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________________ देशमाङ्ग प्रश्नकाकरण सून-थ- श्रद्वार तंच पुण करंति केइपावा--असंजया, अविरया; आणिहुय परिणाम,दुःपयोगी, पाणवहं / / भयकर, बहुविह, * बहुप्पगारं, परदुक्खुप्पायणप्पसत्ता, इमेहिं तसथावरेहिं जीवहिं पडिनिविट्ठा // किंते पाठीण, तिमिति मंगल, अणेगझस, विविह 'जाति, मंडक्क दुविह कच्छभ, णक, मगर दुविह गाहदिलिवेढय, मंडुय, सीमागार,पुलय, सुसुमार, बहुप्पगा। जलयर विहाणाकएय एवमाइ // कुरंग, रुरु, सरभ, चमर, संबर, उरभ, ससय, पसय; गोण, रोहिय, हय, गय, खर, करभ, खग्ग, वानर, गवय; विग, सियाल, कोल, मज्जार, कोल, सुणग, सिरि, कंदलगावत्त कोकतिय, गोकण्ण सो कहते हैं. कोई पापी असंयति, अविरति, अनुपशांत परिणाम वाले, और मन वचन काया के दुष्ट योगों की प्रवृत्ति कराने वाले, यहा अनेक प्रकार के महा भयंकर प्राण वध करते हैं. अन्य जीव को दुःख देने में तत्पर रहते हैं,और इन त्रस स्थावर जीवों साथ स्वभाब से वैर रखने वाले कितनेक जीव हैं सोकहते मत्स्य, बडे मत्स्य, विविध प्रकार के मत्स्य, छोटे मत्स्य, दो प्रकार के मेंडक, काच्छवे, नक, मकर." दो प्रकार के ग्राहक, दिलिपेढक,मण्डूक,सीमाकार ग्राह, पुलक, सुसुमार यों अनेक प्रकारके जलचर जीवों जानना. *अब स्थलचर के नाम कहते हैं-मृग; अष्टापद, सरभ, चमरीगाय, सांबर, गाडर शशले, पशु, गोधा, रोहित, अश्व," गज,खर, करम, ऊंट, गेंडा, वंदर, गवय, अगालक, कोल्ला, मार्जार, सूअर, श्वान, श्रीकंदलक, आवर्त एक 418 हिंसा नामक प्रथम-अध्ययन 4.1
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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