________________ पजत्त भपज्जतग एवं जाव परियति, दीहमदं जीवा लोभवमं संन्निविट्ठा // 8 // एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो, इह लोइओ परलोइओय, अप्पसुहो बहु दुक्खो महन्भओ बहु रयप्पगाढो, दारुणो, ककासो, असाओ, वास सहस्सेहिं मुच्चतिनय अवदइत्ता, अत्थिहुमोक्खोति // एवमहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणोआवीर वरणावधेजो, कहेमीय, परिग्गहस्स फल विवागं // 9 // एसो सो परिग्गहो पंचमी नियमा णाणामणिकणगरयण महरिह, एवं जाव ३मस्स मोक्खवर मुत्तिमगारस फलीहभूतो चरिमंअहमदार सम्मत्तं, तिमि॥इति पंचम अहम्म दार सम्मत्तं // // * रूप दीर्घ अधि में परिधान कराने वाला है // 8 // इस तरह के परिग्रह से सांचेन किय हुए कों का फल विधाक इस ले क और परलोक में अल्पसुख और बहुत दःख देनेवाल होता है. पहा भय का कारन है, कर्म रूप रज मे प्रकृष्ट सघन भरा हुवा है, दारुण, रौद्र, कर्कश और असाता का कारन है. हजारों वर्ष में भी विना भोगवे नहीं छूट सके वैसा है, ऐसा फल विपाक ज्ञात कुल नंदन श्री महावीर स्वामी ने कहा है // 9 // यह परिग्रह निश्चय म पांचवा आश्रन द्वार है. अनेक प्रकारसी मणि सुवर्ण रत्न यह मून्य वस्तु ममत्वाला है यावत् प्रधान मोक्ष मार्ग का रूंधन करनेवाला है. यह चरिम आश्रव द्वार पूर्ण वा. यह आश्रय द्वार जैसा मैंने महावीर स्वामी से सुना है वैसे ही तेरे से कहता हूं. यों पांचवा परिग्रह नामक आश्रव द्वार सं aanwromanmarvadnnn अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिकी * प्रकाशक-गनावहादुर लाला सुखदेवसहायजा ज्वल,प्रसादजी * - . mar // 6 //