________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी - तिरिय नर अमर गमण पेरंत चक्कवालं जम्मण जरा मरण करण गंभीर दुक्खप..क्खभिय पउर सलिलं संजोगवियोगवीचिंता पसंगासरिय बहबंधमहल्ल विपुल कल्लोल कलुणविलवित लोम कलकलंतबोल बहुलं, अबमाणण फेण तिव्व खं सण पुलंपुलप्पभूयरोग वेयण परभवविणिवाय फरुमधरिसण समवाडय है कठिण कम्मपत्थर तरंग रंगतं निच्चमच्चु, भयतोयपटु, कसाय पायाल संकुलं भवसयसहस्स जलसंचयं अणंत उव्वेवणयं अणोरपारं महब्भयं ___ भयंकर पयिभयं अपरिमिय महिच्छ कलुसमति वाउवेगओधम्ममाणा आसापिनक तिर्यच मनुष्य और देवता चार गति रूप संसार समुद्र में पर्यटन करता हैं. अब संमार समुद्र का वर्णन कहते हैं. यह संसार समद्र जन्मजग मृत्युरूप कर गंभीर है, दुःख रूप क्षुब्ध प्रचूर पानी मग हुबा है. इस में संयोग वियोग रूप विचित्र तरंग उठती है. चिंता आर्त रूप सरिता आती है, बधी , प्रबंधन रूप बडी कल्लोल हैं. करुणा जनक विल प, लोभ रूप कलकलित शब्द, और अपमान रूप फैन ह तीव्र खिसनापना, पुलपुलित, निरंतर बेदना और अन्य का किया हुवा अपयश और भन रूप पानी का निपात अ है. फहश कठोर वनान निर्भत्सना से ज्ञा-बरणीय कर्म के बन्ध रूप पर्वत हैं, मृत्यु के भय रूप पानी का ऊपर का भाग है, चार काय रूप चार पाताल कलश हैं, करोडो कल्लोलों में भव सहस्र करना यह पाने का संचय स्थान है, अनंद उद्वेग रूंप अपारपना है, महा भय, प्रतिभय भयंकर अपरामित महा इच्छा तृष्ण / * / * प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवमहायजी माल'प्रसारजी * Anand