________________ श्री अमालक ऋषि मर्थ | अक्खयखातिय पीतडाइणि भमंत भयकर जंबूयखिक्खियत्ते घुयकय घोर सद्दे, वेतालुट्रित, निसुद्धकह कहय, पहमिय विहणगं निरभिरामे, अतिदभिगंधे विभत्थ दरसणिज्जे समाणे वण सुण्णघरलण अंतरावण गिरिकंदर विमम सावय समाकुला सुवमहीसु किलिस्मंता सीतातव सोसिय सरीरदद्वच्छवि निरय तिरिय भवसंकडं दुक्खसंभार वेदणिजाणि पावकम्माणि संचिणंता दुल्लभ भक्खण पाणभोयण पिवासिता झुजिता किलतामंस कुणिम कदमूल जंकिंचि कयाहार, उद्विग्गा ओप्फंता असरणा अडविवास उर्वेति, के शरीर के द्रव्य हरन करे, अक्षतादि मंडल में स्थापन किया द्रव्य का हरन करे, पडे हुए द्रव्य का हरन करे, डाकिनी से पीया हुवा रुधिरवाला मनुष्य का द्रव्य हरन करे, शृगाल का भक्षण करनेगले मनुष्य का द्रव्य हरन करे. ती हास्य करनेवाले का, यू थू थूकनेवाले का, घोर रौद्र शब्द करनेवाले का. वैतालिक विद्या के माधक का और खराब कथा करनवाले का द्रव्य हरन करे, भान विना हसनेवाले सुख रहिन-दःखी जीवों का द्रव्य हरन करे. अति दुर्गधपय स्थान में विभत्स स्थान में, स्मशान में, शून्य गृह में, गृहों की गल्लियो में, पर्वत पर, पर्वत की गुफाओं में, पशुने मनुष्यादि पारे होवे वैसे विषम स्थान में, मिह व्याघ्रादिक के भयंकर स्थान में, क्लेश पाता हु। शीत ताप सहन करता हुवा, नरक के सेंकडों दुःख वेदता हुवा, पाप कर्म बांधना हुना, उत्तम खान पान रहित, द्रव्य का पिपामु बना हुवा, झूझना व खेदित हाता हुग मांस, कूणिम, कंदमूल इत्यादि का अ.हार करता हुवा उद्वग्न बना हुवा, शरण रहित *प्रकाशक-राजाबहादुर लाळा मुखदव सहायजी उचालाप्रसादजी* 4. अनुवाद क-बाबम