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________________ 4.1 my 121 12tki hek-tre // उपसंहार // गाथः-एएहि पंचहिं असवरेहि, रयमादिणीतु अणुसमयं // चउविहंगइ पेरतं, अणु परियति संसारे॥१॥सनगइ पक्खंदे, काहित्ति अणंतए अकय पुण्णाजेय नसुणंतिधम्म, सोऊणयजो पमायंति॥२॥अणुसिटुिंपि बहुविहं, मिच्छट्ठिीया जेनरा अहम्मा [पा० अबु हीया // बनिकाइय कम्मा, सुगंति धम्म नय करोतिति // 3 // किंसक्काकाउंजे, है इन पांचों आश्रय द्वार के उपसंहार रूप पांच गाथा कहते हैं-यह पूर्वोक्त पांच आश्रा द्वार रूप रज से नर्मल, आत्ता मलिन होता है. प्रति समय बहुन कर्मों की उपार्जना होती है. और इस से चारों गति में अनुक्रम से जीव परिभ्रमण करता है // 1 // जो जीव इस प्रकार का धर्म श्रवण नहीं करते हैं। अथवा मुनकर प्रमाद का आचरन करते हैं वे सब गति में ग्युचानेवाले पांचों आश्रव का रुंधन नहीं करने की से अनंत मंमार में रुलते हैं // 2 // विविध प्रकार से समजाई. हुई गुरु की हितकारी शिक्षा भी मिथ्य दृष्टि *अधर्मी निकाचित काँका बंध करनेवाले को अनसुनी होती है अर्थात् वे सुनकर भी आश्रावक त्याग नहीं करते 17 हैं // 3 // जो व्याधिग्रहस्त पुरुष औषधि लेघे नहीं तो वैद्य उसकी व्याधि कैसे दूर कर सके, वैसे ही 48game उपसंहार h ekk- - -
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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