________________ संजोगमणिग्गलं विगयधूम, छट्ठाणानिमित्तं, छक्काय परिक्खणट्ठा दिमणिष्ण फासुकण भिक्खेण वटियम् // 8 // जंपिय समणस्स सुविहियस्सउ रोगायके बहुप्पगारं मिसमुप्पन्ने, वायाहिक पित सिंभ अरित्त कुविथ, तह संणिवाय जातेव उदयपत्ते उज्जलबल विउल कक्खड पगाढ दुक्खे,असुभ कडुय फरुस चंड फल विवागो, महब्भय जीवियंतकरणे, सव्वसरीर परितावणकरणे नकप्पई तारिसेवि तह अप्पणी परस्सव ओसह भेसज्ज, भत्तपाणंच तपि संण्णिहिकय॥९॥जपिय समणस्स सुविहिहियस्स तओपडिग्गह पंथ साधने, संयम पालने. प्राणियों की रक्षा करने, और धर्म चितवन करने, इन छ कास्न से अहार करे. और षट् काया के जीवों की दया पालना और प्रति दिन अलगर बहुत घरों की भीक्षा करके आहारे लेना. // 9 // किसी माधु को मारणांतिक सनीपात रोग उत्पन्न होवे, वायु के प्रकोप से शरीर कंपने लगे तैसे वायु कफ पित्त इत के संयोग से सत्रिपात की उत्पत्ति होवे, वेदनीय कर्म के उदय से अति उज्वल बल विस्तीर्ण कठोर महा दुःख वाला. अशुप कडुये फल दायक, रौद्र, भयंकर, महा 2 JEभय करने वाल भीषितव्य का अंत करने बाला, नख से शिखा पर्यंत सत्र शरीर में परिताप करने में व ले रोग होवो तो भी उन को अपने लिये या अन्य साधु के लिये औषत्र, भेषज्य तेलादि वगैरह " अथवा आहार पानी इत्यादि अपन, नेश्र य में रात को रख // नहीं कराता है. // 9 // मधु को। दशमङ्ग-पश्नव्याकरण सूत्र द्वितीय संवर द्वार M:-निष्परिग्रह नामक पम अध्ययन 10 .