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________________ 4. 181 ॥२॥मिय आराहियं चयमिणं,सच्चं साँलं तो विणओय संजमोय खंती गुत्ती मुची, तहेव इलोइय परलोइय जसोय कित्तीय पचओय तम्हानिहुएणं बभचेरचरियव्वं,सवओ विसुदं जावजीवाए जाव से अढि संजओति एवं वयं भणियं भगवंत संचम॥३॥गाथा॥पंच क महन्वय सुव्वयमूलं, समणमणाइल साहुचिण्णं // बेरवेरमण पज्जवसामं सवसमुद्द महादहितित्थं // 1 // तित्थं करेहिं सुदेसिय मग्गं, नरगतिरित्थ विवज्जिय मग्गं // मर्थ भी कर्म रूप शोका पगभव करने प्रधान हेता है, यह बत्तीस प्रकारकी उत्तम उपमामे ब्रह्मचर्यव्रत आहीन अ प्रतिपूर्ण होताहै.॥२॥ जिसने केवल एक ब्रह्मचर्य व्रतकी आराधनाकी है उसने हिंसादि सब व्रत की, बारह प्रकारके तपकी, दश प्रकारके विनयकी, सतरह प्रकार के संयमकी क्षमांदि दशधर्म की, मन वगैहर तीन गुप्त मुक्तिकी तथा इसलोक परलोक और यश कीर्वि की आराधना की है. उक्त सब कतव्यों से ब्रह्मचारी विश्वासनीय है इस लिये निश्चलपने सब प्रकार से मन वचन और काया के योगों की विशुद्धता पूर्वक जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना / 3 // पांच महा व्रत और अणुव्रत गुणवतादि के मूल भूत ब्रह्मचर्य है.. इस का आचरन श्रेष्ठ गुणवाले साधुओंने किया है. यह ब्रह्मचर्य व्रत वैर विरोध उपशमाने में पर्यवसान / ॐ रूप है. और सब समुद्र में महोदधि के तीर्थ-कीनारा रूप है // 1 // इस ब्रह्मचर्य रूप मुकि पथ का चार्यकर भगवान ने अच्छा उपदेश दिया है. यह नरक और तिर्यंच यों दोनों गति का मार्ग का निधन दशमान प्रश्नव्याकरण मूत्र-द्वितीय-संवरद्वार 48 ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ अध्ययन - -
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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