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________________ 48 को - दशमाङ्ग-प्रश्नव्याकरण सत्र प्रथम-आश्रवद्वार +BP विपुलवेल हिंसाअलिय अदत्तादाण मेहुण परिग्गहारंभ करणकारावण णुमोदण, अटू वह अणिटकम्म पिडिय गुरुभाराक्त दुगाजलांघदूर निबोलिज्जमाण उम्मग्गनिमगा दुल्लहतलं सारीरमाणोसयाणि दुक्खाणि उप्पियंता सायसाय परितावणमयं उबड निव्वुडयं करेत्ता चउरत महंत मणवयग्गरुदं संसार सागरं अट्ठिय अणालंवणं पतिट्ठाणं मप्पमेयं, चुलसीइ जोणिसयसहस्स गुन्विल अणालोक मंधकारं अणंतकालंनिचं उत्तत्थ पुण्णभयसाण संपउत्ता, संसार सागरंवसांत उविग्गावासवसहिं जहिं 2 रूप अंधकार से ब्याप्त अनंत काल से नित्य उत्पन्न भय के स्थान संयुक्त संमार सागर में aan रहते हुए जीवों उद्वेग मय बनते हैं. ऐसे संसार सागर में रहने वाले जी जहां 2 रहते हैं. वहां 2 पापकारी आयुष्य का बंध करते हैं. सर्व स्थान बंधुजन, मित्र स्वजन वगैरह से वर्जित रहते हैं. सब को अनिष्ट और अप्रिय होते हैं. उन के वचन कोई मान्य नहीं करता है. वे सदैव अविनीत रहते हैं. उन का रहने का स्थान भी दुष्ट होता है. शयन स्थान भी खराब, भोजन भी खराब, सदैव अशुचिमय / खराब संघयन वाले, खराब संस्थान वाले, कुरूप, बहुत क्रोधायमान माया और लोभयुक्त, बहुत मोहयुक्त धर्म ज्ञान रहित, सम्यक्त्व से भ्रष्ट, दरिदि, दुर्भागी, परिश्रम करने पर भी आजीविका नहीं चलसके से दूसरे के पिण्ड ताकने वाल, दुःख से आहार प्राप्त करने वाले, रस. विना का तुच्छ आहार से अदत्त नामक तृत मर्थ अध्ययन +8 +8+ -
SR No.600304
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
Publication Year
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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