________________ अह कैरिसयं पुणो त कप्पइ जं तं एक्कारसं पिंडवाय सुद्धं किण्णणहणण पवण कयकारियाणु मायणा नवकोडीहिं सुपरिसुद्ध, दसहिय दासेहिं विप्पमुक्कं उग्गमु___प्पायणे सणाए नवकोडीहिं सुपरिसुद्ध; ववगय चूयचवियं चत्तदेहंच फासुधंच, वगय अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + - दोष युक्त आहार लेना साधु को नहीं कल्पता है // 7 // अब शिष्य प्रश्न करता है. कि साधु को कैमा आहार लेना कल्पता है ? उत्तर-आवारांग. सूत्र के दूसरे श्रुप्त स्कंध में अग्यारहवे पिण्डैषणा अध्ययन में आहार लेने की विधि बत इहै उस अनुसार दोष रहित आहार ग्रहण करना. और भी विशेष कहते हैं-स्वयं मोल लेवे नहीं, अन्य के पास मोल लेवावे नहीं, लेनेवाले को अच्छा जाने नहीं, षट्काया की घान करे नहीं, अन्य से घात करवावे नहीं और घात करनेवाले को अच्छा जान नहीं, आग्नि आदि से स्वयं पकावे नहीं, दूसरे से पकवावे नहीं, पकाने वाले को अच्छा जाने नहीं, यो नव कोटि विशुद्ध शंकितादि दश दोष रहित, उद्गमन क 16 और उत्पात के 16 यो 32 दोष रहित, देह की ममत्व के त्यागी, फासुक दिोष, आहार ग्रहण करे. मनजें वस्ती का संयोग मीडाना, अच्छे आहार की प्रशंसा करना. यह इंगाल जैमा सयम बन ता, है और खराब अहार की निंदा कर ग,यह धूम्र नैसा संयम बनाना, है इन दोषों रहित. शुधा वेदनीय उपशमाने, वैयावृत्व करने, ईर्या भकाशक-राजाबहादुरलाला मुखदवसहायजी मालाप्रसारजी * 4