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________________ 6 - - दशमान प्रश्नकरण सुष-प्रथम-आश्रवद्वार मेकं, मणुयगणा वानाय पक्खियाविरुझंति, मित्ताणि खिप्पं भवंतिसत्तू समए धम्म गणेय भिंति परदरिधम्मगुणरयाय बंभयारी, खणेण उलोटपचरित्ता भो, जसमंतो सुव्वयाय पावंति, अयसकिति रोगत्ता बाहिताय वहृत, रोयवाही दुवेयलोथ, 113 दुराराहगा भवति, इहलोए चेव परलोए, पररसदाराओजे अविश्या, तहेवकेइ परस्स दारं गवेसमाणा गहिताय हताय बद्धरुद्धाय एवं जाव गच्छति विपुल मोहाभिभूय सण्णा, मेहुण मूलंच सुव्वए // 9 // तत्थ 2 वत्त पुवासंगामा-१ जणक्खयअथवा अपने मंतःनों की घात करते हैं. मनुष्य पक्षि भी परस्पर युद्ध करते हैं, मित्रों में परमार वैर भाव र उत्पन्न होता है, परदारा में लुब्य जीव सिद्धांत के प्ररूपित चारित्र रूप मूल गुग का भेद करते हैं. श्रुत चारित्र धर्म में रत जीव स्त्री संग से क्षण मात्र में भ्रष्ट बनजाते हैं. सत्र सम्यक्त्वी सुवाी भी स्त्री संग से अकीर्ति व अपयश को प्राप्त होते हैं. व्यभिचारी का शरीर गाधिप्रस्त कता है. फीर व्याधि से पराभूत बने हुए मृत्यु के मुख में पड़ते हैं वैसे ही पर स्त्री गमन करनेवाले कितनेक पकडा कर मारेंगये हैं. बंधन में पड़े हैं. इस प्रकार यावत् विस्तीर्ण मोड के सन्मुख ** दुर पोहो पाएमा पार हुए जीवों दुर्गति के अधिकारी बनने हैं // 9 // अब त्रियों के लिये पूर्व कालमें जो / अब्रह्मनये नायक चतुथ ययन + [
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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