घात करता है. क्रध, लोभ अथवा अज्ञान तीनों स घात करता है, अर्थ धनोपार्जन केलिये घात करता है. धनिमित्त घात करता है कामविषय निमित्त घात करता है, अर्थ धर्म और काम तीनों के लिये घात करता है, // 13 // य. शिष्य प्रश्न करता है कि प्राणियों की घात कौन 2 करता है ? उत्तर-मूअर से शिकार खेलनेवाले, पक्षियों को कज्य करनेवाले पारधि, मत्स्यादिक का वध करनेवाले धीवादि, कूकम, मांसादिक का आहार करनेवाले, पित्ते 4 आदि जीवों को प्रयोग से बंधन में डालनेवाले और त्रापा आदि पानी में डालकर जाल डालनेवाले जीवों 3की बात करते हैं. हिमा करने के लिये सींचाने आदि सीकारी पक्षियों का पालन करते हैं. लोह मय बंधन के उपकरण धारन करत हैं. कूट-पास रचकर पशु पक्षियों को भ्रपमें डालो, चाडालादि नीच जाति के नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्र द्वार 43 ++ ++हिसा नायक प्रथम अध्यय +13
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________________ - 18 सोत्तबंधणं, मलिलासय, सोमगा; वीसगरस्मय दायगा, उत्तणवल, दागिणिदय, पलीवगा, कुरकम्मकारी // इमेय बहवे मिलक्खू जाती किं ते-पक्का, जवणा, - संवर, वव्वर, कायमुरडाडु, भडग, भित्तिय, पक्किणिय, कुलक्खा गौड, सीहल, पारस, कोच, अंध, दविल, चिल्लल, पुलिंद, आरोस, डोव, पोक्काण, गंध, हारग,. बहलीय, जल्लारोमां, मास, बउस, मलयाय, चुचुयाय, चुलक, कोकणगामेय, पुरुष शिकारी प्राणियों का पोषण करके उनके मंयोग से जीवोंका विध्वंम कराते हैं. कूट गश डालनेवाले, वन में विचरनेवाले भिल्लादि, अर्थ के लोभी, मधु, शहत लेनेवाले, पक्षियों के बच्चों की घात करनेवाले, पशुओं को खींचनेवाले, घात के लिये पशुओं का पोषण करनेवाले, सरोवर, द्रह, तलाव, वाबडो, कुंड, छोटे जलस्थ न, इत्यादि जलस्थान को पानो रहित करनेवाले, पानी का मन्थन करनेवाले, मत्स्यादि की उत्पत्ति के लिये पानी की पाल बांधनेवाले, पानी का शोष करनेवाले, कालकूटादि विष से मारनेवाले,2, उत्पन्न हुए और बृद्धि पाये हुवे वृक्ष तृणादिक स्थान में दावानल लगानेगले, और निर्दयता से क्रूा कर्मी करनेगले घात करते हैं. हिमक-मच्छ जीवो के उत्पत्ति स्थान कहते हैं-१ शारदेश, 2 यान देश, ३मंबर देश,४ बर्बर देश.५ काय, 6 मुरड. 7 दुभटक, 8 तिनका, 9 कणिक. 10 कुरक्ष, 11 गौड,१२ मीहल, 1711.3 पारस, 14 क्रौंच 15 अंध, 16 द्रविड, 17 बिलरल, 18 पुलिद 19 आरोश, 20 रोब: मुनि श्री बयोलर ऋषिजी wamisamarinaamaaranaamaamananm काशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रमादजी / 4- अनुवादक-बाऊनमच
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________________ 4.18 44 देवाङ्गिप्रश्नकरण सुश-प्रथम-आश्रयद्वार: पल्हव,मालव,सहुर,आभासिय, अणक्ख चीण लासिय खसखासिय नेटर,मरहट्ठ,मुट्टिय, आरब डोबिलग कुहण केकय हणरोमग रुरु मरुग चिलाय विसय वासीय पात्रमाणा जलयर थलयर सणफ तोरग खहचर संडाणनोंडजीवोव घायाजीवासण्णीय असणिणोय पजत्ता अभलेस्तपरिणामाए ते अण्णेय एवमाइकरइ पाणाइवाय करणं पावापावाभिगमा - पावरुइ पाणबहं करयइ पाणवहरूवाणुट्टाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुटा पावं करिओ . 21 पोकण, 22 गंध, 23 हारग, 24 वाहलिक, 25 जल्ल, 26 रोप, 27 मोष, 28 बकुश, 29 मलय, 30 चूचक 31 चूलिक, 32 कोकन, 33 मेद, 34 पल्लव, 35 मालव, 36 मटा, 37 आमासिक 38 खख 39 सिंक, 40 नष्टर, 41 महाराष्ट्र, 42 मौष्टिक, 43 आरब, 44 डेबिलग, 45 अहण, 146 के कय, 47 परोप, 48 रुरु, 41 मरुक और 50 चिलात. इत्यादि अनार्य देश में उत्पन्न होनेवाल पापिष्ट वुद्धिवाले जीवों घात करते हैं. और भी जचर, स्थलचर, सण्डपद, नखवाले, उरपरिसर्प, खेचर, मंडामी जैसे मुखवाले, जीवों की घात से ही आजीविका करनेवाले, ऐमे, संज्ञी, असंझी, पर्याप्त अपर्याप्त अशुभ लेश्या व परिणामवाले वगैरह अनेक प्रकार के प्राणवध करते हैं. वे जीवों पापी, पाप में 1o आनंद माननेवाले, पाप में रुचिवाले, पापकारी कार्य में रनिवाले, पाणवध रूप अनुष्टानबाडे, प्राणघ रूप समा में रमण करनेवाले पाप कार्य में संतुष्ट रहते हैं // 13 // पाप के फल भविष्यत् को भोगने + हिमा नायक थप अध्ययन Hin /
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________________ होतय बहुप्पगार तस्सयपावरस फलबिवागं अयाणमाणा वड्रंति महन्भयं अविस्सामवैयणं दीहकालं, बहुदुक्ख संकडं नरगतिरिक्खजाणिइओ आउक्खएच्या अनुभ कम्म बहुला है उववजात // नरएस हुलिय महालएसु वयरामय कुडुरुदनि रसंधिवारं विरहिय निमद्दव भूमितल खरामसाविसम, निरयघरचारएसु महोसिण सयए तत्त दुग्गंधविस्स उव्वेयण गंमु, विभत्थ दरिसणिजेसु, णिचहिमपडल मीयलेसुय, कालाभाससुय भीमगंभीर र HE पडेंगे मो कहते हैं-अज्ञान बनकर जीवों पाप में प्रवृत्ति करते हैं. परंतु अज्ञानपने में किया हुवा पाप का फल भी / आश्यमेव भोगना होता है. ऐमा पाप भविष्यत् में महा भय का उत्पादक होगा, दर्घ काल पर्यंत अनेक प्रहारकी नरक तिर्य व योनिमें विश्राम रहित निरंतर अमाता वेदनीयका अनुभव करावेगा, हिपक यांस आयुष्य पूर्ण करके नरकमें जिस प्रकारका दःख भोगदेंगे सो कहते हैं. वहां नरक क्षेत्र और क्षेत्र में बड है. वहां वज्रान की भित्ति विस्तीर्ण और मधि रहित है, कठोर भूमित ल है. कर्कश स्पर्श है, विषम-ऊंचा नीचा स्थान है, वहां चारक गो जैसे उत्सात्त के स्थान वहां भित्त के कार के भाग में नैरपिक के उत्पत्ति स्थान रूप बिल हैं. वे सदैव ऊष्ण, तप्त, अशभ दधिमय, अवश्य चिंता उत्पन्न करनेवाले, बीभत्स, अरनोज्ञ दर्शनाय, सदैव हिम के पडल जैम शीतल + स्थान हैं. वे स्थान कृष्ण वर्णवाले, काली क्रांतिवाले, + जहां शीत है वहां अत्यंत शीत हे और जहां ऊष्णता है वहां अत्यंत ऊष्णता है. मुनि श्री अमालकं ऋषिजी 4. अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि / प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुरुदर महायज! चालाप्रसादजी
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________________ म लोमहरिसणेसु गिरभिरामे मु, निप्पडियार बाहिरोग जरापिलिए मु, अईवणिचंधयार तमिसेसु पतिभएसु वगए गहचंदसरणखत्त जोइसेसु, मेय वसामंस पडल पुच्चड पूइ रुधिर रुक्किण विलीण चिक्कणरसिया वावण्ण कुहिय चिक्खल कदमेसु, कुकुला नलपलित जालमुम्मुर असिखर करवतधारासु निसित विच्छुयदंडकं णिवातोवम्म, फारस, अतिदुस्सहेसु अताणा असरणा कडुयदुक्खपरितावणेमु, अणुबंध रौद्र, भयंकर, महागंभीर, देखने से ही रोम खडे होवे वैसे, अदर्शनीय और उत्पन्न हुए पीछे पूर्ण स्थिति में भोगरे विना नहीं नीकल सके वैसे हैं. वहां के जीव सदैव ब्याधि रोग व वृद्धावस्था मे पीडित रहते हैं. वहां 5 के स्थान संदेव अंधकार होने से तिमिस्रगुफा समान चारो ओर भयंकर ओचाट उत्पन्न करनेवाले हैं. वहां नरक में द्र, मर्य, गृह नक्षत्र व तारा वगैरह ज्योतिषी नहीं हैं. नरक स्थान मेंद, चरबी, मांस इत्यादि समुह से 12 पारपूर्ण है, आम रूधिर इस से मीश्रित है. दुगंछावाले अत्यंत चिक्कने 'रस से व्याप्त हैं. सडा हुवा, बिगडकर विद्रूप दधिमय कर्दम बहा रहा हुवा है. वहां नरक में कुंभार की भट्टी जैसी जाज्वल्यमान अनि नथा भोमर रूप (राव से ढकी हुई) अग्नि है. वहां वैक्रय किये खड्ग, छूरा, करवत इत्यादि शस्त्र अती ही तीक्ष्ण हैं, दृच्छिककी पूंछ जैसा वक्र और विषमय कंटक समान है. संडासादि शास्त्र से खींचकर नैरयिकोंको नीचे पटकते हैं. उन को नरक का स्पर्श अति दुःसह होताहै,उन का कोई त्राण शरण दुःख निवारक नहीं है,अत्यंत दुःखपद ...परितापाले पूकृित कर्म प्राप्त होने से निरंतर वेदना भोगते हुवे रहते हैं. वहां परमाधर्मी देव परिताप उत्पन्न रण सूत्र-प्रथम अश्रद्वार * दशम ङ्ग-पना हिला नामक प्रथम अध्ययन,H
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________________ *पकाइक-वहादुरशाला अनुपदक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी णिरंतर वेदणेसुः जमपरिससंकुलेसु. तत्थय अंतीमुहुत्त लद्धि भवपच्चएण निबत्तीतिय / ते सरीरं हुंड बिभत्थ दरिमाणिजं बीहणगं, . अटिहारुणह गमवज्जियं, असुभग दुक्खविपहंति तत्तीय पजत्ति मुरगता इंदिएहि पंचहि वेदेति असुभाए वेदणाए उज्जलं बलविउल तिउल उक्कड खरफरस पयडधीरे बीहणग दारुणाए।१४। किं ते कंदु महाकुंभिकरते हैं. + वे अनेक प्रकार के विकराल रूप बनाते हैं, वैसे ही शस्त्र कुशस्त्र का वैक्रेय बनाकर विविध प्रकार के दःख देते हैं. इससे व नैरयिक अती अ.कुल, व्याकल हो रहे हैं. नरक में उत्पन्न हुए पीछे अंतर्मुहर में उन का केवल की प्राप्ति होती है इस में वे अपना शरीर बनाते हैं. वे शरीर हुंडक. संस्थानवाले होने हैं. बीभत्म दुगंछा उत्पन्न करे वैमे होते हैं. उन को स्वतः को ही भयंकर दीखते हैं. उन में हड्डी, स्नायु, माडियों जाल वगैरह कच्छ भी नहीं है, अशुभ दुःख सहन करने में शक्तिवंत होते हैं, वहां आहारादि पांचों पर्याप्त पूर्ण बांध पीछे वहां के दुःखों का अनुभव पूर्णपने करते हैं. जैसी वहां की अशुष उनल, वेदना होती है वह कहते हैं. उस नरककी जमीनका उत्कृष्ट खरखरा अग्नि समान तप्त दुःख दायक. पांच के सार्श मात्र से मस्तक पर्यंत वेदना होवे वैसा (बिच्छु के सपान.) स्पर्श है. एसी घोर दारुण वेदना वहां के जाच अनुभमने हैं, यहां के जीव तो वहां तत्काल ही मृत्यु प्राप्त हो जावे एमा विषम स्थान है. // 14 // + तीन नरक पर्यंत परमाधर्मी देव जाते हैं, हायची बाजपमादजी*
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________________ + पयण, पउलण, तवग तलण, भट्ठभजणाणिय लोहकडाहं कढणाणिय, कोट्टबलिकरण कोणाणिय सामलि तिक्खग्ग लोह कटक अभिसरण पसारणाणि,फालण विदालणाणिय अवकोडग बधणाणि,लट्ठिसय तालगाणिय,गलग बलुल्लवणाणिय, मूलग्गभय णाणिय, आयस पवंचणाणिय, खिसणविमाण णाणिय विघुट पणिज्जणाणिय, वज्झसय मांतिकाणिय एवं ते पुवकम्मकय संचउववताणिरयग्गि महग्गि संपलिता गाढ दुक्खं, महन्भयं कक्कसं. शिष्य प्रश्न करता है कि वहां के जीव कैसी वेदना का अनुभव करते हैं ? उत्तर-वहां ले.हपय कुंमी ऊँटकी गरदन, तिजार के डेडे, सीदड, और डब्बे जैसी हैं इन में रयिक जीवों को चावल जैसे पचावे Ft. शाक मे गंधते हैं, कडाइ में तलते हैं, भट्टा में भूनते हैं. तिल की तरह घाणी में पीलते हैं, मुद्गर से कूटने हैं, शिलापर पछाड़ते हैं, शाल्मली वृक्ष नीचे बैठाकर लोहमय कंटक जैसे पत्र से छेदन करते हैं, लोहमय केट की लता से भेदकर इधर उधर खींचते हैं, कुहाडे से लक्कड जैसे फोडते हैं, चक्की में दाने का तरह पीमने हैं, हाथ पांव ग्रीवा सब एकत्रित कर बंधते हैं, लकार्ड के सेंकडों प्रहार से कूटते हैं, चाबूक कोरड मे ताडन करते हैं, क्षार में मालते हैं बलात्कार से शरीर विलूरते हैं, वृक्षपर उलटे लटकाते . शूली में परोते हैं. वहां के यमदेव ऐसा कहते हैं कि तुमने शास्त्र के अर्थ विपरीत करके लोगों को ठगे, अश्वा लोगों को उलटा मार्ग बतलाया, ऐमा काकर उन की जिव्हा का छेदन करते हैं, और प्रश्नव्याकरण मूत्र-प्रथम-अश्रद्वार 48 was हिंसा नापक प्रथम अध्ययन .दश 4 w +8+. .
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________________ श्री अमानक ऋपनी असायं सारीरं माणमंचतिव्वं दुविहं वेए बेयणं पावकम्मकारी बहूणि पलिओवम सागरोवमाणि कलुगं पालेति ते अहाउयं जमकाति,तासिताय सदकोति भीया, किंते आविभव सामिभायवप्पताय जियवं मुयमे मरामि,दुबलो बाहिपीलितोहं किंदाणिसि, एवं दारुणो णिद्दओय मादेहिमि पहारे उस्मासेत मुहत्तगं मेदेहि, पसायं करेह, मारुसविसमामि गेविज मुयमेमरामि गाढं : // तपहाइउ अहं देहिपाणियंता हापियइ. मंजल विमल लोहमय कंटकवाल पथ में चलाते हैं, अर पापिन् ! यह तेरे स्वयं कन कर्म हैं इस से इसे अवश्यमेव भोगना होगा, यों कहकर उन को बिछुड़ते हैं, चैर की तरह भाप में खड़ाकर गाडते हैं, नरक की महान अग्निमें वे जलते हैं, अत्यंत गाढा प्रहार सहत हैं, तद्रूप बदना है. वह वेदना वेदते महाभयको उत्पादक, कश कठि ; अमाता वेदनीय कप के उदय रूप नथा. शारीरिक और मानसिक यथोचित बंध अनुसार भोगते हुन / रहते हैं, उन को ऐमी दुःसह वेदना पापकर्म से उदय से आइ हुई है. बहुत पल्योपम तथा सागरोपम पर्यंत इस प्रकार दुःख भोगत ही रहते हैं, वे परमाधर्षी म त्राम पाये हुए आर्त स्वर में आनंद करते हुवे और भय भ्रान्त वन हुए चिल्लाते हैं, कि अहो शक्तिपान ! स्वापिन् ! भ्रात, तात् ! तुम जयवंत रहो : मैं मर रहा हूं मुझे छोड दा, मैं दुल हू, व्याधि से पंडित बना हुवा हूँ थोडी देर के लिये तो मुझे छोडो, यो दारुण रौद्र स्वर सचिल्लते हैं, अरेरे मुझे तो मारो, अहो थोडो दर ठर, मुझ वाम लन दो विश्राम लेने दो मुहूई मात्र काशक-राजाबहादुरलाला मुखदवसहायजी भाडामाजा. 4अनुवादक-सलमा
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________________ - 44 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकाण सूत्र-प्रथम आश्रद्वार सीयलंति,वित्तूणय नरय पालातवियं तउयंसेदेति, कलसणं अंजलि, सुदंडगय त पदेसियं गमगा असुयपगल तपप्पुतत्था, च्छिण्णा तण्हाइयम्हे कलुणाणि जंग्मागा विप्पक्ख ना दिसोदिसिं,अताणा असरणा अणाहा अबंधवा बधुविप्पहुणा, विपलायतिय, मियाव वेगणं भयउध्विया घेत्तूणय बलापलायमाणाणं, मिरणकप महं विहांडत्तु लोहडंड हे कलकलणं वयणसि छुब्भति केइ जम्मकाइया हसंता // तेणय दज्झा संते रसंतिय अरे, इतनी मरे पर दया करो, मरे जैसे दीनपर कोप मत करो, मेरे श्व से का कंचन होता है, थोडीदेर के लिये छड दा, मैं मर रहा हूं में बड़ा दुःखी हूं और भी नरक के दुःख कहत मझं प्यास लग रही है. मुझे पानी पिलावो. ऐमा जब वे बोलने हैं तब वे यमदव कहते कि यह निर्मन शीतल पानी ले यों कह कर तप्त किया हुवा व अग्नि से गाला हुवा मांस का रम उम की अंजली में डालते हैं, वे पानी के भ्रम से उसे लेते है, परंतु जाजल्यमान मीसे का रम देखते ही भयभीत बनजाते हैं. सब अंगोपांग धूजने लगते हैं, आंखों से अश्रु झरते हैं और कहते हैं कि मुझे अब नषा नहीं है. मुझ पानी नहीं गेना है, यों करुणा जनक विलाप करता हुवा दशादिशि में भगना रहना है. वहां उभे दुःख से छोडानेवाला कोई नहीं है. वह अनाथ अशरण बनकर विशेष भगता है, जैसे सिंह को देखकर भयभीत बना हुवा मृग वन में भगता है इस प्रकार भंगते हुए को वे यम + हिना नामक प्रथगन HPP 41 !
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________________ है अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी. भीमाइं विस्सराई रोवंतिय कलुणगाइ पारेवयगाव एवं पलिवित विलाव कलणो कंदिय बह- .: / रुन्नरुदिय महोपरिदेवि निरयपाल रुदिय सोपरिदेवि तरुद्धबद्धकारवसंकुलो,णिसट्टारसिय भणिय कवियउकवितणिरयपाल तज्जियगिह कमप्पहाछिदभिंद उप्पाडेह उक्खिणाहिर * काहि विकताहिय भुजोभुजोहण विहण वित्थु भोत्थुव, आकविकटु // किंणजपेसि ... बलात्कारसे पकडते हैं. निर्दयी बनकर लोहदंडसे उसका मुख फ.डकर कलकलाट करता (उकलता) ऊष्ण सीसे का रस उस के मुखमें डालते हैं. वह नैरयिक ऐसा अत्यंत दुःख से वासित बनकर बिलाप करता है तब परमाध िहमत हैं, चिडाते हैं. सीसे के ऊष्ण रम से प्रज्वलित बने हुए नैरयिक जीव करुणाजनक स्वरमा रुदन करते हैं और घायल हुए कब्तर जैसे तडफडते हैं. गों आलाप विलाप व दयाजनक आक्रंद करते हैं सब निर्दयी परमा उन की तर्जना, ताडना करते हैं, अति भयंकर शब्द से उन को त्रास उत्पन्न करते है. इस तरह दुःख से पीडित व आकुल व्याकुल बने हुने नैरयिक में से कितनेक का व्यक्त वचन और कितनेक का अध्यक्त वचन मुनकर वे परमाधर्मा पुनः कुपित होते हैं और लकडी आदि के प्रहार बड जोर से करते हैं. स्वग में छेदन करते हैं, भाले से भेदते हैं, चक्षुओं वाहिर नीकाल देते हैं, बांह प्रमुख उपाङ्ग काटते हैं, कृत विकृत करते हैं, पुनः मारते हैं, विशेष प्रकार से गलात्थादेकर का 7 मुक्की लगकर निकालते हैं, फीर खीचकर लाते हैं, उने उठाते हैं, नीच षटकते हैं, और कहते हैं कि काशक-राजाबहादुर लालाखदेवसहायना बाळाप्रसादजी.
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________________ ++ दशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण मूत्र प्रयम अश्रवद्वार RA समराहि पावकम्माइ दुक्कताई एवं वयण महप्पगम्भो,पडिसुया सहसंकुलो तासओसया णिरयगोयराणं,महाणगर डझमाण सरिसो णिग्योसो सुच्चए अणिट्ठो तहियं मेरइयाणं जातिजं साणं जातणाहि॥१५॥कि ते असिवण दम्भवण जंतपत्थरसूईतल क्खारवावि कलकलित्त वेयरणिकलंब वालुया जलियगृह निरंभणं उसिणोसिण कंटइल, दुग्गम रहजोयण तत्तलोहवह गमण वाहणाणि // इमेहि विविहहिं आयुहेहिं किं ते मोग्गर अरे दुष्ट तू यह वचन किम को मुनाता है ? तू तेरे पापकर्म के प्रभाव से ही दुःखित होता है. तैने कैसे कर्म / किये हैं उस का स्मरण कर, इस तरह उन के पूर्वकृत कमों का स्मरण कराते हैं, कृतं कर्म कह सुनाते हैं। अरे दुष्ट ! तू अकृत्य करन बाला है ऐमा कहकर उम की निर्भमना करते है. इस प्रकार नैरायिको के दीन वचन से और पग्माधर्षी के तर्जनाकारी वचन से नरक में मदैव में हाहाकर पचता है. वह हाहा कार ही महात्रास करनेवाला है. यथा दृष्टान्त-जैसे किमी नगर में चारों और दाव लगने से वहां रहे, हुए मनुष्य का कोलाहल शब्द होता है वैस नरक में सदैव कोलाहल मचा रहता है. यह अत्यंत अनिष्ट होना है. इस प्रकार के शब्द नरक में सुनाई देते हैं // 15 // वहां नरक में खड्ग समान वन हैं. इम में प्रवेश करने से ही नैरमिक पीलाते हैं, उन के शरीर के खण्ड खण्ड हो जाते हैं, मूह के अग्र जैसा तीक्ष्ण . बन है. तेजाप अथवा क्षार आदि की मरी हुई वावडियों हैं. इसमें प्रवेश करते ही नैरयिक मल जाते हैं.' comwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww 41448+ हिमानायक प्रथम अध्ययन 41+
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________________ 4. अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषी ममंढिकर कयसचिहलगय मुमल धक्ककुल तोमर मूल लउडभिडिमलि सव्वल पट्टिस चम्मिट्ठ दुहण मुट्ठिय असिखेडग खग्ग चाव नाराय कृणग कप्पिणि वासि पर मुटक तिक्ख निम्मल अण्णेहिं एव मादिएहिं असुभेहि बेउविएहिं पहरणसतेहिं, .. अणुबंघतिव्ववेरा परोप्पर वेयणंउदीरति अभिइणं, तत्यमोग्गर पहार चुणिय मुसंढि संभगमहियदेवा, जंतोपीलण फुरंत कपिय केइत्थ सचम्मकाविगत्ता जिम्मूलु वैतरणी नदी है, कलंबुक पुष्प समान नप्त बलु के वन हैं, इममें प्रवेश करने से ही नरयिक भुंजा जाते हैं. ब मरोटे-गोखरु के वन, तीक्ष्ण कंटक क वन, ऐसे बन हैं. वहां पर तप्त किया हुवा लोहमय रथ में नैरयिकों को जोतकर तप्त किये हुवे विषप मार्ग में चलाते हैं. और जिम प्रकार शस्त्र से दुःख देते हैं सो कहते हैं अब शिष्य प्रश्न करता है कि तिमरी नरक नीचे कैसा शस्त्र है. उत्तर-पुद्गल, करवन, त्रिशूल, गंदा, शिल, चक्र, भाला, बाण, शूल, लकडी, भिंडपाल, पट्टा, चिपट', दुधारी, गुप्त, पोगर मुष्टि प्रमाण, तरवार, खड, धतष्य, तीर करना, कतरणी. वसोला, फामी, कुहाडी, यमब अतीव तीक्ष्ण निर्मल भलभलाट करते हुए अनेक प्रकार के खरात्र शस्त्र का वैक्रेय बनाकर और उससे सज्ज बनकर पूर्व भव के तीन और भाव मे उस्केराये हुए नैरयिक सन्मुख बनकर पहनी वेदना की उदीरना करते हैं. एकेक को मारते हैं, एक के प्रभार से मस्तक फल जैसे तूटा हैं, और जैसे बढाइ लकडा तरासता है वैसे ही उन के अंगो प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनो कालाप्रमाद जी
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________________ ल्लुण कण्णोः नासिका छिन्नहत्थपादा, असिकरकय तिक्ख कुंत परसुप्पहार फालिय वामीसं तच्छितं गमंगा कल 2 क्खारपरिसित्त गाढडझंतगंत्ता, कुंतग्गभिन्नजजरिय सम्बदेहा, विलालंति महीतले विमुणि अंगमंगा, तत्थय विगसूणग सियाल काकमज्जार सरभ दीविय विग्घ सद्दलसीह दप्पियसु खुहा अभिभूतेहि, णिचकालमणसिएहिं किं घोरा रसमाण भीमरूबेहि, अक्कमित्ता दढदाढा गाढडक कड्डियसुतिक्ख नहफालिय उद्धदेहा वित्थिप्पते समंतओ विमुक्त संधिबधणा वियं 4.Hदशमान प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम-आश्राधार 420 पांग छदित करते हैं. उस पर अत्यंत ऊष्ण क्षार जैसा पानी का सिंचन करते हैं. इस दःख में वे अत्यंत दुःखित होते हैं. उन के शरीर में ज्वाला होती है. भाला के अग्र से शरीर भेदाने से संपूर्ण शरीर छिद्र-2 मय बन जाता है. वे दीन नैरयिक भूमिपर पंडकर जरित होते हैं और उन के सब अंगोपाग में रुघिर. नकलता है. वहां नरक में चित्ता, श्वान, शगाल, काक, बिल्ली, अपारद चित्रा. व्याघ्र, बादलसिंह मदोन्मच और क्षधा से पीडित भोजन में सदैव रहित घोर रैद्र क्रिया करनेवाले, विक्राल रूप बनानेवाले पशु अपने पांव में उन के शरीर लेकर दृढ , तीक्ष्ण दादों से काटते हैं, अति तीक्ष्ण नखों से शरीर है फाडते हैं, शरीर का चर्म उदीरते हैं, शरीर को दशदिशी में विखेरते हैं. उन के शरीर के बन्धन इस से है. शिथिल होजाते हैं. वे शरीर और बुद्धि से विकल बन जाते हैं. वैसे शरीर को कार दंक, गृद्ध, सायली, -440 मिनायव प्रवर अध्यन HAPA र शारद, चित्रा, व्याध जन सदैव रहित पशु अपने पांव
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________________ PPS गमंगा कंककुररगिद्ध घोरकटुवायसगणेहिय पुणोखरथिर दढणखलोह तुंडहि / उवतित्ता, पक्खाहय तिक्खणह, विक्खित्त जिभिदिय णयण निदयो भुग्ग विगय वयणा उक्कोसंताय उप्पयंता, निपयंता भमंत पुव्यकम्मादयोवगता, पत्थाणुसरण डज्झमाणा जिंदता पुरेकडाइ कम्माइ पावगाइ तहिं 2 तारिसाणि उसन्नचिक्कणाई दुक्खाई अणुभवित्ता // 16 // ततोय आउक्खएणं उबटिया समाणा बहवे गच्छंति अनुवादक-शका ह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रोधक, महावायस वगैरह पक्षी अपनी तीक्ष्ण चांच से टोचकर दृढ नखों मे और लोहमय मुख मे आकाश में, उछल कर पांरकों फडफडाते हुवे, तीक्ष्ण नख से कुचरकर चमडी नीकालते हुए, और मांसादि तोडकर मुख में से जिव्हा निकाल कर और आंखों फोडकर खाजाते हैं. इस प्रकार दुःख से आकुल व्याकुल बन हो नरक जीव भट्टी में के चने जैसे ऊंचे उछलते हैं, फीर नीचे गीरते हैं और इधर उधर परिभ्रमण करते. हैं. पूर्व कर्मोदय से उन के चित्त में जलन होने से अपने पूर्व कृतकों की निंदा करते हैं कि मैंने बहुत बुरा किया. यों पाप का पश्चाताप करते हैं. इस तरह रत्नप्रभादि नरक में उक्त प्रकार के प्राणातिपात रूप में पाप का आचरण कर और उस से चिक्कने कर्म का बंध कर परमाध कृत तथा परस्पर कृत और क्षेत्र जन्य वेदना से अती है। पीडित बनकर पाप के फल अनुभवते है. // 16 // आयुष्य पूर्ण हुए पीछे यहां प्रकाशक-राजारहादूर कालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजा *
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________________ - 44.8 27 तिरियवसहिं दुक्खत्ताणंसु दारुणं जम्मण मरणजया वाहि परियणारहट्ठ; जल थल / खहचर, परोप्पर विहिंसणपवंच. इमच जगपागडं वरागा दुक्खं पावलि. दीहकाल किं ते सीअ उण्ह तण्ह खुहवेयण अप्पडीकार अडविजम्मणं, णिच्च भउविग्गवास जगाण वध बंधग तालण कण्ण निवायण अद्विभंजण नासाभदप्पहार दमण छविछेयण अभिउगपारण कसं कुसार निवाय दमणाणि वाहणाणिय मायपिय विप्पउग सोय परिपीलणाणिय, सत्यग्गि विसाभिघात गलगवलावलणमारणाणिय से नीकल कर बहुत जीव तिर्यंच योनि में आते हैं. वहां भी महा दुःख पाते हैं जिस का स्वरूप कहते हैं. इस में जन्म मरण का दुःख बडा ही दारुण है इस में अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी पर्यंत अरहघटिका iवत् जन्म मरण व्याधि वेदना वगैरह अनेक प्रकार के दुःख पाते हैं. जलचर, स्थलचर व खचरपने परस्पर अनेक प्रकार की हिंसा करते हैं. और भी जैसे आगे कहेंगे वैसे वे दीन जीव दीर्घ काल पर्यंत दुःख प्राप्त करते हैं. शिष्य प्रश्न करता है कि तिर्यंच में कैमा दुःख है ? गुरु उत्तर देते हैं कि वहां परवशपने शीत, ऊष्ण, क्षुधा वेदना, रोगोपचार, अटवि में घूमना, और वहां ही जन्म लेना, सदैव उद्वेग केयुक्त रहना, जगते रहना, मार खाना, बंध। में पडना, पिंजर में बंध होना, अपने यूथ का वियोग होना, 420 देशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रद्वार हिसा नामक प्रथम अध्ययन 48.8+ -
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________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + गलजालुच्छिपणाणि पालणविकप्पणाणिय जावजीवंग बंधणाणि पंजर निरोहणाणिय सह निडाडणाणिय, धम्माणि दोहणाणिय कुदंडगल बंधणाणि, वाडेपरिचारणाणिय पंकजलनिमजणाणिय, बारिप्पवेसणाणिय, उवार्यानभग विसमणि बडण, दवग्गिजाल दहणाई एवं ते दुक्खसय संपलित्ता नरगाउ आगया इह - साव सेसकम्मा तिरिक्ख पचिदिएसु पावंति पावकारी कम्माणि, पमायराग दोस बहुसंचियाई. अंतीव अस्साए ककसाइं // 17 // भमरममग मात्थंकादिएसुय, आनि आदि में धमाना, गर्भ ग्रहण निमित्त रुधिरादि नीकालना, गले में बंधन डालना, वाडे में पूर कर रखना, बहुत काल पर्यंत एक स्थान रहना, रुका रहना, इच्छानुसार खान पान रहित, कीचड में धूचना. पानी में डूब जाना, आग्नि में तपाना, धूप में तपना, खदानों में उतरना, विषम पहाडपर चडना, दवान में जलना, डाम देकर जलाना. यो सेंकडों दुःख तिर्यंच योनि में हैं. नरक के दुःख से नीकल कर यहां पुनः दुःख में पड़ता है. तिर्यंच पंचेन्द्रिय में पापकृत कर्मों से वैसे ही प्रमाद और रागद्वेष से बहुत कर्मों का संचय कर अत्यंत अमाता कर्कश वेदना तिर्यंच भोगते हैं + // 17 // चतुरेन्द्रिय में भ्रमर, मच्छर, * काश्क-राजाबहादुर लाला मुखदरमहायजी ज्वाळापस दना * + जलचर के 12 // लाख कोड, स्थलचर के 10 लाख क्रोड, खेचर के 12 लाख क्रोड, उरपर के लाख क्रोड और भुजपर के 9 लाख कोड कुल हैं.
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________________ REG जाति कुल कोडि सयमहस्सेहिणवहि चउगिदियाणं तहिं 2 चेव जमण मरणाणि अणुभवता कालं संखेज्जगं भमंति, नेग्इय ममाणा तिव्वदुक्खा फरिस रसघाणचक्ख सहिया // 18 // तहेव तेइंदिएम कुंथ पिपीलिगा अवहिकाइएसय जाति कुलकोडि सयसहस्मेहि अट्टहिं अणणएहिं तेइंदियागं तहिं 2 चेव जम्मण मरणाणि अणुभवता कालमखजगं भवति नेरइय समाणं तिब्वदुक्खा फरिस रसणघाण संपउत्त॥१९॥तहेव बेईदिएसुगडलय जलोयकिमिय चंदणगमादिएप्लुय जाति कुलकोडिसय सहरसेहिं अणूण एहिं।। बेइंदियाणं तहिं रचेव जम्मण मरणाणि अणुभवंता काल संखेजगं भमंति नरइय पक्खी इत्यादि अनेक प्रकार के जीव 9 लाख कुलयाले अनेक प्रकार की जाति में जन्म मृत्यु का अनबंध भोगते हुन संख्यान काल तक परिभ्रमण करते हैं. नैरयिक जैसे तीव्र दुःख का अनुभव करते हैं पी, घाण, चक्ष संबंधी भी अनेक दुःख भोगते हैं // 18 // वैसे ही त्रीन्द्रिय में कुंथवे, कीडी, इत्यादि आठ कुल के थी, इस में अनुक्रम से त्रीन्द्रयपने जन्म मरण का अनुभव करते हुए संख्यात काल तक परिभ्रषण करते हैं. नरक समान रस और घाणेन्द्रिय संबंधी तीव्र दुःख का अनुभव करते हैं // 19 // 4 द्वन्द्रिय में जलो, गंडोले, अलासप, कृमि, चंदनक आदि सात लाख कुछ कोटि में दुःख अनुभवते हैं." 11वां जन्म मरण रूप दुःव का अनुभव करते हुए संख्यात काल तक परिभ्रमण करते हैं, और नैरयिक प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम- माश्रयद्वार 48 448 हिंसा नामक प्रथम अध्ययन. 4tain
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________________ प.अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अयोलख ऋपिनी ..." . सम तिव्यदक्खा फरिप्त रसणसंपाउत्ता पत्ता॥२०॥एगिदेिवत्तणं पुढविजलजलणमारुय वणप्फइ सुटुम बादरंच पजत्त मपजत्त पत्तेयसरीर नामं साहारणंच,पत्तेयसरीर जीविएस तत्यवि काल ममंखिजगं भमंति अणंत कालं अणतकाए, फासिदिय भाव संपउत्ता दुक्ख समुदएयं इमं अणिटुं पावांत पुणो 2 तहिं 2 परभवतरुगणगहणं // कोहल कुलिय दालण सलिल मलण खुमण, रंभण, अणलाणिल विविहसत्थघट्टण परोपराभिहण नम रण विराहणाणिय, अकामकाइ परप्पउगोदीरहिय कज्ज पउणेसमान रस और स्पर्श इन्द्रिय संबंधी तीव्र दःख का अनुभव करते हैं // 20 // एकेन्द्रिय में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वाय, वनस्पति, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीरधारी, साधारण शरीरधारी में परिभ्रमण किया + वहां स्पर्शन्द्रिय संबंधि दुःख वारंवार प्राप किया. अब एकेन्द्रिय के दुःख का कथन करते हैं। व प्रकृष्ट सर्व स्थान से अधिक दुःख एक स्थान में कायस्थितिपना से हैं. वृक्षादि गुच्छ, गल्मा एकेन्द्रिय में अगाध दुःख है. पृथ्वी को कोदाली से खोदना, दलना, पानी से मसलना, खंदना, रुधना, अग्नि का संग्रह करना, विविध शस्त्र में संघटन करना, परस्पर घात करना, मत्युकादि में लगाना, विराधा, परिताप उपजाना, निष्पयोजन अन्य के लिये उदीरणा करना, प्रयोजन से प्रेषक, दामाद पथ के x प्रत्येक शरीरी में असंख्यात काल और साधारण शरीरी में अनंत काल * मकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ . हिय पेरस पसुनिमित्तं उसही हार मादिएहि, उक्खणण उक्छण पयण के टण पसिण पिट्टण भजण गालण अमोडण सडण फुडण भंजण छेयण तच्छण विलंचण पत्तझाडणा अग्गिडहणाइयाइं एवं ते भव परंपरा दुक्खसमणुबद्धा अडंति ससारे बोहणकरे // जीवा पाणाइवाय निरता अणंतकालं // 21 // जेविय इह माणुसत्तणं आगया कहिंविनरगाओ उवटिया अधण्णा तेविय दीसंति पायसोविक्कय विगलरूबा खुजा वडब्भय वामणाय बहिरा काणा कुंटाय पंगुला विउलायं, . मयाय मम्मणाय, अंधिल्लागा, एगचक्खु विणिहियं संपल्लय बाहिरोग पीलिय अप्पाउ सत्थवज्झाबाला कुलक्खणु किण्णदेह दुव्वल कुसंघयणं लिये औषध आहार बनाने को अग्नि का आरंभकरना, उखाडना, छाली निकालना, पचाना, कूटना, पीसना, पीटना, तोडना, गलाना, मोडना, सडाना, फोडना, भंग करना, छेदना, तराछना, लूंबना, पत्र झाडना. 24 जलाना इत्यादि भवों की पाम्पग में दुःखानुबंध से परिभ्रमण करते हैं. या प्राणातिपात करनेवाले जीव एकेन्द्रियादि में अनंत काल रहते हैं // 21 // कदाचित् मनुष्य में उत्पन्न होवे तो वह नरक में से नीकला हुवा अधन्य दीखाइ देता है. वह विकल पर्याय वाला, विकलरूप वाला, कूबड़ा, वामन, बहिरा, काणा, 1 टूटा, पंगुङ', गूंगा, बोबडा, अंधा, चीपडा, व्याधि वाला, रुंडमुंड, अल्प आयुष्य वाला, शस्त्र से वध 43 दशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र मरम-श्रवद्वार 480 4288+ हिना नामक प्रथप अध्ययन
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________________ 76 4 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनिश्री अमे.लख ऋषिजी कुप्पमाणा कुसंठिया कुरुवा किवणायहीणीणसत्ताणं णिच्चंसुख परिवजिया असुहदुक्खभागी, णरगाओ उव्वहिता इहं सावसे सकम्मा // एवं नरग तिरिक्खजोणि कुमाणसत्तंच हिंडमाणा पावंति अणंतकाइ दुक्खाइं पावकारी // 22 // एसो सो पाणवहस्स फलविवागो इहलोइए परलोइए अप्पसुहो बहु दुक्खा महब्भमओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाउ वाससहस्सेहिं मुच्चतिणय अवेदइत्ता अत्थिहु मोक्खाति // एव माहसु णायकुलणंदणो महप्पाजिणो वीरवरणाम, धिजो कहेसीय पाणवहस्स फलविवागं // 23 // एसो सो पाणवहो पावो चडो रुद्दा पाने वाला, बाल, अज्ञानी कुलक्षणी, खण्डित शरीरी, दुर्बल, कुसंघयनी, प्रमाण रहिन शरीर वाला, अशुभ मंस्थान वाला, कुरूप, कृपण, दोन, हीन जाति वाला, हीन सत्व वाला, सदैव मुख रहित, अशुभ, दभांगी, और नरक के शेष कर्म भोगने वाला होता है, या नरक तिर्यंच और कुपनुष्य में परिभ्रमण कराया हुवा पापी अनंत दःख भोगता है. // 22 // इस तरह कहा हुवा प्राणातिपात का फल विपाक इस लोक और परलोक में बहुत दुःख रूप कहा है. वह महाभयकारी कर्म रज से प्रज्वलित बना हुवा, ले दारुण. कर्कश, आसाता से सहस्र वर्ष में विना भोगवे नहीं छूट सके वैसा फल ज्ञातनंदन श्री महावीर वामीने अपने पाटवीय गणधर श्री गौतम स्वामी से कहा है. // 23 // और भी इस अर्थ का विशेष * काक रामवहादुर ढाला मुखदेवसहायजीवालाप्रसादजी *
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________________ सूत्र 4. दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम-आश्रद्वार खुदो अणारिओ णिग्घिणो निस्संसो महब्भउ बीहणओ तासणओ अणज्जो उव्वेवणउय निरवयक्खो गिद्धम्मो णिणिवासो णिक्कलुणो निरयवासगमणणिधणो मोहमहन्भय पवटओ मरणवेमणसो // पढमं अधम्मदारं सम्मत्तं तिमि // इति पढममज्झयणं // 1 // () () विवरण करते हैं. यह प्राणातिपात चण्ड हैं, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य का कर्तव्य हैं, दुगंछा रहित है, निःसंशय है. महाभयानक है, भयाभप उत्पन्न करने वाला, त्रास का स्थान, उद्वेग का स्थान, निरपेक्ष, अघर्ष, पिपासा रहित, निर्दयता, नरकावाम का स्थान, निर्धन, मोहस्थान, महाभय का प्रवर्तक और परणा का स्थान है. यह प्रथम अधर्म द्वार हुवा. यह प्रथम अधर्मद्वार संपूर्ण हुवा. यह प्रथम अध्ययन संपूर्ण हुवा।।२। / 444P हिसा नायक प्रथम अध्यान + +
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________________ मुनि श्री अमोलख ऋषिजा + // द्वितीय अध्ययनम् // जंबू ! वितियंच अलियवयणं, लहुसग, लहचंचल भणियं, भयंकर, दहकरं, अयसकर, वेरकरगं, अरति-रति-राग-दोस- मणसंकिलेस वियरणं अलिय नियडि, साति जोयबहुलं नियजणनिसेवियं, निसंसं, अपच्चयकारकं, परमसाहु गरहणिज्ज, परपीडाकारक, परमकण्हलसासहियं, दुग्गतिविणियाय, बड्डणं भवपुण्णभवकर, श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं कि अहो जम्बू ! दूपरा अधर्म द्वार का नाम अलिक-असत्य वचन बोलना यह है. जैसे हिमा अधर्म द्वार के पांच प्रतिद्वार कहे हैं. वैसे ही के यहां भी पांच प्रतिद्वार जानना. यह अलिक वचन गुण व गौरव से छोटा है अर्थात तोछडा है, इसके वश छेटे जीव बोलने में चपलता करते हैं. अलिक वचन भय करने वाला, दुःख करने वाला, अपयश करने वाला, वैर करने वाला, अरति, रति, राग, द्वेष, और मन का संक्ल / करने वाला, शुभ फल की अपेक्षा स इस का किंचिन्मात्र फल नहीं है, वैसा माया कपट का ढक्कन अर्थात् दोष छिपाने बाला, अविश्वास का स्थानक, नीच पुरुषोंने स्वीकृत किया हुवा, दुर्गछा रहित अपवित्र, अप्रतीत करनेवाला, उत्कृष्ट निन्दा के पात्र, अन्य को पीडा करनेवाला, उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या का स्थानक, दुर्गति में पतित * प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवस हायजी ज्वाल प्रसाद जी * omwwwwwwww
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________________ 2 दशमङ्ग-प्रश्वव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रद्वार चिरपरिचित, मणुगयं, दुरंत कित्तियं विलियं अधम्मदारं॥१॥तरसय नामाणि गोणाणि. होति तीसं तजहा–१अलियं, 2 सटुं, 3 आणज्जं, 4 मायामोसो, 5 असंतकं, 6 कुडकवड मवत्थु, 7 निरत्थयमवत्थगं, 8 विदेसगरहणिज, 9 अणज्जगं, 10 ककणासाय, 21 वंचनाय, 12 मिच्छापच्छाकडंच, 13 साती, 14 उच्छत्तं, 15 उकूलंच, 16 अटुं, 17 अब्भक्खाणं, 18 किदिवस, 19 वलयं 20 गहणंच, 21. मम्मणंच, 22 नूमं, 23 णियति, 24 // अपच्चओ, होनेवाला, भव पुनर्भव करानेवाला, अर्थात् संसार में भ्रमण करानेवाला, चिरकाल से परिचित, और परंपससे पाप का स्थानक है // 1 // इस अधर्म द्वार के गुण निष्पन्न तीस नाम कहे हैं-१ अलिक, 2 शठ (धून ), 3 अनार्य, 4 माया मृषा 5 आविद्यमान 6 कुट, कपट अवस्तुक, 7 निर्थक अथवा अल्पर्थक, 8 विद्वजन को घृणा करने योग्य 9 वक-ऋजुता रहित 10 कर्कश कठिन पाप का करना 11 लोक को वंचना 12 मिथ्या अर्थत् उत्तम पुरुषोंने निरादर किया हुवा 13 अविश्वासी 14 छत्ररत् अपने दूषण और अन्य के गुन का अच्छादन करनेवाला 15 उत्कूल जैसे नदी मर्यादा छोडकर बहती है वैसे ही मर्यादा का त्याग करनेवाला 16 आर्तध्यान 17 अविद्यमान दोष का प्रकाश करना, 18 किल्विष-पाप का हतु, + मृषा नामक द्वितीय अध्ययन httt.
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________________ काअनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनी श्रीअमोलख ऋषिजी 25 असंजमओ, 26 असञ्चसंधत्तणं, 27 विवक्खो, 28 अहीयं, 29 उवहि असुई 30 अवलोवोति // तस्स एयाणि एवमादीणि णाम धेजाणि होति तीसं // 2 // सवजस्त अलियरस वइजोगस्सी तंचपुण वदंति केइ अलियं. पावा-असंजया, // अविश्या, कवड, कुडिल, कडुय, चपलचडूयभावा, कुडा, लुढा, भयाय, हस्सवियाय, सक्खी, चोरा, चार, भडा, खंडरक्खा जितजुतीकराय, गहित,गहण,कक्क, कुरग कारिकाकुलिंगा,उवहिया, वाणियगाय, कूडतुला, कूडमाणा कूडकहावणोवजीवी, पडकारगा, कलाद, कारुइजा 19 बलय जैसे वक्र, 20 वन जैसे गहन 21 मर्म वचन अस्पष्ट बचन बोलनेवाला, 22 नूम-गुप्त 23 नियति-ग्रहाचारपना 24 अप्रतोत कारक 25 सम्यक् आचार रहित 26 असत्य प्रतिज्ञा करनेवाला 27 वि. पक्षी-शत्रु 28 माया का आगर 29 माया में अशुद्ध 30 वस्तु स्वभाव का ढकना // 2 // सावध अलिक वचन बोलनेवाले अनेक हैं. मो कहते हैं असंयति, अविरति, कुटिल, कडवा, क्रोधी, लोभी, भयवाले.. हास्यवाले, सखिया, चौर, चारन, भाट, खण्डरक्षक, गूत क्रीडा खेलनेवाले, आभरणादिक का ग्राहक, कला पार से भारी, कुलिंगी, गुन विना वेषशी. उपधिवंत, मायावंत, खोटे तोले खोटे पाप रखनेवाले / और खोटी मुद्रा बना कर उपजीविका करनेवाले वणिक, वस्त्र बनानेमले, कलाद-सोनार, छीपा रंगारा, *कादक-राजाबहादुर लाका सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ - +8 देशपाङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार वंचणपरा, चारिय, चट्टयार, नगरगुत्तिय, परिचारक, दुटुवाइय, सूयक, अणबल भणियाय, पुवकालिय, वयणदच्छा, साहसिका, बहुस्सगा, असञ्चा, गारिविया असच्चणावणेहि चित्ता, उच्चछंदा, अणिग्गहा, अगियत, छदेण, मुक्कवायी भवति // अलियाहिं जे अविरिया अवरे सस्थिक वादिणो, वामलोकवादी भगंति, सुगंति, नत्थि जीवो, नजाति इह परेच्च, लोए नाय, किंचिवि फुसइ पुण्ण, पावं, नत्थसुक्कयदुक्कयाणं, पंचमहा भूतियं सरीरं भासंतिहं वागजोगजुत्तं, पंचय दूपरे को ठगने वाले, चारक, मुख मंगल बोलनेवाले, नगर रक्षक कोतवाल, पर स्त्री का सेवन करने वाले, अदत्तग्राही, चूगल, ऋणदेने वाले, व लाने वाले, निर्बल वचनी, दूसर के बोले पाहेले बोलने वाले, दक्षता बताने वाले, साहासक, लूटनेवाले डाकु, साधु पुरुषो का अहित कर्ता, ऋद्धिआदि गर्व करने वाले, झुठा धर्म की स्थापना करने के आभिलाषी, उत्कर्षी, स्वच्छंदाचारी, योग कषाय का निग्रह करने वाले, अनियमित कार्य करने वाले, स्वच्छंदानारी, और बहुत बोलने वाले ये पूर्वोक्त पनुष्य असत्य बोने वाले होते हैं. इन सिवाय और भी जो मृषावादी हैं. उन के नाम बताते हैं, मृषा वाद के व्रत रहित नास्तिक वादी वे असत्य बोलते हैं. वापमार्गी अर्थात् सर्व दर्शन के निन्दक भी मृषा बालते हैं. वे कहते हैं कि बाग नहीं है, कोई इस लोक व पर लोक में नहीं जाता है, कोई पुण्य पाप को + मृषा नापक द्वितीय अध्ययन 4MS Ki |
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________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - 42 अनुवादक-बाल प्रह्मचारी खंधे भगति केइमणं च मण जीविका वदंति, वाउजीवाति,एव माइंस सरीररं साहियं सनिधणं, इह भवे एगे भवे तस्स विपनाससि सव्वनासोति, एवं जति मसावाई, तम्हा दाणवा पोसहाणं तव संजम बंभचेर कलाण मादियाणं नथि फलनविय पाणवह, अलिवयणं, नव चोरकंकरणं, परदार सेवणं वा सपरिग्गह पावकम्माई, करणंपि नत्थिकिपि; न नेरइय, तिरिय . मणुयाणं जोणी, नदेवलोकोवा आस्थि नेय अस्थि, सिद्धगमणं, अम्मापियरोवि णत्थि, . नहीं स्पर्शता है, मुकृत दुष्कृत कुच्छ नहीं है, क्यों कि पृथ्वी, पानी, निः वायु, आकाश: इन पांच के मंबंध से शरीर साथ जीव की उत्पत्ति हुई है. पागरूप वायु के योग सहित है. विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप यों पांच स्कंध की स्थापना में जीव कहाता है, कितनेक मन को ही जीव कहते हैं, कितनेक श्वासोच्छाव लक्षण रूप वायु को जीव कहते हैं. कितनेक इस शरीर को आदि व अंत सहित, कहते हैं. इस से जो यह भव प्रत्यक्ष दीखता है वही भव के आगे कुच्छ नी है. शरीर नाश से सब का नाश होता है, यों मषावाद बोलते हैं. ऐसा होने से दान करना, व्रत करना, पौषध करना, तप करना संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करना यह कल्पना के कारन है. इसमें से कुछ भी नहीं है. वैसे प्राणातिपात, मृपावाद, अदत्तादान, पर स्त्री सेवन, और परिग्रह इन के सेवन में पाप भी नहीं लगता है. *प्रकाशक-राजाबहादुर लामा सुखदेवमहाव
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________________ 44 + दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रद्वार नविय अस्थि पुरिसाकारो पञ्चक्खाणमवि नत्थि, नवि अस्थि कालमच्चू, अरहंत चक्कवट्टी, बलदेवय, वासुदेवा नत्थि, नेवत्थि केइग्सिओ, धम्माधम्म फलंचनवि अस्थि, किंचिबहुयंच थोवंच तम्हा एवं जाणिऊण जहाफलसु बहु इंदियाणुकुलेसु सम्वविसएमु तं वह, नस्थिकाययि किरियावा, अकिरियावा, एवं भणंति नस्थिक' वादिणो वामलोयवादी, // 3 // इमंपि वीतियं कुदंसणय असम्भभाववादिणो पण्णवेतिमूढा, संभूओ अंडकाओ- लोको, सयंभूणा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति नहीं है. वैसे ही सिद्धगति भी महीं है. मातपिता नहीं है, पुरुषा.. त्कार नहीं है, प्रत्याख्यान नहीं है, काल मृत्यु भी नहीं है, सब माया है, चक्रवर्ती, बलदेव और वासु-बैं देव भी नहीं है, कोई ऋषि भी नहीं है, धर्माधर्म का फल नहीं है. थोडा या बहुत करने का फल नहीं है. सब व्यर्थ है. ऐमा जानकर और पूर्वोक्त कथन में श्रद्धा रखकर पांचों इन्द्रियों को अनुकूल विषय मुख का अनुभव लेते हुए अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करो. इस में क्रिया अक्रिया कुछ भी नहीं है. इस सरह है। नास्तिक वामलोकवादी कहते हैं // 3 // अब दसरे असगाव की परूपणा करनेवाले नास्तिकवादी कहते हैं कि अण्डे में से लोक बना हुवा है और ब्रह्म ने इस का निर्माण किया हुवा है. यह भी. असत्य वचन है, प्रम अथवा शंकरने यह संपूर्ण लोक बनाया है यों कितनेक मृषा बोलते हैं, विष्णुपय संपूर्ण जगन् है यों। पृषा नायक द्वितीय अध्यर - -
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________________ पुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सयंचनिम्मिओ, एवं एते अलियं पयावईणा, इस्सरेणय कयति कोई, एवं विण्हुमय : . भूयाणसयंच निम्मिओ कसिणमेव जगति केइ एवमेके वांति मोसं एको आया अकारकाय' वेदकोय सुक्यस्सय दुक्कयरसय करणानिकारणाणि सव्वहा सवहिंच मिचीय णिकिओ निग्गुणोय अणोवल्लेवओ त्तियविय एवं मासु असब्भावं,॥ जंपि इहं किंचि .. जीवलोको दीसति सुकयंवा दुक्कयंवा एवं जदिच्छाएवा सहावेणवाविदयिववप्पभाव : ओवावि भवतिनत्यत्थि, किंचिंकयकत. तं लक्खण विहाण नीतिय कास्यिा एवं .. कोई असत्य बोलते हैं. कितनेक सब जगत् में एक ही आत्या व्यापक ऐसा कहकर झूठ बोलते हैं, ऐमा है। हने से आत्मा मुकृत्य दुष्कृत्य का भोक्ता नहीं है. कितनेक जीव को मर्वथा प्रकार से शाश्वत नित्य, #क्रिया रहित सत्व, रजम् और तमोगुन गहित कहते हैं. और जीव को कर्म क भेद भी नहीं लगता है। ऐमा प्ररूपते हैं. इस प्रकार असद् पाव की स्थापना करते हैं. इस लाक में जा जवलोक दीखने में आता हैं, सकृत्य-अच्छाअनुष्टान, दुष्कृत्य-खराब अनुष्ठ न वगैरह सब अपने स्वभाव से ही होता है अथवा देवता के प्रभाव से ही होता है. मनुष्य का किया हुवा कुछ भी नहीं होता है. वस्तु स्वरूप 13 विविध प्रकार का है. सुख दुःख रूप लक्षपनिपात स्वभाव से है. इस तरह कितनेक असत्य बोलते हैं *प्रकाशक राजावादुर लाला सुखखदेवसहायजी ज्वालापमादा*
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________________ R . P . दशाङ्ग:पश्नव्यरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार केइजति // 4 // इड्डी रस साया गारवपरा बहवे करणालंसा परूवेति धम्मवीमं . 4 सएणमोसं, अवरे अधम्माउरायदुटुं. अब्भक्खाणं भणंति, अलिये चोरोति, अचोरियं करंति, डमराओति वियइ मेव उदासीणं दुस्सीलोतिय परदारं गच्छतिति, है मइलेति सीलकलियं, अयंपिगुरु तप्पओति अण्णे, एवमेव भणंति उवहणंति मित्त कलत्ताई सेवति, अयंपि लुत्तधम्मो, इमोवि विसंभघायवओ पावकम्मकारी // 4 // ऋद्धि के गर्व में, रसके गमें, और साता के गर्ष में उन्मत्त बने हुवे क्रिया करने में अलसी होने से धर्म कर्म को पिथ्या प्ररूपते हैं. कितनेक अधर्म अंगीकार करके राजा विरुद्ध अभ्याख्यान [ चूगली ] करते हैं, अचोर को चोर कहे, उदासीन को विरोधि कहे, सुशील को दुःशल कहे, यह परदार गमन करने वाला है, इस तरह शीलवंत को कहे, यह गुरु द्रोही अविनीत है इत्यादि अनेक प्रकार के असभ्य वचन बोलकर आजीविका करते है. यह पित्र की स्त्री से सेवन करता है, यह धर्म से भ्रष्ट हुआ है, यह वेश्या गमन करने वाला है,यह विश्वास घाती है,यह बहिन पुषी साथ कुशील सेक्ने वाला है.यह दूराचारी है. यह चोरी आदि बहुत पाप करने वाला है, यों बोलते मत्सर भाव से भराये हुए अन्य के गुण कीनि सहन नहीं करने से उन का आच्छादन करते हैं. यों भद्र पुरुषों का अपमान करने वाले अलिक वचन बोलने में दक्ष व मुखरी है. अन्यको दुःख देने में प्रसन्न रहते हैं, वे अपनी आत्मा को कष्टदेते हैं. किसी का मृषा नापक द्वितीय अध्ययन .. /
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________________ श्री अमोलक' ऋषि: अकम्मकारी, अगम्मगामी, . अयंदुरप्पा, बहुएसु पावगेसुय . जुत्तोति एवं जति मच्छरी महकेवागुणकित्ति, नेह परलोग निप्पिवासा, एवं एते अलिय वयण दक्खा, परदोसुप्पायण संसत्ता अक्खइय वीएण अप्पाण कम्म. वधणेणं मुहरी असमिक्खियप्पलावी निक्खवे अवहरंति, पररस अत्यंमि गढियगिडा, अभिज्जुतिय परं असंतएहि लुहाय करेंति,कूडसक्खित्तणं असच्चा अत्थालियं कन्नालियं भोमालियं प्रकार के कर्मक्षय नहीं करते हैं, अपनी आत्याको कर्मरूप निबंड बंधन से बांधते है, विना विचारे वचन बोलमें वाले होते हैं. थापणमोसा करने वाले होते हैं, अन्यकी रखे हुइ थापन दबाने वाले होते हैं, अन्य के द्रव्यमें गद्धता अन्य को असाता, दुःख के पंथमें जोडने वाल महागोभी, झूठी साक्षी भरने वाले और जीवो का आहत करने वाल इत्यादी प्रकार मृषा बोले. और भी कन्या के लिये मृषा बोले, भूमि के लिये मृषा बोले.. गो आद पशु के लिये मृषा बोले, महा असत्य-असंभव कारी वचन बोलने वाले और नरकादि गति। में गमन करने वाले मृषा बोले. और भी जानि-मातृ पक्ष आश्री माया करे कुल पितृपक्ष आश्री माश करे प्रवचन शस्त्र आश्री माया करे. इत्यादिक माया में निष्पन्न होवे. मन वचन और काया के योगो का चपल, पिशुन चुगल-खोर, परम अर्थ ओक्ष मार्ग का प्राताति, सब प्रकार के योगो का *प्रकाशक-राज बिहारका मुखदिक सहायजी चालाप्रसाइजो*
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________________ + प्रश्नव्याकरण मूम-प्रथम-आश्रवद्वार Naite तहगवालियं गुरुयंभणंति अहरगतिगमणं, अण्णंपिय-जाति-रूव-कुल-सील-पञ्चव ___ मायानिउणंच चवलं,पिसुणं परमट्ट भेद कमसंतकं विइंसमणत्थ कारक, पावकम्ममूलं दुदिटुं दुस्सुयं अमुणिय निल्लज्ज, लोगगरहाणज्जं, बह बंध परिकिलेस बहुल, जरा मरण दुक्ख सोगनेम ... असुद्ध परिणाम संकिलिटुं भणंति // 5 // अलियाहि संधि संकिलिट्ठा, असंतगुणुदीरगाय, संतगुण नासकाय, हिंसा भूतोवघातियं, अलियवयणसंपउत्ता सावज मकुसलं.. साहुगरहणिज्ज, ++ मृषा नामक द्वितीय अध्ययन winn अनर्थ करने वाला, और दुष्ट कर्म का मूल होता है... उस मृषावादी का देखा डुवा, मुना / हुवा. भी दृष्ट होता है. उस का मुनिपना भी दृष्ट होता है. वह लोक में अपवाद-गर्हणा को प्राप्त होता है. व बंधन रूप पहाक्लेश का भोक्ता बनता है. जरा वृद्धावस्था मृत्यु दुःख (शारीरिक) शेक दुःख (मानासको इन का मूलभूत होता है. उसे सदैव अशुद्ध परिणाम का धारक व संक्लेश सहित कहते हैं. // 5 5 / असत्य की संधि भीलाने में तत्पर, अविद्यमान गुन की उदीरणा करने वाला, विद्यमान गुन का नाश करने वाला, हिंसा से प्राणियों का उपधात करने वाला, असत्यवचनकारी प्रयोग करने वाला, सावद्य निंदनीय : कर्म करने वाला, अकुशल, आहितकारी, साधुओ में निंदनीय और अधर्म का उत्पादक मृषावाद है. वह।। - n nnnn
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________________ 4अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ... अधग्म .. जाणे भणति .. .. अभिगहिय .पुण्णपावा. . पुणोय. महि करणे . किरियापवत्तका, बहुविहअणत्थक अवमई अप्पणो परस्सय करेंति॥६॥एवमेयं जंपमाणा ' महिसेसूकरेय साहिति घायकाणं, ससपसवरोहिएय, साहितिवा गुगणं, तित्तिर वदृक्क लावकेय. कविंजल कवोय केय साहीति साउणीणं, झस मगर कच्छभेय साहिति मच्छियाणं; सैक्खके कुलएय साहति मक्कराणं, अयगर गोणस मंडिली दवीकर...मउलीय साहति वालवाणे, गोहा सेहाय .. सल्लगे सरडकेयवर मृषावादी पुण्य पाप के कर्तव्य नहीं जानता है. इन पुण्य पाप के कर्तव्य से अज्ञ बनकर अधिकरण+an रूप क्रिया से बहुत प्रकार के अनर्थ में प्रवर्तता हुवा अपना तथा परका अवमर्दन करता है ॥६॥आगे कहगें इस प्रकार सत्यवाद बोलने वाला भी मृषावादी कहाते हैं-हिष सुअर का घात करने का कहे, शाला रोहिडे का. धात करने का कहे, तीतर लवा बटेर, पारापत आदिका धात करने का कहे. पच्छ, मगर, काच्छ का धात करने का मच्छीगर को कहे, शंख, कोडे खुल्लग वगैरह मारने का धीवर को कहे, अजगर, गोसर्प, ... + अधिकरण दो प्रकार के होते हैं-निवृति अधिकरण सो हल मूशलादि शस्त्र बनाना सो और 2 सयोजना अधिकरण, सी पहिले बनाये हुए खड्दादि को मुष्टयादिका संयोग मीलाना, अपूर्ण को पूर्ण करना. *काशक-राजाबहादर छालामखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* BREAudi
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________________ साहति लुद्धगाणं गयकुल बानर कुलेय साहिति पासियाणं, सुकवर हिण मयणसाल कोइल हंसकुले सारसेय साहति पोसगाणं, वहवंधण जायणंच साहति गोमि. पाणं धण धण्ण गवेलएय साहिति तकराणं गामे नगरे पट्टणेय साहिति चारियाणं, . पारघाइय पंथघाइयाणतो साहति गंठीभेदाणं, कयंचचोरियं जगरगुत्तियाणं साहिति, लंछण पिल्लंछण धम्मण दुइण पोसण वणण दुमण वाहणादियाई साहति बहुत गोमियाणं, पाउ माणिसिल्यप्पवाल रयणागरेय साहति, आगरीणं, पुष्फविहंच फलविहंच साहिति, मालियाणं अग्घमहुकोसएय साहति वणचराणं जताई विसाई दर्वीकर और मातुलिंग सर्प मारने का गारूडी को कहे, गोह, सेडाह, सहल, काकीडा मारने का बोधक को कहे, हाथीकुल बानरकुल वगैरह मारने का पाश डालने वाले को कहे. तोते, मयूर, मेना, सालंकी, काकिन हंस. बकुल, सारस. वगैरह मारने का पक्षी बधक (पाराधी ) को कहे. चोर को धन पशु आदि की चौरी करने का कहे, चारक ( लूगरे ) अनको ग्राम नगर पूर पाटग लुटने का कहे, भेदक जनको पथिक लूटने का कहे, जगर रक्षक को चपी करने वाला जानकर बतावे. लंछन कर्णादि काटने का और निम्छन / 12}पुरुष चिन्ह छेदने का कहे. बछडे के पोषक को गाय दोहने का कहे, गांदि रखाने क, बंधन में बांधने ", गाड में जोतने का, इत्याद कहे. लोहा, ताम्बा वगैरह धातू मनःशिला, मवाल, कर्केतनादि रत्न की, दशमा प्रश्नाकरण सुष-प्रथम-आश्रवद्वार + मृषा नामक द्वितीय अध्ययन 480
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________________ a 14... मूलकम्मे आहेवण अभिगमदोसहि पोग चोरिय परदारगमणं बहुपावकाम करणं. . उक्खंधे गामघाइताओ, वणदहण, तलाग भेयणाणि, बुद्धि विसासणाणि, वसीकरण माइयाइ, भेय मरणं किलेस दोम अणणाणि भाव बहु संकिलेटु मलिणाणि भूयघाओ वघाइयाई सच्चणिविताई हिंसकाइ वयणाई उदाहरति : पुट्ठावा अपुढावा परतात्त बावडाय असमिक्खितं भासिणो उवदिसति सहसा उद्या गोणा गवया दमंतु परिणयवया, अस्सा हत्थीगवेलग कुक्कडाय किजंतु किणा वेधय खदान खोदने का कहे, माली को विविध प्रकार के पुष्प फल तोडने का कहे, भिल्लादिक को बहुत प्रकार का बधु नीकालने का कहे, घट्टी आदि यंत्र से पीलना, विषम शस्त्र से मारना अथवा स्तंभनादि करना. नगर क्षोभ करना, अभियोग वशीकरण करना, भूतादि दपनका मंत्र कराना, औषधि प्रयोग कराना,परदार, सेवन करना, कटक चढाना, ग्रामादिकं की घात करना; उनमें अग्नि लगाना, तलावकी पाल फोडना, अन्यकी , बुद्धि विकल बनाना,उच्चाटनादि करना, स्त्री पुरुषादिक को अपने वैशमें करना. इत्यादि दुष्ट अध्यवसाय संक्लिष्ट से दष्ट परिणामीको मृषा वादीही जानना इस सिव.य औरभी जीवों की बात करनेवाली भाषा सत्याने पर भी मृपा 17की जाती है. और भी पुछी हुई अथवा बिना पुछी हुइ और विना विचारसे बोलाइ हुई भाषा पृषा कही जाते .ही / क-बाउनमचारी मुनि श्री बमोट अपिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवमहायजीपालाप्रसादजी /
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________________ - विक्केह पयह सयणस्स देह पीयह दासी दास भयंक भाइल कायसिस्साय पसकजणो कम्मकरा किंकराय, एए सयण परिजणोय, कीस अत्यंत भारिया भे करेतु कम्मगहणाई बयणायइखित्त खिल्लु भूमिवल्राइं उत्तण घण संकडाइं डज्झतु साडजंतुय, रुक्खाभजंतुय जंतभडाइयस्म उवहिस्स कारणाए बहुविहस्सय बहुविहस्सय अट्ठाए उच्छुदुज्जंतु पिलीयतुयतिला, पयावेहइटगाओ, ममघरट्टयाए खेत्ताय कससं कसावेहवालहु गाम, णगर, और भी व्य पार प्रये जन के लिये अन्य को दमन करने वाली भाषा भी सत्य होने पर मा कहलाती हैं. ऊंट वृषभादि जंगल के पशुओं को दमन कर सीखलाओ यों कहकर उन को परित प करते हैं. युवा हवस्था वाले हस्ती, घोडे, बकरे, मुरगे, वगैरह मोल लो और अन्य के मोल दिलावो, स्वजनो को दो और अन्य को दिलावो, मदिरापान करो दास दासी, भृत्यक, भागीदार, शिष्य प्रेषक, कर्म कर किंकर इत्यादि स्वजन परिजन तथा गृह के भार्यः प्रमुख के पस गृह संबंधी अनेक काम करावो, इस प्रकार के वचन बाले. पुष्पादिकवन, धान्यादिक के क्षेत्र, हलीहुइ भूमिका, खेत और उत्पन्न हुए तृणादि वाले स्थान दव लगावे दातरडा इत्यादि से सड करावे, वृक्ष छेदन करने का कहे, उस से अनेक यंत्र गाही के चक्र, काष्ट पात्र इत्यादि उपाधि और अनेक प्रकार के तोरण बनावे. इक्षका दशामाङ्ग-पनव्याकरण मूत्र प्रथम श्रवद्वार Rii मृषा नामक रितीय अध्ययन Hin +I
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________________ पत्र - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक खेड,कव्वड, संनिवेसह अटविदेसेसु विपुलसीमो, पुप्फाणि फलाणि कंदमूलाई काल पत्ताई गिव्हकरेहसंचयं. परिजणस्सट्टयाए साली, वीही जवाय लुच्चंतु मिलिजंतु उप्पजतुय लहुंच, पविसंतु कोट्ठागारं अप्पमहु कोसगाय हम्मंतु. पोत सत्था सेणाणिजाओ, जाउडमरं घोरावडतुयसंगामा, पवहंतुय सगडवहणाई, उवणयणं चोलगं विवाहो जन्नो, अमुगंमिहोउं दिवसेसु करणेसु मुहुत्तेसु नक्खत्तेसु तिहिम्मिय अजहोउ,एहवणं मुदितं बहु खजपेज कलियं कोतुकविएहावणक संतिकम्माणि कुणह, काटना, तिलादि पीलना, इंट पकाना, वगैरह पापकारी कार्य में मृषा भाषा है. खतमें खड्डा तलाव खुदवाना, प्राम. नगर खेड कर्वट की स्थापना, ग्रामादिक की सीमा करना, पुष्प फल परिपक्व होने से ग्रहण करवाना / स्वजन, परजन व इष्टजन के लिये शाली प्रमुख कटवाना, पसलकर पृथक् करवाना, उफणकर शुद्ध करवाना. स्वच्छ किये पीछे कोष्ट्रादिक में भरवाना, वगैरह भाषा मृषा है. जहाजो साथ सेना तैयार करो, विरोध के स्थान ज ओ, महा संग्राम करो, गाडा वाहन चलाओ, बालक को कला ग्रहण करावो, सुरमुखन करावो, लग्न करो, यज्ञ करो, अच्छे करण मुहूर्त नक्षत्र देख कर स्तनपान करावो, सौभाग्य / कर्म पुवादि लिये वधू को स्नान करावो, प्रमोदवंत वन, बहुत प्रकार के खाद्य पदार्थ, पीने के पदार्थ सहित कौतुक विधान का संस्कार करो, नहावन कराबो, अग्रिहोबादि शांति कर्म करापो, चंद सूर्य ग्रहण में *काशक-राजाबहादुर काला मुखदवसहायजी ज्वालामसविनी*
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________________ * दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम आश्रद्वार +86 * तिरि विनहीं वराग विसभेस, सणस्स "परिजणस्सय नियकम्मजीवियस्सः / रकखणट्टयाए पडिसीसकाई चंडेह, देहह 'सीसोवहारे विविहौसहि मज मस भक्खजण पाणमल्लाणुलेवण पदीव जलिओजलि संगध धूवाचकार पुप्फफल समिद्ध पायच्छित्तेकरह, पाणतिवाय करणेणं बहुविहेण विवरी उप्पाय दुसुमिण. पावसउणं असमगह चरिय अगल निमित्त पडिग्यायहेउ, वित्तिच्छयं करेह मादेह किंचिदाणं सुहहओ सुहछिन्नो मिन्नोति ओवदिसंता एव विविहंकरंति अलियं मणेणंः बायाए तथा जालमील बहल के समय. दुष्ट स्वप्न आने से मानापिता अथवा परिजन के जीवितव्य की रक्षा निमित्त कणक पंड का' मस्तक देव देवी को चझ के, छ.ली के मस्तक का बलि देवो, अनेक प्रकार की औषधि कुंदन, मदिरा पांस का भक्षण करो, अन्नपानी, पुष्पमाल, विलेपन, प्रज्वलित दीपक, उज्म मुगंध धूप, अगर पुष्यफल इत्यादि से देवता की पूजा करो! प्रायश्चित कर शुद्ध होवो. बहुत प्रकार के भूमिकम्प, दूष्ट प्न, अशुभ शकुन, अकल्याण करने वाले दुष्टः क्रूरग्रह, और अंगस्फूरने के लिये किसी की धात कर उन की अजीवका का' छेदन करो, अमुक को खाने मत दो, किसी को दान मत दो, इत्यादि वबन बोलने वाले मृषावादी कहलाते है. और भी पृशावादी का स्वरूप कहते हैं- अच्छा किया कि उसे मारा, अच्छा उस का छेदन किया, उस के टुक मृग नापक द्वितीय अध्ययन 818
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________________ कम्मुणय अकुसला अणज्जा अलियाणं अलियाधम्म निरया अलियासुकहानु / अभिरमंता तुट्टा, अलियं करेहतु // 7 // होतिय बहुप्पगारं तस्सय अलियरस फल विवागं अयाणमाणा वड्रेति महब्भयं अविस्सामवेयण दीहकालबहदुक्ख संकडं नरय तिरिक्खजोणि तेणेय भलिएण समणुबद्धा, अइट्ठा पुणब्भवंधकारे भमंति भीमा दुग्गतिवमहि मुवमया // तेविय दोसंति इह दुग्गता, दुरंता, परब्वसा, अत्यभोगपरिवजिया असुहिया, फुडियनच्छवि वीभत्थ विवणा खरफरस विरत्त किये, यों विविध प्रकार के पपकर्ष मन वचन और काया स बोले. और भी मृषा बोलनेवाले के भेद". कहते हैं-अकुशल, अनार्य, असत्य शास्त्र का पठन करने वाले, हिंसर्प में तत्पर, मन कल्पित कथ वार्ता में तत्पर, और इन में श्रद्धा प्रतीत माननेवाले असत्य वचन बोलते हैं // 7 // इस का फल कहते हैं. ऐसा मृषा वचन बोलने वाले को महाभय होता है, निरंतर वेदना रहती है, दीर्घ काल पर्यंत बहुत प्रकर क नरक तिर्यंच योनिका दुःख भोगना पडता है, इस असत्य वचन से बंधाये हुए पुनर्भव के बंध करने वाले भयंकर दुर्गति में प्राप्त होते हैं. वे मृषा वादी यहां मनुष्य लोक में दीदी, दुरत, परंवश, धन व भोग से वंचित-हित. मित्रादि रहित, दुष्ट भाषा बोलने वाले, बीभत्स वर्ण वाले, कठोर, I+स्पर्शवाल, असमाधिवंत, खराब शरीर के धारक, निश्चम निस्तेन शोभा रहित, निष्फल वचनी, अमान्य नुवादक-बालब्रह्मचारी मुनी श्रीमोलख ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवमहायजी धालापसादनी *
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________________ 44:दशमाङ्ग-प्रश्रव्याकरण मूत्र-प्रथम आश्रवद्वार: झामझुसिरा निन्छायालल विफलवाया, अमंकय मसक्कया अगंधणा 'अचेतणा दुभगा अर्कता, कास्सिरा, हीणघे।सा भिन्नघोसा विहिंसा जड बहिर अंध मयाय मम्मणा अकंतविकंतकरणाणीया णीयजणनिसे वणो लायारहणिज्जा, भिच्चा असरिसजणस्स पेसा, दुम्मेहा लोगवदे अझप्प समयसुति वजिय नरा, .. धम्मबुद्धिवियला, अलिफ्णय तेणय डझमाणा असंतए अवमाणण पट्टिमंसासहिक्खेव, पिसुण भेयण गुरु बंधव सयणमित्त वक्खारमादियाई अब्भक्खवाणाइ बहु विहाई पावंति अमणो. रमाई हिययमणदूमगाई जावजीव बहुदुद्धराइ, अणि? खर फरस वयण तजण वचनवाने, संस्कार रहित, सदैव दुर्भागी, दुगंधी, अपेतक, जिते ही मुरदा सपान, अकांतकारी, काक स्वरवाले, हीन दोन स्वरवाले, लोक में हिंसक, मूर्ख, बहिरे, अन्धे, गुंगे, बोबडे, असुखकारी, विद्रूप, हीन इन्द्रियवाले, नीच मनुष्यों की मेवा योग्य, लोगों में निन्दनीय, सब के सेवक, नीच जाति के दास, दुर्बुद्धि,31 लोक प्रेम समय और श्रुति से परिवजित, धर्मबुद्धि रहित, लौकिक लोकोत्तर दोनों रहिस, अपमान से जाजाल्यमान, सदैव अशांतचित्तवाले, पृष्ट मांस भक्षाक-अर्थात् निंदक, पिशुन, गुरु के वध करनेवाले, स्वज-25 नादि की निन्दा करनेवाले, आल चढानेशले, बहुत प्रकार के विरोध करनेवाले, दुष्ट. हृदय व मन को दुःखकारी, अन्य का भार कठिनता से उठानेवाले, अनिष्ट दुष्ट स्पर्श से - तजिन, निर्भयता कराये हुए REषा नायक द्वितीय अध्ययन -
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________________ सूत्र री मुनि श्री अमालक ऋषिजी निभच्छण दीण वयण विमणा कुभोयण कुवाससा कुबसहीसु कि लिस्संति नेवसुहं नवनिव्वुइ उवलभंति अचंत विपुल दुक्खसय संपलिता // एसोसो अलिय बयणस्स फलविवाग); इहलोइओ पग्लोइओ अप्पसुहो बहु दुक्खो, महब्भओ बहुरयप्पगाढो, दारुणा कक्कसो अमाओ वासंसहस्सहिं मुञ्चतिणय अवदइत्ता अत्थिहु मोक्खोति, एवमाहसु नायकुल नंदणो महप्पा जिणाओ वीरवरणामधज्जो कहेसीय अलिय वयणस्म फलविवागो // 8 // एयंतं बितियंपि अलियवयणं लहसग लहुचवल भाभियं, भयंकर, दुहंकर, अयसकर, वेरकरणं अरति रति रागदोस सदैव दीन रंक चिन्ताग्रस्त, सदैव कुभोजन भोगी, खराब वस्त्र पहिननेवाले, खराब स्थान में रहनेवाले, अविश्वास और लश के स्थानक, शीत तापादि अनेक क्लशवाले, सुख स्थापना से वंचित, सदैव उपालम्भ मुननेवाले, अचिंत्य विस्तीर्ण दुःख संतापवाले जीव अलिक वचन के फल इस लोक और परलोक में अल्प मुख व बहुत दुःख, महा भय, बहुत कर्म रज युक्त, दारुण कर्कश अमाता सहस्रों वर्ष पर्यंत भोगते हुए भी है मुक्त नहीं होते हैं. असत्य के फल पूर्णतया भोगन से ही मुक्ति होती है. ऐमा श्री ज्ञान नंदन, श्री महावीर स्वापीने कहा है // 8.5 यह अलिक वचन भयंका, दुःख व अपयश, वैर, रति, अराते, राम, द्वेष का कर्ता, निवड माया का स्थान, सद्योग रहित, द्रोह का कारन, नीच जनों से सेवित, अतीतकरनेवाला,* प्रकाशक-राजाबहादर लाल पुच्चदवमहायजी ज्वालापमादजा * अनुवादक-डाला
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________________ - Aght देशाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम-आश्रद्वार मणसकिलेसं पियरणं; अलिय नियडि, सातिजोग बहुलं, नायजण निमेवियं निसंसं . अप्पञ्चय कारगं, परम सहुगरहणिजं, परपीडा कारगं, परम कण्हलेस सहिय, दुग्गति विणिवाय वड्डणं, भव पुणब्भवंकरं चिरपरिचियगयं, मणुगय दुरत तिबेमि // बिइयं अहम्मदारं सम्मत्तं // 2 // * * . उत्कृष्ट साधुओं का निन्दक, दूसरे को पीडा करनेवाला, दुर्गति का दुःख बढानेवाला. और पुनर्भव कराने-13 वाला है. जीव को इस का दीर्घ काल से परिचय है. ऐसा दूसरा अलिक नमक अधर्म द्वार है // 2 // इति द्वितीय मृषा नामक अधद्वार समाप्तम् // 2 // मृषा नामक द्वितीय-अध्ययन 48 NEW -.. - -'.
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________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी // तृतीय-अदत्त नाम अधर्मद्वारम् // जंबू ! ततियंच अदत्तादान हरहो दह मरण भय कलुस तासण परसंति गभिज लोभमूल काल विसम संसिय अहोत्थिण तण्हा पत्थाणपत्था अकित्तिकरणं अणिज छिद्दमतर, विधुर वसण मग्गण उस्मवमत्त पमत्ता पसुत्त वंचणाक्खिचण घायण पराणिहुय परिणाम तकरजण बहुमयं अकलुणं रायपुरिस रक्खियं, सयासाहुगरहणिज्जं, पियजण, है श्री सुधर्पा स्वामी कहने हैं कि अहो जम्बू ! अब तीसरा आश्रय द्वार अदत्तादान का स्वरूप कहना हूं यह अदत्तादान संत प करने वाला, दाह करने वाला, मृत्यु निवजाने वाला भय उत्पन्न करने वाला, कलुषता करने वाला, बाम उत्पन्न करने वाला, अन्य के धन में गृद्ध बनाने वाला, लोम का मूल, काल-अर्धरात्रि में करने योग्य, पर्वतादि विषम स्थान में परिभ्रमण कराने वाला, अधोगति में ले जाने l वाला, संतुष्ट नहीं कराने वाला, वारंवार अहित कार्य कराने वाला, अकीर्ति कराने वाला, अन्या-दुष्ट जन का कर्तव्य, छिद्र देखन वाला, अपाय का काग्न. उन्मार्ग की गवेषणा कराने वाला, इन्द्र महोत्सवा देक में जपत्त, प्रमादी, और मूते हुवे की गवेषणा करने वाला, पिशुनता का कारन, ठगाइ आक्षेप चित्त विग्रह का कारन, पात का क रन, चपलता का कारन, कषायादिक का अनुपशान्तपना, कुजन को अनुमत, दया रहित कार्य वाला, राज पुरुषों से रक्षित, साधु पुरुषो से निन्दित, प्रियजन में भेद करन *पकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवमहायजीपालाप्रसादजी *
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________________ - . दशमङ्गप्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रद्वार * अदत्त नामक मित्तजण, भेद विप्पीति कारगं, रागदोस बहुलं, पुणोयओपुर समर संगाम डमर 14 कलिकलह बेहकरणं, दुग्गति विणिवाय वड्डणं, भवपुणब्भवकर; चिरं परिचियं, अणुगयं, दुरंत तइयं अहम्मदारं // 1 // तस्सय नामाणि गोणाणि होति तीसं तंजहा-१ चोरिकं, 2 परहडं, 3 अदत्तं, 4 कुरिकडं.५ परलाभो, 6 अमंजमो, 7 परधणमिगिट्टी, 8 लोलिक्को, 9 तक्करतणंतिय,१० अवहारो ११हत्थलहुत्तणं, 12 / पाव कम्म करणं, 13 तेणिक्को, 14 हरणविप्पणासो, 15 आदियणा, 16 लुंपणा धणाणं, 17 अप्पच्चओ, 18. उवीलो, 19 अक्खवो, 2. क्खयो,२१ वाला, विपरीत कारण वाला, रागद्वेष की वृद्धि कराने वाला, बहुत लोगो की मृत्यु होवे वैसा संग्राम कराने वाला आडंबर बताने वाला, कोश. कराने वाला, पश्चाताप कराने वाला bia दुर्गति में डालकर परिभ्रमण कराने वाला, भवभ्रपण बढाने वाला, बहुत, काल से परिचित. बहुत काल से आचरण कराया हुवा, और दुःख रूप स्थान वाला है. // 1 // इस तीसरे अधर्म द्वार के गुगनिष्पन्न तीस नाम कहे हैं. तद्यथा-१ चोरी 2 परवस्तुहरण 3 अदत्त, 4 क्रूरकर्म, 5 परवस्तु का लोभी 2.16 असंयम, 7 परधन में गृद्धि, 8 परधनकालोलुपी. 9 तस्कर, 10 अपहरण 11 लघुहस्त 12 पापकर्म का कारण 13 सन 14 हरण धनका नाश 15 किसीकी वस्तुं ग्रहण करना 16 धनउफेंक डालना 17 अप्रती 'अध्ययन 484 41
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________________ / अर्थ विक्खेवो,२२ कूडया, 23 कुलमसीय, 24 कंखा, 25 लालप्पण पच्छणाय, 26 आसासणायवसणं, 27 इच्छामुच्छाय, 28 तण्हागिद्धि, 29 नियडि कम्मं, 30 अवरच्छिन्निविय, // तस्स एयाणि एव मादीणि नामधेजाणि हूंति तीसं // 2 // अदिण्णादाणस्म पावकलिकलुस, कम्म बहुलस्स अणेगाइं तंच पुण करोति चोरियं, तकरा, परद्दबहरा, छेयाकय, करण, लहलक्खा, साहसिया. ' लहुसग्गा, अतिमहीत्था, लोभघच्छा दद्दर, उनील,गाय गिडिया, अहिमरा, का कारन 18 उद्वेग उपजान वाला 19 अक्षेप का कारन 2 . प्रक्षेप करना 21 विक्षेप करना 22 कूड 23 कूल में काला करना 24 कांक्षा 25 लाल पाल करना 26 आशामना करना 27 इच्छा अभिलाषा 28 तृष्णा 29 निकाचित कर्मबंध का स्थान और 30 अपारक्षी अर्थात् अन्य की द्रष्टि नहीं बढे वैसा स्थान. यह तीस नाम पाप कर्म के स्थान वाले अदत्त आश्रव के होते हैं // 2 // इम का कौन करता है सो कहते हैं. पर द्रव्य हाण में दक्ष, चोरी करने के आसर के आता, साहसिक, तुच्छ आत्मा, अती इच्छा वाला, लोभग्रस्त, बचन का आडंबर करने वाला, अत्म स्वरूप गोपनं वाला, ठगने में गृद्ध, सन्मुख बनकर घात करने वाला. ऋणलेकर पीछा नहीं देने वाला, भग्न कायको पुनःसांधने वाला राजा का 17 दुष्ट करने वाका, राजा के भंडार तोडकर धन लेकर दुष्ट कर्म करने वाला देशपार किया हुवा ज्ञा.ते बहिष्कार बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोल व ऋषिः *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ - अणभंजगा, भग्गसंधिया; रायदुटुकारिय; विसय णिन्छुढ; लोकवज्झा, उद्दहका, गामघायग, पुरघायग, पंथघायग, आलिवग, तित्थमेया, लहुहत्थसपउत्ता; जूयकरा, खंडकरक्खत्थी, चोर, पुरसा चौरसंधिच्छेयगाय, गी?भेदगा, परधणहरण, लोमावहारं, अक्खेवी, हडकारग, निम्मदग गढचोर, गोचोर,अस्सचोरक, दासिचाराय, एकचोराय, उक्कडग, सपदायक, उच्छिपक, सत्थघायक, विलकोलीकारकाया, निग्गह विलुपका, 418 अदत्त नामक 414 दशमान प्रश्नव्याकरण मूत्र-प्रयम-आश्रद्वार बनाहुआ गुप्तरहकर घान करने वाला, गुप्तरहकर ग्रामादि जलाने वाला, साधु साधी श्रावक और श्राविका में भद काल का धारक अर्थात कोई जान सके नहीं वैसे चोरी करनेवाला, जूमा खेलनेवाला. कोतवाल, मांड या दाणी, स्त्र की चोरी करनेवाला, परुष की चोरी करनेवाला, खात डालनेवाला, गठडी छोड वस्तु का हरन करनेवाला, दूसरे के धन का हरन करनेवाला, अन्य का माण घात करके धन लेनेवाला, धूर्त बनकर धन लेनेवाला, हठ करके चोरी करनेवाला, झरे को मारकर चोरी कग्रेवाला, गुप्तपने चोरी करनेवाला, अश्व के चोरी करनेगला, गाय की चोरी करनेवाला. दास की चोरी करनेवाला, अकेला ही चोरी करने वाला, चोरी को छिपानेवाला, चोर को महाय देनेवाला, साथियों की घात करनेवाला, विश्वास वचन बोलकर धन लेनेवाला, राजादिक के गृह से नीकलनेवाले को लूटनेवाला, और बहुत प्रकार की चोरी में है। अध्ययन |
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________________ - ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिनी / 4. अनुवादक-बालब्रह्मचा ... बहुविह तेणिकहरणबुद्धी, एतेय अण्णेय एवमादी // 3 // परस्स दव्याहिं जे अविरया, 'विपुलबल पग्ग्गिहाय, बहवे रोयाणा, परधर्णमिगिहा, सएव दव्वे असंतुट्टा, परविसए अभिहणति तुट्ठा, परधणस्सकजे, चउरंगसमत्त, बलसमग्गा, निच्छय वरजोह जुद्ध सजिया, अहमहमिति, दप्पिएहिं. सेन्नेहिं संपरिवुडा, पओम सगड सूइचक्क सांगर गरुल बुहादिएहिं अणिएहिं उच्छरता, अभिभूय हणति परधणाई, अपर रण सीस लद्धलक्खा सगामें अतिवयंति सण्णेद्धवह परियर उप्पीलीय, चिंध पटुंगहिया उहपहरणा बुद्धिवाला और ऐसे ही दसरा चोरी करता है // 3 // परधन हरण करने में प्रस्याख्यान रहित, विपुल बळवाला, बहुन राजामो का राजा, अन्य ऋद्धि देखकर अपने भी ऋद्धि होवे कैसा चाहने वाला, अपनी ऋद्धि में असंतोष धाग्न करने वाला, अन्य राजा के अधिकार वाले देश में सन्मुख बनकर घात कग्न वाला, और लूटने वाला, चोरी करता हैं. सदैव परधन हरन में रमण करने वाला, हाथी, घोडे. रथ और पदाति ऐसे सेना के चार विभाग कर के किसी को मारतका निश्चय करे, फीर संग्राप सज्ज करे. संग्राम में मुझे जयश्रीमिलेगा। ऐहा अभियान लाकर सेना का साय रहे वह भी चोरी करने वाला गिना जाता है. पद्य कमल जसे शकटाकार व्यूह चक्राकार ब्यूर, सागर के आकार व्यूह, गरुड के आक र व्यू', इत्यादि प्रकार से सेना का विभाग कर उस में * प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 1
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________________ 44 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम-अ'श्रबद्वार HA माढिगुवरडचम्मगुडिया, अविद्वजालिका, कवयः कंचुइया, उर मिर मुहबंध कंटतोरणा माइय वरफलग रचिय पहकर सरभसखरचावकर करत्थिया सुनिमिय सर बरिस चरकण कमुयंत घणचंडवंगधारा निवाय, मग्गे अणेगधणुमंडलम्ग संधित उच्छलय सत्तिकणग वामकरगहिय, खेडग निम्मल निविद, खग्ग पहरंत, कोत तोमर, चक्क गया परसु मुसल,लंगल सूल लउड भिंडिमाल, सव्वल पट्टिस चम्मेट दुघणमुट्ठिय मोग्गरवरफालह, जंत पत्थर, दुहण तोण कुवेणा पीढाकलिए ईली पहरण मिली योग वंश उसपर जय पालना दुष्कर होवे तो सेना को छछेडता हुवा और अन्य के प्रार्डवर का # अच्छादन करता हुवा सन्मुख आकर उस के धन का हरन करे वसा, वैसे ही मेना के अग्र भागमा रहने वाला, शस्त्र के मस्तक की और लक्ष्य रखने वाला, स्वयपेवः अन्यदल में प्रवेश करने वाला भी चौरी करने वाला कहाता है. कवच बन्ध, बख्तर पहिना हुवा. शैशीला. राजचिन्ह मस्तक पर धाग्न किया हुवा, आयुध शस्त्रों ग्रहण किया हुवा. कवच गुंडाला हुवा अर्थात् चमडे के मजबूत बक्तर से हृष्ट. पुष्ट शरीर आच्छादन किया हुवा, उपर में लोहपये जाली पहिनी हुइ..यों कवच की. कंचुकी युक्त, हृदय स्तक पेट मुख वगैरह बंधा हुवा, गरदन में तीरका भाथा बंधा हुवा, शस्त्र से अपने शरीर को बनाया हुवा, 11/बहुत पदाति के सभारंभ वाला, हाथ में धनुष्य धारन करने वाला, मेघ की वर्षा समान बाण की वर्षा अदत्त नामक तृतीय अध्ययन sin
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________________ मिलंत खिप्पंत विज्जुजल, विरचित, सम्मप्पह नहतले फूडपहरणं महारण संख भेरी दूंदहि वस्स्तूरफ्उर पडुण्डहा हयनिनाय, गंभीरणदित पक्खुभिय, विपुलघामे हयगय रहजोह तुरिय पसरितरयुद्धत तमंधकार बहुले, कायरनर णयणहियय बाउलकरे, विलुलित उक्कड वरमउडतिरीड' कुंडल दुद्दारामडोक्ति पागउपडांग कुमित, उझाया विजयति, चामरचलंत छत्तंधकार गंभीरे, हयहसित, हत्थिगुलगुलाइय, स्हधगधगाइय.. पाइक्कहराहराइय; अफोडित सहिनादः छिलिलित करनेवाला, अनेक वीरपुरुषों धनुष्यों को कुंडलाकार कर अ में में बाण अहते हैं के आकाश में ऊंचे उछलते है. वैमे त्रिशलादि व येहाथ में धारनकर म्यानमें से तरवार बाहिर नीकालने वाला है, और भी भाला, गदा परशु, मशल, हल, शूल, लकुट, भीडिमाल, मबल, पहिल, गोला. मदाल, मुष्टयमाण, मुद्गल, प्रधान फली, गोफण, पत्या, टाकर, माथडी, कुनी, पीठफली, इलीक इत्यादि शस्त्र झगझगाट' भलकते विद्यत्। मपान . चमकते हुए हो रहे हैं. और भी महा संग्राम में शंख, मेरो, तूर, पडो, वरदू इन के गंभीर, हर्षयुक्त अन्य का क्षोभित करे वैसे, विकीर्ण घोषवाले, मेघ सपान गर्जनावाले शब्द हो रहे हैं. हाथी घोडे, रथ और पदाति यों चारों ओर सेना प्रसर रही है, जिस के चलने से रजरेण उड कर आकाश आच्छादित होगया 1,, इस से महा। मेघ की घटा मानो दीखाइ. देती हो. शूरवीर पुरुषों के नेत्र को प्रिय आकुलता व्याकुलता / 44 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख ऋ पिजी - * 'कायाक राजाबहादुर लाला मुकदवसहायनी ज्वालामादजी *
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________________ विधुट कुटु कंठकय सद्दभीमगजिए, सयराय हंसतरुसंत कलकलरवे, आसुणिय वयण सद भीमदसणाधरो? गाढदढ सप्पहार करणुज्जयकरे अमरिम वसतिब्बरति निदारितत्ये वेदिट्टीकुद्धे चेडिय तिवली कुडिल भिगुडिकय निडाले; वध परिणय, नरसहस्स विक्कम वियंभियं बले वग्गंत तुरंगा रह पधाविय, समर भड। बडियच्छेयलाघव पहार साधिय समूहविय, बाहु जुयल / करनेवाला, चपल नृपार के देदीप्यमान मुकुट और कानों के कुंडल की शोभा मानो नक्षत्र माला का आडंबर ही दीखाइ देता है. ऊंची फरकती हई ध्वजा, छोटी 2 पताका, बजते हुए चामर, छत्र का गंभीर अंधकार हाथिओं का गरगलाट, घोडे का पारद, रथों का झणकार, पदातियोंका कलकलाट वगैरह शब्द से गगनमंडल को फोडनेवाला सिंह के शब्द जैसा होरहा है. जिव्हा के अग्रभाग से शब्द करना, सीत्कार शब्द करना, विरोध दर्शक शब्दोच्चार करना. आनंदकारी शद करना, कण्ठ का घोंपाटरूप शब्द करना, सिंधुरागादि। गायन करना; इत्यादि शब्दों के नाद से चारों दिशा नाना प्रकार के भेद सपान मर्जित हो रही है. एक 15 साथ सबका रहना, एक साथ सबका रोन', और जिम के कलकलाट कर किसी प्रकारका शब्द सुनाइ नहीं देवे वैता संग्राम बड़ा भयंकर होता है. क्रुद्ध नकर होठ काटन:, हाथ की सफाई के लिये भुजाओं।" 12 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम अश्रवद्रार 182 #kin अदत्त ना क तृतीय अध्ययन Hin
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________________ पनी 23 मुक्कंटहास पुक्त बोलबहुले कलकलगा फलफलगा वरणगहिय, गयवर पत्थित, दप्पियः / भडखल परोप्पर प्पलग्ग जुद्धगवित, विउसित वरासि। सतुरिय अभिमुह पहरत, छिन्नकरिकर, बिभंगियकरे, अवइट्ट निसुद्ध भिन्नफालित पालत रुहिर कय भूमिकद्दम, चिक्खिलपहे, कुत्थि दालिय गलित निभेलितंत, फुरफुरतविगल मम्महय विगत, गाढदिन्नप्पहार, मुच्छित रुलत, विन्भल विलावकलुणो, 'ठोकना, रोष में आकर तीव्र शब्द उच्चारना, अर्थ निद्रा में से उठते हुए मनुष्य जैसे रक्त नेत्रों दीखना, वैरभाव से कपिन बनकर शरीर की चेष्टा करना, त्रिवली चडाना, वध की प्रतिज्ञा करना, और अपन जितना बल है सो बताना वगैरह मंग्राम में होरहा हैं. हलके हाथ के प्रहार करने में साधना कराइ हुई जीत के हर्ष से ह स्य करते हुए बहुत सुभट सन्मुख आये, वैरी के आयुध अपने आधिन करके हाथ में धारन किये, अहंकार युक्त सुभट परमार युद्ध करने में सज्ज हुए. म्यान में से तस्व र नीकाली. और सन्मुख आकर प्रहार करने लगे. इस प्रकार के भगनक रौद्र संग्राम में हाथी के सूडाड छेदित किये, भेदित / किये, मनुष्यादि के रुधिर से वहां का मार्ग कर्दम मय बन गया, पेट में से रुधिर का वहना हो रहा किसी के तो आंत वाहिर नीकल रहे हैं. इन्द्रिय व ज्ञान से विकल बने हुए मर्म स्थान में प्रहार लगने से मनि श्री अमोलक काक-रजाबहादुः ल सुबदवसहायनी वाला प्रसादनी* + अनुवादक-बाल ब्रह्म
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________________ R दशमाङ्ग-प्रश्नच्यःकरण सूत्र-प्रथम आश्रद्वार हय जोह भमंत, तुरगआदांममत्त कुंजर परिसंकित जण निव्वुक्काच्छिण्णद्वयभग्ग रहवर नट्ठसिर, करिकलेवरा किंणपडित पहरणा विकिण्णाभरण भूमिभागे, निचंत कबंधपउरं भयंकरवायस परिलतं, गिद्धमंडल भमतं, छ यंधकारं गंभीरे वसुबसुहविकापयव्व पच्चक्खपिओवणं. परम रुद्द बहिण, दप्पवेम रंगं अभि डेति संगाम सकडं परधणंमहंता // अवर पाइकचोरसघासेणावइ चारवंदण पांगढिकाय अडविदेस मूच्छित बनकर भूमपर पड़े हैं. कितनेक भूमिपे लोटते हुए विलाप दीन आलाप कर रहे हैं, इस से वहां का दृश्य करुणाजनक होता है. कितनेक घायल योद्धाओं छूटकर दशो दिशी में भगने लगे अपनी इच्छा से फीरने लग. घोडे तथा मदोन्मत्त कुंजर से डरते हुए लोक भगते हैं, मूल से छोदित की हुइ ध्वजाओ, तूटे हुए प्रधान स्य के मस्तक पडे हुवे हैं. हाथियों के कलेवर इधर उधर पड़े हुए आभूषण, उस भूमिके प्रदेश में इधर उधर नाचते हुए यस्तक रहित शरीर से वह संग्राम स्थान वीरत्व दर्शता है कायरों को बहुत भयंकर दीखता है. गृद्धपक्षी ढंक, काक, इत्यादि मांसाहारी पक्षियों के समुह गगन में पारेभ्रमण करते हैं. इन पक्षियों में ही वहां अंधकार अच्छादित हो। रहा है. जैसे वासुश को वसुदेव काम्पत करते हैं वही शूरवीर राजाओ कम्पित करते हैं. और भी। वह स्थान स्मशान जैसा अत्यत रौद्र, भयंकर, और अन्य लेको के लिये प्रवेश करना बहुत कठिन है. + अदत्त नामक तृतीय अध्ययन H it |
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________________ - / मुनि श्री अमोलक ऋषिजी। 4. अनुवादक- बब्रह्मच दुग्गवासी काल हरिय रत्तपीता सुकिल अगसयं चिंधपटबंधा परिविसए अभिहणति लुद्धा धणस्सकजे // 4 // रयणागर सागरंच उम्मीसहस्समाला कुलवितोय पोतकलकलंत कालयं पातालकलसपहस्सा, वायवसवेग लिल उदम्ममाण दगरय ग्यंधकारं वरफेणपउर धवलं पुलं पुल समुट्ठयहामं मारुय, विच्छुसमाण पाणिय जलमालुपीलहलिय तपियममतो खुभिय लुलित खो खुम्भमाण पक्खिलियं चलियं विपुल जल चकवाल महानदीवेग तुरित अपूरमाणा गंभीर विपुल आवत्त वहां अन्य द्रव्य के इच्छक अन्य पापी चारों के माथ कटक का स्वामी. चोरे के वृन्द में प्रवर्तक अटवि में रहने वाले, विषप जल स्थल में रहने वाले, कृष्ण, नीर, रक्त, पीत और श्वेत इत्यादि वर्ण वाले ध्वनीद चिन्ह के धारक अन्य देशमें सन्मुख जाकर घात करनेवाले और दौरे के द्रव्य लोलक चौकी करते है. // 4 // अब यहां समुद्र का वर्णन करते हैं क्यों कि कितनेक ममुद्र में जहाजों पर रहे हुवे लोगों का घात करते हैं. हजारों उर्मियों की माला से अ'कुल व्याकुल, जहाज के कला कलाट शब्द हो रहे हैं, हजारों प ताल कलश के गायु वेग में समुद्र का पानी उछलता है जिस पानी के कन से अंधकार होजाता है है. श्रेष्ट फेन से अती श्वेत दीखाइ देता है, निरंतर उद्धत हुग व हास्य करता हुवा बायु मे समुद्र का पानी शोभित होता हुआ शीघ्रमेव चारो ओर भूपिपर पडता है. और पानी के साथ नीकले हुवे जलचर वगैरह जीव'* * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रमादजी *
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________________ 4 Bansans * दशमलव्याकरण सून मथम अश्रबदर 4 चंचलभममाण गुप्प माणुच्छलंतं पञ्चेणियंत पाणिय, पधाविय खरफरुम पयंडं वाओलियमलिल फुटत वीतिकल्ले ल संकुल महामगरमच्छ कच्छ मोहाग्गाहतिमि संसुमार सावय समायसमुद्धयमाणय पाघोर पउरं कायरजण हियय कंपणं घरमार संत, महब्भयं भयकरं पतिभयं उत्तासणगं अणोरपारं, अग्गमंचेव निरवलंबं उप्पइय पवणधणियलित उवरुवारतरंग दग्य, अतिवेग चक्खु पहमोच्छरंत, कच्छइगंभीर विपुल गुंजित निग्ध य गुरुअ निवति विस्तार पाकर पीछे स्वस्थान में जाते हैं. गगा नदीका वेग चक्रकाल आता हुना दीखाइ देत है. चपलता पूर्वक }nal, नीचे पडता विस्तीर्ण आवर्तन. [जल भ्रमण के स्थान ] में भ्रमर पडता है. कुंडलाकार ऐसे अती चपलब ऊंडे उतरते व्याकुल थोडी देर में बढनाव थोड़ी देर में नीचे पडे वैसा वहां पानी है. शीघ्रता पूर्वक जाती हुई अत्यंत कठोर प्रचण्ड और व्याकुल पानीकी कल्लेल से वहां मगरमच्छ, काच्छवे गोहा, पीचर, मुसुमार, साक्य वगैरह जीवों अथढाते हैं. वे जलवर महा भयंकर, रौद्र कायर पुरूषों के हृदय को कम्पित करे वैसे 4 शब्द करते हैं, वह महा भयकारक उपद्रवका स्थान और त्रास का स्थान देखाइ देता है. दृष्टि से अगोचर है | अर्थात् इस का किनारा नहीं दीखाइ देता है, आकाश जैसा अबलम्बन रहित है. वहां वायु से एक पीछे .. एक यो पानी की तरंगों उछलती है, अतिसंग से भाग नहीं दीखाइ देता है, विस्तीर्ण गंमीर गौरव / 8+ अदत्त नापक तृतीय अध्ययन H
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________________ * अनुव दक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी त सुहि नीहारित दूरसुच्ची गंभीर धुगधुगंतिसरं, पडिपहरुमैतं, जक्ख रक्खस, कुइंड पिसाय रुसियंतजाय, उवसग्ग सहरस संकुलं बहुप्पाइय भूतं विरचित बलिहोमधुव उवचारदिणरुधिर तच्च करण, पयत जोग पयय चरियं परियत्त जुगत काल कप्पोवमं दुरंति महानई नईवइ, महा भीम दरिसणिजं, दुरणुचरं विमम दुप्ण्वसं दुक्खुत्तरं, दुरासयं लवणसलिल पुण्णं // अमित सित समुसित गेहिहत्थंतर केहिं बाहणेहिय अतिवतित्ता समुद्द मज्झे हणति गंतूण : होता है. दूर मे दीर्घ शब्द मनाई दवे, मार्ग को मंघन करनेवाले राक्षम कोहंड देव पिशाच वगैरह उपपर्ग उत्पन्न करे. इन्की शानि के लिये अग्निहोत्र, धृप उपचार देवताओं की पूजा इत्यादिक से सावध पना स समुद्र की पेवा करे. छठे आरे मगन समुद्र भयंकर होचे, काल समान समुद्र भयंकर होवे, दुःख से वहां अंत हाता है. वह गंगा आदि नदियों का स्वामी है, महा भयंकर रूप धारन किया हुचा है. उस से उत्तीर्ण होना वडा दुष्कर देखाता है. उस का सेवन करना भी बहुन दुष्कर है. क्षारे पानी से भग हुवा है. नमक जैसे पानी से भरा हुवा है. निर्यामक ने कृष्ण वर्णवाली अजाओं ऊपर चढाई है. अपनी चाल छ टकर शीघ्रता पूर्वक चलने लग एस वाहन स संयुक्त समुद्र में चोर युक्त वाहनारूढ पुरुषों का घात *पशक-राजाबहादुर.बाळा सुखदेवसहायजी चालासाद जी * /
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________________ - जणपोते, // 5 // परदब्बहरा नरा, निष्णुकंपा निरावयक्खा // गामागर णगर खेड कवड मंडव दोणमुह पट्टण सम णिगम जणवय तेय धण समिद्धे हणंति थिरहिताय छिन्नलज्जा, बंदिग्गह गोगहयगिण्हति दारुणमती, णिकिंवाणियंहणंति, छिदितिगेहसंधि, णिक्खित्ता णियहरंति धणधण्णदव्यजाताणि जणवयकुलाणणि ग्घिणमती, परस्सदव्वेहिं जे अविरया, तहेव केई अदिण्णादाणं गवेसमाणा कालाकालसु संचरंता वितकापजलित सरसदरदद्रुकड्डियकलवरे, रुधिरलित्तवदण करते हैं // 5 // परधन हरन करनेवाले चोर अनुकंपा रहित, परभव के डर रहित, ग्राम, धातु के आगर, नगर, खेड, कट, मंडप, द्रोह मुख, पाटण. आश्रम, निगम, और जनपद में धन हरन करते हैं, चोरी करने में 3 स्थिर हृदयाले, लज्जा का छेदन करनेवाले, स्त्री पुरुष को पाश रूप, गवादि पशु हरन करनेवाले, दारुग. निर्दयी, अपनी आत्मा के घातक, घर की संधी का छेद करनेवाले, खात देनेवाले, घर में धन धन्यादि हरन करनेघाले, देश में अनेक जाति के लोगों के साथ द्वष करनेवाले, घृणा रहित, अन्य का. ठग ग्रहण नहीं करने की प्रतिज्ञा रहित, ऐसे पुरुष अदत्तादान की गवेषणा करते हुए काल अकाल में? फीग्ने हुवे, मृत शरीर जलावे वैसे स्थान में से, रुधिरादि युक्त स्थान में से और कार्य के लिये स्थाप हुई. 16वस्तु में से वस्तु ग्रहण करे , मृत शरीर को अलंकृत किये हुए आभूषण का हरन करे, रुधिर लिप्त धातक / दशमङ्ग-प्रश्नाकरण मूत्र प्रथम श्रद्वार अदत्त नामक तृतीय अध्ययन
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________________ श्री अमालक ऋषि मर्थ | अक्खयखातिय पीतडाइणि भमंत भयकर जंबूयखिक्खियत्ते घुयकय घोर सद्दे, वेतालुट्रित, निसुद्धकह कहय, पहमिय विहणगं निरभिरामे, अतिदभिगंधे विभत्थ दरसणिज्जे समाणे वण सुण्णघरलण अंतरावण गिरिकंदर विमम सावय समाकुला सुवमहीसु किलिस्मंता सीतातव सोसिय सरीरदद्वच्छवि निरय तिरिय भवसंकडं दुक्खसंभार वेदणिजाणि पावकम्माणि संचिणंता दुल्लभ भक्खण पाणभोयण पिवासिता झुजिता किलतामंस कुणिम कदमूल जंकिंचि कयाहार, उद्विग्गा ओप्फंता असरणा अडविवास उर्वेति, के शरीर के द्रव्य हरन करे, अक्षतादि मंडल में स्थापन किया द्रव्य का हरन करे, पडे हुए द्रव्य का हरन करे, डाकिनी से पीया हुवा रुधिरवाला मनुष्य का द्रव्य हरन करे, शृगाल का भक्षण करनेगले मनुष्य का द्रव्य हरन करे. ती हास्य करनेवाले का, यू थू थूकनेवाले का, घोर रौद्र शब्द करनेवाले का. वैतालिक विद्या के माधक का और खराब कथा करनवाले का द्रव्य हरन करे, भान विना हसनेवाले सुख रहिन-दःखी जीवों का द्रव्य हरन करे. अति दुर्गधपय स्थान में विभत्स स्थान में, स्मशान में, शून्य गृह में, गृहों की गल्लियो में, पर्वत पर, पर्वत की गुफाओं में, पशुने मनुष्यादि पारे होवे वैसे विषम स्थान में, मिह व्याघ्रादिक के भयंकर स्थान में, क्लेश पाता हु। शीत ताप सहन करता हुवा, नरक के सेंकडों दुःख वेदता हुवा, पाप कर्म बांधना हुना, उत्तम खान पान रहित, द्रव्य का पिपामु बना हुवा, झूझना व खेदित हाता हुग मांस, कूणिम, कंदमूल इत्यादि का अ.हार करता हुवा उद्वग्न बना हुवा, शरण रहित *प्रकाशक-राजाबहादुर लाळा मुखदव सहायजी उचालाप्रसादजी* 4. अनुवाद क-बाबम
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________________ - annnnnnnnnnnnnnnnwww // 6 // बालसय संकणिज्ज भयंकरा अयसकरा, तक्करा कसहरा मोत्ति अजदव्वं. इति सामत्थं करेंति गुज्झं, बहुयस्सजणस्स कजकरणेसु विग्धकरामत्तप्पमत्तप्पसुत बीमत्थ छिद्दघाती वसणभूदएसु हरणबुद्धि विगव रुहिर महियापरेतित्ति नरवति मज्जाय मतिकता सज्जणजण दुगंछिता, सक्कम्मेहि पावकम्मकारी, असुभपरिणयाय दुक्खभागी, निच्चाउल दुहमणिव्वुइमणा, इहलोए चेव किलिस्संता, परद्दव्वहर। नरा अटवि में जाकर रहता है // 6 // और भी सेंकडों सर्प से व्याप्त विषम स्थान में छिपने वाले, भयभीत होने वाले, अपयश करने वाले, आज अमुक की छोरी करना वैसा गूह्य वर्तलाप करने वाले, बहुत लोगो के कार्य में विघ्न डालने वाले, मद्यपान से मदोन्मत्त बने हुए. प्रथम (बाल ) अवस्था में पडे हुए, विश्वास उत्पन्न क. छिद्र देखने वाले, वस्त्र लकड वगैरह मब यस्तु की चोरी करने वले, जै नाहस जीव-पंजे वाले जीव रक्त चाटने के अभिलाषी होते हैं वैसे ही धन हरन की अभिलाषा क ने वाले, सब दिशां विदिशा में परिभ्रपण करने वाले, गजा की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, स्वजनी से दुर्गच्छा पाये हुए, अपने कई से. पाप कर्म करने वाले. सदैव अशुभ पारणाम के धारक. दुःख के विभागी 17 सदैव विस्तीर्ण दुःख व असमाधि से पीडित और पर द्रव्य के हरन करने वाले इस लोक में सेकडों दुःख प्राप्त + दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रद्वार High अदत्त नामक तृतीय अध्ययन .+
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________________ 41 अनुवादक-बाळब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - वसणसय समावण्णा // 7 // तहेव केइ परस्सदत्वं गवेसमाणा गहियाय हताय बद्ध रुद्धाय तरियं अतिधाडिता, पुरवर समप्पिता चोरग्गहं चारभड चाडकरण तेहिय कंप्पड प्पहार निद्दया आरक्खियखर परुस वयण तजणग, लुच्छल उच्छल्ल गाहिं विमणा चारक वसहि पवेसिया, नरयवसहिं सरिम, तत्थवि गोम्मिकप्पहार, दूमणा निभंछण कडुयवयण भेमणग भयाभिभूया, अक्खित्तणियंसणा, मलिणडंडि खंडववेसणा उक्कोडालंचन पासमग्गण परायणेहि, गोमिगभडेहिं, विविहेहिं बंधणाहे // 8 // किंते करते हैं. // 7 // वो ही पग्रव्य हग्न करते कदाचित राजपुरुषों पकड लेवेतो भाखसी आदि में शेकते. हैं. नगर में फीराते हैं. नगर में पडह से सब को सूचित करते हैं कि अमुक चोर पाडा गया, उसे दुष्ट में वचन सुनते हैं, रातें के प्रहार करते हैं. कोतवाल वगैरह निर्दय बनकर कठोर वचन कहते हैं. तर्जना करते हैं। मुहपर तमाचा लगाते हैं. उस को कंदखाने में डालते हैं, वहां भी साक्षात नरक ममान दुःख होता है. वहां किसी प्रकार का सख नहीं होता है, केवल दुःख ही दुःख होता है. काराग्रड के रक्षक उस पर प्रहार करते हैं. अग्नि अदि का ताप, दुर्गन्धपना, निर्भत्सना करना, कट वचन बोलना, वगैरह अनेक प्रकार के भय सन्मुख होता है, उस के वस्त्र मब छीन लेते हैं, मालिन वस्त्र खण्ड का उमे देते हैं, और भी कोतवाल विविध प्रकार के बंधन में चोर को डालता है, उस के पास भिक्षा मंगवाता है और उस को सीपाई भी बड़ा दुःख *प्रकाशक-राजाबहादूर लालामुखदेवसहायजा ज्वालाप्रसादजी.
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________________ +4 4.दंशण प्रश्नकरण मृन-प्रथम-अश्रद्वार हडिनियल वालग्ज्जुय कुदंडग वरतलोहसंकल इत्थंडुय वझंवदामकणि कोदंडणेहिं, अण्णेहिं एवमाईएहिं गोमिगभंडोवगरणेहिं दुक्खसमुदीरण हैं, संकोडण मोडणेहि वज्झंति मंदपुण्णा संपुडकवाड, लाहपंजर, भूभिघर निरीह. कूवचारगं कीलगजुय चक्कावततबंधण, खंभालिंगण उद्दचलन, बंधणविहं मणाहिय विहेडियंता, अवकाडा गाढउर सिरबद्ध उद्धपुरित, फरंतउर कडमोडणेहिं बडायनीससंता, सोसावेढया उरयाचप्पडसांध, बंधणतत्त सिलाग सूयियाकोडणाणि, तच्छण विमाणणाणिय, देतहैं।।८॥ शिष्य पूछता है कि अहो भगवन! कैसा दुःख उत्पन्न करते हैं? गुरु कहते हैं कि उसे लोहके बंधन मे में डालते हैं, पशु बंधन रूप रस्मी से बांधते हैं, चमडे की रस्सी से बांधते हैं, हाथ में लोहमय हतकडियों 1 डालते हैं, हाथ बंधन, पांव बंधन, ग्रीवा वंश्न वगैरह अनेक प्रकार के बंधन से बांधते हैं, शरीर का में मंकोच करते हैं. अंगोपांग पगेडते हैं, बंधन में बांधते हैं, मन्द-हान पुण्य वाले का ऐसा हाल होता है / * इसे यंत्र में डालकर पीलते हैं, लोहके पंजरमें बंध करते हैं, भूगर्भ (पोयरे) में डालते हैं. अंधकूप में डालते हैं। खीले ठोकते हैं, रथ के चक्र साथ बांधते हैं, स्तंभ के साथ बांधते हैं, लोहस्तंभ को ऊष्ण करके उम मे 2 आलिंगन करवाते हैं, उपर पांव और नीचा शिर करके लटकाते हैं, कदर्थना करते हैं, इधर उधर फीराते है, चमडे से मस्तक का बंधन करते हैं. श्वासोच्छवास का झंधन करके आकूल व्याकूल करते हैं, धूल सी + अदत्त नामक तृतीय अध्ययन
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________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिनी : खारकडुय तित्तन्हावण जायण कारणसयाणि बहुयाणि पावयंता उरक्खोडीदिन्न गाढपेलण अट्टिकसं भग्गसंपसूलिया गलकालक लोहदंड उरओदग्वत्यि, पिटिपरिपीलीयामच्छंतहियय संचुणियंगमंगा, आणती किंकरहिं, केयि अविराहियवेरि एहिंजमपुरिससंन्निभेहिं पहया ते, तत्थमदपुणा, चडवेला बब्भपहपोराइंत्थिवा कसलय, वरत्तबत्तप्पहारसयतालियंगमंगा किवणालंबंत चम्मवण विणय विमुहिय, कचरा वगैरह में गाडते हैं. हृदय कम्पित होवे वो अंगोपांग मरोड़ते हैं, बंधन से व्याकुल बनकर निश्वाम डालते हैं. मस्तक को आई चर्प का वेष्टन करते हैं, जंघा काटते हैं. काष्ट के यंत्र में पांव फमाते हैं, लोहके तपाये हुए तार अथाव सूड अंग में धूडते हैं, लकडी जैसे छोलते हैं, क्षार तेल मानी तेजाप कडुमेह नीक्ष्ण द्रव्य से स्नान कराते हैं. सेंकडो प्रकार के दुःख उत्पन्न करते हैं. अत्यंत दुःख पीडित बनकर वह इधर उधर लोटना हैं, हड्डी पसलियों का भंग करते हैं, लोहके दंड से कूटते हैं, हृदय, उदर, इन्द्रिय और पृष्ट भाग इतने स्थान में पीडा करते हैं, मंथन कर हृदय को चूर्ण करते हैं, कोतवालादिक सेवक उनकी आज्ञानुसार उस तस्कर को अनेक प्रकार के दुःख देते हैं. कितनेक पग्माधर्मी जैसे हीन पुण्यवाले प्राणी को चपेटादि लगाते हैं, चमडा नीकालते है, लोह की संकल, मूत के चाटूक, लता, चमडे के चाबूक, नाडियों इत्यादि सेंकडों प्रहार से मारते हैं. अंगोपांग का छेदन करते हैं. वे दीन बनकर *काशक राजाबहादुर लाला सुखखदेवसहाय जीज्वालाममादजी* 1
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________________ + मणा घणकोटिम नियल जुयल संकोडिय मडियाय कीरति निरुच्चागपया अन्नाय एवमादीओ वेयणाओ पावा पावंति दंतिदियावसहा, बहुमोहमोहिया परधणमि लुडा फासिदिय विसयतिब्बगिद्धा, इत्थिगय रूबसहरसगंध इट्ठरतिमहित भोगत एहाइयाय धणतोसगागहियाय जे नरगणा पुणरविते कम्मदुवियढा उवणीया रायकिंकराणं, तेसिंबधसत्थग पाढयाणविल उलीकारगाणं, लंचसयगेण्हगाणं, कूडकवडमायनियडि आयरणपणिहिं वंचणविसारथाणं, बहुविह अलियसय जंपकाणं श्वासोच्छवास डालते हैं, मुख का चमडा संकोचते हैं, वेदना से आकूल व्याकूल होते हैं, चोरी के कम से विमुख बनते हैं, हमने चेरी क्यों की ऐसा पश्चाताप करते हैं, लोह के धन से उन के शरीर के ममस्थान है गदते हैं, उन के पांव छोटी बेड़ियों से संकोवाते हैं, उन की हड्डीयों का भंग होन से कोतवाल के वश बने हुवे उन की लघुनीत बडीनीत की बाधा भी नहीं मीटा सकते हैं. इत्यादि अनेक वेदना से उन का शरीर क्षीण होता है. जिनोंने अपनी इन्द्रियों का पापकारी कार्य से संयम नहीं किया है वे ऐसा दुःख मांगते हैं. वे अत्यंत मोह मुग्ध दूसरे के धन में लोलुप्त, स्पर्शेन्द्रिय के विषय में तीव्र गृद्ध, स्त्री के रूप में आसक्त, रूप शन्द गंध रस, इष्टकारी रतिकारी भोग के पिपासु, अधिक तृष्णावाले, दूसरे के धन की "अभिलाषा करनेवाले, चोर को चोर के कार्य में पर्तते हुए देखकर कोतवाल बंधन में डालता है. वहां / / 41 दशमङ्ग-प्रश्नव्याकरण मूत्र-प्रथम-आश्रः द्वार at antr अदत्त नामक तृतीय-अध्ययन
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________________ परलोपकरमुहाणं, निरयगतिगामियाणं तेहिय आणतजियदंडा तुरियं ओग्याडिया पुरवरहिं सिंघाडग, तिकचउक्त चचा महापहपहेसु वेत्तदंड लकुटकट्ठ लेट्ठ पत्थरपणालि पणोलिया मुट्ठिलया पादपण्हि जाणुकोप्परपहारसंभग्गह मथितगत्ता // 9 // अट्ठारम कम्मकारिणा जायियंगमंगाकलुणा सुक्कोट्टकंठ गलतालु जिब्भजायंता पाणियं, विगय जीवियासा तण्हातिया वरगा तंपिय न लहंति, वज्झपुरिसेहिं धाडियंता, तत्थय खरफरस पडघटियं कूडगह गाढरूढ निरुटुपरमट्ठा वझकर कुडि जुयल नियत्था उस को चोरी के कैसे फल मीलते हैं ? पूर्णतया क्षय नहीं हुए कर्म से पराभव पाये हुवे, खात के मुख से पकडाये हुवे, राजपुरुषों के वश पड हुए, वध करन क शस्त्र से छेदाये हुवे अन्यायी कर्म करने वाले, लांच ग्रहण कर अनेक प्रकार कीया कूड कपट का आचग्न करने वाले, लोगों को ठगने में विशारद, बहुत प्रकार के मृषा वचन बोलनवाले, और परलोक में नरक गामी चोर होते हैं. उन कोई राजपुरुष अपने वश में करके पकड करके शृगाटक, त्रिक, चौक यावत् राजमार्ग में फीराते हुए लठी, गदा, रात, चपेटा. मुष्टि, लता. पगरखी. गोडे वगैरह के प्रहार से उनकी हड्डियों तोडते हैं // 9 // और भी वे अठारा प्रकारके कई करने वाले, प्रत्येक अंग में जिनकी पीडा हुइ है वैमे दयावंत, तृपा से 17 सूख गई हैं जिव्हा वैसे, पानी की याचना करनेवाले, जीवित व तृष्णा जिन की नष्ट होगई हैं वैसे, और दीन 4. अनुमादक चालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी बाळाप्रसादजी *
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________________ 4 - दशपाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार सुरत्त कणवीरगहिय विमुक्कलकंटे गुणवझ दूतआविद्धमल्लदामा मरणभयुप्पण्ण सेयमायतणे उतुप्पियं किलिणगत्ता चुण्णगुंडिय सरीर रयरेणु भरियकेसा, कुसंभगो खिण्णमुद्दया छिण्णजीवियासा घुणंता बझपाणपीया, तिलतिलंचेव छिज्जमाणा सरीरविकत्त लोहियलित्ता, कागणिमंसाणि खावियंता, पावाखरकरसतेहिं तालिज्जमाण देहा, वातिकनरनारिसंपरिवुडा, पिच्छिजंताय नगरजणेण वझनेवत्रिया, पणिजंति णगरमझेण, किवणा, कलुणा, अत्ताणा, असरणा, अणाहा, अबंधवा, बंधुविप्पहीणा, बने हुवे उनको मंगते हुवे भी पानी नहीं मीलता है, जो कोई पानी पीलानेको आवे तो उनको राजपुरुष मना करते हैं, वहां कठोर पडह बजता हुवा, पाश में ग्रहा हुवा, मजबूत पकडा हुवा, घातिक के योग्य वस्त्र पहिनाया हुवा. . रक्त वर्ण से रंगा हुवा, कणेर के पुष्प की माला पहनाया हुवा, वध योग्य बनाया हुवा, विधिपूर्वक माला पहिनाया हुवा, मृत्यु भय से स्वेदका विस्तारवाला जैसे तेल लगा हुवा शरीरवाला हो चूर्ण से खरडा हुवा. धूलि से भरे हुचे मस्तक के बालवाला, कसुंभ से भरे हुवे यक्षीक के बालवाला, जीवितव्य की आशा रहित घूमता हुवा; प्रिय प्राणों को बचाने की इच्छावाला तिल 2 जितने टुकडे कराता हुवा, विरूप शरीर वाला, रुधिर से आलिप्त कंगणी जैसे मांस के टुकडे खाता हुवा. पापी मेंकडों चाबूक के प्रहार से। पराया हुवा, नर नारियों से परवरा हुवा, नगरजन को देखाते नगर में कीराते हुरे वध स्थान लेजाता 48 अदत्त नामक तृतीय अध्ययन 48 Mg 44.
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________________ विप्पिक्खंतादिसोदिर्भि, मरणभयुब्बिग्गा, आधायण, पडिदुवार संपाविया, // 10 // अधण्णा. सूलग्गविलग्ग भिण्णदेहा, तेयतत्थ कागति, परिकप्पियंगमंगा उलविजंति, रुक्खसालेहि, केइकलणाइ, विलवाणा, अवरचउरंग धणियबद्धा, पव्वयकडगा पमुच्चंते, दुरप्पायबहु विसमपत्थग्सहा, अणेयगयचलण, मलणनिम्मदिया करत, पावकारी, अट्ठारसंखंडियाय कीरात, मुंडपरिसुहिं केइउ खत्त, कोटनासा, उप्पाडियनयणदसणवसणा, जिभिदियाछिया, छिण्णकण्णासरा पणिज्जति छिजतिय, हुवा. कृष्ण दीन, त्राण व शरण रहिन, अनाथ; बंधव रहित, वंधगादि से त्यजाया हुवा, मरण भय से उद्विग्न बना हुवा दशदिशि में दोडता हुवा वध स्थान को प्राप्त हुवा. // 10 // यह पुरुष अधन्य, शूगर पर स्थापन किया हुवा. भिन्न शीर वाग, काटे हुवे अंगोपांग वाला. वृक्ष की शाखा से लटकाये हुए शरीर वाग, विविबाट शब्द करता है. कितनेक चोरों के चारों हाथ पांव के छेदन करते हैं. कितनेक को पर्वत के शिर पर से नीचे पटकते हैं, कितनेक को बहुत दूर ले जाकर विषम स्थान में छांड देते हैं, कित नक को पाषण के प्रहार से मारते हैं, कितने को हाथी के पांवसे बांधकर घसीटते हैं. कितनेक के शरीर (r) का मन करते हैं, कितनेक को अठारह स्थान में शरीर के खण्ड 2 करते हैं. कितनेक के मस्तक परशु से 1 काटते हैं, कितनेक के नाक कान होठ काटते हैं, कितनेक की आंखों नीकालते हैं, दांत तोडते हैं, और दक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + *प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवमहायजी ज्वालाप्रसादजा *
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________________ - 1 9 अर्थ अमिण निविनया, छिण्णहत्थपायाय पमुच्चंति जावजीवबंधणाय कीरंति, केइपरदव्वहरणलुहाकारग्गल नियल जुयल रुडा चारगायहत मारा सयण विप्पमुक्का, मित्तजण निरक्किया, निरासा बहुजण धिक्कार सहलजा विया अलज्जा अणुबह खुहा परद्धसीउण्हे तरह वेयण दुहट घटिय विवन्नमुह विच्छविया, विहल मइल दुब्बला किलंता खारता वाहियाय, आमाभिभू यगत्ता, परूढ नहकेस मंसुरोमाछगमुत्तगि णियगमिखुत्ता, तत्थेवमया अकामका जिव्हा का छेदन करते है, कितनेक को देश पार करते हैं, कितनेक को जीवन पर्यंत बंदीखाने में डालते हैं. . जो धन हरण में लुब्ध होते हैं उन की ऐमा स्थिति होती है. और भी चोरों के दुःख का वर्णन करते वह वहां निवड बंधन से बंधा हुवा, रस में से रुंधा हुवा, भाख सी में डाला हुवा, उस का 13 द्रव्य हरन, किया हुना, सब स्वजन से त्यनाया हुआ, सर्वथा निराश बना हुवा. वा जन से तिरस्कार पाया हुवा, नीन वरन से तना पाया हुवा, लज्जा रहित बना हुवा, सदैव क्षुधा, तृषा रहित, ऊष्णादि दुःख से दग्ध बना हुवा, विकारवंत मुखवा , गात्र वस्त्र तथा दुर्बल शरीर से क्लेशित बना हुवा, रक्षकोंसे वाम पाया हुवा, व्याधि से घबराया हुआ, उस का शरीर उस हो कष्ट रूप से लगा हुवा, वृद्धि पाये हुए नख, 17 रोम, दादी, मूछ, मस्त , कक्षादिक के बालवाला, म. मूवादि अशुचि स्थान में खूचा हुवा, अच्छिा है। शमाङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र-मयम-आश्रवद्व र अदत्त नामक तय अध्ययन 4141 Un
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________________ 7 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अबालक कापणा बंधिऊण पाए सुकट्ठिया, खाइयाएंछूढा तत्थ्यविगमणगसियाल कोलमज्जारबंदसंडा * सतुंडपक्खिगण विविह मुइसय विलुत्तगत्ता, कयविहंगा, केइकिमिणाय कुथियदेहा अणि? वयणेहिं सप्पमाणा, सुहकयं जम्मउत्ति पावो तुडेण जणेणे हम्ममाणा, लजावणकायहोति, सयणस्सविय दीहकालं मयासंता // 11 // पुणोय परलोए समावन्ना, नरगेगच्छंति निरभिरामे, अंगार पलित्तककप्प, अच्चत्य सात वेयणा, अरसाउदिण्णसततंदुक्खभय सममिभूए // ततोविउव्वाहिया समाणा पुणो विउपपज्जति पूर्वक मृत्यु पाया हुवा, ऐसे चोर के शरीर को पांव से रस्सी बांध कर खाइ आदि विषम स्थान में डाल , देते हैं. वहां व्याघ्र, श्वान, शृगाल, कोल्हे, मार्जार, विल्ली इत्यादि पशुओं का समुह उस के शरीर का भक्षण करते हैं. उन की हड्डियों वगैरह सड जाती है. उसे देख लोक अनिष्ट वचन कहते हैं कि इस , दुष्ट का ऐसा हाल हुवा मो अच्छा हुवा. उस के दुःख तथा मृत्यु से लोग हर्षित होते हैं, दीर्घ काल पर्यंत / उस नाम को जगत् में लज्जित करते हैं, इस से उन के स्वजनादि बडे दुःखित होते हैं // 11 // यहां से परकर नरक में जाता है वहां नरक स्थान भी मनोहर नहीं होता है, वह स्थान प्रज्वलित आनि समान होता है, *अत्यंन शीत वेदनावाला होता है, वहां उम को असाता वेदनीय कर्ष का उदय होता है, निरंतर टुःख सन्मुख बना रहता है, वहां से मरकर पुनः तिर्यच में उत्पन्न होता है, वहां भी अनुपम वेदना अनुभाता है, प्रकाशक-राजाबहादर लालाखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ सत्र - 44.28 अदत्त नाम दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथप आश्रवद्वार तिरियजोणितहिपिनिरओवमं अणभवंति वेयणति अणंतकालेण जतिणाम कहिंवि मणुय भावं लहंति, णेगेहिं रियगतिगमण तिरियभर सयसहस्त परियएहिं, तत्थ वियभवंता अणारिया, निश्चकुलसमप्पण्णा आयरियजण लोगवजा, तिरिक्ख भूयाय अकुसला काम भोग तिसिया जहिं 2 निबंधति णिस्यवत्ताण भवप्पवंचकरण पुणोवसंसारवतणे ममूले धम्मसुतिविवजिया, अणजाकूरा, मिच्छित्तसुति पवणाय होति एंगतदङ रुइणो वेढंता, कोसिकार कीडोव्वअप्पंग, अट्ठकम्मततु घणबंधणेणं एवं नरग वहां से यदि मनुष्य भव की प्राप्ति होगई होवे तो वहां भी महा कष्ट भोगता है, वहां पुनः पाप का आच-Ja रन कर अनेक भव नरक के करता है. हजारों भव लियंच के करता है. इस प्रकार संसार में परिभ्रमण करते 2 मनुष्यपना प्राप्त होवे तो अनार्य देश में नीच कुल में उत्पन्न होता है. वह आर्य लोग से दूर रहता है. उसे आर्य लोक छीते भी नहीं है. वहां निर्यच सपान दुःख भोगता रहना है, अकुशल बुद्धि व चतुरता गहित काप भोग की अपप्ति से अत्यंत प्रासित बनाहुआ नीच कर्म कर नरक का बंधण. बांध कर पुनःनरक में उत्पन्न होता है. इस प्रक र दुःख पय भव में परिभ्रमण करता है. नेम मूल धर्म और श्रुति से वर्जित अनार्य भारीकर्मा, मिथ्या शास्त्र का उपदेशक, एकांत हिंसाद दंड युक्त. अन्य जीवो। को सताना करोलियों शीक रा जीव जैसा अनार्य पशु, तुल्य आव कर्म रूप तंतु दोरी से निवड बंधा हुआ है। ध्ययन 18+
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________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी - तिरिय नर अमर गमण पेरंत चक्कवालं जम्मण जरा मरण करण गंभीर दुक्खप..क्खभिय पउर सलिलं संजोगवियोगवीचिंता पसंगासरिय बहबंधमहल्ल विपुल कल्लोल कलुणविलवित लोम कलकलंतबोल बहुलं, अबमाणण फेण तिव्व खं सण पुलंपुलप्पभूयरोग वेयण परभवविणिवाय फरुमधरिसण समवाडय है कठिण कम्मपत्थर तरंग रंगतं निच्चमच्चु, भयतोयपटु, कसाय पायाल संकुलं भवसयसहस्स जलसंचयं अणंत उव्वेवणयं अणोरपारं महब्भयं ___ भयंकर पयिभयं अपरिमिय महिच्छ कलुसमति वाउवेगओधम्ममाणा आसापिनक तिर्यच मनुष्य और देवता चार गति रूप संसार समुद्र में पर्यटन करता हैं. अब संमार समुद्र का वर्णन कहते हैं. यह संसार समद्र जन्मजग मृत्युरूप कर गंभीर है, दुःख रूप क्षुब्ध प्रचूर पानी मग हुबा है. इस में संयोग वियोग रूप विचित्र तरंग उठती है. चिंता आर्त रूप सरिता आती है, बधी , प्रबंधन रूप बडी कल्लोल हैं. करुणा जनक विल प, लोभ रूप कलकलित शब्द, और अपमान रूप फैन ह तीव्र खिसनापना, पुलपुलित, निरंतर बेदना और अन्य का किया हुवा अपयश और भन रूप पानी का निपात अ है. फहश कठोर वनान निर्भत्सना से ज्ञा-बरणीय कर्म के बन्ध रूप पर्वत हैं, मृत्यु के भय रूप पानी का ऊपर का भाग है, चार काय रूप चार पाताल कलश हैं, करोडो कल्लोलों में भव सहस्र करना यह पाने का संचय स्थान है, अनंद उद्वेग रूंप अपारपना है, महा भय, प्रतिभय भयंकर अपरामित महा इच्छा तृष्ण / * / * प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवमहायजी माल'प्रसारजी * Anand
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________________ + दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम-आश्रयद्वार 48+ वासा पावाल, कामरति राग दोस बंधणं बहुविह संकष्प विउल दगरयरबंधक र, मेहमहावच, भोगभममाण गुप्पमाणुच्छलंत बहुगब्भव स पच्चोणियत्त पागि पविय वसण समावण्ण रुण्ण चंडमास्य समाहया मणुण्णवीची वाकुलियभंग फुटत निट्ठ कल्लोल संकुल जलं पमाद बहुचंडदुट्ठसावय समाहय उद्घायमाणा कपूर धोर विद्धसणस्थ बहुल अण्णाण भमंत मच्छ परिदक्ख अनिहुतिंदियं महामगर और कालुष्यता रूप वायु का वेग उद्धत होता है, अशापिपासा रूप पाताल है, काम, रति, राग और में द्वेष रूप समुद्र का बंधन है, बहुत प्रकार के संकल्प विकल्प रूप पानी की रज हैं, तमस्काप समान ... के अंधकार वत् महा मोहमय अव्रत है, मोगरूप भ्रमरी पडती है, गर्भावास संबंधी उत्पन्न होना यह उपर जाना व नीचे से उछलना है,प्राणी जीवों को पच्छ कच्छादिका शीघ्रता से इधर उधर गमन रूप स्वापद .. हैं, अनेक प्रकार के कष्ट होने से रुदन विलापात रूप पान का संचार हैं, अमनोज्ञ Eभाव से व्याकूल भंगारंग रूप फूटती महा लेहरें हैं, प्रमाद रूप महा प्रचंड नक्रादि जीव हैं, उठते हुए, उछलते हुए और बहुत अज्ञान से भमते हुए मिथ्यात्वी रूप मच्छ हैं, विषय से अनिवृत्त इन्द्रियों रूप मगर है, उन की गति बड़ी होती है. वे क्षोभ पाते, संतापते, नित्य चपल चंचल चलते बलाते अशरण व वंचित उदय कर्म को प्राप्त हुए हैं. वज्र समान पाप वेदता हुआ दुःख विपाक रूप + अदत्त नामक तृतीय अध्ययन
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________________ तुरिय चरिय खोखुब्भमाण संताव निच्चय चलंत चवल चंचल, अत्ताणा असरन पुवकयकम्मसंचयो उदिण्ण वजं वेदिज्जमाण दुहसय विपाक, घुगंतं जलसमूह इड्डिरससायागारवोहारगहिय कम्म पडिबद्ध सत्तकड्डिजमाण निरयतल हुतसणं विसण्ण बहुलं अरति रतिभय विसायसोग मिच्छत्त तत्थे सेलसंकडं, अणादिसंताण कम्मबंधणकिलेस चिखिल्लुस महत्तार, अमरनरतिरियनिरयगतिगमण कुडिल परियत्त घूपता हुवा पानी का समुह हैं. ऋद्धिगर्व. रसगर्व सातागर्व रूप से जलचर जीव विशेषउद्यत हैं. कर्म प्रति का बंध से बंधे हुए प्राणियों तणाते हुए नरक रूप कीचड में खूबे हुए बहुत अरति रनि भय, विषय, शोक . और मिथ्यास्व रूप सांकडे पर्वत है. अनादि कर्म बंध से उत्पन्न हुआ क्लेश रूप कर्दम है. उसे उल्लंघना बडा कठिन होता है. देव मनुष्य, तिथच और नरक इन चारो गति में गमण रूप कुटिल व के प्रवर्तक विस्तीर्ण पानी की वेल है. हिंसा,झूट,चोरी,मैथुन,परिग्रह, आरंभ करना,करान और अनुमोदना और इन से आठ प्रकार के कर्म का संचय करना ऐश महा पातक रूप पानी का अंधेरा है. डूबे हुए पीछा नीकलते हुए प्राप्त करने में दुर्लभ तल है. शारीरिक व मानसिक दुःख से होती हुइ वेदना से परिताप / पाकर उपर नीचे उछलता है. चार गति रूप अंत ऐमा महा रोद्र भयंकर अनंत संसार सागर अस्थिर 10 और अवलम्बन रहित है. ऐसे संसार में रक्षा का स्थान कोई नहीं हैं. चौरातीलक्ष जीवायोनि अज्ञान अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख क्राषिजी+ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ 48 को - दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सत्र प्रथम-आश्रवद्वार +BP विपुलवेल हिंसाअलिय अदत्तादाण मेहुण परिग्गहारंभ करणकारावण णुमोदण, अटू वह अणिटकम्म पिडिय गुरुभाराक्त दुगाजलांघदूर निबोलिज्जमाण उम्मग्गनिमगा दुल्लहतलं सारीरमाणोसयाणि दुक्खाणि उप्पियंता सायसाय परितावणमयं उबड निव्वुडयं करेत्ता चउरत महंत मणवयग्गरुदं संसार सागरं अट्ठिय अणालंवणं पतिट्ठाणं मप्पमेयं, चुलसीइ जोणिसयसहस्स गुन्विल अणालोक मंधकारं अणंतकालंनिचं उत्तत्थ पुण्णभयसाण संपउत्ता, संसार सागरंवसांत उविग्गावासवसहिं जहिं 2 रूप अंधकार से ब्याप्त अनंत काल से नित्य उत्पन्न भय के स्थान संयुक्त संमार सागर में aan रहते हुए जीवों उद्वेग मय बनते हैं. ऐसे संसार सागर में रहने वाले जी जहां 2 रहते हैं. वहां 2 पापकारी आयुष्य का बंध करते हैं. सर्व स्थान बंधुजन, मित्र स्वजन वगैरह से वर्जित रहते हैं. सब को अनिष्ट और अप्रिय होते हैं. उन के वचन कोई मान्य नहीं करता है. वे सदैव अविनीत रहते हैं. उन का रहने का स्थान भी दुष्ट होता है. शयन स्थान भी खराब, भोजन भी खराब, सदैव अशुचिमय / खराब संघयन वाले, खराब संस्थान वाले, कुरूप, बहुत क्रोधायमान माया और लोभयुक्त, बहुत मोहयुक्त धर्म ज्ञान रहित, सम्यक्त्व से भ्रष्ट, दरिदि, दुर्भागी, परिश्रम करने पर भी आजीविका नहीं चलसके से दूसरे के पिण्ड ताकने वाल, दुःख से आहार प्राप्त करने वाले, रस. विना का तुच्छ आहार से अदत्त नामक तृत मर्थ अध्ययन +8 +8+ -
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________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनी श्रीअमोलख ऋषिजी. आउयनिबंधति,पावकम्मकारी बंधवजण सयणमित्ति परिवजिया आणिटाभवंति, णादिज्ज दुविणीया, कुट्ठापासण, कुसेज कुभोयणा, असुइणो कुसंघयण, कुप्पमाणा, कुमंठिया, कुरूवा, बहुँ कोहमाण मायालोमा, बहुमोहा धम्मस्सण सम्मत्तपन्भट्ठा दारिदोवदवाभिभूया, निच्चंपरक्कम्म कारिणो, जीवणत्थरहिया, किवणा परपिंडतक्किका, दुक्खल. हाहाग अरसविरस तुच्छ कयात्थपुगपरस्सपत्थंता, रिद्धिसकार भोयणविसेस समुदयविहिं बिंदिता, अम्पककंयतंचपरिवयंता इह पुरे करडाई कम्माइ, पावगाई अपनी उदर पूरणा करने वाले, झरे को देख कर तरसने वाले, ऋद्धि संपदा सत्कार भोजन इम की सदैव आशा करते पाकारन वाले कि अहो देव ! मैं न तेग क्या अपराध किया जो हम को ऐसा दुःखी बनायो अनेक समुद्र में डूबने वाले, परस्पर क्लेश करने वाले, अपना आत्मा की स्वयमेव निसा करने वाले और खराब बचन बोलने वाले होते हैं, पूर्व कृत पापकर्म से चित्तमें जलते हुए। दूसों से पराभव पाय हुए. सत्व रहित बने हुए. प्रत्येक से लोभ पाये हुए, चित्रादि शिल्प, धनुर्विद्यादि कला और मतमतांतर के शास्त्र से वर्जित, पशुभूत, जन्म मात्र पूर्ण करने वाले अ.तीत वाले, सदैव नीच कर्म से उपजीविका करने वाले, लोकों में निंदनीय मोहोदय से उत्पन्न हुइ भलाषा पूर्ण करने में असमर्थ, बहु न बातों से निराश रहने वाले, आशा के पिपापु, जिन के प्राण * पकाशक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ दशमाङ्ग-प्रश्नध्याकरण सूत्र-प्रथम अश्रवद्वार 418+ विमणसो साएण, डझमाणा, परिभूया हौति सत्त परिवजियाय छोहा, सिप्पकला समय सत्य परिव जिया जहा जायपसुभूया अचियता निच्चं नीयकम्मोव जीविणो लोयकुच्छाणिज्जा, मोहमणोरहनिगत बहुला, आसापास पडिवद्धपाणा अत्योप्पायण कामसोक्खेय लोयसारेहोति अप्पच्चंतकाय, सुटु विउउज्जमता दिवसुज्जत्तं कम्मकयं दुक्ख संठ वय सित्थपिंड संचयपरा, खीणदव्वसारा, निच्चं अधुव धण धण्ण कोसं परिभोगावव जया रहियाकामभाग, परिभोग सवसोक्खा, परसिरि भोगविभोग निस्साण मग्गणापरायणा वरागा अकामिकाए चिणिति दुक्खं वसुह, णेव निब्बुइं प्रतिबंध से बंधाते हुए, अर्थ उपार्जन करना, काग भोगका सेवन करना लोक में निःसल्य बनना, सर्व स्वजन में अप्रतःनकारी, महाकष्ट में उद्यमवंत रहना, सदैव उछपवंत बनकर विश्राम रहित कर्म करने वाले, महा दुःख का संचय करने वाले, शीत पिण्ड का संचय करने वाले, महा द्रव्य प्राप्त कर क्षण मात्र में नाश करने वाले, अस्थिर धन धान्य व ले, रिक्त भण्डार वाल, काम भोग परिभोग के लिये द्रव्य की / नित्य गवेषणा करने में परायण, मनोरथ पूर्ण नहीं होने पर सदैव आर्तध्यान करने वाले समाधि हित, अचिन्त्य विस्तीर्ण सेंकडों दुःख में गले हुए और धीठ होते हैं. इस प्रकार यह अदत्तादान का फल इस लोक में होता है. और पर लोक में महा दुःख करनेवाला होता है. अल्प काल का सुख और बहुत 4441+ अदत्त नामक तृतीय अध्ययन HD
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________________ अमोलक ऋषिजी :42 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री उवलभंति-वंत विपुल दुक्ख सयसंपलित्ता परस्म * दव्वेहि जे अविरया // एसोसो अदिणाणस्स फलविवागो इहलोइए पग्लोइएओ अप्पमुहो बहुदुक्खो, * महब्भओ बहुग्यप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चति णयअवेद इत्ता अत्थिहु मोक्खोति // एवमाहंस नायकुलनंदगोमहा जिणोओ वीरवरनामधजो कहेसीयं, अदिण्णादाणस्स फलविवागं एवं ततियंपि अदिण्णादाणं हरयदह मरण भय कलुसतासण, परसंतिकागिझ लोभमूलं, एवं जाव चिरपरिगयं, मणुगयं दुरंत त्तिबेमि // ततियं अहम्मदार सम्मत्तं // 3 // * * काल का दुःख होता है बहुत पापरूप र जसे दारुण कर्कश कठोर असातामे हजारों वर्ष पर्यंत भोगते हुए भी नहीं छूटते हैं. वैसे कर्कोपार्जन होते हैं पूर्ण फल भोगवे पीछे ही छूटो हैं. यह चोरी का फल ज्ञातनंदन श्री महावीर स्वापाने कहा है. यह तीसरा अदत्तादान दाह उत्पन्न करनेवाला, मृत्यु भय करनेवाला, चित्त में कलुषता, करनेवाला, त्रास करनेवाला, असमाधि करने वाला, लोभ का मूल है. इम का जीव को दीर्घ काल से परिचय है, यह दुस्तर है, यों तीसरा अधर्म द्वार का अधिकार महावीर स्वामीने जैसा कहा.तैमा मैने कहा // यह तीसरा अधर्म द्वार संपूर्ण हुवा // 3 // * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजीज्वालासादी*
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________________ 4. 42 दशमाङ्ग प्रश्नकरण सुष-प्रथम-आश्रवद्वार // चतुर्थ-अब्रह्मचर्य नामक अधर्मदारम्.॥ .. अंबू ! अबंभंचउत्थं सदेव मणुयासुरस्स लोगस्त पत्थणिज पंक पणग पास जाल भूयंत्थी पुरिस नपुंसगवेदचिण्हं, तवभंजम बंभचेर विग्धं, भेदायतण बहु ___प्पमादमूलं, कायर कापुरिससेवियं, सुयण जण बज्जणिजं, उड्डूं नरयतिरिय तिलोग पइट्ठाणं, जरा मरण रोग सोग बहुलं वहबंधविधाय दसरसण चरित्त श्र मुधर्मा स्वामी कहते हैं कि अहो जम्बू ! चौथा आश्रव द्वार तेरे से कहता हूं इम का नाम अब्रह्म है. वैमानिक, देव, ज्योतिषी, मनुष्य, असुर लोक भवनपति वगैरह इस के आधीन हैं. अर्थत् इस संसार में इन्द्रादि देव दानव इस को नहीं जीत सके हैं, तो पनुष्य का कहना ही क्या ? यह अब्रह्म पंककदर्भ जैसा फसानेवालापनग फूलण जैसा रपट नेवाला सूक्ष्म है, जाल सपान बंध करनेवाला है,स्त्री पुरुष और नपुंसक बेद का चिन्ह है, तप संयम और ब्रह्मचर्यादि धर्म में विघ्न करनेवाला है, इन गुणों को भेदनेवाला है, महा विषय कषाय निंदा और विकथा रूप प्रमाद का मूल है, इस का कायर पुरुष मेवन करते हैं, परंत शूरवीर पुरुष सेवन नहीं करते हैं, सज्जन को वर्जनीय है, ऊर्ध्व लोक-स्वर्ग, अधो लोक-नरक और तीच्छी लोक इन तीनों में प्रतिष्ठित है, जरा-वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग, शोग की वृद्धि करनेवाला है, वध, अब्रह्मवय नाक चतुर्थ अध्पयन
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________________ 88 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + मोहस्मय हेउभूयं चिरपरिचयं, मणुगयं, दुरंत // 1 // चउत्थं अहम्मदारं तस्मय न'माणि इमाग गौणाणि होति तीसं,तंजहा-१अबंभ, 2 मेहुणं३चरंत 4 ससंगिग ५सेवणाहिकारो 6 संकप्पो, 7 बाहणायदाण८दप्पो,९ मोहो, 10 मणसंखोभो, 11 अणिगहो, 12 बिग्गहो, 13 विघाउ, 14 विभंगो, 15 विन्भवो, 16 अधम्मो 17 असीलया, 18 गामधम्मत्तती, 19 रती, 20 रागचिंता, 21 कामभोग मारो, बंधन, व्याघात मृत्यु को प्रस करानेगाला है. दर्शन और चारित्र मोहनीय कर्म करने का हेतुभूत है, इस का प्राणियों को दीर्घ काल से परिचय है. इस का अंत करना बडा कठिन है // 1 // इस के गुण निष्पन्न तीस नाप कहे हैं-१ अब्रह्म-आत्मा के गुण का नाशक, 2 पैथुन-असंख्य जीवों का मथन, 3 चरंत-सब जगज्जीवों से आचरित. 4 संमर्ग:-स्त्री पुरुष का संबंध करानेवाला, 5 सेवनाधिकारी-अन्य अनेक कुकर्षों का अधिकारी, 6 संकल्पी संकल्प विकल्प का स्थान, 7 वाधन प्रमाण-वाधा दाख का? प्रदान. 8 दर्प-काम करने वाला, 9 मोह-मोका स्थान 10 मन सोम-नको क्षोभ करने वाला 111 अनिग्रह-इन्द्रियों का निग्रह नहीं करने पाला, 12 विग्रह-क्लेश करने वाला 13 विघ त घात मृत्यु करने बाला, 14 विभंग-व्रतादि भंग करने वाला, 15 विभ्रम-सुखरूप भ्रम का स्थान 16 अधर्म 117 अशील 18 प्रामधर्मवती इन्द्रियों के धर्म मे चित्त वृत्ति वाला 19 रतिप्रीति 20 राग-स्नेह *पकाइक-राजहादुर लामासु वसहायनी वाला प्रमादजी*
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________________ - OGA 48 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार 22 वेर, 23 रहस्सं, 24 गुज्झं, 25 बहुमाणो, 26 बंभचेरविग्यो, 27 वावत्ति, 28 विराहणा, 29 पमंगो, 30 कामगुणोति बिय, तरस एयाणि एवमादीणि नाम धेज्जाणि होति तीसं // 2 // तंच पुण निसेवितं सुरगणा अस्थरा, मोहमोहियमती, असुर भयग गरुल विजुजलण दीव उदाह दिसि पवण थगिय // अणपन्निय. पणपन्निय, इसिवादिय, भूतवादियं, कंदिय, मह कंदिय, कोहंड पयंगदेवा, पिसाय, भूय, जक्ख, रक्खस, किण्णर, किंपुरिस, महोरग, गंधव // तिरिय / 21 काम-श्रोत्र चक्षु इन्द्रिय का विषय भोग-प्रानारस और स्पर्शन्द्रिय का विषय, मार-मारने वाला। 122 वेर पैर विरोधका स्थान, 23 रहस्य-गुप्त कर्तव्य 24 गृह्य 25 वहुपाम 26 ब्रह्मचर्यपातिक 27 व्यावृति 28 विराधक-ज्ञानादि गुणों की विराधना करने वाला, 29 प्रमंग संबंध और 30 काम है कंदर्प का गुन यों तीस नाम कहे हैं. // 2 // अब इस के सेवन करने वाले का कथन करते हैं-आप्सर ओं सहित देवों का समुदाय, मोहपय,बुद्धिाळे अमुरकुपार, नागकुमार, सुवर्गकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदयकुमार, दिशाकुगर, पवनकुमार, और स्थनितकुमार, ये दश भव-पति, देव आणपन्नी, पाणपनी, इसीवाइ, भूइवाइ, कंदिय, महाकंदिय, कोहंड और पयंगदेव ये 8 वाण व्यंतर: ॐ देव, तथा पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, और गंधर्व, ये आठ व्यंतर अब्रह्मवर्य नामक चतुर्थ अध्ययन ग्य न 4. 8+
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________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी , अर्थ - जोइस विमाणवासि // मणयगणा जलयर थलयर खहचसय, मोहपडिवद्याचित्ता अवतण्ह, काम भोगतिसियाण, तण्हाए बलवतीए, महंतीए समभिभूया, गढिताय, अतिमच्छिताय, अबभ उसण्ण तामसेण भावेण अणमुक्का, देसण चरित्त मोहस्स पंजरं, पिवकरांत, अण्णमण्णं सेवमाणा भजो असरसर तिरिय मणुय भोगरति, * विहार सपओत्ताय // 3 // चक्कवट्टी सूर नरपति, सक्कया सुरवरव्व देवले गे॥ भरहतग नगर निगम जणवय पुरवरं दोण्णमुह खेड कब्बड मंडव पट्टण संवाह दव, चंद्रश्नदिक पांच ज्योतिषी, तथा वैमानिक देव मनुष्य का समुदाय, जलचर, स्थलचर, खेचर, तिर्यंच इत्यादि. काम भोग के पिपासु, महातृष्णा वाले, काम भोग से पराभव पाये हुए, गद्ध बम हुए, अतिमूर्छितबने हुए. अबह्मरूप कीचड में खुते हुए. अज्ञान भाव से मुक्त नहीं हुए है। दर्शन मोहनीय और चारित्र मे हनीय के उदयरूप पिंजर में फसे हुए जीव अपनी आत्मा परबश में डालकर स्त्री पुरुष व नपुंसक मीलकर अनेक प्रकार की कुचेष्टा करते हैं. और असुर कुमार तिर्यंची मनुष्य की विचित्र प्रकार की क्रीडा में संयुक्त बनते हैं // 3 // अव भोगी पुरुषों का कथन करते हैं. गाजाओंके पूज्यनीय. देवता जैसे सुख विलास वाले, भरतादि क्षेत्रके ग्राम, नगर, निगम, जनपद, प्रधानपुर द्रोणमुख, खेड, कर्वट, मंडप, वाण संवाह, इत्यादि सहित, परचक्री से सदैव निर्भय, निश्चलित *प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ दशमाङ्ग-प्रश्न.करण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार सहरस मंडियं, थिमियं मेदणीयए गच्छंति ससागर जिऊण वसुहं नरसीहा, नरवती, नरिंदा, नरवसभा, मरुय, वसभकप्पा, अब्भहियं रायतेय लच्छीए दिप्पमाणा, सोमा रायवंस तिलगा रवि, ससि संख, वरचका, सोवत्थिय, पडाग, जव, मच्छ, कुम्म, रह, वर, भग, भवण, विमाण, तुरंग, तोरण, गोपुर, माणिरयण, नांदयावत्त, मुसल, नंगल, सुरचित वर कप्परुक्ख, मिगवति, भद्दासण, मुरवि, थुभ, वरमउड, सिरिय, कुंडल, कुंजर, वरवसभ, दीव, मंदर गरुलज्झय, इंदके उ, पूर्वक पृथ्वी में एक छत्र वाला, समुद्र पर्यंत भाषका पालन करने वाला, नरये सिंह समार, मनुष्यों का अधिपति, मनुष्य में इन्द्र, मनुष्यों में प्रदेश के धोरी बैल समान, प्रत्यक्ष राज्यतेज लक्ष्मी से देदीप्यमान. सौम्यमुद्रा वाला, लोगों को प्रमोद करने वाला, राजाओं में तिलक समान, सूर्य, चंद्र, शंख, प्रधान चक्र, स्वस्तिक, पताका यव, मत्स्य, कूर्म, रथ, प्रधान योनि, भवन, विक्षन, घोडा, तोरण, गोपुर, मणिरत्न, नावर्त, मूशल, नागर, चौकून, प्रधान कल्पतरु, मृगपति-सिंह, भद्रामन, आभरण, भूमिका, प्रधान मुकुट, मुक्तावलि, कुंडल, कुंजर, वृषभ, द्वीप, मेस, गरुड, ध्वजा, इन्द्रध्वजा, दर्पण, अष्टापद, धनुष्य, पाण.. नक्षत्र, मेघ, मेखला, वीणा, झुमिरा, मच्छ, छत्र, माला, कमंडल, कमल, घंटा, प्रधान नावा, शूची, समुद्र, कुमुदनी, अ.गा, मगर, हार, लेगा, पर्वत, नागर, पूर, वज्र, किन्नर, मयूर, प्रधान राजहस, सारस, / 4 अब्रमचये नामक चतुथ अध्ययन | [ 1
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________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनो श्री अमोलक ऋषिजी 30 दप्पण, अट्ठ वय, घाव, वाण, नक्खत्त, मेह, मेहल वीणा, जुगुमच्छ, दाम, दामिणि, कमंडल, कमल, घंटा, वरपोत, सूई, सागर, कुमुदागर, मगर, हार, गागर, नग, नगर, नेउर, वइर, किण्णर, मयूर, वर रायहंसा, सारस चकोर, चक्कवाग, मिहुण, चामर, खेडग, पव्वीसगं विपंची, वरतालियंटा, सिरिआनिसेय, मेयणि खगंकुस, विमल कलसभिंगार, वडमाणग, पसत्थ // उत्तम विभत्तवरपुरिस लक्खणधरा, बत्तीसरायवरसहस्साणुजायमग्गा, HE चकोर, चकवा, मिथनक, चामर, खड्ग प्रवीपग, विपंची-मोरली, प्रध न पंखा, अभिषेक युक्त लक्ष्मी, पृथ्वी, खाड्डा, अंकुश, निर्मलश्वेत कमल, झरी, वर्धमान, यों पशस्त उत्तम लक्षण के धाक, वत्तीय इनार मुकुट बंध गजा जिन की आज्ञा में चलते हैं वैसे, चौमठ हजार प्रधान राजकन्या को पियकारी. रक्त पद्म काल समान शरीर की प्रभावाले, कोन्ट वृक्ष की पुष्पणला, और चंपक पुष्पों से अच्छे विरचित प्रधान सुवर्ण समान शरीर की कान्त वाले, सर्वांग सुंदराकार, महामूल्य वाले श्रेष्ट, पाटण के बनाये हुए विचित्र रंगवाले, मग चर्म समान मृद वस्त्र परिधान करने वाले, चीन पाटन का सुवर्ण मूत्र में बनाये हुए है कंगुरे की कोरवाले बस्त्र से विभूषित अंगवाले, सुवर्ण की कटि मेखला युक्त, अवीरा दे चूर्ण और सुपंधित पूष्पों से भरा हुवा मस्तकपाले, आवार्य के पास से आभूषण पहिनने की कला धारन करनेवाले, अच्छी / / * प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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________________ मान-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार ? चउतासहस्स पवरजुवतीजणणयण कंता रत्ताभापउमपम्ह, कोरंटकदाम चंपगसुतचितवरकणक निहसवण्णा, सुजाय सव्वंग सुंदरंगा, महग्यवर पट्टणुग्गय विचि. त्तरागएणीपए निम्मिय, दुग्गल वर चीणपट्ट कोसिजा,सणी सुत्तग विभूसियंगा, वरसुरभिगंध वरचुण्णवासं, वरकुसुम भरिय सिरया, कप्पिय छेयायरिय सुकय रचित माल कडगं गय तुडिय, पवर भूसण पिणद्धदेहा, एगावलिकंठ, सुरचिय वत्था, पलंब पलबमाण सुक्यपडउत्तरिजा, मुद्दिया पिंगलंगलिया,उज्जण नेव वत्थ . रइय, चिलग विरायमाणा, तेएणं दिवाकव्वदित्ता, सारय नयथगिय मधुरगंभीर ताह चित्रमालादि आभरण, कंकण, बहरखा, भुजबंध, वगैरह प्रधान भूषणों से पुष्ट शरीरबाले, कण्ठ में, एकावलिं हारवाले.शरीर पर अच्छे स्वच्छ वस्त्र धारन करनेवाले, लम्बे लटकते हुवे उत्तम उत्तगसनवाले,मुद्रिका से पीली अंगुलियोंगले. उन्चल बस्त्र में देदीप्यमान, तेज से सूर्य समान शरद काल के मेघ जैसा मधुर पिष्ट गंभीर शब्द बोने वाले, चक्र, छत्र, दंड, खड्गा, चर्म, मणि और कांगण ये सात एकेन्द्रिय रत्त सेनापति, गाथापति, वार्धिक, पुरोहित, श्रीदेरी, अश्व और गज ये सात पंचेन्द्रिय रत्न यो 14 रत्न की धारक, नेसर्प, पंडुक, पिंगल, सर्व रत्न, परम, काल, महाकाल माणवक, शंख. इन नव निधान के आधिपते सब प्रकार की ऋद्धि से प्रतिपूर्ण भंडार वाले, तीन दिशा में समुद्र पर्यंत और चौथी उत्तर दिशा में / 18. अह्मचय नामक चतुर्थ अध्ययन 48th .
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________________ - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी निघोसा उप्पणसम्मत्तरपयण चक्करयणप्पहाणा,नवनिहिवइणोसमिद्धकोसा, चाउरंता, चाउराहिं सेण्ण हिं समणुजाइजमाणमग्गा, तुरंगपति, रहपति, गजपति, नरपति, विपुलकुल विसुयजसा सारय ससि सकलसम्मवयणा, सूरा, तिल्ले क निग्गयपभाव लडसद्दा, सम्मत्त भरहाहिवा नरिंदा, ससेलवण काणणंच हिमवंत सागरंतधीरा भोत्तूण भरहवासं, जियसत्तू पव राय सीहापुवकडतवप्पभावा, निविसंचियसहा, अणेगवास सयमाउव्वंतो, भज्जाहिय जणवयप्पहाणाहि लालियंता अकुलसद्दफरिस रसरूवगंधये अणुभवित्ता, तंविउबवणमति मरणधम्म अवितित्ता चूलहिम पति पर्यंत राज्य करने वाले, अश्व, रथ, गज, और पदााते इन चार प्रसार की सेना सहित मार्ग का अतेक्रमण करन चाले विस्तृत कीर्ति वाले, शरदऋतु के पूर्ण चंद्र समान सौम्य सुंदर मुखाकृति वाले, शूरव र तीन नोंक में विख्यातकीर्ती वाले, संपूर्ण भरत क्षेत्र के अधिपति, सब मनष्यों के इन्द्र, चूलाहिवंत पर्वत से लवण समुद्र पर्यंत सब के स्व मि, धैर्यवं, सब पर जय करने वाले, राजःओं में मिह समान पूर्व कृत तप के प्रभाव से संचित किये हुवे महा सुख भोगने वाले, और जघन्य सातसो वर्ष उत्कृष्ट चौगसी लक्ष पूर्व का आयु भोगने वाले, प्रधान रूप वाली भार्या के साथ मनोन शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध यों पांचो इन्द्रिय के सुख का अनुभव करते * प्रकाशक-राजाबहादुर लाळा सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ 84 दशमङ्ग प्रश्नव्याकरण मूत्र-प्रथम-आश्रद्वार 428 कामाणं // 4 // भुजो बलदेवा वासुदेवाय पवरपुरिसा मह बल परक्कमा, महाधणु वियटका, महासत्तसागरा दुद्धराधणुधारी, नरवसभा, रामकेमवाभायरो, सपरिसा व सु देव समुद्दविजयमादिदसद राणं, पज्जण्ण पयिवसंब अनिरुद्ध निसढ उमुयसारण गयसमुह दुमुहादाण जायवाणं अडुट्ठाणवि कुमारकोडीणं, हिययदइया, देवीए रोहिणीएदेवकीण आणंदहियय, भाव नंदणकग, सोलस रायवर सहस्साणुजायमग्गा, सेालस देवीसहस्सा वरवयण हिययदईया, णाणामाणे कणगरयण मोत्तिय पवालधण्णधण संचयारिद्धि समिद्धि कोसा,हयगयरहसहस्ससामी,गामागर नगर खेडकबड हैं. वे भी कामभोगो में अतृप्त अकस्मात मृत्यु को प्राप्त हुए. // 4 // अब बलदेव व सुदेव का कथन करते हैं-बेलदेव वासुदेव भी उत्तम पुरुष होते हैं. वे महापरक्रम वाले x साह्न धनुष्य का टंकार करने व ले, महासत्ववंत, साहसिक, समुद्र जैसे गंभीर, सब धर्नुधर में प्रधान, मनुष्य में वृषभ समान हते हैं ? राम (बलदेव ) केशव (वासुदव ) दोनों के पिता एक मला अलग 2 होती हैं. x उन के परिवार में x बलदेव में दश लाख अष्टापद जितना बल और वासुदेव में बीसलाख अष्टापद जितना बल. ____x अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी में अनंत बलदेव वासुदेव होगये हैं; परंतु यहां वर्तमान काल के यादव कुलपति बलभद्र और कृष्ण वासुदेव का कथन करते हैं.. + अब्रह्मक्य नायक चतुर्थ अध्ययन Hit - .
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________________ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - मंडव दोणमुह पट्टण सम संबाह सहस्स थिमिय, णिच्चुय पमुदितजण, विविह सस्स नप्पजमाण, मेइणिसर सरित, तलाग सेल काणण आर मुजाण मणाभिराम परिमंडियस्स, दाणड्ड वेयड्डागरी विभत्तस्स लवणजल परिगहरस छव्विह कालगुण कम जुत्तस्स अद्धभरहस्स सामिका, धीर कित्ति पुरिसा, उहबला,. अतिबला,अनिहया अपराजिय सत्तुमद्दणा, रिपुसहस्समाणमहणा, साणुक्कोला, अमच्छरी, मच. . वला अचंडा, मियमंजुलप्पला वाहसिय गंभीर महुर भणिया, अब्भुवगयवच्छलासपणा, लक्खणवंजणगुणोववेया, माणुम्माणप्पमाण पडिपुण्ण सुजाय सवंगसुंदरंगा, समुद्र जियाद दश दशार हैं. प्रद्युम्न, शांब अनिरुद्ध प्रख साढे तीन क्रोड कुपार हृदय को / अत्यंत बल्लकारी देवकी नामकी कृष्ण की माता और वरदेव का माता रोहिणी है. सोलह हजर मुकुटबध गजा उन के अनुयाय हृदय और नेत्रको वल्लभकारी मोलह हजार गनिये ,मणिसुवर्ण मोतिगत, धान्या. इन के मंचय से ऋद्धि समृद्धि से परिपूर्ण भंडार हाथी, घोडे और रथके स्वामी, घन ग्राम,नगर अगर, खेड, कट मंडप, द्रोणमुख, पाटण, आश्रम, संवाह के अधिपति हैं उन के राज्य में लोक सदैव प्रमुदित रहते हैं अनेक प्रकार के धान्य से मेदनी सदैव फलीफली रहती है. सरोवर, ताव, मदियों पर्वत, जंगल, आराम, उद्यान कविगैरह से मुशोभित है. चेताहय पर्वत पर्यंत दक्षिणार्ध भरत के स्वामी हैं. धैर्यवंत, * प्रकाशक-राजाबहादुरेलाल मुख सहायजी ज्वालाप्रसादजी **
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________________ - Po . 1 दशमङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम-आश्रद्वार सनि सोमाकारं कंतापियदसणा, अमससिणा पयंडदंडप्पयार, गंभीर दरिसणिजा, नालज्झउवद्ध, गरुलकेउ, बलवगं गजंत दरिय दप्पिय; मुट्ठिय चाणूर चूरगा, रिट्ठवसभघाति, केसरी मुहविफाडगा, दरिय नागदप्पमाहाणा, जमलुज्जुण भंजगा, महासउणफूतणरिपू कंसमउड मोडगा, जरासंधमाणमहणा, तेहिय अविरल सममहियचंद, मंडल समप्पभेहि सूरमिरीयकवयविणिमुयंतेहि, सपडिदंडेहिं आय वत्ते हैं धरियोहिं विरायंता, ताहिय पवरगिरि कुहर विहरण -समुट्ठियाहिं, निरुवहय कीर्तन, प्रसिद्ध बली, अति बली, अपने शत्रुओं को जीतनेवाले, हजारों वैरियों के मान का मर्दन करने में वाले, दया के भंडार, गुणियों के गुण जाननेवाले, धीरवीर, रौद्र स्वभाव रहित, मित-14 प्रमाण युक्त, मधुर प्रलापी, मधुर बोलनेवारे, सेवकों के वत्सल, शरणागत को आधारभूत, दस्तरख दि उत्तय लक्षण, तिलमशादि उत्तम व्यंजनवाले, सत के 108 अंगल प्रमाण शरीरवाले, सुंदर गोपांग वाले, सब सुंदर अायव वाले, चंद्र समान मौम्याकार, कंतकारी, प्रियकारी, दर्शनीय अ.लस्य रहित, अपराधि को कठिन दंड देने वाले, गंभीर हृदय व ले, गरुड के चिन्हवाली ताडवृक्ष समान ऊंपी है जा वाले, या प्रबल से गर्जना करते कि मेरा शवू कौन है यों अहंकारियों में अहंकारी, मौष्टिकमल्ल.21 "चाणुलु मल्लों को विध्वंस करने वाले, मलो का चूरन करने वाले, अष्टि वृषभं को भग ने हारे, के. 4 अब्रह्मचर्य नापक चतुर्थ अध्ययन ++ -
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________________ चमर पच्छिम सरीर संजाया हैं, अमइलसित कमलविमुकलुजीततरयंत, निरािसहर विमल ससिकिरण सरिस, कलहोय निम्मलाई पवणाहय चवल चलित सलिलय, .. नचियवाये पमारीय, खीरोदग पवर सागर पूरचंवलाह, माणस सरपसरे परच्चिया, वासविसया वेसाहि, कणगगिरी सिहरससियाहि, उवाउप्पायचवल, जतिण सिग्घ वेगाहिं हंसवधूया हैं चेवकलिया, नाणामणि कणगमहरिह तवणिज्जुजल विचित्त 4 दंडाहिं सलिलियाहिं, नरवतिसिरिसमुदयप्पकासणकराहिं, वरपट्टणुग्गयाहिं, समिमर्थ सिंह का मुख पकडकर दो फाड करने वाले, अथवा केशी नामक कंस का मुख फाडने वाले, दर्पत महानाग को नाथने वाले, कृष्ण के पिता के शिशुपाल और अर्जुन नायक विद्याधों को मारकर फेंकने वाले, महाशकुनी और पूतना नामक विद्याधारिनी के वैरी, कंश का मुकुट तोडने वाले, जरासंध के पान का मर्दन करने वाले, बहुत शलाका पुरुष जैसे, चंद्र मंडल समान प्रभावाले, सूर्य के कीरग समान झलझरते, इन का दंड अन्य नहीं रख मके वैसे तेज के धारक, अथवा दंड महिंत छत्र शिर पर धारन करनेवाले, पर्वत में प्रवेश करती हुई गाय के पूंछ मे खींच कर नीकाले हुवे वाल से बनाया हुवा अथवा चमरी गाय के पूछ से बनाया हुवा श्वेन विकसित उज्जल देदीप्यमान कमल समान, शिखर पर रहे हुए 11 चंद्रपा के कारण समान: श्वेत निर्मल चांदी के तार समान, चंचल, चपल, चलते हुए चामरवाले, विस्तृत क्षीर अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनी श्री अमोरख ऋषिजी - * प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ .+ दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम-आश्रबद्वार 413 अब्रनचर्य नाम द्वरायकुलसेवियाहि, कालागुरुपवर कुंदरुक्क तुरुक्कधूममघमघंतवासवासिया गंधधूयाभिरामाहि, चिल्लकाहिं उभयोपासंपि चामराहिं, उक्खिप्पमाणाहिं, सुह सीयलवाय वीयियंगा, अजिता, अजितरही, हल मुसल कणगपाणी संख चक्क गय सदण दगधारा परवरुज्जल सुकय, विमलं को)भ तिरिडधारि कुंडलुजोवियणणा पुंडरियणयणा, एगावली कंठरइयवत्था, सिरिवच्छ सुलंछणा, वरजसा, सव्वो उयसुरभिकुसुम रइबपलंवसोहंतवियसंत, विचितवणमा, रइयवस्था, अट्ठासमुद्र के पानी समान चंचल, मानस सरोवर में स्थापित निर्मल आकारवाले, सुवर्ण शिखर आश्रित, ऊपर नीचे चारों तरफ पसरा हुवा वायु जीतनेवाले, शीघ्र वेग जातनेवाले, माहा हंस सपान उज्जल } 20 अनेक मणि सुवर्ण महा मूल्यवाला तप्त रक्त वर्णवाला उज्वल सुवर्ण के दंड युक्त नरपति की लक्ष्मी के समुदाय का प्रकाश करनेवाले, प्रधान पाटन वसानेवाले, राजकुल में से बनाने योग्य कृष्णागुरु प्रधान , कुंदरुक सेल्हारसके धूए से मघपघायमान ऐसी गंधवाले चपर दोनों बाजु तिस को विजाते हैं वैसे, मुखकारों मुशोभित वायु से विजाते हुए अंगवाले, अजित रथ के धारक, हल मूशल, (बलदेव के शस्त्र ) : परजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमुदी गदा, पद्म और खड्ग के धारन करनेवाले, प्रधान उज्वल सुरचित, निर्मले गोस्तूप मणि युक्त मस्तक के मुकूट, कानों में कैंडल धान क.नेवाले, पुंडरीक कमल पत्र ममान अध्ययन 4 1
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________________ अनुनादक बार ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषभी। सयविभत्त लक्खग पसत्थ, सुंदरविराइयंगमंगा, मत्तगयवरिंद, ललियविक्कम विलसियगती, कडिसुत्तग नीलपीत. कोसीजवाससा, पवदित तया, सारयनत्र थणिय, मधुरगंभीर णिद्धघोसा नरसिंहा, सिहविक्रमगति. अत्थमिया, पवररायसीहा, सोमावारवयि, पुण्णचंदा पुनक्कड तवप्पभावा, निविडसं चयसुहा, अगेगवाससयमाउ वंता, भजाहिजणवयप्पहाणाहि लालियंता, अतुल सद्दफरिस रस रूव गधय अणु भविता, तोवओवणमंति मरणधम्म अवितित्ता कामाणं // 5 // भुजोमंडलिय आंखो वाले, एकापछि हारसे हृदय को रचित करने वाले, श्रीवत्म के लक्षण वाले, प्रधान यश के धारक सब ऋतु के सुगंधित पुष्पों से बनाई हुई लम्बी लटकती हुई विचित्र प्रकार की वनपाला वक्षःस्थल पर धारन करनेवाले, 108 उत्तम लक्षणवाले, सुंदर अंगोपांगवाल, पराक्रम महित गतिव ले, कटिमूत्र युक्त, वासदेव के हरे और बलदेव के पीले वस्त्र के धारक, शरद ऋतु की मेघ गर्जना जैसे मधुर गंभीर घोष / करने गले, मनुष्यों में सिंह समान पराक्रपवाले, पहा राजाओं में सिंह समान, सौम्य आकारवाले, द्वारिका के नाथ पूर्ण चंद्र सपान, पूर्व कृत तप के प्रभाव से संचित किये हुए सुखवाले सेंकडों वर्ष पर्यंत आयुष्य पालकर स्त्रियों के माय अतूल्य शब्द, स्पर्श रम रूप और गंध यों पांचों इन्द्रियों के सुख का अनुभव लेते हैं. वे भी काम भोग अतृप्त पने हुए अकस्पात् परण धर्मको प्राप्त हुए। अब पंडलिक राजाका कथन *प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी जाल प्रसादनी *
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________________ 4 माङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम-आश्रद्वार 43 नरवरिंदा सबला अंतउरा, सपरिसा सपुरोहिया, अमच्चरंडणायक, सेणावति, मंतिणीत कुपला, णाणा मणिरयण विपुल धण धण्ण संचयनिहीं, समिद्ध कोसा, रज्जसिरि विपुल मणुभवित्ता. विक्कोसंता, बलेणमत्त; तेविउवणमति मरण धम्म अवितित्ता क.माणं // 6 // भुजो उत्तरकुरु देवकुरु बणविवर पाय च रिणो नग्गणाभे गुत्तमा, भोगलक्खणधरा भोगसस्सिरीया, पसत्यमोम पडिपुण्ण रूव दरिसणिज्जा सजाया सव्वंग, सुंदरंगा, रत्तुप्पलपत्त कंत करचरण कोमलतला, करते हैं. मंडलिक राजा मनुष्यों का इन्द्र, बल, सेना सहित, अन्तःपुर, परिषदा, पुर, पुरोहित, प्रधान, कोतवाल, सेनापति, मंत्रीगण के परिवार साहेन, न्याय नीति में कुशल, नाना प्रकार के पणिरत्न पिविध प्रकार के धन धन्य संचित, परिपूर्ण भण्डार और राज्य लक्षावाले, सदैव राज्य की चिन्ता करने वाले और मदोन्मत्त थे वे भी कामभोग में अतृप्तपने ही मरण धर्म को प्राप्त हुए // // और में उत्तर कुरु क्षेत्र के वन में विचरने वाले पांव से चलनेगाले युगल मनुष्यों के ममुह मनुष्य संबंधी उत्तम भोग भोगनेवाले हैं. भोग लक्षण शरीर संपदा के धारक हैं, भोग से सदैव शोभनिक हैं, प्रशस्त साम्य प्रतिपूर्ण रूप के : धारक हैं, सब अंग के अन्यत्र अच्छी तरह निर्मित बने हुए हैं, रक्तोत्पल कमल समान कांतिवाले हैं, काच्छचे समान बरोबर जरे हुए पात्र हैं, पांच अंगुलि परस्पर मीलन हुई हैं, जो पाछे तम्मे जैसे . अब्रह्मचर्य नापक चतुर्य अध्ययन **
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________________ 102 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषेनी - सुपति?य कुम्म चारु चलणा, अणुपुव्वस संहतंगुलिया,उण्णत तणु तंबनिहनखा,संठियं सुसिलिट्ठ गूढगोंफाए फणी कुरुविंदावत्त वटाणुपुत्व जंघा समुग्ग निमग्ग गूढजाणू गयगयणा सुजायसणिभारुच वारवारणमत्त तुल्ल विक्कमविलसीयगति, वरतुरग सुजायगुज्झदेसा, आयण हयोव निरुवलेवा, पमुइय वरतुंरगसीह, अतिरेगवटिय कडी, - गंगावत्तग दाहिणावत्त, तरंग भगुर रविकिरण बोहिय विकोसायंत पह्मगंभीर विगडनाभी, साहत साणंद मुसलदप्पणा निगरियवरकणग छरुसरिसवरवइर वलिय मज्झा उज्जग समसहिय, जच्चतणु कसिणनिह, आदेज्जलडह, सुकुमाल मउयरोमराइ, ज्झसविह. रंगवाले चिकने नख हैं, संधी से पीले हुए अच्छे संस्थानवाले गुप्त गूटे हैं, हिरन समान गोलाकार अनुक्रम से बहती हुई जघा है, डब्बे को ढक्कन से बंय करे तव उस की संघी मीली हुई दीखती है वैसे ही निर्मल गुप्त मांसबाले छूटने हैं, पदोन्मत्त हस्ती सपान विलासःाली गति है, प्रधान घोडे समान सुजात पुरुष चिन्ह है, आकीर्ण जाति के घोडे सपान विष्टा का लेप नहीं लगता है. प्रमुदित हर्ष सहित हैं, सिंह समान कटि है. गंगा नदी के आवर्त जैसे दक्षिणावर्त, कल्लोल की भंग होती हुई सूर्य के कारण से विकसित पाखार्डयोगाला पद कमल समान गंभीर निकट नाभि है, एक स्थान बंघे, बीच में संकुचित दोनों तरफ विस्तीर्ण. मूगल सगन, शुद्ध दर्पण के हाथे समान, शुद्ध मुवर्णमय खड्ग की मूठ समान, प्रधान वन के मध्य भाग समान सरल अवक्र प्रमाणपत कार है. स्वभाव से सूक्ष्म पतला नग्ध* ..*प्रकाशक-राजाबहादून लाल मुखदवसहायजी बाळापमादमी *
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________________ त्र 4 103 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण मूत्र-प्रथम आश्रवद्वार - गसुजाय पीणकुच्छी, झसोदरी, पम्हविगहनाभी, संनतपामा, संगयपासा, सुजायपासा सुंदरपासा, मियमाइय, पीणरइय पासा, अरंड्यं, कणगरुयंगं, निम्मलसुजाय निरुवहय, देहधारी, कणगर्सलातल पसत्थ समतल उवइत विच्छिन्न पिहलवच्छा, जुयसण्णिभा पीणरइय पीवरपओ? संठिय सुसलिट्ठ. विसिटुलट्ठ सुविणियघण थिरसुबद्ध, संधी पुरवर फलिह वाट्टयभूया, भूयइ ___सरावपुल भोग आयाण फलिह उछूढ, दहिबाहु, रत्ततलोवइय, मउय मंसल सुजाय - चिकना, शोभावन, मनोहर. सुकुमाल, मृदु, अत्यंत कोपल ऐसी रोमकी श्रेणि है, मच्छ अथवा विहग (पक्षी) समान अच्छी उत्पन्न हुई कुक्षि हैं, मच्छ समान उदर है, नीची नमती ईई परस्पर संधी वाली सुंदर शोभनक प्रमाणे पत दोनों तरफ पसलियों हैं. मांपेम पुष्ट नहीं दीख सके वैसी हड्डियों हैं, निर्मल रोग हित शरीर हैं. सुवर्ण शिला समान अच्छा बराबर चौडा वक्षःस्थल है, गाडी के धूपर समान पुष्ट रमणिक जाडे प्रकृष्ट कलाइ सहित सुश्लिष्ट सघन विशिष्ट लष्ट मनोहर मुरचित निवड स्थिर, अच्छे बंध बाल नगर के द्वार की भोगल समान चर्तुल भुना युक्त विस्तीर्ण रमणिक लम्बी बांहा है, वह मृदु. सुकोमल व प्रशस्त लक्षण युक्त है. छिद्र रहित अंगुलीमाले हाथ हैं, पुष्ट अच्छी तरह बनी. हुई कोपल प्रध न हस्त की अंगुलियों हैं. ताम्र समान लाल पवित्र देदीप्यमान चिक्कने नख हैं, हाथ की है। . अब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ-अध्ययन Amit
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________________ , अनुवादक-मालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - लक्षण पसत्थ,अच्छिद्द जालपाणी, पीवस्सुजाय कोमलवरंगुली,तंबतलिण सुइरुइल, निहनावा, निद्धपाणीलेहाचंदपाणीलेहा, सूरपाणीलेहा, संखपार्ण लेहा; चक्कपाणिलेहा दिसासोवास्थय पाणीलेहा, रविससि संख वर चक्क दिसा सोवत्थिय विभत्त सुरइय पाणी लेहा, वरमहिस बराह सीह सदुल रिसह नागवर पडिपुण्ण विउलखंधा, चउरंगुलस- पमाणकंबुवर सरिसगीवा, अवाट्टयसु विभत्तचित्तमंसु, उचित मंसल पैमत्थ सहुल विपुल हणुया, उवचिय सिलपवाल बिंबफल सन्नभाधर ट्ठा, पंडुर रेखः विक्कनी है. चंद्र, सर्य शंख, चक्र, दक्षिणात स्वस्तिक इत्यादि हाथ में शुभ रेखा हैं, प्रधान महिष शार्दूस हिंस, हस्ती ममन प्रतिपूर्ण स्कंध हैं. चार अंगुल प्रम न शंख जैसी प्रध न वा है, यथावस्थित सुविभक्त शोभा युक्त मूडो हैं, उपचित पुष्ट-सिल वाली प्रशस्त शार्दूल हि जैमे विस्तीर्ण दाढी है, शिल प्रवाल, विम्ब फल मपान अधरोष्ट हैं, श्वेत चंद्रमा की कला समान निर्मल शंख गाय का दूध समुद्र में का फेन मुचकुंद मोगरे के पुष्प, पानी के कानये, करल तंतू समान श्वेत दांत की पंक्ति है, दांत फटे हुवे नहीं है. सब दांत अखण्ड है. अलग नहीं हैं, अच्छा स्वच्छ चिक्कना जैता एकदांती संपूर्ण दांतकी श्रेणी है अग्नि मे धपा हुआ, धोकर निर्मल किया हुवा तपनीय सुवर्ण समान रक्त वर्ण का त लु और जिव्हा है / गरुड पक्षी ममान लम्बी सीधी ऊंची नाशका है. विक सेत पुंडी क कमल समान आंखें हैं, विकसित *पकापाक राजाबहादुर लाला मुखदवमहायजा ज्वालाप्रमादजी *
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________________ + 4.88 दशमङ्ग-प्रश्नव्याकरण भूत्र-प्रथम आश्राद्वार ससिसकल विमल संख गोखीर फेण कुंद गरय मुणालिया धवल दंतसेढी, अखंडदंता, अफुडियदंता अविरलदंता, सुगिद्धदता, सुजायदंता, एगदंत सेढव अणेगदंता, हयवयनिद्वत्ता धोय तत्ततव णजरत्त तलतालु जीहा, गरुलायतउज्जतुंग नासा, अवदालिय पुंडरीयनयणा, विकोसिय धवलपत्तलच्छा, अणामिय चावरुइलकिण्हन्भरायि संठिय संगयायत्त सुजाय भूमगा, अल्लीणप्पमाणजुत्तसवणा, सुसवणा, पीगमंसलकवोल देसभागा, अविरुगाय अब्रह्मचर्य नायक चतुर्थ अध्ययन श्वेत कमल पत्र सपान आंखों है किंचित् नमाया हुवा धनष्प जैसे मनोहर कृष्णवर्ण वाली अभ्रबद्दलो की रेखा जैसी आकार वाली, भ्रकृट हैं. अच्छे लम्बे कान हैं. मांस से पुष्ट कपोल हैं. तत्काल का उत्पन्न बालचंद्र जैसा ललाट है, ज्याषियों के पनि चंद्र समान सौम्य सम्पूर्ण मुख है, छत्र समान मस.क है, लोहे के घन समान ताडिये से वेष्टिन, पर्वत के कूटाकार अथवा आटे के विण्ड समान पर क का उपर का भाग है. आग्न से तपाया हुवा सुवर्ण जैसी रक्त केश उत्पन्न होने की भूमिका [ टाट ] है. शाल्मली वृक्ष के फल सपान निवड, चलाते सुकोपल, स्पष्ट, प्रशस्त, सूक्ष्म पतले लक्षणांत, + मगंधी सुंदर, भुनमोचक रत्न समान कृष्ण, नील समान, काजल सपान, मदोन्मत्त भ्रपर के समुह समान} . 12t..
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________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + बालचंद संठिय निलाडा, उडपति पडिपुण्ण सोमवयणा, छत्तागारुतिमंगदेसा, घणनिचियसुबद्ध लक्खण्णणय कूडागार निभपिडियग्गसिरा,हुतवहनिदंत धोयतत्त तवणिज रतकेसंतकेसभूमी. सामलीपॉड घणनिचिय छोडियामिउ विसय पसत्थ सुहुमलक्षण सुगंध सुंदर भूयमोयग भिंगनील कजल पहट्ठ भमरगण निद्वनिकुरव निचिय ___कुंचिय पाहिणावात्त मुद्धसिरया सुजाय सुविभत्त संगयंगा, लक्खण वंजण गुणोंववेया, पसत्य बत्तीस लक्खणधरा, हंससरा, कोचसरा, दुदुहिसरा, सीहसरा, भेवसरा, ओघसरा,सुस्सरा, सुस्तरनिग्घोसा,बजारसहनागय संघयण,समचउरंस संठाण सघन विखरे नहीं, कुंची पडे हुए प्रदक्षिणावर्तवाले मस्तक पर केश हैं. अच्छी तरह बनाया हुआ एक से एक मीलता हुवा, लक्षण व्यंजनादि विविध प्रकार के गुणवाला प्रशस्त बत्तीस लक्षणबाला, हंस, सारस, क्रौंच समान दुंदुभि सपान गंभीर स्वर है. सिंह समान स्वर है, मेघ गर्जना समान स्वर है, प्राह रूप स्वर है. अच्छा स्वर है. सुस्वर युक्त मंजुल निर्घोष है. वज्रऋषभनागच मंघयण वाले महापराक्रमी हैं. समचउरंस संस्थान वाले हैं उन के अंगोपांग की छाया उद्योन करती है. इन का शरीर रोग गहत है. काक पक्षी समान चक्षु है. पारापत पक्षी समान में हार का परिणाम है शकुन पक्षी समान निहार है. अर्थत् उन का पुष्ट भाग निहार से खराब होने वहीं, पुष्ट जंघा प्रसरी हुइ है. प्रमोत्पल कपल समान * पकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवमहायजीवालामसादत्री *
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________________ + + 484 दशमान-प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम-आश्रद्वार 498 संठिया, छायाउजोविअंगमंगा, छबीनिरायंका, कंकगहणा, कवायपरिणामा, सउणिपासपि,तरारुपरिणया, पउम्मुप्पलसरिसगंधसास सुरभिवयणा, अणुलोमवाउवेगा, अवदायनिद्धकालाविग्गह ओण्णयकुच्छी,अमयरसफलाहारी,तिगाउयसमुसिया,तिपलिओवमठि तीया,तिष्णियपलिओवमाई परमाउं पालइत्ता,तेविओवणमंति,मरणधम्म,अवितित्ताकामाणं ७पमदाविय,तेसिं होति,सोमासुजाय सव्वंगसुंदरीओपहाण महिल गुणेहिंसंजत्ता,अतिकंत बिसप्पमाणमउय,सुकुमाल, कुम्मसंठिय सिलिट्ठचलणा उज्जुमउयपीवर सुसाहतंगुलीओ, सुगंधमय श्वासोच्छवास है. तैसे ही सुगंध मय वचन है. अनुकूल अच्छा शरीर का वायुवेग विकसित चिकनी शरीफ की ऊंची कक्ष, अमन समान मिष्ट रमवाले, पुष्पफलका आह र करनेवाले,तीन कोश के ऊंचे शरीर बाले; और तीन पल्योम की स्थितिवाले हैं. वे भी काम भोग में अतृप्त वने हुवे क्षीण होते हैं. अर्थात् मरण धर्म के प्राप्त होते हैं // 7 // यह उत्तर कुरु देव कुरु के युगलिये का वर्णन किया. अब उन की प्रमदाओं स्त्री का वर्णन करते हैं. वे सौम्याकारवाली, सर्वांग सुंदरी और स्त्र के सब गुणों से युक्त है, आतिकांत, प्रमाणोपेत काच्छवे, जैसे सुकोमल सुमंस्थित चरण हैं. सुकुमाल पुष्ट विरल पांव की अंगुलियों, हैं, उन्नत सुखदायी ताम्र वर्णवाले नख हैं. रोम रहित वर्तुलाकार संस्थानमाली पिंडी हैं. उत्कृष्ट लक्षण की + अब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन - - n 1
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________________ 14 अब्भुण्णत्तगत तलिंणतंवसूइ निद्वनखा रोमरहिय,वट्टमठिय, अजहण्ण पसत्थ लक्खण, अकेप्पजंघजुगला, मुणिमिय, मुणिगूढ जाणू, मंसलपसत्थ सबध संधी, कयली खंभातिरेक संठिय निवाण, सुकुमाल मउकोमल अविरला समसहिय वट्टपीवर णिरतगेह, अट्ठावयवीति पट्टसंठिय पसत्था वित्थिण पिहुलसोणि वदणायामप्पमाण दुगुणिय विसाल ममल सुबद्ध जहणवरधारिओ वजविराइयपसत्थलक्षण निरोदरीओ,तिवलिबलियतणु, नमितमज्झिभाओ, उज्झतसमसहिय,जच्चतणुं क सण नद्ध धारक हैं, म रहित जंघ युगल है, अच्छी तरह निमत नमों की जालवाले दोनों घटने हैं. कदली र समान सुकुमाल मृद के मल दानों एकमी मीलती हुई पुष्ट जंघा है, अष्टापद की पिठ समन प्रशस्त विस्तीर्ण यौन है, लम्बे मुख से दुगुनी विशाल मांस युक्त श्रेष्ठ जघन हैं. वज्र समान विराजित प्रशस्त लक्षणवंत कृश उदर है. त्रिवलि संयुक्त पतला नमा हुवा कटिका मध्य भाग है. ऋजू सरल स्वभावसे एकमी बनी हुई, पतली, सतेज, रपणिक, सुललित, सुकुपाल, मृद, कोमल अच्छी रोमराजी है. गंगावत जैसा दक्षिणावर्त है, तरंग कल्लोल, रवि के कीरण, तरुण सूर्य और विकसिन पक्ष कमल समान गंभीर नामि है, 17 अनुन्नत प्रशस्त अच्छी कुक्षि है, शरीर के दोनों तरफ उन्नत पतलि हैं, वे एकेक से परस्पर मिली हुई हैं. अमोलख ऋषिजी. मुनिश्री ** पाचकराजाबहादूर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रमादजी*
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________________ ܨܘ ܕ 48 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्र द्वार MM आदेज लडह सुकुमालमउय सुविभत्तरोमराई, गंगावत्तग दाहिणावत्त तरंग भंग रविकिरण तरुण बोहित अकोसायत पउमगंभीर विगडनाभी, अणुब्भड पसत्थ सुजात पीणकुत्थी, समंतपासा, संगयपामा, सुजायपासा मियमायित, पाणरइयपासा, अकरंडुय, कणगरुयग, निम्मल सुजाय निरुवहय गायलट्ठी, कंचण कलस प्पमाण समसंहिय लट्ठ चुच्चुय आमेलग जमल जुयल वट्टिय पोहराओ, भुयंग अणुपुब्बतणुय, गोपुच्छवट्ट सममहिय निम्मिय आदेजलडहबाहा तंबनहा, मंसलग्ग हत्था. कोमल पीवरंगुलीया, निहपाणिलेहा, सास अद्रष्ट सुवर्ग की कान्ति समान निर्मल निरुपद्रव गाव हैं. सुवर्ण कलश समान मनोहर स्तन हैं. परस्पर नहीं मिलते हुए वर्तुला कार दो पयोधरहे. सर्प समान अनुक्रम से बढ़ती हुई गोपुछ समान वर्तुकार रमणिक बांहाह. रक्ततम्रवर्णवाले नख हैं. मांस से पुष्ट कौमल अच्छी हाथ की अंगुलियों हैं.स्निग्ध चिकनी हस्तरेखा है, चंद्र सूर्य शंख स्वस्तिक इत्यादि हाथ में रेखा है. पुष्ट उन्ना वक्षःस्थल है. मतिपूर्ण गोल कपोल है, चार अंगु मुममाण शंख समान ग्रीवा है, मांस.से पुष्ट सुसंस्था प्रशस्त दादी है, दाडिम के पुष्प समान प्रकाश बाल पुष्ट लो अधर ष्ट हैं, दषि, पानी के कण, कुंद के पुष्प, चंद्रमा, और वसती सपान उज्वल अब्रमचर्य नामक च /
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________________ अनुवादक-चा ब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलक ऋषिजी - 'सूरसंख चक्क वरसोस्थिय विभत्तसुविरइयं पणिलेहा पीणुण्णय कक्खच्छिपरदेस, पडिपुण्णगलकपोला, वैउरंगुलसुप्पमाण कंबुवर सरिसगीवा, मंसल संठिया पसत्थहणुया, दाडिमपुप्फप्पकास पीवर, पलंबकोचियवरधरा, सुंदरोत्तरोटा, दधिदगरय कुंदचंद वासंति मउल अश्छिद्द विमल दसणा. रत्तुप्पलरत्तपउमपत्त सकुमाल तालु जीहा, कणग वीरमउल कुडिल अब्भुण्णय उज्जतुंगनासा, सारदनव कमल कुमुय कुवलयदल निगर सरिस लक्खण पसत्थ निम्मलकंत नयणा, आनामिय चावरुइल, किण्हराई संगय सुजाय तणुकसिणं निह भमगा अल्लीणपमाणुजुत्त सवणा सुस्सवणा, पीणमट गंडलेहा, चउरं गुलविसाल समनिडाला, कोमुदिरय E छिद्र रहित निर्मल दांत हैं. रक्त त्पल पद्मपष समान सुकुमाल त लु और जिव्हा है. सुवर्ण समन माकुली जैसी उन्नत मरल ऊंची नासिका है. शरद काल के उत्पन्न हुए सूर्य विकासी कमल, चंद्र विकासी कमल, नीलोत्पल कमल, सोपांखडियों के कपल, समान शुभ लक्षण युक्त निर्मल कान्तकारी चक्षु हैं. किाचेत् नमे हुए धनुष्य समान पनाम कृष्ण बदल की रानी समान लम्बे सुस्थित भ्रपर हैं. अलीनसुंदर प्रमाणोपेत कर्ण हैं, पुष्ट घटारे हुए गंडस्थल हैं. चार अंगु उ प्रमाण विस्तीर्ण ललाट हैं, कार्तिक पूर्णिमा के चंद्रमा समान निर्मल प्रतिपूर्ण सौम्यवदन है. छत्र समान मस्तक है, अत्यंत कृष्ण वर्णवाले * प्रकाशक-राजाबहादुर काला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ 48. देशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार णिकर विमल पडिपुण्ण सोमवयणा, छत्तूणय उत्तिमंगा, अकविल सुमिनिद्ध दीह63 सिरया, छत्त, झय, जूव, थूभ, दामिणि, कमंडलु, कलस, वावि, पडाग, सोत्थिय, जब, मच्छ, कुम्म, रथेवर, मकरज्झय, अंक, थाल, अंकुस, अट्ठावय, सुपइटु, अमर, सिरियाभिसेया, तोरण, मेयणि, उदधिवर, पवर भवणं, गिरिवर, वरायंस, सुललितगय वसभ, सीह, चमर, पसत्य बत्तीस लक्खणधरीओ, हंससरिसगईओ, कोइल महुय गिराओ, कंता सव्वस्स, अणुमयाओ, ववगय वलिपलियबंग, दुबग्णवाहि, दोभग्ग सोय मुक्काओ उच्चत्तेणय सुगंधी सतेज मस्तक के केश हैं. 1 छत्र, 2 ध्वजा, 3 झूसर, 4 स्थूभ, 5 दामिनी, 6 कमंडल, 7 कलश 8 वावडी, 9 पताका, 10 स्वस्तिक, 11 यव, 12 मच्छ, 13 कच्छ, 14 प्रधान रथ; 15 मकरध्वज कामदेव 16 अंकरत्न 17 थाल 18 अंकुश 19 अष्टापद-बाजोट 20 सुप्रतिष्ट 21 देवता 22 अभिषेक.. युक्त लक्ष्मी 23 तोरन 24 पृथ्वी 25 प्रधान समुद्र 26 प्रधान भवन 27 प्रधान पर्वत 28 प्रधान अरसा 29 लीलावत हाथी 3. वृषमे 31 सिंह और 32 चमर. ये प्रशस्त बत्तीस लक्षण उन के है. हंस मगन गति है. को कला सपान मधुर स्वर है. सषको पियकारी, हिनकारी, अंगकी कुचेष्टा' अब्रह्मचर्य नामक चतुर्य, अध्ययन 4 -
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________________ 112 New नगयोवृणमू सताओ, सिंगारागार चारवंसा, सुंदर थण जहण वयण कर चरण णयणा लावारूव जोवण गुणोववेया, गंदणवण विवर चारिणीओ उच्चअत्थराओ,उत्थरकुरुमाणसत्थराओ, अच्छेरगपच्छणिज्जाओ, तिणिपलि. आवमाई परमाओपालइत्ता, ताओविउवगमंति मरणधम्मं, अतित्ता काम णं // 8 // मेहुणसन्नपगिडाय, मोहभग्यिा. सत्थेहि हणंति एक्कमेकविसय विउदीरएहि. अवरेपरदारेहिं हिंसति विमुणिया धणनास,सयणविप्पणासंचपाउणंति, परस्सदाराओ जे आंव रया,मेहुण सण्णसंपगिहाय,मोहभरिया, अस्साहस्थीगशय महिसा मिग्गाय मारेंति एक्क asles रहित और दुष्ट वर्ण, व्यघि और दोर्भाग्य रहित हैं, ऊंनाइ में पुरुष से कुच्छ कम है. लावण्यत रूप यौवन दि विविध गुन की धारक हैं. नंदनवन में विचरने वाला अप्स। ममान अर्थात् उत्तरकुरु ष, रूप वन में अनुष्यनी रूप अप्मरा है, प्रेक्षक को आश्चर्य करनेवाली है. उत्कृष्ट तीन पल्यापम की आयुष्य हैं. इतना होने पर वे भी काम भोग में अतृप्त बनकर मृत्यु धर्म को प्राप्त हुइ हैं // 8 // मैथुन संज्ञा में गृद्ध जीव अज्ञान में पूर्ण बने हुए शस्त्र से एकेकी घात पात हैं, विष देकर मारते हैं. परदारा में रमण करनाले की घात उस स्त्री का पति करता है. धन का नाश होता है, स्वजन का नाश होता है. पैथुन 17 में गृद्ध और माह कर्म से परिपूर्ण बने हुए घोडे, हाथी बैल, महिष, मृग वगैरह परस्पर सड मरते हैं 4. अनुवादक-पालकमचारी मुनि श्री अयोलक ऋषिजी *काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी . , /
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________________ 6 - - दशमान प्रश्नकरण सुष-प्रथम-आश्रवद्वार मेकं, मणुयगणा वानाय पक्खियाविरुझंति, मित्ताणि खिप्पं भवंतिसत्तू समए धम्म गणेय भिंति परदरिधम्मगुणरयाय बंभयारी, खणेण उलोटपचरित्ता भो, जसमंतो सुव्वयाय पावंति, अयसकिति रोगत्ता बाहिताय वहृत, रोयवाही दुवेयलोथ, 113 दुराराहगा भवति, इहलोए चेव परलोए, पररसदाराओजे अविश्या, तहेवकेइ परस्स दारं गवेसमाणा गहिताय हताय बद्धरुद्धाय एवं जाव गच्छति विपुल मोहाभिभूय सण्णा, मेहुण मूलंच सुव्वए // 9 // तत्थ 2 वत्त पुवासंगामा-१ जणक्खयअथवा अपने मंतःनों की घात करते हैं. मनुष्य पक्षि भी परस्पर युद्ध करते हैं, मित्रों में परमार वैर भाव र उत्पन्न होता है, परदारा में लुब्य जीव सिद्धांत के प्ररूपित चारित्र रूप मूल गुग का भेद करते हैं. श्रुत चारित्र धर्म में रत जीव स्त्री संग से क्षण मात्र में भ्रष्ट बनजाते हैं. सत्र सम्यक्त्वी सुवाी भी स्त्री संग से अकीर्ति व अपयश को प्राप्त होते हैं. व्यभिचारी का शरीर गाधिप्रस्त कता है. फीर व्याधि से पराभूत बने हुए मृत्यु के मुख में पड़ते हैं वैसे ही पर स्त्री गमन करनेवाले कितनेक पकडा कर मारेंगये हैं. बंधन में पड़े हैं. इस प्रकार यावत् विस्तीर्ण मोड के सन्मुख ** दुर पोहो पाएमा पार हुए जीवों दुर्गति के अधिकारी बनने हैं // 9 // अब त्रियों के लिये पूर्व कालमें जो / अब्रह्मनये नायक चतुथ ययन + [
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________________ 4 कग सीताए, दोवतीयं कए, रुप्पिणीए पउमावतीए, ताराए, कंचनाए, रत्त | सुभद्दाए, अहिल्लियाए, सुवण्णगुलियाए, किन्नरीए, सुरूव, विज्जुमतीए,.. संग्राम हुए हैं सो बताते हैं-१ सीता-जनक सना की पुत्री के लिये रामचंद्र लक्ष्मणने रावण के साथ संग्राम किया, 2 द्रौपदी-द्रुपद राजा की पुत्री के लिये कृष्णने पनोत्तर राजा के साथ संग्राम किपा, 3 रुक्मणीभीषम राजा की पुत्रो के लिये कृष्णने शिशुपाल से संग्राम किया, 4 पद्मावती-हिरण्य राजा की पुत्री के लिये कृष्णने पद्मावती के पिता से संग्राम किया 5 तारा-सुग्रीव की स्त्री के लिये साहसंगति विद्य धर के साथ संग्राम किया, 6 कंचना यह अप्रसिद्ध है 6 सुभद्रा-कृष्ण की बहिन के लिये पांडव पुष . Fअर्जुनने संग्राम किया, 8 अहल्या इस का कथन जैनेतर शास्त्रों में प्रसिद्ध है. 9 सुवर्णमुलिका यही सिंधु सोबर देश के उदायन राजाकी दासी थी. योगीने दी हुई गुटिका के प्रभावसे सुवर्ण जैसे शरीरवाली होने से उस का नाप सुवर्णगुलिका रखा था. उज्जयनी के स्वामी चंद्रप्रय तन राजाने उस का हरन किया जिस से उदायन राजाने संग्राम किया. 10 किमरी इस का कथन अप्रसिद्ध है। 1. सुरूपा मइका कथन भी अप्रसिद्ध हैं. 13 विद्युभती भी अपसिद्ध है 14 रोहिणी यह अरिष्ट पुर के 10 मरुधराजा के पुत्र हरण्य पाम की पुत्री थी, इस के स्वयंवर मंडप में वासदे। ने संग्राम किया. इन सिपाय 4.1 अनुवादक-पालब्रह्मचारी माने श्री अमोलक ऋषिनी *प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुखदक सहायी चालाप्रसादडी*
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________________ माज 42 84 दशमान प्रश्नव्याकरण मूत्र-प्रथम-आश्रवद्वार 491 रोहिणीएय,अप्णेसुय एवमाईसु बहवे महिलाकएमु सुवंती अइक्वता संगामा, गाम धम्ममूला // 10 // इहलोएतावनट्ठा, परलोएयनट्ठा महया मोह तिमिसंधयारे धोरे, तस थावर सुहुम बादरेसुय, पजत्तमपजत्तकसाहारण सरीर पत्तेय सरीरीसुय अंडज पोतज जराउय रसज संसइम समुच्छिम उभिजओ उववाइएसु, नरग तिरिय देव माणुमेसु, जरामरण रोग सोग बहुले, बहुई पलिओवम सागरोवमाई, अणादीयं अणवदग्गं, दीहमद्धं, चाउरंत संसार कतारं अणुपरियति जीव मोहवसं संनिविट्रा अन्य वहत स्त्रियों के लिये बडे 2 संग्राप हुए है. // 10 // इन्द्रियों के धर्म शब्द, रूप, गंध, रस, और स्पर्श रूप ही मैथून है. यह इम लोक में बंधन कर्ता और पालोक में अनिष्टकारी है. महा मोहमय रूप अंधकार का स्थान है. त्रस, स्थावर, मूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण शरीरी, प्रत्येक शरीरी अण्डे से उत्पन्न होने वाले, थेली से उत्पन्न होने वाले, जह से उत्पन्न होने वाले, रस से उत्पन्न होने वाले .. सम्मूिर्छिमने वाले, जमीन फोडकर नीकलने वाले, नरक देवलोक में उत्पन्न होने वाले, नरक तिर्यंच .. 3 मनुष्य और देव रूप चतुर्गतिक संसार में जरा, रोग, शोक यों बहुत प्रकार के बहुत पल्योपम. सागरापम: पर्यंत - अनंत काल पर्यंतं, दीर्घमार्ग वाली चतुर्गति रूप संसार कतार में अनुक्रम से वारंवार'. अब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन + +
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________________ // 11 // एमोमो अबंभस्म फलविवागो इहलोहओ परलोइओ, अप्पसुहो, बहुदुक्खो; महब्धूयओ,बहुग्यप्पगाढो,दारुणो कक्कसोअसाओ वास सहस्सेहिं मुच्चंतीनय अवेदयिता, अस्थि हु माक्खोति॥ एवं मासु नायकुल नंदणो महप्पा जिणो वीरवरनामधिजो कहेसीय, अबंभरस फल विवागं, एयंत अबपि च उत्थंपि सदेव मणया सग्लोगस्स. पत्थाणज्ज, एवं चिरपरिचिय मणुगयं, दुरंत,त्तिबेमि ॥इति चउत्थं अहम्मदारं सम्मत्तं॥ * अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 3 परिभ्रण करने वाले जीव को यह मोहनीय कर्म ही निश्चष्ट करता है. // 1 // इस प्रकार का अब्रह्मकर्म का फछ विपाक इस लोक में आर परलोक में अल्प मुख व बहुत दुःख देने वाला, महाभय का स्थान, वर्ग रूप रज से ग्रस्त, गाढ, दारुण कश विना भोगवे नहीं छूट सके वैसा है. ऐसा अब्रह्मचर्य का फल विपाक ज्ञात कुरनंदन महावीर स्वामी ने कहा है. इस चौथे अब्रह्मचर्य की सदैव / पष्प, मुरलोकने प्रार्थना की है, यह विपरिचित और दूरंत है. यह चौथा अधर्मद्वार संपूर्ण हुवा // 4 // * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवस हायजी ज्वालाप्रमादजी *
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________________ 117 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूध-प्रथप आश्रवद्वार // पंचम-परिग्रह आश्रव हारम् // जंबू ! एत्तो परिग्गहो पंचमो नियमा गाणामणिकणगरयण महरिहपरिमल सपुत्तदार परिजण दासिदास भयगप्पेसहयगय, गोमहिस उदृखर अयगवेलासीहा सगडरह जाण जुग संदण सयणासण वाहण कुविय धणधण्ण पाण भोयण अच्छायण गंध ___ मल्ल भायण भवण विहिचेव बहुविहीय भरह, नग नगर निगम जणवय पुरवर. दोणमुह खेड कवड मंडव संबह पट्टण सहरस मंडव मंडिय श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं कि अहो जम्बू ! पांचवा आश्रव द्वार अथवा चरिम आश्रव द्वार कहता हूं. इम का नाम परिग्रह है. जहां ममत्व भाव है वहां परिग्रह है. इस का वर्णन वृक्ष की उपमा से करते हैं-विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण. रत्न, माहामूल्य वाल द्र पुत्र, दारा, परिजन, दास, दासी, भृत्यक, प्रेषक इत्यादि मनुष्य; धोडे, हाथी, बैल, भैम, ऊंट, गद्ध, बरा, गाडर इत्यादि पशु; शिबिक', गाडा, रथ, पालखीं, वाहन, संग्राम योग्य रथ वगैरह वाहन घरवखरा, प्रांजन, धन, धान्य, पानी, भोजन, आच्छादन, वस्त्र, कर्पूगदि गंध, माला, कुंभादि भानन. / भवन यो विविध प्रकार का स्थावर परिग्रह, बहुत प्रकार के पर्वत, नगर, निगम, जनपद, पुर, द्रोणमुख, 4AR परिग्रह नामक पंचम अध्ययन + अर्थ 8+
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________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 4- अनुवादक-बार ब्रह्मचारी थिमियं मेयणीय, एगच्छत्तं ससागरं भुजिउण वसुहं, अपरिमिय मणंत तण्ह मणुवाय महिन्छसार निश्यमूलो, लोभकाल कसाय महक्खंधो, चिंतासय निचिय विपुलसालो गारवविगल्लियग्गविडवो, नियडितयापत्तपल्लवधरो, पुप्फ फल जस्स कामभोगो आयासावसूरणा, कलहपक पियग्गसिहरो, नरवइसंपूजितो, बहुजणस्सहिययदईओ, इमस्स मोक्खवर मोत्तिमग्गस्स फलिहभूतो, // 1 // चरिमं अहम्मदारं तस्सयं वड, कर्वेट, मंडप, आश्रय, पाटण, इत्याद सहित पृथ्वी वगैरह जिन को होवे, पृथ्वी में एक ही राजा होवे. अपरिमित लक्ष्मी का भोक्ता होचे, ऐसा अनंत, पाप द्रव्य की रक्षा और अप्राप्त द्रव्य की वाच्छा से अनुपत बने तृष्णा वाले परिग्रह कोटी भारभूत मानते हैं, ऐसा नरक गति में मूल भूत यह परिग्रह वृक्ष है. इस को लोभ क्लेश कषाय रूप स्कंध है, प्राप्त द्रव्य की रक्षा में चिंता करने रूप शाखा है, ऋद्धि गर्व, रस गर्व, साता गर्व तीनों गर्वरूपं विस्तारवंत पातशाखा है. माया करना सो स्वचा है } पांचों इन्द्रिय संबंधी 23 विषय के 240 विकार, काम भोग, रूप पत्र, पल्लव पुष्प वगैरह हैं. शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख, क्लेश, अन्य को भंडन करना यह कंपायमान शिखर है, ऐसा महा परिग्रह रूप वृक्ष बडे नरपतियों को पूज्यनीय है, बहुत मनुष्यों के हृदय को वल्लभकारी है, यह परिग्रह रूप वृक्ष प्रधान मोक्ष पथ में विघ्न करनेवाला है अर्गल सहित कपाट समान है // 1 // इस चरिम अधर्म द्वार के *भकाशक-राजाबहादुरळाला खदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ श्रवद्वार 46418+ परिग्रह नामक अर्थ + दशमान-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम नामाणि गोणाणि होति तीस, तंजहा–१ परिगहो, 2 संचओ, 3 पयो 4 उवचयो, 5 णिहाणं 6 संभारो, 7 संकरोय 8 एवं आयारी, 9 पिंडो, 10 दव्वमागे 11 तहमच्छिा , 12 पडिबंधा, 13 लोहप्पा, 14 महट्टी, 15 उवगरण, 16 संरक्षणाय,१७मारो, 18 संपाओपायको, १९कलिकरंडो, 20 पवित्थरी, २१अणत्थको, २२संथवो,२३अगुत्ती, 24 आयासो, 25 अविओगो, 26 अमुत्ती, 27 तण्डा, 28 अणत्थको २९अगुआसत्थी, 3 . असंतोसोत्ति विय तस्स एयाणि, एवमादीणि नामधेन्जाणि गुण निष्पन्न तीस नाम कहे हैं. तद्यथा-१ परिग्रह-शरीर उपाधि प्रमुख पर ममत्व, 2 संचय-धन धान्यादिक का एकत्रित करना, 3 चय-धनादिक एकत्रित करना, 4 उपचय-धनादि से उपचय करना, 5 प्रणि धान-धनादि निधान जपान में रखना, 6 संभगे-वारंवार संभाल रखना, 7 मंकरो-पिण्ड बना कर रखना, 8 आदाय-ग्रहण करना, 9 पिण्ड-बहूतों का समावेश करना, 10 द्रव्यसार-धन को सारभूत सपझना, 11 पहाइच्छ-महा तृष्णा, 12 प्रनिबंध-बंधन, 13 लोमात्मा, 14 महा ऋद्धि, 15 उपकरण, 16 संर-* क्षण रक्षा करना, 17 भार, 18 संताप उत्पादक, 19 क्लेश का करंडिया, 20 विस्तार 21 अनर्थ का? कार 22 संचय-परिचय का काग्न, 23 अगुप्त, 24 अयश-खेद का कारन, 25 भवियोग अधर्षी लोक का वांग्छक, 26 अमुक्त लोम, 27 तृष्ण', 28 अनर्थ-परमार्थ का नाशक, 29 आसक्तता / अध्ययन 44 / - +
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________________ 44 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी। हुंति तीसं // 2 // तं चपणपरिग्गर्ह ममयंति, लोभघत्था, भवण घर विमाण व सिणो, परिग्गहरुई परिग्गहे, विविहकरणबुद्धी देव नकायाय असुर भूयगगरल विज्जु जलण दीव उदही दिलिपवण थणिय अणपन्निय, पणपन्निय, ईसीव इय, भयवाइय, कंदीय. महाकंदीथ, कुहंड, पयंगदेवा // पिसाय, भूय, जक्खरक्खस, किन्नर, किंपुरिस, महोरग, गंधव्वा, तिरियवासी पंचविहा जोइसीयादेवा, वहस्सती, चंद, सूर, सुक्क, सणिच्छरा, राहू, धूमकेउ, बुद्धाय, अंगारगाय, तत्ततवाणज्ज, और 30 असंतोष. यह तीम नाप परिग्रह के होते हैं. // 2 // लोभ में ग्रस्त बने हुए परिग्रह ग्रहण करते हैं सो कहते हैं. भवनपति से वैमानिक पर्यंत चारो जाति के देवों की पग्रिह में अधिक रुचि होती है. परिग्रह ग्रहण करने में विविध प्रकार की बुद्धि प्रवर्तती है, अब उन के पृथक् नाम करते हैं-१ असुर कुमार 2 नागकुमार 3 सुवर्ण कुमार 4 विद्युत्कुमार 5 अग्निकुमार 6 द्वीप कुमार 7 उदधि कुमार 8 दिशाकुमार 92 पवन कुमार और 10 स्थनित कुमार यह दश भवनपति, 1 आनपन्नी, 2 पाणपन्नी, 3 इसीबाय 4 भूइवाग, 5 कंदिय 6 महाकदिय 7 कोहंड और 8 पयंग देव. वैसे हैं। 9 पिशाच 10 भूत 11 यक्ष 12 रक्षस, 13 किन्नर 14 किं पुरुष 15 महोरग और 16 गंधर्व, ये सोलह वाणव्यंतर देव हैं. तीरछे / लोक में दीखाइ देते हुए पांच प्रकार के ज्योतिषी, बृहस्पति, चंद्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु धूपकेतु, बुध, / *मकारक-राजाहादुर लाराम दासहायनी ज्वाला प्रसादजी*
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________________ म कणगवण्णा जयगहा, जोइसियंमि चारंचरति, केतुयगति रतीया, अठ्ठावीसति / / विहाय णरक्खतदेवगणा, णाणासंटाणसंठियाओय तारगाओ ठियलेरसा चारिणोय, अविस्सा मंडलगति, उवरिचरा, उड्डलोगवासी, दुविहा वेमागिय यदा-सोहम्मीसाण 121 सणंकुमार, महिंद, बंभलोय, लंतग महासुक्क, सहस्सार आणय, पाणय, आरण, और मंगल ये नवग्रह हैं. वे तप्त सुवर्ण जैसे लाठ हैं. केतू आदि ज्योतिषीयों की गति में फीरने वाले हैं, अभिजित आदि अट्ठाइम नक्षत्र के विमान अनेक संस्थानाले हैं, तारादि अनेक ज्योतिपियों के विमान में 5 अढ इ द्वीप के बाहिर लोक में रहे हुए हैं. मनुष्य लोक में गतिवाले ज्योतिषियों के विमान को क्षण मात्र विश्राप नहीं है, उन की गति सदेव मंडलाकार है. तीच्छे लोक के ऊपर के विभाग में सदा नलते रहते हैं. अब ऊर्ध्व लोकवासी वैमानिक देव का कथन करते हैं. उन के दो भेद कहे हैं. 1 कल्पोत्पन्न और 2 अल्पातीत. इन में से कल्पोत्पन्न के बारह भेद कहे हैं. तद्यथा-१ सौधर्म, 2 ईशान, 3 सनत्कुमार, 14 माहेन्द्र, 5 ब्रह्म, 6 लंतक, 7 महाशुक्र, 8 सहस्रार, 9 आणत, 10 प्रणत, 11 आरण, और 12 अच्युत, यह उत्तम विमान हैं. इन में देव रहते हैं. अब जो कल्पातीत सुरमण देवताओं का समुह है उनके दो भेद तद्यथा-१ अवेयकमें रहने वाले और२ अनुतविमान में रहने वाले. यह सब देव महः ऋद्धd, उत्तम देवताओं के परिवार से पारेवरे हुए. चारों प्रकार के देवता सामानिक, आत्मरक्षक परिपदा दशाङ्ग-मश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम-आश्रद्वार पग्ग्रिा नामक पंचम अश्मयन 431 4
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________________ अमोलख ऋषिजी अच्चुया, कप्पवरत्रिमाणवासिणो, सरगणविजा, : अणंतराय दुविहा कप्पाइया वेमाणवासी,महिड्डिया उत्तमासुरवरा, एवंत चउविहादेवा सपरिसावि देवा ममायति // भवण बाहण जाणविमाण सयणासणणिय णाणाविह वत्थभसणाणियं, पवरपहरणाणिय णाणामणि पंचवण्णदिव्वंच भायणविहं, णाणाविहा कामरूव विउव्विया अच्छरगण संघाते दीव समुद्दे दिसाओ विदिसाओ चेयियाणिय वणसंडे, पव्वते गाम wimmindainrayscamwimmiinmaaaaaaawain देवियों आदि के परिवार से सहित, भानपति के भवन, वाणव्यंतर के नगर, ज्योतिषियों के विमान, और वैमानिक के रिमान. औरभी ओक प्रकार के वाहन महित, शैय्या, आसन, आदि अनेक प्रकार के पत्र भूपणादि, प्रवर प्रधान शस्त्र, विविध प्रकार के पांच वर्ण की मणि के दीव्य प्रकाशवाले अनेक प्रकार के मनोवांछित रूप के चक्रेय करने वाली अमरा, और अग्रमहिषी सहित, द्वीप समुद्र, दिशा विदिशा, चैत्य, वनखण्ड, पर्वत, नगर, आराभ, उद्यान, कानन, कूवा,तलाव वावडी, दीर्घ वावडी,देवालय, सभा, पानी का प्रभा,इत्यादि स्थानों में अपनीस्तुति कराने के लिये देवालय बनवाये हैं कि जैसे के यह पूर्ण भद्र का देवालय, यह कापदव का देवालय, शूल पानीका देवालय,इत्यादि स्थानोमें ममत्वभाव धारन कर वहां के वस्त्र धूपादि परिग्रह ग्रहण करते हैं. वे इच्छामे निवृत्ति नहीं पाते हुए विशेष वांच्छा करते हुए अती 17 लोभ से पराभव पाये हुए रहते हैं. और भी देवताओं के ममत्व का स्थान बताते हैं. इक्षुकार पर्वत *काचाक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादी है.
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________________ . . 4.28 नगराणिय, आरामुजाण काणणाणिय, कुव सर तलाग वाविदीहाय देवकुल सभा पवा, वसहिमाइयाई बहुयाई कित्तणाणिय परिग्गिण्हिता परिग्गहं विपुल दव्वसारं, देवावि सईदगानतित्ति नतुढेि उवलंब्भंति अञ्चंत विपुल लोभाभिभूयासन्ना वासहर इक्खुगार वट्टपव्वय कुंडल रुयगबर, माणुसुत्तर, कालोदधि, लवणसलिल, दहपति, रतिकर, अंजणकसेल दहिमुहउवउप्पाय, कंचणकविचित्त, जम्मग वरसिहरी / कुडवासी वक्खार // 3 // अकम्मभूमीसु सुविभत्त भागदेससु, // 4 // कम्मभूमीसु घातकी खण्ड और पुष्कराई द्वीप के मध्य पूर्व पश्चिम विभाग करनेवाला, वाटले पर्वत-शब्दापाति इत्यादि E वर्तुत्राकार पर्वन, कुंडल पर्वत, कुंडल द्वीप में रहे हुवे, रुचक पर्वत, रुचक द्वीप में रहे हुवे, मानुषोत्तर पर्वत मनुष्य क्षेत्र में की मर्यादा करनेवाला, कालोदधि समुद्र धातकी खण्ड के चारों और वर्तुलाकार रहा हुचा,, लवण समुद्र जम्बूद्रप को घेरा हुवा, पन महा पद्म आदि द्रह, राति कर पर्वत-नंदीवर द्वीप में रहे हुए, अंजनक पर्वत-नंदीश्वर द्वीप में रहे हुवे, दविमुत्र पर्वत, उत्पात पर्वत, देवलोक अथवा भवन में से देवता तीछे लोक में आते समय जहां विश्राम लने हैं सो, कंचनागरी पर्वत, देवकुरु उत्तर कुरु क्षेत्र में द्रह के .. पास हैं, चित्रकूट पर्वत-निषध पर्वत के पास हैं, यमक पर्वत-सीता नदी के पास और पर्वत के कूट वृक्ष- स्कार पर्वत इत्यादि स्थानों में देवता रहते हैं. वे उन स्थानों को अपने मानते हुए भी परिग्रह से तृप्त, नहीं होते हैं // 3 // ऐसे ही अकर्म भूमि के मनुष्य कल्प वृक्षादि में ममत्व शील रहते हैं // 4... कर्म / - maniinwtiwimmmmmmmmmmmmmmmmmmm शमाङ-प्रश्नव्याकरण सूत्र-प्रथम आश्रवद्वार परिग्रह नामक पंचम अध्ययन 44
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________________ - जेविपन / चाउरंत चवट्टी, वासुदेवा, बलदेवा, भंडलिग, इरसरा, तलवा, सेगावइ, इब्भाट्ठी, रिट्ठीया, पुरोहिया, कुमारा, दंडणायगा, माडविया, सत्यवाहा, कोडविया, अमच्चा, एएअण्णेय एवमदी परिगहं संचिणंति, अणंत, असरण, दुरंतं, अधुवं, अणिचं, असासयं, पावकम्मनेमं, अविकिरियव्वं, विणासमूलं, वहबंध, परिकिलेस बहुलं, मणंत सकिलेस करणं, ते तं धण कणगरयणं निचयं, पडिता, 124 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अषिजा भूमि में चारों दिशा के अंत करनेवाले चक्रवर्ती भरत क्षेत्र का स्वामी वासुदेव, बलदेव, अर्थ भरत क्षेत्र के स्वाी, मंडलिक राजा-एकादि देश का स्वामी, ईश्वर-युवराज, तस्वर-कोतवाल, नापाते. इन्भ, श्रेष्ठि-द्रव्य के पुंज कर इस्ति कोढके इत ने द्रव्य वाले, रिष्टि-राष्ट्र की चिंता करने वाले. पुरोहित, कुप र, दंड नामक-न्यायाधिश, माविक-सिमाडिये, मार्थवाही-साथ चलनेवाले, काटुम्बिक-कुटुम्ब के अधिकारी. अमात्य-प्रधान बगैरह परिग्रह का संचय करते हैं, वह उन को तारनेवाला नहीं होता है. परंतु दुःखदायी होता है. क्यों कि वह अधृत, अनिश्चल, और अशाश्वत है. पाप कर्म का मूल कारन है. जिन के वृदय रूप नेत्र जान रूप अंजन से खल गय वे ही जीव इस का त्याग करते हैं. यह परिग्रह विनाश का मूल है. वध, बंधन और क्लेश का स्थानक है, परस्पर से चला आवे वैमा क्लेश कराने वाला है. *यह धन सुवर्ग और रत्न का समुह बड़े 2 पण्डितों के मन को भी मलिन बनाता है. यह संसार में * प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ दशमान प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रथम-आश्रवद्वार चेव लोभघत्था संसारं अतिवयंति सव्व दुक्खसं निलयणं, // 5 // परिग्गहेसेवय / / अट्ठाए सिप्पसयंसिक्खाए सिक्खए बहुजणो कलाओय बावतरेसु निपुणाओ, लेहातियाओ, सउणरूया वसाणाओ, गगियप्पहाणोओ, चउसट्ठींच महिलागुणे रतिर जणणे, सिप्पसेवं, असिमसिकसिवाणिजं ववहार अत्थसत्थं, इसत्थं छरुप्पवयं विविहाओय जोग जुंजणाओय अण्णेसुए एवमादिएसु बहु कारण सएसु जावजीव परिताप उत्पन्न करनेवाला है, सब प्रकार के शारीरिक मानसिक अथवा जन्म मरा मृत्यु रूप दुःख का आलय है // 5 // इस परिग्रह के लिये बहुत लोगों शिल्पका अभ्यास करते हैं, बहुत लोगों बहत्तर कलामें में निपुण होते हैं, अठारह प्रकार की लिपी लिखते हैं, पक्षी आदि शब्द शकन वगैरह प्रकाशते हैं, गणित कला में प्रधान होते हैं, स्त्रियों की 64 कला का अभ्यास करते हैं, क्यों कि वे यह कला भी पुरुषों को में सुख उत्पन्न का द्रव्यादि प्राति काम आती है. अनेक प्रकार के शिल्प, गजा आदि की सेवा, शास्त्रादि / के बंधर: लेखनादि के कई, काषे आदि कर्म, वाणिज्य, अर्थ शस्त्र के अभ्याम से, धन के ये शस्त्र सुनाने से, धनुर्वियादि का प्रकाश कर इत्यादि विविध प्रकार के उपाय से, वशीकःणादि प्रयोग से 1 अन्य अनेक कारनों से, जीवन पर्यंत अनेक प्रकार के कर होते हुए दद्धि कामे द्रा का संय? | 41 पोररहनामक पंचम अध्ययन 4124
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________________ नडिजए संचिति मंदबुद्धी।६। परिगाहस्सैक्यअट्ठाए करेंति पाणवह करण अलिय नियंडि सातिसंपओग, परदव्व अभिज्झास परदारगमण सेवणाए, आयासबिसूरणं, कलह, भंडण, वेराणिय, अवमाण, विमाणगाओ, इच्छ महिच्छ पिवासा सत्तत तसिया, तण्ह- . गेहि लोघत्था, अत्ताणा अणिग्गहिया करंति // 7 // कोह माण माया लोभे अकित्तणिजे, परिग्गह चेव होति णियमा, सल्ला दंडाय गारवाय, कसायांय सण्णाय, बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख जापनी करते हैं, ये परिग्रह में लुब्ध बने रहते हैं. // 6 // अब वे जीव परिग्रह संचय के लिये क्या क्या करते हैं सो कहते हैं. धन के लिये पृथिव्यादि छ काया का बंध करने हैं. असत्य बोलते हैं, अच्छी कस्तु में बुरी वस्तु मीलाकर देते हैं, परस्त्री गमन करते हैं. उस को अपने वश में करके उस के स्वामी बनते हैं. शरीर का नाश करते हैं. क्षुधा तृपाद खेद से खेदित होते हैं, नीच जैसे वचन बोलते हैं, क्लेश करते हैं. अन्य का अपमान करते हैं, चिंता ग्रस्त रहते हैं. अथवा बहुत जनों का मन दुःखाते हैं, तृष्णा वाले पुरुषों को इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर संतोष नहीं होता है, चक्कवर्ती की ऋद्धि भी मील जारे तथापि संतोष नहीं होता है, अत्यंत दुःखि होने पर तृष्णाबाले आत्मा का निग्रह नहीं करते हैं // 7 // यह परिग्रह क्रोध मान माया और लोभ की वृद्धि करने वाला है. साधु पुरुषों को निन्दनीय है, **-मकामाक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामादजी *
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________________ - 127 कामगुण, अण्हकाय इंदिय लेसाओ सयणसंपयोगा, सचिताचित्तमीसगाई दव्वाई अणंतकाई इच्छंति परिघेतु, सदेव मणुया सुरंम्मिलोए लोभ परिग्गहो, जिणवरेहि भणिओ, नत्थि एरिसोपासो पडिबंधो, अत्थि सव्वज्जीवाणं सव्वलोए, परलोयमियनद्रा तमपविट्ठा, महया मोहे मोहियमती, तिमिसंधकारे // तस थावर सुहुम बायरेसु पारग्रहवंत को माया शल्य, दान शल्य, मिथ्या दर्शन शल्य, ऋद्धि का गर्व, रस का गर्व, और साता का गर्व, क्रोधादि चार कपाय, आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, और परिग्रह संज्ञा, शब्द रूप, गंध रम और पर्श ये पांच कामगुन, प्राणाति पानादि पांच आश्रव, पांचो इन्द्रिय का अग्रिह, कृष्ण दि अप्रशस्त लेश्या, स्वान पुत्र कलत्रादिक का संप्रयोग, और सचित्त अचित पिश्र ये तीनों प्रकार के 2 द्रव्य का योग अवश्यमेव होता है. इन की इच्छा करते रहते हैं. 'श्री जिनेश्वर-भगवानने कहा है। कि देवता, मनुष्य, तिच, स्वर्ग लोक और असुर लोक में लोभ समान दूपरी कोइ पाश नहीं है. ऐमा अन्य प्रतिबंध नहीं है. यह परिग्रह-इस लोक व परलोक में सब जीवों को नष्ट भ्रष्ट बनाने वाला है. 'सद्गति का नाश करने वाला है. अन्नान रूप अंधकार में प्रवेश कराने वाला है. सित्तर क्रोडाकोड सागरोपम की 12 स्थिति वाला मोहनीय कर्म उत्पन्न कराने वाला है. तिमिसुगुफा के समान हृदय गुफा को अंधकार अच्छा प्रदित करने वाला है. इस स्थावर, सूक्ष्म बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त वगैरह जीवों को संसार 4Hदशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण सत्र-प्रयम-आश्रवद्वार 4H-NR परिग्रह नामक पंचम अध्ययन 186++
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________________ पजत्त भपज्जतग एवं जाव परियति, दीहमदं जीवा लोभवमं संन्निविट्ठा // 8 // एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो, इह लोइओ परलोइओय, अप्पसुहो बहु दुक्खो महन्भओ बहु रयप्पगाढो, दारुणो, ककासो, असाओ, वास सहस्सेहिं मुच्चतिनय अवदइत्ता, अत्थिहुमोक्खोति // एवमहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणोआवीर वरणावधेजो, कहेमीय, परिग्गहस्स फल विवागं // 9 // एसो सो परिग्गहो पंचमी नियमा णाणामणिकणगरयण महरिह, एवं जाव ३मस्स मोक्खवर मुत्तिमगारस फलीहभूतो चरिमंअहमदार सम्मत्तं, तिमि॥इति पंचम अहम्म दार सम्मत्तं // // * रूप दीर्घ अधि में परिधान कराने वाला है // 8 // इस तरह के परिग्रह से सांचेन किय हुए कों का फल विधाक इस ले क और परलोक में अल्पसुख और बहुत दःख देनेवाल होता है. पहा भय का कारन है, कर्म रूप रज मे प्रकृष्ट सघन भरा हुवा है, दारुण, रौद्र, कर्कश और असाता का कारन है. हजारों वर्ष में भी विना भोगवे नहीं छूट सके वैसा है, ऐसा फल विपाक ज्ञात कुल नंदन श्री महावीर स्वामी ने कहा है // 9 // यह परिग्रह निश्चय म पांचवा आश्रन द्वार है. अनेक प्रकारसी मणि सुवर्ण रत्न यह मून्य वस्तु ममत्वाला है यावत् प्रधान मोक्ष मार्ग का रूंधन करनेवाला है. यह चरिम आश्रव द्वार पूर्ण वा. यह आश्रय द्वार जैसा मैंने महावीर स्वामी से सुना है वैसे ही तेरे से कहता हूं. यों पांचवा परिग्रह नामक आश्रव द्वार सं aanwromanmarvadnnn अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिकी * प्रकाशक-गनावहादुर लाला सुखदेवसहायजा ज्वल,प्रसादजी * - . mar // 6 //
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________________ 4.1 my 121 12tki hek-tre // उपसंहार // गाथः-एएहि पंचहिं असवरेहि, रयमादिणीतु अणुसमयं // चउविहंगइ पेरतं, अणु परियति संसारे॥१॥सनगइ पक्खंदे, काहित्ति अणंतए अकय पुण्णाजेय नसुणंतिधम्म, सोऊणयजो पमायंति॥२॥अणुसिटुिंपि बहुविहं, मिच्छट्ठिीया जेनरा अहम्मा [पा० अबु हीया // बनिकाइय कम्मा, सुगंति धम्म नय करोतिति // 3 // किंसक्काकाउंजे, है इन पांचों आश्रय द्वार के उपसंहार रूप पांच गाथा कहते हैं-यह पूर्वोक्त पांच आश्रा द्वार रूप रज से नर्मल, आत्ता मलिन होता है. प्रति समय बहुन कर्मों की उपार्जना होती है. और इस से चारों गति में अनुक्रम से जीव परिभ्रमण करता है // 1 // जो जीव इस प्रकार का धर्म श्रवण नहीं करते हैं। अथवा मुनकर प्रमाद का आचरन करते हैं वे सब गति में ग्युचानेवाले पांचों आश्रव का रुंधन नहीं करने की से अनंत मंमार में रुलते हैं // 2 // विविध प्रकार से समजाई. हुई गुरु की हितकारी शिक्षा भी मिथ्य दृष्टि *अधर्मी निकाचित काँका बंध करनेवाले को अनसुनी होती है अर्थात् वे सुनकर भी आश्रावक त्याग नहीं करते 17 हैं // 3 // जो व्याधिग्रहस्त पुरुष औषधि लेघे नहीं तो वैद्य उसकी व्याधि कैसे दूर कर सके, वैसे ही 48game उपसंहार h ekk- - -
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________________ | जनेच्छह ओसहंमुहापाओ // जिणवयणं गुण महुरं. विरेयणं सव्वदुक्खाणं // 4 // * पंचे वय उभिऊणं, पंचवय रक्खिऊण भावणं ॥कम्मरय विप्पमुक्कं. सिद्धिवर मणुत्तरं . है ... जति // 5 // तिबमि // इति आसवदारं सम्मत्तं // 1 // * .. जिन वचनरूप औषध सब दुःख को नाशकाने वाला है. परंतु उन को ग्रहण किये बिना दुःख से किसी प्रकार मुक्त कर सके अर्थात् कदापे नहीं कर सके. // 4 // इस प्रकार सेही पांच आश्रव का त्याग कर आगे कहेंगे जैसे पांच संवर जो आचग्ने वाले जीव कर्म रज से मुक्त होकर अनुत्तर प्रधान सुख वाली सिद्ध गति में प्राप्त होते हैं // इति प्रथम अश्रव द्वार संपूर्णम् // * * *: AAAA Adob .66666.0.00000 . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . / अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलख ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * rem minals." 81516255575251528 इति दशमाङ प्रइनव्याकरण सूत्रस्य ....... // प्रथम आश्रवद्वार समाप्तम् // . doTORISTRITI8 awwa
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________________ - 8.... ..... ... ... 000000 0 0 0 00000000................................... / 4.2 SECREESEEEEEEEEEEEEEEERRIERRECERRELESEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE610 द्वितीय संवरद्वार Preditionsanboilaat // दशमाङ-प्रश्नव्याकरण-सूत्रम् // // द्वितीय-संवरहार // जंबू! एतोसंवरदाराइं,पंचवोच्छामि आणुपुवीए / जहा भणियाणि भगवया, संसबदुह विमोक्खणष्ट्ठाए // 1 // पढमा होति अहिंसा, वितियं सच्चयणति, पण्णत्तं दत्तमणुणाय, संवरो बंभचेरम परिग्गहंतंच // 2 // तत्थ पढमं अहिंसा, तस थावर mmmmmmmmmmmmmmmmmm दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण आहंसा नामक प्रथम अध्ययन श्री श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामी के पांचवे गणधर श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं कि अहो जम्बू! प्रथम आश्रर द्वार का कथन कह सुनाया अब दूसरा संवर द्वार का कथा तुझे कहता हूं. यह संवर द्वार पांच प्रकार का है और वैसा ही श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामान सर्व जन्म जरा मुत्यु रूप दःख तथा शारीरिक व मानसिक दुःख का क्षय के लिये कहा है // 1 // पांच संवर द्वारके नाम-१ अहिंसा,२सत्य वचन, 3 दत्तव्रत्त-दियाहुवा ग्रहण करना, 4 ब्रह्मचर्यका पालना." और 5 अपरिग्रह-परिग्रह का त्याग. यह पांच प्रकार का संवर कहा है // 2 // इन पांच में से प्रथम : 1
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________________ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सव्वभूयखेमकरी // तोसेस भावणाओ, किंचि वोच्छे गुणुलेसं // 3 // ताणि उइमाणि सुव्वय महव्वयाइं // लोकहीयव्वयाई, सुयसागर देसियाई, तवसंतमवयाई, सीलगुणवरवयाई, सञ्चजवव्वयाई, नरगतिरिय मणुयदेवगइ विवजयगाई, सव्व जिण संसणगाइ. कम्मरयविदारगाई, भवसय विणासगाई, दुइसय विमोयणकाई, सुहसय पव्वतणगाई, कापुरिस दुरुतराई, सुपुरिस निसेवियाई, निवाण गमण मग सग्गप्पणाय असा का स्वरूप कहते हैं. बस-द्वन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुर्गेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय; स्थावर पृथ्वी, पानी, अ अग्नि, वायु और वनस्पति, इन सब प्रकार के जीवों का क्षेम कुशल चाहनेवाला है. अहिंसा व्रत की पांच , भावन इत्यादिका किंचिन्मात्र वर्णन करूंगा. अहिंसा के अनंतगुन हैं. इनका वचन द्वारा सम्पूर्ण वर्णन नहीं मकें परन्तु हिंशा के गण का किंचित वर्णन करूंगा // 3 // मधर्मा स्वामी कहते हैं कि ये पांन संवर द्वार महा वा लोक के हित के कर्ता सिद्धांत सागर में प्ररूपे हुए, तप व संयम के व्रतवाले, शी गुण के धारक, सत्य और ऋतुता के व्रतवाले नरक, तिच, मनुष्य और देव गति के परिभ्रमण का त्याग करानेगले, भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल के सब जिन भगवान के शासन में प्रवर्ते हुए, कर्म रज विदारनेवाले, सेंकडों भव का विनाश करनेवाले, जन्म जरा मरण रूप दुःख से मुक्त करानेवाले, अनंत अक्षय अव्यय मुख के भोक्ता, कायर पुरुषों को दुरुत्तर, सुष्टु पुरुषों को सेवन योग्य, और निर्वाण *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवनहायजी मालाप्रसादजी*
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________________ सत्र 49 + दशमांङ्ग प्रश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय-वरद्वार 4.11 काई, संवरदाराई पंचकहियाणीओ भगवया // 1 // तत्थ पढम अहिंसा जासा स देवमणुया सुस्सलोगस्स भवइ, दीवोताणं सरणगइपइट्ठा // 2 // 1 निव्वाणं, 2 निव्वुइ, 3 समाही, 4 संति, 5 कित्ती, 6 कंति, 7 रतिय, 8 विरतीय, 9 सुयंग, 10 तित्ती, 11 दया, 12 विमुत्ती, 13 खंति, 14 सम्मताराहणा, 15 महति, 16 बोही, 17 बुद्दी, 18 धिती, 19 समिद्धी 20 रिद्धी, 21 विधी अर्थत् मोक्ष मार्ग अथवा स्वर्ग को प्राप्त करानेवाले हैं. इन पांच में से प्रथम सा द्वार कहते हैं. यह अर्हिसा देवता मनुष्य, असुरादि सब लोक में दीपक समान प्रकाश करनेवाली है. जैमे समुद्र में द्वीप आधार भूत है वैसे ही संसार समुद्र में दया आधार भूत है // 2 // इम भगवती अहिंमा के ६.नाम कहे हैं। तधथा-१ निर्वाण-मोक्ष का स्थान, 2 निवृत्ति-चित्त शांत करनेवाली, 3 समाधि-सपता का स्थान, 4 शांति द्रोह का निवारन कर शांति करनेवाली, 5 कीर्ति-विरूपात कीर्तिवंत, 6 काति-शारीरिक व ज्ञ.नादिक की क्रांति करनेवाली, 7 रति-प्रियकारी, 8 विरति-व्रतरूप, 9 सूत्र-द्वादशांगी सूत्र का अंग रूप 10 तृप्ति-संतोष का स्थान 11 दया. 12 विभुक्ति सब बंधन से मुक्त करनेाली, 13 शांति-क्षमा का *स्थान, 14 सम्मत्त आराधना वोवीज की आराधना करनेव ली १६अहर्ति पूज्य?योधी-सर्वसधर्म के वध की दाता 17 बुद्धि अहिंसा भय बुद्धि सुबुद्धि होती हैं, 18 धृति-धैर्यतः का स्थान, 19 समृद्धि 20 ऋद्धि अखा नामक प्रथम अध्ययन
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________________ 22 ठिइ, 23 पुट्ठी, 24 नंदी, 25 भद्दा, 26 विसुद्धी, 27 लडी, 28 विसिट्ठदिट्ठी, 29 कलाणं 30 मंगलं, 31 पमोउ, 32 विभूइ, 33 रक्खा, 34 सिहावासो, 35 अणासवो, 36 केवलीण्णंट्ठाणं, 37 सिव, 38 समिइ, 39 सीलसंजमोतिय, 4. सीलघरो, 41 संवरोय, 42 गुत्ती, 43 ववसाओ, 44 उस्सतोय, 45 जण्णो, 46 आयतणं, 47 जयणा, 18 मप्पमाओ, 19 असासो, 5. वीसासो, 51 अभओ सव्वस्सवि, 52 अमाघाओ, 42 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - * पकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापमादजी * 21 वृद्धि 22 स्थिति आत्मा को स्थिर करने वाली अथवा सादि अनंत मोक्ष स्थान में प्राप्त करने वाली 23 पुष्टि-धर्म से पुष्ट 24 नंदी-आनंद कर्ता, 35 भद्रा कल्याण कर्ता, 26. विशुद्धि-विशुद्ध कर्ता, 27 लब्धि-लब्धि प्राप्ति का स्थान 28 विशुद्ध दृष्टि 29 कल्याण-कल्याण कर्ता 30 मंगलं-मंगल कर्ता 31 प्रमोद कर्ता 32 विभूति कर्ता 33 रक्षा कर्ता 14 सिद्ध वासी-मुक्ति में निवास कर्ता, 35 अनाश्रवी आश्रव का निरोधक,३६ केवली का स्थानक, 37 उपशिव-उपदवहर्ता 38 सपित्ती-सम्यक् कर्ता 39 शील संयपका स्थान 40 शील घर-आचारका घर 42 गुप्ति 43 व्यवसाय, 44 उत्सुकता, 45 यमभाव कर्म अशुचि हा 46 आयतन-गुण का घर 47 जवन-अध्ययन 48 अप्रमाद 49 आश्वासन 50
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________________ - दवापाड प्रश्नगकरण सुष-द्वितीय-संवरद्वार 10 53 चोक्खा,५४ पवित्ती,५५ सुती,५६ पृया 57 विमल 58 पभासाय,५९निम्मल, 60 त्तरति // एवमाइणि नियगुणेनिम्मियाई पजव नामाणिहुंती, अहिंसाए भगवइए // 3 // एसा भगवइ अहिंसा-जासा 1 भीयाणं पिवसरणं, 2 पक्खीणं पीवगयणं, 3 तिसियाणं पिवसलिलं, 4 खुहियाणं पिवअसणं, 5 समुहमाझेव पोतवाहणं, 6 घउपयाणंच आसमपयं, 7 दुइट्रियाणंच ओसहिबलं, 8 अडवीमञ्झेव सस्थगमणं, एतोविसिट्ठ तरिका अहिंसा // 4 // जासा पुढविं जल अगणि मारुय वणप्फइ, बीय, विश्वास, 51 अभय दाता, 52 अमर 53 निर्मली, 54 पवित्रता 55 श्रुति, 56 पूना भाव पूजा + 50 मिला.५८ प्रभाविका, 59 निर्मला और६० तरती-संसार समुद्र तारने वाली इत्यादि गुण निष्पन्न 60 नाम अहिंसा के कहे हैं॥३॥ जैसे 1 भयभीत प्राणीको शरणका आधार है,२ पक्षि को आकाश का आधार है, *१३पिवासे को पानी का आधार है,४ क्षुधातुरको भोजन का आधार है, 5 समुद्र में जहाज का आधार है, १६चतुष्पाद को स्वस्थान का आधार है, ७दुःस्वी-व्याधि ग्रस्त को औषधि का आधार है. और८ अटवी में. पारम्रमण करने वाले को सार्थवाह का आधार है. वैसे ही सब भव्य जीवों को अहिंसा का आधार है॥ 4 // जो पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, बीज, हरिकाय, जलचर, स्थलचर, खेचर, इत्यादि + जैसे उपर भाव यज्ञ लिया है वैसे ही यहां भात्र पूजा जानना. द्रव्य यज्ञ और द्रव्य पूजा निरर्थक हैं. अहिंसा नायक प्रथम अध्ययन +
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________________ अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी हरिय, जलचर, थलचर खहचर, तसथावर सव्वभूखेमकारी // एसा भगवइअहिंसा जासा अपरिमिय नाण देसणधरेहि, सीलगुण विणय तवसंजम नायगेहिं, तित्थंगरहि सव्वजगवच्छलेहिं. तिलोगमहिएहि, जिणचंदेहि, सुदिट्ठा, ओहिजिणेहिं विण्णाया, उज पइहिंविाटा, विउलमइहिबिदिता, पुव्वधरहिं अहिया,बे उविहिंपइणा,आभिणीबोहिय नाणीहिं, सुयगार्ण हैं, ओही गाणेहिं मणपज्जवणाणेहि, केवलणाणीहिं, आमोसहिबस स्थावर जीवों को क्षेम करने वाली है. अनंत ज्ञान दर्शन के ध रक, शील-आचार गुण विनयादब तप और संयम के यक सब जगत् में वात्सल्यता करने वाली, तीस लोक में पूज्यनीय, केवली में चन्द्र सपान ऐसे श्री तथैकर भगवानने केवल ज्ञान से दया के श्रेष्ट फल देखे हैं, दया को भुक्ति देने वाली दखी हैं. अवधि ज्ञानीने भी दया के फल विशिष्ट देखे हैं. ऋजु तिमनः पर्यत्र ज्ञ नाने दया के फल श्रेष्ट देखे हैं. वैसेही विपुल मति मनःपर्यव ज्ञानी, पूके ज्ञान धाक वैक्रेय लायके धारक, आभिनि वोधिक ज्ञानी, श्रुत ज्ञानी, आंधिज्ञानी, और केवलज्ञान ने दयाके फल श्रेष्टदेखे हैं. जिनके हस्तादि के स्पर्श मात्रमें औषधिकभूत परिण में ऐसे आमोही लब्ध वाले, जिनके मुखका श्लेष्म औषधिभूत होने वैसे जलोसही लब्धि वाले, जिनक शरीरका पसीना औषधिरूप परिणसे ऐसे विस्पोसही लब्धिवाले जिनकी वाडित औषधिरूप परीणमे ऐने लब्धिवाले, जिन को किंचिन्मान दिया हुवा ज्ञान बीज जैसे विस्तृत हो जावे वैसे पीज बुद्धिवाले * प्रकाशक-राजाबहादुरलाला मुखदवसहायजीवाल.सादजा *
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________________ 43 पूत्र-द्वितीय मंवर 18+ दशमाङ्ग-पनव्याकरण पत्तेहिं खेलोमहिपतेहिं, जल्लोसहिपत्ते हैं, विप्पोमहिपत्तेहिं, सव्वे सहिपत्ते हैं, बीज. / / बुडीएहि, कोटबुद्धीहिं. पयाणुमारीहिं, मंभिन्न मोएडिं, सुयधरेडिं. मणबलिए हैं वयबलिहिकायबालिए हैं. नाणबलिएहिं, दंसणबलिएहिं, चरितबलिएहिं. खीर।सवे हैं, 137 महुआसवेहि, सप्पिया वेहि, अखीण महागासिएहिं, चारणेहि, विजा हरहि, चउत्थभ त्तिएहि, छट्ठभ पिएहिं, अट्ठम भत्तिरहि, एवं दुवालस जिनका दिया इवा ज्ञान कोठेमें रखी हुई बस्तुकी तरह विनाश नहीं पात वैसी ही बना रहे ऐसे कोष्ट बुद्धिवाले, एक पद के अनुमार से मव पद मम्झ जाये वैसे पदानुपाग्निी लब्धिवाले, जो पांवों इन्द्रियों का कार्य एक में इन्द्रिय स कर सके ऐसे सभिन्नश्रोत लब्धिवाले, मन का निश्चलकर मके. ऐने मन बलिये, जैसा कहे वैमा कर सके सो ववन बालये, परिपह उपसर्ग में चलित न हो वैसे ऐसे काया वलिये, किमी से पराभव न पा सके वन ज्ञान व लये, निश्चल दर्शन सम्मक्त्ववाले सो दर्शन बालये, निरतिचार चारित्र पाल वाल सा चरित्र बलिये, जिनक वचन और जैसे परिणमे सो सर श्री, जिनका वचन मधु शहत जैसा परिणने मो पधुर श्रवी लब्बिाले, जिन का वन घृत जरा परिगपे सो मश्री लब्धियाले. जिन के स्पर्शमात्र से 4 भान में रही वस्तु अखुट रहनसे अभीण मानस ल डेयराले. जया के स्पर्श मात्र से गगन में गति करे सो जघा च र ग लब्धियाले. विद्या के प्रभाव से गगन में गते करे ऐसे विद्याधर, चतुर्थ भक्त एक उपवास कर वाले. दो उपनास, तीन पश, यात् माप क्षपण करनेवाले, दो मःम क्षपन यावत् छ मास क्षमन अहसा नामक प्रथर अध्ययन 46:08
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________________ दुवादक-गनमचारी मुनी श्री अमोलक अषिजी - चउदस, सोलस, अदमास मास, दोमास तीमांस, चउमास, पंचमास एवं जाव छम्मासभत्तिपहिं, उक्खीत चरएहि, निक्खित चरएहिं, अंतचरएहिं, पंतचरएहिं, लूहचरएहिं, तुच्छचरएहिं समुदाणचरएहिं, अण्णगिलाएइहिं मोणचरएहिं, संसटुकप्पिएहि, तज्जायसंसट्रकप्पिएहि, उबणिएहि, सुद्धेसणिएहि, संखादतिएहि, . दिट्टलाभिएहि, अदिट्रलामएहिं, पुटुलाभिएहिं, आयंविलिएहि, पुरिमड्डिए हिं, एक्कासणिएहिं, निव्वइएहि, भिन्नपिंडवाइएहिं, परिमियपिंडवाइएहिं,. तपश्चर्या करनेवाले. हंडी में से नीकालते हुवे देवो तो ग्रहण करूंगा ऐसा अभिग्रह धारन करनेवाले, हंडीमें , डालते देवे तो बुंगावैमा अभिग्रह ग्रहण करनेवाले, अंत-उडदादिका आहार ग्रहण करनेवाले, प्रांत-निमार आ-: हार ग्रहण करनेवाले, रूक्ष आहार ग्रहण करनेवाले, तुच्छ आहार ग्रहण करनेवाले, बहुत घरों में से थोडा 2 ग्रहण करनेवाले, अज्ञात कुल के घरों में से आहार ग्रहण करनेवाले, विना बोले आहार ग्रहण करनेवाले,, भरे हाथों से आहार ग्रहण करनेवाले, जिस द्रव्य से हाथ भरे होवे वही द्रव्य लेनेवाले, स्वस्थान के पास के घों में से आहार लेनेवाले, शुद्ध निर्दोष एषणिक आहार ग्रहण करनेवाले, कुडछी अथवा रोटी की संख्या के प्रमाण से आहार ग्रहण करनेवाले, देखाई देती वस्तु ग्रहण करनेवाले, विना देखी वस्तु र ग्रहण करनेवाले, सदैव पुरिमंडल-दो प्रहर दिन आये बाद आहार करनेवाले, सदैव एक वक्त आहार | *प्रकाशक-राजाबहादुर काळा मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ - . - + दशपाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार अंताहारेहिं, पंताहारेहि, अरसाहारेहि, विरसाहारेहिं, लूहाहारेहि, तुच्छाहारेहिं, अंतजीविहि, पंतजीविहि, लूह जीविहि, तुच्छ जीविहिं, उवसंतजीविहिं, पसंतजीवीहिं, विवितजीविहि, अक्खीरमहुसप्पिएहि, अमज्जमंसासिएहि, ट्ठाणाइएहिं, पडिमट्ठाइएहि, ठाणुक्कडूएहिं, वीरासणिएहिं, पोसाजिएहि, दंडायइएाहें, लगडसाइएहिं, एगपासाएहिं, आयावएहिं, करनेवाले, सदैव विगय रहित आहार करनेवाले, जो आहार अलग नीकाल कर रखा हो उस में से E} आहार करनवाले, सरस आहार ग्रहण करनेवाले, अंत आहार भोगनेवाले, प्रांत आहार भोगनेवाले, रस गल्ति आहार भागवाले, विनष्ट रस का आहार भोगवनेवाले, रूक्ष आहार करनेवाले, तुच्छ आहार करने वाल, अंत आहार से जीवितव्य चलानेवाले, प्रांत आहार से जीवितव्य चलानेवाले, रूक्ष आहार से जवितव्य चलानेवाले, तुच्छ आहार से जीवितव्य चलानेवाले, उपशांत कषायपने जीवितव्य चलानेवाले, विवक्त-सर्व प्रकार की आशा रहित जीवितव्य चलानेवाले, क्षीर मधु और घृत ये तीनों रूप वचन परिणमानेवाले, मद्य मांस का आचग्न कदापि नहीं करनेवाले, एक स्थान स्थिर बैठनेवाले, साधु की बारह प्रतिमा के धारक, उत्कट आसन से बैठनेवाले, विरासन से बैठनेवाले, दंडासन से बैठनेवाले, लगडामन से बैठनेवाले, धूप में ताप की आतापना लेनेवाले, शीत में वस्त्र रहित शरीर से रहनेवाले, मुख के यूंकादिर अहिंसा नामक प्रथम अध्ययन 4
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________________ अवाउडेहि, अणिटुभएहिं; अकंडयरहिं, धूतकेसमंसुलोमनक्खेहिं, सव्वंगाय पडिक्कमविप्पमुक्केहिं, समगुंचिण्णा, सुत्तधरबिदियत्थकायबुद्धीहि, धीरमई बद्धिणोयजेते, आर्स विनउगतेयकप्पा नित्थय ववसाय पज्जतकयमतीया, निचंसज्झायझाण अणुबद्ध धम्मज्झाणो पंचमहव्वय जरित्तजुत्ता, समियासमिई सुसमिईसु समियपावा, छव्विहजगवच्छला, निच्चमप्पमंता, एएहिय अन्नेहियाजासा, अणुपालिया भगवइ // 5 // 940 3. अनुनादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपनी 80 नहीं थूकनेवाले, खुमली नहीं कूचरनेवाले, मस्तक के के, रोम, दाढो, मूछ और कक्षादिक के केश को नहीं संभलनेवाले, सब शरीर का प्रतिकार औषधि आदि का त्याग करनेवाले, सब परिषह सम भाव से सहने कानेवाले, सब मूत्र अर्थ का संक्षेप ब विस्तार कर सके वैसी बुद्धिवाले, स्थिर निश्चल मतिबाले, उत्पातादि चार बाद्धवाले, साष्ट विष सर्प सान तीव्र प्रभाववाले, निश्चय, और व्यवहार के जाननेवाले, मदैव स्वाध्याय ध्यान में लग हुए, पांच महा व्रत रूप चारित्र, ईर्ण समिती आदि पांच समिति से सम तघाले. पांचो समिति में पाप का उपशांत करनवाले, छ काय के जीवों को वत्सल,सदैव मद विषय कषाय " निद्रा और विकथा इन पांचों प्रमाद रहित. इत्याद गुणोंवाले और भी ऐसे गुनवालोंने इस दया भगवती * का अनुक्रम से पालन किया हैं,इस की प्रशंसा की है // 5 // अव पृथ्वी पानी,अग्नि, वायु,वनस्पति, बस, स्थावर वगैरह *पका.क-राजाबहादुर लाका सुदरसहायनी वाला प्रसादजी*
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________________ 42 पश्नव्याकरण सूध द्वितीय संवर ? इमंच पुढविदग अगणि मारुअं तरुगणं तस्थावर सव्वभूय संजय दयट्टयाए सुद्धंउच्छंगवेसियव्वं, अकयंकारियमण हुय, मणुदिटुं अकयकडं नवहिकांटीहिं सुपरिसुद्ध, दसहियदोसहिंय विप्पमुक्क, उग्गमुप्पायणेसणासुद्ध, ववगयचय चइय चतदेहंच, सब जीवों की संयमरूप दया के लिये शुद्ध आहार की गवैषणाकी जाती है. वह आहार किस प्रकारका लेते हैं सो कहते हैं साधु के लिये किया होवे नहीं, अन्यके पास कराया होवे नहीं,माधु के लिये पुण्यार्थदिया जाता होवे . नहीं,मनसे भी साधुको उद्देशकर बनाया होवे, नहीं, नवकाटी विशुद्ध. दश दोष गहत-उद्गपनके सोलह दोष (ग्रहस्थसे लगे) और उत्पात के सोलह दोष(साधुसे लगे)जिनको वर्ज कर+ ऐसा निर्दोष आहार ग्रहण करे. 1 शंका कारी, 2 सचित्त से भरा हुवा 3 सचित्त पर रखा 4 सचित्त नीचे रखा 5 सचित्त अंदर रखा 6 अयोग्य दातार अर्थात् गर्भवती स्त्री आदि के हाथ से, 7 सचित्त से मीला हुवा, 8 पूर्ण शस्त्र नहीं परिणमा 9 तूर्तका लीला हवा और 10 नीचे डोलता हुवा लाकरदेवे. यह 10 दोष गृहस्थ व साधु दोनों मिलकर लगावे. .41 साधु के लिये बनाया,२ एक साधु को उद्देशकर किया, 3 साधु के लिये बनाया हुवा आहार में से एक सीत अपने लिये बना हुवा आहार में मील जावे वह आहार, 4 साधु व गृहस्थ दोनों के लिये साथ पकाया हुवा, 5 साध के लिये स्थापकर रखा,६ प्राहणे आगे पीछे करके दे 7 प्रकाशकर देवे 8 मोल लाकर देवे 9 उधार लेकर देवे 10 अंदल बद्दल करके देवे,११ सन्मुख लाकर देवे,१२ छाबा खोलंकर देवे,१३ माले पर से लाकर देव, 14 निर्बल से कीनकर देवे अहिंसा नामक प्रथम अध्ययन Hg
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________________ फासुयंच नानसिजं, कदापयोयण फासु उवणीयं, नतिगिच्छा मंत मूलभेसज्जकजहेउ, , नलक्खुणुप्पाय सुभिणजोइयस निमित्त कहकुहकप्प ओचंडनिविडं भाणाएय नविरक्खाणाए, नविसासणाए, निविडंभणरक्खणसासणाए भिक्खंगवसियव्वं, TE गृहस्थने अपने लिये बनाया होवे, जिस में से सब जीव चव (मर) गये होवे, और देहं मात्र रहा होवे. जो मासुक निर्जीव होवे, किसी प्रकार की नेश्राय रहित अथवा बैठे विना खडे 2 ही ग्रहण करे, परंतु कथा वार्त कहकर उस के बद्दल आहार ग्रहण करे नहीं. औषध भैषज्य बताकर, हस्तादिक की रेखा आदि लक्षण बताकर, स्वम का अर्थ प्रकाश कर, ज्योतिष निमित्त प्रकाश कर कथा कहकर, अन्य को विस्पय उपजाकर, धूर्तता से ठगकर, अन्य की विटम्मना कर, घगदिक की रक्षाकर, किसी प्रकार के वचन से विश्वास उपजाकर, आडम्बर बताकर, बच्चों धन इत्यादि का रक्षणकर 15 स्वामी की आज्ञा विना देवे, 16 साधु का आगमन जानकर विशेष बनावे. ये सोलह दोष ग्रहस्थ लगावे. १धाय कर्म बालक को रमाकर लेवे, 2 दूत कर्म समाचार कह कर लेवे. 3 निमित्त प्रकाशकर लेवे, 4 जाति मीलाकर लेवे, 5 दीनता करके लेवे, 6 औषधि बताकर लेवे,७-१० क्रोध मान माया व लोभकरके लेवे,११दान दिये अथवा पीछे गुणानुवाद करके लेवे, 12 विद्या करके लेवे, 13 मंत्र करके लेवे, 14 चूर्ण करके लेवे, 15 वशीकरणादि योग करके लेवे, ओर 16 मूल / कर्म-गर्भपातनादि करके लेवे, ये 16 दोष साधु लगावे. यों सब 42 दोष रहिन शुद्ध आहार ग्रहण करे. मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. मनुवादक-पालनमचारी
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________________ HIT 8. दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार नविवंदणाए नविमाणणाए, नविपूयणाए, नविवंदणमाणणपूयणाए, भिक्खगवेसिययव्वं नविहीलणाए, नविनिंदणार, नविगाहणाए, नविहीलणा निंदणा, गरहणा भिक्खंगवं सियव्वं नविभेसणाए, नवितजणाए, नवितालणाए, नविभेसण तजणाए, तालण भिक्खं. गोसयन्वं, नविगारवेणं,नविकुहणयाए,नविवणीयमयाए,नविगारवकुहण वणीमयाएभि, क्खंगवोसयन्वं, नविमित्तयाए, नविपत्थणाए, नविसेवणाए, नविमित्तय पत्थणसेवणाए और विद्या कला का अभ्यास कराकर भीक्षा की गवेषणा ग्रहण करे नहीं, वैसेही गृहस्थको स्तुतिकर, मान सन्मान देकर, पूजा सत्कार करके भी आहार की गवेषणा करे नहीं, वैसे ही गुण ग्राम, मान सन्मान व पूजा सत्कार सब एक साथ करके आहार की गवेषणा करे नहीं. हीलना करके, निन्दा करके, गर्हणा में करके ये तीनों अलग 2 करके वैसे ही ये तीनों कर्तव्य-हीलना, निन्दा और गईणा साथ करके भीक्षा की गवेषणा करे नहीं, डरबता कर, तर्जनी अंगुली से ताडना कर, और ही तर्जना (मार) देकर ये तीनों अलगर कर वैसे ही, भय, ताडना ब तर्जना साथ ही कर भिक्षा की गवेषणा करे नहीं, करुणा जनक शब्द बोलकर, "अहकार बतलाकर अथवा भिक्षाचर जैसे दीनता बताकर ये तीनों अलग करके अथवा तीनों साथ करके मिक्षा ग्रहण करे नहीं. मित्रपना से, प्रार्थना से अथवा सेवा भक्ति ये तीनों कॉम अलग 2 करके अथा तीनों काम साथ करके साधु भिक्षा गवेषे नहीं, परंतु इस प्रकार के दोषों टालकर साधु आहार की गवे-7 468- अहिंसा नामक प्रथम अध्ययन 48442
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________________ भिक्खंगवेसियव्बं, अण्णाए अगड्डिए अट्टे अर्दाणे अधिमणे अकलुणे अविमाई अपरीतंतजोगी, जयण घडण करण चरण चरिय चिणय गुणजोग संपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए निरए // 6 // इमंच सव्व जग जीव रक्खण दयट्टयाए पाश्यणं भगवया सुकहियं, अझेहियं पेच्चाभावियं, आगमेसि भदंसद्ध नेयाउयं अकडिलं अणुतरंसव्व दुक्खपावाण / विउसमणं तस्स इमाओ पंच षणा करे. अनजान स्वजन संबंधियों को अपनी ओलख देबे नहीं, गृहस्थ के खान पान अथवा स्वजन से संबधियों में गृद्ध बने नहा. जो कोई आहार न देवे उन पर द्वेष कर नही, विषवाद कर नहीं. किसी को दुःख न होवे वैसे रहे प्राप्त हुए संयम की यतना करे और अप्राप्त ज्ञानादिक के लिये उद्यपकरता रहे सदैव करने में आवे ऐसी क्रिया करण के 70 गुन, और चरण-समयानुकूल करने में आवे वैसे चरण 704 गुण आचरता हुबा साध भिक्षा की गवेषणा में रक्त बने इस प्रकार दयाका आराधन करते रहै. // 6 // यह अहिंसा सब जगत् जंतुओं की रक्षा के लिये भगवान श्री महावीर स्वामीने परूपी है. इस से आत्मा का हित होता है. आगे जन्मान्तर में भद्र-कल्याण करने वाली होती है. सब दोष रहित शुद्ध अकुटिल-सरल-सब से प्रशन और सब दुःख का देने वाला प्राणातिपातादि जोपाप है उसे उपशं त बनाने वाली दया ही है यह प्रथम अहिंसारूप महाव्रत है. इस के रक्षणार्थ पांच भावना 10 कही है // 7 // प्रथम भावना-प्रण.ति पात से निवते साधु बैठते चलते साधु के जो गुन है. उन से अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी" * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ का वा भावणाओ॥ 7 // १पढमरस वयस्स हुँति पाणाइवाय वरमेणं परिरक्खणट्टयाए पढमठाणं गमणगुणजोग जुंजण जुगंतरणिवाइयाए दिट्ठीए इरियव्वं कीड पयंग तस थावरदया वरेण,निच्चं पुप्फ फल तय पवाल कंद मूल दगमट्टिय बीय हरिय परिवजएणं सम्म;एवंखलु सव्वपाणा महीलियव्वाननिंदियव्व नगरहियव्वा नहिंसियव्या निच्छिदियव्वा,नभिदियव्वा, नवहेयव्वा नभय दुखंच किंचिलब्भापावेओ, जो एवं इरियासमिइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबल मसांकलिट्ठ निव्वाणचरित्त भावनाए अहिंसए संजएसुसाहु॥८॥बिइयंच युक्त आगे एक युग गाडी के धूसर प्रमाण दृष्टि से ईर्यासमिति सहित देखता हुवा, कीडे पतङ्ग त्रम स्थावर प्राणियों पर दया रखता हुआ, सदैव पुष्प फल त्वचा, प्रवाल, कंद, मूल, पानी, मिट्टि, बीज, हरी इत्यादि से पचता हुवा प्रवते. यों निश्चय सब माणी भूतको हीलने वाला होवे नहीं, निंदने वाला होवे नहीं, गर्हणा करने वाला होवे नहीं, हिंसा करने वाला होवे नहीं, चर्म छेद करने वाला होवे नहीं, किंचिन्मात्र दुःख देने वाला होवे नहीं, परंतु ईर्यासमिति के योग से अपनी आत्मा को भावता हुवा विचरने वाला हे वे. ऐसा पाप कार्य रहित निर्मल, संक्लिष्ट परिणाम रहित,अखण्ड चारित्रकी भावना युक्त अहिंसारूप 11 संयमी ही सुसाधु कहाते हैं // 8 // दूसरी भाषना-मन से पापकारी, अधर्मकारी, दारुण,नृशंप, अधबंधन और दशपाङ्ग-प्रश्नव्याकरण मूत्र द्वितीय-संवरद्वार 42im अहिया नामक प्रथम अध्ययन 448 - -
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________________ अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी मणेणपावएणं पावकं अहम्मियं दारुणं निसंसं वह बंध परिकिलेस बहुलं भय मरण पारकिलेस संकिलिटुं, नकयाइमणेणं पावाएणं पावगं किंचिविन्भायव्वं, एवं मणसमिइ जोगेण भाविओ भवइअंतरप्पा, असबल मसंकिलिटुं निब्वाण चरित्त भावणाए अहिंसाए संजए सुसाहु // 9 // 3 तइयंच वइए पावाए पावगं अहम्मिय दारुणं निरसंसं बहबंध परिकिलेस बहुलं जरामरण परिकिलेस संकिलिटुं नकयाइ वइए पावियाए पावगं किंचिवि भासियध्वं, एवंवइसमिइ जोगेण भाविओ भावइ अंतरप्पा असबल मसकिलिटुं निव्वाण चरित्त भावणाए अहिंसओ संजओ सुसाहु // 10 // ४चउत्थं आहार एसणाए सुद्धं उच्छं गसियव्वं अण्णाए अकहिए क्लेशकारी, मृत्यु रूप भय का कारन, और संक्लिष्ट पापकर्म का कदापि चितवन कर नहीं. ऐसा मन समिति युक्त अंतरात्मा को भावता हुवा पाप कार्य रहित निर्बल असंक्लिष्ट, अखड चारित्र की भावना युक्त और अ.. हिंसा युक्त संयमी ही सुमाधु कहाते हैं // 9 // तीसरी भावना-पापकारी अधर्मकारी, दारुण, नृशंस, बध वंधन और परिक्लेशवाला, जरा मरण रूप क्लेशवाला, संलिष्ट वचन को कदापि बोले नहीं. इस तरह वचन समिति योग से अंतगत्मा को मावनेवाले पाप कर्म रहित निर्मल सक्लिष्ट परिणाम रहित अखण्ड चारित्रबाले आहंसक संयमी ही सुसाधु कहाते हैं॥१०॥चौथी भावना पाहारकी एषणा भुद्धिकी है. थोडा आहार गवेष,ज्ञाति * कापाक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी बालामवादजी *
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________________ 147 -द्वतीय-संवरद्वार + अनुढे असिट्टे अहाँगे अदाणे अकलुणे अविसाएती अपरितंतजोगी जयण घडण करण चारयविण्य गुग्णजोग संपउत्ते,भिक्खूभिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणिऊणभिक्खचरियं उच्छं घेत्तृणं आगए गुरुजणस्स पासं गमणागमणातिचार पडिक्कमण पडिक्कते आलोयण दायणंच दाऊण गुरुजणस्स जहोव एसनिरइयारंच अप्पमत्तो पुणरवि अणेसणाए पयत्तो पडिक्कमित्ता पसंते आसीण सुहनिसण्णो मुहत्तमेतंचज्झाणं सुहजोग नण सज्झाय गोवियमणे धम्मणे अविममणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सहासंवेगनिजरमणे , नहीं मीलती होवे वहां से गोष, कथा कहना आदि खशामदी विना गवेषे, दुष्टता नहीं करता हुबा, दीनपना 1 नहीं करता हुवा, करुणा नाक योग्य नहीं बनता हुवा, विवाद रहि', अन्यको खेदित किये बिना, संयम की यत्ना के लिये, अप्राप्त ज्ञानादि की प्राप्ति के लिये, करण चरण विनय गुण योग से संयुक्त, भिक्षा की। एषणायुक्त, बहुत घरों, फीरता हवा, थोडारग्रहण करता हुवा, पर्याप्त प्राप्त होने से गुरु आदि ज्येष्ट पुरुषोंकी पास आर, गमनागमन दोष प्रतिक्रमण कर, गुरु सन्मुख सब आलोचना कर, गुरुका उपदेश श्रवण कर पिरति आचार पूर्वक रहे हुवे दोष को आलोचनाकर यत्ना से कायोत्सर्ग क लिये शांत आसन से समाधि सहित बैठे. मुहूर्त मात्र ध्यान करे. शुभ योगों की प्रवृत्ति करे. इन की स्ाध्याय करे, आहार की इच्छा से मन को गोपता हुना. श्रुत चारित्र धर्म में मन को जोडता हुवा, चित्त की शून्यता रहित, मन की * क्लिष्टता रहित, मन का विग्रहपना रहित, समाधि भाव सहित, श्रद्धा तस्वकी रुति वैराग्य भाव, सहित प्रोक्ष / ___ +is+ अहिंसा नामक प्रथम अध्ययन Hदशमाङ्ग प्रश्नव्याकर
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________________ 148 +1 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पवयणवच्छल्लभावियमणे उट्टे ऊगय पहट्ट तुढे जहरायणियं निमंतइत्ताय साहवे भावओयविदिण्णेय गुरुजणेणंउपविटे, संयमजिऊग मर्स रंकायं तहाकरयलं,अमुच्छिए अगिडे अगढिए अगरहिए अणज्झविवण्णे अगाइले अलुद्धे अणत्तट्टिए असुरसुरं अचवचवं अदुय मबिलविय अपरिसाडियं आलोयभायणे जय मापतेण बवगय संजोग माणगालच विगयधूमं अक्खोवं जण वणाणुलेवणभयं, संजम जाया माया निमित्तं, संजमं भारवहणट्ठयाए भंजिज्जा, पाणधारणट्टयाए संजएणं समियं, एवं आहारसमिइ मार्ग साधने का अभिलाष, कर्म क्षय रूप भावना भावता हुवा, सिद्धांत की वात्सल्यता करता हुवा, मत आहार में मध्यस्थ भाव धारन करता हुवा रत्नधिक [बढे स घुओं को आमंत्रण करके, समान बनवाले की अनुक्रप से आमंत्रणा करके, गुरु महाराज की आज्ञा होने में अपनी काया तथा हाथ को पूंनकर मूर्छा, गृद्धिता लोलुप्ता, निंदा और प्रशंसा रहित निर्मल चित्त से आत्मार्थी बनकर बड 2 शब्द, वच 2 शब्द नहीं करता हुना, शीघ्रता व विलंब गहिन, नीचे नहीं डालता हुवा, प्रकाश पडे वैसे चौडे पात्र में यत्ना पूर्वक संयोजनादि दोष रहित, मनोज्ञ आहार का मयोग नहैं। भीलाला हवा, अच्छे आहार की लव्याख्या नहीं करता हुवा, खराब आहार की निन्दा नहीं करता हवा, गाटा चालने में आंगन की जरूर होती है इस प्रकार शरीररूप गाडा चलाने केलिये, तथा जैसे फोदा फुसी करिये मलमकी जरूर होती है। * सकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदरमहायजी ज्वाला सादजी*
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________________ र tar द्वितीय-सबरद्वार दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण मूत्र जोगेणं भविओ भवइ अंतरप्पा असबल मसंकिलिटुं निवण चरित्त भावणाए अहिंसए संजए सुसहु // 11 // 5 पंचमं पंढ फलग सिज्जा संथारगं वत्थ पत्त कंबल दंडग ग्यहरण चोलपट्टग मुहपोतिय पायपच्छणादिएयपि संजमस्स उवबूह 149 है णट्रयाए, वाया तव दममसंग सीय परिरक्खणट्ठयाए, उवगरणं राग दोस रहियं परिहरियव्वं संजणं णच पडिलेहण पप्फोडण पम्मजणाए अहोयराओय अप्पमत्तेण होइ सययं निक्खितखव्वच गिाण्यवंच भायणं, भंडोवहि उवगरणं, एवं __ आयाण भंडनिक्खेवणा समिइ जोगेण भाविउ भवइ अंतरप्पा असबल मसकिलिटुं वैपे ही क्षुधा वेदनीय का उपशम के लिये, संयम का भार का निर्वाह के लिये, प्राण धारण करने के लिये में आहार भोगव. इस प्रकार आहार समिति युक्त एक अंतरात्मा को भावता हुवा पाप रहित निर्मल क्लेश परिणाम रहित असा संयमी ही सुसाए के हाते हैं // 1 // पांचवी भावना- पीढ फलक, शैय्या, संथारा व, पात्र, कम्बल, दंड, रजोहरण, चोलपट्टा, मुख वस्त्रिका, पाद पुंछन, इत्यादि उपकरण संयम निर्वाह के. लिये रखत हैं. उन उपकरणों में राग द्वेष रहित उपयोग में लेवे. यत्ता पूर्वक प्रतिलेखना, प्रमार्जना करे. य ना पूर्वक ग्रहण करे, रखे, इस तरह भंडपकरण उपधि वस्त्र दि रखता आदानभंडभत्त निक्षेपना / सीति रूप भावना से अंरात्म को भ वता हुआ पाप तिल क्ले शन परिण मरहित निर्माण चरित्र / - अहिंसा नापक प्रथम अध्ययन
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________________ 4. अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषी निव्वाण चरित्त भावणाए अहिंसए संजए सुसाहु // 12 // एवं मियं संवररसदारं सम्म संचरियव्वंहोइ सुप्पणिहियं, इभेहिं पंचहिवि कारणाहि मणवयकाय परिरक्खिएहि, निच्चं आमरणतंचए संजोगोनेयव्वो, धितिमता मतिमता आणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिमाइ असंकिलिट्ठो सुडो सब्धजिण आराहियं मणुणाणाओ // 13 // एवं पढमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किटियं आराहियं आणाए अणुपालियं, भवनि,एवं णायमुणिणा भावया पन्नवियं परूवियं पसिद्धसिद्धसिद्धवर सासणमिणं आवियं सुदेसियं पसत्थं पढनं संवरदारं सम्मत्तं त्तिबेमि।।इति पढमं संवरदार सम्मत्तं // 1 // * * को भावना हुवा अहिंसा युक्त संयमी ही सुसाध कराते हैं // 12 // यह प्रथम संवर दर सम्यक् - प्रक र से मंवरता हुवा, अच्छी तरह प्रणित निधान की तरह रक्षा करता हुवा, पापकारी मन वचन काया के a योगों की रक्षा करता हुवा मृत्यु को प्राप्त होवे नहीं वहां लग सदैव संयम का पालन करता हुवा, धृति, मति युक्त अश्रव रहित, परिण मों की कलुषता रहित, कर्मरूप पानी आने का आश्रव रूप छिद्र रहित अपरिश्राय और परिणामों की क्लिष्टता रहित प्रवर्ते॥१३ // जो जिनाज्ञा के पालक हैं उन सबन इस प्रथम संवर द्वार को स्पर्शा है, पाला है, पार पहुंचाया है, कीन युक्त ग्रहण किया है, शुद्धपने आराधा ह. जिनाज्ञा अनुसार शुद्धपनेपाल, या ज्ञानानन्दी श्री महावीर स्वामीने प्ररूपा है. प्रसिद्ध किया है. प्रधान मुक्त प्राप्त करानेवाला यही है. ऐसा इस का अच्छी तरह उपदेश किया है.॥इति प्रथम संवर द्वार संपूर्णम्।।१॥ * प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ दशपाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार - // हीतिय-अध्ययनम् // जंबू ! बितियंच सच्च वयण सुद्धं सुपियं सिवं मुजायं सुभासियं सकहियं सुव्वयं सुदिटुं सुपतिट्टियं जसं, सुसंजमियं वयण सुबाडयं, सरवर नरबसभ पवर बालवग सुविहित जणबहुमयं, परमसाहधम्मं चरणं, तवनियम परिग्गहियं, सुगतिपहदेसियंच, लोगुत्तम वयमिणं विजाहरगगणगमण विजाणसाहण सग्गमग्गं सिद्धिपहदेसियं अवितह त सच्च उज्जुय, अकुडिलं, भयत्थं अत्थंउविसुद्ध,उज्जोयकर,पगासंकरभवइ सव्वभावाणं, श्री सुधर्मा स्वामी करते हैं. कि अहो जम्बू ! सत्य वचनरूप दूसरा संवरद्वार निर्दोष, पवित्र, युद्ध, पियकारी, अच्छा, उत्पन्न हुवा, मुभाषित, सुकथित, सुव्रत, अच्छा दखा हुवा, संप्रतिष्ट यशवाला, शुद्ध सयमियों को बोलने योग्य, देव मनुष्य, धीर पुरुष प्रधान बलवंत उत्तम और संयमी पुरुषो को पियकारी, साधुओं को आचरन योग्य, धर्माचरण वाला, धर्षानुष्ठान वाला, तप नियम प्रग्रहित ( सत्य में ही तप नियम प्रमाग भूत होते हैं ) मोक्ष का पंथ, सब लोक में उत्तम, विद्याधरो को गगन गामिनी आदि विद्या सिद्ध कराने वाला, अविनथ्य, अकुटिल, सद्भूत अर्थ वाला. अर्थ से विशुद्ध, मूर्य समान तेजस्वी दीपक समान प्रक श वाला, अविसंवादी, यथार्थ, मधुर, प्रत्यक्ष देवों को आधीन करने वाला, मंत्र तंत्रादि ] 48 सत्य वचन नामक द्वितं य अध्ययन 4.49
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________________ 2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनिश्री अमेलख ऋषिजी+ जीवलोगे अविसंवाइ जहत्थ महुरं. पच्चक्खदेवयंच जंतं, अच्छेरकारगं अवत्थंतरेसु, बहुएस माणुमाणं सच्चेण महासमुद्दमझे चिटुंति ननिजंति मूढाणियाविपोया, सच्चेणय उदगसंभमंति नबुडंति, नयमरंति थाहंचतेलहति, सच्चेणय अर्गाणसंजलं. * मिपिनडझंति उज्जुगामणमा, सच्चेणय तत्ततेल तउयलोह सीसकाइ छिबंति धरंति नयडझंति मणूस्सा, सच्चेणय पव्वयकडाते हैं मुच्चंते नयमरंति, सच्चेणय परिग्गाहया असिपंजरगया समराओ विणिहात अणहायसच्चवादी वहबंधभिओगवेरघोरेहिपके सिद्ध करनेशला, लोको के चित्त को आनंद करने वाला और अवस्थान्तर में साथ रहनेव ला होना है." // 1 // अब मत्य का प्रभाव बताते हैं. सत्य वचन के प्रभाव में महासुमुद्र में रहा हुने मनुष्य दिशा मृढ होने पर भी नहीं डूबते हैं, पानी के सभ्रम में पडे हुवे जहाजों मत्यके प्रभावसे पानीमें नहीं डूबते हैं. सत्य / प्रभावसे वहा मनुष्य नहीं माते हैं, सरल स्वभावी सत्यवादी मनुष्य प्रज्वलित अग्निमें नहीं जलते हैं, सत्यके. प्रभाव तप्त किया हुवा तेल,तरुमा / कथीर ) लोहा.सीना इत्यादि ह थमें रखने भी नहीं जलते हैं, सत्य के प्रभाव पर्वत के शिखर में डाग हुवा मनुष्य मरता नहीं, सत्यके प्रभावसे खङ्गकी धार अथवा भाले की अगि से छेद भेद होता नहीं सत्यके प्रभावसे मंग्रायमें अखण्ड रह, फते पावे, दंडादि से बध, शृंखलादिक का पपन, आभयोग-बलात्कारसे कार्यकी प्रेरना वैर विरोध इत्यादि घोर भयंकर उपसर्गभी सत्यवादी मुक्त होता * प्रकाशक-शनाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ 4 दशाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय-संवरद्वार 30 मुञ्चतिय, अमित्तमज्झाहिं निइंति, अणहायसच्चवादी सादिव्याणियं देवयाउकरेति, सच्चवयणे रयाणं // 2 // तंसच्चं भगवंतं तित्थगर सुभासियं दसविहं,चौदस्सपुवीहि पाहुडत्थशिदत्तं महारिसीणय समयप्पदिण्णं देविंदनरिंद भायियत्थं, वेमाणियसाहिय,महत्थमंतो सहिविजासाहणटुं चारगणसमणसिद्धविजं, मणुयगणाणं वंदणिज्जं,अमरगणाणंच अञ्चणिजं, असुरगणाणंच पूणिजं, अणेगपासंड परिग्गाहियं जंतंलोगभि सारभूयं, गंभीरतरं महासमुदाओ थिरतरंग, मेरु पव्वयाओ सोमतरं चंदमंडलाओदित्ततरं सूर है. अमित्र की तरफ से की हुई शस्त्रादि पीडा भी शांत हेती है, सत्यशन के पास देव रहते हैं और देवभी सत्य वचन में रक्त रहते हैं. // 2 // श्री तीर्थंकर भगवानने सत्य वचन के दश भेद कहे है ! चौदह पूर्व घाग्न करने वालो ने चौदह पर्व में रहे हवे अंश को सत्य वचन से जाना. परिषियों को सिद्धांत का पठन कग्नेको मत्य वचनादेया.देवेन्द्र और नरेन्द्रकसम्ख सत्य वचनसे जीवाहिककाकथन किया,वैमानिक देवताओंकी उपदेशपने मरूपा,विद्याधारक मुनियोंको मंत्र औषधि और विद्या साधन के लिये सत्यही श्रेष्ट है, यह सत्य है.. मनुष्य के समुद्र को वंदनिक है देवताओं के समुहको अर्चना योग्य है, अमुरगणको पूजने योग्य है,इस सत्यको अनेक पाखंडियने भी पाचन किया है,सब लोकमें सारभूत यहसत्यही है,यह सत्य महा समुद्रसे भी अतिगंभीर है. मिपति से भी अति ऊंचा है, चंद्रसे अतीव सै.म्यकारी है. मूर्यसे अतितेजवंत है. सरदस्तु के आकाशसे भी / - सत्य वचन नामक द्वितीय अध्ययन 4.18+
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________________ - 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मंडलाओ विमलत्तरं सरयनहयलाओ, सुरहितरं गंधमायणाओ, जेवियलोगमि अपरिसे सा मंताजोगाजावाय, विजाय जंभगाय अत्थाणिय, सत्थाणिय, सिक्खाओय आगमाय सव्वाइं विताई सच्चेपतिठियाई, // 3 // सच्चपिय संजमस्स उयवरोहकारगं, किंचिनवत्तिव्वं हिंसा सावजं संपउत्तं भैदविकहकारगं, अणत्यवाय कलह हारकं अणजं, अववाय विवायं, संपउतं वेलबंउज्जधेज बहुलं निलजं लोयगरहणिजे, दुदिटुं दुस्सुयं अमुणियं अप्पणोयवणा परेसुनिदा, नतंसि मेहावी, नतंसिधणो, निर्मलहै, गंधमादन गजदंत पर्वतसे भी अतिसुगंधमय है, यह जा जगत् में प्रसिद्ध हरिण आदि मंत्र बशी करण, प्रज्ञाप्त आदि विद्या, मुंभकादि तीर्छ लोकबासी देव, गाणतादि कलौं, और शव, ये सब सत्य वचन में प्रतिधित ॥३॥ताहपि जो सत्य संयम को बाधा रूप होवे वहकिंचिन्मात्र भी बोलना नहीं, हिंसाकारी स वद्य भाषा, रोष प्रयुक्त वचन, स्त्री आदि की विकथा, निस्सार वचन, क्लेश की वृद्धि कर नेवाले वचन, अनार्यको बोलने योग्य वचन, दूसरे की निन्दा युक्त वचन, विवाद-कदाग्रह उत्पन्न करनेवाला वचन, विटम्बना करने वाला वचन, धृष्टपना. करनेवाला वचन, लज्जा रहित वचन, लोकों में गर्दा योग्य निंदा करानेवाला वचन, खराब देखा हुवा वचन, खराब मुनाहवा वचन, इत्यादि कवचन मनि जनको बोलने योग्य नहीं हैं, तथा स्वतः की प्रशंसा और अन्य की निंदा होवे वैसे वचन, अरे मूर्ख, दरिद्री, अधर्मी, नींव, कृपण, कायर, कुरूपी, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी बालामसादजी * 1
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________________ 4- 155 सूत्र-द्वितीय संवरद्वार - नतंसिपिषधम्मो, नतंकुलीणो, नतंसिदाणपति,, नतसिसगे,नतंसिपाडेरूवो, नतासलट्ठो, नपंडिओ, नबहुंस्सुओ, नवियतं तवस्सी नयावि परलोग निस्थियमइ, नतंसिसव्वकालं जाइ कुलरूव वाहिंरोगेणवाविजंहोइ वजणिज्जं, दुहओ उवचार मइकंतं, एवं विहंतु सचंपिनवत्तव्वं // 4 // अहकेरिसकंपुणाई सच्चंतु भासियव्वं जंतं दव्वेहि पज्जवेहिय गुणे हिंकम्महिं बहुविहेहि, सप्पेहिं आगमेहिय नामक्खायं निवाय उवसग्ग "दीन, अपण्डित, अबह सूत्री, अतपस्वी, नास्तिक, सब कला के ज्ञान रहित इत्यादि कटु वचन भी बोलना नहीं. और भी जानि, कल, रूप व्याधि और रोग जिन को होवे उन को वैसे तिरस्कार युक्त वचन कि जो उन को अपियकारी हो तो वे सत्य होनेर मृषा है. इम से ऐसे वचन सदैव वर्जनीय हैं, द्रव्य और भाव ऐसे दोप्रकार के सत्य वचन मान पूजा को अतिक्रांत होवे तो बोलना नहीं // 4 // अब कैसे वचन बोलना सो कहते हैं-जो वचन द्रव्यसे युक्त हो, पर्याय से युक्त हो, वर्णादि गुण से युक्त हो, व्यापारादि कर्म से युक्त हो. बहुत प्रकार के शिल्प कला कौशल्यता से युक्त हो, सिद्धांत से युक्त हो, वैसे वचन बोलना. और भी मोलह // प्रकार के वचन बोलना-तद्यथ-१ नाम-देवदत्त, 2 अख्यात-क्रिया सहित जैसे भवति, करोति, 3 निपात-. * अश्यय जसे खलु, अहो इत्यादि,४उपसर्ग-जिस से धातु के अर्थमें फेरफार होवे जैसे आहरति-चोरी करता है? निहरति निहार करता है, 4 तद्धित-यह प्रत्यय है. 6 समास-दो शब्दों का संयोग करना जैसे-काया, 48 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याक सत्य वचन नामक द्वितीय अध्ययन 4.8
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________________ सत्र अनवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनी श्रीमोलख ऋषिजी तद्धित समास संधि पद हेठ जोगेय उणाइ किरियाविहाण,धातु सर विभत्ति वमजुत्तं तिकलं, // 5 // दसविहंपि सञ्चं जहभाणियं तहय कम्मुणाहुति दुवालसविहाय होति। उमग, कायोत्मर्ग, संधि-साथ आये हुवे दो स्वर को मीलाना जैसे परम ईश्वर-परमेश्वर-८ पद 9 हेतु 10 योग, 11 उनादि 12 किया 13 विधान 14 धातु 15 स्वर और 16 विभक्ति // 5 // दश प्रकार के सत्य वचन जानना. 1 जनपद सत्य-जिस देश में जैसी भाषा होवे वैसी बोलना जैसेपानी, जल, नील ये पानी के नाम-२समत्तसत्य-बहुन मीलकर नाम रखे जसे पंक से उत्पन्न होनेवाला सो पंकज [ कमळ ] यद्यपि कीचड से पेंडक प्रमुख मी उत्पन्न होते हैं परंतु वे पंकज नहीं कहा हैं. 3 स्थापना . मत्य-ताल माप वगैरह की स्थापना कर सो 4 नामसत्य-जैसे नामता कुलवर्धन है परंतु कुल क्षय करनेवाला Bहोते भी कुलवर्धनही कह व 5 रूप सत्य-माधुका वा होवे परंतु गुन न हो तो भी साधु कहावे. 6 प्रतीत्य / मत्य-एकेक को अपेक्षा छोटा बडा बोलावे. जैसे पिता पुत्र व्यवहार सत्य-जैसे पर्वत पर रहे हुवे तृणादि. जलनपर पर्वत जलता है ऐमा कहनाभाव सत्व-जैसे वगला शुक्लवर्ण दीखने आने से श्वेत कहाता है परंतु निश्चय में पांचो वर्ण पाते है 9 योग सत्य-जैसे दण्ड रखने वाला होने सी दण्डी वगैरह और 10 औपम्य सत्य जैसे समुद्रमत् तलाव वगैरह यह दश प्रकार के सत्य जानना जैसे यह बोलने का सत्य कहा वैसे ही अक्षर लेखन के भी दश सत्य जानना. भाषा को व रहे भंद हैं.१ संस्कृत, २प्राकृत, 3 सौरसेनी ४मागधिप *प्रकाशक-राजारहादुर लाहा मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादी*
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________________ 157 दशमा-श्रव्याकरण सूब-द्वितीय संवरद्वार भासा, वयपियहोइ सोलसविह, एवं मरिहतमण्णुण्णायं समिक्खियं संजएणकालं 43 मियवतन्वं // 6 // इमंचभलियं पिसुण फरस कडुय चवल वषण परिरक्खणट्याए पाश्यणं भगवया सुकहियं अत्तहियं, पिवाभावियं, आगमेसिभई, सुद्धं नेयाउयं, अकुडिलं, अणुत्तरं, सम्वदुक्खपावा विउसमयं ॥७तस्स इमाई पंचभावणाओ पेशाची और अपभ्रंस, यह छ भाषा गवरूप और यह भाषा पञ्च रूप में,यो१२भेद माषाके हुए. और भी पचन सोका मेद का-एकवर द्विवचनअनेकपचन, ये तीनपचन, ४सी लिंग,५पुरुष लिंग और नमक लिंग,यह तीन लिंग,अतीत,८ अनागत बौर९ वर्तमान, ये तीन साल,१०मरत्यक्ष वाम??परोक्ष वचन१२अपनीत वचन, 13 उपनीत पचन, 14 अपनीत उपनीत बचन, १५उपनीत अपनीवपचन और१६बाध्यात्म बचन ये सोला पचन है. श्री अरिस भगवानने इन बचन बोलने की आशा दी और संघमा को इस का विचार करके : बोकने के अवसर पर बोलना // 3 // पापा बम, निन्दा कारक, काठम, करवा, चपलता युक्त और विना विचार का है. ऐसे पचन से मिल करना यह सिद्धांत में भगवानने अच्छा कहा है, इस मव आस्था को हितकारी है वैसे ही आगे के भव में भी आत्मा को हितकारी होता है सय पचन निदोष न्याय पसानेपामा कुटिलता रहित, प्रधाम सब दुःख कषय करने यासा॥७॥ पृषा से निवर्सने रूप दूसरे प्रत की पांच भाषना. उस प्रत की सभा के लिये कही है। - सस्व वचन नायक द्वितीय अध्ययन 4.91
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________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - विइयरस वयस्स अलियवयणस्स वेरमाण परिरक्खणट्टयाए // 8 // पढमं सोऊण संवरटुं परमर्से सटुजाणिऊणं नवेइयं, नतुरियं नचवलं नकुडयं नफरुसं नसाहस नयपरसपीडाकारगं सावजं सच्चंचहियंच मियंच गाहणंच सुद्धसंगय, मकाहलंच समिक्खियं संजएणकालं मियवात्तव्यं, एवं आणुवीयसमिति जोगेण भविओ भवति अंतरप्पा संजय कर चरण णयण वयणो सो मच्चजव संपण्णो // 9 // 2 वितियं कोहोण सेवियव्वो कुद्धोचंडिक्किओ मणसो अलियं भणेज, पीसुणं भणेज फरुसं भणेज, अलियं // 8 // प्रथम भावना-सद्गुरु के पास संवर के लिये, परमार्थवाली, भाषा अच्छी जानकर, शीघ्रता, त्वरितपना, चपलता, कटुता, परुषता, और साहसीकता रहित, अन्य को पीडा नहीं करे वैसी निर्वद्य, सत्य, तथ्य, पथ्य, मर्यादा युक्त. प्रमाण युक्त, अन्य को प्रतिकारी, शुद्ध, निर्मल, निर्दोष, कोई पकड सके नहीं वैसी, स्पष्ट, और विचार सहित भाषा योग्य समय में बोले. इस तरह बोलते भाषा समिति युक्त भव्य प्राणी का अंतरात्मा मंजम, करण, चरण, और नयण, वचन में शरवीर व सत्य और सरल भाव को प्राप्त होता है, यह प्रथम भावना हुई // 9 // दूपरी भावना क्रोध का सेवन करे नहीं क्यों कि क्रोध रूप चांडाली पन से मृषा बोलता है. क्रोधी चुगली खाता है, कठिन बोलता है, मृषा, चूगल और कठिन बचन ये all तीनों साथ बोलता है, क्लेश करता है, वैर करता है, विकथा करता है. क्लेश वैर और विकथा ये तीनों साथ भी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवस हायजी ज्वालासमादजी * 1
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________________ A न देशमाङ्ग-प्रश्नाकरण सूत्र-द्वितीय सरद्वार 212 पिसणं फरुसं भणेज्ज, कलहं करेज वेरंकरेज्ज, विगहरज्जं कलेहवरं विगहंकरेज, सच्चंहणेज. सीलहणेज विणयंहणेज, सच्चंसीलंविणयं हणेज, वेसोभवेज, वत्थुभवेज, गमाभोज, वेसोवत्थुगमोभवेज, एवं व अण्णंच एवमादीत्तं भणेज, कोहगा पलितो तम्हा के हान सेवियव्वो, एवं खंतिए भाविओ भवइ, अंतरप्पा संजय कर चरण नयण वयगोसूरो सच्चज्जव संपन्नो॥ 10 // तइयं लोभो न सेवियव्यो, लुद्धो लोभो भणिज अलियं, खेत्तस्स वात्थुस्सव कएण लुद्धो लोभो भणिज आलयं, कित्तीएव लाभस्सव कएण लुडोलोभोभणेज अलियं. इड्डीएव सोक्रस व कएण लुडो लाभो भणिज्ज अलियं, भत्तस्सव पाणस्सव कएण लुडो लोभो भणिज करता है. मत्य की बात करता है, शाल की घात करता है, विनय को घात करता है सत्य शील और विनय ये तीना की साथ भी घात करता है. अपिय होता है, दोषित होता है, खिसाना होता है, अप्रिय दोषित और खिमाना ये तीनों साथ होता है. ये और इस सिवाय अन्य भी बहुत दोष क्रोध युक्त वचन बोलने में " में होते हैं. काच रूप महा अंगार है इस लिये क्रध का सेवन करना नहीं. क्रोध का उदय होने पर है क्षम धारन करना. हाथ, पांव आंख, मुख वगैरह वश में करके सत्य और सरलता संपन्न बनना // 10 // तीसरी भावना-लोभ का सेवन करना नहीं. लोभ में लुब्ध.बना हुवा झूठ बोलता है, क्षेत्र और वत्थु / सत्य वचन नामक द्वितीय अध्ययन :
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________________ भलियं, पीढस्सव फलगवस्सवकएण लुडो लोभो भणिज अलियं, सेज्जाएव संथारकस्स- * वकएण लुडोलोभो भणिज अलियं,बत्थस्सव पत्तस्सव कएणलुडो लोभो भणेज्ज अलियं, कंबलस्सव पायपुसणसव कारणे लुधो लोभो भणेज अलियं, सीसस्सव सिरिसणीए कएणलुधो लोभो भणिज अलियं,अण्णेसुय एवमादिसु बहु कारण सतेसु लुडो लोभो भणिज अलियं, तम्हा लोभो नसेवियन्वो, एवं मुतीए भाविभो भवइ अंतरप्पा संजय कर चरण नयण वयणो सूरो सचजवसंपण्णो // 1 // चउत्थं नभीइयन्वं भूमिका के लाभ के लिये झूठ बोलता है, ऋदि परिवार और सुख के लिये झूठ बोलता है आहार पानी का लोभी बना झूठ बोलता है, पीठ, फलक के लोभी बना सा बोलता है, शैय्या संथाEस में लोभी बना हुवा यूठ बोलता है, बस पात्र में लोभी बना हुवा झूठ बास्ता है, कंबल रजोहरण में / लोभी पना हुवा झूठ बोलता है, शिष्य शिष्या का कौमी बना झूठ बोलता है, अन्य अनेक वस्तु के कारन / झूठ बोलता है, इस लिये लोभ का सेवन करना नहीं, बोम कषाय के उदय होने पर वैराग्य भाव भाग्न करे. इसारा मुक्ति भाव निर्लोभता में भावित अंतरात्मा संयम कर चरण, नयन और वचन में शूरवीर बन 13 सत्य ऋजुता को प्राप्त होता है // 11 // चौथी भावना-भप भीत बनना नही क्यों कि भय से क्षुम्भ: मुनि श्री भयोजक ऋपिनी * मकाचक-राजाबहादुरलाळा सुखदवसहायजी बाळापसाढणी* पवादक-बाडमचारी
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________________ भीयंखुभिया अइति लहुयं भीओ अबितिजउमणस्सो, भीमो भूएहि विधेप्पेजा, भीओ अन्नंपिहुंभंसिज्जा,भीओ तवसंजमंपिहमुएज्जा भीतीय भारंननेन्छरिज्जा, सप्पुरिसीनसेवियं च मग्गं भीतो नसमस्यो अणुचरियं तम्हान भीइयव्वं भयस्सवा, वाहिस्सवा,रोगस्सवा जराएवा मन्चुस्सवा अन्नस्सव एवमाइयस्स एवं धेजाणि भाविओभवइ अंतरप्पा संजय कर चरण नयणवयणो सूरो सञ्चजव संपन्नो // 12 // पंचमग हासं नसेवियन्वं आलयाई असंतगाई जति हासइता परपरिभव कारणंच हासं, परपरिवायाप्पियंच बना हुवा झूठ बोलता है. अनेक प्रकार के मय जाते हैं. जो मय करता है वह सत्य रहित है. इस से मत्स को भय होवे इस में क्या संशय भय भीत मनुष्य भूत प्रेतादि मे डरता है और अन्य अनेक को डराता है. भय भीत मनुष्य प संयम से डरता है, ऐसा मनुष्य सत्पुरुष का मार्ग सेवन नहीं कर * सकता है. सत्पुरुष के मार्ग में न चल सकता है. इस से मय मीत बनना नहीं. व्याधि से रोग से मृत्यु इत्यादि का भय कर नहीं. भय आनेपर धैर्यता धारन करे, धैर्यता में भाषित अंतरात्मा हाथ, पांच, आंख, व मुख में शूरवीर और सत्य ब ऋजुता को प्राप्त होता है // 12 // अब पांचवी भावना कहते है. हास्य का सेवन करना नहीं. क्यों कि हास्य करनेवाला झूठ बोलता है. हास्य करनेवाले परंपग से भव का | संचय करते हैं, हास्य विपत्ति में द.लता है, दुःख देता है, हास्य 2 में भेद कराता है, चारमादि दशमान प्रश्नपाकरण सम-द्वितीय-संबरद्वार सत्य पचन नायक द्वितीय अध्ययन Hit /
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________________ त्र मुाने श्री अमोलक ऋषिजी हासं, परपीलाकारगंच हास, भेयविमुत्ति कारगंच हासं, अण्णोण्ण जणियंचहुजह सं, अन्नोग्णगमणंचहोज ममं, अण्णोणगमगंच होज कम्म,कंदप्पाभिओग गमणं चहोज हासं, आसुरियं किव्विसत्तं च णिज हासं, तम्हा हासनसीवयव्यं,एवं माणेणय भाबिओ भवइ अंतरप्पा, सजय'कर चरण णयण वयणो सु। सच्चजव संपन्नो // 13 // एवमेणं संवरस्सदारं सम्मं संवरियहोई, सुप्पणिहियं इमेहिं पंचाह कारणेहिं मणवयकाय परिरक्खिएहि, निच्चं आमरणतंच एसो जोगोनेयव्यो, धिइमया मइमया अणासो गुन का नाश करता है, परस्पर का हास्य प्रथम अच्छा होता है परंतु पीछे से क्लेश कराता है. नीच. जाती के देव में हास्य करने से उत्पन्न होना पडता है. ऐसा मनुष्य भवनपति, परमार्थी, व्यतर किल्विषी इत्यादि देवता में उत्पन्न होता है, इस लिये हास्य का सेवन करना नहीं. हास्य कषाय का उदय होनेपर 3 पौन रखना. इस तरह मौन भाव में भावता हुवा अंतरात्मा हाथ, पांव, आंख व मुख में शूरवीर और सत्य व ऋजुता को प्राप्त होता है // 13 // यों पूर्वोक्त प्रकार से संबर द्वार से सम्यक प्रक र संवर युक्त हे ना उमे अच्छी तरह कहा है. इन पांचों ही कारन से मन वचन और कायाको अच्छी तरह गोपकर रख, में मृत्यु प्राप्त होवे नहीं वहां लग इस योग पूर्वक पांचों भावना का निर्वाह करे. घृति-धैर्ययंत, मति-बुद्धि सहित आश्रव व कलुषता राहत, कर्म जल आने के छिद्र रहित क्लेश रहित शुद्ध रीति से श्री जिनेश्वर तीर्थ करा * प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी .
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________________ 48: दशपाङ्ग-प्रश्नव्याकरण पूत्र-द्वितीय संवरद्वार - अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सातो, असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुन्नाओ // 14 // एवं बितियं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तिरियं किटियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवइ // एवं नायमुणिणो भगवया पण्णवियं परूवियं पसीद्धं सिद्धं सिद्धिवर सासणमिणं आपश्यिं सुदेसियं, पसत्थं बितियं संवरदारं सम्मत्तं तिबेमी // इति संवरदारस्स वितियं ज्झयणं सम्मत्तं // 2 // भगवान की आज्ञा का पालन करे // 14 // इस दूसो संवर द्वार को आत्मा से स्पर्श पालन करे, अति. Fचार रहित रखे, पार पहुंचावे, कीर्ति करे, आज्ञानुसार बर्ते, आत्म हितार्थवाले, जिनाज्ञा के आरा धक बने. ऐसा ज्ञात नंदन श्री महावीर स्वाधीने प्ररूपा है. प्रसिद्ध किया है, व्याख्या की है, तत्व से is बताया है. यह जिन शासन का प्रधान मत है. इस का बारह प्रकार की परिषदा में कथन किया है, अच्छा उपदेश दिया है, यह प्रशस्त है, यह दूसरा संवर द्वार संपूर्ण हुवा. यह जैसा मैंने श्री भगवंत स 4. सुना है तैसा ही तेरे से कहता हूं. // इति संवरद्वार का दूसरा अध्ययन संपूर्ण हुवा // 2 // * सत्य वचन नामक द्वितीय अध्ययन 48 *
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________________ - // तृतीय अध्ययनम् // जंबू ! दत्तमणुण्णाय संवरोनाम होइं ततियं सुव्वय महत्वयं परदव्वहरणं पडिविरति करणजुत्तं अपरिमियमाणंत तण्हामणुगय महिच्छामणवयण कलुस आयणसुग्गनिहियं सुसंजमिय मणहत्थपायनिहुयं निग्गंथं निटिक्कंनिरुतं निरासव निम्मयं विमुखं, उत्तम नरवसभ पर बलवागसुविहिय जणसम्मत्तं परमसाहु धम्मचरणं // 3 // 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी *पकाकाणावहादुरगाळापुखदेव सहायनाम बालाप्रसाद / अब सुधर्मा स्वामी जम्मू स्वामीसे तीसरा संवरद्वार दत्तव्रत-दिया हुवा ग्राण करने का कहते हैं. वादन : व्रत सुव्रत है, गुण रूप व्रत है, अन्य के द्रव्य को हरन करने से निवर्तने की क्रिया से युक्त है, अपरिमित / मान वाला है. तृष्णारूप अभिलाषा अपन, बंचन की कलुषता का निग्रह करने वाला है. हावा परिका संयम में रखने वाला है बाह्य आभ्यतंर परिग्रह के त्यागी सर्व धर्म में उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ का धर्म है. श्री सीकरी से उपदशा हुवा है. कर्म माने के आश्रव मार्ग का रूपन करने वाला है. सदैव निर्भय है. लोप "दोप से रहित है. ऐमा व्रत धारण करने वाला सब मनुष्यों में उत्तम है. प्रधान पलवंत है, साधु लोगों का को यह महावत सम्मत है, और परम उत्कृष्ट साधुषो को नाचरने योग्य है.॥२॥ ग्राम नगर, खेड, कर्बट, BI
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________________ दशमान-अभव्याकरण मूत्र-द्वितीय संवरद्वार ME जत्थप गामागार नगर निगम खेड कवड मंडव दोणमुह संबाह पट्टणा समगयंच किं चिदन्वं मणिमुत्तसिलप्पवालक संदृसं स्ययवरकणगरयणमादि पडियं पम्हटुं विप्पणटुं, नकप्पइ कस्सइ कहेउवा गिण्हेतुंवा अहिरण्ण सुवण्णविकेण समलेड, कंचणेणं अपरिगह संबुडेण लोगंमि विहोरियव्वं॥२॥जंपियहुजाहि दव्वजायं खलगयं खेतगयं रणमंत. गयंच किंचि पुप्फ फलतयप्पवाल कंद मूल तण कटु सक्कगई अप्पंच बहुंच अणुंच थूलयंवा, नकप्पई उग्गहे अदिन्नंभिगिण्हेउ दिणिदणि उग्गहं अणुण्णवियगेण्डियन्वं // 3 // वज्जेयव्वोय सव्वकालं अचिंयत्तघरप्पवेसो अचियत्त भत्तपाणं, अचियत्त मंडप, द्रोणमुख, संवाह, पाटन, आश्रम इत्यादि स्थानों में किंचिन्मात्र द्रव्य-मणि, पौक्तिक, सिलाराज। प्रवाल, कांस्यादिक के पाव, बस, चांदी, सूवर्ण और रत्न इत्यादि वस्तु पढी सेवे, अथवा कोई भूल गया | होवे उस का कोई सापी होवे नहीं, ऐसी वस्तु किसी भी कारन से चारित्र वान को ग्रहण करना न चाहिये. कंकर और सुवर्ण को एकसा जानकर निष्परिबी बने. इस प्रकार बना हुया यहां सदैव विचरे, और भी धान्य के खले में, खेत में, जंगल में आटीव में इत्यादि स्थानों में किंचिन्पात्र पुष्प फल, छाल प्रवाल, कंदमूल, तृण, काष्ट कंकर पडा होवे उसे भी विना दिया हुवा लेना नहीं कल्पता है. परंतु बा अविच हो और यहां से उस के स्वामीने जिवनी वस्तु लेन का का होवे उतनी ही वस्तु प्राण करे // 1 // संयमी साधु दत्तव्रत नामक तृतीय मापन --- -
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________________ नुवादक-बाझब्रह्मचारी मुनो श्री अमोलक ऋषिजी - पीढ फलग सिजा संथारगंवत्थ पाय कंबल दंडग रयहरण निसेजं चोलपट्टग मुहपोत्तिय पादपुच्छंगादि भाषणभंडे वहि उवगरणं परपरिवाओ परस्पदोसो परववएसेणं जंचगिण्हति परस्सनासइ जंचसुक्कयं दाणस्सय अंतराइयं दाणस्सविप्पणासो पेसुन्नंचेव मच्छरितंच, जेविय पीढ फलग सेजा संथारग वत्थ पत्तं कंबल दंडग रयोहरण निसेज चोलपट्ट मुहपोअप्रतीतकर घर में पवेश करे नहीं. अप्रतीतकारी आहार पानी ग्रहण करे नहीं, अप्रतीतकरी वजोट, पाट, पाटला, संथरा रखपात्र कम्बल, रजोहरण, चोलपट्टा, मुखस्त्रिका, पादपंछन, मात्रारिक का भाजन शतकात. उपधि, वस्त्रादि होवे और जिम के लेने से लोक में निंदा होती होवे तो उसे ग्रहण कर नहीं किका केया हुवा अच्छा कार्य को डिपावे अर्थात् कडे कि इसने क्या किया? तो भी अदत्त दान लगे. सुकृत काले को अंतराय देवे. दान करने वाले को अंतराय देवे, पैशुन्यत. चुगली करे, ममार्य भाव धारन करे. अन्य के गुण सहन नहीं करे, पीठ फलग शैय्या संथास, वस्त्र पात्र कम्बल, मुखपति जोहाण, पात्र, भंड इत्यादि उपकरण प्राप्त कर अपने स्वधर्पियों को दवे नहीं, अपने उपयोग में अवे जोपाट पाटले वस्त्र, पात्रादि उपकरन का मर्यद से आधिक संग्रह करे, इत्या दे काम अदत्त आचग्न का किया जाता है. और भी किसीको कोइ दुर्बल देखकर पूछे कि क्या तुम सब तपस्वी हो ? तब तपस्वी नहीं होने पर भी तपस्वी कहे, वह तप का चोर है. श्वेत कॅश वगैरह देखकर *कायक-राजाबहादुर लावा सुखदवसहायनी वाला प्रसादजी*
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________________ दशपांङ्ग प्रश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय-संवरद्वार 488 तिय पायपुछणादि भायण भंडोबहि उवगरण असंचिभागी असंग्गहरुइ तववइ तेणेयरूव तेणेय आयारेचव भावतेणेय // 3 // सहकरे झंझकरे कलहकरे वेरकर विगहकरे असमाहिकरे सयाअप्पमाणभोई सययं अणुबध वेश्य, निचरोसी, सेतारिसए नाराहए वयमिणं // 4 // अहकेरिसए पुणाई आराहए वयमिणं ज से उव हिभत पाण संगहणं दाणकुसले अञ्चत बाल दुव्वल गिलाण वुढ्मासखमणपात्त आयोग्य उवज्झाए सेह कोइ कहे कि क्या तुम स्थविर हो?तव स्थापिरन हीं होने पर भी स्थनिर बतलावे तो वह वय का चोर होता है रूपवंत दीखने से कई कहे कि क्या तुम राजकुल से नीले हो ? राजकुल का नहीं होने पर भी राजकुल का , बतावे सो कुल का चोर, मलिन वस्त्र देखकर कोई कहे कि अमुक साधु उत्कृष्ठ आचारवाले सुने हैं तो क्या आपही हो ? शुद्धाचारी नहीं होने पर भी शुद्धाचारी बने सो आचार का चोर, और गुप्त कुकम कर लोकों में वैराग्य बतलावे यह भाव का चोर, यह पांच प्रकार के चोर बताये हैं. // 3 // प्रहर रात्रि व्यतीत हुए पीछे बडे 2 शब्द से बोले, झंझ वचन से बोले, क्लेश करे, वैर करे, विकथा कर, असमाधि उत्पन्न / करे. प्रमाण से अधिक भोजन करे, निरंतर वैर विरोध रखे, इस प्रकार के जो मनुष्य होते हैं वे भी तीसरे / ॐ संकर के आराधक नहीं होते हैं // 4 // अव आराधक का स्वरूप कहते हैं. जो साधु वस्त्र पात्रा आहार पानीअदि का संग्रह सूत्रोक्त विधि से करे, आचार्यादिक को यथोचित कुशलता पूकि देवे , + दत्तव्रत नामक तृतीय अध्ययन - 4th .
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________________ साहम्मिय तवरसी कुल गण संघ बेहयद्रय निजरट्टी वेयावर्ष अणिस्सियं दसविय बहुविहं करेति, नय मचियत्तस्सघरं पचिस्सइ, नय अचियत्तस्स भत्तपाणं गेण्हइ, नय अघियत्तस्स सेवइ पीढ फलग सेजा संथार वत्थ पाय कंबल भंडग रयोहरण निसेज चोलपट मुहपोत्तिय पाय पुग्छणा भायण भंडोवहि उवगरणं नयपरपरिवायं परस्संपति नयाविदोसेपरस्सगिण्हंति, परिववएसेवि नीिच दुख, ग्लानि, वृद्ध, वपस्त्री, प्रतिक, नापार्य, उपाध्याय, शिष्य, स्वधर्षी, सपस्वी, गुरुमाइ, साधु साध्वी, पापक और श्राविकाका चतुर्विध संघ, हानी इत्यादि की वैयावृत्य निर्जरा के लिये करे. Eऐसी यावृत्य के मुख्यता से दष भेद को परंतु प्रौणता से अनेक भेद हैं. इसे करनेवाला तीसरे संवर का आरारक होता है. और भी बदन व्रत क आराधक कहते हैं. बमतीतकारी गृह में प्रवेश करे। नहीं, अप्रतीतकारी आहार पानी ग्रहण करेन, अप्रतीतकारी पाटपाटला स्थानक, विछोना, बन, पात्र, . कमाल, दंड, पाद पुंछन, भाषन वगैरण ग्रहणकरे, नहीं बन्यके दोष ग्रहणकरे नही, रोगी ग्लानि के नाम से आहार लाकर आप भोगवे न किसीने दान पुण्यादि किया ये उसे विपरीत परिणयवे नहीं, किसी के 1..धर्म का किचिन्मान भी ना करे नीं, किस के दान अथवा सुकृत के सका गोपन करे नहीं, भक्त 1 पानादि देकर बैय्यावृत्य कराने की इच्छा करे नहीं, बाहार पानी दिये पीछे यदि भय्यावृत्प करे नहीं तो अवादक-बालबमचारी मुनि श्री अपोलक ऋषिजी / *बाधक-राजाबहादुर लामा मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादमी
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________________ 4 169 दशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र द्वितीय-संकरद्वार 4 गिण्हइ नविप्परिणामई किंचविजणं नयाविनासेह दिण्णसुक्कयं दाउणय कऊणय नहोइ पत्थायवि तेसंविभागसीले संग्गहोवग्गहकुसले सेतारिसए. आहाराहेइ वयमिणं // 5 // इमंच परदव्वहरण वेरमण परिरक्खण ट्टयाए पावयणं भगवया. सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभदं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्व दुक्खावणं विउसमणं तस्स इमा पंचभावणाओ तइयस्मवयस्त हुंति परदव्वहरण वेरमण परिरक्खणट्टयाए // 6 // पढमं देवकुल सभा प्पया वसह रुक्खमूल आराम कंदरागर गिरिगुह कम्म उजाण जाणसाल कुवियसाल मंडव सुघर सुणसाण लेण उस से पश्चाताप करे नहीं. आहार वस्त्रादिक जो प्राप्त हुवा होवे उस का स्वधर्मियों में संविभाग करे. शिष्यादिक का संग्रह करने में और उन को श्रुत ज्ञानादि देने में कुशल होवै. इतने गुनवाले दत्त व्रत वाले होते हैं // 5 // अन्य का द्रव्य हरण करने में निवृत्ति करने का यह व्रत श्री भगवानने अच्छा कहा है, आत्मा का हित करनेवाला है, परभव में सुख देनेवाला है, आगामिक भव में कल्याण करने वाला है, शुद्ध न्याय पथ अकुटिल प्रधान और सब दुःख का क्षय करनेवाला है. इस तीसरे व्रत की पांच भारना इस के रक्षण के लिये है // 6 // प्रथम भावना-देव, सभा, प्रपा, - परिव्राजक का स्थ न, वृक्ष का मूल, बाग, गुफा, आगर, पर्वत, पर्वत की गुफा, पारका स्थान, दुकान, उद्यान, स्थशाला, घर . दरोवन नाक तृती अध्ययन 428 4
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________________ 11 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख ऋषिजी - आवणे अन्नमिय एवमादिमि दग महिय बीय हरिय तसराण असंसत्त अहाकडे फ सुए विवित्ते पसंत उवस्सएहोइ विहरियव्वं अहाकम्म बहुलेय जेसे असित समजि. ओसित्त सोहिय छाण दुमणि लिंपण अणुलिंपणजलण भंडचालणं अंतोबहिंच असंजमो जत्थवटइ संजयाण अट्ठावजेयत्वेहु उवरसए सेतारिसए सुत्तपरिकुटे, एवं विवित्तिवासवसहिं समिइं जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा निच्चअहिगरण करणकरावण पावकमाविरए दत्तमण्णुण्णाय उग्गहरुइ // 7 // बितियं आरामुजाण बखार, कुरिय[धातु]शाला, मंडप, शून्यगृह,स्मशान,पर्वतपर की लयन,दुकान, और भी इस प्रकार के स्थान, सचित्त मृत्तिका बीज हरिकाय युक्त न होवे, गृहस्थने अपने लिये बनाया होवे, फ्रासुक-स्त्री पशु पंडग राहत होते. प्रशस्त-साधु के योग्य होवे, दंश मच्छरादि के उपमर्ग रहित होवे, बैसे स्थान में उस के स्वामी की आज्ञा लेकर विचरे. परंतु जो उपाश्रय साधु के लिये बनाया होचे, बुहारी से झाडा होवे, खडी आदि से शोभित किया, कवेलू आदि से छवाया, पंदनादि से सुगंधित किपा, गोमयादि से लीपा, अग्नि आदि से ऊष्ण किया, और अंदर रखे हुए भंडोपकरण निकाल कर अन्य स्थान रखे हो इत्यादि असंयम की जहां वृद्धि होती होवे तो संयति को वैसे स्थान में रहना नहीं, इस प्रकार के आगम निषिध स्थानक छोडकर निदोष उपाश्रय मे रहे. समाधि युक्त. भाव से आत्मा को भावता हुवा सदैव अधिकरण * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी /
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________________ काणणवणप्पएसभागे किंचि इक्कडंवा काढणगंवा जंतुगंवा परमेरकुच्च, कुसदब्भ पबाल सुयग तल्लग पुष्फ फल तय पवाल कंदमूल तण कट्ठ सकाराइं मिहंति सेजोवहिस्स अट्ठा न कप्पए उग्गहं अदिन्नंमि गिव्हिओ दिणं दिणं उग्गहंअ णुणावयागव्हियन्वं, 171 एवं उग्गहसमिई जोगेण भाविओ भावइ अंतरप्पा निच्चं आहगरण करण कराणपावकम्मविरते दत्तमण्णुण्णाय उगाहरुई // 8 // तातियं पीढ फलग सेजा संथारग ट्ठयाए, रुक्खा नछिदियब्वा,नछेयणं भेयण जयसेजा करेयव्वा सेवा उवस्सते वसेज्जा सिंज्ज रहित उस के पालिकने दिया हुवा अवग्रह से ग्रहण करे // 7 // दूसरी भावना-आराम, उद्यान, छोटावन Fऔर बडावन के प्रदेश में जो कुच्छ घास, कडा, जंतुघास, पशल, कुश, मूंज, पत्र, पुष्प, फल, छाल, पवाल, कंद मूल, तृण, काष्ट, कंकर वगैरह अचित्त वस्तु होवे उसे ग्रहण करनी, हो तब उस के स्वामी की vie आज्ञा बिना लेनी नहीं कल्पती है. सदैव आज्ञा मांगकर ग्रहण करे. इस प्रकार अवग्रह समिति से अतगम को भावता हुबा अधिकरण रहित आज्ञा पूर्वक ग्रहण करे // 8 // तीसरी भावना-पीठ, फलग,. स्थान रा विछोना केलये वृक्षादि छेदे नही. वृक्षादिक का छेदन भेदन कर शैय्या करे नहीं. जिसका | यह उपाश्रय हो उन से हैं। उस की गवेषणा करे. विषम स्थान को सम बनाये नहीं, सम स्थान को है। विषपचनावे नहीं, वायु का रूधन करने का करे नहीं, और वायु आने का भी करे नहीं, आतापवाले / - दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार __48. दत्तव्रत नामक तृतीय अध्ययन
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________________ तत्थेव गंवेसेजा,नयविसमं करेजा, नयनिवाय पायओ सुकंतं नडंसमंस केसुक्खभियव्वं, अग्गिधूमोय नकायवो, एवं संजमबहुले संवरबहुले संबुडबहुले, समाहिबहुले धीर कारण कासियंते सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समिए एवं एगे चरिजधम्म एवं सिज्जा समिइ जोगेण भावितो भवति अंतरप्पा निच्चं अहिगरण करण करावण पात्रकम्म विरते दत्तमण्णुण्णाय उग्गहरुई // 9 // चउत्थं साहारण पिंडाय लभिसइ भातन्वं संजएण समियं नसायसूपाहिकं नक्खध नरवटुं एवोगयं नतुरियं नचवलं नसाहसं नयपरस्स " स्थान को विना आतापवाला बनावे नह:, विना आतापवाले स्थान से आतापवाला करे नहीं, दंश मच्छर वगैरा जीवों को क्षोभ उपजावे नहीं. अग्नि धूम्रादिक का प्रयोगकरे नहीं. इसप्रकार रहता हुवा संयप की वृद्धि करे, संवर को वृद्धि कर, अत्म संवर के वृद्धि करे, समचि की वृद्धि करे, धैर्यता से काया कर स्पर्श, स्वयं सूत्रादि के अध्ययन युक्त समितित धर्म का आचरन करे, इस प्रकार शैय्या समितियुक्त सदैव अधिकरण रहित उन के मालिक से दिया हुवा अपग्रह से ग्रहण करे // 9 // चौथी भावना-साधारन पिण्ड, बहुत साधु का एक साथ आहार आया हो, उसे भोगवता हुवा जिस प्रकार चोरी लगे नहीं उस प्रकार "शाक, सलाना, घृतादि अधिक लेने नहीं. जल्दी 2 भोगवे नहीं, खाने में शीघ्रता करे नहीं, शीर की चपलता करे नहीं, सहसात्कार करे नहीं, अच्छा आहार अकेला भोगवे नहीं, अन्य को दुःख होवे वैसे 4. अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवमहायजी जालाप्रसादजी *
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________________ TU 173 सूत्र-द्वितीय-संवरद्वार 4.3 दशमङ्ग-प्रश्वव्याकरण पीलाकरं सावजं तहभोत्तव्वं जहसे, तइयंवयं नसीयइ, साहरण पिंडवाय / लाभेसुहुमे आदिण्णदाणवय नियम वेरमणे, एवं साहारण पिंडवाय लाभे समिइ जोगेण .. भावितो भवति अंतरप्पा निचं अहिगरण कणकरावण पायकम्माविरते दत्तमण्णुण्णाय उग्गहरुइ // 10 // पंचमगं साहम्मिए सुविणओपउंजियवो उवयारण पारणास विणओ पउंजियव्यो, वायण परियटणासु विणओ पउंजियन्वो, दाणग्गहण पुच्छणासुविण यपउं जियव्यो निक्खमण पवेसणास विणओ पउंजियव्यो,अण्णेसुय एवमाइएसु बहुसुकारणसतेसु खावे नहीं, आरंभ की प्रशंसा कर सावद्य बनावे नहीं, इत्यादि दोषों को टालता हुवा जैसे साधु के तीसरे व्रत में दोप लगे नहीं वैसे बहुत माधु के लिये लाया हुवा साधारण पिण्ड में यह सूक्ष्म अदत्तादान रहा हुवा है. इस से निवर्तनेवाला उक्त रीति अनुमार साधारण पिण्ड ग्रहण कर समिति युक्त सदैव आधेकरण रहेत स्वधर्मियों ने दी हुई आज्ञा युक्त ग्रहण करे // 10 // पांववी भाना साधर्मियों का विनय करना. ग्लानि, उपकारी, तपस्वी और ज्ञानी का विनय करना. वाचनावार्य-सूत्र पहाने पाले पास सूत्रार्थ ग्रहण 3 करते और ज्ञान की चिंतयना करते विनय करना. आना लाया हु। आहार वस्त्रादि स्वपर्मियों को देना, उन का ल. या हुवा ग्रहण करना. और भी प्रश्नादि पूछो, विजय पतो, गुरु के सर पे बाहिर 4884 दत्तव्रत नायक तृतीय अ ध्ययन 484 /
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________________ सू अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी विणओ पउँजियव्यो, विणओवितवो, तवोषिधम्मो, तम्हाविणओपउंजियन्वो, गुरुसुसाहु तवरसीसुय, एवं विणएण भावितो भवति अंतरप्पा निच्चं अहिगरण करणकरावण पावकम्म विरत्ते दत्तमण्णुण्णाय उग्गइरुई // 1 // एवं मिणसंवरस्सदारं सम्मंसचरियं होइ सुपणिहियं, इमेहिं पंचहिवि कारणेहिं माणवयणकाय परिरक्खिएहिं णिचं आमरणंतं वएसजोगोनियव्यो धिइमया मतिमया अणासवा अकुलसो अछिद्दो अपरिस्साइ असंकिलिट्ठो सव्वजिणामण्णुण्णाओ // एवं तइयं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं नीकलते, पीछा प्रवेश करते, विनय पूर्वक रहे. विनय आभ्यंतर तप है. बाह्य तप से आभ्यंतर तप का महात्म्य विशष है. विनय धर्म का मूल है इस लिये विनय करना, गुरु सुसाधु इत्यादिकों का विनय , करते हुवे. सदैव अधिक रग रहित बनकर तीर्थंकर की आज्ञा के अभिलाषी होवे // 11 // इस प्रकार इस संबर द्वार का सम्यक् रीति से आचरन करे, आचरण कर पालन करे, इस की अच्छी तरह रक्षा करे, जीवन पर्यंत उस का निर्वाह करे, आश्रव रहित, निर्दयता रहित, पाप आने के छिद्र रहित; कर्म की उत्पत्ति रहित परिणामों की मंक्लिष्टता रहित, इस का आराधन करने की आज्ञा श्री तीर्थकर भगवानने *दी है // 12 // इस प्रकार तीसरे संवर दार को स्पर्श कर, पाल कर, शुद्ध अतिचार रहित रख कर, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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________________ म 1-संवरद्वार तीरियं किटियं अणुपालियं अणाए आराहियं भवति // एवं गायमुणिणा भगवया पण्णवियं परुवियं पसिद्धं सिद्ध सिद्धिवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं, तइयं संबरदार सम्मत्तं तिबेमि // ततिइयं संवरदारं ज्झयणं सम्मत्तं // 3 // * * कीर्ति कर, जिनाज्ञानुसार पाल कर आराधक होवे. ऐसा ज्ञात नंदन श्री महावीर भगवानने सामान्य से कहा है, विशेष प्रकार कहा है, परिषद में प्ररूपा है, संसार से मुक्त हो सिद्ध स्थान प्राप्त करने की हित शिक्षा दी हैं. अच्छा स्थान कहा है, अच्छा प्रशस्त उपदेशा है. यह तीसरा संवर द्वार हुवा.॥इति संवर द्वार का तीसरा अध्ययन संपूर्ण // 3 // 418दत्तव्रत नामक तृतीय अध्ययन . दशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण . 4
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________________ 176 4. अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋपनी - ॥चतुर्थ-अध्ययनम् // जंबू ! ततोय बंभचेरं उत्तम तवनियम नाण दंसण चरित्त सम्मत्त विणय मूलं, जम्म नियमगुण पहाणजुत्तं,हिमवंत महंत त्तेयवंत,पसत्थ गंभीर थिमियमझं अज्जवसाहुजणा चरियं, मोक्खमग्गविसुद्ध, सिद्धिगइनिलयं सासयमव्यावाहं, मपुणब्भवं पसत्य, सोमं मुभं सिव मयल मक्खयकर,जतिवरसाररक्खियं सुचरियं,सुसमहियं,नवरिं मुणिबरेहि श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि o जम्बू ! अब मैं चौथा संवरद्वार ब्रह्मचर्यका स्वरूप कहता हूं. यह ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय इत्यादि गुणों का मूल है, अहिंसा नियम आदि प्रधानगुण युक्त है जैसे हिमवंत पर्वत सब पर्वतों में वडा और क्षेत्र की मर्यादा करने वाला है वैनी ब्रह्मचर्य व्रत सब व्रतों में प्रधान और सब व्रत की मर्यादा करने वाला है. यह प्रशस्त-प्रसंशा का स्थान है. 'गंभीर, निश्चल, मृदुता, ऋजनः, इत्यादि गुण संपन्न जो साधु हैं उन को आदरने योग्य है मोक्ष पथ विशुद्ध कर्ता है, सिद्धगात का स्थान शाश्वत, अव्यावाध, पुनर्भव रहित, प्रशस्त, सौम्य, शुभ, शिव और अक्षय जिसका दाता है, इन्द्रिय जीतने वाले यतियों ने उसकी रक्षा की है.यह अच्छा आचरने योग्य है,अच्छा | पदेश हुवा है. मुनिवर महापुरुष, धैर्यवतं,शूरवीर,धर्मवंत, और धृतिवंत इत्यादिगुणी विशुद्ध भव्य जनोने इस *कावाक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजा वालाप्रसाइजी*
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________________ 177 दशमाङ्ग-मश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय संवरद्वार महापुरिस धीर वीर सूर धम्मिय, धिइमता णयसूया, सुबिसुद्ध,भव्वंभव्वजणाणु समुचरियं, निसंकियं निब्भयं नितुसं निरापासं,निरुवलेवे,निव्वुइघरं,नियमविप्पकंप,तवसंयममूल दलियनेम्म, पंचमहव्वयसु रक्खियं, समिइगुतिगुत्तं, झाणवरकवाडसुकयरक्खणं, अज्झप्प दिण्णफलिहं सन्नद्दबद्धोच्छमिय तव दुग्गतिपहं सुगइपहं देसगंच लोगुतमंच वयणमिणं, ब्रह्मचर्य को कल्याण का करना ज नकर आचरन किया है, इस ब्रह्मचर्य व्रत में शंका स्थ न नहीं है. इस में किसी प्रकार का भय नहीं है, शुद्ध पान्यरूप है, सारभूत है, खेद रहित है, चित्त स्वास्थ्य का घर है, सच्चा अभिग्रह है, अन्य को कम्पाने वाला नहीं है, तपसंयम का मूल है, पांचो महावत की। रक्षा करने में राजा समान है, पांच ममिति तीन गुप्ति अथवा नववाड गुप्ति इत्यादि गुनों का रक्षण करने में अच्छे अर्गलवाला ध्यान रूप कपाट हैं. सन्नध बद्ध बने हुवे और शस्त्र धारन करनेव ले पापी जीव भी दुर्गति के अधिकारी बने हैं वे भी ब्रह्मचर्य के पालने से स्वर्गादि सुगति के अधिकारी बनते हैं. सब लोक में उत्तम व्रत ब्रह्मचर्य ही है. जैसे पद्म कपलों से आच्छादित पानी के सरोवर का पाली से रक्षण होता है 1 ब्रह्मचारी स्त्री पशुपंडग रहित स्थान में रहे, 2 स्त्री की कथा करे नहीं, 3 स्त्री के अंगोपांग नीरखे नहीं, 4 स्त्री पुरुष एक आसन पर बैठे नहीं, 5 भित्ति आदि के अंतर से विषय के शब्दसुने नहीं, 6 पूर्वकृत काम क्रीडा यादकरे नहीं.७ नित्य सरस आहार करे नहीं, 8 प्रमाणसे अधिक आहार करे नहीं और 9 शरीरका शगार करे नहीं. यह 9 बाड. 1. ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन 43
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________________ anamana .अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पउमसर तलाग पालियभूयं,महासगड अरगतुंब भूयं, महाविडम रुक्खखंधभूयं,महानगर पगार कबाड फलिह भूयं, रज्जु,पिणद्धोव इंदकेतु विसुद्धगेण गुणसंपिण,जमिय भग्गंमिहोइ सहासासवं, संभग्ग, महिय चूणिय, कुसलित पल्लट्ठ पडिय खंडिय परि सडिय, विणासियं विणय सीलतवनियमगुण समूह॥१॥तं बभभगवंतं, गहगण मक्खत में वैसे ही सत्र व्रत का रक्षण ब्रह्मचर्य व्रत से होता है. जैसे गाडे के पाइके आरे को मध्य की तुम्ब धारन करती है इस प्रकार ही सब व्रत का रक्षण के लिये शील व्रत है. जैसे महावृक्ष-शाखा, प्रतिशखा. युक्त बडा स्कंध आधारभूत होता है वैसे ही ब्रह्मचर्य व्रत झांति आदि धर्म को आधार भूत होता है, जैसे बहुत मनुष्य दि ऋद्धि से परिपूर्ण महा नगर का रक्षण करने वाला प्राकार के द्वार को अगलादि युक्त बडे दृढ कवाड होते हैं, वैसे ही संयमादि धर्म रूप नगर का रक्षा करनेवाला शील व्रत है. जैसे इन्द्र ध्वजा चारों तरफ अन्य अनेक छोटी ध्वजाओं से मुशोभित है। वैसे ही शील व्रत अनेक गुणों से सुशोभित हैं. ब्रह्मचर्य व्रत का भंग होने से सब व्रत का भंग होता है. जैसे फूटा घडा, मसला हुवा कमल, मन्थन किया हुवा दधि. चूर्ण किया चिना, बान से भेदित शरीर, क्षुब्ध हुवा पर्वत का शिखर, प्रासाद से नीचे पडा हुवा जैसे कलश, खंडित हुवा काष्ट दंड, कुष्ट रोगसे विगडा शरीर, और दावानल से जलाहुवा वृक्ष शोभते नहीं है तैसे ही मनुष्य, मनुष्यनी शील तप गुण के समुह रूप wwwwwwwwwana * पकापाक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ + - दशम -प्रश्नच्या हरण मूत्र द्वितीय-संवरद्वार + तारागणंच जहा उड्डुपती, 2 मणिमुत सिलप्पवालरत्तरयणागाराणंच,जहा समुद्दो, 3 वेरुलिओचेव जहा मणीणं, 3 जहा म उडोचेव भूसणाणं, 5 वत्थाणंचेव क्खोमजयलं, 6 अरिविंदचेव पुप्फजिटुं, 7 गोसीसंचेव चंदणाणं, 8 हिमवंतोचेव ओसहीणं, 9 सीउदाचेव निन्नगाण, 11 उदहीसु जहा संयंभूरमण, 11 रुयगवरेचेव मंडलिय पव्वया गंपवरे, 12 एरावणचेव कुंजराणं, 13 सीहो जहा मिगाणं, पवरो 14 पन्नगाणचेव वेणुदेवे, 15 धरणे जहा पणगिंदराया, 16 कप्पाणचैव बंभलोए, 17 सभासुयजहा वृक्ष का भंग करने से शोभिते नहीं हैं // 2 // ब्रह्मचर्य की उपमा भगवानने इसपकार कही है.१ जैसे ग्रहगण नक्षत्र और तारागण में चंद्रमा जेष्ठ होता है, २मणि, मौक्तिक, शील, मवाल, और रत्नोंबाला रत्नाकर में समुद्र, 3. मणियों में वैडूर्य मणि, 4 सब आभूषणों में मुकुट, 5 सब वस्त्रों में क्षोभयुगल वस्त्र.६सब पुष्पों में अरविंद कमल, 7 चंदन में गोशीर्ष चंदन, 8 सब प्रकारकी औषधियोंवाले पर्वत में हिमवंत पर्वत, 9 सब नदियों में सीता नदी, 10 सब समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र, 11 सब वृत्त वैताहय पर्वतों में रुचक द्वीप में 1 रहा हुना रुचक पर्वत, 12 सब हाथियों में ऐरावण, 13 सब पशुओं में सिंह, 14 सुवर्ण कुमार देवता में वणुदेव, 15 नागकुमार देवता में धरणेन्द्र, 16 कल्प देवलोक में ब्रह्मदेवलोक, 17 सब सभाओं में सुधर्मा सभा, 18 सब स्थिति में लवसत्तम ( सर्वार्थ सिद्ध) देव की स्थिति, 19 सब दान में अभय दान, 7I man ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन Hit
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________________ 187 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनी श्रीअमोरु.ख ऋषिजी. भवेसुहम्मा, 18 ट्ठिइसु लयसत्तमव्व पबरा, १९दाणंचेव अमओदाणाणं, 20 किमिराओचेव कंबलाणं, 21 संधयणचेव बजरिसभे, 22 संढाणेचेर समचउरंसे, 23 ज्झाणेसुय परमसुकझाणे, 24 नाणेसुय परम केवलं पसिद्धं, 25 लेसासुय परम सुक्कलेसा, 26 तित्थगरचेव जहा मुणीणं, 27 वासेसु जहा महाविदेहे, 28 गिरिरायचेव मंदरवरे, 29 वणेसु जहा नंदणवणं पवरं, 30 दुम्मेसुजहा जंबू सुदसणा विस्सुय जसाजेसे नामेण अयंदवो, ३१तुरंगवइ गयवइ रहवइ नरवइ जहविसूएचेव राया, 32 रहिएचव जहा महरहगए एवं मणेगागुणा अहीणा भवंति, एकंमिबंभचेरे 20 सब कम्बलों में किरमजी रंग की कम्बल,२१ छ संघयनों में बऋषभ नाराच संघयन,२२ छ संस्थ नों में समचतुत्र संस्था न, 23 चार ध्यान में परम शक्ल ध्यान,२४ पांच ज्ञान में केवल ज्ञान,२५छ लेश्या में शुक्ल लेश्या,२६सब मुनियों में तीर्थकर, २७सब क्षेत्रों में महा विदेह क्षेत्र, 28 सव पर्वतों में मेरुपर्वत२९ सब वन में नंदन वन,३०मत्र वृक्षों में जम्बू वृक्ष कि जिसके नाम ही यह जम्बूद्री कहायाहै, 31 जैसे घोडेका पति है हाथी का पति, रथका पाते व मनुष्यों का पति महाराजाविख्यात वही चारो प्रकारके व्रतसे शीलवत प्रध नहै. ओर ३२मी जेसे सब रथों में वासुदव का महारथ शड का परभव करने में प्रधान हे ता है वैसे ही शील रूप मह्मरथ * *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी घालाप्रसादजी *
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________________ 4. 181 ॥२॥मिय आराहियं चयमिणं,सच्चं साँलं तो विणओय संजमोय खंती गुत्ती मुची, तहेव इलोइय परलोइय जसोय कित्तीय पचओय तम्हानिहुएणं बभचेरचरियव्वं,सवओ विसुदं जावजीवाए जाव से अढि संजओति एवं वयं भणियं भगवंत संचम॥३॥गाथा॥पंच क महन्वय सुव्वयमूलं, समणमणाइल साहुचिण्णं // बेरवेरमण पज्जवसामं सवसमुद्द महादहितित्थं // 1 // तित्थं करेहिं सुदेसिय मग्गं, नरगतिरित्थ विवज्जिय मग्गं // मर्थ भी कर्म रूप शोका पगभव करने प्रधान हेता है, यह बत्तीस प्रकारकी उत्तम उपमामे ब्रह्मचर्यव्रत आहीन अ प्रतिपूर्ण होताहै.॥२॥ जिसने केवल एक ब्रह्मचर्य व्रतकी आराधनाकी है उसने हिंसादि सब व्रत की, बारह प्रकारके तपकी, दश प्रकारके विनयकी, सतरह प्रकार के संयमकी क्षमांदि दशधर्म की, मन वगैहर तीन गुप्त मुक्तिकी तथा इसलोक परलोक और यश कीर्वि की आराधना की है. उक्त सब कतव्यों से ब्रह्मचारी विश्वासनीय है इस लिये निश्चलपने सब प्रकार से मन वचन और काया के योगों की विशुद्धता पूर्वक जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना / 3 // पांच महा व्रत और अणुव्रत गुणवतादि के मूल भूत ब्रह्मचर्य है.. इस का आचरन श्रेष्ठ गुणवाले साधुओंने किया है. यह ब्रह्मचर्य व्रत वैर विरोध उपशमाने में पर्यवसान / ॐ रूप है. और सब समुद्र में महोदधि के तीर्थ-कीनारा रूप है // 1 // इस ब्रह्मचर्य रूप मुकि पथ का चार्यकर भगवान ने अच्छा उपदेश दिया है. यह नरक और तिर्यंच यों दोनों गति का मार्ग का निधन दशमान प्रश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय-संवरद्वार 48 ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन - -
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________________ - minainian सव्ववित्त सुनिम्मिय सारं, सिद्धिविमाण अवंगयदारं // 2 // देव नरिंद नमंसिय पूर्य, सन्वजगुत्तम मंगलमग्गं // दुद्धरिसंगुन नायकमेकं, मोक्खपहस्स बडिंसग भूयं // 3 // 4 // जेण सुद्ध चरिएणं भवइ सुबभणो सुसमणो सुसाहु, सुइसी सुमुणी सुसंजए, सएवभिक्खु जोसुद्धं चरतिबंभचेरं, इमंच रइ राग दोस मोह पवड्डणकर किंमज्झपम यदोस, पसत्थसीलकरणं, अभंगणाणिय तेलमजणाणिय अभिक्खणं कांक्ख सीस कर चरणं वयण धोवण संवाहणं गायकम्म परिमद्दणाणलेवण चुण्णवास करनेवाला है, सब प्रकार की शारीरिक मानसिक पवित्र का सार भूत है, इस ब्रह्मचर्यने सिद्ध गति के और वैमानिक देव गति के द्वार खुल्ले कर दिये हैं // 2 // ब्रह्मचारी को देवता और मनुष्यों के राजा पूजते हैं. मब जगत् में उत्तम और मंगल करने का यह ही मोक्ष पंथ किप्ती भो देव दानव अथवा मानव से पराभव नहीं पासकता है यह एक अद्वितीय गुन है और सब गुन में यह ब्रह्मचर्य मुकूट समान है 3 // 4 // जिसने ब्रह्मचर्य व्रत का अच्छी तरह आचरन किया है उस को ही सब शुद्ध साधु कहते हैं. वही अच्छा है शिष्य है, वही मुनि है, वही संयति है, वही कर्म शत्रू विदारनेवाला भिक्षु है. जो ब्रह्मचारी होते हैं. वे राग द्वेष और मोह की वृद्धि करनेवाला अहंकार प्रमाद इत्यादि दोषों का त्याग कर प्रशस्त शील व्रत का 16 पालन करते हैं. घृत, मक्खन, तेलादिक शरीर को मर्दन करना, स्नान करना, वारंवार हाथ पांव मुख 4. अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुरळाला मुखदेवसहायजी बालाप्रसादजी *
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________________ धूवण सरीर परिमंडण वाउसिक नह वत्थ केस समारवणाइय,हासय भणिय नह गीय वाइय नडनदृग जल मल्ल पेच्छण वेलंवग जणिय सिंगारागाराणिय, आण्णाणिय एवं माइयाणि, तव संजम बंभचेरोवघाइयाई, अणुचरमाणेणं बंभचेरं, वज्जेयवल्याई सव्वाइं सव्वकालं भावेयव्यो भावइ अंतरप्पा इमेहिं तवनियम सील जोगेहिं निच्चकालं // 5 // किंते अण्हाणग, अदंतधोवण सेयमलजल्ल धारण, मूणवय कसलोएय खम दम अचेलग खुप्पिवास, लाघव सीउसिण कट्टसिज्जा और कांख धोना, शरीर का मर्दन, गात्र को परिश्रम देना-अर्थात् व्यायाम करना, परिमर्दन करना. कुकुप केसरादि लगाना, आवरादि चूर्ण और असरादि वास धूप से शरीर का मंडन करना, नख वस्त्र, केशालंकार करना, हास्य मस्करी इत्यादि करना, गीत गाना,वादिव बजाना,नृत्य नाटक देखना,भांड कुचेष्टा करना, श्रृंगार रस का घर बनाना, और भी इस प्रकार के तप संयम और ब्रह्मचर्य का घात करने वाले, ऐसे दोषों का सेवन ब्रह्मचारी कदापि नहीं करते हैं. इस प्रकार सब काल भाव मे भावता हुवा तप नियम शील सहित प्रा // 5 // वे तप नियम कैसे हैं ? 1 स्नान करना नहीं 2 दांत धोना नहीं 3 प्रस्वेद और 1/4 प्रस्वेद मीश्रित मैल युक्त शरीर रखना 5 मौन धारन करना. निर्थक वार्तालाप करना नहीं 6 मस्तक, 11/के दाढी मूछ के बालों का लोच करना, 7 प्राप्त उपसर्ग परिसह सहन करना, 8 आत्मा को दमन करना है'। दशमाङ्ग प्रश्नध्याकरण सूत्र-द्वितीय-संवरद्वार : ब्रह्मचर्य नायक चतुर्थ अध्ययन 42-
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________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. भूमिसे नेसेज परघरपवेस, लदावलद्ध माणावमाण निंदण दसमसगफास नियम तव गुण विणाय माइएहिं, जहासे थिर तरंगहोइ. बंभचेरं // इमंचअबंभचेर वेरमण परिरक्खणट्टयाए पावयणं भावया सुकहियं पेचाभाविक आगमेसिभदं सुद्ध नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तर सव्वदुःक्ख पावाणं विऊवसमणं // 6 // तस्स इमा पंच भावणाओ चउत्थं वयस्स हंति अबंभचेर बेरमण परिरक्खणट्टयाए // पढमं 19 अल्प वस्त्री व नग्न रहना, 10 क्षुधा तृषा सहन करना, 11 लाघवता-अल्प उपाधि मे संयम में रहना, 12 / शीत ऊष्ण सहन करना, 13 काष्ट शैय्या अथवा भूपिपर शयन करना, 14 गृहस्थों के घर भिक्षाके लिये प्रवेश करना, 15 आहार की प्राप्ति और अप्राप्ति. मान सन्मान मीले अथवा नहीं पीले और निन्दा अथवा प्रशंसा होवे तो वहां समभाव रखना, दंश मच्छर का परिषद सहना, इत्यादि नियमों का पालन ब्रह्मचरी को करना चाहिये. अनशनादि तप. समता इत्यादि गुण, आचार्यादिकका दिनय, वगैरह कि जिमसे ब्रह्मचर्यमें स्थिरता होवे वैसे रहना. ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये भगवानने यह अच्छा शास्त्र कहा है, परभव में सुखकारी आगामिक काल में कल्याणकारी, शुद्ध न्याय का पंथ, अकुठल-सरल और सब दुःख उपशमानेवाला कहा है // 6 // इस व्रत की रक्षा करने के लिये पांच भावना कही है-प्रथम भावना-शैय्या, आसन, घर द्वार, अंगन, चांदनी, गवाक्ष, शाल, अवलोकन स्थ न पीछे का घर, प्रासाद, शरीर का मंडलाकार, * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादी *
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________________ mmmnaammam 186 दशमाङ्ग-मनमाकरण पूत्र-द्वितीय संवरद्वार 48 सयणासण घर दुवार अंगण आगास गवक्ख साला अहिलोयण पच्छ्वत्थुग पासाहण कण्हाणिका वगासा अवगासा जेय वेसियाणं अत्थतिय जत्थ इत्थियाओ अभिक्खणं मोह दोस रइराग वड़णाओ कहितिय कहाओ बहु विहाओ तेहु वजणिज्जा इत्थि संसत्त सकिलिट्रा, अण्णेविय एवमाइय अवगासा तेहुबजणिजा, जत्थमणो विन्भमोहा भंगोवा भंसणावा अंडरुदंच हुजझाणं तं तंच वाजिजवज भीरू अणायतणं अंतपंत वासी एवमसं सत्तवा सवसही समिइ जोगेणं भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण विरएगाम - ब्रह्मचर्य नायक चतुर्थ अध्ययन आकाश और आश्रयस्थ न इत्यादे स्थान में जहां स्त्री रहती हं.वे और वहां वारंवार मोह दोष अज्ञान वा कामराग और विरह की वृद्धि हाती. हो अथवा जहां स्त्रियों के शृंगार की कथा होवे, वैसे स्थानका सग Eकरना, स्त्रीके समर्ग से परिणाम मलिन होते हैं. और भी जहां मनविधान को प्रप्त होरे, ब्रह्मचर्य का भंग होके, व्रत भ्रष्ट हव आर्यध्यान शैद्रध्यान की प्राप्ति होवे वैसे स्थान का भी त्याग करना. ऐमे}. स्थानों से बचता हुआ ब्रह्मचर्य की रक्ष के लिये जहां विषयरोगे की उत्पत्ति होवे नहीं वैसा अंत स्थान, स्त्री आदिसे सेवित नही होवे वैसा पंत स्थान, और अखण्डित वैराग्य भार वारहे वैसा आश्रयों सामिति र गों के भार से भवता हुआ अंगत्या को, किसी पदार्थ में लुब्ध नहीं होता हुआ, इन्द्रिय धर्म से /
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________________ अथे अनुवादक-बाळब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी धम्मे, जितिदिए बंभवेरगुत्ते // 7 // बिइयं नारीजणस्त मझे नकहेयव्वा कहा विचित्ताविचित्तोय विलीसंसपउत्ता हास सिंगार लोइय कहव्वं मोहजणणी, न आवाह विवाहवरकहाविब, इत्थीणंवा सुभग दुब्भगकहा, चओसटुिंच महिलागुणाणंच नदेस जाइ कुल रूव नाम, ने वत्थ परिजण कहाओ, इस्थियाणं अण्णाविय एव माइयाओ कहाओ सिंगार करुणाओ तव संजम बंभचेर नकहेयव्वा नसुणियव्वा निवृतता हुआ और इन्द्रियों के विषय का जय करता हुआ ब्रह्मचर्य की गुप्ति युक्त रहे // 7 // दूसरी भावना-केवल स्त्रियों के परिषदामें कथा उपदेशाकरे नहीं, विचित्र प्रकारकी स्त्रियों की चेष्टाकरे नहीं, गर्ववती. स्त्रि या विषया अभिलाषी पुरुष का अनादर करती है उसकी तथा नेत्रादिक के षिकार वाली इत्यादि प्रकार की कथा करे नहीं. मंदरम, शृंगार बस मोह उत्पन्न करे वैमी कथा करे नहीं. स्त्रियों को पिता के घर से लाना. लग्न करना, विवाह करना इत्यादिक कथा. स्त्री के सौभाग्य की कथा, दुर्भाग्य की कथा, स्त्री के 64 गुन की कथा, लावण्यता की कथा, पिंगल देश की पद्मिनी आदि जाति की, नागकन्यादि कुलकी, गौर वर्णादि रूप की, नामप्रिया वल्लभादिक की, वस्त्र. लेंधा चोली आदि की परिवार चीट आदिक की कथा करे नहीं, ऐसी कथा तथा विरह के शब्दों वाली कथा ब्रह्मचर्य का घात करने से बाली होती है, वारंवार घात करने वाली होती है इस से ब्रह्मवारी एसी कथा कदापि करे नहीं, *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी चालाप्रसादजी*
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________________ 4. दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार4.1 नचिंतयब्वा, एवं इत्थिकहाविरइ समिइ जोगेण भविओ भवइ, अंतरप्या आरययणं विरयगामघम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते // 8 // तइयं नारी गंहसियं भागय चिट्ठिय विप्पे क्खिय गइ विलास कीलियं विवोतिय नह गीय वाइय सरीर संटूण वण्ण कर चरण नयण लावण्णरूव जोवण पयोधराधर, वत्थालंकार भूष गाणिय, गुज्झोवकासियाई, अण्णाणिय,एवमाइयाणि तव संजम बंभचेरघाओ वधाइयाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं नवखुप्ता नमणसा नवयसा पत्थेयब्वाइं पावकम्माइं,एवं इत्थिरूवविरइ, ब्रह्मचर्य नायक चतुर्थ अध्ययन अन्य के पास ऐसी कथा श्रवण करनान ही इतनाही नहीं परंतु इस प्रकार का मन में कल्पा मात्र भी करे नहीं. इस तरह स्त्रियों की कथा से विरक्त बना हुवा अरक्त भाव से इन्द्रियों के विषय से विरक्त बना हुवा जितेन्द्रिय बनकर ब्रह्मचर्य की गुप्ति सहित रहे. // 6 // तीसरी मापना-स्त्री का हंसना, बोलना, अंगचेष्टा करना, वक्र देखना, ललित गति से चलना, विलास क्रीडा करना, पूर्वोक्त नृत्य गीत आदिक्रीडा करना और वीणादि बजाना, शरीर के अंगोपांग का संस्थान, वर्ण, 3 ॐ हाथ, पांव, आंख, लावण्यता, रूप, यौवन, पयोधर, अधरोष्ट, वस्त्रालंकार, भूषण, गुह्य प्रदेश, स्तन, * जघन्य, केश वगैरह अंगोपांग तथा इन सिवाय और भी जो तप संयम का घातक होवे उसे ब्रह्मचारी / -
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________________ 188 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा, आयारमणं विरय गामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते // 9 // चउत्थं पुवरय पुव्व कीलीय पुव्वसंगंथसंथुया, जे ते आवाह विवाह चोलकेसुय तिहीसु जहन्नेसु उस्सवेसुय, सिंगारागार चारुवेसाहि. हावभावलालिय वित्येव विलास सालिणीहिं अनुकुल पेमाकाहिंसद्धिं अनुभूया सयण संपयोगा उउ सुहवर कुसुमसुरभी चंदण सुगंधबर वासधूव सुह फरिस वत्थ भूसण गुणांववेया, रमणिज्जा उज्जगेज पउर,नहगीयग जल मल्ल मुट्ठि गवेलंवग कहग पवग लासग आइक्खग * देखें नहीं, वचन से प्रार्थना करे नहीं, और मन से भी प्रार्थे नहीं. यो स्त्री के रूप से निवर्त हुवा अंत-cm Eरात्मा को सक्ति भावमे भावता हुवा, आक्त भावसे इन्द्रियके विषयमें विरक्त बना हुवा, ब्रह्मचर्य की गुप्ति महित रहे // 9 // चौथी भावना-पहिले भोग अवस्था में की हुई संसार क्रीडा, रते सुख, श्वशुर कुल संबंधी संघ, आप, संस्तव, पिता पक्ष से स्त्री को बोगती वक्त, पीछे पहुंबाते वक्त कीया हुवा वर्तालाप, शिखा रखना, मदन, त्रयोदशी आदि की क्रीडा, नागादिक की पूजा में, कौमारिकादिक के उत्सव में, शृंगार के आगर रूप मनोहर वेष धारन करनेवाली हाव भाव और विलास वारंवार बताकर काप प्रदीप्त करने में इतने प्रकार में लीन बनी हुई अनुकूल शयनादि युक्त, ऋतु संबंधी अलग 2 प्रकार 1+के सुखे.पभोग, फुलों का शृंगार, भुरभिगंध, विलपन, चंदनादि सुगंध, प्रधान धूप का डालना, मुखकारी / * प्रकाशक-राजाबहादुर लाछा सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ 4दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवर द्वार लंखमख तुणइल तुंबवीणिय तालायरपर करणाणिया,बहुणिमहुर सरगीयवाराइं सुरसराई अण्णाणिय एवमायाणि तव संजम बंभचेरं घाओवघाइयाई अणुचरमाणणं बंभचेरं, नाताई समण लब्भाद, नकहेउ नविय सुमायरिउजे,एवं पुव्वरय पुन्चकीलियं विरइ समिइ जोगेण भाविओ भावइ अंतरप्पा आरय मणेण विरइ गामधम्मे जितिदिए बंभचेरगुत्ते // 10 // पंचमंग आहारपाणीय निद्ध भोयण विवजओ संजए सुसाहु, वगय / खीर दही सप्पी नवनीय तेल गुल खंड मच्छडिय महु मजं मंस खजग विगइ परिचत स्पर्श, वस्त्र भूषण आदि अनेक प्रकार मन को भमानेवाले हैं. गीतों का सुनना, मृत्य देखना, खुमी बन नय करना, मल्ल युद्ध करना, मुष्टि युद्ध करना, मंड चेष्टा, कुकथा, श्रवण, राश रमना, शुभाशुभ हाल कहना, लख वांसान का खेल, चित्रों बताना, तृणा वादित्र बजाना, वीणा बजाना, तालियों पाडना, बहुत प्रकार के मधुर मिष्ट नीत, और नृत्य करना, इत्यादि कार्य ब्रह्मचर्य की बात करनेवाले होते हैं, इस लिये ऐसे कार्य प्राप्त होने पर भी ब्रह्मचारी को देखना नहीं. इन का स्परण मात्र भी करना नहीं. इस तरह पहिले की हुई क्रीडा से निवर्तता हुवा, अंतरात्मा को समाधि भाव से भावता हुवा, इन्द्रियों के विषय से निम्ती हुवा ब्रह्मचर्य की रक्षा करे. // 10 // पांचवी भावना अच्छे साधु स्निग्ध आहार कि जो, काम वर्धक होवे उस का त्याग करे. और भी दुध, दहि, मकखन, घृत, तेल, गुड, सक्कर, मिश्री, शहद, / Hit ब्रह्मचर्व नामक चतुर्थ अध्ययन
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________________ - *पकाशक-राजाबहादु 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलक ऋपित्री कया हारा नदप्पणं नबहुसो ननितिक नसायसूपाईंक न खद्ध तहा नभोत्तम्व, जहा से जायामायाए भवइ, नयभवति विन्भमो भंसणाय धम्मस्स, एवं पणिहारा विरइ समइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आहय मणविरय गामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते // 11 // एवं मिणं संवरस्सादारं सम्मं सवरियं होइ सुप्पणिहियं,इमेहिं पंचहिकारणेहिं मणवयण काय परिरक्खिएहिं निच्चं आमरणंतंच एसो जोगो नेययो, धिइमया मइमया अणासवो अक्कलुसो अच्छिद्दो अपरिरसाती असकिलिट्ठो सुद्धो, सव्वजिण मण्णुग्णाओ॥ मदिरा, माम वगैरह विगय का त्यग करे. काम पर्दत होवे वैमा आ.र करे नहीं. एक दिन में वारंवार आहार करे नहीं, सदैव सरस आहार करे नहीं, सालन दाल विशेष भोगवे नह, जिप्स आहार से ब्रह्मचारी की यात्रा मात्रा का निर्वाह होवे वैसा आहार कापीका चित्त अशक्त होवे वैसा के फी, और वीर्य वर्धक आहार भोगवे नहीं. इस प्रकार स्निग्ध आहार का त्याग करने वाला अंतरात्मा को समाधि भाव से भावता हुआ, और इन्द्रियों के विषय से निवर्तता हुआ ब्रह्मचर्य व्रत सहित रहें. // 11 // इस तरह इस संवर द्वार को सम्यक् प्रकार से आचरे, प्रधान निधान की तरह रक्षा करे. उक्त प्रकार के पांच भावनाका से मन वचन और क.या के योगों से रक्षण करता * हायजीवालाप्रसादजी*
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________________ एवं चउत्थं संवरदारं फ सियं पालियं सोहियं तीरिय कीट्टीयं, आराहियं अगाए अणुपालियं भवइ॥एवं गायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्धिवर ससणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं चउत्थ संवरदारं सम्मत्तं तिबेमि // इति चउत्थं संवस्दारज्झयणं सम्मत्तं // 4 // * * * * 19. m दामाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार 488 हुआ इस को जीवन पर्यंत पाले. धृतिवंत बुद्धिवंत इसे अनाश्रवका स्थान. कलुष्यता रहित पाप छिद्र रहित परिश्रा रहित जानकर पाले, शुद्ध रखे पार पहुंचावे, कीर्ति युक्त आराधे, और जिनाज्ञानुमार में आराधक होवे, श्री ज्ञाताकुल नंदन श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामीने प्ररूपा है. कहा है और प्रसिद्ध किया है. यह सिद्ध स्थान प्राप्ती का प्रधान शामन है. अच्छा उपदेश है,प्रधान शसन है. अच्छाउपादेष युक्त और प्रशस्त हैं. यह चौषा संवर द्वार संपूर्ण हुआ. इति संवर द्वार का चौथा अध्ययन संपूर्ण हुआ॥४॥ 480 ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन +8 - -
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________________ // पञ्चम अध्ययनम् // है . जंबू ! अपरिग्गहं संवुडेय समणे आरंभ परिग्गहाओ विरते विरए कोह माण माया लोभाओ // 1 // एगे-असंजमे, दो चेव रागदौसा, तिन्नियदंडा, गारवाय, गुत्तीओ तिन्निथ विराणाओ, चत्तारि-कसाया-झाण-सन्न!-विकहा-: सहायहुंति चउरो, पंच किरियाओ-समितिइं-इंदिय-महव्वयाई, छज्जीवनिकाय छच्चलेसाओ, सचभया, अट्ठमया, नवचेव बंभचेर गुतीओ, दसप्पमारेय समणधम्मो,, श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से ऐमा कहते हैं. कि अहो जम्बू ! पांचवा संवरद्वार अपरिग्रह का स्वरूप मैं कहता हूं निष्परिग्रही साधु षद्काया के आरंभ से और बाह्य परिग्रह धन धान्यादि, आभ्यंतर परिग्रह क्रोध पान माया लोध इत्यादि से निवर्ते हुए हैं. // 1 // आगे निष्परिग्रही के लक्षण कहते हैं.११ 3. एक प्रकार असंयम, 2 दो प्रकार के बंध- राम बंध और देष बंध, 3 वीन दंड-मनदंड, वचनदंड और काया दंड. तीन गर्व ऋद्धि वर्ग, रस गर्व और साता गर्व. तीन गुप्ति-मन गुप्ति, मचन गुप्ति और काया | गुप्ति. तीन विराधना-ज्ञान विराधना, दर्शन विराधना और चरित्र विराधना. 4 चार काय-क्रोध, 11बान, माया, और लोभ. चार ध्यान-आत. सैद्रा धर्म और शुक्ल चार संज्ञा-माहार, भय. कर अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - पकाशक-राजाबहादुर काला मुखदेवसहायणी ग्वालाप्रसादजी.
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________________ इक्कारसय उवसगाणं पडिमा,बारसय भिक्खुपडिमा,तेरस किरिया द्वाणाए,चउदस भयगामा मैथुन और परिग्रह, 5 पांच किया-कायिकी, अधिकरण की, प्रद्वेष की, परितापना की और प्राणातिपात की, पांच ममिति-ईर्या समिति, भाषा समिति, एपणा समिति, आदान मंडपत्त निक्षेपना समिति और उच्चार प्रस्रवण परिस्थापनीय समिति, पांच इन्द्रिय-श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसना और स्पर्श पांच महा व्रत अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य और निर्ममत्व, 6 षटू जीव काया-पृथी, अप, तेउ' वाय वनस्पति और त्रस, छ लेश्या-कृष्ण; नील, कापोत, तेजो, पन और शुक्ल // 7 सात भय / Bइसलोक का भय, परलोक का भय, आदानभय, अकस्मात भय, आजीविका भय, मृत्यु भय, और पूजा लायाभय // 8 आठ मद-जाते, कुल, बल, रूप, लाम. तप और ऐश्वर्य का मद॥९ नव वाड ब्रह्मचर्य की खा पशु पंडग रहित स्थान भोगवे, खोकी कथाकरे नहीं, स्त्री के अंगोपांग देख नहीं, स्त्री साथ एक आसन बटे नहीं, भीति आदि के अंतरसे भी क्रीडा के शब्द श्राणकरे नहीं, पूर्वके काम का भोग स्मरण करे नहीं नित्य सरस आहार को नहीं. क्षुधा उपरांत आहारकरे नहीं, और शरीर का श्रृंगार करे नहीं, // 50 दश प्रकार माधु का धर्म-क्षमा, निर्लोभता, ऋजुता, मृदुता, लघुता, सत्य, संयम, तप, ज्ञान और ब्रह्मचर्य, // 11 अग्यारह श्रावक की प्रतिमा-१ सम्यक्ष, 2 व्रत 3 सामायिक, 4 पौषध, 5 नियम, 6 ब्रह्मचर्य 7 सचित त्याग,८ अनारंभ 9 पेमारंभ, 10 उद्विहरंभ ओर 11 श्रपणभूत // 12 बारह प्रक र भिक्षुकः प्रति / ङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय वरद्वार 434 निष्परिग्रह नायक पंचम अध्ययन 444
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________________ पन्नरस परमाधम्मिया, सोलस गाहासोलसाय, सत्तरस असंजमे, अट्ठारस अबंभे, 194 बारब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषि है पहिली एक महिने तक एक दात आहार की एक दात पानी की लेवे, यावत् सातवी प्रतिमा में सात महिने तक सात दात आहार की सातदात पानी की लेवे. आठवी. नववी और दशपी में सात दिन तक चौविहार एकांतर उपवास करे. और विचित्र प्रकारके आसन करे, अग्यारवीमें छठ भक्तकरे आठ प्रहारका कायोत्सर्ग करे और बारहवीमें अष्टम भक्त तेला कर एकरात्रि श्मशान में कायोत्सर्ग करे // 13 तेरह क्रिया अर्थादंड,अनदंड,हिंसादंड,अकस्मात,दंडदृष्टि विपर्यासिया, मृषावाद, अदत्तदान,आध्यात्मदंड,मान प्रत्यायक माया प्रत्ययिक, मित्र द्वेष प्रत्यायक, लोभ प्रत्यायक, और ईर्या पथिक // 14 चौदह प्रकार के जीव-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय इन सात के पर्याप्त और अपर्याप्त.याँचउदा / / १५पन्नरह परमा धर्माकदेव कहे हैं. अम्ब, अम्बरश,साम,संबल, रुद्र,वैरुद्र का, महाकाल, असीपत्र, धनुष्य, कुंभ, वालु, वैतरणी,खरस्वर और महाघोष. // 16 सुत्रकृतांग के सोलह अध्ययन-समय, बेताली, उपसर्ग, स्त्री परिज्ञ, नरक विभूति, वीरस्तुति, कुशोल परिभास, वीर्य धर्म, समाधि, मोक्ष मार्ग, समवसरण, यथातध्य. निग्रन्थ, यमवती और गाथा // 17 असयम सतरह प्रसार के-पृथ्वी, पानी, अग्नी, हवा, वनस्पति द्वन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, और अजीव काय इन की यतना नहीं करे. प्रेक्षा. उपेक्षा, प्रमार्जनः परिस्थापना,मन,वचन और काया का असंयम // 18 अठारह प्रकार के * कापाक-राजाबहादुरळाला सुखदेवमहायजा ज्वालामसादजी*
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________________ - एगुणवीसइनाय,विसंअसमाहिट्ठाणा,एगवीसाए सबलाय,बावीसं परिसहाय,तेवीसए सुथ 125 दशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण मूत्र द्वितीय-संघरद्वार 481 अब्रह्म उदारिक शरीर आश्रीय मैथुन सेवे नहीं सेवावे नहीं और सेवतेको अच्छा जाने नहीं मन से वचन से और काया से. ये नव भेद उदारिक से हुए वैसे ही नब भेद वैक्रेय का जानना. 19 उन्नीस ज्ञाता सूत्र के अध्ययन-उत्क्षिप्त मघकुमार का धन्ना सार्थवाह का, मोर के अण्डे का, कूर्य काछवे का, सेलक राजर्षि का सतम्बडी का, रोहिनी का, मल्लिनाथ का, माकंदिय पुत्र का, चंद्रमा का, दावद्रव वृक्ष का, सुबुद्धि प्रधान कानंदमणियार का, तेतली प्रधान का, नंदीफल का, द्रौपदी का, आकीर्ण जाति के घोडे का, सुसुमाल / की, का और कुंडरिक पुंडरीक का // 20 असमाधि के स्थानक-शीघ्रगति से चले, विना पूंजे चले, पूजे हुवे * संस्थान में चले नहीं, पाट पाटला मर्यादा से अधिक भोगवे, गुरु आदि के सन्मुख बोले, स्थविर की बात चितवे. किसी भी जीव की घत चितवे, क्षण 2 में क्रोध करे, निदाकरे, निश्चरकारी भाषा बोले, नया *वेश करे. पहिले का क्लेश की पुनः उदीरण करे. मंचित्त रज से भरे हुवे हाथ पांव बिना पूंजे रखे,अकाल में स्वाध्याय करे, क्लेश करे, प्रहर गत्रि गये पीछे बडे 2 शब्द से बोले, चारतीर्थ में फूट डाले, अन्य को दुःव दायी होने वैसे वचन बोले, सूर्यादय से सूर्यअस्त पर्यंत खाया करे. और एषणा में प्रमाद करे / 121 इक्कीप सबल दोष-हस्त कर्म करे, मैथुन सेवन करे, रात्रि भोजन बरे, आधार्मिक 'आहार भोगवे, शैय्यांतर पिंड भोगवे, उद्देशिक आहार भोगवे, साधु के लिये मोल लाया हुषा 2- निष्परिग्रह नामक पंवम अध्ययन 48+ -
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________________ गहझपणा,चउवासविहादेवा,पग्णवीसारभवणा,छवी दसाकप्पावविहाराणं ढेसकाला, अथवा मन्मुख लाकर दिया हुवा आहार भोगवे, वारंवार व्रत भंग करे. छ मास में संप्रदाय बदले, एक मास में तीन बडी नदियों के लेपलगावे, एक मास में तीन माया स्थान सेवे, राजपिंड सो बलिष्ट आहार भोगवे, आकुटी ( जानकर ) जीवों का घात करे, आकूटी मृषा वाले, आकुटी चोरी करे, आकूट सचित्त पृथ्वी पर बैठे सोरे, सचित्त शिला पाषाण पर बठे. माणभूत जीव व मत्व पर मोवे बैठे, आकूटी मूल कंद बीन हरिकायादिक का आहार करे. एक वर्ष में दश बडी नदियों का पलगावे एक वर्ष में दश माया स्थान का सेवन करे और सचित्त रज से भरे हुवे हाथों से आहार पानी ग्रहण कर भोगवे, // 22 बाइस परिषह-क्षुधा परिषह, पिपासा परिषह, शीत ऊष्ण, दंश मशक, अचेल, अरति, स्त्री, चर्या, निमद्या-बैठने का, शैय्या, आक्रोशः वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण स्पर्श, जल, पेल, सत्कार पुरस्कार परिज्ञा.अज्ञान और दर्शन का परिषद // 23 तेवीस मूत्र कृतांग मूत्र के अध्ययन जिन में सोलह पाहिले कहे सो और दूमरे श्रुतस्कन्ध के सात कहते हैं. पुष्करणी,का क्रिया स्थान का आहार प्रज्ञा,प्रत्याख्या मन्त्रा, अनगार श्रुत, आर्द्र कुमार का और पेढाल पुत्रका // 24 चौवीस प्रकार के देव-१: भवनपति,८वाणव्यंतर,५ज्योतिषी और वैमानिक // 25 पांच महाव्र की पच्चीस भावना. (संवर द्वार के पांचों अध्ययन के अन्त में कहा) २६छवीस 7अध्ययन कहे हैं. दशाश्रुत स्कंध के 10, व्यवहार सूत्र के 18, और वृहद् कल्प के 6, यों छब्बीस अध्ययन 4अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखव-हायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ सत्तावीसा अणगारगुगा, अट्टवीसा आयरकप्पा, पावसू पाएगुणतीसा, तीसंमोहणियट्टाणा, ङ्ग-नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार - हुए॥२७ सत्ताइस साधु के गुन-पांच महावन पाले, पांच इन्द्रिय जीते,चार कषाय टाले,यह१४और भावसत्य, 197 करण सत्य, जोग सत्य, मन समाधारन, वचन समाधारन, काया समाधारन, ज्ञान संपन, दर्शन संपन्न चारित्र संपन्न, सम्पक प्रकार से वेदना सहे, समभाव से मारणांतिक कष्ट सहन करे, क्षमावंत और वैराग्य, चंत॥२८ अट्ठावीस प्राचार कल्प-अर्थात् आचार के 28 अध्ययन. 1 शस्त्र परिज्ञा,२ लोक विजय, 3 शीतो. प्णीया, 4 सम्यक्त्व, 5 आवंती के यावंती, धूर्ताख्य,७ विमोहाख्या,८ उपधान श्रुत,९महाप्रज्ञा (यह नवी प्रथम श्रुत स्कंध के) 10 पिण्डेपणा 11 शैय्या 12 ईर्या 13 भाषा 14 वस्त्रेषणा 15 पाषणा 116 अवग्रह प्रतिमा 17-23 सात सत्त की 24 भावना और 25 विभुक्ति. य 25 आचारांग की / 26 उपधात्तिक, 27 अनुपातिक और 28 व्रतारोपण ये तीन निशिथ सूत्र के॥ 21 गुनतीस-पास 2. उल्कापात, 2 भूमिकम्प, 3 अंतरिक्ष, 4 निमित्त, 5 अंगस्फुरन, 6 स्वर 7 व्यजंन और लक्षण ये ८मूल सूत्र, इन 8 का अर्थ और ८की वार्तिका यों २४हुए, २२गंधर्व कला २६नृत्य शास्त्र, 271 / स्तु [पाक शास्त्र ] 28 औषध शास्त्र और 29 धनुर्विद्या // 30 ती महा मोहनीय कर्मबंध के भेद-१त्रम प्राणि को पानी में डुबोकर पानी रूप शस्त्र से मारे, 2 अप्स प्राणी के अशुभ अध्यवसाय से मस्तक पर. आई चपला बांध कर मारे, 3 अपने हाथ से जीवों का ग का रूंधन करे और गले श्वाश धुर्धराट म . * निष्परिग्रह नामक पंचम अध्ययन +8 ..
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________________ एगतीसाए / सिद्धाइगु यं, बतीसाए जोगसंगएहिं, तेत्तीसासायणाए, 198 बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - करता होवे वैसी स्थितिमें म.रे, ४अग्नि प्रदीप्त कर अथवा कोठादिकके धन से रुंध कर मच्छगदि जीवों को मारे, ५दुष्ट परिणामसे कम पाणके उत्तमांग (मस्तक) खङ्गादिकमे छेदन करे, 6 जैसे लूटेरे वैश्यादिक बनकर पथिक जन को मारकर हते हैं वैसे ही मुर्ख जन को देखकर हंसे अथवा दंडादि से मारने में आनंद माने, 7 गुप्त अनाचारवाला अपना दुष्ट आचार ढके; अन्य की माया से अपनी माया छिपावे. असत्य बोले और मूलगुण उत्तर गुण की घात करे, 8 स्वतःने ही ऋषि की धातकी होवे और जिनोंने घात नहीं की होवे उनका नाम बतलावे, ९जानता हुवा परिषदा में सत्य मृषा [मिश्र) भाषा बाले और क्रोध से निवर्ते नहीं. 10 राजा के विद्यमान नहीं होने पर उन की स्त्री तथा धनकी उत्पतिका नाश करे सामंत दिक में भेद डाले. उन की लक्ष्मी अपन आधीन करे, जब वे कोमल दीन वचनों बोलते हुवे उनको पास आवे तब के उस की निर्भत ना करे, 12 कोई कूपार भूत (गल ब्रह्मचारी) नहीं होने पर 'कूमार भूतहूं ऐमा कहे, 3 फीर स्त्री के आधीन बनकर उन का सेवन करे. 12 अब्रह्मचारी न होने पर ब्रह्मचारी कहे, 13 जो राजादिक के धन से अपनी आजीवि का करता हो और उस राज्य संबंधि प्रसिद्धि से राजा के धन में लोभ करे, 14 ग्राम के मालिक ने अथवा जन समुह ने अनीश्वरको ईश्वर बनाया. इन के प्रसाद से ही उस को लक्ष्मी प्राप्त होगइ फीर उन का उपकार भूलकर ईर्षा से उस की अ.जीविका का छेदन करे.* *प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवमहायजी उचालाप्रसादजी * - -
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________________ 18 जमे सर्पिण: अपने पोषक को मारे बैसे कोइ राजा, मंत्री वा धर्म प.ठकको मारे, 16 कोइ राष्ट्र का नापक, ग्राम का नेता अथवा नगर शेठ को पारे, 17 मनुष्य का नेता अथवा संसार सागर में प्राणियों की को द्वीप समान पुरुष को मारे, 18 संयम में प्रवत, सावध क्रिया से विरक्त, वैसे ही जगज्जीवों को जीवन समान भिक्षु (माधु) को मारे, १९अनंत ज्ञान वाले, रागद्वेष क्षय करने वाले और मम्यक्त्व दर्शनवाले, के अवर्ण बाद बोले, 20 न्याय मार्ग का अवर्णवाद बोले अथवा द्रोह करे, 21 जिन आचार्य के पास से श्रुत पवितय ग्रहण किया होवे उन की हीलन निंदा करे, 22 आचार्य उपध्यायका-प्रत्युपकार नहीं करे, 2023 अबहुश्रुत होने पर आत्मा की प्रशंसा करे कि मैं बहुश्रुत हूं और इस तरह स्वाध्याय वाद करे / कि मैं शास्त्रका पाठक हूं, 24 अतपस्वी होनेपर तपस्वीवन अपनी प्रशंसा करे,२५ किसी आचार्यको ग्लानपना अथवा रोगीपना प्राप्त हुवा हो उन को उपकार के लिये औषधोपचारादि काने में समर्थ हैं परंतु इनने मेरी सुश्रुषा नहीं की थी. इस लिये मैं भी इन की सुश्रुषा नहीं करूं ऐसी शटता, धूर्त , व माया करे. और वह चतुर मायावी बनकर बता कि मैं इस का औषधो पचार करता हूं ऐसी कल्पना से कलुपित चित्तवाला बने, 26 ज्ञानादिक गुन नाश करने वाली .व.प्राणी के घात करने वाली कथाओ का विस्तार करे, 27 श्लाघा अथवा मित्र स्वजनादिक के लिये * अधार्मिक योग प्रयुजे, 28 जो कोई बाल देवताओं की ऋद्धि, श्रुति, यश, वर्ण, बल, वीर्य का अवर्ण, के बाद बोले, और 30 यश, देव व ग्रहस्थान नहीं देखता हुवा कहे कि मैं देखता हूं ऐसा कह कर . ब-द्वितीय संवरद्वार 45 देशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण भूत्र - - निष्परिग्रह नामक पंचम अध्ययन 41. "
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________________ 20. बाद क-बालबचरी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + अरिहंत जैने अपनी माहमा पूजा चलावे ये ३०जने महा मोहनीय कर्म बंध करते हैं॥३१इकतीस सिद्धके गुनज्ञानावरणीयकी 5, दर्शना वहणीय की 9, वेदनीय 2, मोहनीय की 2 आयुष्य की४, नामर,गोत्र२, और अंतराय कर्म को 5, यो. 8 कर्म की 31 प्रकृतियों का क्षय करनेसे सिद्धके 31 गुनोंकी प्राप्ति होती है।।३२ बत्तीस प्रकार का योग संग्रह-१ लगा दोष गुरु आगे प्रकाशना, 2 जो आलोचना गुरु पास की होव उसे दूसरे के पास कहना नहीं, 3 दुःख आनेपर धर्म में दृढ रहना, 4 किसी की अपेक्षा विन गुप्त तपश्चर्या a करना, 5 मूत्र अर्थ का ग्रहण रूप शिक्षा को यथोचित्त ग्रहण करना, 6 शरीर की मुश्रुष नहीं करना. 37 तपश्चर्या करके यश पूजा के लिये किसी के पास कहना नहीं, 8 किसी वस्तु का लोम करना नहीं 19 तितिक्षा परिषद सहन करना, 10 ऋजुता रखना, 11 सत्यका नियम रखना, 12 सम्यक् दर्शन को शुद्ध रखना, 13 चित्त का स्वास्थ्यपना रखना, 14 आचार युक्त होकर माया कपट करना नहीं, 15 निय युक्त होकर माया करना नहीं, 16 आदीन वृत्ति रखना, 17 संवेग भाव रखना, 18 प्राणिधि रखना. 19 शुभ अनुष्ठान का आचरन करना, 20 आश्रव का निरुधन करना, 21 अपने देषों को। जानकर निग्रह करना, 22 सत्र प्रकार के विषय से विमुख रहना, 23 त्याग प्रत्याख्यान को वृद्धि करना, 24 कायुत्सर्ग करना, २५पांचों प्रमाद कम करना, 26 यथोक्त रीति से कालोकाल क्रिया करना, 27 सदैव धर्म ध्यान करते रहना, 28 योगों का संवर करना, 29 मारणांतिक वेदना प्राप्त होने पर मन * पकाचाक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादनी*
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________________ 14 खेदित करना नहीं. 30 मत्र मंगति का त्याग करना, 31 आलोचना निन्दा आदि प्रायच्छित्त करना और३२ज्ञानादि तीनों रत्नों की आराधना युक्त समाधि परग मरना॥३३तेत्तीस आशातना-१गुरु के आगे चले, २गुरु के पीछे लगकर चले. 3 गुरु के बराबर चले, 4 गुरु के आगे खडा रहे, 5 गुरु के पाछे लगकर खडा रहे. गुरु के बराबर खडारहे. गुरु के आगे बैठे, दगुरु के पीछे लगकर बैठे,९गुरु के घराबर बैठे ? गुरु शिष्यको एक 7 पात्रसे शुचि करने का होवे उम में शिष्य पहिले शुचि कर लेवे 11 प्रथम ईर्यावही प्रतिक्रमे १२गुरु के दर्शनार्थ आने | वाले के साथ गुरु से पहिले बातमीत करने लग जावे,१३गुरु पूछे कि कौन सोते हैं और कौन जगते हैं ? ऐसा सुनकर जागता हुवा भी उत्तर देवे नहीं, 14 अशनादि लाये हुवे होवे उसे पहिले दूसरे साधुपास आलोवे फीर गुरु पास आलोवे, 15 अशनादि लाये होवे तो पहिले अन्य साधु को बताकर फीरी गरु को बतावे, 16 अशन दि चारो आहार लाकर पहिले दूसरे साधु को आमंत्रण करे पी गुरु को आमंत्रण करे, 17 अशनादि चारों आहार लाकर गुरु को विना पूछे अन्य किसी को देवे, 18 शिष्य गुरु दोनों एक मंडल में भोजन करने बैठे होवे तब अशनादि चारो आहार में से मन्ज्ञ व स्निग्ध आहार शिष्य भोगवे 20 शिष्य को गुरु बोलावे तब आसन पर बैठा 2 उत्तर देवे, 21 गुरु बोलाने पर क्या कहते हो ऐसा कहे, 22 गुरु शिष्य को किसी प्रकार का आदेश करे तब शिष्य कहे तुम ही कगे ! ऐसा कह 23. गुरु शिष्य को उपदेश देवे कि ज्ञानी, रोगी, तपस्वी बृद्ध 17वगैरह की वैयावृत्य करना, तब उत्तर देवे कि तुम ही करो ! ऐसा कहे, 23 गुरु उपदेश देते चित्तकी -प्रश्नव्याकरण सूत्र द्वितीय-संवरद्वार +le+ BP निष्परिग्रह नामक पंचम अध्ययन
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________________ 202 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख ऋषिजी 2. बत्तीसा सुरिंदाआदि एक्काइयं करेंत्ता,एकुत्तरियाए बुड्डिएसुरतेतीसाओ जावो भवेतिकाहि... का विरतीपणीहीसुअ विरइसुय अण्णसुय,एवमादिएसु बहुसुटाणेमु जिणपत्थेसु अवितहेस } सासयभावेसु अवट्ठिएसु संक कंखं निराकरित्ता, सादहइ // 2 // सासणं भगवओ व्यग्रता होवे और शिष्य उस अर्थ की लोपना करे, 26 गुरु कथावार्ता कहते भूलगये होवे तो शिष्य कहे कि तूम भूलगये हो इसे ऐसे कहना चाहिए, 26 गुरु धर्य कथा कहते होवे उस में शिष्य छेद भेद करे, 27 गुरु सभामे धर्मोपदेश करते गोचरीआदि का समय हो गया हो तो परिषदा में भेद करे, 28 जिसपरिषदा में गुरु ने उपदेश दिया होवे उस ही परिषदा में पुनःशिष्य विस्तार से धर्म कथा कहे, 39 गुरु E आदिके आनन को पाँव से संघट्टा करे, 30 गुरु के आसपर शिष्य बैठे, 31 शिष्य अपना आमन गुरु के आसन से ऊंचा रखे, 32 गुरु के बरावर आसन से शिष्य बैठे और 33 गुरु शिष्य से कुछ पूछे तो आसन पर बैठ ही उत्सर देवे यह तेतीस असातना कही // इन तेत्तीस बोल,बत्तीस सूगेन्द्र,एक बोल से लगाकर तेंतीस बोल पर्यंत व्रत की वृद्धि करते हुए अवृत से निवृतते हुवे और भी ऐसे अन्य बहन प्रशस्त, सत्य, शाश्वत और अवस्थित भाबे में शंका कक्षा रहित श्रद्धा रखे. // 2 // यह भगवान का शासन नियाणा रहित, गर्व रहिव लुब्धता रहित और * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * / -
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________________ करण सूत्र द्वितीय संवरद्वार 428 अणियाणे अगारवे अलडे,अमूढे, मण वयण कायगुत्ते // 3 // जो सो वीर वरवयणविरति पवित्थर बहुविह पगारो सम्मत्त विसुद्धबद्धमूलो, धितिकंदो, विणयंवइओ, नियग्गयतेलोक विपुल जसनिचिय पीणपीवर सुजायक्खंधो, पंचमहावय विसालसालो, भावण तयंतझाणा सभजागनाण पल्लवबरंकुरोधरी, बहुगुण कुसुमसमिद्धो, सीलसुगंधो, अणण्हयफलोपुणेाय, मोक्खवर बीयसारो, // मंदरगिरिसिहर जूलियाइव इयस्समोक्खवर मोत्तिमग्गस्त सिहरभूयं संवरवरपायवो मूढना रहित है. वैसे ही पाप कर्म मे मन वचन व काया के योगों का गुप्त करने वाले हैं. // 3 // उक्त गुण संपन्न वीर में पुरुषों ने परिग्रस्से मुक्त होने रूप संवर स्थान को वृक्ष की उपमादी है बह इस प्रकार है-अनेक प्रकार के निर्मल सम्यत्का रूप बडा हुवा मूल है. धैर्य रूप स्कन्ध है, विनय रूप वेदिका है, तीन लोक में यश रूप स्थूल बडा प्रधान थुड है, पांच महाव्रत रूप विस्तृत शाखा हैं, भावना रूप त्वचा है, धर्म ध्यान व उस के शुभ याग्य रूप पत्र है, व अंकुर हैं, विविध प्रकार के गुण रूप सुगंधी पुष्पों हैं, इन में से सील रूप सुगंध फैल रही है. कर्म के निधन रूप फल है,प्रधान मोक्ष प्राप्ति रूप बीज तथा रस है, जिस प्रकार मेरु पर्वत के ऊपर के भाग में बैडूर्य रत्नमय चूलिका है वैभे ही सब लोक के अग्र भाग में सब से प्रधान मोक्ष है. उस को प्राप्त करने का पथ लोभ का त्याग रूप सब में शिखर समान है. यह निष्पपरिग्रह नायक पंचम अध्ययन
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________________ चरिमं संवद्दारं // 4 // जत्थ नकप्पइ गामागर नगर खेड कव्वड मंडव दोणमुह पट्टणा समगयंच किंचि अप्पं बहुंच अणूंच थूलंच तस थावस्काय दव्वं जायं, मणसावि परिघेतुण, // 5 // हिरण्ण, सुवण्ण खेत्त वत्थु नदासीदास भयग पेसहय गवेलगंवा नजाण जुग्ग सयासणाइ, नछत्तकं नकुंडिका नवाहण नपेहुण वीयण तालियंटका, गयाव आय तउय तंब सास कंस रयय जायरूव मणिमुत्तीधार पुडक संवर रूप वृक्ष अंतिप संबर द्वार का है // 4 // परिग्रह के त्यागी, ग्राम, आगर, खेड, कर्वट, मंडप, द्रोण मुख, पाटण, आश्रम इत्यादि स्थानों में अल्प मूल्यवाला अथवा बहुमूल्यवाला, सूक्ष्म अथवा स्थूल..! वस काया रूप, शंख, सीप युक्त फलादि, मनुष्य पशु मादि तथा स्थावर काया रूप धन धान्य धात आदि को ग्रहण करे नहीं // 5 // किस प्रकार के परिग्रह का त्याग करे सो कहते हैं चांदी, सुवर्ण, al क्षत्र, वत्थू. दास, दासी भृत्यक, प्रेषक, घोडा, हाथी, गौ, महिषादि, बकरा, छाली, स्थादि, यान, विमानादि पारण; पल्यंकादि शयन; सिंहासनादि आसन; इत्यादि परिग्रह साधु को रखना नहीं कल्पत है. वैसे / अन्य मतावलम्बियोंने धारन किये हुए छत्र कमंडल पगरखी मारपीछी पंखा तथा पत्र का पंखा यह भी नहीं कल्पता है. क्यों की इस से जैन लिंग से विपरीतता दीखाइ देती है. वैसे ही लोहा, ताम्बा 1सीसा, कांती, चांदी, सोना, चंद्र कांतादि मणि, मौ.क्तक, सीप, शंख, परवाल दांत सांमरा दिकका श्रृंगा अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनी श्रीअमोर.ख ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर बालामुखदवसहायजी ज्वालापमादी*.
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________________ 44 7/201 संख दंत मणि सिंग सेल कायकर चेल चम्म पत्ताई महरिहाई परस्सं अझ वाय,लोभजजणाई परियहिओ गुणवयो नयावि पुप्फ फल कंद मूलादिकाई सणसत्तरसाइं,सब्वधण्णाई तीहिंवि जोगेहिं परिघेउ उसह भेसज्ज भोयणट्टयाए // 6 // संजएणं किं कारणं , अपरिमिय नाणदसण धरेहि, सीलगुण विणय तव संजम नायकेहि,. तित्थंकरेहि TE पाषाण, क्रौच,प्रधान वस्त्र,चर्म. महामूल्य वस्तु जो औरों के चित्त को हरन करनेगली, लोभ तृष्णए की इत्यादिक / द्रव्य निष्परिग्रही को पास रखना नहीं. अपने पास से खराब वस्त्रादि ग्रहस्त को देकर अच्छा लेना नहीं। भोगवना नहीं, भोगिक वस्तु को ग्रहण करे नहीं. वैसे ही पथ्य, फल, कंद मूल और वीण वगैरह सवित्त पदार्थ औषध भैषज्य के लिये तथा भोजनादि के लिये मन वचन और काया कर ग्रहण करनानहीं कल्पते हैं // 6 // शिष्य प्रश्न करता है कि किस कारन से उक्त द्रव्य ही कल्पे ? गुरु कहते हैं कि-परिग्रह का संग्रह करने से परिग्रह की मर्थदा का उल्लंघन कर वह साधु अपरिमित व्यक संग्रह कर ममत्वी बन जाता है, इस लिये प्रधान ज्ञान दर्शन के धारक मूल गुन उत्तर गुन- तप संजम विनपदि गुनों की वृद्धि करनेव ले सब जगत् की वात्सल्यता करने वाले, तीन लोंक में पूज्यनीय, 'केवल ज्ञानियों में प्रधान जिनेन्द्र श्री तर्थिकर भगवानने इस परिग्रह को चौरासी लाख जीव योनि में परिभ्रमण कराने का कारने जानकर निषेध किया है. / दशमान प्रश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय वरद्वार +91 निष्परिग्रह नामक पंचम अध्ययन -
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________________ 4. अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री श्रमालक ऋषिजी, सव्वजग जीव वच्चलेहि, तिलोगमहिएहि, जिणवरिंदेहि, एसजोणी जगाणदिवा, नकप्पइ जोणी समुच्छिदोत्ति, तेणवजति ममणसीहा, जंपिय ओदण कुम्मासगं जीतप्पण मथु अजिज पललं सुप्पसंकुले वेढिम वर संख चुण्ण कोसग पिंड सिहरणी वग मोयक खीर दाह सप्पि नवणिय तिल गुड खंड मच्छडिय महु मज्ज मंस खजग वंजण विहिमाइयं पणीयं उवस्सए परघरे वरण्णे, नकप्पइ तपिं संनिहिं काउण संसार से नितिने की इच्छा वाले को परिग्रह का त्याग करना उचित है, इस का त्याग कौन करते हैं ? जो साधु सिंह समान है. वही त्याग कर सकते हैं. वह निष्परिग्रही साधु शरीर को पोषणा के लिये उडद, सत्तू , घोर की गुठली, भुंजी हुई अनाजकी धाणी, पोवा, मुंग, तिल संकुली, हलवा, प्रधान रस कड. चूरण, कोष्टक, लड्डु आदि सिरनी, मोदक, दूध, दधि, धृत, मक्खन, तेल, गुड, सक्कर, मीश्री शहद,मदिरा,मांस खाजे,सालन, इत्यादि विविध प्रकार के रस प्रणित पदार्थ अपने उपाश्रय में तथा अपने नेश्राय में कर अन्य के वहां रखे नहीं. ऐसी वस्तु का संचय करना भी माधु को कल्पता नहीं है. सुविधि युक्त संयम पालनेवाले साधु को अपने लिये उद्देश कर बनाया हावे, यह आहार साधु को ही देना ऐसा स्थापकर रखा हो, साधु के निमित ही लहु आदिबांधकररखे होवे, इत्यादि कोई भी वल्तु साधु के लिये बानकर अथवा बनाकर रखा हो, पकाकर रखा हो,वेमा आहार तथा अंधकार में प्रकाश कर के देवे, उधार लेकर देवे, अपने और साधु दोनों के निमित्त सामिल बनाकर देव सा मिश्र, मोल लाकर देवे, साधु को देने म हुने आगे * प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी / /
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________________ 4+ 207 सुविहियाणं जंपियओ दिववियरचितकपज वजाय पकिण्ण पाओकरण पमिच्छ मिसग कायगडं पाहुडंवा दाणट्टयाए पुण्णपगटुं, समण वणीमगट्टया एवं कीय पच्छा कम्म,पुरेकम्मं नितिकम तितिकं मंक्खिकं,अइरित्तं, मोहरं सयग्गाह साहडं,महिआ? वलितं अच्छेजंचेव अणिसिटुं जति तिहि सुजण्णेसु ऊस्सवेसुय, अंतोहिंच्च बाहिंच E होज्जं समणट्टयाए ठवियं, हिंसा सावज संपउत्त नकप्पइ तपिय परिघेतं // 7 // पीछे नीमावे दानशाला का आहार पुण्य के लिये अर्थात् मृत्यु पछि ब्रह्मणादिक को देने के लिये रखा हो वैसा Eआहार, अन्य किसी को देने के लिये बनाया हुआ. शाक्यादि साधु के लिये बानया हुवा. भिक्खारियों के लिये बनाया, पश्चात कर्म दोष लगे वैसा आहार, पूर्व कर्म दोष वाला आह.र. सदैव एक ही घरका अहार, और साचित्त रज अथवा सचिच पानी से भरा हुवा पात्र वाला आह र लेवे नह.. अपनी मर्यादा से अधिक ग्रहण करे नहीं, दानदिये पहिले अथवा पीछे दातार की कीर्ति को नहीं, दातारने शुद्ध अंतः करण पूर्वक दिया होवे वही ग्रहण करे, ग्राम गदिसे सन्मुख लाकर दिया होवे उसे ग्रहण करे नहीं है लाख अथवा चपड़ी से बंध किया हुवा भजन का मुख खोलाकर लेवे नहीं, निर्बल से छीन कर कोई देवे तं. ग्रहण करे नहीं, मालिक अथवा भागदार की आज्ञा विना ग्रहण करे नहीं. मदनादि तीथी में, यक्षादि पूजा में, इन्द्रादि महोत्सव में बना हुवा आहार, घरकै बाहिर तथा अंदर हो परंतु at दशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार + निष्पारग्रह नामक पंचम अध्ययन 4BP
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________________ अह कैरिसयं पुणो त कप्पइ जं तं एक्कारसं पिंडवाय सुद्धं किण्णणहणण पवण कयकारियाणु मायणा नवकोडीहिं सुपरिसुद्ध, दसहिय दासेहिं विप्पमुक्कं उग्गमु___प्पायणे सणाए नवकोडीहिं सुपरिसुद्ध; ववगय चूयचवियं चत्तदेहंच फासुधंच, वगय अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + - दोष युक्त आहार लेना साधु को नहीं कल्पता है // 7 // अब शिष्य प्रश्न करता है. कि साधु को कैमा आहार लेना कल्पता है ? उत्तर-आवारांग. सूत्र के दूसरे श्रुप्त स्कंध में अग्यारहवे पिण्डैषणा अध्ययन में आहार लेने की विधि बत इहै उस अनुसार दोष रहित आहार ग्रहण करना. और भी विशेष कहते हैं-स्वयं मोल लेवे नहीं, अन्य के पास मोल लेवावे नहीं, लेनेवाले को अच्छा जाने नहीं, षट्काया की घान करे नहीं, अन्य से घात करवावे नहीं और घात करनेवाले को अच्छा जान नहीं, आग्नि आदि से स्वयं पकावे नहीं, दूसरे से पकवावे नहीं, पकाने वाले को अच्छा जाने नहीं, यो नव कोटि विशुद्ध शंकितादि दश दोष रहित, उद्गमन क 16 और उत्पात के 16 यो 32 दोष रहित, देह की ममत्व के त्यागी, फासुक दिोष, आहार ग्रहण करे. मनजें वस्ती का संयोग मीडाना, अच्छे आहार की प्रशंसा करना. यह इंगाल जैमा सयम बन ता, है और खराब अहार की निंदा कर ग,यह धूम्र नैसा संयम बनाना, है इन दोषों रहित. शुधा वेदनीय उपशमाने, वैयावृत्व करने, ईर्या भकाशक-राजाबहादुरलाला मुखदवसहायजी मालाप्रसारजी * 4
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________________ संजोगमणिग्गलं विगयधूम, छट्ठाणानिमित्तं, छक्काय परिक्खणट्ठा दिमणिष्ण फासुकण भिक्खेण वटियम् // 8 // जंपिय समणस्स सुविहियस्सउ रोगायके बहुप्पगारं मिसमुप्पन्ने, वायाहिक पित सिंभ अरित्त कुविथ, तह संणिवाय जातेव उदयपत्ते उज्जलबल विउल कक्खड पगाढ दुक्खे,असुभ कडुय फरुस चंड फल विवागो, महब्भय जीवियंतकरणे, सव्वसरीर परितावणकरणे नकप्पई तारिसेवि तह अप्पणी परस्सव ओसह भेसज्ज, भत्तपाणंच तपि संण्णिहिकय॥९॥जपिय समणस्स सुविहिहियस्स तओपडिग्गह पंथ साधने, संयम पालने. प्राणियों की रक्षा करने, और धर्म चितवन करने, इन छ कास्न से अहार करे. और षट् काया के जीवों की दया पालना और प्रति दिन अलगर बहुत घरों की भीक्षा करके आहारे लेना. // 9 // किसी माधु को मारणांतिक सनीपात रोग उत्पन्न होवे, वायु के प्रकोप से शरीर कंपने लगे तैसे वायु कफ पित्त इत के संयोग से सत्रिपात की उत्पत्ति होवे, वेदनीय कर्म के उदय से अति उज्वल बल विस्तीर्ण कठोर महा दुःख वाला. अशुप कडुये फल दायक, रौद्र, भयंकर, महा 2 JEभय करने वाल भीषितव्य का अंत करने बाला, नख से शिखा पर्यंत सत्र शरीर में परिताप करने में व ले रोग होवो तो भी उन को अपने लिये या अन्य साधु के लिये औषत्र, भेषज्य तेलादि वगैरह " अथवा आहार पानी इत्यादि अपन, नेश्र य में रात को रख // नहीं कराता है. // 9 // मधु को। दशमङ्ग-पश्नव्याकरण सूत्र द्वितीय संवर द्वार M:-निष्परिग्रह नामक पम अध्ययन 10 .
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________________ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी का धारिस्स भवइ, भायण भंडोवहिउवगरणं पडिग्गहो,पायबंधणं,पायकेसरिया,पायट्ठवणंच, पडलाइं तिण्णिवरयत्तागंच, गोच्छओ तिग्णिय पच्छागा रयहरणं चोलपट्टग मुहण गंतकमादियं, एपंपिय संजमस्स उवबहणट्टयाए, वायायव दंसमसग सीय ओसिण परिरक्खणट्टयाए उवगरणं, रागदोस रहियं परिहरियव्वं संजएणनिच्चं, पडिलेहण पप्फोडण पमज्जणाए, अहोयराओय अप्पमत्तेण होइ, : सययं / / शुद्ध आचार वाले स्थविर कल्पी जो साधु होते हैं वे उपकरण रखते हैं सो कहते हैं-१ पात्र 3 2 पात्र का बंधन झोली, 3 पात्र की प्रमार्जना करने का गोछा, 4 पात्र रखने को पाट पाटला 5 पात्र लपेटका लपेटा 6-8 तीन पात्र 9-11 तीन पात्रे के ढक्कन,१२ रजस्त्रण,१३ गोछा 15-16 तीन पछेवडी, 117 रजोहरण, 18 चोलपट्टा,१९ और 20 मुख वस्त्रि का. इत्यादि उपकरण संयम निर्वाह के लिये रखे. इन के सिवाय संयम क' पाउन काना कठिन है, अथवा वायु डांस,मच्छर शीत ऊष्णादि परिषहसे बचने के लिये रखे. इन उपक-नों में राग व द्वेश रहित सब दोनों का त्याग करता हुवा सदैव दोनों वक्त प्रति लेखना करे. अच्छी तरह दृष्टिसे देखे,यत्ना विना इधर उधर हलावे नहीं, जीव के शंका के स्थान पुंजता कर स्थापन करे दिन रात्री सदैव अप्रमादि होवे. उक्त भंडापकरणादि लेते हुवे अथशरखते हुवे भाजन भंडउपाधि * का उपकरणमें निर्ममत्त्व निप्परिग्रही रहे ,इस प्रकार के संयति स्त्री आदिकी संगति रहित तत्वकी रुचि वाले, * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापमादी *
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________________ 1 दशमाङ्ग मनमाकरण सब-द्वितीय संघरद्वार निक्खिवियव्वंच, गिहियध्वंच, भायण भंडोवहिं उवगरणं एवं से संजए विमुत्ते निस्संगो / / निपरिग्गह निग्गयरुइ निम्ममे निनेहबंधणं सव्व पावविरए।१०। वासी चंदण समाण कप्पो समतिण मणिमुचले कंचणे समे, समेय माणवमाणए, समियरए, समियरागदोसे, समिए 211 समिईसु सम्मट्ठिी समेय जे सबपाणभूयसु सहुसमणे, सुयधारए, उज्जुए, संजए, सुसाहु, सरणं सव्वभूयाणं, सव्वजगवच्छले सच्चभासकेय संसार तेवितेए ससार समुच्छिण्णे, सययं सरणाण पारए पारगेय सव्वेसि समयाणं पवयणमायाहिं ममत्व रहित, स्नेहबंध रहित और सब प्रकार के कर्म से रहित होते हैं. ऐसे साधु के गुन करते हैं. कोई विप्लोले से छोले अथवा कोई चंदन से चर्चे यह दोनों समान है, तृण मणि, कंकर और कांचन समान है। -उन के मान और अपमान में समभाव हैं. पापरूप रज तथा रागद्वेष का उपशम किया है. पांच सामति युक्त, सम्यग्र दृष्टि, सब प्राणी भूतों को आत्मा समान जानने वाले, शास्त्रों के ज्ञाता, सरल स्वभावी, संयमी, सुसाधु, सब जीवों को शरण भून, सब जगज्जीवों की वात्सल्यता करने वाले, सत्य वचन / बोलने वाले, संसार से उत्तार्ण होने वाले, चतुर्तिरूप संसार का छेदन करने वाले. सदैव मृत्यु के परगामी, सब प्रकार के संदेह रहित, आठ प्रवचन माता के सहित, आठ कर्म रूप ग्रंथी, का छेदन करने वाले, आठ मद के मर्दन करने वाले, न्याय में कुशल, मुख दुःख में सम भाव वाले, आभ्यंवर वैसे ही 42 निष्परिग्रह नायक पंचम अध्ययन 48 .
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________________ अट्ठहिं, अटुकम्मगट्ठी विमोयगे, अट्ठमय महणे स समय कुसलेये भवइ, सुहदुक्ख निविसेसे, अभितर बाहिरंमिसुया, तवो वाहणमिय सुहुजुए खंते दंतेय हियनिरए इरिया समिए, भासा समिए, एसणा समिए, आयाणभंडमत मिक्खेवणा समिए, उच्चार पासवण खल सिंघाण जल्ल परिट्ठावणियासमिए, मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते, .. गुत्तिादेए, गुत्तबंभचारी, चाइलज्जु धण्णो तबस्सी, खंतिरखमे जिइंदिए सोहिए : मुना श्री अमोलक ऋषिजी - अनुवादक-बाऊब्रह्मचारी गह्य शुद्धि वाले, तप रूप उपधान वाले, क्षमावंत, दण्तेिन्द्रिय और हृदय की पात्रता वाले होते हैं. 1 और भी साधु के गुण कहते है-ईर्या समिति-देखकर चले, 2 भाषा समिति-विचार कर बोले, 3 एषणा समिति निर्दोष आहार वस्त्र पात्र भोगवे, 4 आदान भंडपत्त निक्षपना समिति-यत्ना पूर्वक भंडोपकरण ग्रहण करे व रखे और 5 उच्चार प्रसवण खेल जल्ल परिस्थापनीय समिति-यत्ना पूर्वक रघुनीत बहीनीत वगैरह परिठावे. यह पांच समिति, मन गुप्ति-मन को पाप से गोपत्रे, वचन गुप्ति-बचन को पाप से गोपये, और काया गुप्ति-काया को पाप मे गोपवे, यह तीन गुप्त, गुप्तिन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मवारी, सब संगके परित्यागी, लज्जावंत, तप रूप धन बाले, क्षमा भाव से उपसर्ग सहन करने वाले, जोतेन्द्रिय बनकर परिषड सहन करने वाल, शुद्ध हृदय वाले, सरल स्वभावी, कृत कर्म के फल की इच्छा रहित, संयम से बाहिर परिणाम * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ 44 भणियाणे, अबहिलेस्से, अम्ममे, अकिंचणे छिण्णगंथे, निरुवलेसु // 11 // विमलवर-कंस भायणं चेव मुक्कतोय,संखेविवनिरंगणे, विगए रागदोस मोह,कम्मोइव वइंदिएसगत्ते, जच्चकंचणंबजायरूवे, पुक्खर पत्तंव निरुवलेवे, चंदोइवसोमभावयाए, 213 सूरोवदित्ततेए, अचले जह मंदरे गिरिवरे, अक्खों सागरोव्वथिमिए, पुढविं विवसव्व फासविसह,तक्साइय भासरासि छण्णेव जायतेए, जलिय हयासणोविव तयसा जलंत. गोसीस चंदणविव सीयले सुगंधिए, हरउ विवसमियभावे, धेग्उासियस, निम्मलवं आयंस E रहित, ममत्व और द्रव्य रहिन, ममत्व के छेदक इयादि गुणो वाले नियरिग्रही होते हैं. // 11 // अब साधुकी ओपमा कहते हैं -जैस कांस क पात्र को पानीका लेप नहीं लगता हैं वैसेही निष्परिग्रही स्नेहभावसे नहीं भेदाते हैं, 2 जैसे शंखपर रंग नहीं चढता है वैसे ही वे रागद्वेष और मोह रंग रहित हैं, 3 काछरे जैसे जीतेन्द्रिय, 4 जैन सुवर्ण का कोट नहीं लगता है वैसे ही रागमाल रहित होते हैं, 5. कमल पत्र समान लेपरहित होते हैं,६ चंद्र समान सौम्य दर्शन वाले होते हैं, 7 सूर्य जसे दीप्त तेज वाले, 8 मेरू पर्वत / जैसे अचल, 9 समुद्र समान अक्षुब्ध, 1. पृथ्वी जैसे शुभशुभ स्पर्श समभाव से सहन करने वाले, 11 राख से ढकी हुइ अग्नि समान तप तेजसे दीप्त, 12 जैसे मध सेवन से अग्नि की ज्याला वृद्धि पाती है। " वैसे ही वैराग्य से ज्ञानादि मुनों की वृद्धि करने वाले होते हैं.. 12 गोंशीर्ष चंदन जैसे शीतल स्वभावी / दशमान प्रश्नव्याकरण पूत्र-द्वितीय मंवरद्वार 498 निष्परिग्रह नापक पंचम अध्ययन H 48 tt
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________________ 214 मंडलतलव्व पागडभावेण सुद्धभावे,सोंडीरोकुंजरोब्व, वसभीव जायथामे, सीहोव जहा मिगाहिवेहोइ दुप्पधरिसो,सारय सलिलंव सुद्धहियए, भारंडेचव अप्पमत्ते,खगविसाणं चेव एगजाए,खाणूचिव उड्डकाए,सुण्णागारोव अप्पडिकम्मे,सुण्णागारावण्णस्संता निवाय , सरणप्पदीव झाणमिवनिप्पकंपे, जहा क्खरोचिव एगधारे, जहा अहीचिव एगेदिट्री, आगासेचित्रनिरालंबे, विहंगे विवसब्बओ विप्पमुक्के, कयपरिनिलए जहाचेव उरए और कीर्ति रूप सुगंध युक्त,१४ द्रहके पानी जैसे समभावी१५घसकर साफ किया हु रा कांच जैसे निर्मल 16 हाथी समान निर्भय,१७वृषभ समान संयम भार के निर्वाहक, १८सिंह जैसे परिषद सहनमें दुर्धर,१९शरद ऋतु के पानी छ समान निर्मल, 20 भारंड पक्षी समान अप्रमादी, 21 खगोंडा एक शृंगवाला होता है वैसे ही राग व रहित अकेले, 22 गाडा हुआ खूटे समान स्थिर, 23 शून्य गृह की जैसे कोई संभाल नहीं करता है। वैसे शरीर की संभाल नहीं करनेवाले, 24 जैसे चारों तरफ से बंध किया हुवे घर में दीपक नहीं कम्पा है वैसे ही ध्यान से नहीं कंपनेवाले, 25 छुरी जैसे न्याय में एक धारा से चलनेवाले, 26 सर्प समान मोक्ष तरफ एक दृष्टिवाले, 27 आकाश जैसे निगलम्ब, 28 पक्षी समान रूब स्थान परिभ्रमण करनेवाले 1529 जैसे सर्प अन्य के किये बिल में रहता है वैसे ही अन्य के लिये बनाये हुवे स्थान में रहनेवाले और मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *पकायाक-राजाबहादुर ला-सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* + अनुवादक बालब्रह्मचार
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________________ - 42 अपडियद्धो,अनिलोव जीवाव अपडिहयगई, // 12 // गमिगामेय एगरायं, नगरेनगरे पंचरायं, इइज्जतेय, जितिदिए, जियपरिमहेय, निब्भए, विउ, सचित्ताचित्त भीसगेहिं दव्वेहिं विरागयंगए, संचयउ विरएमुते लहुए, निरवकंवखे, जीवियाआस मरणभय विप्पमुक्के, निस्सन्निहिं, निव्वणंचरित्तंधीरे कायेण फासयंते सययं, अझप्पज्झण जुत्ते निहुए, एग चरेजधम्मं // 13 // इमंच परिग्गह वेरमण परिरक्खण ठुयाए, पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं, आगमेसिभई, सुद्ध नेयाओयं, 30 वायु अथवा जीव की गति सपान अप्रतिबंध बिहारी होते हैं // 12 // ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच गात्रि रहे. इन्द्रियों को जीते, परिषद को सहे निर्भय, तत्त्वज्ञ, मचित्त, अचित्त और मीश्र यो तीनों प्रकार के द्रव्य से विरक्त रहे, इस के मंचय से निवृत्ति भाव रखे, मुक्त-निर्लोभी, हलके, निरि. च्छक जीवितव्य की आशा व मुत्यु के भय रहित होवे. स्नेह रहित, निरति चार चारित्र वाले होवे,उक्त प्रकार के आचार को काया कर स्पशन करे. आध्यात्म,ध्यान युक्त उपशांत स्वभाबी और राग द्वेष रहित अकेले ही धर्म मार्ग में विचरे // 13 // इस परिग्रह विरमण व्रत की रक्षा के लिये आत्महित करनेवाली, आगामिक काल में है। . 1 यचं रात्रि एक सप्ताह को कही है, जैसे रविवार से दूसरे रविवार पर्यंत एक रात्रि गानी गई है. 42119 दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र-द्वितीय संवरद्वार अर्थ निष्परग्रह नाकपचर अध्ययन,
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________________ मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापकी - अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्ख पावाणं विमोसमणं तस्स इमापंच भावणाओ चरिमस्स है. वयस्सहोइ परिगहवरमण रक्खण्णट्टयाए॥१४॥ पढमं सो इंदिएण सोच्चाप्तहाई मण्णणं महगाई किं तेवर मुख मुयिंग पणव दद्दर कच्छभि वीण विपंची वल्लइ वहसिक सुघास नंदीसुसरपरिवादिणि बंसतूणक पव्वय तंती तल ताल तुडिय निग्घोसे गाय वाइयाई नड नट्टक जल मल्ल मुट्ठिक लंबक कहक, पवक लासक आइक्खग लंख मख तूणइल तूंब वीणिय तालायर पकरणाणिय, 'बहुणि महुणि *पकाचक-राजाबहादुर काला मुखदर सहायजीवालाप्रसादमी* भद्र कल्याण की कर्ता. शुद्ध मोक्ष मार्ग अकुटिल, अनुत्तर, प्रधान और सब दुःख उपशपाने का तुभूत पांच भावना श्री श्रमण भगवान ने कही है // 14 // प्रथम भानना श्रोत्रेन्द्रिय के प्रधान मनोज्ञ शब्द श्रवण करे. शिष्य प्रश्न करता है कि कौन से प्रधान मनोज्ञ शब्द ? गुरु कहते हैं कि प्रधान, मुरी, मृदंग, पादल, पडह, दमामा, कच्छभी, वीणा. विपल्ली, बल्लगी, घंटा के शब्द, नंदी वादित्र, वांसली, तृण का प्रवृत्तिक, तंती, तल, तृटिन, निर्घोष, गीत, वादित्र, नृत्य, नाटक, रस्सी पर नृत्य करनेवाले, मल्ल, मुष्टि युद्धगाले, मल्ल, हसानेवाले. कथा करनेवाले, शुभाशुभ कहनेवाले,बांसाग्र खेलनेवाले, चित्रपट,वनानेवाले, तृणाइ, 17 तुम्ही वीगी,करतान,और कारणा'दिमें बहुन प्रकार के मधुर सुस्वरसे गीत,गानेवाली स्त्री संबंधी, शब्द, कटि है।
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________________ 1 217 aan दशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय-संघरद र महुरसर गीयसुस्सराई कैची मेहला कलाग पत्तरक पहरेकपाय जालथ घंटिय खिखिणि रयणो रुजालय छु द्दय नेउर चलण नालिय, कणग नियल जालगं भूसणं सहाणि, लील चकम्ममाणाणुंदीरियाई तरूणि जहण हसिय भणिय कलह निभय मंजुलाई गुण वयणाणिय बहुणी महुरजण भासियाई अण्णेय एवमाइएसु सद्देसु मणण्ण भइए सुनतेसु समणेण सजियव्वं, नरजियव्वं नगिझियवं नमुझियन्वं, नविनिग्घायं __ आवज्जियन्वं, नलुभियध्वं, नतुसियवं, नहसियव्वं, नसइंच मइंच तत्थ कुज्जा // पुणरविय सोईदिएण सोच्चासदाई, अमणुण्णपावगाई किं ते अक्कोस परुस खिसण मेखला, नेपुर, घंटा, घुघरी: रत्नी, रुजिली, मु ,का, जाली, और शृंगार के शब्द, लीला से हलन चलन करसे उत्पन होवे वैसे शब्द, स्त्रियों साथ पुरुषों के इससे बोलने का, कलायुक्त, मंजुल, मधुरता के गुण से परिपूर्ण, बहुत लोकों के बोले दुए और इस प्रकार के अन्य अनेक मनोज्ञ शब्द में गृङ्ग होवे नह, मच्छित होवे नहीं, शब्द कर पात पावे नहीं, बाधित होवे नहीं, लोभावे नहीं, मुष्ट होवे नहीं, इसे नहीं, याद भी करे नहीं, बुद्धि की प्रेरणा करे नहीं. वैसे ही श्रोतेन्द्रिय से सुने हुवे खराब शब्द होते हैं. यथा, अकेश के वचन, कर्कश वन, निन्दा के वचन, अपमान के वचन तर्जना के वचन, निर्भत्सना के वचन, कोप वचन, बासित यवन, अक्कत्रचन, रौद्र रुदन के वचन, आइकारी, निष्टुरतावाले, दयाननक, किशपाल H+निष्पस्ग्रिह नायक पंचम अध्ययन व
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________________ - अमोलस ऋषिजी" --- - - अवमाणण, तजण निभंछण दिन्नवयण तासण, उकुविय रुण्णरडिय कंदिय विग्घट्ट रसिय कलुण विलवियाई,अण्णेसुय एवमादीएसु सद्देसु समणुण्णपावएसुनतेसु समणेणं रुसियव्वं नई लियन्वं,ननिंदियन्वं, नखिसियवं,नलिंदियव्वं,नमिंदियध्वं,नवहेयन्वं नदुर्ग डावितियं विलम्भाअप्पाएओ, एवं सोइंदियभावणा भाविओ भवई-अंतरप्पा, मण्णु.. णामण्णुण्ण सुभदुभिराग दोस पाणीहयप्पा साहु मण वयण कायगुत्ते,संवुडे पणिहिदिए चरजधम्म॥१५॥वितियं चक्खुइंदिएण पासियरूवाणि, मणुण्णा भद्दगाई सचित्तावितमी सकाई कटे पं.त्थाय चित्तकम्मे,लेपकम्मे,संलय, दंतकम्मेय पंचहिवण्णेहिं, अणेगसंट्ठाण के और अन्य भी एसे अपनो शब्द, खराब शब्द, पापकारी शब्द सुनकर रोष करे नहीं दीलना / करे नहीं, निंदा करे नहीं, खिसना करे नहीं, कहने वाले का छेदन भेदन वध करे नहीं, दुगंछा होवें वैसा करे नहीं. किसी प्रकार मे अलाभ करे नहीं, यों श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह की भावना भावता हुवा मनोज अमनोज अच्छे बुरे शब्द मे र गदेव का त्याग करता हुवा साधु मन वचन व काया के योगों का गोपन करता हुआ संघर से परिणत इन्द्रिय वाला धर्म में चले. // 15 // दुसरी मापना-चक्षु इन्द्रिय से देखे। हुए मनोज अच्छे रूप मचित्त अचिध, मीश्र, काष्ट के चित्र, बस के चित्र, रंग के चित्र, खही आदि के लेप के चित्र, मिट्टी के पाषाण के, दांत कर्म के, पांचों वर्ण के अनेक प्रकार के संस्थान थाले, गुंथे हुए, * प्रकाशक-राजाबहादुर काला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी / अनुवादक-बालब्रह्मचारी
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________________ ब-द्वितीय-संबरदार संट्रियाई, गथिम वेढिम परिम संघाइमाणि, मल्लाइ बहुविहाणिय अहियं नयणमण सुहकराइ वणसंडे पन्वएय गामागर नगराणिय खुडिय पुक्खरणी वावि दिहिय गुंजालिय सरस रपंति सागर विलपंतिय, खाइय णदि सर तलाग वाप्पिणि, पुल्लुप्पल पओम परिमंडियाभिराभे, अणेग सउणगण मिहुणविचरिए वरमंडब विविहं भवण तोरण चेइय देव. कुल सभा पवा वसह सुकय,सयणासण सीय रह सगड जाण जुग्गय संदण नरना रिगणेय सोम पडिरूव दारीसणिजे, अलंकिय विभूसिए पुवकए तव प्पभाव सोहग्ग पुष्पादिक के गेंद, पाषाणादक जोडे हुए पूरे हुए बलादिक के मंडल, आकार और मन को सुखदायी वनखंड, पर्वत, ग्राम, आगर, नगा, छोटी व बडी, पुष्करनी, दीर्घ वावडी, गुंजांलिका, सर, सरोबर, सरोवर की पंक्तियों, समुप्त, धातु की खादानों, ख इ, नदी तलाव, क्यारे, विकसित कमल, अनेक प्रकार के पक्षियों के युगल समुह, अनेक पकार के भवन, तोरन, प्रतिमा, देवालय, सभा, पाव इत्यादि। अच्छे पर्यक, आसन, पालखी, रथ, गाडी, शिलिया, युग, संदमन , पुरुष स्त्री के समुह से मुशोभित देखने वाले के मन को हरन करने वाले, वस्त्र भूषणादि से अलंकृत पूर्व कृत तप के प्रभाव से 17 सौभाग्य युक्त, नृत्य, नाटक, रस्ती पर नाचना, मल्ल युद्ध, मुष्टि युद्ध, इसने वाले, कया कहने वाले, रास रमने गले, बांस पर खेलने वाले, चित्र बताने व ले; तार. की वीणा; तुम्बी वीगा, ताल बजवे यो / HINR निष्परिग्रा नापक पचम अध्ययन दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण -
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________________ 26. 4 अनुवादक-बाल ब्रह्मचरी मुनी श्री अमोलख ऋषिजी - - संपत्त, नड नहग जल मल्ल मुट्टिय वलंगकहकपवग लासग आइख लख भेख तू इल्ल तूंब वीणीय तालायर पमरणाणिय बहुणिसुक्यण णिय. अण्णेसुय एवमाइएसु रूवेसु मण्णुण्णभदएसुनतेसुसममेणनसाजयवं,नरजियचं नगिझियव्वं,नमुझियव्य नविनिग्धा "यमावजियन्वं, नलुभियन्वं नरुसियव्व नहसियव्वं नग्इंच मइंच तत्थकुजा, पुणराव चक्खुईदिएण पासियरूवाणि अमणुण्णपावगाई,किंते गडिकोढिय कुगिउदाकछूल पइल कुज्ज पंगुल वामण अंधिल्लग, एगचक्खु विणिहय, साप्पसलग वाहिरोग पीलीयं विगयाणिय मयग कलेवराणिय सकिमिण कुहियं चदम्बरा से अण्णसुय एवमाहिएस बहुत प्रकार के अच्छे पने ज्ञ प्रधान भद्रकारी रूप में माधु आक्त होवे नहीं, रक्त होरे नहीं, गृद्ध हे वै नहीं, मूच्छित होवें नहीं, रूप से ध्य धात पारे नहीं, लोभित होवे नहीं, संपुष्ठ हे वे नहीं, हस नहीं, और उस में बुद्धि परिणपावे नहीं, यह अच्छे रूप का कथन हुवा. अब खगब रूप का कथन करते हैं: आंखों से अपनोज्ञ खरब रूप देखे. जैसे गंडमाल' गंग बाला, कोड रोग वाला, गर्भ के दंप से एक पात्र छेटा एक पांव बडा ऐमा कुणिम गेमवाला, जलोदर का रोगवाला, श्रीपलु गंगवाला. वैसे ही कुन्नपना. पंगुलपना, वामनपना, अन्धापना, एक आंख से काना, मर्मिरोग, सलग-पिशाचा दे . लगा होषे वैसा.रोग, व्याधि, तात्काल मरे ऐसा रोग, पीलीया रोग, विकृत रूपवाला रोग; मृत कलेवर* *प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालापमादी * म
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________________ देशमाङ्ग प्रश्नव्याकरण सूत्र द्वितीय संघरद्वार 488 अमणुण्यपावएसु नतसु समणेण रुसियव्यं जाव नदुग्गंच्छा वत्तियावि लब्भा उप्पाएओ एवं चक्ख इदिय भावणा भाविओ भवइ अंतरप्पा जाव चरेजघम्मं // 16 // तइयं घाणिदिएण अग्घाइय गंधाई मण्णुण, भद्दगाई, किं ते जलय थलय सरस पुष्फ फल पाण भोयण कोट्ट तगर पत्त चोय दमण कमरूयएलारस पिक्कमर्सि गोसीस सरस चंदण कप्पूर लवंग अगर कुंकम कंकोल उसीर सेय चंदण सुगंध सारंगजुत्ति वरधूव वासेउउय बिडिमणीहारि सुगंधिएसु,अण्णेसुय एवमाइएसु गधेसु मणुण्ण मद्दएसु नतसु- समणण सजियव्य, नगझियव्वं नगिझियव्वं नमुज्झिव्वं, नविनिग्याय मावजियवं, वाडेबाला, सहा हुवा; चांदा पडा हुवा, और भी अन्य अपनोज पापकारी रूप पर मन से भी रोष करे नहीं. य..त् दुगंछा करे नहीं इस प्रकार चा इन्द्रिय गुप्ति रूप भाव से अंतरात्मा को भावता हुआ . धर्म में में विचरे // 16 // अब तीसरी भावना करते हैं-मनोज अच्छा घाणेन्द्रिय संबंधी गंध ग्रहण करे. जल के उत्पन्न हुए; स्थल के उत्पन्न हुए; तत्क.ल के उत्पन्न हुए, पुष्प फल, पानी, भजन, कोष्टक. तगर, Vतमा.पत्र, सुगं.चे छाल, दमन, मरुंआ, एलायचो रस, पाल, गोप चंदन, तत्काल का घीमा हुवा चंदन, 2. पूर; लवंग, अगर: कुंकुमः ककोल; उसीर, खसखस, श्वेत चंदन, सुगंधी साग दले युक्त प्रधान धूप, ऋतु / योन्य धूप, धूप , अकृष्ट गंध और भी इस प्रकर की पनं ज्ञ सुपंध में 'अस होये __ in निष्पपरिग्रह नापक पंचम अध्ययन HEN /
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________________ नलुभियन्वं, नतुसियव्वं नहसियन्वं, नसईच मइंच तत्थकुजा, पुणराव पाणिदिरण अग्धाइयं गंधाइ, अमणुण्ण पावगाई, किं ते अहिमड आसमड हस्थिमड गोमड-विग-सुणग-सियाल-मणुय-मजार-सिंह-दीविय-मयकुहिय विण? - किमिण बहु दुरभिगंधेसु अण्णसुय एवमाइएसु गंधेसु अमणुण्ण पाबएसु नतेमु स. मणेण नरुसियन्व्वं नहीलियम्वं जाव पणिहियं इंदिएचरेज धम्मं ॥१७॥चउत्थं जिब्भिदि एण साइयरसाणि मणुण्ण भहगाई, किं ते उग्गाहिम विविह पाण भोयण गुलकय खंडकय तेल्ल-घयंकयं, भक्खसु बहु विहेसु लवण रससंजुत्तेसु महु मंस बहु प्पगार नहीं, रक्त होवे नहीं, गृद्ध बने नहीं, पूच्छित होवे नहीं, गुणों से घात करे नहीं, लोभ करे नहीं, तुष्ट होवे नहीं, इसे नहीं, यह अच्छी सुगंध का कथन हुवा. अब दुर्गंध का करते हैं. साप का मृत शरीर, - वैसे ही घोडा, हायी, गाय, बिल्ली, कुत्ता, शगाल, मनुष्य, मार्जार, सिंह, दीपिका का मरा हुवा, दुर्गंध. मय ऐसा मडा की गंध तथा ऐसी अन्य भी अमनोज्ञ दुर्गध आवे तो उन पर रुष्ट होवे नहीं यावत् बन्द्रयों के विषयका रुंधन कर धर्म का आचरण करे॥१७॥चैथी भावना-जिन्हेन्द्रियमे आस्वादन किये हुवे मनोज रस में आसक्त बन नहीं. वैसे रस का स्वरूप कहते हैं-प्रधान विविध प्रकार के पानी, भोजन, गुड का बनाया, सकर का बनाया, तेल का बनाया, घृत का बनाया, वणादि से संयुक्त विविध बास्त्रमचारी मुनि श्री अमोलस ऋापन - *पकाचाक-राजाबहादुर लाला सुखदवमहायजा ज्वालामसादमी*
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________________ दशमान-प्रश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय संवरद्वार - मजिय निट्ठाणग द लियंबसेहंब दुइदहिसरयमज्जबर बारुणीसहका पिसायण साकटारस बहु प्पगारेसु भोयणेसु मणुण्ण गंध रस फास बहु दव्यसंभिएसु अण्णेसुए एवमाइए रसेसु मणुण्ण भद्दएस नतेसु समणेणं नस जियव्वं, जाव नसइच मइंच तत्था कुज्जा, पुणरघि जिभिदिएण साइयरसाई अमणुण्ण पावगाइ, किं ते अरस विरस सीय लुक्ख निजप्प पाण भोयणाई दोसीय वाण्ण कुहिय पूहिय अमणूण्ण विण? सुय 2 बहु दुभिगंधाइ तित्तकडुय कसाप अंबिलरस लिंड नीरसाइं अण्णेसुय एवमाइएसु अमणुण्ण पावएसु नतेसु समणेण सियव्वं जाव चरेज धम्म // 18 // प्रकार के भोजन, मधु, मांस, मदिरा, बहुमूल्प का बनाया हुवा द्रव्य, बड़े घोल, वडे दुध, दधि, सरका मधु, मदिरा, सिन्धुढा, कापी रूनी, शाक, अठारह प्रकार के पाक, भोजन के मनोरम गंध रस और स्पर्श बहुत द्रव्य से संयुक्त और इस प्रकार के अन्य कल्याणकारी मनोज्ञ रस में आसक्त होवे नहीं यावत् उस में गति करे नहीं. यह अच्छे रस का कथन कहा, अब खराब रस का कथन करते हैं-रस रहित, विगहारसवाला ठंडा लुखा दुवा अविधी से निपजाया हुआ, भोजन, चपन, सडाचा, कीडे पडा हुआ, अमनोत्र, खराव बहुत प्रकार की दुर्गंध मय, तीखा कदुमा, कसायला, अम्बट, खराब स, निरस इत्य.दि अमनोज्ञ पाप कारी रस में शेष करे नहीं यावत् वर्ष में विचरे. // 18 // 44 निष्परिग्रह नामक पंचम अध्ययन 481 4
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________________ 4अनुवादक-बालत्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पंचमां फासिदिएणं फासिय फासाई मणुण्ण भगाई, किं ते दग मंडवहारसेय चंदण सीयल विमल जल विविहकुसुम सत्थरओ सीर मुत्तिंग मुणाल दोसिणापेहुण उक्खेवग तालियंट बीयणं गजणिय सुइसीयलेय पवणे, गिम्हकाले समए सुहफासाणिय बहाणसयणाणिय आसणाणिय पोरणगुणेय सिसिरकाले अंगार पतावणाय . आयव निहमउय सीय उसिण लहुयाय जेउडु सुहफासा, अंगसह निव्वुइकराए, अण्णस्य एवमाइएसु फासेसु मणुण्ण भद्दएसु न तेसु समणेण स. जियवं. नरजियव्वं नगिझियव्वं नमुज्झियव्वं नविनिग्याए मावजियव्वं नलाब्भयव्यं नतूमियत्वं, नहसियन्वं नसइंच मइच तत्थकुजा // पुणरवि पांचवी भान-पानी के फुवो, पुष्प दक के हार, श्वेत चंदन शील निर्मल, विविध प्रकार के पुष्प, बिछाये हुए. मुक्त फल, कमल की नाल, च पवा. सुम्वकरी वन, ग्रीष्मऋतु के मुखकारी स्पर्श, विविध प्रकार की शैय्या, आसन शत कालमें उन के वस्य. आग्न से शरीर का सपाना, सूर्यके कारण पाना, तेलादिकका मर्दन, कोमल, टंडा, गरम, हलका, सुबकारी शरीर का स्पर्श. अंग व वित्त को ममाधि करनेवाले, और भी अन्य मनेज स्पर्श का अनुभव होवे तो उस में आसक्त होवे नहीं, रक्त होवे नही, गृद्ध होवे नहीं, गुप्ती की घात करे नहीं, तुष्ट हुवे नहीं, रुष्ट हो नी, अपनी मतिको प्रेरणा करे नहीं, यह अच्छे स्पर्श का कथन हुवा. अब दुष्ट स्पर्श * काशक राजाबहादुर ळाला मुखदवसहायजो ज्वालाप्रसादजी *
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________________ देशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सूत्र द्वितीय-संचरद्वार 4.1 फासिदिएणं फासिय फासाइं अमणुण्ण. पावकाई किं ते. अणेग . बह बंध: / / तालणाकण्ण अइभाररोहणं, अंगभंजण, सूइंनक्खवप्पवेसगाय पत्थण लक्ख रस खार तेल्ल कलकल तओय सिंसक काललोह सिंचण हडिबंधण रज्जुनिग्गल संकल, हत्थंडुय, कुंभीपाक दहण सीहपुछणउबंधण सूलभेयगय चलण मलण कर चरण कन्ननासोट्ट सीस छेयण, जिन्भयण वसण नयण हियय दंत भंजण, जोत्तलय कसप्पहार पायपण्हि जाणुपत्थर निवाय पीलणकवि कत्थु अगणि विच्छयडं कवातयवदंतमसग निवाए दुनिसिज्ज दुन्निसीहिया कक्खड गुरु सीय उसिण का कथन करते हैं. अनेक प्रकार के रस्सी अ दिने बंधना, दंडा दिसे प्रहार करना, ताडना करना, त्रिशूलादि चिन्ह करना, बहुत भार भरना,अंगोपांग का छेदन करना, सूइ नखें में प्रवेश करना, तीखारस क्षार, तेल कलकलता गरम किया तरुआ सीसे को गरम कर उस से शरीर का संचन करना, खोडमें। डालना, लोहकी मंडी में हाथ पाँव डालन', कुंभीपाक में पचान, इन्द्रियका छेद करना वृक्ष से लटकाना शूलीसे शरीर मेदना, पगनीचे ममलना, हाथ पंव कान अष्ट मस्तक जिव्हा और पुरुष चिन्हका छेद * करना, आँखो फेडना, नाक तोडना, कम्बा से प्रहार करना, जूते से मारना, घूटना तोडना, अभि में जलाना, घ.नीपीलना, बिच्छु कुटाना, अग्निपर सुला ग, अताप में खड़ा रखना, देशमच्छरादि कटवाना, 2. निष्परिग्रह नामक पंचम अध्ययन 42*
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________________ बनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिणी - लुक्खसु बहु विहेसु अण्णेसुय एवमाइएसु फासेसु अमणुण्ण पावगेसु गतेसु समणेणं रुसि-यन्वं महीलियम्वं जनिदियध्वं नगरिहियन्वं नखिसियव्वं न दियध्वं नर्भिदियध्वं नवहे. यव्वं नदुग्गंछावत्तियव्वं लाभाउप्पाएओ,एवं फासिदिए भावणा भावितो भवइ अंरप्पा मण्णुणामण्णुसेस साब्भ दुन्भि रागदोस पणाहयप्पा साहु मणवयण कायगुत्ते संवुडेपेणिहि इंदिए चरिजधम्मं // 19 // एवमिणं संवरस्स दार सम्मं संवरिय होइ सुप्पणिहिय इमेंहिं पचहिंवि कारणेहिं मण वयण काय परिरक्खिएहिं निच्चं आमरणंतंच एस जोगो नेयव्यो धिइमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपारसाइ असंकिलिट्टो सुहो, सव्वजिण मणुण्णाओ // एवं पंचमं संवरदारं फसियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं खराब स्थान व आसन की प्राप्ति होना, कर्कश, कारी, शीत, उष्ण, रूस, इत्यादि बहुत प्रकार के अमनोज्ञ स्पर्श में दोष करना नहीं, हीलना करना नहीं, निंदना नहीं, गहना करना नहीं, खिमना करना न छेदन भेदन करना नहीं, दुगंछा उत्पन्न करना नहीं, यो स्पर्शेन्द्रिय की भावना मे अंतगत्मा को भावता हुवा मनोज. अमनोझ, अच्छे बूरे में साधु रागद्वेष करे नही पन वचन आर काया के योग को गोपकर इन्द्रियों का संवर कर धर्म में विचरें // 19 // यह संघर द्वार सम्यक् प्रकार से संबर ता हुन। उक्त पांच प्रकार से इस की रक्षा करता हुवा सदैव जीवन पर्यंत इस को पसे, यो धूति पाना, मसिप न, अनावी, अकलुशता परिणामी, अछिद्री और सवर द्वार के साधक साधु लिएता। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी *
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________________ 227 देशमाङ्ग-मनष्याकरण भूत्र-द्वितीय संबरद्वार अणुपालियं अणाए आराहियं मवइ, एवं नायमागिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्विवरं सासणमिणं अघवियं सुदेसियं पसत्थं, पंचमं संवरदारं सम्मत्तं त्तिबामे // इति पंचम संवर दार अज्झयणं सम्मत्तं // 5 // . . // उपसंहार // एयाइं वयाइं पंचविसुव्वय महन्वयाई हेउ सय विचित्त पुक्खलाई कहिया अरिहंतसासणे पंचममासेणं संवरा वित्थरेणउ प्पणवसिइ सीमइ सहियं सबुडे, सया जयण घडण सुविसद्ध दंसणो, एए अणुचरिय संजए चरिम सरीर.. धरे भाविस्सइति // पण्ह वागरणेणं एगसुयक्खंधो दस अज्झयणं एकं सरगा रहित शुद्ध जिनाज्ञ नुसार पाले, इस प्रकार पांचग संवर द्वार को पाले, स्पर्श, शुद्ध, रखे, पार पहुंचने की युक्त आगधे वह जिन ज्ञाका आराधक होवे, ऐसा ज्ञात नंदन श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामीने प्ररूपा हैं, प्रसिद्ध किया है, सिद्ध गति देने वाली प्रधान हित शिक्षा दी है. is और यह प्रशस्त है. यह पांचवा मंबर द्वार जैसे मैं ने श्री श्रमण भगवान महावी स्वामी से सुना वैती तुझसे कहा है. यह पांचवा संवर द्वार संपूर्ण हुग // 5 // * * "}, उपसंहार-उक्त पांच सुव्रत महाव्रत अनेक प्रकार के हेतु से विस्तार युक्त निर्दोष कहे हैं. अरिहंत के शासन में पांच प्रकार के संबर की विस्तार पूर्वक 25 भावना कही है. इस से संयुक्त बनकर प्राप्त संयप की यत्वा और असंभात हानादिक्की विशुद्धता दर्शन से प्राप्ति करना. इस अनुसार चलनेशला समिति युक्त +साधु परिम शरीर भाराधक होगा. अर्थात् उस ही भव में मोक्ष प्राप्त करेगा। इस प्रश्न व्याकरण सूत्र का > निष्परिग्रहनामक पंचम अध्ययन 46+
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________________ 228 दससु. चेव दिवसेसु उद्दसिजंति एकं तरसु अबिलेसु निरूद्धेसु आउत्त भत्तपाणएणं अंग जहा आयारस्स // इति पण्णवागरण सुत्तं सम्मत् // 11 // * * एक ही श्रुतस्कन्ध और दश अध्ययन, एक ही स्वर से दश दिन में उद्देशना, उस वक्त एकान्तर उपवास करना या आयंबिल करना. या अंत प्रान्त आहार करके उद्देश करना. जैसे आचागंग है तैसे यह भी अंग है. इते मंवर द्वार संपूर्ण. इति प्रश्न व्याकरण सूत्र संपूर्ण हुवा // 11 // * // इति द्वितीय संवर हार संपूर्णम् // 43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी वालाप्रसादजी* ....... ........ भर .......... // इति दशमाङ्ग // ॥प्रश्नव्याकरण सूत्र समाप्तम् // A .............. वीराब्द-२४४५ श्रावण शुक्ल रविवार 90ROINDIA 11.777TH . HTS 88
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________________ 9084010604.168.46666666." RREGURelgaoiskedISCLASS 46466666666.66.6 SHARM Adaesedias TV.08 शास्त्रोद्धार प्रारंभ वीराब्द 2442 ज्ञान पंचमी इति USEGIRELE FREE AUNT NISION -Rs NTUNTUN NJASTUNT प्रश्नव्याकरण सूत्र बाप मुअल RECE6-6 समाप्तम् शात्रोद्धार समाप्ति वीराब्द 2446 विजयादशमी DANOGRIDASISA GICIPASANA